सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the 21 to the 25 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (अरण्य पर्व)

इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 1- 21 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीकृष्ण का शाल्व की माया से मोहित होकर पुनः सजग होना"

   भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- पुरुषसिंह! इस प्रकार मेरे साथ युद्ध करने वाला महाशत्रु शाल्वराज पुनः आकाश में चला गया। महाराज! वहाँ से विजय की इच्छा रखने वाले मन्दबुद्धि शाल्व ने क्रोध में भरकर मेरे ऊपर शतघ्नियाँ, बड़ी-बड़ी गदाएँ, प्रज्वलित शूल, मूसल और खड्ग फेंके। उनके आते ही मैंने तुरंत शीघ्रगामी बाणों द्वारा उन्हें रोककर उन गगनचारी शत्रुओं को आकाश में ही मार डालने का निश्चय किया और शीघ्र छोड़े हुए बाणों द्वारा उन सबके दो-दो तीन-तीन टुकड़े कर डाले। इससे अन्तरिक्ष में बड़ा भारी आर्त्तनाद हुआ। तदनन्तर शाल्व ने झुकी हुई गाँठों वाले लाखों बाणों का प्रहार करके दारुक, घोड़ों तथा रथ को आच्छादित कर दिया।

  वीरवर! तब दारुक व्याकुल-सा होकर मुझसे बोला,,

  दारुक बोला ;- ‘प्रभो! युद्ध में डटे रहना‘ इसे स्मरण करके ही मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ; किंतु शाल्व के बाणों से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण मुझमें खडे़ रहने की भी शक्ति नहीं रह गयी है। मेरा अंग शिथिल होता जा रहा है।' सारथि का यह करुण वचन सुनकर मैंने उसकी ओर देखा। उसे बाणों द्वारा बड़ी पीड़ा हो रही थी। पाण्डवश्रेष्ठ! उसकी छाती में, मस्तक पर, शरीर के अन्य अवयवों में तथा दोनों भुजाओं में, थोड़ा-सा भी ऐसा स्थान नहीं दिखायी देता था, जिसमें बाण न चुभे हुए हों। जैसे मेघ के वर्षा करने पर गेरू आदि धातुओं से युक्त पर्वत से लाल पानी की धारा बहने लगती है, वैसे ही वह बाणों से छिदे हुए अपने अंगों से भयंकर रक्त की धारा बहा रहा था। महाबाहो! उस युद्ध में हाथ में बागडोर लिये सारथि को शाल्व के बाणों से पीड़ित होकर कष्ट पाते देख, मैंने उसे ढांढस बँधाया।

   भरतवंशीवीरवर! इतने में ही कोई द्वारकावासी पुरुष आकर तुरंत मेरे रथ पर चढ़ गया और सौहार्द दिखाता हुआ-सा बोला। वह राजा उग्रसेन का सेवक था और दु:खी होकर उसने गद्गगद कण्ठ से उनका जो संदेश सुनाया, उसे बताता हूँ, सुनिये।

   दूत बोला ;- ‘वीर! द्वारका नरेश उग्रसेन ने आपको यह एक संदेश दिया है। केशव! वे आपके पिता के सखा हैं; उन्होंने आपसे कहा है कि यहाँ आ जाओ और जान बचा लो। दुर्द्धर्ष वृष्णिनन्दन! आपके युद्ध में आसक्त होने-पर शाल्व ने अभी द्वारकापुरी में शूरनन्दन वसुदेव जी को बलपूर्वक मार डाला है। जनार्दन! अब युद्ध करके क्या लेना है? लौट आओ। द्वारका की रक्षा करो। तुम्हारे लिये यही सबसे महान कार्य है।' दूत का यह वचन सुनकर मेरा मन उदास हो गया। मैं कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में कोई निश्चय नहीं कर पाता था। वीर युधिष्ठिर! वह महान अप्रिय वृत्तान्त सुनकर मैं मन-ही-मन सात्यकि, बलराम जी तथा महारथी प्रद्युम्न की निन्दा करने लगा।

   कुरुनन्दन! मैं द्वारका तथा पिताजी की रक्षा का भार उन्हीं लोगों पर रखकर सौभ विमान का नाश करने के लिये चला था। क्या शत्रुहन्ता महाबली बलराम जी जीवित हैं? क्या सात्यकि, रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न, महाबली चारुदेष्ण तथा साम्ब आदि जीवन धारण करते हैं? इन बातों का विचार करते-करते मेरा मन उदास हो गया। नरश्रेष्ठ! इन वीरों के जीते-जी साक्षात इन्द्र भी मेरे पिता वसुदेव जी को किसी प्रकार मार नहीं सकते थे। अवश्य ही शूरनन्दन वसुदेव जी मारे गये और यह भी स्पष्ट है कि बलराम जी आदि सभी प्रमुख वीर प्राणत्याग कर चुके हैं-यह मेरा विचार निश्चित हो गया। महाराज! इस प्रकार सबके विनाश का बारंबार चिन्तन करके भी मैं व्याकुल न होकर राजा शाल्व से पुनः युद्ध करने लगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 22-30 का हिन्दी अनुवाद)

  वीर महाराज! इसी समय मैंने देखा, सौभ-विमान से मेरे पिता वसुदेव जी नीचे गिर रहे हैं। इससे शाल्व की माया से मुझे मूर्च्छा-सी आ गयी। नरेश्वर! उस विमान से गिरते हुए मेरे पिता का स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो पुण्य क्षय होने पर स्वर्ग से पृथ्वीतल पर गिरने वाले राजा ययाति का शरीर हो। उनकी मलिन पगड़ी बिखर गयी थी, शरीर के वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये थे और बाल बिखर गये थे। वे गिरते समय पुण्यहीन ग्रह की भाँति दिखायी देते थे।

  कुन्तीनन्दन! उनकी यह अवस्था देख धनुषों में श्रेष्ठ शारंग मेरे हाथ से छूटकर गिर गया और मैं शाल्व की माया से मोहित-सा होकर रथ के पिछले भाग में चुपचाप बैठ गया।

   भारत! फिर तो मुझे रथ के पिछले भाग में प्राणरहित के समान पड़ा देख मेरी सारी सेना हाहाकार कर उठी। सब की चेतना लुप्त-सी हो गयी। हाथों और पैरों को फैलाकर गिरते हुए मेरे पिता का शरीर मरकर गिरने वाले पक्षी के समान जान पड़ता था।

   वीरवर महाबाहो! गिरते समय शत्रु सैनिक हाथों में शूल और पट्टिश लिये उनके ऊपर प्रहार कर रहे थे। उनके इस क्रूर कृत्य ने मेरे हृदय को कम्पित-सा कर दिया। वीरवर! तदनन्तर दो घड़ी के बाद जब मैं सचेत होकर देखता हूँ, तब उस महासमर में न तो सौभ विमान का पता है, न मेरा शत्रु शाल्व दिखायी देता है और न मेरे बूढ़े पिता ही दृष्टिगोचर होते हैं। तब मेरे मैंने मन में यह निश्चय हो गया कि यह वास्तव में माया ही थी। तब मैंने सजग होकर सैकड़ों बाणों की वर्षा प्रारम्भ की।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यान विषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ था)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (अरण्य पर्व)

बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 1- 21 का हिन्दी अनुवाद)

"शाल्ववधोपाख्यान की समाप्ति और युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर श्रीकृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा अन्य सब राजाओं का अपने-अपने नगर को प्रस्थान"

   भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! तब मैं अपना सुन्दर धनुष उठाकर बाणों द्वारा सौभ विमान से देवद्रोही दानवों के मस्तक काट-काटकर गिराने लगा। तत्पश्चात शारंग धनुष से छूटे हुए विषैले सर्पों के समान प्रतीत होने वाले, सुन्दर पंखों से सुशोभित, प्रचण्ड तेजस्वी तथा अनेक ऊर्ध्वगामी बाण मैंने राजा शाल्व पर चलाये। कुरुकुलशिरोमणे! परंतु उस समय सौभ विमान माया से अदृश्य हो गया, अतः किसी प्रकार दिखायी नहीं देता था। इससे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। भरतवंशी महाराज! तदनन्तर जब मैं निर्भय अचल भाव से स्थित हुआ तथा उन पर शस्त्र प्रहार करने लगा, तब विकृत मुख और केश वाले सौभ विमान दानवगण जोर-जोर से चिल्लाने लगे। तब मैंने उनके वध के लिये उस महान संग्राम में बड़ी उतावली के साथ शब्दवेधी बाण का संधान किया। यह देख उनका कोलाहल शान्त हो गया। जिन दानवों ने पहले कोलाहल किया था, वे सब सूर्य के समान तेजस्वी शब्दवेधी बाणों द्वारा मारे गये।

  महाराज! वह कोलाहल शान्त होने पर फिर दूसरी ओर उनका शब्द सुनायी दिया। तब मैंने उधर भी बाणों का प्रहार किया। भारत! इस तरह वे असुर इधर-उधर ऊपर- नीचे, दसों दिशाओं में कोलाहल करते और मेरे हाथों से मारे जाते थे। तदनन्तर इच्छानुसार चलने वाला सौभ विमान प्राग्ज्योषिपुर के निकट जाकर मेरे नेत्रों को भ्रम में डालता हुआ फिर दिखायी दिया। तत्रपश्चात लोकान्तकारी भयंकर आकृति वाले दानव ने आकर सहसा पत्थरों की भारी वर्षा के द्वारा मुझे आवृत कर दिया। राजेन्द्र! शिलाखण्डों की उस निरन्तर वृष्टि से बार-बार आहत होकर मैं पर्वतों से आच्छादित बाँबी-सा प्रतीत होने लगा। राजन! मेरे चारों ओर शिलाखण्ड जमा हो गये थे। मैं घोड़ों और सारथी सहित प्रस्तर खण्डों से चुन-सा गया था, जिससे दिखायी नहीं देता था। यह देख वृष्णिकुल के श्रेष्ठ वीर जो मेरे सैनिक थे, भय से आहत हो, सहसा चारों दिशाओं में भाग चले।

    प्रजानाथ! मेरे अदृश्य हो जाने पर भूलोक, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोक-सभी स्थानों में हाहाकार मच गया। राजन! उस समय मेरे सभी सुहृद खिन्नचित्त हो दुःख-शोक में डूबकर रोने चिल्लाने लगे। शत्रुओं में उल्लास छा गया और मित्रों में शोक। अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले वीर युधिष्ठिर! इस प्रकार राजा शाल्व एक बार मुझ पर विजयी हो चुका था। यह बात मैंने सचेत होने पर पीछे सारथि के मुँह से सुनी थी। तब मैंने सब प्रकार के प्रस्तरों को विदीर्ण करने वाले इन्द्र के प्रिय आयुध वज्र का प्रहार करके उन समस्त शिलाखण्डों को चूर-चूर कर दिया। महाराज! उस समय पर्वतखण्डों के भार से पीड़ित हुए मेरे घोडे़ कम्पित-से हो रहे थे। उनकी बलसाव्य चेष्टाएँ बहुत कम हो गयी थीं। जैसे आकाश में बादलों के समुदाय को छिन्न-भिन्न करके सूर्य उदित होता है, उसी प्रकार शिलाखण्डों को हटाकर मुझे प्रकट हुआ देख मेरे सभी बन्धु-बान्धव हर्ष से खिल उठे। तब प्रस्तरखण्डों के भार से पीड़ित तथा धीरे-धीरे प्राण-साध्य चेष्टा करने वाले घोड़ों को देखकर सारथि ने मुझसे यह समयोचित बात कही- ‘वार्ष्‍णेय! वह देखिये, सौभराज साल्व वहाँ खड़़ा है। श्रीकृष्ण! इसकी उपेक्षा करने से कोई लाभ नहीं। इसके वध का कोई उचित उपाय कीजिये।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 22-38 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘महाबाहु केशव! अब शाल्व की ओर से कोमलता और मित्रभाव हटा लीजिये। इसे मार डालिये, जीवित न रहने दीजिये। शत्रुहन्ता वीरवर! आपको सारा पराक्रम लगाकर इस शत्रु का वध कर डालना चाहिये। कोई कितना ही बलवान क्‍यों न हो, उसे अपने दुर्बल शत्रु की भी अवहेलना नहीं करना चाहिये। कोई शत्रु अपने घर में आसन पर बैठा हो (युद्ध न करना चाहता हो), तो भी उसे नष्ट करने से चूकना नहीं चाहिये; फिर जो संग्राम में युद्ध करने के लिये खड़ा हो, उसकी तो बात ही क्या है? अतः पुरुषसिंह! प्रभो! आप सभी उपायों से इस शत्रु को मार डालिये। वृष्णिवंशावतंस! इस कार्य में आपको पुनः विलम्ब नहीं करना चाहिये। यह मृदुतापूर्ण उपाय से वश में आने वाला नहीं। वास्तव में यह आपका मित्र भी नहीं है; क्योंकि वीर! इसने आपके साथ युद्ध किया और द्वारकापुरी को तहस-नहस कर दिया, अतः इसको शीघ्र मार डालना चाहिये।’

  कुन्तीनन्दन! सारथि के मुख से इस तरह की बातें सुनकर मैंने सोचा, यह ठीक ही तो कहता है। यह विचार कर, मैंने शाल्वराज का वध करने और सौभ विमान को गिराने के लिये युद्ध में मन लगा दिया।'

वीर! तत्पश्चात मैंने दारुक से कहा,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘सारथे! दो घड़ी और ठहरो (फिर तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी)।' तदनन्तर मैंने कहीं भी कुण्ठित न होने वाले, दिव्य, अभेद्य, अत्यन्त शक्तिशाली, सब कुछ सहन करने में समर्थ, प्रिय तथा परमकान्तिमान आग्नेय शस्त्र का अपने धनुष पर संधान किया। वह अस्त्र युद्ध में दानवों का अन्त करने वाला था। इतना ही नहीं, वह यक्षों, राक्षसों, दानवों तथा विपक्षी राजाओं को भी भस्म कर डालने वाला और महान था। वह आग्नेयास्त्र (सुदर्शन) चक्र के रूप में था। इसके परिधि भाग में सब तीखे छुरे लगे हुए थे। वह उज्ज्वल अस्त्र काल, यम और अन्त के समान भयंकर था। उस शत्रुनाशक अनुपम अस्त्र को अभिमन्त्रि करके मैंने कहा,,- ‘तुम अपनी शक्ति से सौभ विमान और उस पर रहने वाले मेरे शत्रुओं को मार डालो।' ऐसा कहकर अपने बाहुबल से रोषपूर्वक मैंने वह अस्त्र सौभ विमान की ओर चलाया।

   आकाश में जाते ही उस सुदर्शन चक्र का स्वरूप प्रलयकाल में उगने वाले द्वितीय सूर्य के भाँति प्रकाशित हो उठा। उस दिव्यास्त्र ने सौभ नगर में पहुँचकर उसे श्रीहीन कर दिया और जैसे आरा ऊँचे काठ को चीर डालता है, उसी प्रकार सौभ विेमान को बीच से काट डाला। सुदर्शन चक्र की शक्ति से कटकर दो टुकड़ों में बँटा हुआ सौभ विमान महादेव जी के बाणों से छिन्न-भिन्न हुए त्रिपुर की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। सौभ विमान के गिरने पर चक्र फिर से मेरे हाथों में आ गया। मैंने फिर उसे लेकर वेगपूर्वक चलाया और कहा,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘अब की बार शाल्व को मारने के लिये तुम्हें छोड़ रहा हूँ।' तब उस चक्र ने उस महासमर में बड़ी भारी गदा घुमाने वाले शाल्व के सहसा दो टुकड़े कर दिये और वह तेज से प्रज्वलित हो उठा। वीर शाल्व के मारे जाने पर दानवों के मन मे भय समा गया। मेरे बाणों से पीड़त हो हाहाकार करते हुए वे सब दिशाओं में भाग गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 39-54 का हिन्दी अनुवाद)

   तब मैंने सौभ विमान के समीप अपने रथ को खड़ा करके प्रसन्नतापूर्वक शंख बजाकर सभी सुहृदों को हर्ष में निमग्न कर दिया। मेरु पर्वत के शिखर के समान आकृति वाले सौभ नगर की अट्टालिका और गोपुर सभी नष्ट हो गये। उसे जलते देख उस पर रहने वाली स्त्रियाँ इधर-उधर भाग गयीं। धर्मराज! इस प्रकार सौभ विमान तथा राजा शाल्व को नष्ट करके मैं पुनः आनर्त नगर (द्वारका) में लौट आया और सुहृदों का हर्ष बढ़ाया। राजन! यही कारण है, जिससे मैं उन दिनों हस्तिनापुर में न आ सका। शत्रुवीरों का नाश करने वाले धर्मराज! मेरे आने पर या तो जुआ नहीं होता या दुर्योधन जीवित नहीं रह पाता। जैसे बाँध टूट जाने पर पानी को कोई रोक नहीं सकता, उसी प्रकार आज जबकि सब कुछ बिगड़ चुका है, तब मैं क्या कर सकूँगा।।           वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय। ऐसा कहकर पुरुषों मे श्रेष्ठ महाबाहु श्रीमान मधुसूदन कुरुनन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर द्वारका की ओर चल पड़े। महाबाहु श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को प्रणाम किया। राजा युधिष्ठिर तथा भीम ने बड़ी-बड़ी भुजाओं वाले श्रीकृष्ण का सिर सूँघा। अर्जुन ने उनको गले से लगाया और नकुल-सहदेव ने उनके चरणों में प्रणाम किया। पुरोहित धौम्य जी ने उनका सम्मान किया तथा द्रौपदी ने अपने आँसुओं से उनकी अर्चना की। पाण्डवों से सम्मानित श्रीकृष्ण सुभद्रा और अभिमन्यु को अपने सुवर्णमय रथ पर बैठाकर स्वयं भी उस पर आरूढ़ हुए। उस रथ में शैव्य और सुग्रीव नामक घोड़े जुते हुए थे और वह सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत होता था।

    युधिष्ठिर को आश्वासन देकर श्रीकृष्ण उसी रथ के द्वारा द्वारकापुरी की ओर चल दिये। श्रीकृष्ण के चले जाने पर द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ने द्रौपदीकुमारों को साथ ले अपनी राजधानी को प्रस्थान किया। चेदिराज धृष्टकेतु भी अपनी बहिन करेणुमति को, जो नकुल की भार्या थी, साथ ले पाण्डवों से मिल-जुलकर अपनी सुरम्य राजधानी शुक्तीमतीपुरी को चले गये। भारत! केकयराजकुमार भी अमित तेजस्वी कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा पा समस्त पाण्डवों से विदा लेकर अपने नगर को चले गये। युधिष्ठिर के राज्य में रहने वाले ब्राह्मण तथा वैश्य बारंबार विदा करने पर भी पाण्डवों को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे। भरतवंशभूषण महाराज जनमेजय! उस समय काम्यकवन में उन महात्माओं का बड़ा अद्भुत सम्मेलन जुटा था। तदनन्तर महात्मा युधिष्ठिर ने सब ब्राह्मणों की अनुमति से अपने सेवकों को समय पर आज्ञा दी- ‘रथों को जोतकर तैयार करो।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यान विषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (अरण्य पर्व)

तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"पाण्डवों का द्वैतवन में जाने के लिये उद्यत होना और प्रजावर्ग की व्याकुलता"

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यादव कुल के अधिपति भगवान श्रीकृष्ण के चले जाने पर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और पुरोहित धौम्य उत्तम घोड़ों से जुते हुए बहुमूल्य रथों पर बैठे। फिर भूतनाथ भगवान शंकर के समान सुशोभित होने वाले वे सभी वीर एक-दूसरे वन में जाने के लिये उद्यत हुए। वेद-वेदांग और मंत्र के जानने वाले ब्राह्मणों को सोने की मुद्राएँ, वस्त्र तथा गौएँ प्रदान करके उन्होंने यात्रा प्रारम्भ की। भगवान श्रीकृष्ण के साथ बीस सेवक अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्ज्ति हो धनुष, तेजस्वी बाण, शस्त्र, डोरी, यन्त्र और अनेक प्रकार के सहायक लेकर पहले ही पश्चिम दिशा में स्थित द्वारकापुरी की ओर चले गये थे। तदनन्तर सारथि इन्द्रसेन राजकुमारी सुभद्रा के वस्त्र, आभूषण, धायों तथा दासियों को लेकर तुरंत ही रथ के द्वारा द्वारकापुरी को चल दिया। इसके बाद उदारहृदय वाले पुरवासियों ने कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर के पास जा उनकी परिक्रमा की। कुरुजांगल देश के ब्राह्मण तथा सभी लोगों ने उनसे प्रसन्नतापूर्वक बातचीत की। अपने भाइयों सहित धर्मराज युधिष्ठिर ने भी प्रसन्न होकर उन सबसे वार्तालाप किया। कुरुजांगल देश के उस जनसमुदाय को देखकर महात्मा राजा युधिष्ठिर थोड़ी देर के लिये वहाँ ठहर गये। जैसे पिता का अपने पुत्रों पर वात्सल्य भाव होता है, उसी प्रकार कुरुश्रेष्ठ महात्मा युधिष्ठिर ने उन सबके प्रति अपने आन्तरिक स्नेह का परिचय दिया। वे भी उन भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर के प्रति वैसे ही अनुरक्त थे, जैसे पुत्र अपने पिता पर। उस महान जनसमुदाय (प्रजा) के लोग कुरुकुल के प्रमुख वीर युधिष्ठिर के पास जा उन्हें चारों ओर से घेर कर खड़े हो गये।

    राजन! उस समय उन सबके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी और वे वियोग के भय से भीत हो 'हा नाथ! हा धर्म!' इस प्रकार पुकारते हुए कह रहे थे,,

  कुरुजांगल वासी बोले ;- ‘कुरुवंश के श्रेष्ठ अधिपति, प्रजाजनों पर पिता का-सा स्नेह रखने वाले धर्मराज युधिष्ठिर हम सब पुत्रों, पुरवासियों तथा समस्त देशवासियों को छोड़कर अब कहाँ चले जा रहे हैं? क्रूरबुद्धि धृतराष्ट्र और दुर्योधन को धिक्कार है। सुबलपुत्र शकुनि तथा पापपूर्ण विचार रखने वाले कर्ण को भी धिक्कार है, जो पापी सदा धर्म में तत्पर रहने वाले आपका इस प्रकार अनर्थ करना चाहते हैं। जिन महात्मा ने स्वयं ही पुरुषार्थ करके महादेव जी के नगर कैलास की-सी सुषमा वाले अनुपम इन्द्रप्रस्थ नामक नगर को बसाया था, वे अचिन्यकर्मा धर्मराज युधिष्ठिर अपनी पुरी को छोड़कर अब कहाँ जा रहे हैं? महामना मय दानव ने देवताओं की सभा के समान सुशोभित होने वाली जिस अनुपम सभा का निर्माण किया था, देवताओं द्वारा रक्षित देवमाया के समान उस सभा का परित्याग करके धर्मराज युधिष्ठिर कहाँ चले जा रहे हैं?'

   धर्म, अर्थ और काम के ज्ञाता उत्तम पराक्रमी अर्जुन ने उन सब प्रजाजनों को सम्बोधित करके उच्च स्वर से कहा- ‘राजा युधिष्ठिर इस वनवास की अवधि पूर्ण करके शत्रुओं का यश छीन लेंगे। आप लोग एक साथ या अलग-अलग श्रेष्ठ ब्राह्मणों, तपस्वियों तथा धर्म-अर्थ के ज्ञाता महापुरुषों को प्रसन्न करके उन सबसे यह प्रार्थना करें, जिससे हम लोगों के अभीष्ट मनोरथ की उत्तम सिद्धि हो।'

   राजन! अर्जुन के ऐसा कहने पर ब्राह्मणों तथा अन्य सब वर्ण के लोगों ने एक स्वर से प्रसन्नतापूर्वक उनकी बात का अभिनन्दन किया तथा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर की परिक्रमा की। तदनन्तर सब लोग कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, द्रौपदी तथा नकुल-सहदेव से विदा ले एवं युधिष्ठिर की अनुमति प्रदान करके उदास होकर अपने राष्ट्र को प्रस्थित हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अर्जुनाभिगमनपर्व में द्वैतवनप्रवेश विषयक तेईसवाँ अध्ययाय पूरा हुआ)

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वन पर्व (अरण्य पर्व)

चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"पाण्डवों का द्वैत वन में जाना"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर प्रजाजनों के चले जाने पर सत्यप्रतिज्ञ एवं धर्मात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों से कहा,,

  युधिष्ठिर बोले ;- ‘हम लोगों को इन आगामी बारह वर्षों तक निर्जन वन में निवास करना है, अतः इस महान वन में कोई ऐसा स्थान ढूढों, जहाँ बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते हों। जहाँ फल-फूलों की अधिकता हो, जो देखने में रमणीय एवं कल्याणकारी हो तथा जहाँ बहुत-से पुण्यात्मा पुरुष रहते हों। वह स्थान इस योग्य होना चाहिये, जहाँ हम सब लोग इन बारह वर्षों तक सुखपूर्वक रह सकें।'

   धर्मराज के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उन मनस्वी, मानगुरु युधिष्ठिर का गुरुतुल्य सम्मान करके उनसे इस प्रकार कहा। 

अर्जुन बोले ;- 'आर्य! आप स्वयं ही बड़े-बड़े ऋषियों तथा पुरुषों का संग करने वाले हैं। इस मनुष्य लोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो। भरतश्रेष्ठ! आपने सदा द्वैपायन आदि बहुत-से ब्राह्मणों तथा महातपस्वी नारद जी की उपासना की है। जो मन और इन्द्रियों को वश में रखकर सदा सम्पूर्ण लोकों में विचरित रहते हैं। देवलोक से लेकर ब्रह्मलोक तथा गन्धर्वों और अप्सराओं के लोकों में भी उनकी पहुँच है। राजन! आप सभी ब्राह्मणों के अनुभाव और प्रभाव को जानते हैं, इसमें संशय नहीं है। राजन! आप ही श्रेय (मोक्ष) के कारण का ज्ञान रखते हैं। महाराज! आपकी जहाँ इच्छा हो, वहीं हम लोग निवास करेंगे। यह जो पवित्र जल से भरा हुआ सरोवर है, इसका नाम द्वैतवन है। यहाँ फल-फूलों की बहुलता है। देखने में यह रमणीय तथा अनेक ब्राह्मणों से सेवित है। मेरी इच्छा है कि वहीं हम लोग इन बारह वर्षों तक निवास करें। राजन! यदि आपकी अनुमति हो तो द्वैतवन के समीप रहा जाये अथवा आप दूसरे किस स्थान को उत्तम मानते हैं।'

  युधिष्ठिर ने कहा ;- पार्थ तुमने जैसा बताया है, वही मेरा भी मत है। हम लोग पवि़त्र जल के कारण प्रसिद्ध द्वैतवन नामक विशाल सरोवर के समीप चलें।

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर वे सभी धर्मात्मा पाण्डव बहुत-से ब्राह्मणों के साथ पवित्र द्वैतवन नामक सरोवर को चले गये। वहाँ बहुत-से अग्निहोत्री ब्राह्मणों, निरग्निकों, स्वाध्याय परायण ब्रह्मचारियों, वानप्रस्थियों, संन्यासियों, सैकड़ों कठोर व्रत का पालन करने वाले तपःसिद्ध महात्माओं तथा अन्य अनेक ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को घेर लिया। वहाँ पहुँचकर भरतश्रेष्ठ पाण्डवों ने बहुत-से ब्राह्मणों के साथ पवित्र एवं रमणीय द्वैतवन में प्रवेश किया। राष्ट्रपति युधिष्ठिर ने देखा, वह महान वन तमाल, ताल, आम, महुआ, नीप, कदम्ब, साल, अर्जुन और कनेर आदि वृक्षों से, जो ग्रीष्म ऋतु बीतने पर फूल धारण करते हैं, सम्पन्न हैं। उस वन में बड़े-बड़े वृक्षों की ऊँची शाखाओं पर मयूर, चातक, चकोर, बर्हिण तथा कोकिल आदि पक्षी मन को भाने वाली मीठी बोली बोलते हुए बैठे थे। राष्ट्रपति युधिष्ठिर को उस वन में पर्वतों के समान प्रतीत होने वाले मन्दोन्मत्त गजराजों के, जो एक-एक यूथ के अधिपति थे, हाथियों के साथ विचरने वाले कितने ही भारी-भारी झुंड दिखायी दिये। मनोरम भगवती (सरस्वती नदी) में स्नान करके जिनके अन्तःकरण पवित्र हो गये हैं, जो वल्कल और जटा धारण करते हैं, ऐसे धर्मात्माओं के निवासभूत उस वन में राजा ने सिद्ध-महर्षियों के अनेक समुदाय देखे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 21-26 का हिन्दी अनुवाद)

   तदनन्तर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ एवं अमित तेजस्वी राजा युधिष्ठिर ने अपने सेवकों और भाइयों सहित रथ से उतरकर स्वर्ग में इन्द्र के समान उस वन में प्रवेश किया। उस समय उन सत्यप्रतिज्ञ मनस्वी राजसिंह युधिष्ठिर को देखने की इच्छा से सहसा बहुत-से चारण, सिद्ध एवं वनवासी महर्षि आये और उन्हें घेरकर खड़े हो गये। वहाँ आये हुए समस्त सिद्धों को प्रणाम करके धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर उनके द्वारा भी राजा तथा देवता के समान पूजित हुए एवं दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने समस्त श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ वन के भीतर पदापर्ण किया।

   उस वन में रहने वाले धर्मपरायण तपस्वियों ने उन पुण्यशील महात्मा राजा के पास जाकर उनका पिता की भाँति सम्मान किया। तत्पश्चात राजा युधिष्ठिर फूलों से लदे हुए एक महान वृक्ष के नीचे उसकी जड़ के समीप बैठे। तदनन्तर पराधीन-दशा में पड़े हुए भीम, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा सेवकगण सवारी छोड़कर उतर गये। वे सभी भरतश्रेष्ठ वीर महाराज युधिष्ठिर के समीप जा बैठे। जैसे महान पर्वत यूथपति के गजराजों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार लता समूह से झुका हुआ वह महान वृक्ष वहाँ के निवास के लिये आये हुए पाँच धर्नुधर महात्मा पाण्डवों द्वारा शोभा पाने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्वैतवनप्रवेश विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (अरण्य पर्व)

पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"महर्षि मार्कण्डेय का पाण्डवों को धर्म का आदेश देकर उत्तर की दिशा की ओर प्रस्थान"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! सुख भोगने के योग्य राजकुमार पाण्‍डव इन्द्र के समान तेजस्वी थे। वे वनवास के संकट में पड़कर द्वैतवन में प्रवेश करके वहाँ सरस्वती-तटवर्ती सुखद शालवनों में विहार करने लगे। कुरुश्रेष्ठ महानुभाव राजा युधिष्ठिर ने उस वन में रहने वाले सम्पूर्ण यतियों, मुनियों और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को उत्तम फल-मूलों के द्वारा तृप्त किया। अत्यन्त तेजस्वी पुरोहित धौम्य पिता की भाँति उस महावन में रहने वाले राजकुमार पाण्डवों के यज्ञ-याग, पितृ-श्राद्ध तथा अन्य सत्कर्म करते-कराते रहते थे। राज्य से दूर होकर वन में निवास करने वाले श्रीमान पाण्डवों के उस आश्रम पर उद्दीप्त तेजस्वी पुरातन महर्षि मार्कण्डेय जी अतिथि के रूप मे आये। उनकी अंग-कान्ति प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित हो रही थी। देवताओं, ऋषियों तथा मनुष्यों द्वारा पूजित महामुनि मार्कण्डेय को आया देख अनुपम धैर्य और पराक्रम से सम्पन्न महामनस्वी कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उनकी यथावत पूजा की। अमित तेजस्वी तथा सर्वज्ञ महात्मा मार्कण्डेय जी द्रुपदकुमारी कृष्णा, युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन (और नकुल-सहदेव) को देखकर मन-ही-मन श्रीरामचन्द्र जी का स्मरण करके तपस्वियों के बीच में मुस्कराने लगे। 

  तब धर्मराज युधिष्ठिर ने उदासीन से होकर पूछा ;- ‘मुने! ये सब तपस्वी तो मेरी अवस्था देखकर कुछ-संकुचित से हो रहे हैं, परंतु क्या कारण है कि आप इन सब महात्माओं के सामने मेरी ओर देखकर प्रसन्नतापूर्वक यों मुस्कुराते-से दिखायी देते हैं?

  मार्कण्डेय जी बोले ;- तात! न तो मैं हर्षित होता हूँ और न ही मुस्कुराता हूँ। हर्षजनित अभिमान कभी मेरा स्पर्श नहीं कर सकता। आज तुम्हारी यह विपत्ति देखकर मुझे सत्यप्रतिज्ञ दशरथनन्‍दन श्रीरामचन्‍द्र जी का स्‍मरण हो गया। कुन्तीनन्दन! प्राचीन काल की बात है। राजा रामचन्द्र जी भी अपने पिता की आज्ञा से ही केवल धनुष हाथ में लिये लक्ष्मण के साथ वन में निवास एवं भ्रमण करते थे। उस समय ऋष्यमूक पर्वत के शिखर पर मैंने ही उनका भी दर्शन किया था। दशरथनन्दन श्रीराम सर्वथा निष्पाप थे। इन्द्र उनके दूसरे स्वरूप थे। वे यमराज के नियन्ता और नमुचि जैसे दानवों के नाशक थे, तो भी उन महात्मा ने पिता की आज्ञा से अपना धर्म समझकर वन में निवास किया। जो इन्द्र के समान प्रभावशाली थे, जिनका अनुभव महान था तथा जो युद्ध में सर्वदा अजेय थे, उन्होंने भी सम्पूर्ण भोगों का परित्याग कर वन में निवास किया था। इसलिये अपने को बल का स्वामी समझकर अधर्म नहीं करना चाहिये।

    नाभाग और भागीरथ आदि राजाओं ने भी समुद्रपर्यन्त पृथ्वी को जीतकर सत्य के द्वारा उत्तम लोकों पर विजय पायी। इसलिये तात! अपने को बल का स्वामी मानकर अधर्म का आचरण नहीं करना चाहिये। नरश्रेष्ठ! काशी और कुरु प्रदेश के राजा अलर्क को सत्यप्रतिज्ञ संत बताया गया है। उन्होंने राज्य और धन त्यागकर धर्म का आश्रय लिया है। अतः अपने को अधिक शक्तिशाली समझकर अधर्म का आचरण नहीं करना चाहिये। मनुष्यों में श्रेष्ठ कुन्तीकुमार! विधाता ने पुरातन वेदवाक्यों द्वारा जो अग्निहोत्र आदि कर्मों का विधान किया है, उसका समादर करने के कारण ही साधु सप्तर्षिगण देवलोक में प्रकाशित हो रहे हैं। अतः अपने को शक्तिशाली मानकर कभी धर्म का अनादर नहीं करना चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 15-19 का हिन्दी अनुवाद)

  कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर! पर्वतशिखर के समान ऊँचे और बड़े-बड़े दाँतों वाले इन महाबली गजराजों की ओर तो देखो। ये भी विधाता के आदेश का पालन करने में लगे हैं। इसलिये मैं शक्ति का स्वामी हूँ, ऐसा समझकर कभी अधर्माचरण न करें।

नरेन्द्र! देखो, ये समस्त प्राणी विधाता के विधान के अनुसार अपनी योनि के अनुरूप सदा कार्य करते रहते हैं, अतः अपने को बल का स्वामी समझकर अधर्म न करें।

कुन्तीनन्दन! तुम अपने सत्य, कर्म, यथायोग्य बर्ताव तथा लज्जा आदि सद्गुणों के कारण समस्त प्राणियों से ऊँचे उठे हुए हो। तुम्हारा यश और तेज अग्नि तथा सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा है।

    महानुभाव नरेश! तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार इस कष्टसाध्य वनवास की अवधि पूरी कर कौरवों के हाथ से अपनी तेजस्विनी राजलक्ष्मी को प्राप्त कर लोगे।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तपस्वी महात्माओं के बीच में अपने सुहृदों के साथ बैठे हुए धर्मराज युधिष्ठिर से पूर्वोक्त बातें कहकर महर्षि मार्कण्डेय धौम्य एवं समस्त पाण्डवों से विदा ले उत्तर दिशा की ओर चल दिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्वैतवनप्रवेश विषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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