सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"दम्भपुत्र बक का युधिष्ठिर को ब्राह्मणों का महत्त्व बतलाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! द्वैतवन में जब महात्मा पांडव निवास करने लगे, उस समय वह विशाल वन ब्राह्मणों से भर गया। सरोवर सहित द्वैतवन सदा और सब ओर उच्चारित होने वाले वेदमन्त्रों के घोष से ब्रह्मलोक के समान जान पड़ता था। यजुर्वेद, ऋग्वेद और सामवेद तथा गद्य भाग के उच्चारण से जो ध्वनि होती थी, वह हृदय को प्रिय जान पड़ती थी । कुन्तीपुत्रों के धनुष की प्रत्यंचा का टंकार-शब्द और बुद्धिमान ब्राह्मणों के वेदमन्त्रों का घोष दोनों मिलकर ऐसे प्रतीत होते थे, मानो ब्राह्मणों और क्षत्रियत्व का सुन्दर संयोग हो रहा था।
एक दिन कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ऋषियों से घिरे हुए संध्योपासना कर रहे थे।
उस समय दल्भ के पुत्र बक नामक महर्षि ने उनसे कहा,,
महर्षि बक बोले ;- 'कुरुश्रेष्ठ कुन्तीकुमार! देखो, द्वैतवन में तपस्वी ब्राह्मणों की होम वेला का कैसा सुन्दर दृश्य है। सब ओर वेदियों पर अग्नि प्रज्वलित हो रही है। आपके द्वारा सुरक्षित हो व्रत धारण करने वाले ब्राह्मण इस पुण्य वन में धर्म का अनुष्ठान कर रहे हैं। भार्गव, आंगिरस, वसिष्ठ, कश्यप, महान सौभाग्यशाली अगस्त्यवंशी तथा श्रेष्ठ व्रत का पालन करने वाले आत्रेय आदि से सम्पूर्ण जगत के श्रेष्ठ ब्राह्मण यहाँ आकर तुमसे मिले हैं। कुन्तीनन्दन ! कुरुश्रेष्ठ ! भाइयों सहित तुमसे मैं जो एक बात कह रहा हूँ, इसे ध्यान देकर सुनो। अब ब्राह्मण, क्षत्रियों से और क्षत्रिय, ब्राह्मणों से मिल जायें तो दोनों प्रचण्ड शक्तिशाली होकर उसी प्रकार अपने शत्रुओं को भस्म कर देते हैं, जैसे अग्नि और वायु मिलकर सारे वन को जला देते हैं। तात! इहलोक और परलोक पर विजय पाने की इच्छा रखने वाला राजा किसी ब्राह्मण को साथ लिये बिना अधिक काल तक न रहे। जिसे धर्म और अर्थ की शिक्षा मिली हो तथा जिसका मोह दूर हो गया हो, ऐसे ब्राह्मण को पाकर राजा अपने शत्रुओं का नाश कर देता है। राजा बलि को प्रजापालनजनित कल्याणकारी धर्म का आचरण करने के लिये ब्राह्मण का आश्रय लेने के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं जान पड़ता था। ब्राह्मणों के सहयोग से पृथ्वी का राज्य पाकर विरोचनपुत्र बलि नामक असुर का जीवन सम्पूर्ण आवश्यक कामोपभोग की सामग्री से सम्पन्न हो गया और अक्षय राजलक्ष्मी भी प्राप्त हो गयी। परंतु वह उन ब्राह्मणों के साथ दुर्व्यवहार करने पर नष्ट हो गया।
जिसे ब्राह्मण का सहयोग नहीं प्राप्त है, ऐसे क्षत्रिय के पास यह ऐश्वर्यपूर्ण भूमि दीर्घ काल तक नहीं रहती। जिस नीतिज्ञ राजा को श्रेष्ठ ब्राह्मण का उपदेश प्राप्त होता है, उसके सामने समुद्रपर्यन्त पृथ्वी नतमस्तक होती है। जैसे संग्राम में हाथी से महावत को अलग कर देने पर उसकी सारी शक्ति व्यर्थ हो जाती हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणरहित क्षत्रिय का सारा बल क्षीण हो जाता है। ब्राह्मणों के पास अनुपम दृष्टि (विचारशक्ति) होती है और क्षत्रिय के पास अनुपम बल होता है। ये दोनों जब साथ- साथ कार्य करते हैं, तब सारा जगत सुखी होता है। जैसे प्रचण्ड अग्नि वायु का सहारा पाकर सूखे जंगल को जला डालती है, उसी प्रकार ब्राह्मण की सहायता से राजा अपने शत्रु को भस्म कर देता है।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 18-22 का हिन्दी अनुवाद)
'बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की वृद्धि के लिये ब्राह्मणों से बुद्धि ग्रहण करे। राजन! प्राप्त की प्राप्ति और प्राप्ति की वृद्धि के लिये यथायोग उपाय बताने के निमित्त तुम अपने यहाँ यशस्वी, बहुश्रुत एवं वेदज्ञ विद्वान ब्राह्मणों को बसाओ । युधिष्ठिर! ब्राह्मणों के प्रति तुम्हारे हृदय में सदा उत्तम भाव है, इसीलिये सब लोकों में तुम्हारा यश विख्यात एवं प्रकाशित है।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय ! तदनन्तर युधिष्ठिर की बढ़ाई करने पर उन सब ब्राह्मणों ने बक का आदर सत्कार किया और उन सब ब्राह्मणों का चित्त प्रसन्न हो गया । द्वैपायन व्यास, नारद, परशुराम, पृथुश्रवा, इन्द्रद्युम्न, भालुकि, कृतचेता, सहस्रपात्, कर्णश्रवा, मुंज, लवणाश्व काश्यप, हारीत, स्थूणकर्ण, अग्निवेश्य, शौनक, कृतवाक, सुवाक, बृहदश्व, ऊर्ध्वरिता, वृषामित्र, सुहोत्र, तथा होत्रवाहन- ये सब ब्रह्मर्षि तथा राजर्षिगण और दूसरे कठोर व्रत का पालन करने वाले बहुत-से ब्राह्मण अजातशत्रु युधिष्ठिर का उसी प्रकार आदर करते थे, जैसे महर्षि लोग देवराज इन्द्र का।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व में अर्जुनाभिगमनपर्व में द्वैतवनप्रवेश विषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रौपदी का युधिष्ठिर से उनके शत्रुविषयक क्रोध को उभाड़ने के लिये संतापूर्ण वचन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर वन में गये हुए पाण्डव एक दिन सांयकाल में द्रौपदी के साथ बैठकर दुःख और शोक में मग्न हो कुछ बातचीत करने लगे। पतिव्रता द्रौपदी पाण्डवों की प्रिया, दर्शनीया और विदुषी थी। उसने धर्मराज से इस प्रकार कहा।
द्रौपदी बोली ;- राजन! मैं समझती हूँ, उस क्रूर स्वभाव वाले दुरात्मा धृष्टराष्ट्रपुत्र पापी दुर्योधन के मन में हम लोगों के लिये तनिक भी दुःख नहीं हुआ होगा। महाराज! उस नीच बुद्धि वाले दुष्टात्मा ने आपको भी मृगछाला पहनाकर मेरे साथ वन में भेज दिया, किंतु इसके लिये उसे थोड़ा भी पश्चाताप नहीं हुआ। अवश्य ही उस कुकर्मी का हृदय लोहे का बना है, क्योंकि उसने आप जैसे धर्मपरायण श्रेष्ठ पुरुष को भी उस समय कटु वचन सुनाये थे। आप सुख भोगने योग्य हैं। दुःख के योग्य कदापि नहीं हैं, तो भी आपको ऐसे दुःख में डालकर वह पापाचारी दुरात्मा अपने मित्रों के साथ आनन्दित हो रहा है।
भारत! जब आप वल्कल वस्त्र धारण करके वन में जाने के लिये निकले, उस समय केवल चार पापात्माओं के नेत्रों से आँसू नहीं गिरा था। दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि तथा उग्र स्वभाव वाले दुष्ट भ्राता दुःशासन। इन्हीं की आँखों में आँसू नहीं थे। कुरुश्रेष्ठ अन्य सभी कुरुवंशी दुःख में डूबे हुए थे और उनके नेत्रों से अश्रुवर्षा हो रही थी। महराज ! आप की शय्या देखकर मुझे पहले की राजोचित शय्या का स्मरण जाता है और मैं आपके लिये शोक में मग्न हो जाती हूँ, क्योंकि आप दुःख के अयोग्य और सुख के ही योग्य हैं। सभा भवन में जो रत्न जड़ित हाथी का दाँत सिंहासन है, उसका स्मरण करके जब मैं इस कुश की चटाई को देखती हूँ, तब शोक मुझे दग्ध किये देता है। राजन! मैं इन्द्रप्रस्थ की सभा में आपको राजाओं से घिरा हुआ देख चुकी हूँ, अतः आज वैसी अवस्था में आपको न देखकर मेरे हृदय को क्या शान्ति मिल सकती है? भारत! मैं जो आपको चन्दनचर्चित एवं सूर्य के समान तेजस्वी देखती रही हूँ, वहीं मैं आपको कीचड़ एवं मैल जैसे मलिन देखकर मोह के कारण दुःखित हो रही हूँ ।
राजेन्द्र। जो मैं आपको पहले उज्ज्वल रेशमी वस्त्रों से आच्छादित देख चुकी हूँ, वहीं आज वल्कल वस्त्र पहिने देखती हूँ। एक दिन वह था कि आपके घर से सहस्रों ब्राह्मणों के लिये सोने की थालियों में सब प्रकार की रुचि के अनुकूल तैयार किया हुआ सुन्दर भोजन परोसा जाता था। शक्तिशाली महाराज! उन दिनों प्रतिदिन यतियों, ब्रह्मचारियों और गृहस्थ ब्राह्मणों को भी अत्यन्त गुणकारी भोजन अर्पित किया जाता था। पहले आपके राजभवन में सहस्रों (सुवर्णमय) पात्र थे, जो सम्पूर्ण इच्छानुकूल भोज्य पदार्थों से भरे-पूरे रहते थे और उनके द्वारा आप समस्त अभीष्ट मनोरथों की पूर्ति करते हुए प्रतिदिन ब्राह्मणों का सत्कार करते थे। राजन! आज वह सब देखने के कारण मेरे हृदय को क्या शान्ति मिलेगी? महाराज! आपके जिन भाइयों को कानों में सुन्दर कुण्डल पहने हुए तरुण रसोइये अच्छे प्रकार से बनाए हुए स्वादिष्ट अन्न परोसकर भोजन कराया करते थे, उन सबको आज वन में जंगली फल-फूल से जीवन-निर्वाह करते देख रही हूँ । नरेन्द्र! आपके भाई दुःख भोगने योग्य नहीं है; आज इन्हें दुःख में देखकर मेरा चित्त किसी प्रकार शान्त नहीं हो पाता है। महाराज! वन में रहकर दुःख भोगते हुए इन अपने भाई भीमसेन का स्मरण करके समय आने पर क्या शत्रुओं के प्रति आपका क्रोध नहीं बढ़ेगा? मैं पूछती हूँ, युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले और सुख भोगने के योग्य भीमसेन को स्वयं अपने हाथों से सब काम करते और दुःख ■ उठाते देखकर शत्रुओं पर आपका क्रोध क्यों नहीं भड़क उठता?
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 22-40 का हिन्दी अनुवाद)
विविध सवारियाँ और नाना प्रकार के वस्त्रों से जिनका सत्कार होता था, उन्हीं भीमसेन को वन में कष्ट उठाते देख शत्रुओं के प्रति आपका क्रोध प्रज्वलित क्यों नहीं होता ? ये शक्तिशाली भीमसेन युद्ध में समस्त कौरवों को नष्ट कर देने का उत्साह रखते हैं, परंतु आपकी प्रतिज्ञापूर्ति की प्रतीक्षा करने के कारण अब तक शत्रुओं के अपराध को सहन करते हैं। राजन! आपके जो भाई अर्जुन दो भुजाओं से युक्त होने पर भी सहस्र भुजाओं से विभूषित कार्यवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी हैं, बाण चलाने में अत्यन्त फुर्ती रखने के कारण जो शत्रुओं के लिये काल, अन्तक और यम के समान भयंकर हैं; महाराज! जिनके शस्त्रों के प्रताप से समस्त भूपाल नतमस्तक हो आपके यज्ञ में ब्राह्मणों की सेवा के लिये उपस्थित हुए थे, उन्हीं देव-दानव पूजित पुरुषसिंह अर्जुन को चिन्तामग्न देखकर आप शत्रुओं पर क्रोध क्यों नहीं करते? भारत! दुःख के अयोग्य और सुख भोगने के योग्य अर्जुन को वन में दुःख भोगते देखकर भी जो शत्रुओं के प्रति आपका क्रोध नहीं उमड़ता, इससे मैं मोहित हो रही हूँ। जिन्होंने एकमात्र रथ की सहायता से देवताओं, मनुष्यों और नागों पर विजय पायी है, उन्हीं अर्जुन को वनवास का दुःख भोगते देख आपका क्रोध क्यों नहीं बढ़ता? परंतप ! जिन्होंने नरेशों के दिये हुए अद्भुत आकार वाले रथों, घोड़ों और हाथियों से घिरे कितने ही राजाओं से बलपूर्वक धन लिये थे, जो एक ही वेग से पाँच सौ बाणों का प्रहार करते हैं, उन्हीं अर्जुन को वनवास का कष्ट भोगते देख शत्रुओं पर आपका क्रोध क्यों नहीं बढ़ता?
जो युद्ध में ढाल और तलवार से लड़ने वाले वीरों में श्रेष्ठ हैं, जिनकी कद-काठी ऊँची है तथा जो श्यामवर्ण के तरुण हैं, उन्हीं नकुल को आज वन में कष्ट उठाते देखकर आपको क्रोध क्यों नहीं होता? महाराज युधिष्ठिर! माद्री के परम सुन्दर पुत्र शूरवीर सहदेव को वनवास का दुःख भोगते देखकर आप शत्रुओं को क्षमा कैसे कर रहे हैं? नरेन्द्र! नकुल और सहदेव दुःख भोगने के योग्य नहीं हैं। इन दोनों को आज दुःखी देखकर आपका क्रोध क्यों नहीं बढ़ रहा है? मैं द्रुपद के कुल में उत्पन्न हुई महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू, वीर धृष्टद्युम्न की बहिन तथा वीरशिरोमणि पाण्डवों की पतिव्रता पत्नी हूँ। महाराज! मुझे इस प्रकार वन में कष्ट उठाती देखकर भी आप शत्रुओं के प्रति क्षमाभाव कैसे धारण करते हैं?
भरतश्रेष्ठ ! निश्चय ही आपके हृदय में क्रोध नहीं है, क्योंकि मुझे और अपने भाइयों को भी कष्ट में पड़ा देख आपके मन में व्यथा नहीं होती है। संसार में कोई भी क्षत्रिय क्रोधरहित नहीं होता, क्षत्रिय शब्द की व्युत्पत्ति ही ऐसी है, जिससे क्रोध होना सूचित होता है। परंतु आज आप जैसे क्षत्रिय में मुझे यह क्रोध का अभाव क्षत्रियत्व के विपरीत-सा दिखायी देता है। कुन्तीनन्दन ! जो क्षत्रिय समय आने पर अपने प्रभाव को नहीं दिखाता, उसका सब प्राणी सदा तिरस्कार करते हैं। महाराज! आपको शत्रुओं के प्रति किसी प्रकार भी क्षमाभाव नहीं धारण करना चाहिये। तेज से ही उन सबका वध किया जा सकता है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसी प्रकार जो क्षत्रिय क्षमा करने के योग्य समय आने पर शान्त नहीं होता, वह सब प्राणियों के लिये अप्रिय हो जाता है और इस लोक तथा परलोक में भी उसका विनाश ही होता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदी के अनुतापपूर्ण वचन विषयक सत्तईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
अठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टविंश अध्याय के श्लोक 1- 20 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रौपदी द्वारा प्रह्लाद बलि संवाद का वर्णन तेज और क्षमा के अवसर"
द्रौपदी कहती है ;- महाराज! इस विषय में प्रह्लाद तथा विरोचनपुत्र बलि के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। असुरों के स्वामी परम बुद्धिमान दैत्यराज प्रह्लाद सभी धर्मों के रहस्य को जानने वाले थे। एक समय बलि ने उन अपने पितामह प्रह्लाद जी से पूछा।
बलि ने पूछा ;- 'तात! क्षमा और तेज में से क्षमा श्रेष्ठ है अथवा तेज? यह मेरा संशय है। मैं इसका समाधान पूछता हूँ। आप इस प्रश्न का यथार्थ निर्णय कीजिये। धर्मज्ञ ! इनमें जो श्रेष्ठ है, वह मुझे अवश्य बताइये, मैं आपके सब आदेशों का यथावत पालन करूँगा।'
बलि के इस प्रकार पूछने पर समस्त सिद्धान्तों के ज्ञाता विद्वान पितामह प्रह्लाद ने संदेश निवारण करने के लिये पूछने वाले पौत्र के प्रति इस प्रकार कहा ।
प्रह्लाद बोले ;- 'तात! न तो तेज ही सदा श्रेष्ठ है और न क्षमा ही। इन दोनों के विषय में मेरा ऐसा ही निश्चय जानो, इसमें संशय नहीं है। वत्स! जो सदा क्षमा ही करता है, उसे अनेक दोष प्राप्त होते हैं। उसके भृत्य, शत्रु तथा उदासीन व्यक्ति सभी उसका तिरस्कार करते हैं। कोई भी प्राणी कभी उसके सामने विनयपूर्ण बर्ताव नहीं करते, अतः तात ! सदा क्षमा करना विद्वानों के लिये भी वर्जित है। सेवकगण उसकी अवहेलना करके बहुत-से अपराध करते हैं। इतना ही नहीं, वे मूर्ख भृत्यगण उसके धन को भी हड़प लेने का हौंसला रखते हैं। विभिन्न कार्यों में नियुक्त किये हुए मूर्ख सेवक अपनी इच्छानुसार क्षमाशील स्वामी के रथ, वस्त्र, अलंकार, शय्या, आसन, भोजन, पान तथा समस्त सामग्रियों का उपयोग करते रहते हैं तथा स्वामी की आज्ञा होने पर भी किसी को देने योग्य वस्तुएँ नहीं देते हैं। स्वामी का जितना आदर होना चाहिये, उतना आदर वे किसी प्रकार भी नहीं करते। इस संसार में सेवकों द्वारा अपमान तो मृत्यु से भी अधिक निन्दित है।
तात! उपर्युक्त क्षमाशील को अपने सेवक, पुत्र, भृत्य, तथा उदासीन वृत्ति के लोग कटुवचन भी सुनाया करते हैं। इतना ही नहीं, वे क्षमाशील स्वामी की अवहेलना करके उसकी स्त्रियों को भी हस्तगत करना चाहते हैं और वैसे पुरुष की मूर्ख स्त्रियाँ भी स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो जाती हैं। यदि उन्हें अपने स्वामी से तनिक भी दण्ड नहीं मिलता तो वे सदा उड़ती हैं और आचार से दूषित हो जाती हैं। दुष्टा होने पर वे अपने स्वामी का अपकार भी कर बैठती हैं। सदा क्षमा करने वाले पुरुषों को ये तथा और भी बहुत-से दोष प्राप्त होते हैं।
विरोचनकुमार ! अब क्षमा न करने वालों के दोषों को सुनो। क्रोधी मनुष्य रजोगुण से आवृत्त होकर योग्य या अयोग्य अवसर का विचार किये बिना ही अपने उत्तेजित स्वभाव से लोगों को नाना प्रकार के दण्ड देता रहता है। तेज (उत्तेजना) से व्याप्त मनुष्य मित्रों से विरोध पैदा कर लेता है तथा साधारण लोगों और स्वजनों का द्वेषपात्र बन जाता है। वह मनुष्य दूसरों का अपमान करने के कारण सदा धन की हानि उठाता है। इतना ही नहीं, वह संताप, द्वेष, मोह तथा नये-नये शत्रु पैदा कर लेता है। मनुष्य क्रोधवश अन्यायपूर्वक दूसरे लोगों पर नाना प्रकार के दण्ड का प्रयोग करके अपने ऐश्वर्य, प्राण और स्वजनों से भी हाथ धो बैठता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टविंश अध्याय के श्लोक 21-36 का हिन्दी अनुवाद)
जो उपकारी मनुष्यों और चोरों के साथ भी उत्तेजनायुक्त बर्ताव ही करता है, उससे सब उसी प्रकार उद्विग्न होते हैं, जैसे घर में रहने वाले सर्प से। जिससे सब लोग उद्विग्न होते हैं, उसे ऐश्वर्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है? उसका थोड़ा-सा भी छिद्र देखकर लोग निश्चय ही उसकी बुराई करने लगते हैं। इसलिये न तो सदा उत्तेजना ही प्रयोग करें और न सर्वदा कोमल ही बने रहें। समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार कभी कोमल और कभी तेज स्वभाव वाला बन जायें। जो मौका देखकर कोमल होता है और उपयुक्त अवसर आने पर भयंकर भी बन जाता है, वही इस लोक और परलोक में सुख पाता है।
अब मैं तुम्हें क्षमा के योग्य अवसर बताता हूं, उन्हें विस्तारपूर्वक सुनो, जैसा कि मनीषी पुरुष कहते हैं, उन अवसरों का तुम्हें भी त्याग नहीं करना चाहिये। जिसने भी तुम्हारा पहले उपकार किया हो, उससे यदि कोई भारी अपराध हो जाये, तो भी पहले के उपकार का स्मरण करके उस अपराधी के अपराध को तुम्हें क्षमा कर देना चाहिये। जिन्होंने अनजाने में अपराध कर डाला हो, उनका वह अपराध क्षमा के ही योग्य है; क्योंकि किसी भी पुरुष के लिये सर्वत्र विद्वत्ता (बुद्धिमानी) ही सुलभ हो, यह सम्भव नहीं है। परंतु जो जान-बूझकर किये हुए अपराध को भी उसे कर लेने के बाद अनजाने में किया हुआ बताते हों, उन उद्दण्ड पापियों को थोड़े-से अपराध के लिये भी अवश्य दण्ड देना चाहिये। सभी प्राणियों का एक अपराध तो तुम्हें क्षमा ही कर देना चाहिये। यदि उससे फिर दुबारा अपराध बन जाये तो थोड़े-से अपराध के लिये भी उसे दण्ड देना आवश्यक है। अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करने पर यदि यह सिद्ध हो जाये कि अमुक अपराध अनजाने में ही हो गया है, तो उसे क्षमा के ही योग्य बताया गया है।
भी मनुष्य कोमल भाव (सामनीति) के द्वारा उग्र स्वभाव तथा शान्त स्वभाव के शत्रु का भी नाश कर देता है; मृदुता से कुछ' असाध्य नहीं है। अतः मृदुतापूर्ण नीति को तीव्रतर (उत्तम) समझें। देश, काल तथा अपने बल का विचार करके ही मृदुता (सामनीति) का प्रयोग करना चाहिये। अयोग्य देश अथवा अनुपयुक्त काल में उसके प्रयोग से कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता, अतः उपयुक्त देशकाल की प्रतीक्षा करनी चाहिये। कहीं लोक के भय से भी अपराधी को क्षमा देने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार क्षमा के अवसर बताये गये हैं। इनके विपरीत बर्ताव करने वालों को राह पर लाने के लिये तेज (उत्तेजनापूर्ण बर्ताव) का अवसर कहा गया है।
द्रौपदी कहती है ;- नरेश्वर! धृतराष्ट्र के पुत्र लोभी तथा सदा आपका अपकार करने वाले हैं, अतः उनके प्रति आपके तेज के प्रयोग का यह अवसर आया है, ऐसा मेरा मत है। कौरवों के प्रति क्षमा का कोई अवसर नहीं है। अब आपको तेज प्रकट करने का अवसर प्राप्त है; अतः उन पर आपको अपने तेज का ही प्रयोग करना चाहिये। कोमलतापूर्ण बर्ताव करने वाले की सब लोग अवहेलना करते हैं और तीक्ष्ण स्वभाव वाले पुरुष से सबको उद्वेग प्राप्त होता है। जो उचित अवसर आने पर इन दोनों का प्रयोग करना जानता है, वही सफल भूपाल होता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदीवाक्य विषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
उन्नतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर के द्वारा क्रोध की निन्दा और क्षमाभाव की विशेष प्रशंसा"
युधिष्ठिर बोले ;- परम बुद्धिमती द्रौपदी! क्रोध ही मनुष्यों को मारने वाला है और क्रोध ही यदि जीत लिया जाये तो अभ्युदय करने वाला है। तुम यह जान लो कि उन्नति और अवनति दोनों क्रोधमूलक ही हैं (क्रोध को जीतने से उन्नति, वशीभूत होने से अवनति होती है)। सुशोभने ! जो क्रोध को रोक लेता है, उसकी उन्नति होती और जो मनुष्य क्रोध के वेग को भी सहन नहीं कर पाता, उसके लिये वह परम भयंकर क्रोध विनाशकारी बन जाता है।
इस जगत में क्रोध के कारण लोगों का नाश होता दिखायी देता है; इसलिये मेरे जैसा मनुष्य लोक विनाशक क्रोध का उपयोग दूसरों पर करेगा? क्रोधी मनुष्य पाप कर सकता है, क्रोध के वशीभूत मानव गुरुजनों की हत्या कर सकता है और क्रोध में भरा हुआ पुरुष अपनी कठोर वाणी द्वारा श्रेष्ठ मनुष्यों का भी अपमान कर देता है। क्रोधी मनुष्य कभी यह नहीं समझ पाता कि क्या कहना चाहिये और क्या नहीं। क्रोधी के लिये कुछ भी अकार्य अथवा अवाच्य नहीं है। क्रोधवश वह अवध्य मनुष्य पुरुषों की भी हत्या कर सकता है और वध के योग्य मनुष्यों की भी पूजा में तत्पर हो सकता है। इतना ही नहीं, क्रोधी मानव (आत्महत्या द्वारा) अपने आपको भी यमलोक का अतिथि बना सकता है। इन दोषों को देखने वाले मनस्वी पुरुषों ने, जो इहलोक और परलोक में भी परम उत्तम कल्याण की भी इच्छा रखते हैं, क्रोध को जीत लिया। अतः धीर पुरुषों ने जिसका परित्याग कर दिया है, उस क्रोध को मेरे जैसा मनुष्य कैसे उपयोग में ला सकता है?
द्रुपदकुमारी! यही सोचकर मेरा क्रोध कभी नहीं बढ़ता है। क्रोध करने वाले पुरुष के प्रति जो बदले में क्रोध नहीं करता, वह अपने को और दूसरों को भी महान भय से बचा लेता है। वह अपने और पराये दोनों के दोषों को दूर करने के लिये चिकित्सक बन जाता है। यदि मूढ एवं असमर्थ मनुष्य दूसरों द्वारा क्लेश दिये जाने पर स्वयं भी बलिष्ठ मनुष्यों पर क्रोध करता है तो वह अपने ही द्वारा अपने आपका विनाश कर देता है। अपने चित्त को वश में रखने के कारण क्रोधवश देहत्याग करने वाले उस मनुष्य के लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं। अतः द्रुपदकुमारी! असमर्थ के लिये अपने क्रोध को रोकना ही अच्छा माना गया है।
इसी प्रकार जो विद्वान पुरुष शक्तिशाली होकर भी दूसरों द्वारा क्लेश दिये जाने पर स्वयं क्रोध नहीं करता, वह क्लेश देने वाले का नाश न करके परलोक में भी आनन्द का भागी होता है। इसलिये बलवान या निर्बल सभी विज्ञ मनुष्यों को सदा आपत्ति काल में भी क्षमाभाव का ही आश्रय लेना चाहिये। कृष्णे! साधु पुरुष क्रोध को जीतने की ही प्रशंसा करते हैं। संतों का यह मत है कि इस जगत में क्षमाशील साधु पुरुष की सदा जय होती है। झूठ से सत्य श्रेष्ठ है। क्रूरता से दयालुता श्रेष्ठ हैं, अतः दुर्योधन मेरा वध कर डाले तो भी इस प्रकार अनेक दोषों से भरे हुए सत्पुरुषों द्वारा परित्यक्त क्रोध का मेरे जैसा पुरुष कैसे उपयोग कर सकता है? दूरदर्शी विद्वान जिसे तेजस्वी कहते हैं, उसके भीतर क्रोध नहीं होता, यह निश्चित बात है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)
जो उत्पन्न हुए क्रोध को अपनी बुद्धि से दबा देता है, उसे तत्त्वदर्शी विद्वान तेजस्वी मानते हैं। सुन्दरी! क्रोधी मनुष्य किसी कार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता । वह यह भी नहीं जानता कि मर्यादा क्या है (अर्थात क्या करना चाहिये) और क्या नहीं करना चाहिये। क्रोधी मनुष्य अवध्य पुरुषों का वध कर देता है। क्रोधी मनुष्य गुरुजनों को कटु वचनों द्वारा पीड़ा पहुँचाता है। इसलिये जिसमें तेज हो, उस पुरुष को चाहिये कि वह क्रोध को अपने से दूर रखे। दक्षता, अमर्ष, शौर्य और शीघ्रता- ये गुण हैं। जो मनुष्य क्रोध से दबा हुआ है, वह इन गुणों को सहज में ही नहीं पा सकता। क्रोध का त्याग करके मनुष्य भली-भाँति तेज प्राप्त कर लेता है।
महाप्राज्ञे! क्रोधी पुरुषों के लिये समय के उपयुक्त तेज अत्यन्त दुःसह है। मूर्ख लोग क्रोध को ही सदा तेज मानते हैं। परंतु रजोगुणजनित क्रोध का यदि मनुष्यों के प्रति प्रयोग हो तो वह लोगों के नाश का कारण होता है। अतः सदाचारी पुरुष सदा क्रोध का परित्याग करे। अपने वर्णधर्म के अनुसार न चलने वाला मनुष्य (अपेक्षाकृत) अच्छा, किंतु क्रोधी नहीं अच्छा- यह निश्चय है। साध्वी द्रौपदी! यदि मूर्ख और अविवेकी मनुष्य क्षमा आदि सद्गुणों का उल्लंघन कर जाते हैं तो मेरे जैसा विज्ञ पुरुष उनका अतिक्रमण कैसे कर सकता है? यदि मनुष्यों में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष न हों तो मानवों में कभी सन्धि नहीं हो सकती, क्योंकि झगड़े की जड़ तो क्रोध ही है। यदि कोई अपने को सतावे तो स्वयं भी उसको सतावे औरों की तो बात ही क्या है, यदि गुरुजन अपने को मारें तो उन्हें भी मारे बिना न छोड़े; ऐसी धारणा रखने के कारण सब प्राणियों का ही विनाश हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है। यदि सभी क्रोध के वशीभूत हो जायें तो एक मनुष्य दूसरे के द्वारा गाली खाकर स्वयं भी बदले में उसे गाली दे सकता है। मार खाने वाला मनुष्य बदले में मार सकता है। एक का अनिष्ट होने पर वह दूसरे का भी अनिष्ट कर सकता है।
पिता पुत्रों को मारेंगे और पुत्र पिता को, पति पत्नियों को मारेंगे और पत्नियाँ पति को । कृष्णे ! इस प्रकार सम्पूर्ण जगत के क्रोध का शिकार हो जाने पर तो कहीं भी शान्ति नहीं रहेगी। शुभानने! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण प्रजा सन्धिमूलक ही है। द्रौपदी! यदि राजा तुम्हारे कथानुसार क्रोधी हो जाये तो सारी प्रजाओं का शीघ्र ही नाश हो जायेगा। अतः यह समझ लो कि क्रोध प्रजावर्ग के नाश और अवनति का कारण है। हम इस जगत में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष भी देखते हैं, इसीलिये प्राणियों का जीवन बताया गया है। सुशोभने! पुरुष को सभी प्राणियों पर क्षमाभाव रखना चाहिये। क्षमाशील पुरुष ही समस्त प्राणियों का जीवन बताया गया है। जो बलवान पुरुष के गाली देने या कुपित होकर मारने पर भी क्षमा कर जाता है तथा जो सदा अपने क्रोध को काबू में रखता है, वही विद्वान और वही श्रेष्ठ पुरुष है। वही मनुष्य प्रभावशाली कहा जाता है। उसी को सनातन लोक प्राप्त होते हैं। क्रोधी मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक दोनों में विनाश का ही भागी होता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद)
इस विषय में जानकार लोग क्षमावान पुरुषों की गाथा का उदाहरण देते हैं। कृष्णे! क्षमावान महात्मा कश्यप ने इस गाथा का गान किया था। क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने के योग्य हो जाता है। क्षमा ब्रह्मा है, क्षमा सत्य हैं, क्षमा भूत है, क्षमा भविष्य है, क्षमा तप है और क्षमा शौच है। क्षमा ने ही सम्पूर्ण जगत को धारण कर रखा है। क्षमाशील मनुष्य यज्ञवेता, ब्रह्मवेत्ता और तपस्वी पुरुषों से भी ऊँचे लोक प्राप्त करते है। (सकामभाव से) यज्ञ कर्मों का अनुष्ठान करने वाले पुरुषों के लोक दूसरे हैं एवं (सकामभाव से) वापी, कूप, तडाग और दान आदि कर्म करने वाले मनुष्यों के लोक दूसरे हैं। परंतु क्षमावानों के लोक ब्रह्मलोक के अन्तर्गत हैं, जो अत्यन्त पूजित हैं।
क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज हैं, क्षमा तपस्वियों का ब्रह्म है, क्षमा सत्यवादी पुरुषों का सत्य है। क्षमा यज्ञ है और क्षमा शम (मनोनिग्रह) है। कृष्णे! जिसका महत्त्व ऐसा बताया गया है, जिसमें ब्रह्म, सत्य, यज्ञ और लोक सभी प्रतिष्ठित हैं, उस क्षमा को मेरे जैसा मनुष्य कैसे छोड़ सकता है। विद्वान पुरुष को सदा क्षमा का ही आश्रय लेना चाहिये। जब मनुष्य सब कुछ सहन कर लेता है, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। क्षमावानों के लिये ही यह लोक है। क्षमावानों के लिये ही परलोक है। क्षमाशील पुरुष इस जगत में सम्मान और परलोक में उत्तम गति पाते हैं। जिन मनुष्यों का क्रोध सदा क्षमाभाव से दबा रहता है, उन्हें सर्वोत्तम लोक प्राप्त होते हैं। अतः क्षमा सबसे उत्कृष्ट मानी गयी है। इस प्रकार काश्यप जी ने नित्य क्षमाशील पुरुषों की इस गाथा का गान किया है।
द्रौपदी! क्षमा की यह गाथा सुनकर संतुष्ट हो जाओ, क्रोध न करो। मेरे पितामह शान्तुनन्दन भीष्म शान्तिभाव का ही आदर करेंगे। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण भी शान्तिभाव का ही आदर करेंगे। आचार्य द्रोण और विदुर भी शान्ति को ही अच्छा कहेंगे। कृपाचार्य और संजय भी शान्त रहना ही अच्छा बतायेंगे। सोमदेव, युयुत्सु, अश्वत्थामा तथा हमारे पितामह व्यास भी सदा शान्ति का ही उपदेश देते हैं। ये सब लोग यदि राजा धृतराष्ट्र को सदा शान्ति के लिये प्रेरित करते रहेंगे तो वे अवश्य मुझे राज्य दे देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। यदि नहीं देंगे तो लोभ के कारण नष्ट हो जायेंगे। इस समय भारतवंश के विनाश के लिये यह बड़ा भयंकर समय आ गया है। भामिनि! मेरा पहले से ही ऐसा निश्चित मत है कि दुर्योधन कभी इस प्रकार क्षमाभाव को नहीं अपना सकता, वह इसके योग्य नहीं है। मैं इसके योग्य हूँ, इसलिये क्षमा मेरा ही आश्रय लेती है। क्षमा और दया यही जीवात्मा पुरुषों का सदाचार है और यही सनातन धर्म है, अतः मैं यथार्थ रूप से क्षमा और दया को ही अपनाऊँगा ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदी-युधिष्ठिर संवाद विषयक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"दुःख से मोहित द्रौपदी का युधिष्ठिर की बुद्धि, धर्म, एवं ईश्वर के न्याय पर आक्षेप"
द्रौपदी ने कहा ;- राजन! उस धाता (ईश्वर) और विधाता (प्रारब्ध) को नमस्कार है, जिन्होंने आपकी बुद्धि में मोह उत्पन्न कर दिया। पिता- पितामहों के आचार का भार वहन करने में भी आपका विचार विपरीत दिखायी देता है। कर्मों के अनुसार उत्तम, मध्यम, अधम, योनि में भिन्न-भिन्न लोकों की प्राप्ति बतलायी गयी है, अतः कर्म नित्य हैं। भोगे बिना उन कर्मों का क्षय नहीं होता । मूर्ख लोग लोभ से ही मोक्ष पाने की इच्छा रखते हैं। इस जगत में धर्म, कोमलता, क्षमा, विनय, और दया से कोई भी मनुष्य कभी धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। भारत ! इसी कारण तो आप पर भी यह दुःसह संकट आ गया, जिसके योग्य न तो आप हैं और न आपके महातेजस्वी ये भाई ही हैं।
भरतकुलतिलक! आपके भाइयों ने न तो पहले कभी और न आज ही धर्म से अधिक प्रिय दूसरी किसी वस्तु को समझा है। अपितु धर्म को जीवन से भी बढ़कर माना है। आपका राज्य धर्म के लिये ही है, आपका जीवन भी धर्म के ही लिये है। ब्राह्मण, गुरुजन और देवता सभी इस बात को जानते हैं। मुझे विश्वास है कि आप मेरे सहित भीमसेन, अर्जुन और नकुल- सहदेव का भी त्याग कर देंगे; किंतु धर्म का त्याग नहीं करेंगे। मैंने आर्यों के मुँह से सुना है कि यदि धर्म की रक्षा की जाये तो वह धर्मरक्षक राजा की स्वयं भी रक्षा करता है। किंतु मुझे मालूम होता है कि वह आपकी रक्षा नहीं कर रहा है। नरश्रेष्ठ! जैसे अपनी छाया सदा मनुष्य के पीछे चलती है, उसी प्रकार आपकी बुद्धि सदा अनन्य भाव से धर्म का ही अनुसरण करती है। आपने अपने समान और अपने से छोटों का भी कभी अपमान नहीं किया। फिर अपने से बड़ों का तो करते ही कैसे ? सारी पृथ्वी का राज्य पाकर भी आपका प्रभुताविषयक अहंकार कभी नहीं बढ़ा।
कुन्तीनन्दन! आप स्वाहा, स्वधा, और पूजा के द्वारा देवताओं, पितरों और ब्राह्मणों की सदा सेवा करते रहते हैं। पार्थ! आपने ब्राह्मणों की समस्त कामनाएँ पूरी करके सदा उन्हें तृप्त किया है। भारत! आपके यहाँ मोक्षाभिलाषी संन्यासी तथा गृहस्थ ब्राह्मण सोने के पात्रों में भोजन करते थे। जहाँ मैं स्वयं अपने हाथों उनकी सेवा टहल करती थी। वानप्रस्थों को भी आप सोने के पात्र दिया करते थे। आपके घर में कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जो ब्राह्मणों के लिये अदेय हो राजन! आपके द्वारा शान्ति के लिये जो घर में यह वैश्व-देव कर्म किया जाता है, उसमें अथियों और प्राणियों के लिये अन्न देकर आप अवशिष्ट अन्न के द्वारा जीवन-निर्वाह किया करते हैं। इष्टि (पूजा), पशुबन्ध (पशुओं का बाँधना), काम्य याग, नैमित्तिक याग, पाकयज्ञ तथा नित्यज्ञ- ये सब भी आपके यहाँ बराबर चलते रहते हैं। आप राज्य से निकलकर लुटेरों द्वारा सेवित इस निर्जन महावन में निवास कर रहे हैं, तो भी आपका धर्मकार्य कभी शिथिल नहीं हुआ है। अश्वमेघ, राजसूय, पुण्डरीक तथा गोसव इन सभी महायज्ञों का आपने प्रचुर दक्षिणा दानपूर्वक अनुष्ठान किया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद)
परंतु महाराज! उस कपट द्यूतजनित पराजय के समय आपकी बुद्धि विपरीत हो गयी, जिसके कारण आप राज्य, धन, आयुध तथा भाइयों और मुझे भी दाँव पर रखकर हार गये। आप सरल, कोमल, उदार, लज्जाशील, और सत्यवादी हैं। न जाने कैसे आपकी बुद्धि में जुआ खेलने का व्यसन आ गया। आपके इस दुःख और भयंकर विपत्ति को विचार कर अत्यन्त मोह प्राप्त हो रहा है और मेरा मन दुःख से पीड़त हो रहा है। इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हैं, जिसमें कहा गया है कि सब लोग ईश्वर के वश में हैं, कोई भी स्वाधीन नहीं है।
विधाता ईश्वर ही सबके पूर्वकर्मों के अनुसार प्राणियों के लिये सुख-दुःख, प्रिय अप्रिय की व्यवस्था करते हैं। नरवीर नरेश ! जैसे कठपुतली सूत्राधार से प्रेरित हो अपने अंगों का संचालन करती है, उसी प्रकार यह सारी प्रजा ईश्वर की प्रेरणा से अपने हस्त-पाद आदि अंगों द्वारा विविध चेष्टाएँ करती हैं। भारत! ईश्वर आकाश के समान सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त होकर उनके कर्मानुसार सुख-दुःख का विधान करते हैं। जीव स्वतन्त्र नहीं है, वह डोरे में बँधे हुए पक्षी की भाँति कर्म के बन्धन में बँधा होने से परतन्त्र है। वह ईश्वर के ही वश में होता है। उसका न तो दूसरों पर वश चलता है, न अपने ऊपर। सूत में पिरोयी हुई मणि, नाक में नथे हुए बैल और किनारे से टूटकर बीच में गिरे हुए वृक्ष की भाँति यह सदा ईश्वर के आदेश का ही अनुसरण करता है; क्योंकि वह उसी से व्याप्त और उसी के अधीन है। यह मनुष्य स्वाधीन होकर समय को नहीं बिताता। यह जीव अज्ञानी तथा अपने सुख-दुःख के विधान में भी असमर्थ है। यह ईश्वर से प्ररित होकर ही स्वर्ग एवं नरक में जाता है।
भारत! जैसे 'क्षुद्र तिनके बलवान वायु के वश में हो उड़ते-फिरते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणी ईश्वर के अधीन हो आवागमन करते हैं। कोई श्रेष्ठ कर्म में लगा हुआ हो चाहे पापकर्म में, ईश्वर सभी प्राणियों में व्याप्त होकर विचरते हैं; किंतु वे यही हैं। इस प्रकार उनका लक्ष्य नहीं होता। यह क्षेत्रसंज्ञक शरीर ईश्वर का साधनमात्र है, जिसके द्वारा वे सर्वव्यापी परमेश्वर प्राणियों से स्वेच्छाप्रारब्ध रूप शुभाशुभ फल भुगताने वाले कर्मों का अनुष्ठान करवाते हैं। तत्त्वदर्शी मुनियों ने वस्तुओं के स्वरूप कुछ और प्रकार से देखे हैं, किंतु अज्ञानियों के सामने किसी और रूप में आभासित होते हैं। जैसे आकाशचारी सूर्य की किरणें मरुभूमि में पड़कर जल के रूप में प्रतीत होने लगती हैं। लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओं को भिन्न-भिन्न रूपों में मानते हैं; परंतु शक्तिशाली परमेश्वर उन्हें और ही रूप में बनाते हैं और बिगाड़ते हैं।
महाराज युधिष्ठिर! जैसे अचेतन एवं चेष्टारहित काठ, पत्थर और लोहे को मनुष्य काठ, पत्थर और लोहे से ही काट देता है, उसी प्रकार सबके पितामह स्वयम्भू भगवान श्रीहरि माया की आड़ लेकर प्राणियों से ही प्राणियों का विनाश करते हैं। जैसे बालक खिलौना से खेलता है, उसी प्रकार स्वेच्छानुसार कर्म ( भाँति-भाँति की लीलाएँ) करने वाले शक्तिशाली भगवान सब प्राणियों के साथ उनका परस्पर संयोग-वियोग कराते हुए लीला करते रहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 38-42 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! मैं समझती हूँ, ईश्वर समस्त प्राणियों के प्रति माता-पिता के समान दया एवं स्नेहयुक्त बर्ताव नहीं कर रहे हैं, वे तो दूसरे लोगों की भाँति मानो रोष से ही व्यवहार कर रहे हैं। क्योंकि जो लोग श्रेष्ठ, शीलवान और संकोची हैं, वे तो जीविका के लिये कष्ट पा रहे हैं; किन्तु जो अनार्य (दुष्ट) हैं, वे सुख भोगते हैं; यह सब देखकर मेरी उक्त धारणा पुष्ट होती है और मैं चिन्ता से विहल-सी हो रही हूँ।
कुन्तीनन्दन! आपकी इस आपत्ति को तथा दुर्योधन की समृद्धि को देखकर मैं उस विधाता की निन्दा करता हूँ, जो विषम दृष्टि से देख रहा है अर्थात सज्जन को दुःख और दुर्जन को सुख देकर उचित विचार नहीं कर रहा है। जो आर्य शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला, क्रूर, लोभी तथा धर्म की हानि करने वाला है, उस धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को धन देकर विधाता क्या फल पाता है? यदि किया हुआ कर्म कर्ता का ही पीछा करता है, दूसरे के पास नहीं जाता, तब तो ईश्वर भी उस पापकर्म में अवश्य लिप्त होंगे। इसके विपरीत, यदि किया हुआ पाप कर्म कर्ता को नहीं प्राप्त होता तो इसका कारण यहाँ बल ही है (ईश्वर शक्तिशाली है, इसीलिये उन्हें पापकर्म का फल नहीं मिलता होगा)। उस दशा में मुझे दुर्बल मनुष्यों के लिये शोक हो रहा है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदीवाक्य विषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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