सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के छत्तीसवें अध्याय से चालीसवें अध्याय तक (From the 36 to the 40 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

छत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्-त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर का भीमसेन को समझाना, व्यास जी का आगमन और युधिष्ठिर को प्रतिस्मृतिविद्या प्रदान तथा पाण्डवों का पुनः काम्यकवनगमन"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भीमसेन की बात सुनकर शत्रुओं को संताप देने वाले पुरुषसिंह कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर लम्बी सांस लेकर मन ही मन विचार करने लगे,,- 'मैंने राजाओं के धर्म एवं वर्णों के सुनिश्चित सिद्धान्त भी सुने हैं, परन्तु जो भविष्य और वर्तमान दोनों पर दृष्टि रखता है, वही यथार्थदर्शी है। धर्म की श्रेष्ठ गति अत्यनत दुर्बोध है, उसे जानता हुआ भी मैं कैसे बलपूर्वक मेरु पर्वत के समान महान् उस धर्म का मर्दन करूंगा।' इस प्रकार दो घड़ी तक विचार करने के पश्चात् अपने को क्या करना है, इसका निश्चय करके युधिष्ठिर ने भीमसेन से अविलम्ब यह बात कही।

   युधिष्ठिर बोले ;- महाबाहु भरतकुलतिलक वाक्य विशारद भीम! तुम जैसा कह रहे हो, वैसा ठीक है, तथापि मेरी यह दूसरी बात भी मानो । भरतनन्दन भीमसेन! जो महान् पापमय कर्म केवल साहस के भरोसे आरम्भ किये जाते हैं, वे सभी कष्टदायक होते हैं। महाबाहो ! अच्छी तरह से सलाह और विचार करके पूरा पराक्रम प्रकट करते हुए सुन्दररूप से जो कार्य किये जाते हैं, वे सफल होते हैं और उसमें दैव भी अनूकुल हो जाता है। तुम स्वयं बल के घमण्ड से उन्मत्त हो जो केवल चपलतावश स्वयं इस युद्धरूपी कार्य को अभी आरम्भ करने के योग्य मान रहे हो, उसके विषय में मेरी बात सुनो। भूरिश्रवा, शल, पराक्रमी जलसंघ, भीष्म, द्रोण, कर्ण, बलवान् अश्वत्थामा तथा सदा के आततायी दुर्योधन आदि दुर्धर्ष धृतराष्ट्र के पुत्र- ये सभी अस्त्र- विद्या के ज्ञाता हैं एवं हमने जिन राजाओं तथा भूमिपालों को युद्ध में कष्ट पहुँचाया है, वे सभी कौरव पक्ष में मिल गये हैं और उधर ही उनका स्नेह हो गया है। भारत! वे दुर्योधन के हित में ही संलग्न होंगे हम लोगों के प्रति उनका वैसा सद्भाव नहीं हो सकता। उनका खजाना भरा पूरा है और वे सैनिक शक्ति से भी सम्पन्न हैं, अतः वे युद्ध छिड़ने पर हमारे विरुद्ध ही प्रयत्न करेंगे।

   मंत्रियों और पुत्रों के सहित कौरव सेना के सभी सैनिकों को दुर्योधन की ओर से पूरे वेतन और सब प्रकार की उपभोग सामग्री का वितरण किया गया है। इतना ही नहीं, दुर्योधन ने उन वीरों का विशेष आदर-सत्कार भी किया है। अतः मेरा यह विश्वास है कि वे उसके लिये संग्राम में (हंसते-हंसते ) प्राण दे देंगे। महाबाहो ! यद्यपि पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण तथा महामना कृपाचार्य का आंतरिक स्नेह धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा हम लोगों पर एक-सा ही है, तथापि वे राजा दुर्योधन का दिया हुआ अन्न खाते हैं, अतः उसका ऋण अवश्य चुकायेंगे, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। युद्ध छिड़ने पर वे भी दुर्योधन के पक्ष से ही लड़कर अपने दुस्त्यज प्राणों का भी परित्याग कर देंगे। वे सब-के-सब दिव्यास्त्रों के ज्ञाता और धर्मपरायण हैं। मेरी बुद्धि में तो यहाँ तक आता है कि इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते। उस पक्ष में महारथी कर्ण भी है; जो हमारे प्रति सदा अमर्ष और क्रोध से भरा रहता है। वह सब अस्त्रों का ज्ञाता, अजेय तथा अभेद्य कवच से सुरक्षित है। इन समस्त वीर पुरुषों को युद्ध में परास्त किये बिना तुम अकेले दुर्योधन को नहीं मार सकते।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्-ट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद)

वृकोदर! सूतपुत्र कर्ण के हाथों की फुर्ती समस्त धनुर्धरों से बढ़-चढ़कर है। उसका स्मरण करके मुझे अच्छी तरह नींद नहीं आती।

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिर का यह वचन सुनकर अत्यन्त क्रोधी भीमसेन उदास और शंकायुक्त हो गये। फिर उनके मुंह से कोई बात नहीं निकली। दोनों पाण्डवों में इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि महायोगी सत्यवतीनन्दन व्यास वहाँ आ पहुँचे। पाण्डवों ने उठकर उनकी अगवानी की और यथायोग्य पूजन किया। तत्पश्चात् वक्ताओं में श्रेष्ठ व्यास जी युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले।

  व्यास जी ने कहा ;- 'नरश्रेष्ठ! महाबाहु युधिष्ठिर! मैं ध्यान के द्वारा तुम्हारे मन का भाव जान चुका हूँ। इसलिये शीघ्रतापूर्वक यहाँ आया हूं। शत्रुहंता भारत! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन और दुःशासन से भी जो तुम्हारे मन में भय समा गया है, उसे मैं शास्त्रीय उपाय से नष्ट कर दूंगा। राजेन्द्र ! उस उपाय को सुनकर धैर्यपूर्वक प्रयत्न द्वारा उसका अनुष्ठान करो। उसका अनुष्ठान करके शीघ्र ही अपनी मानसिक चिंता का परित्याग कर दो। तदनन्तर प्रवचनकुशल पराशरनन्दन व्यास जी युधिष्ठिर को एकान्त में ले गये और उनसे यह युक्तियुक्त वचन बोले,,

   व्यास जी बोले ;- 'भरतश्रेष्ठ ! तुम्हारे कल्याण का सर्वश्रेष्ठ समय आया है, जिससे धनुर्धर अर्जुन युद्ध में शत्रुओं को पराजित कर देंगे। मेरी दी हुई इस प्रतिस्मृति नामक विद्या को ग्रहण करो, जो मूर्तिमयी सिद्धि के समान है। तुम मेरे शरणागत हो, इसलिये मैं तुम्हें इस विद्या का उपदेश करता हूँ। जिसे तुमसे पाकर महाबाहु अर्जुन अपना सब कार्य सिद्ध करेंगे।

   पाण्डुनन्दन। ये अर्जुन दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिये देवराज इन्द्र, रुद्र, वरुण, कुबेर तथा धर्मराज के पास जायें। ये अपनी तपस्या और पराक्रम से देवताओं को प्रत्यक्ष देखने में समर्थ होंगे। भगवान् नारायण जिसके सखा हैं, वे पुरातन महर्षि महातेजस्वी नर ही अर्जुन हैं। सनातन देव, अजेय, विजयशील तथा अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले हैं। महाबाहु अर्जुन इन्द्र, रुद्र तथा अन्य लोकपालों से दिव्यास्त्र प्राप्त करके महान् कार्य करेंगे। कुन्तीकुमार! पृथ्वीपते! अब तुम अपने निवास के लिये इस वन से किसी दूसरे वन में, जो तुम्हारे लिये उपयोगी हो, जाने की बात सोचो। एक ही स्थान पर अधिक दिनों तक रहना प्रायः रुचिकर नहीं होता। इसके सिवा, यहाँ तुम्हारा चिरनिवास समस्त तपस्वी महात्माओं के लिये तप में विघ्न पड़ने के कारण उद्वेगकारक होगा। यहाँ हिंसक पशुओं का उपयोग मारने का काम हो चुका है तथा तुम बहुत से वेद- वेदांगों के पारगामी विद्वान् ब्राह्मणों का भरण-पोषण करते हो (और हवन करते हो), इसलिये यहाँ लता-गुल्म और आषधियों का क्षय हो गया है।

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर लोकतत्त्व के ज्ञाता एवं शक्तिशाली योगी परम बुद्धिमान् सत्यवतीनन्दन भगवान् व्यास जी ने अपनी शरण में आये हुए पवित्र धर्मराज युधिष्ठिर को उस अत्युत्तम विद्या का उपदेश किया और कुन्तीकुमार की अनुमति लेकर फिर वहीं अन्तर्धान हो गये। धर्मात्मा मेधावी संयतचित्त युधिष्ठिर ने उस वेदोक्त मन्त्र को मन से धारण किया और समय-समय पर सदा उसका अभ्यास करने लगे। तदनन्तर वे व्यास जी की आज्ञा से प्रसन्नतापूर्वक द्वैतवन से काम्यकवन में चले गये, जो सरस्वती के तट पर सुशोभित है। महाराज! जैसे महर्षिगण देवराज इन्द्र का अनुसरण करते हैं, वैसे ही वेदादि शास्त्रों की शिक्षा तथा अक्षर ब्रह्मतत्त्व के ज्ञान से निपुण बहुत-से तपस्वी ब्राह्मण राजा युधिष्ठिर के साथ उस वन में गये। भरतश्रेष्ठ ! वहाँ से काम्यकवन में आकर मंत्रियों और सेवकों सहित महात्मा पाण्डव पुनः वहीं बस गये। राजन्! वहाँ धनुर्वेद के अभ्यास में तत्पर हो उत्तम वेद मन्त्रों का उद्घोष सुनते हुए, उन मनस्वी पाण्डवों ने कुछ काल तक निवास किया। वे प्रतिदिन हिंसक पशुओं को मारने के लिये शुद्ध (शास्त्रानुकूल) बाणों का शिकार खेलते थे एवं शास्त्र की विधि के अनुसार नित्य पितरों तथा देवताओं को अपना-अपना भाग देते थे अर्थात् नित्य श्राद्ध और नित्य होम करते थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में काम्यकवनगमन विषयक छत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

सैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन का सब भाई आदि से मिलकर इन्द्रकील पर्वत पर जाना एवं इन्द्र का दर्शन करना"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- नरश्रेष्ठ जनमेजय! कुछ काल के अनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर को व्यास जी के संदेश का स्मरण हो आया। तब उन्होंने परम बुद्धिमान [अर्जुन] से एकान्त में वार्तालाप किया। शत्रुओं का दमन करने वाले धर्मराज युधिष्ठिर ने दो घड़ी तक वनवास के विषय में चिन्तन करके किंचित् मुसकराते हुए अर्जुन के शरीर को हाथ से स्पर्श किया और एकान्त में उन्हें सान्त्वना देते हुए इस प्रकार बोले

   युधिष्ठिर ने कहा ;- भारत ! आजकल पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण और अश्वत्थामा- इन सब में चारों पादों से युक्त सम्पूर्ण धनुर्वेद प्रतिष्ठित है। वे दैव, ब्राह्म और मानुष तीनों पद्धतियों के अनुसार सम्पूर्ण अस्त्रों के प्रयोग की सारी कलाएं जानते हैं। उन अस्त्रों के ग्रहण और धारणरूप प्रयत्न से तो वे परिचित हैं ही, शत्रुओं द्वारा प्रयुक्त हुए अस्त्रों की चिकित्सा (निवारण के उपाय) को भी जानते हैं। उन सबको धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने बड़े आश्वासन के साथ रखा है और उपभोग की सामग्री देकर संतुष्ट किया है। इतना ही नहीं, वह उनके प्रति गुरुजनोचित बर्ताव करता है। अन्य सम्पूर्ण योद्धाओं पर भी दुर्योधन सदा ही बहुत प्रेम रखता है। उसके द्वारा सम्मानित और संतुष्ट किये हुए आचार्यगण उसके लिये सदा शांति का प्रयत्न करते हैं। जो लोग उनके द्वारा समस्त समय पर समाहत हुए हैं, वे कभी उसकी शक्ति क्षीण नहीं होने देंगे।

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   पार्थ! आज यह सारी पृथ्वी ग्राम, नगर, समुद्र, वन तथा खानों सहित दुर्योधन के वश में है। तुम्हीं हम सब लोगों के अत्यन्त प्रिय हो। हमारे उद्धार का सारा भार तुम पर है। शत्रुदमन! अब इस समय के योग्य जो कर्तव्य मुझे उचित दिखायी देता है, उसे सुनो! तात! मैंने श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी से एक रहस्यमयी विद्या प्राप्त की है। उसका विधिवत् प्रयोग करने पर समस्त जगत् अच्छी प्रकार से ज्यों-का-त्यों स्पष्ट दिखने लगता है। तात! उस मन्त्र विद्या से युक्त एवं एकाग्रचित्त होकर तुम यथा समय देवताओं की प्रसन्नता प्राप्त करो । भरतश्रेष्ठ ! अपने आपको उग्र तपस्या में लगाओ। धनुष, कवच, खड़ग धारण किये साधु-व्रत के पालन में स्थित हो मौनालम्बनपूर्वक किसी को आक्रमण का मार्ग न देते हुए उत्तर दिशा की ओर जाओ। धंनजय! इन्द्र को समस्त दिव्यास्त्रों का ज्ञान है। वृत्रासुर से डरे हुए सम्पूर्ण देवताओं ने उस समय अपनी सारी शक्ति इन्द्र को ही समर्पित कर दी थी। वे सब दिव्यास्त्र एक ही स्थान में हैं, तुम उन्हें वहीं से प्राप्त कर लोगे; अतः तुम इन्द्र की ही शरण लो। वही तुम्हें सब अस्त्र प्रदान करेंगे। आज ही दीक्षा ग्रहण करके तुम देवराज इन्द्र के दर्शन की इच्छा से यात्रा करो।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय ! ऐसा कहकर शक्तिशाली धर्मराज युधिष्ठिर ने मन, वाणी और शरीर को संयम में रखकर दीक्षा ग्रहण करने वाले अर्जुन को विधिपूर्वक पूर्वोक्त प्रतिस्मृति-विद्या का उपदेश दिया। तदनन्तर बड़े भाई युधिष्ठिर ने अपने वीर भाई अर्जुन को वहाँ से प्रस्थान करने की आज्ञा दी।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 18-39 का हिन्दी अनुवाद)

   धर्मराज की आज्ञा से देवराज इन्द्र का दर्शन करने की इच्छा मन में रखकर महाबाहु धनंजय ने अग्नि में आहुति दी और स्वर्ण मुद्राओं की दक्षिणा देकर ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराया तथा गाण्डीव धनुष और दो महान् अक्षय तूणीर साथ ले, कवच, तलत्राण (जूते) तथा अगुलियों की रक्षा के लिये गोह के चमड़े का बना हुआ अगुलित्र धारण किया। इसके बाद ऊपर की और देख लंबी सांस खींचकर धृतराष्ट्र पुत्रों के वध के लिये महाबाहु अर्जुन धनुष हाथ में लिये वहाँ से प्रस्थित हुए।

  कुन्तीनन्दन अर्जुन को वहाँ धनुष लिये जाते देख,,

 सिद्धों, ब्राह्मणों तथा अदृश्य भूतों ने कहा ;- 'कुन्तीकुमार! तुम अपने मन में जो-जो इच्छा रखते हो, वह सब तुम्हें शीघ्र प्राप्त हो।' इसके बाद ब्राह्मणों ने अर्जुन को विजयसूचक आर्शीवाद देते हुए कहा,,

ब्राम्हण बोले ;- 'कुन्तीपुत्र! तुम अपना अभीष्ट साधन करो, तुम्हें अवश्य विजय प्राप्त हो'। शाल वृक्ष के समान कंधे और जांघों से सुशोभित वीर अर्जुन को इस प्रकार सब के चित्त को चुराकर प्रस्थान करते देख द्रौपदी इस प्रकार बोली । 

   द्रौपदी ने कहा ;- 'कुन्तीकुमार महाबाहु धनंजय! आपके जन्म लेने के समय आर्या कुन्ती ने अपने मन में आपके लिये जो-जो इच्छाएं की थीं तथा आप स्वयं भी अपने हृदय में जो-जो मनोरथ रखते हों, वे सब आपको प्राप्त हों। हम लोगों में से कोई भी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न न हो। उन ब्राह्मणों को नमस्कार हैं, जिनका भिक्षा से ही निर्वाह हो जाता है। नाथ! मुझे सबसे बढ़कर दुःख इस बात से हुआ है कि उस पापी दुर्योधन ने राजाओं से भरी हुई सभा में मेरी ओर देखकर मुझे 'गाय' (अनेक पुरुषों के उपभोग में आने वाली) कहकर मेरा उपहास किया। उस दुःख से भी बढ़कर महान् कष्ट मुझे इस बात का हुआ कि उसने भरी सभा में मेरे प्रति बहुत सी अनुचित बाते कहीं। वीरवर! निश्चय ही आपके चले जाने के बाद आपके सभी भाई जागते समय आप ही की पराक्रमी चर्चा बार-बार करते हुए अपना मन बहलायेंगे। पार्थ! दीर्घकाल के लिये आपके प्रवासी हो जाने पर हमारा मन न तो भोगों में लगेगा और न धन में ही इस जीवन में भी कोई रस नहीं रह जायेगा। आपके बिना हम वस्तुओं से संतोष नहीं पा सकेंगे। पार्थी हम सबके सुख-दुःख, जीवन-मरण तथा राज्य-ऐश्वर्य आप पर ही निर्भर हैं। भरतकुलतिलक ! कुन्तीकुमार ! मैंने आपको विदा दी, आप कल्याण को प्राप्त हों। निष्पाप महाबली आर्यपुत्र! आप बलवानों से विरोध ने करें, यह मेरा अनुरोध है । विघ्न-बाधाओं से रहित हो विजय प्राप्ति के लिये शीघ्र यात्रा कीजिये । धाता और विधाता को नमस्कार है। आप कुशल और स्वस्थतापूर्वक प्रस्थान कीजिये। धनंजय! ह्री, श्री, कीर्ति, द्युति, पुष्टि, उमा, लक्ष्मी और सरस्वती- ये सब देवियां मार्ग में जाते समय आपकी रक्षा करें। आप बड़े भाई का आदर करने वाले हैं, उनकी आज्ञा के पालक हैं। भरतश्रेष्ठ मैं आपकी शांति के लिये वसु, रुद्र, आदित्य, मरुद्गण, विश्वदेव तथा साध्य देवताओं की शरण लेती हूँ। भारत! भौम, अंतरिक्ष तथा दिव्य भूतों से और दूसरे भी जो मार्ग में विघ्न डालने वाले प्राणी हैं, उन सबसे आपका कल्याण हो ।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसी मंगलकामना करके यशस्विनी द्रौपदी चुप हो गयी। तदनन्तर पाण्डुनन्दन महाबाहु अर्जुन ने अपना सुन्दर धनुष हाथ में लेकर अपने सभी भाईयों और धौम्य मुनि को दाहिने करके वहाँ से प्रस्थान किया। महान् पराक्रमी और महाबली अर्जुन के यात्रा करते समय उनके मार्ग से समस्त प्राणी दूर हट जाते थे; क्योंकि वे इन्द्र से मिला देने वाली प्रतिस्मृति नामक योगविद्या से युक्त थे। परंतप अर्जुन तपस्वी महात्माओं द्वारा सेवित पर्वतों के मार्ग से होते हुए दिव्य, पवित्र तथा देवसेवित हिमालय पर्वत पर जा पहुँचे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद)

   महामना अर्जुन योगयुक्त होने के कारण मन के समान तीव्र वेग से चलने में समर्थ हो गये थे, अतः वे वायु के समान एक ही दिन में उस पुण्य पर्वत पर पहुँच गये। हिमालय और गन्धमादन पर्वत को लांघकर उन्होंने आलस्यरहित दो दिन-रात चलते हुए और भी बहुत से दुर्गम स्थानों को पार किया तदनन्तर इन्द्रकील पर्वत पर पहुँचकर अर्जुन ने आकाश में उच्च स्वर में गूंजती हुई एक वाणी सुनी- 'तिष्ठ (यहीं ठहर जाओ)।' तब वे वहीं ठहर गये। वह वाणी सुनकर पाण्डुनन्दन अर्जुन ने चारों और दृष्टिपात किया । इतने ही में उन्हें वृक्ष के मूलभाग में बैठे हुए एक तपस्वी महात्मा दिखायी दिये। वे अपने ब्रह्मतेज से उद्भासित हो रहे थे। उनकी अंगकांति पिंगलवर्ण की थी। सिर पर जटा बढ़ी हुई थी और शरीर अत्यन्त कृश था। उन महातपस्वी ने अर्जुन को वहाँ खड़े हुए देखकर पूछा,,

  तपस्वी बोले ;- 'तात! तुम कौन हो? जो धनुष-बाण, कवच, तलवार तथा दस्ताने से सुसज्जित हो क्षत्रिय धर्म का अनुगमन करते हुए यहाँ आये हो। यहाँ अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता नहीं है। यह तो क्रोध और हर्ष को जीते हुए तपस्या में तत्पर शांत ब्रह्मणों का स्थान है। यहाँ कभी कोई युद्ध नहीं होता, इसीलिये यहाँ तुम्हारे धनुष का कोई काम नहीं है। तात! यह धनुष यहीं फेंक दो, अब तुम उत्तम गति को प्राप्त हो चुके हो। वीर! ओज और तेज में तुम्हारे- जैसा दूसरा कोई पुरुष नहीं है।' इस प्रकार उन ब्रह्मर्षि ने हंसते हुए से बार-बार अर्जुन के धनुष को त्याग देने की बात कही। परन्तु अर्जुन धनुष न त्यागने का दृढ़ निश्चय कर चुके थे; अतः ब्रह्मर्षि उन्हें धैर्य से विचलित नहीं कर सके। 

तब उन ब्राह्मण देवता ने पुनः प्रसन्न होकर उनसे हंसते हुए से कहा,,

   ब्राम्हण बोले ;- 'शत्रुसूदन! तुम्हारा भला हो, मैं साक्षात् इन्द्र हूं, मुझसे कोई वर मांगो। यह सुनकर कुरुकुलरत्न शूर-वीर अर्जुन ने सहस्र नेत्रधारी इन्द्र से हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक कहा,,

  अर्जुन बोले ;- 'भगवान्! मैं आपसे सम्पूर्ण अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं, यही मेरा अभीष्ट मनोरथ है, अतः मुझे यही वर दीजिये। 

  तब महेन्द्र ने प्रसन्नचित्त हो हंसते हुए से कहा,,

   देवराज बोले ;- 'धनंजय! जब तुम यहाँ तक आ पहुँचे, तब तुम्हें अस्त्रों को लेकर क्या करना है? अब इच्छानुसार उत्तम लोक मांग लो; क्योंकि तुम्हें उत्तम गति प्राप्त हुई है।' यह सुनकर धनंजय ने पुनः देवराज से कहा,,

   अर्जुन बोले ;- 'देवेश्वर ! मैं अपने भाईयों को वन में छोड़कर (शत्रुओं से) वैर का बदला लिये बिना लोभ अथवा कामना के वशीभूत हो न तो देवत्व चाहता हूं, न सुख और न सम्पूर्ण देवताओं का ऐश्वर्य प्राप्त कर लेने की मेरी इच्छा है। यदि मैंने वैसा किया तो सदा के लिये सम्पूर्ण लोकों में मुझे महान् अपयश प्राप्त होगा।

   अर्जुन के ऐसा कहने पर विश्ववन्दित, वृत्रविनाशक इन्द्र ने मधुर वाणी में अर्जुन को सान्त्वना देते हुए कहा,,

देवराज बोले ;- 'तात! जब तुम्हें तीन नेत्रों से विभूषित त्रिशूलधारी भूतनाथ भगवान् शिव का दर्शन होगा, तब मैं तुम्हें सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रदान करूंगा। कुन्तीकुमार! तुम उन परमेश्वर महादेव जी का दर्शन पाने के लिये प्रयत्न करो। उनके दर्शन से पूर्णतः सिद्ध हो जाने पर तुम स्वर्गलोक में पधारोगे।' अर्जुन से ऐसा कहकर इन्द्र पुनः अदृश्य हो गये। तत्पश्चात् अर्जुन योगयुक्त हुए वहीं रहने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में इन्द्रदर्शन विषयक सैतीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कैरात पर्व)

अड़तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन की उग्र तपस्या और उसके विषय में ऋषियों का भगवान् शंकर के साथ वार्तालाप"

   जनमेजय बोले ;- 'भगवन्! अनायास ही महान् कर्म करने वाले कुन्तीनन्दन अर्जुन की यह कथा मैं विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूं, उन्होंने किस प्रकार अस्त्र प्राप्त किये? पुरुषसिंह महाबाहु तेजस्वी धनंजय उस निर्जन वन में निर्भय के समान कैसे चले गये थे? ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे! उस वन में रहकर पार्थ ने क्या किया? भगवान् शंकर तथा देवराज इन्द्र को कैसे संतुष्ट किया? विप्रवर! मैं आपकी कृपा से यह सब बाते सुनना चाहता हूँ । सर्वज्ञ! आप दिव्य और मानुष सभी वृत्तान्तों को जानते हैं। ब्रह्मन्! मैंने सुना है, कभी संग्राम में परास्त न होने वाले, योद्धाओं में श्रेष्ठ अर्जुन ने पूर्वकाल में भगवान् शंकर के साथ अत्यन्त अद्भुत, अनुपम और रोमांचकारी युद्ध किया था, जिसे सुनकर मनुष्यों में श्रेष्ठ शूरवीर कुन्तीपुत्रों के हृदयों में भी दैन्य, हर्ष और विस्मय के कारण कंपकंपी छा गयी थी। अर्जुन ने और भी जो-जो कार्य किये हों, वे सब भी मुझे बताईये। शूरवीर अर्जुन का अत्यन्त सूक्ष्म चरित्र भी ऐसा नहीं दिखायी देता है, जिसमें थोड़ी-सी भी निंदा के लिये स्थान हो; अतः वह सब मुझसे कहिये।'

   वैशम्पायन जी ने कहा ;- तात! पौरवश्रेष्ठ ! महात्मा अर्जुन की यह कथा दिव्य, अद्भुत और महत्त्वपूर्ण है; इसे मैं तुम्हें सुनाता हूँ। अनघ! देवदेव महादेव जी के साथ अर्जुन के शरीर का जो स्पर्श हुआ था, उससे सम्बन्ध रखने वाली यह कथा है। तुम उन दोनों के मिलन का वह वृत्तान्त भली-भाँति सुनो। राजन् अमित पराक्रमी, महाबली, महाबाहु, कुरुकुलभूषण, इन्द्रपुत्र अर्जुन, जो सम्पूर्ण विश्व में विख्यात महारथी और सुस्थिर चित्त वाले थे, युधिष्ठिर की आज्ञा से देवराज इन्द्र तथा देवाधिदेव भगवान् शंकर का दर्शन करने के लिये कार्य की सिद्धि का उपदेश लेकर अपने उस दिव्य (गाण्डीव) धनुष और सोने की मूंठ वाले खड्ग को हाथ में लिये हुए उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत की ओर चले। तपस्या के लिये दृढ़ निश्चय करके बड़ी उतावली के साथ जाते हुए वे अकेले ही एक भयंकर कण्टकाकीर्ण वन में पहुँचे, जो नाना प्रकार के फल-फूलों से भरा था, भाँति-भाँति के पक्षी जहाँ कलरव कर रहे थे, अनेक जातियों के मृग उस वन में सब ओर विचरते रहते थे तथा कितने ही सिद्ध और चारण निवास कर रहे थे।

   तदनन्तर कुन्तीनन्दन अर्जुन के उस निर्जन वन में पहुँचते ही आकाश में शंखों और नगाड़ों का गम्भीर घोष गूंज उठा। पृथ्वी पर फूलों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी। मेघों की घटा घिरकर आकाश में सब ओर छा गयी। उन दुर्गम वनस्थलियों को लांघकर अर्जुन हिमालय के पृष्ठ भाग में एक महान् पर्वत के निकट निवास करते हुए शोभा पाने लगे। वहाँ उन्होंने फूलों से सुशोभित बहुत-से वृक्ष देखे, जो पक्षियों के मधुर शब्द से गुंजायमान हो रहे थे। उन्होंने वैदूर्यमणि के समान स्वच्छ जल से भरी हुई शोभामयी कितनी ही नदियां देखीं, जिनमें बहुत-सी भंवरें उठ रही थीं। हंस, कारण्डव तथा सारस आदि पक्षी वहाँ मीठी बोली बोलते थे। तटवर्ती वृक्षों पर कोयल मनोहर शब्द बोल रही थी। क्रौंच के कलरव और मयूरों की केकाध्वनि भी वहाँ सब और गूंजती रहती थी। उन नदियों के आसपास मनोहर वनश्रेणी सुशोभित होती थी। हिमालय के उस शिखर पर पवित्र, शीतल और निर्मल जल से भरी हूई उन सुन्दर सरिताओं का दर्शन करके अतिरथी अर्जुन का मन प्रसन्नता से खिल उठा।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टत्रिंश अध्याय के श्लोक 22-35 का हिन्दी अनुवाद)

   उग्र तेजस्वी महामना अर्जुन वहाँ वन के रमणीय प्रदेशों में धूम-फिरकर बड़ी कठोर तपस्या में संलग्र हो गये। कुशा का ही चीर धारण किये तथा दण्ड और मृगचर्म से विभूषित अर्जुन पृथ्वी पर गिरे हुए सूखे पत्तों का ही भोजन के स्थान में उपयोग करते थे। एक मास तक वे तीन-तीन रात के बाद केवल फलाहार करके रहे। दूसरे मास को उन्होंने पहले की अपेक्षा दूने-दूने समय पर अर्थात् छः-छः रात के बाद फलाहार करके व्यतीत किया। तीसरा महीना पंद्रह-पंद्रह दिन में भोजन करके बिताया। चैथा महीना आने पर भरतश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन महाबाहु अर्जुन केवल वायु पीकर रहने लगे। वे दोनों भुजाएं ऊपर उठाये बिना किसी सहारे के पैर के अंगूठे के अग्रभाग के बल पर खड़े रहे।

   अमित तेजस्वी महात्मा अर्जुन के सिर की जटाएं नित्य स्नान करने के कारण विद्युत् और कमलों के समान हो गयी थीं। तदनन्तर भयंकर तपस्या में लगे हुए अर्जुन के विषय में कुछ निवेदन करने की इच्छा से वहाँ रहने वाले सभी महर्षि पिनाकधारी महादेव जी की सेवा में गये। उन्होंने महादेव जी को प्रणाम करके अर्जुन का वह तपरूप कर्म कह सुनाया। 

महर्षि बोले ;- 'भगवन्! ये महातेजस्वी कुन्तीपुत्र अर्जुन हिमालय के पृष्ठभाग में स्थित हो अपार एवं उग्र तपस्या में संलग्न हैं और सम्पूर्ण दिशाओं को धूमाच्छादित कर रहे हैं। देवेश्वर ! वे क्या करना चाहते हैं, इस विषय में हम लोगों में से कोई कुछ नहीं जानता है। वे अपनी तपस्या के संताप से हम सब महर्षियों को संतप्त कर रहे हैं। अतः आप उन्हें तपस्या से सद्भावपूर्वक निवृत्त कीजिये।'

पवित्र चित्त वाले उन महर्षियों का यह वचन सुनकर भूतनाथ भगवान् शंकर इस प्रकार बोले । 

महादेव जी ने कहा ;- 'महर्षियो! तुम्हें अर्जुन के विषय में किसी प्रकार का विषाद करने की आवश्यकता नहीं है। तुरन्त आलस्यरहित हो शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक जैसे आये हो, वैसे ही लौट जाओ। अर्जुन के मन में जो संकल्प है, मैं उसे भलीभाँति जानता हूँ। उन्हें स्वर्गलोक की कोई इच्छा नहीं हैं, वे ऐश्वर्य तथा आयु भी नहीं चाहते। वे जो कुछ पाना चाहते हैं, वह सब मैं आज ही पूर्ण करूंगा।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भगवान् शंकर का यह वचन सुनकर वे सत्यवादी महर्षि प्रसन्नचित्त हो फिर अपने आश्रमों को लौट गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कैरातपर्व में महर्षियों तथा भगवान् शंकर के संवाद से सम्बन्ध रखने वाला अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कैरात पर्व)

उनतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान् शंकर और अर्जुन का युद्ध, अर्जुन का उस पर प्रसन्न होना एवं अर्जुन के द्वारा भगवान् शंकर की स्तुति"

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय। उन सब तपस्वी महात्माओं के चले जाने पर सर्वपापहारी, पिनाकपाणि, भगवान शंकर किरात वेष धारण करके सुवर्णमय वृक्ष के सदृश दिव्य कांति से उद्भासित होने लगे। उनका शरीर दूसरे मेरु पर्वत के समान दीप्तिमान् और विशाल था। वे एक शोभायमान धनुष और सर्पों के समान विषाक्त बाण लेकर बड़े वेग से चलें। मानों साक्षात् अग्निदेव ही देह धारण करके निकले हों। उनके साथ भगवती उमा भी थी, जिनका व्रत और वेष भी उन्हीं के समान था। अनेक प्रकार के वेष धारण किये भूतगण भी प्रसन्नतापूर्वक उनके पीछे हो लिये थे। इस प्रकार किरात वेष में छिपे हुए श्रीमान् शिव सहस्रों स्त्रियों से घिरकर बड़ी शोभा पा रहे थे।

     भरतवंशी राजन्! उस समय वह प्रदेश उन सब के चलने-फिरने से अत्यन्त सुशोभित हो रहा था। एक ही क्षण में वह सारा वन शब्दरहित हो गया। झरनों और पक्षियों तक की आवाज बंद हो गयी। अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले कुन्तीपुत्र अर्जुन के निकट आकर भगवान् शंकर ने अद्भुत दीखने वाले मूक नामक अद्भुत दानव को देखा, जो सूअर का रूप धारण करके अत्यन्त तेजस्वी अर्जुन को मार डालने का उपाय सोच रहा था, उस समय अर्जुन ने गाण्डीव धनुष और विषैले सर्पों के समान भयंकर बाण हाथ में ले धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उसकी टंकार से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके कहा,,,

    अर्जुन बोले ;- 'अरे! तू यहाँ आये हुए मुझ निरपराध को मारने की घात में लगा हैं, इसीलिये मैं आज पहले ही तुझे यमलोक भेज दूंगा'। सृदढ़ धनुष वाले अर्जुन को प्रहार के लिये उद्यत देख किरातरूपधारी भगवान् शंकर ने उन्हें सहसा रोका और कहा,,

   भगवान शंकर बोले ;- 'इन्द्रकील पर्वत के समान कांति वाले इस सूअर को पहले से ही मैंने अपना लक्ष्य बना रखा है, अतः तुम न मारो। परन्तु अर्जुन ने किरात के वचन की अवहेलना करके उस पर प्रहार कर ही दिया। साथ ही महातेजस्वी किरात ने भी उसी एकमात्र लक्ष्य पर बिजली और अग्निशिखा के समान तेजस्वी बाण छोड़ा। उन दोनों के छोड़े हुए वे दोनों बाण एक ही साथ मूक दानव के पर्वत सदृश विशाल शरीर में लगे। जैसे पर्वत पर बिजली की गड़गड़ाहट और वज्रपात का भयंकर शब्द होता है, उसी प्रकार उन दोनों बाणों के आघात का शब्द हुआ। इस प्रकार प्रज्वलित मुख वाले सर्पों के समान अनेक बाणों से घायल होकर वह दानव फिर अपने राक्षस रूप को प्रकट करते हुए मर गया।

   इसी समय शत्रुनाशक अर्जुन ने सुवर्ण के समान कांतिमान् एक तेजस्वी पुरुष को देखा, जो स्त्रियों के साथ आकर अपने को किरातवेष में छिपाये हुए थे। तब कुन्तीकुमार ने प्रसन्नचित्त होकर हंसते हुए-से-कहा,,,

   अर्जुन बोले ;- 'आप कौन हैं, जो इन सूने वन में स्त्रियों से घिरे हुए घूम रहे हैं? सुवर्ण के समान दिप्तिमान् पुरुष! क्या आपको इस भयानक वन में भय नहीं लगता? यह सूअर तो मेरा लक्ष्य था, आपने क्यों उस पर बाण मारा? यह राक्षस पहले यहीं मेरे पास आया था और मैंने इसे काबू में कर लिया था। आपने किसी कामना से इस शूकर को मारा हो या मेरा तिरस्कार करने के लिये। किसी दशा में भी मैं आपको जीवित नहीं छोडूंगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

    "यह मृगया का धर्म नहीं हैं, जो आज आपने मेरे साथ किया है। आप पर्वत के निवासी हैं तो भी उस समय अपराध के कारण मैं आपको जीवन से वंचित कर दूंगा। पाण्डुनन्दन अर्जुन के इस प्रकार कहने पर किरातवेषधारी भगवान् शंकर जोर-जोर से हंस पड़े और सव्यसाची पाण्डव से मधुर वाणी में बोले,,

   भगवान शंकर बोले ;- 'वीर! तुम हमारे लिये वन के निकट आने के कारण भय न करो। हम तो वनवासी हैं, अतः हमारे लिये इस भूमि पर विचरना सदा उचित ही है। किंतु तुमने यहाँ का दुष्कर निवास कैसे पंसद किया? तपोधन! हम तो अनेक प्रकार के जीव-जन्तुओं से भरे हुए इस वन में सदा ही रहते हैं। तुम्हारे अंगों की प्रभा प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ती है। तुम सुकुमार हो और सुख भोगने के योग्य प्रतीत होते हो। इस निर्जन प्रदेश में किसलिये अकेले विचर रहे हो?"

   अर्जुन ने कहा ;- 'मैं गाण्डीव धनुष और अग्नि के समान तेजस्वी बाणों का आश्रय लेकर इस महान् वन में द्वितीय कार्तिकेय की भाँति (निर्भय) निवास करता हूँ। यह प्राणी हिंसक पशु का रूप धारण करके मुझे ही मारने के लिये यहाँ आया था, अतः । इस भयंकर राक्षस को मैंने मार गिराया है।'

    किरातरूपधारी शिव बोले ;- 'मैंने अपने धनुष द्वारा छोड़े हुए बाणों से पहले ही इसे घायल कर दिया था। मेरे ही बाणों की चोट खाकर यह सदा के लिये सो रहा है और यमलोक में पहुँच गया। मैंने ही पहले इसे अपने बाणों का निशाना बनाया, अतः तुमसे पहले इस पर मेरा अधिकार स्थापित हो चुका था। मेरे ही तीव्र प्रहार से इस दानव को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा है। मन्दबुद्धे! तुम अपने बल के घमंड में आकर अपने दोष दूसरे पर नहीं मढ़ सकते। तुम्हें अपनी शक्ति पर बड़ा गर्व है। अतः अब तुम मेरे हाथ से जीवित नहीं बच सकते। धैर्यपूर्वक सामने खड़े रहो, मैं वज्र के समान भयानक बाण छोडूंगा। तुम भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर मुझे जीतने का प्रयास करो। मेरे ऊपर अपने बाण छोड़ो।'

   किरात की वह बात सुनकर उस समय अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने बाणों से उस पर प्रहार आरम्भ किया। तब किरात ने प्रसन्नचित्त से अर्जुन के छोड़े हुए सभी बाणों को पकड़ लिया और कहा,,

   भगवान शिव बोले ;- 'ओ मूर्ख! और बाण मार और बाण मार, इन मर्मभेदी नाराचों का प्रहार कर उसके ऐसा कहने पर अर्जुन ने सहसा बाणों की झड़ी लगा दी। तदनन्तर वे दोनों क्रोध में भरकर बारंबार सर्पाकार बाणों द्वारा एक-दूसरे को घायल करने लगे। उस समय उन दोनों की बड़ी शोभा होने लगी। तत्पश्चात् अर्जुन ने किरात पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ की; परन्तु भगवान् शंकर ने प्रसन्नचित्त से उन सब बाणों को ग्रहण कर लिया। पिनाकधारी शिव दो ही घड़ी में सारी बाण वर्षा को अपने में लीन करके पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़े रहे। उनके शरीर पर तनिक भी चोट या क्षति नहीं पहुँची थी। अपनी की हुई सारी बाण वर्षा व्यर्थ किये हुए देख धनंजय को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह किरात को साधुवाद देने लगे और बोले,,

  अर्जुन बोले ;- 'अहो! हिमालय के शिखर पर निवास करने वाले इस किरात के अंग तो बड़े सुकुमार हैं, तो भी यह गाण्डीव धनुष के छूटे हुए बाणों को ग्रहण कर लेता है और तनिक भी व्याकुल नहीं होता।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद)

   'यह कौन है? साक्षात् भगवान् रुद्रदेव, यक्ष, देवता अथवा असुर तो नहीं है। इस श्रेष्ठ पर्वत पर देवताओं का आना-जाना होता रहता है। मैंने सहस्रों बार जिन बाण समूहों की वृष्टि की है, उनका वेग पिनाकधारी भगवान् शंकर के सिवा दूसरा कोई नहीं सह सकता। यदि यह रुद्रदेव से भिन्न व्यक्ति है तो यह देवता हो या यक्ष- मैं इसे तीखे बाणों से मारकर अभी यमलोक भेज देता हूँ।'

   राजन! यह सोचकर प्रसन्नचित्त अर्जुन ने सहस्रों किरणों को फैलाने वाले भगवान भास्कर की भाँति सैकड़ों मर्मभेदी नाराचों का प्रहार किया, परन्तु त्रिशूलधारी भूतभावन भगवान् शिव ने हर्ष में भरे हृदय से उन सब नाराचों को उसी प्रकार आत्मसात् कर लिया, जैसे पर्वत पत्थरों की वर्षा को उस समय एक ही क्षण में अर्जुन के सारे बाण समाप्त हो चले। उन बाणों का इस प्रकार विनाश देखकर उनके मन में बड़ा भय समा गया। विजयी अर्जुन ने उस समय भगवान् अग्निदेव का चिन्तन किया, जिन्होंने खाण्डव वन में प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें दो अक्षय तूणीर प्रदान किये थे। वे मन-ही-मन सोचने लगे, 'मेरे सारे बाण नष्ट हो गये, अब मैं धनुष से क्या चलाऊँगा। यह कोई अद्भुत पुरुष है जो मेरे सारे बाणों को खाये जा रहा है। अच्छा, अब मैं शूल के अग्रभाग से घायल किये जाने वाले हाथी की भाँति इसे धनुष की कोटि (नोक) से मारकर दण्डधारी यमराज के लोक में पहुँचा देता हूं'।

    ऐसा विचार कर महातेजस्वी अर्जुन ने किरात को अपने धनुष की कोटि से पकड़कर उसकी प्रत्यंचा में उसके शरीर को फंसाकर खींचा और वज्र के समान दुःसह मुष्टि प्रहार से पीड़ित करना आरम्भ किया। शत्रु वीरों का संहार करने वाले कुन्तीकुमार अर्जुन ने जब धनुष की कोटि से प्रहार किया, तब उस पर्वतीय किरात ने अर्जुन के उस दिव्य धनुष को भी अपने में लीन कर दिया । तदनन्तर धनुष के ग्रस्त हो जाने पर अर्जुन हाथ में तलवार लेकर खड़े हो गये और युद्ध का अन्त कर देने की इच्छा से वेगपूर्वक उस पर आक्रमण किया। उनकी वह तलवार पर्वतों पर भी कुण्ठित नहीं होती थी। कुरुनन्दन अर्जुन ने अपनी भुजाओं की पूरी शक्ति लगाकर किरात के मस्तक पर उस तीक्ष्ण धार वाली तलवार से वार किया, परन्तु उसके मस्तक से टकराते ही वह उत्तम तलवार टूक-टूक हो गयी। तब अर्जुन ने वृक्षों और शिलाओं से युद्ध करना आरम्भ किया। तब विशालकाय किरातरूपी भगवान् शंकर ने उन वृक्षों और शिलाओं को भी ग्रहण कर लिया। यह देखकर महाबली कुन्तीकुमार अपने वज्रतुल्य मुक्कों से दुर्धर्ष किरात सदृश रूप वाले भगवान् शिव पर प्रहार करने लगे।

     उस समय क्रोध के आवेश से अर्जुन के मुख से धूम प्रकट हो रहा था। तदनन्तर किरातरूपी भगवान् शिव भी अत्यन्त दारुण और इन्द्र के वज्र के समान दुःसह मुक्कों से मारकर अर्जुन को पीड़ा देने लगे। फिर तो घमासान युद्ध में लगे हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन तथा किरातरूपी शिव के मुक्कों का एक दूसरे के शरीर पर प्रहार होने से बड़ा भयंकर 'चट-चट' शब्द होने लगा। वृत्रासुर और इन्द्र के समान उन दोनों का वह रोमांचकारी बाहुयुद्ध दो घड़ी तक चलता रहा। तत्पश्चात् बलवान वीर अर्जुन ने अपनी छाती से किरात को बड़े जोर से मारा, तब महाबली किरात ने भी विपरीत चेष्टा करने वाले पाण्डुनन्दन अर्जुन पर आघात किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 60-77 का हिन्दी अनुवाद)

   उन दोनों की भुजाओं से टकराने और वृक्षःस्थलों के संघर्ष से उनके अंगों में धूम और चिनगारियों के साथ आग प्रकट हो जाती थी । तदनन्तर ! महादेव जी ने अपने अंगों से दबाकर अर्जुन को अच्छी तरह पीड़ा दी और उनके चित्त को मूर्च्छित-सा करते हुए उन्होंने तेज तथा रोष से उनके ऊपर अपना पराक्रम प्रकट किया।

    भारत! तदनन्तर देवाधिदेव महादेव जी के अंगों से अवरुद्ध हो अर्जुन अपने पीड़ित अवयवों के साथ मिट्टी के लोंदे-से दिखायी देने लगे। महात्मा भगवान् शंकर के द्वारा भलीभाँति नियंत्रित हो जाने के कारण अर्जुन की श्वास क्रिया बंद हो गयी। वे निष्प्राण की भाँति चेष्टाहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। दो घड़ी तक उसी अवस्था में पड़े रहने के पश्चात् जब अर्जुन को चेत हुआ, तब वे उठकर खड़े हो गये। उस समय उनका सारा शरीर खून से लथपथ हो रहा था और वे बहुत दुःखी हो गये थे। तब वे शरणागतवत्सल पिनाकधारी भगवान् शिव की शरण में गये और मिट्टी की वेदी बनाकर उसी पर पार्थिव शिव की स्थापना करके पुष्पमाला के द्वारा उनका पूजन किया । कुन्तीकुमार ने जो माला पार्थिव शिव पर चढ़ायी थी, वह उन्हें किरात के मस्तक पर पड़ी दिखायी दी। यह देखकर पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन हर्ष से उल्लसित हो अपने आपे में आ गये और किरातरूपी भगवान् शंकर के चरणों में गिर पड़े। उस समय तपस्या के कारण उनके समस्त अवयव क्षीण हो रहे थे और वे महान् आश्रय में पड़ गये थे, उन्हें इस अवस्था में देखकर सर्वपापहारी भगवान् शिव उन पर बहुत प्रसन्न हुए और मेघ के समान गम्भीर वाणी से बोले ।

  भगवान् शिव ने कहा ;- 'फाल्गुन ! मैं तुम्हारे इस अनुपम पराक्रम, शौर्य और धैर्य से बहुत संतुष्ट हूँ। तुम्हारे समान दूसरा कोई क्षत्रिय नहीं है। अनघ! तुम्हारा तेज और पराक्रम आज मेरे समान सिद्ध हुआ है। महाबाहु भरतश्रेष्ठ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हु। मेरी ओर देखो। विशाललोचन! मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूँ। तुम पहले के 'नर' नामक ऋषि हो। तुम युद्ध में अपने शत्रुओं पर, वे चाहे सम्पूर्ण देवता ही क्यों न हों, विजय पाओगे। मैं तुम्हारे प्रेमवश तुम्हें अपना पाशुपतास्त्र दूंगा, जिसकी गति को कोई रोक नहीं सकता। तुम क्षण भर में मेरे उस अस्त्र को धारण करने में समर्थ हो जाओगे।'

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर अर्जुन ने शूलपाणि महातेजस्वी महादेव जी का देवी पार्वती सहित दर्शन किया।

    शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले कुन्तीकुमार ने उनके आगे पृथ्वी पर घुटने टेक दिये और सिर से प्रणाम करके शिव जी को प्रसन्न किया। 

अर्जुन बोले ;- 'जटाजूटधारी सर्वदेवेश्वर देवदेव महादेव! आप भगदेवता के नेत्रों का विनाश करने वाले हैं। आपकी ग्रीवा में नील चिह्न शोभा पा रहा है। आप अपने मस्तक पर सुन्दर जटा धारण करते हैं। प्रभो! मैं आपको समस्त कारणों में सर्वश्रेष्ठ कारण मानता हूँ। आप त्रिनेत्रधारी तथा सर्वव्यापी हैं। सम्पूर्ण देवताओं के आश्रय हैं। देव! यह सम्पूर्ण जगत् आपसे ही उत्पन्न हुआ है । देवता, असुर और मनुष्यों सहित तीनों लोक भी आपको पराजित नहीं कर सकते। आप ही विष्णुरूप शिव तथा शिवस्वरूप विष्णु हैं, आपको नमस्कार है। दक्षयज्ञ का विनाश करने वाले हरिहररूप आप भगवान् को नमस्कार है। आपके ललाट में तृतीय नेत्र शोभा देता है। आप जगत् के संहारक होने के कारण शर्व कहलाते हैं। भक्तों की अभीष्ट कामनाओं की वर्षा करने के कारण आपका नाम मीढ्वान् (वर्षणशील) है। अपने हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले आपको नमस्कार है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 78-84 का हिन्दी अनुवाद)

   पिनाकरक्षक, सूर्यस्वरूप, मंगलकारक और सृष्टिकर्ता आप परमेश्वर को नमस्कार है। भगवन्! सर्वभूत महेश्वर को नमस्कार है। भगवन् सर्वभूत महेश्वर ! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप भूतगणों के स्वामी, सम्पूर्ण जगत् का कल्याण करने वाले तथा जगत् के कारण के भी कारण हैं। प्रकृति और पुरुष दोनों से परे अत्यन्त सूक्ष्मस्वरूप तथा भक्तों के पापों को हरने वाले हैं।

   कल्याणकारी भगवन्! मेरा अपराध क्षमा कीजिये । भगवन्! मैं आप ही के दर्शन की इच्छा लेकर इस महान् पर्वत पर आया हूँ। देवेश्वर! यह शैल-शिखर तपस्वियों का उत्तम आश्रय तथा आपका प्रिय निवास स्थान है।। प्रभो! सम्पूर्ण जगत् आपके चरणों में वन्दना करता है। मैं आपसे यह प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझ पर प्रसन्न हों।

   महादेव! अत्यन्त साहसवश मैंने जो आपके साथ यह युद्ध किया है, इसमें मेरा अपराध नहीं। गया है। शंकर! मैं अब आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी उस धृष्टता को क्षमा करें। है। यह अनजान में मुझसे बन गया है। शंकर! मैं अब आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी उस धृष्टता को क्षमा करें।

  वैशम्पायन जी ने कहा ;- जनमेजय! तब महातेजस्वी भगवान् वृषभध्वज ने अर्जुन का सुन्दर हाथ पकड़कर उनसे हंसते हुए कहा- 'मैंने तुम्हारा अपराध पहले ही क्षमा कर दिया। फिर उन्हें दोनों भुजाओं से खींचकर हृदय से लगाया और प्रसन्नचित्त हो वृष के चिह्न से अंकित ध्वजा धारण करने वाले भगवान् रुद्र ने पुनः कुन्तीकुमार को सान्त्वना देते हुए कहा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कैरातपर्व में महादेव जी की स्तुति सम्बन्ध रखने वाला उनतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कैरात पर्व)

चालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान् शंकर का अर्जुन को वरदान देकर अपने धाम को प्रस्थान"

     देवदेव महादेव जी बोले ;- 'अर्जुन! तुम पूर्व शरीर में 'नर' नामक सुप्रसिद्ध ऋषि थे। नारायण तुम्हारे सखा हैं । तुमने बदरिकाश्रम में अनेक सहस्र वर्षों तक उग्र तपस्या की है। तुम में अथवा पुरुषोत्तम भगवान विष्णु में उत्कृष्ट तेज हैं। तुम दोनों पुरुषरत्नों ने अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत् को धारण कर रखा है। प्रभो! तुमने और श्रीकृष्ण ने इन्द्र के अभिषेक के समय मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाले महान धनुष को हाथ में लेकर बहुत से दानवों का वध किया था। पुरुषप्रवर पार्थ! तुम्हारे हाथ में रहने योग्य यही वह गाण्डीव धनुष है, जिसे मैंने माया का आश्रय लेकर अपने में विलीन कर लिया था। कुरुनन्दन! और ये रहे तुम्हारे दोनों अक्षय तूणीर, जो सर्वथा तुम्हारे ही योग्य हैं। कुन्तीकुमार! तुम्हारे शरीर में जो चोट पहुँची है, वह सब दूर होकर तुम निरोग हो जाओगे। पार्थ! तुम्हारा पराक्रम यथार्थ है, इसलिये मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। पुरुषोत्तम तुम मुझसे मनोवांछित वर ग्रहण करो। मानद! मर्त्यलोक अथवा स्वर्गलोक में भी कोई पुरुष तुम्हारे समान नहीं है। शत्रुदमन ! क्षत्रिय जाति में तुम्हीं सबसे श्रेष्ठ हो।'

   अर्जुन बोले ;- 'भगवन्! वृषध्वज ! यदि आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे इच्छानुसार वर देते हैं तो प्रभो! में उस भयंकर दिव्यास्त्र पाशुपत को प्राप्त करना चाहता हूँ, जिसका नाम ब्रह्मशिर है। आप भगवान् रुद्र ही जिसके देवता हैं, जो भयानक पराक्रम प्रकट करने वाला तथा दारुण प्रलय काल में सम्पूर्ण जगत् का संहारक है। महादेव! कर्ण, भीष्म, कृप, द्रोणाचार्य आदि के साथ मेरा महान् युद्ध होने वाला है, उस युद्ध में मैं आपकी कृपा से उन सब पर विजय पा सकूं, इसी के लिये दिव्यास्त्र चाहता हूँ। मुझे वह अस्त्र प्रदान कीजिये, जिससे संग्राम में दानवों, राक्षसों, भूतों, पिशाचों, गन्धर्वों तथा नागों को भस्म कर सकूं। जिस अस्त्र के अभिमंत्रित करते ही सहस्रों शूल, देखने में भयंकर गदाएं और विषैले सर्पों के समान बाण प्रकट हों। उस अस्त्र को पाकर मैं भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य तथा सदा कटु भाषण करने वाले सूतपुत्र कर्ण के साथ भी लड़ सकूं। भगदेवता की आंखें नष्ट करने वाले भगवन्! आपके समक्ष यह मेरा सबसे पहला मनोरथ है, जो आप ही के कृपाप्रसाद से पूर्ण हो सकता है। आप ऐसा करें, जिससे में सर्वथा शत्रुओं को परास्त करने में समर्थ हो सकूं।'

   महादेव जी ने कहा ;- 'पराक्रमशाली पाण्डुकुमार! मैं अपना परम प्रिय पाशुपतास्त्र तुम्हें प्रदान करता हूँ। तुम इसके धारण, प्रयोग और उपसंहार में समर्थ हो। इसे देवराज इन्द्र, यम, यक्षराज कुबेर, वरुण अथवा वायु देवता भी नहीं जानते। फिर साधारण मानव तो जान ही कैसे सकेंगे? परन्तु कुन्तीकुमार ! तुम सहसा किसी पुरुष पर इसका प्रयोग न करना। यदि किसी अल्पशक्ति योद्धा पर इसका प्रयोग किया गया तो यह सम्पूर्ण जगत् का नाश कर डालेगा। चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी में कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो इस अस्त्र द्वारा मारा न जा सके। इसका प्रयोग करने वाला पुरुष अपने मानसिक संकल्प से, दृष्टि से, वाणी से तथा धनुष बाण द्वारा भी शत्रुओं को नष्ट कर सकता है।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर कुन्तीपुत्र अर्जुन तुरन्त ही पवित्र एवं एकाग्रचित्त हो शिष्यभाव से भगवान् विश्वेश्वर की शरण गये और बोले,,

अर्जुन बोले ;- 'भगवन्! मुझे इस पाशुपतास्त्र का उपदेश कीजिये ।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद)

   तब भगवान् शिव ने रहस्य और उपसंहार सहित पाशुपतास्त्र का उन्हें उपदेश दिया। उस समय वह अस्त्र जैसे पहले त्रिनेत्रधारी उमापति शिव की सेना में उपस्थित हुआ था, उसी प्रकार मूर्तिमान् यमराजतुल्य पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन के पास आ गया। तब अर्जुन ने बहुत प्रसन्न होकर उसे ग्रहण किया।

   अर्जुन के पाशुपतास्त्र ग्रहण करते ही पर्वत, वन, वृक्ष, समुद्र, वनस्थली, ग्राम, नगर तथा आकरों (खानों) सहित सारी पृथ्वी कांप उठी। उस शुभ मुहूर्त्त के आते ही शंख और दुन्दुभियों के शब्द होने लगे। सहस्रों भेरियां बज उठीं। आकाश में वायु के टकराने का महान् शब्द होने लगा । तदनन्तर वह भयंकर अस्त्र मूर्तिमान हो अग्नि के समान प्रज्वलित तेजस्वी रूप से अमि पराक्रमी पाण्डुनन्दन अर्जुन के पार्श्वभाग में खड़ा हो गया। यह बात देवताओं और दानवों ने प्रत्यक्ष देखी।

    भगवान् शंकर के स्पर्श करने से अमित तेजस्वी अर्जुन के शरीर में जो कुछ भी अशुभ था, वह नष्ट हो गया। उस समय भगवान् त्रिलोचन ने अर्जुन को यह आज्ञा दी कि 'तुम स्वर्गलोक को जाओ। राजन्! तब अर्जुन ने भगवान् के चरणों से मस्तक रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनकी ओर देखने लगे। तत्पश्चात् देवताओं के स्वामी, जितेन्द्रिय एवं परम बुद्धिमान् कैलासवासी उमावल्लभ भगवान् शिव ने पुरुषप्रवर अर्जुन को वह महान् गाण्डीव धनुष दे दिया, जो दैत्यों और पिशाचों का संहार करने वाला था। जिसके तट, शिखर और कन्दराएं हिमाच्छादित होने के कारण श्वेत दिखायी देती हैं, पक्षी और महर्षिगण सदा जिसका सेवन करते हैं, उस मंगलमय गिरिश्रेष्ठ इन्द्रकील को छोड़कर भगवान् शंकर भगवती उमादेवी के साथ अर्जुन के देखते-देखते आकाश मार्ग में चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कैरातपर्व में शिवप्रस्थान विषयक चालीसवां अध्याय पूरा हुआ)


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