सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
इकत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी के आक्षेप का समाधान तथा ईश्वर, धर्म और महापुरुषों के आदर से लाभ और अनादर से हानि"
युधिष्ठिर बोले ;- यज्ञसेनकुमारी! तुमने जो बात कही है, वह सुनने में बड़ी मनोहर, विचित्र पदावली से सुशोभित तथा बहुत सुन्दर है, मैंने उसे बड़े ध्यान से सुना है। परंतु इस समय तुम (अज्ञान से) नास्तिक मत का प्रतिपादन कर रही हो राजकुमारी ! मैं कर्मों के फल की इच्छा रखकर उनका अनुष्ठान नहीं करता, अपितु 'देना कर्तव्य है यह समझकर दान देता हूँ और यज्ञ को भी कर्तव्य मानकर ही उसका अनुष्ठान करता हूँ। कृष्ण! यहाँ उस कर्म का फल हो या न हो, गृहस्थ आश्रम में रहने वाले पुरुष का जो कर्तव्य है, मैं उसी का यथाशक्ति कर्तव्य बुद्धि से पालन करता हूँ। सुश्रोणि! मैं धर्म का फल पाने के लोभ से धर्म का आचरण नहीं करता, अपितु साधु पुरुषों के आचार व्यवहार से ही मेरा मन धर्म पालन में लगा है।
द्रौपदी! जो मनुष्य कुछ पाने की इच्छा से धर्म का व्यापार करता है, वह धर्मवादी पुरुषों की दृष्टि में हीन और निन्दनीय है। जो पापात्मा मनुष्य नास्तिकतावश, धर्म का अनुष्ठान करके उसके विषय में शंका करता है अथवा धर्म को दुहना चाहता है अर्थात् धर्म के नाम पर स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, उसे धर्म का फल बिल्कुल नहीं मिलता। मैं सारे प्रमाणों से ऊपर उठकर केवल शास्त्र के आधार-पर यह जोर देकर कह रहा हूँ कि तुम धर्म के विषय में शंका न करो, क्योंकि धर्म पर संदेह करने वाला मानव पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेता है। जो धर्म के विषय में संदेह रखता है, वह जरा मृत्यु रहित परमधाम से उसी प्रकार वंचित रहता है, जैसे शूद्र वेदों के अध्ययन से मनस्विनि! जो वेद का अध्ययन करने वाला, धर्म परायण और कुलीन हो, उस राजर्षि गणना धर्मात्मा पुरुषों को वृद्धों में करनी चाहिये (वह आयु में छोटा हो तो भी उसका वृद्ध पुरुष के समान आदर करना चाहिये) ।
जो मन्द बुद्धि पुरुष शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन करके धर्म के विषय में आशंका करता है, वह शुद्रों और चोरों से भी बढ़कर पापी है। तुमने अमेयात्मा महातपस्वी मार्कण्डेय जी को अभी यहाँ से गये है, प्रत्यक्ष देखा है । व्यास, वसिष्ठ, मैत्रेय, नारद, लोमश, शुक तथा अन्य सब महर्षि धर्म के पालन से ही शुद्ध हृदय वालु हुए हैं। तुम अपनी आँखों इन सबको देखती हो, ये दिव्य योगशक्ति से सम्पन्न, शाप और अनुग्रह में समर्थ तथा देवताओं से भी अधिक गौरवशाली हैं। अनघे ये अमरों के समान विख्यात तथा वेदगम्य विषय को भी प्रत्यक्ष देखने वाले महर्षि धर्म को ही सबसे प्रथम आचरण में लाने योग्य बताते हैं। अतः कल्याणमयी महारानी द्रौपदी! तुम्हें मूर्खतायुक्त मन के द्वारा ईश्वर और धर्म पर आपेक्ष एवं आशंका नहीं करनी चाहिये। धर्म के विषय मे संशय रखने वाला बाल बुद्धि मानव जिन्हें धर्म के तत्त्व का निश्चय हो गया है, अतः दूसरे किसी से कोई शास्त्र प्रमाण नहीं ग्रहण करता। केवल अपनी बुद्धि को ही प्रमाण मानने वाला उद्दण्ड मानव श्रेष्ठ पुरुषों एवं उत्तम धर्म की अवहेलना करता है; क्योंकि वह मूढ़ आसक्ति से सम्बन्ध रखने वाला इस लोक प्रत्यक्ष हृदय जगत की ही सत्ता स्वीकार करता है। अप्रत्यक्ष वस्तु के विषयों में उसकी बुद्धि मोह में पड़ जाती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
जो धर्म के प्रति संदेह करता है, उसकी शुद्धि के लिये कोई प्रायश्चित नहीं है। वह धर्मविरोधी चिन्तन करने वाला दीन पापात्मा पुरुष उत्तम लोकों को नहीं पाता अर्थात अधोगति को प्राप्त होता है। जो मूर्ख प्रमाणों की ओर से मुँह मोड़ लेता है, वेद और शास्त्रों के सिद्धान्तों की निंदा करता है तथा काम एवं लोभ के अत्यन्त परायण है, वह नरक में पड़ता है। कल्याणी जो सदा धर्म के विषय में पूर्ण निश्चय रखने वाला है और सब प्रकार की आशंकाएँ छोड़कर धर्म की ही शरण लेता है, वह परलोकर में अक्षय अत्यन्त सुख का भागी होता है अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
कल्याणी! जो सदा धर्म के विषय में रखने वाला है और सब प्रकार की आशंकाएँ छोड़कर धर्म की ही शरण लेता है, वह परलोक में अक्षय अनन्त सुख का भागी होताहै अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जो मूढ़ मानव आर्ष-ग्रन्थों के प्रमाण की अवहेलना करके समस्त शास्त्रों के विपरीत आचरण करते हुए धर्म का पालन नहीं करता, वह जन्म-जन्मान्तरों में भी कभी कल्याण का भागी नहीं होता । भाविनि ! जिसकी दृष्टि में ऋषियों के वचन और शिष्ट पुरुषों के आचार प्रमाण भूत नहीं हैं, उसके लिये न यह लोक है और न परलोक, यह सत्त्ववेत्ता महापुरुषों का निश्चय है। कृष्णे! सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा महर्षियों द्वारा प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषों द्वारा आचारित पुरातन धर्म पर शंका नहीं करनी चाहिये। द्रुपदकुमारी! जैसे समुद्र के पार जाने की इच्छा वाले वणिक् के लिये जहाज की आवश्यकता है, वैसे ही स्वर्ग में जाने वालों के लिये धर्माचरण ही जहाज है, दूसरा नहीं।
साध्वी द्रौपदी! यदि धर्मपरायण पुरुषों द्वारा पालित धर्म निष्फल होता तो सम्पूर्ण जगत् असीम अन्धकार में निमग्न हो जाता। यदि कोई धर्म निष्फल होता तो धर्मात्मा पुरुष मोक्ष नहीं पाते, कोई विद्या की प्राप्ति में नहीं लगते, कोई भी प्रजोजन-सिद्धि के लिये प्रयत्न नहीं करते और सभी पशुओं-सा जीवन व्यतीत करते । यदि तप, ब्रह्मचर्य, यज्ञ, स्वाध्याय, दान और सरलता आदि धर्म निष्फल होते तो पहले जो श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर पुरुष हुए हैं, ये धर्म का आचरण नहीं करते। यदि धार्मिक क्रियाओं का कुछ फल नहीं होता, वे सब निरी ठगविद्या होतीं तो ऋषि, देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस प्रभावशाली होते हुए भी किसलिये आदरपूर्वक धर्म का आचरण करते। कृष्णे! यहाँ धर्म का फल देने वाले ईश्वर अवश्य हैं, यह बात जानकर ही उन ऋषि आदिकों ने धर्म का आचरण किया है। धर्म ही सनातन श्रेय है। धर्म निष्फल नहीं होता। अधर्म भी अपना फल दिये बिना नहीं रहता । विद्या और तपस्या के भी फल देखे जाते हैं। कृष्णे! तुम अपने जन्म के प्रसिद्ध वृत्तान्त को ही स्मरण करो । तुम्हारा प्रतापी भाई धृष्टद्युम्न जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है, यह भी तुम जानती हो। पवित्र मुस्कान वाली द्रौपदी! इतना ही दृष्टान्त देना पर्याप्त है; धीर पुरुष कर्मो का फल पाता है और थोड़े से फल से भी संतुष्ट हो जाता है । परन्तु बुद्धिहीन अज्ञानी मनुष्य बहुत पाकर भी संतुष्ट नहीं होते। उन्हें परलोक में धर्मजनित थोड़ा-सा भी सुख नहीं मिलता।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद)
भामिनि! वेदोक्त पुण्य देने वाले सत्कर्मों और अनिष्टकारी पापकर्मों का फलोदय तथा उत्पत्ति और प्रलय-ये सब देवगुह्य हैं (देवता ही उन्हें मानते हैं)। इन देवगुह्य विषयों में साधारण लोग मोहित हो जाते हैं। जो इन सबको तात्विक रूप से नहीं जानता है, वह सहस्रों कल्पों में भी कल्याण का भागी नहीं हो सकता। इन सब विषयों को देवता लोग गुप्त रखते हैं। देवताओं की माया भी गूढ़ (दुर्बोध) है। जो आशा का परित्याग करके सात्त्विक हितकर एवं पवित्र आहार करने वाले हैं। तपस्या से जिनके सारे पाप दग्ध हो गये हैं तथा जो मानसिक प्रसन्नता से युक्त हैं, वे द्विज ही इन देवगुह्य विषयों को देख पाते हैं।
धर्म का फल तुरन्त दिखायी न दे तो इनके कारण धर्म एवं देवताओं पर आशंका नहीं करनी चाहिये। दोषदृष्टि न रखते हुए यत्नपूर्वक यज्ञ और दान करते रहना चाहिये ।। कर्मो का फल यहाँ अवश्य प्राप्त होता है, यह धर्मशास्त्र विधान है। यह बात ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों से कही है, जिसे कश्यप ऋषि जानते हैं। इसलिये कृष्णे! सब कुछ सत्य है, ऐसा निश्चय करके तुम्हारा धर्मविषयक संदेह कुहरे की भाँति नष्ट हो जाना चाहिये। तुम अपने इस नास्तिकतापूर्ण विचार को त्याग दो और समस्त प्राणियों का भरण पोषण करने वाले ईश्वर पर आक्षेप बिल्कुल न करो। तुम शास्त्र और गुरुजनों के उपेदशानुसार ईश्वर को समझने की चेष्टा करो और उन्हीं को नमस्कार करो। आज जैसी तुम्हारी बुद्धि है, वैसी नहीं रहनी चाहिये।
कृष्णे! जिनके कृपाप्रसाद से उनके प्रति भक्तिभाव रखने वाला मरणधर्मा मनुष्य अमरत्व को प्राप्त हो जाता है, उन परमदेव परमेश्वर की तुमको किसी प्रकार अवहेलना नहीं करनी चाहिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में युधिष्ठिरवाक्य विषयक इकतीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)
बत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रौपदी का पुरुषार्थ को प्रधान मानकर पुरुषार्थ करने के लिये जोर देना"
द्रौपदी बोली ;- कुन्तीनन्दन ! मैं धर्म की अवहेलना तथा निंदा किसी प्रकार नहीं कर सकती। फिर समस्त प्रजाओं का पालन करने वाले परमेश्वर की अवहेलना तो कर ही कैसे सकती हूँ। भारत! आप ऐसा समझ लें कि मैं शोक से आर्त होकर प्रलाप कर रही हूँ। मैं इतने से ही चुप नहीं रहुंगी और भी विलाप करूंगी। आप प्रसन्नचित्त होकर मेरी बात सुनिये।
शत्रुनाशन! ज्ञानी पुरुष को भी इस संसार में कर्म अवश्य करना चाहिये। पर्वत और वृक्ष आदि स्थावर भूत ही बिना कर्म किये जी सकते हैं, दूसरे लोग नहीं। महाराजा युधिष्ठिर! गौओं के बछड़े भी माता दूध पीते और छाया में जाकर विश्राम करते हैं। इस प्रकार सभी जीव कर्म करके जीवन निर्वाह करते हैं। भरतश्रेष्ठ ! जंगम जीवों में विशेषरूप से मनुष्य कर्म के द्वारा ही इहलोक और परलोक में जीविका प्राप्त करना चाहते हैं । भारत! सभी प्राणी अपने उत्थान को समझते हैं और कर्मों के प्रत्यक्ष फल का उपभोग करते हैं, जिसका साक्षी सारा जगत् है। यह जल के समीप जो बगुला बैठकर (मछली के लिये) ध्यान लगा रहा है, उसी के समान ये सभी प्राणी अपने उद्योग का आश्रय लेकर जीवन धारण करते हैं।
धाता और विधाता भी सदा सृष्टिपालन के उद्योग में लगे रहते हैं। कर्म न करने वाले प्राणियों की कोई जीविका भी सिद्ध नहीं होती। अतः (प्रारब्ध का भरोसा करके) सभी कर्म का परित्याग न करे। सदा कर्म का ही आश्रय ले । अतः आप अपना कर्म करें। उसमें ग्लानि न करे; कर्म का कवच पहने रहें। जो कर्म करना अच्छी तरह जानता है, ऐसा मनुष्य हजारों में एक भी है, या नहीं? यह बताना कठिन है। धन की वृद्धि और रक्षा के लिए भी कर्म की आवश्यकता है। यदि धन का उपभोग (व्यय) होता रहे और आय न हो तो हिमालय जैसी धनराशि का भी क्षय हो सकता है। यदि समस्त प्रजा इस भूतल पर कर्म करना छोड़ दें तो सबका संहार हो जाये। यदि कर्म का कुछ फल न हो तो इन प्रजाओं की वृद्धि ही न हो। हम देखते हैं कि लोग व्यर्थ कर्म में लगे रहते हैं, कर्म न करने पर तो लोगों की किसी प्रकार जीविका ही नहीं चल सकती।
संसार में जो केवल भाग्य के भरोसे कर्म नहीं करता अर्थात् जो ऐसा मानता है कि पहले जैसा किया है वैसा ही फल अपने आप ही प्राप्त होगा तथा जो हठवादी है- बिना किसी युक्ति के हठपूर्वक यह मानता है कि कर्म करना अनावश्यक है, जो कुछ मिलना होगा, अपने आप मिल जायेगा, वे दोनों ही मूर्ख हैं। जिसकी बुद्धि कर्म (पुरुषार्थ) में रुचि रखती है, वही प्रशंसा का पात्र है। जो खोटी बुद्धि वाला मनुष्य प्रारब्ध (भाग्य) का भरोसा रखकर उद्योग से मुंह मोड़ लेता है और सुख से सोता रहता है, उसका जल में रखे हुए कच्चे घड़े की भाँति विनाश हो जाता है। इसी प्रकार जो हठी और दुर्बुद्धि मानव कर्म करने में समर्थ होकर भी कर्म नहीं करता, बैठा रहता है, वह दुर्बल एवं अनाथ की भाँति दीर्घजीवी नहीं होता। जो कोई मनुष्य इस जगत में अकस्मात् कहीं से धन पा लेता है, उसे लोग हठ से मिला हुआ मान लेते हैं; क्योंकि उसके लिये किसी के द्वारा प्रयत्न किया हुआ नहीं दीखता ।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)
कुन्तीनन्दन! मनुष्य जो कुछ भी देवाराधन की विधि से अपने भाग्य के अनुसार पाता है, उसे निश्चित रूप से दैव (प्रारब्ध) कहा गया है तथा मनुष्य स्वंय कर्म करके जो कुछ फल प्राप्त करता है, उसे पुरुषार्थ कहते हैं। यह सब लोगों को प्रत्यक्ष दिखायी देता है। नरश्रेष्ठ! जो स्वभाव से ही कर्म में प्रवृत्त होकर धन प्राप्त करता है, किसी कारणवश नहीं, उसके उस धन को स्वाभाविक फल समझना चाहिये। इस प्रकार हठ, दैव, स्वभाव तथा कर्म से मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं का पाता है, वे सब उसके पूर्व कर्मों के ही फल हैं। जगदाधार परमेश्वर भी उपर्युक्त हठ आदि हेतुओं से जीवों के अपने-अपने कर्म को ही विभक्त करके मनुष्यों को उसके पूर्वजन्म में किये हुए कर्म के फलस्वरूप से यहाँ प्राप्त कराता है। पुरुष यहाँ जो कुछ भी शुभ- अशुभ कर्म करता है, उसे ईश्वर द्वारा विहित उसके पूर्वकर्मों के फल का उदय समझिये। यह मानव शरीर जो कर्म में प्रवृत्त होता है, वह ईश्वर के कर्मफल सम्पादन कार्य का साधन है। वे इसे जैसी प्रेरणा देते हैं, यह विवश होकर (स्वेच्छा-प्रारब्ध भोग के लिये) वैसा ही करता है।
कुन्तीनन्दन! परमेश्वर ही समस्त प्राणियों को विभिन्न कार्यों में लगाते और स्वभाव के परवश हुए उन प्राणियों से कर्म कराते हैं। किंतु वीर! मन से अभीष्ट वस्तुओं का निश्चय करके फिर कर्म द्वारा मनुष्य स्वयं बुद्धिपूर्वक उन्हें प्राप्त करता है। अतः पुरुष ही उसमें कारण है। नरश्रेष्ठ! कर्मों की गणना नहीं की जा सकती। गृह एवं नगर आदि सभी की प्राप्ति में पुरुष ही कारण है। विद्वान् पुरुष पहले बुद्धि द्वारा यह निश्चय करे कि तिल में तेल है, गाय के भीतर दूध है, और काष्ठ में अग्नि है, तत्पश्चात् उसकी सिद्धि के उपाय का निश्चय करे। तदनन्तर उन्हीं उपायों द्वारा उस कार्य की सिद्धि के लिये प्रवृत्त होना चाहिये। सभी प्राणी इस जगत् में उस कर्मजनित सिद्धि का सहारा लेते हैं। योग्य कर्ता के द्वारा किया गया कर्म अच्छे ढंग से सम्पादित होता है। यह कार्य किसी अयोग्य कर्ता के द्वारा किया गया है, यह बात कार्य की विशेषता से अर्थात् परिणाम से जानी जाती है।
यदि कर्मसाध्य फलों में पुरुष ( एवं उसका प्रयत्न) कारण न होता अर्थात् वह कर्ता नहीं बनता तो किसी को यज्ञ और कूपनिर्माण आदि कर्मों का फल नहीं मिलता। फिर तो न कोई किसी का शिष्य होता और न गुरु ही कर्ता होने के कारण ही कार्य सिद्धि में पुरुष की प्रशंसा की जाती है और जब कार्य की सिद्धि नहीं होती, तब उसकी निंदा की जाती है। यदि कर्म का सर्वथा नाश ही हो जाये, तो यहाँ कार्य की सिद्धि ही कैसे हो। कोई तो सब कार्यों को हठ से ही सिद्ध होने वाला बतलाते हैं। कुछ लोग दैव से कार्य की सिद्धि का प्रतिपादन करते हैं तथा कुछ लोग पुरुषार्थ को ही कार्यसिद्धि का कारण बताते हैं। इस तरह ये तीन प्रकार के कारण बताये जाते हैं। दूसरे लोगों की मान्यता इस प्रकार है कि मनुष्य के प्रयत्न की कोई आवश्यकता नहीं हैं। अदृश्य दैव (प्रारब्ध) तथा हठ-ये दो ही सब कार्यों के कारण हैं। क्योंकि यह देखा जाता है कि हठ तथा दैव से सब कार्यों की धारावाहिक रूप से सिद्धि हो रही है। जो लोग तत्त्वज्ञ एवं कुशल हैं, वे प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि मनुष्य कुछ फल दैव से, कुछ हठ से और कुछ स्वभाव से प्राप्त करता है। इस विषय में इन तीनों के सिवा कोई चौथा कारण नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 36-52 का हिन्दी अनुवाद)
क्योंकि पूर्वकृत प्रारब्ध कर्म प्रभाव डालने वाला न होता तो मनुष्य जिस-जिस प्रयोजन के अभिप्राय से कर्म करता, वह सब सफल ही हो जाता। अतः जो लोग अर्थसिद्धि तथा अनर्थ की प्राप्ति में दैव, हठ और स्वभाव- इन तीनों को कारण नहीं समझते, वे वैसे ही हैं, जैसे की साधारण अज्ञ लोग होते हैं। किंतु मनुष्य का सिद्धान्त है कि कर्म करना ही चाहिये, जो बिल्कुल कर्म छोड़कर निश्चेष्ट हो बैठे रहता है, वह पुरुष पराभव को प्राप्त होता है। (इसलिये मेरा तो कहना यह है कि) महाराज युधिष्ठिर! कर्म करने वाले पुरुष को यहाँ प्रायः फल की सिद्धि प्राप्त होती ही है। परन्तु जो आलसी है, जिसके ठीक- ठीक कर्तव्य का पालन नहीं हो पाता, उसे कभी फल की सिद्धि नहीं प्राप्त होती। यदि कर्म करने पर भी फल की उत्पत्ति न हो तो कोई-न-कोई कारण है, ऐसा मानकर प्रायश्चित (उसके दोष के समाधान) पर दृष्टि डाले।
राजेन्द्र ! कर्म की सांगोपांग कर लेने पर कर्ता उऋण (निर्दोष) हो जाता है। जो मनुष्य आलस्य के वश में पड़कर सोता रहता है, उसे दरिद्रता प्राप्त होती है और कार्यकुशल मानव निश्चय ही अभीष्ट फल पाकर ऐश्वर्य का उपभोग करता है। कर्म का फल होगा या नहीं, इस संशय में पड़े हुए मनुष्य अर्थसिद्धि से वंचित रह जाते हैं और जो संशयरहित हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है। कर्मपरायण और संशयरहित धीर मनुष्य निश्चय ही कहीं बिरले देखे जाते हैं। इस समय हम लोगों पर राज्यापहरणरूप भारी विपद् आ पड़ी हैं, यदि आप कर्म (पुरुषार्थ) में तत्परता से लग जायें तो निश्चय ही यह आपत्ति टल सकती है अथवा यदि कार्य की सिद्धि ही हो जाये, तो वह आपके, भीमसेन और अर्जुन के साथ नकुल सहदेव के लिये भी विशेष गौरव की बात होगी।
कर्मों के कर लेने पर अन्त में कर्ता को जैसा फल मिलता है, उसके अनुसार ही यह जाना जा सकता है कि दूसरों का कर्म सफल हुआ है या हमारा। किसान हल से पृथ्वी को चीरकर उसमें बीज बोता है और फिर चुपचाप बैठा रहता है; क्योंकि उसे सफल बनाने में मेघ कारण हैं। यदि वृष्टि ने अनुग्रह नहीं किया तो उसमें किसान का कोई दोष नहीं है। वह किसान मन-ही- मन यह सोचता है कि दूसरे लोग जोतने-बोने का जो सफल कार्य जैसे करते हैं, वह सब मैंने भी किया है। उस दशा में यदि मुझे ऐसा प्रतिकूल फल मिला तो इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है-ऐसा विचार करके उस असफलता के लिये वह बुद्धिमान् किसान अपनी निंदा नहीं करता।
भारत! पुरुषार्थ करने पर यदि अपने को सिद्धि न प्राप्त हो तो इस बात को लेकर मन-ही-मन खिन्न नहीं होना चाहिये; क्योंकि फल की सिद्धि में पुरुषार्थ के सिवा दो और भी कारण हैं-प्रारब्ध और ईश्वर कृपा महाराज! कार्य में सिद्धि प्राप्त होगी या असिद्धि, ऐसा संदेह मन में लेकर आप कर्म में प्रवृत्त ही न हों, यह उचित नहीं हैं, क्योंकि बहुत से कारण एकत्र होने पर ही कर्म में सफलता मिलती है। कर्मों में किसी अंग की कमी रह जाने पर थोड़ा फल हो सकता है। यह भी सम्भव है कि फल हो ही नहीं। परन्तु कर्म का आरम्भ ही न किया जाये, तब तो न कहीं फल दिखायी देगा और न कर्ता का कोई गुण (शौर्य आदि) ही दृष्टिगोचर होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 53-62 का हिन्दी अनुवाद)
धीर पुरुष मंगलमय कल्याण की वृद्धि के लिये अपनी बुद्धि के द्वारा शक्ति तथा बल का विचार करते हुए देश-काल के अनुसार साम-दाम आदि उपायों का प्रयोग करे। सावधान होकर देश-काल के अनुरूप कार्य करे। इसमें पराक्रम ही उपदेशक (प्रधान) है। कार्य की समस्त युक्तियों में पराक्रम ही सबसे श्रेष्ठ समझा गया है। जहाँ बुद्धिमान् पुरुष शत्रु को अनेक गुणों से श्रेष्ठ देखें, वहाँ सामनीति से ही काम बनाने की इच्छा करे और उसके लिये जो संधि आदि आवश्यक कर्तव्य हो, करे।
महाराज युधिष्ठिर! अथवा शत्रु पर कोई भारी संकट आने या देश से उसके निकाले जाने की प्रतीक्षा करे; क्योंकि अपना विरोधी यदि समुद्र अथवा पर्वत हो तो उस पर भी विपत्ति लाने की इच्छा रखनी चाहिये, फिर जो मरणधर्मा मनुष्य है, उसके लिये तो कहना ही क्या है? शत्रुओं के छिद्र का अन्वेषण करने के लिये सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा करने से वह अपनी और दूसरे लोगों की दृष्टि में भी निर्दोष होता है।
भारत! लोक को इसी प्रकार कार्यसिद्धि प्राप्त होती है-कार्यसिद्धि की यही व्यवस्था है। काल और अवस्था के विभाग के अनुसार शत्रु की दुर्बलता के अन्वेषण का प्रयत्न ही सिद्धि का मूल कारण है।
भरतश्रेष्ठ ! पूर्वकाल में मेरे पिताजी ने अपने घर पर एक विद्वान् ब्राह्मण को ठहराया था। उन्होंने ही पिताजी से बृहस्पति जी की बतायी हुई इस सम्पूर्ण नीति का प्रतिपादन किया था और मेरे भाईयों को भी इसी की शिक्षा दी थी। उस समय अपने भाइयों के निकट रहकर घर में ही मैंने भी उस नीति को सुना था।
महाराज युधिष्ठिर! मैं उस समय किसी कार्य से पिता के पास आयी थी और यह सब सुनने की इच्छा से उनकी गोद में बैठ गयी थी। तभी उन ब्राह्मण देवता ने मुझे सान्त्वना देते हुए इस नीति का उपेदश दिया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदीवाक्य विषयक बत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)
तैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"भीमसेन का पुरुषार्थ की प्रशंसा करना और युधिष्ठिर को उत्तेजित करते हुए क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध छेड़ने का अनुरोध"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! द्रुपदकुमारी का वचन सुनकर अमर्ष में भरे हुए भीमसेन क्रोधपूर्वक उच्छ्वास लेते हुए राजा के पास आये और इस प्रकार कहने लगे,,
भीमसेन बोले ;- 'महाराज ! श्रेष्ठ पुरुषों के लिये उचित और धर्म के अनुकूल जो राज्य प्राप्ति का मार्ग (उपाय) हो, उसका आश्रय लीजिये। धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों से वंचित होकर इस तपोवन में निवास करने पर हमारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा। दुर्योधन ने धर्म से, सरलता से और बल से भी हमारे राज्य को नहीं लिया है; उसने तो कपटपूर्ण जूए का आश्रय लेकर उसका हरण कर लिया है। बचे हुए अन्न को खाने वाले दुर्बल गीदड़ जैसे अत्यन्त बलिष्ठ सिंहों का भोजन हर ले, उसी प्रकार शत्रुओं ने हमारे राज्य का अपहरण किया है।
महाराज! धर्म और काम के उत्पादक राज्य और धन को खोकर लेशमात्र धर्म से आवृत हुए अब आप क्यों दुःख से संतप्त हो रहे हैं? गाण्डवीधारी अर्जुन के द्वारा सुरक्षित हमारे राज्य को इन्द्र भी नहीं छीन सकते थे, परन्तु आपकी असावधानी से वह हमारे देखते-देखते छिन गया। जैसे लूलों के पास से उनके बल-फल और पंगुओं के निकट से उनकी गायें छिन जाती हैं और वे जीवित रहकर भी कुछ कर नहीं पाते, उसी प्रकार आपके कारण जीते-जी हमारे राज्य का अपहरण कर लिया गया। भारत! आप धर्म की इच्छा रखने वाले हैं, इस रूप में आपकी प्रसिद्धि है। अतः आपकी प्रिय अभिलाषा सिद्ध हो, इसीलिये हम लोग ऐसे महान् संकट में पड़ गये हैं।
भरतकुलभूषण! आपके शासन से अपने आपको नियन्त्रण में रखकर आज हम लोग अपने मित्रों को दुःखी और शत्रुओं को सुखी बना रहे हैं। आपके शासन को मानकर जो हम लोगों ने उसी समय इन धृतराष्ट्र के पुत्रों को मार नहीं डाला, वह दुष्कर्म हमें आज भी संताप दे रहा है। राजन् मृगों के समान अपनी इस वनचर्या पर ही दृष्टिपात कीजिये। दुर्बल मनुष्य ही इस प्रकार वन में रहकर समय बिताते हैं। बलवान् मनुष्य वनवास का सेवन नहीं करते । श्रीकृष्ण, अर्जुन, अभिमन्यु, सृजयवंशी वीर, मैं और ये नकुल सहदेव-काई भी इस वनचर्या को प्रसन्द नहीं करते। राजन्! आप 'यह धर्म है, यह धर्म है, ऐसा कहकर सदा व्रतों का पालन करके कष्ट उठाते रहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप वैराग्य के कारण साहसशून्य हो नपुंसकों का सा जीवन व्यतीत करने लगे हो? अपनी खोयी हुई राज्यलक्ष्मी का उद्धार करने में असमर्थ दुर्बल मनुष्य ही निष्फल और स्वार्थनाशक वैराग्य का आश्रय लेते हैं और उसी को प्रिय मानते हैं।
राजन्! आप समझदार, दूरदशी और शक्तिशाली हैं, हमारे पुरुषार्थ को देख चुके हैं, तो भी इस प्रकार दया को अपनाकर इससे होने वाले अनर्थ को नहीं समझ रहे। इससे शत्रुओं के अपराध को क्षमा करते जा रहे हैं, इसीलिये समर्थ होते हुए भी । हमें ये धृतराष्ट्र के पुत्र निर्बल से मानने लगे हैं, यही हमारे लिये महान् दुःख है, युद्ध में मारा जाना कोई दुःख नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)
इसी दशा में यदि हम पीठ न दिखाकर युद्ध में निष्कपट भाव से लड़ते रहे और उसमें हमारा वध भी हो जाये, तो वह कल्याणकारक है; क्योंकि मरने से हमें उत्तम लोकों की प्राप्ति होगी अथवा भरतश्रेष्ठ ! यदि हम ही इन शत्रुओं को मारकर सारी पृथ्वी ले लें तो वही हमारे लिये कल्याणकर है। हम अपने क्षत्रिय धर्म के अनुष्ठान में संलग्न हो वैर का बदला लेना चाहते हैं और संसार में महान यश का विस्तार करने की अभिलाषा रखते है, अतः हमारे लिये सब प्रकार से युद्ध करना ही उचित है। शत्रुओं ने हमारे राज्य को छिन लिया है, ऐसे अवसर पर यदि हम अपने कर्तव्य को समझकर अपने लाभ के लिये ही युद्ध करें तो भी इसके लिये जगत् में हमारी प्रशंसा ही हागी, निंदा नहीं होगी।
महाराज युधिष्ठिर ! जो धर्म अपने तथा मित्रों के लिये क्लेश उत्पन्न करने वाला हो, वह तो संकट ही है। वह धर्म नहीं, कुधर्म है । तात! जैसे मुर्दों को दुःख और सुख दोनों ही नहीं होते, उसी प्रकार जो सर्वथा और सर्वदा धर्म में ही तत्पर रहकर उनके अनुष्ठान से दुर्बल हो गया है, उसे धर्म और अर्थ दोनों त्याग देते हैं। जिसका धर्म केवल धर्म के लिये ही होता है, वह धर्म के नाम पर केवल क्लेश उठाने वाला मानव बुद्धिमान् नहीं है। जैसे अन्धा सूर्य की प्रभा को नहीं जानता, उसी प्रकार वह धर्म के अर्थ को भी नहीं समझता है। जिसका धन केवल धन के लिये है, दान आदि के लिये नहीं है, वह धन के तत्त्व को नहीं जानता। जैसे सेवक (ग्वालिया) वन में गौओं की रक्षा करता है, उसी प्रकार वह उस धन का दूसरे के लिये रक्षकमात्र है। जो केवल अर्थ के ही संग्रह की अत्यन्त इच्छा रखने वाला है और धर्म एवं काम का अनुष्ठान नहीं करता है, वह ब्रह्म हत्यारे के समान घृणा का पात्र है और सभी प्राणियों के लिये वध्य है। इसी प्रकार जो निरन्तर काम की ही अभिलाषा रखकर धर्म और अर्थ का सम्पादन नहीं करता, उसके मित्र नष्ट हो जाते हैं (उसको त्यागकर चल देते हैं) और यह धर्म एवं अर्थ दोनों से वंचित ही रह जाता है।
जैसे पानी सूख जाने पर उसमें रहने वाली मछली की मृत्यु निश्चित है, उसी प्रकार जो धर्म अर्थ से हीन होकर केवल काम में ही रमण करता है, उस काम (भोग सामग्री) की समाप्ति होने पर उसकी भी अवश्य मृत्यु हो जाती है। इसलिये विद्वान् पुरुष कभी धर्म और अर्थ के सम्पादन में प्रमाद नहीं करते हैं। धर्म और अर्थ कामकी उत्पत्ति के स्थान हैं (अर्थात् धर्म और अर्थ से ही काम की सिद्धि होती है) जैसे अरणि अग्नि का उत्पत्ति स्थान है। अर्थ का कारण है धर्म और धर्म सिद्ध होता है अर्थ-संग्रह से। जैसे मेघ से समुद्र की पुष्टि होती है और समुद्र से मेघ की पूर्ति । इस प्रकार धर्म और अर्थ को एक-दूसरे के आश्रित समझना चाहिये। स्त्री, माला, चन्दन आदि द्रव्यों के स्पर्श और सुवर्ण आदि धन के लाभ से जो प्रसन्नता होती है, उसके लिये जो चित्त में संकल्प उठता है, उसी का नाम काम है। उस काम का शरीर नहीं देखा जाता (इसीलिये वह 'अनंग' कहलाता है)।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 31-46 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! धन की इच्छा रखने वाला पुरुष महान् धर्म की अभिलाषा रखता है और कामार्थी मनुष्य धन चाहता है, जैसे धर्म से धन की और धन से काम की इच्छा करता है, उस प्रकार वह काम से किसी दूसरी वस्तु की इच्छा नहीं करता है। जैसे फल उपभोग में आकर कृतार्थ हो जाता है, उससे दूसरा फल नहीं प्राप्त हो सकता तथा जिस प्रकार काष्ठ से भस्म बन सकता है; इसी तरह बुद्धिमान् पुरुष एक काम से किसी दूसरे काम की सिद्धि नहीं मानते, क्योंकि वह साधन नहीं, फल ही है। राजन्! जैसे पक्षियों को मारने वाला व्याध इन पक्षियों को मारता है, यह विशेष प्रकार ही हिंसा ही अधर्म का स्वरूप है (अतः वह हिंसक सबके लिये वध्य है)। वैसे ही जो खोटी बुद्धि वाला मनुष्य काम और लोभ के वंशीभूत होकर धर्म के स्वरूप को नहीं जानता, वह इहलोक और परलोक में भी सब प्राणियों का वध्य होता है।
राजन्! आपको यह अच्छी तरह ज्ञात है कि धन से ही भोग्य साम्रगी का संग्रह होता है और धन के द्वारा जो बहुत-से कार्य सिद्ध होते हैं, उसे भी आप जानते हैं। उस धन का अभाव होने पर अथवा प्राप्त हुए धन का नाश होने पर अथवा स्त्री आदि धन के जरा-जीर्ण एवं मृत्यु-ग्रस्त होने पर मनुष्य की जो दशा होती है, उसी को सब लोग अनर्थ मानते हैं। वही इस समय हम लोगों को भी प्राप्त हुआ है। पांचों ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि की अपने विषयों में प्रवृत्त होने के समय जो प्रीति होती है, वही मेरी समझ में काम है। वह कर्मों का उत्तम फल है। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम तीनों को पृथक्-पृथक् समझकर मनुष्य केवल धर्म, केवल अर्थ अथवा केवल काम के ही सेवन में तत्पर न रहे। उन सबका सदा इस प्रकार सेवन करे, जिससे इनमें विरोध न हो। इस विषय शास्त्रों का यह विधान है कि दिन के पूर्वभाग में धर्म का, दूसरे भाग में अर्थ का और अंतिम भाग में काम का सेवन करे। इसी प्रकार अवस्था क्रम में शास्त्र विधान यह है कि आयु के पूर्वभाग में (युवावस्था) काम का, मध्यभाग (प्रौढ़ अवस्था) में धन का तथा अंतिम भाग (वृद्ध अवस्था) में धर्म का पालन करे। वक्ताओं में श्रेष्ठ ! उचित काल का ज्ञान रखने वाला विद्वान् पुरुष धर्म, अर्थ और काम तीनों का यथावत् विभाग करके उपयुक्त समय पर उन सबका सेवन करें।
कुरुनन्दन ! निरतिशय सुख की इच्छा रखने वाले मुमुक्षुओं के लिये यह मोक्ष ही परम कल्याणप्रद है । राजन्! इसी प्रकार लौकिक सुख की इच्छा वालों के लिये धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग की प्राप्ति ही परम श्रेय है। अतः महाराज! भक्ति और योगसहित ज्ञान का आश्रय लेकर आप शीघ्र ही या तो मोक्ष ही प्राप्ति कर लीजिये अथवा धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग की प्राप्ति के उपाय का अवलम्बन कीजिये। जो इन दोनों के बीच में रहता है, उसका जीवन तो आर्त मनुष्य के समान दुःखमय ही है। मुझे मालूम है कि आपने सदा धर्म का ही आचरण किया है, इस बात को जानते हुए भी आपके हितैषी, सगे-सम्बन्धी आपको (धर्मयुक्त) कर्म एवं पुरुषार्थ के लिये ही प्रेरित करते हैं। महाराज ! इहलोक और परलोक में भी दान, यज्ञ, संतों का आदर, वेदों का स्वाध्याय और सरलता आदि ही उत्तम एवं प्रबल धर्म माने गये हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 47-63 का हिन्दी अनुवाद)
पुरुषसिंह राजन् ! यद्यपि मनुष्य के दूसरे सभी गुण मौजूद हों तो भी यह यज्ञ आदि रूप धर्म धनहीन पुरुष के द्वारा नहीं सम्पादित किया जा सकता। महाराज! इस जगत् का मूल कारण धर्म ही है। इस जगत् में धर्म से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उस धर्म का अनुष्ठान भी महान् धन से ही हो सकता है। राजन्! भीख मांगने से, कायरता दिखाने से अथवा केवल धर्म में ही मन लगाये रहने से धन की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। नरश्रेष्ठ! ब्राह्मण जिस याचना के द्वारा कार्यसिद्धि कर लेता है वह तो आप कर नहीं सकते, क्योंकि क्षत्रिय के लिये उसका निषेध है। अतः आप अपने तेज के द्वारा ही धन पाने का प्रयत्न कीजिये क्षत्रिय के लिये न तो भीख मांगने का विधान है और न तो वैश्य और शूद्र की जीविका करने का ही। उसके लिये तो बल और उत्साह ही विशेष धर्म हैं।
पार्थ! अपने धर्म का आश्रय लीजिये, प्राप्त हुए शत्रुओं का वध कीजिये। मेरे तथा अर्जुन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्ररूपी जंगल को काट डालिये। मनीषी विद्वान् दानशीलता को ही धर्म कहते हैं, अतः आप उस दानशीलता को ही प्राप्त कीजिये। आपको इस दयनीय अवस्था में नहीं रहना चाहिये। महाराज! आप सनातन धर्मों को जानते हैं, आप कठोर कर्म करने वाले क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए हैं, जिससे सब लोग भयभीत रहते हैं, अतः अपने स्वरूप और कर्तव्य की ओर ध्यान दीजिये। तब आप राज्य प्राप्त कर लेंगे, उस समय प्रजापालनरूप धर्म से आपको जिस पुण्य फल की प्राप्ति होगी, वह आपके लिये गर्हित नहीं होगा। महाराज! विघाता ने आप जैसे क्षत्रिय का यही सनतान धर्म नियत किया है। पार्थ! उस धर्म के हीन होने पर तो संग्राम में आप उपहास के पात्र हो जायेंगे। मनुष्यों का अपने धर्म से भ्रष्ट होना कुछ प्रशंसा की बात नहीं है। कुरूनन्दन ! अपने हृदय को क्षत्रियोचित उत्साह से भरकर मन की इस शिथिलता को दूर करके पराक्रम का आश्रय ले आप एक धुरन्धर वीर पुरुष की भाँति युद्ध का भार वहन कीजिये।
महाराज! केवल धर्म में ही लगे रहने वाले किसी भी नरेश ने आज तक न तो कभी पृथ्वी पर विजय पायी है और न ऐश्वर्य तथा लक्ष्मी को ही प्राप्त किया है। जैसे बहेलिया लुब्ध हृदय वाले छोटे-छोटे मृगों को कुछ खाने की वस्तुओं का लोभ देकर छल से उन्हें पकड़ लेता है, उसी प्रकार नीतिज्ञ राजा शत्रुओं के प्रति कूटनीति का प्रयोग करके उनसे राज्य को प्राप्त कर लेता है। नृपश्रेष्ठ! आप जानते हैं कि असुरगण देवताओं के बड़े भाई हैं, उनसे पहले उत्पन्न हुए हैं और सब प्रकार से समृद्धिशाली हैं तो भी देवताओं ने छल से उन्हें जीत लिया। महाराज! महाबाहो ! इस प्रकार बलवान् का ही सब पर अधिकार होता है, यह समझकर आप भी कूटनीति का आश्रय ले अपने शत्रुओं को मार डालिये। युद्ध में अर्जुन के समान कोई धनुर्धर अथवा मेरे समान गदाधारी योद्धा न तो है और न आगे होने की सम्भावना है। पाण्डुनन्दन! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबल से ही युद्ध करता है, इसलिये आप सावधानीपूर्वक महान् उत्साह और आत्मबल का आश्रय लीजिये।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 64-79 का हिन्दी अनुवाद)
'आत्मबल ही धन का मूल है, इसके विपरित जो कुछ है, वह मिथ्या है, क्योंकि हेमन्त ऋतु में वृक्षों की छाया के समान वह आत्मा की दुर्बलता किसी भी काम की नहीं है। कुन्तीकुमार! जैसे किसान अधिक अन्नराशि उपजाने की लालसा से धान्य के अल्प बीजों का भूमि में परित्याग कर देता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ अर्थ पाने की इच्छा से अल्प अर्थ का त्याग किया जा सकता है। आपको इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये। जहाँ अर्थ का उपयोग करने पर उससे अधिक या समान अर्थ की प्राप्ति न हो, वहाँ उस अर्थ को नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि वह (परस्पर) गधों के शरीर को खुजलाने के समान व्यर्थ है। नरेश्वर! इसी प्रकार जो मनुष्य अल्प धर्म का परित्याग करके महान् धर्म की प्राप्ति करता है, वह निश्चय ही बुद्धिमान् है। मित्रों के सम्पन्न शत्रु को विद्वान् पुरुष अपने मित्रों द्वारा भेदनीति से उसमें और उसके मित्रों में फूट डाल देते हैं, फिर भेदभाव होने पर मित्र जब उसको त्याग देते हैं, तब वे उस दुर्बल शत्रु को अपने वश में कर लेते हैं।
राजन्! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबल से ही युद्ध करता है, वह किसी अन्य प्रयत्न से या प्रशंसा द्वारा सब प्रजा को अपने वश में नहीं करता। जैसे मधुमक्खियां संगठित होकर मधु निकालने वाले को मार डालती हैं, उसी प्रकार सर्वथा संगठित रहने वाले दुर्बल मनुष्यों द्वारा बलवान् शत्रु भी मारा जा सकता है। राजन्! जैसे भगवान् सूर्य पृथ्वी के रस को ग्रहण करते और अपनी किरणों द्वारा वर्षा करके उन सब की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी प्रजाओं से कर लेकर उनकी रक्षा करते हुए सूर्य के ही समान हो जाइये। राजेन्द्र ! हमोर बाप-दादों ने जो किया है, वह धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन भी प्राचीन काल से चला आने वाला तप ही है, ऐसा हमने सुना है। धर्मराज! क्षत्रिय तपस्या के द्वारा वैसे पुण्य लोकों को नहीं प्राप्त होता, जिन्हें वह अपने लिये विहित युद्ध के द्वारा विजय अथवा मृत्यु को अंगीकार करने से प्राप्त करता है। आप पर जो यह संकट आया है, उस असमम्भव-सी घटना को देखकर लोग यह निश्चयपूर्वक मानने लगे हैं कि सूर्य से उसकी प्रभा और चन्द्रमा से उसकी चांदनी भी दूर हो सकती है। राजन्! साधारण लोग भिन्न-भिन्न सभाओं में सम्मिलित होकर अथवा अलग-अलग समूह के समूह इकट्ठे होकर आपकी प्रशंसा और दुर्योधन की निंदा से ही सम्बन्ध रखने वाली बातें करते हैं।
महाराज! इसके सिवा, यह भी सुनने में आया है कि ब्राह्मण और कुरुवंशी एकत्र होकर बड़ी प्रसन्नता के साथ आपकी सत्यप्रतिज्ञा का वर्णन करते हैं। उनका कहना है कि आपने कभी न तो मोह से, न दीनता से, न लोभ से, न भय से, न कामना से और न धन के ही कारण से किंचिन्मात्र भी असत्य भाषण किया है। राजा पृथ्वी को अपने अधिकार में करते समय युद्धजनित हिंसा आदि के द्वारा जो कुछ पाप करता है, वह सब राज्य प्राप्ति के पश्चात् भारी दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा नष्ट कर देता है। नरेश्वर! ब्राह्मण को बहुत से गांव और सहस्रों गौएं दान में देकर राजा अपने समस्त पापों से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे चन्द्रमा अन्धकार से।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 80-90 का हिन्दी अनुवाद)
कुरुनन्दन युधिष्ठिर! प्रायः नगर और जनपद में निवास करने वाले आबालवृद्ध सब लोग आपकी प्रशंसा करते हैं। कुत्ते चमड़े की कुप्पी से रक्खा हुआ दूध, शूद्र में स्थित वेद, चोर में सत्य और नारी में स्थित बल जैसे अनुचित है, उसी प्रकार दुर्योधन में स्थित राजस्व भी संगत नहीं है। भारत ! लोक में यह उपर्युक्त सत्य प्रवाद पहले से चला आ रहा है। स्त्रियां और बच्चे तक इसे नित्य किये जाने वाले पाठ की तरह दुहराते रहते हैं। शत्रुदमन! बड़े दुःख की बात है कि हमारे साथ आज आप इस दुरवस्था में पहुँच गये हैं और आप ही के कारण ऐसा उपद्रव आया कि हम सब लोग नष्ट हो गये।
महाराज! आप विजय में प्राप्त हुए धन का ब्राह्मणों को दान करने के लिये अस्त्र-शस्त्र आदि सभी आवश्यक सामग्रियों से सुसज्जित रथ पर बैठकर शीघ्र यहाँ से युद्ध के लिये निकलिये। जैसे सर्पों के समान भयंकर शूरवीर देवताओं से घिरे हुए वृत्रनाशक इन्द्र असुरों पर आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार अस्त्र-विद्या के ज्ञाता और सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले हम सब भाईयों से घिरे हुए आप श्रेष्ठ ब्राह्मणों से स्वतिवाचन कराकर आज ही हस्तिनापुर पर चढ़ाई कीजिये ।
महाबली कुन्तीकुमार! जैसे इन्द्र अपने तेज से दैत्यों को मिट्टी में मिला देते हैं, उसी प्रकार आप अपने प्रभाव से शत्रुओं को मिट्टी में मिलाकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से अपनी राजलक्ष्मी को ले लीजिये मनुष्यों में कोई ऐसा नहीं है, जो गाण्डीव धनुष से छूटे हुए विषैले सर्पों के समान भयंकर गृघ्रपंखयुक्त बाणों का स्पर्श सह सके।
भारत! इसी प्रकार जगत् में ऐसा कोई अश्व या गजराज या कोई वीर पुरुष भी नहीं है, जो रणभूमि में क्रोधपूर्वक विचरने वाले मुझ भीमसेन की गदा का वेग सह सके । कुन्तीनन्दन ! संजय और कैकयवंशी वीरों तथा वृष्णि वंशावतंस भगवान् श्रीकृष्ण के साथ होकर हम संग्राम में अपना राज्य कैसे नहीं प्राप्त कर लेंगे? राजन्! आप विशाल सेना से सम्पन्न हो यहाँ प्रयत्नपूर्वक युद्ध ठानकर शत्रुओं के हाथ में गयी हुई पृथ्वी को उनसे छीन क्यों नहीं लेते?'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में भीम वाक्य विषयक तैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)
चौतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"धर्म और नीति की बात कहते हुए युधिष्ठिर की अपनी प्रतिज्ञा के पालनरूप धर्म पर ही डटे रहने की घोषणा"
संजय कहते हैं ;- जनमेजय! भीमसेन जब इस प्रकार अपनी बात पूरी कर चुके, तब महानुभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर ने धैयपूर्वक उनसे यह बात कही।
युधिष्ठिर बोले ;- भरतकुलनन्दन! तुम मुझे पीड़ा देते हुए अपने वाग्बाणों द्वारा मेरे हृदय को जो विदीर्ण कर रहे हो, यह निःसंदेह ठीक ही है। मेरे प्रतिकूल होने पर भी इन बातों के लिये मैं तुम्हारी निंदा नहीं करता, क्योंकि मेरे ही अन्याय से तुम लोगों पर यह विपत्ति आयी है। उन दिनों धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन के हाथ से उसके राष्ट्र तथा राजपद का अपहरण करने की इच्छा रखकर ही मैं द्यूतक्रीड़ा में प्रवृत्त हुआ था; किंतु उस समय धूर्त जुआरी सुबलपुत्र शकुनि दुर्योधन के लिये उसकी ओर से मेरे विपक्ष में आकर जुआ खेलने लगा। भीमसेन! पर्वतीय प्रदेश का निवासी शकुनि बड़ा मायावी है। उसने द्यूतसभा में पासे फेंककर अपनी माया द्वारा मुझे जीत लिया; क्योंकि मैं माया नहीं जानता था; इसीलिये मुझे यह संकट देखना पड़ा है। शकुनि के सम और विषम सभी पासों को उसकी इच्छा के अनुसार ही ठीक-ठीक पड़ते देखकर यदि अपने मन को जूए की ओर से रोका जा सकता, तो यह अनर्थ न होता, परन्तु क्रोधावेश मनुष्य के धैर्य को नष्ट कर देता है (इसीलिये मैं जूए से अलग न हो सका)।
तात भीमसेन! किसी विषय में आसक्त हुए चित्त को पुरुषार्थ, अभिमान अथवा पराक्रम से नहीं रोका जा सकता (अर्थात् उसे रोकना बहुत ही कठिन है, अतः मैं तुम्हारी बातों के लिये बुरा नहीं मानता। मैं समझता हूं, वैसी ही भवितव्यता थी। भीमसेन! धृतराष्ट्र के पुत्र राजा दुर्योधन ने राज्य पाने की इच्छा से हम लोगों को विपत्ति में डाल दिया। हमें दास तक बना लिया था, किंतु उस समय द्रौपदी हम लोगों की रक्षक हुई। तुम और अर्जुन दोनों इस बात को जानते हो कि जब हम पुनः द्यूत के लिये बुलाये जाने पर उस सभा में आये तो उस समय समस्त भरतवंशियों के समक्ष धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन ने मुझसे एक ही दांव लगाने के लिये इस प्रकार कहा- 'राजकुमार अजातशत्रो! (यदि आप हार जायें तो) आपको बारह वर्षों तक इच्छानुसार सबकी जानकारी में और पुनः एक वर्ष तक गुप्त वेष में छिपे रहकर अपने भाईयों के साथ वन में निवास करना पड़ेगा।
कुन्तीकुमार! यदि भरतवंशियों के गुप्तचर आपके गुप्त निवास का समाचार सुनकर पता लगाने लगें और उन्हें यह मालूम हो जाये कि आप लोग अमुक जगह अमुक रूप में रह रहे हैं, तब आपको पुनः उतने (बारह) ही वर्षों तक वन में रहना पड़ेगा। इस बात को निश्चय करके इसके विषय में प्रतिज्ञा कीजिये। भरतवंशी नरेश! यदि आप सावधान रहकर इतने समय तक मेरे गुप्तचरों को मोहित करके अज्ञातभाव से ही विचरते रहें तो मैं यहाँ कौरवों की सभा में यह सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ कि उस सारे पंचनद प्रदेश पर फिर तुम्हारा ही अधिकार होगा। भारत ! यदि आपने ही हम सब लोगों को जीत लिया तो हम भी उतने ही समय तक सोर भोगों का परित्याग करके उसी प्रकार वास करेंगे। राजा दुर्योधन ने जब समस्त कौरवों के बीच इस प्रकार कहा, तब मैंने भी 'तथास्तु' कहकर उसकी बात मान ली।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद)
फिर वहाँ हम लोगों का अंतिम बार निन्दनीय जूआ हुआ। उसमें हम सब लोग हार गये और घर छोड़कर वन में निकल आये। इस प्रकार हम कष्टप्रद वेष धारण करके कष्टदायक वनों और विभिन्न प्रदेशों में घूम रहे हैं। उधर दुर्योधन भी शांति की इच्छा न रखकर और भी क्रोध के वशीभूत हो गया है। उसने हमें तो कष्ट में डाल दिया और दूसरे समस्त कौरवों को जो उसके वंश में होकर उसी का अनुसरण करते रहे हैं, (देशशासक और दुर्गरक्षक आदि) को ऊंचे पदों पर प्रतिष्ठित कर दिया है। कौरव- सभा में साधु पुरुषों के समीप वैसी सन्धि का आश्रय लेकर यानि प्रतिज्ञा करके अब यहाँ राज्य के लिये उसे कौन तोड़े ? धर्म का उल्लंघन करके पृथ्वी का शासन करना तो किसी श्रेष्ठ पुरुष के लिये मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायक है-ऐसा मेरा मत है।
वीर भीमसेन ! द्यूत के समय जब तुमने मेरी दोनों बांहों को जला देने की इच्छा प्रकट की और अर्जुन ने तुम्हें रोका, उस समय तुम शत्रुओं पर आघात करने के लिये अपनी गदा पर हाथ फेरने लगे थे। यदि उसी समय तुमने शत्रुओं पर आघात कर दिया होता तो कितना अनर्थ हो जाता। तुम अपना पुरुषार्थ तो जानते ही थे। जब मैं पूवोक्त प्रकार की प्रतिज्ञा करने लगा, उससे पहले ही तुमने ऐसी बात क्यों नहीं कहीं ? जब प्रतिज्ञा के अनुसार वनवास का समय स्वीकार कर लिया, तब पीछे चलकर इस समय क्यों मुझसे अत्यन्त कठोर बातें कहते हो? भीमसेन! मुझे इस बात का भी बड़ा दुःख है कि द्रौपदी को शत्रुओं द्वारा क्लेश दिया जा रहा था और हमने अपनी आंखों देखकर भी उसे चुपचाप सह लिया । जैसे कोई विष घोलकर पी ले और उसकी पीड़ा से कराहने लगे, वैसी ही वेदना इस समय मुझे हो रही है। भरतवंश के प्रमुख वीर! कौरव वीरों के बीच मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसे स्वीकार कर लेने के बाद अब इस समय आक्रमण नहीं किया जा सकता। जैसे बीज बोने वाला किसान अपनी खेती के फलों के पकने की बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार तुम ही उस समय की प्रतीक्षा करो जो हमारे लिये सुख की प्राप्ति कराने वाला है।
जब पहले शत्रु के द्वारा धोखा खाया हुआ वीर पुरुष उसे फूलता-फलता जानकर अपने पुरुषार्थ के द्वारा उसका मूलोच्छेद कर डालता है, तभी उस शत्रु के महान् गुणों का अपहरण कर लेता है और इस जगत् में सूखपूर्वक जीवित रहता है। यह वीर पुरुष लोक में सम्पूर्ण लक्ष्मी को प्राप्त कर लता है। मैं यह भी मानता हूँ कि सभी शत्रु उसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं। फिर थोड़े ही दिनों में उसके बहुत-से मित्र बन जाते हैं और जैसे देवता इन्द्र के सहारे जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार वे मित्रगण उस वीर की छत्रछाया में रहकर जीवन निर्वाह करते हैं। किंतु भीमसेन ! मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा सुनो। मैं जीवन और अमरत्व की अपेक्षा भी धर्म को ही बढ़कर समझता हूँ। राज्य, पुत्र, यश और धन-ये सब के सब सत्य धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकते।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में युधिष्ठिर का वाक्य विषयक चौतीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)
पेंतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"दुःखित भीमसेन का युधिष्ठिर को युद्ध के लिये उत्साहित करना"
भीमसेन बोले ;- महाराज! आप फेन के समान नश्वर, फल के समान पतनशील तथा काल के बन्धन में बंधे हुए मरणधर्मा मनुष्य हैं तो भी आपने सब का अंत और संहार करने वाले, बाण के समान वेगवान्, अनन्त, अप्रमेय एवं जलस्रोत के समान प्रवाहशील लंबे काल को बीच में देकर दुर्योधन के साथ संधि करके उस काल को अपनी आंखों के सामने आया हुआ मानते हैं। किंतु कुन्तीकुमार ! सलाई से थोड़ा-थोड़ा करके उठाये जाने वाले अंजनचूर्ण (सुरमे ) की भाँति एक-एक निमेष में जिसकी आयु क्षीण हो रही है, वह क्षणभंगुर मानव समय की प्रतीक्षा क्या कर सकता है? अवश्य ही जिसकी आयु की कोई माप नहीं है अथवा जो आयु की निश्चित संख्या को जानता है तथा जिसने सब कुछ प्रत्यक्ष देख लिया है। वही समय की प्रतीक्षा कर सकता है।
राजन्! तेरह वर्षों तक हमें जिसकी प्रतीक्षा करनी है। वह काल हमारी आयु को क्षीण करके हम सबको मृत्यु के निकट पहुँचा देगा। देहधारी की मृत्यु सदा उसके शरीर में ही निवास करती है, अतः मृत्यु के पहले ही हमें राज्य प्राप्ति के लिये चेष्ट करनी चाहिये। जिसका प्रभाव छिपा हुआ है, वह भूमि के लिये भाररूप ही है, क्योंकि वह जनसाधारण में ख्याति नहीं प्राप्त कर सकता। वह वैर का प्रतिशोध न लेने के कारण बैल की भाँति दुःख उठाता रहता है। जिसका बल और उद्यम बहुत कम है, जो वैर का बदला नहीं ले सकता, उस पुरुष का जन्म अत्यन्त घृणित है। मैं तो उसके जन्म को निष्फल मानता हूँ।
महाराज! आपकी दोनों भुजाएं सुवर्ण की अधिकारिणी हैं। आपकी कीर्ति राजा पृथु के समान है। आप युद्ध में शत्रु का संहार करके अपने बाहुबल से उपार्जित धन का उपभोग कीजिये। शत्रुदमन नरेश ! यदि मनुष्य अपने को धोखा देने वाले शत्रु का वध करके तुरन्त ही नरक में पड़ जाये तो उसके लिये वह नरक भी स्वर्ग के तुल्य है। अमर्ष से जो संताप होता है, वह आग से भी बढ़कर जलाने वाला है। जिससे संतप्त होकर मुझे न तो रात में नींद आती है और न दिन में। ये हमारे भाई अर्जुन धनुष की प्रत्यंचा खींचने में सबसे श्रेष्ठ हैं, परन्तु ये भी निश्चय ही अपनी गुफा में दुःखी होकर बैठे हुए सिंह की भाँति सदा अत्यन्त संतप्त होते रहते हैं। जो अकेले ही संसार के समस्त धनुर्धर वीरों का सामना कर सकते हैं, वे ही अर्जुन महान् गजराज की भाँति अपने मानसिक क्रोधजनित संताप को किसी प्रकार रोक रहे हैं।
नकुल, सहदेव तथा वीर पुत्रों को जन्म देने वाली हमारी बूढ़ी माता कुन्ती, ये सब के सब आपका प्रिय करने की इच्छा रखकर ही मूर्खों और गूंगों की भाँति चुप रहते हैं। आपके सभी बन्धु बान्धव और सृजयवंशी योद्धा भी आपका प्रिय करना चाहते हैं। केवल हम दो व्यक्तियों को ही विशेष कष्ट है। एक तो मैं संतप्त होता हूँ और दूसरी प्रतिविन्ध्य की माता द्रौपदी । मैं जो कुछ कहता हूं, वह सबको प्रिय है। हम सब लोग संकट में पड़े हैं और सभी युद्ध का अभिनन्दन करते हैं। राजन्! इससे बढ़कर अत्यन्त दुःखदायिनी विपत्ति और क्या होगी कि नीच और दुर्बल शत्रु हम बलवानों का राज्य छीनकर उनका उपभोग कर रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)
परंतप युधिष्ठिर! आप शीलस्वभाव के दोष और कोमलता से एवं दयाभाव से युक्त होने के कारण इतने क्लेश सह रहे हैं, परन्तु महाराज! इसके लिये आपकी कोई प्रशंसा नहीं करता। राजन्! आपकी बुद्धि अर्थज्ञान से रहित वेदों के अक्षरमात्र को रटने वाले मन्दबुद्धि श्रोत्रिय की तरह केवल गुरु की वाणी का अनुसरण करने के कारण नष्ट हो गयी है। यह तात्त्विक अर्थ को समझने या समझाने वाली नहीं है। आप दयालु ब्राह्मणरूप हैं पता नहीं, क्षत्रिय कुल में कैसे आपका जन्म हो गया, क्योंकि क्षत्रिय योनि में तो प्राय, क्रूर बुद्धि के ही पुरुष उत्पन्न होते हैं। महाराज! आपने राजधर्म का वर्णन तो सुना ही होगा, जैसा मनु जी ने कहा है। फिर क्रूर, मायावी, हमारे हित के विपरीत आचरण करने वाले तथा अशांत चित्त वाले दुरात्मा धृतराष्ट्र के पुत्रों का अपराध आप क्यों क्षमा करते हैं? पुरुषसिंह! आप बुद्धि, पराक्रम, शास्त्रज्ञान तथा उत्तम कुल से सम्पन्न होकर भी जहाँ कुछ काम करना है, वहाँ अजगर की भाँति चुपचाप क्यों बैठे हैं?
कुन्तीनन्दन! आप अज्ञातवास के समय जो हम लोगों को छिपाकर रखना चाहते हैं, इससे जान पड़ता है कि आप एक मुट्ठी तिनके से हिमालय पर्वत को ढक देना चाहते हैं। पार्थ! आप इस भूमण्डल में विख्यात हैं, जैसे सूर्य आकाश में छिपकर नहीं बह सकते, उसी प्रकार आप भी कहीं छिपे रहकर अज्ञातवास का नियम नहीं पूरा कर सकते। जहाँ जल की अधिकता हो, ऐसे प्रदेश में शाखा, पुष्प और पत्तों से सुशोभित विशाल शालवृक्ष के समान अथवा श्वेत गजराज ऐरावत के सदृश ये अर्जुन कहीं भी अज्ञात कैसे रह सकेंगे? कुन्तीकुमार! ये दोनों भाई बालक नकुल सहदेव सिंह के समान पराक्रमी हैं। यह दोनों कैसे छिपकर विचर सकेंगे? पार्थ! यह वीरजननी पवित्रकीर्ति राजकुमारी द्रौपदी सारे संसार में विख्यात है। भला, यह अज्ञातवास के नियम कैसे निभा सकेगी। महाराज! मुझे भी प्रजावर्ग के बच्चे तक पहचानते हैं, जैसे मेरु पर्वत को छिपाना असम्भव है, उसी प्रकार मुझे अपनी अज्ञातचर्या भी सम्भव नहीं दिखायी देती ।
राजन्! इसके सिवा एक बात और है, हम लोगों ने भी बहुत-से राजाओं तथा राजकुमारों को उनके राज्य से निकाल दिया है। वे सब आकर राजा धृतराष्ट्र से मिल गये होंगे, हमने जिनको राज्य से वंचित किया अथवा निकाला है, वे कदापि हमारे प्रति शांत भाव नहीं धारण कर सकते। अवश्य ही दुर्योधन का प्रिय करने की इच्छा रखकर वे राजा लोग भी हम लोगों को धोखा देना उचित समझकर हम लोगों की खोज करने के लिये बहुत से छिपे हुए गुप्तचर नियुक्त करेंगे और पता लग जाने पर निश्चय ही दुर्योधन को सूचित कर देंगे। उस दशा में हम लोगों पर बड़ा भारी भय उपस्थित हो जायेगा हमने अब तक वन में ठीक-ठीक तेरह महीने व्यतीत कर लिये हैं, आप इन्हीं को परिणाम में तेरह वर्ष समझ लीजिये। मनीषी पुरुषों का कहना है कि मास संवत्सर का प्रतिनिधि है। जैसे पूतिका सोमलता के स्थान पर यज्ञ में काम देती है, उसी प्रकार आप इन तेरह मासों को ही तेरह वर्षों का प्रतिनिधि स्वीकार कर लीजिये। राजन्! अथवा अच्छी तरह बोझ ढोने वाले उत्तम बैल को भरपेट भोजन दे देने पर इस पाप से आपको छुटकारा मिल सकता है। अतः महाराज! आप शत्रुओं का वध करने का निश्चय कीजिये ; क्योंकि समस्त क्षत्रियों के लिये युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है।'
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में भीम वाक्य विषयक पैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ।
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