सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
सोलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"शाल्व की विशाल सेना के आक्रमण का यादव सेना द्वारा प्रतिरोध, साम्ब द्वारा क्षेमवृद्धि की पराजय, वेगवान का वध तथा चारुदेष्ण द्वारा विविन्ध्य दैत्य का वध एवं प्रद्युम्न द्वारा सेना को आश्वासन"
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- राजेन्द्र! सौभ विमान का स्वामी राजा शाल्व अपनी बहुत बड़ी सेना के साथ, जिसमें हाथी सवारों तथा पैदलों की संख्या अधिक थी, द्वारकापुरी पर चढ़ आया और उसके निकट आकर ठहरा। जहाँ अधिक जल से भरा हुआ जलाशय था, वहीं समतल भूमि में उसकी सेना ने पड़ाव डाला। उसमें हाथी सवार, घुड़-सवार, रथी और पैदल। चारों प्रकार के सैनिक थे। स्वयं राजा शाल्व उसका संरक्षक था। श्मशान भूमि, देवमन्दिर, बाँबी और चैत्य वृक्ष को छोड़कर सभी स्थानों में उसकी सेना फैलकर ठहरी हुई थी। सेनाओं के विभागपूर्वक पड़ाव डालने से सारे रास्ते घिर गये थे। राजन! शाल्व के शिविर में प्रवेश करने का कोई मार्ग नहीं रह गया था।
नरश्रेष्ठ! राजा शाल्व की वह सेना सब प्रकार के आयुधों से सम्पन्न, सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र के संचालन में निपुण, रथ, हाथी और घोड़ों से भरी हुई तथा पैदल सिपाहियों और ध्वजा-पताकाओं से व्याप्त थी। सब में वीरोचित लक्षण दिखायी देते थे। उस सेना के सिपाही विचित्र ध्वजा तथा कवच धारण करते थे। उनके रथ और धनुष भी विचित्र थे। कुरुनन्दन! द्वारका के समीप उस सेना को ठहराकर राजा शाल्व वेगपूर्वक द्वारका की ओर बढ़ा, मानो पक्षिराज गरुड़ अपने लक्ष्य की ओर उड़े जा रहे हों। शाल्वराज की उस सेना को आती देख उस समय वृष्णिकुल को आनन्दित करने वाले कुमार नगर से बाहर निकलकर युद्ध करने लगे। कुरुनन्दन! शाल्वराज के उस आक्रमण को सहन न कर सके। चारुदेष्ण, साम्ब और महारथी प्रद्युम्न-ये सब कवच, विचित्र आभूषण तथा ध्वजा धारण करके रथों पर बैठकर शाल्वराज के अनेक श्रेष्ठ योद्धाओं के साथ भिड़ गये। हर्ष में भरे हुए साम्ब ने धनुष धारण करके शाल्व के मन्त्री तथा सेनापति क्षेमवृद्धि के साथ युद्ध किया।
भरतश्रेष्ठ! जाम्बवतीकुमार ने उसके ऊपर भारी बाण-वर्षा की, मानो इन्द्र जल की वर्षा कर रहे हों। महाराज! सेनापति क्षेमवृद्धि ने साम्ब की उस भयंकर बाण-वर्षा को हिमालय की भाँति अविचल रहकर सहन किया। राजेन्द्र! तदनन्तर क्षेमवृद्धि ने स्वयं भी साम्ब के ऊपर मायानिर्मित बाणों की भारी वर्षा प्रारम्भ की। साम्ब ने उस मायामय बाणजाल को माया से छिन्न-भिन्न करके क्षेमवृद्धि के रथ पर सहस्रों बाणों की झड़ी लगा दी। साम्ब ने सेनापति क्षेमवृद्धि को अपने बाणों से घायल कर दिया। वह साम्ब की बाण-वर्षा से पीड़ित हो शीघ्रगामी अश्वों की सहायता से (लड़ाई का मैदान छोड़कर) भाग गया। शाल्व के क्रूर सेनापति क्षेमवृद्धि के भाग जाने पर वेगवान नामक बलवान दैत्य ने मेरे पुत्र पर आक्रमण किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)
राजेन्द्र! वृष्णिवंश का भार वहन करने वाला वीर साम्ब वेगवान के वेग को सहन करते हुए उसका सामना करते हुए धैर्यपूर्वक उसका सामना करने लगा।
कुन्तीनन्दन! सत्यपराक्रमी वीर साम्ब ने अपनी वेगशालिनी गदा को बड़े वेग से घुमाकर वेगवान दैत्य के सिर पर दे मारा। राजन! उस गदा से आहत होकर वेगवान इस प्रकार पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो जीर्ण हुई जड़ वाला पुराना वृक्ष हवा के वेग से टूटकर धराशायी हो गया हो। गदा से घायल हुए उस वीर महादैत्य के मारे जाने पर मेरा पुत्र साम्ब, शाल्व की विशाल सेना में घुसकर युद्ध करने लगा।
महाराज! चारुदेष्ण के साथ महारथी एवं महान धनुर्धर विविन्ध्य नामक दानव शाल्व की आज्ञा से युद्ध कर रहा था। राजन! तदनन्तर चारुदेष्ण और विविन्ध्य में वैसा ही भयंकर युद्ध होने लगा, जैसा पहले इन्द्र और वृत्तासुर में हुआ था। वे दोनों एक-दूसरे पर कुपित हो बाणों से परस्पर आघात कर रहे थे और महाबली सिंहों की भाँति जोर-जोर से गर्जना करते थे। तदनन्तर रुक्मिणीनन्दन चारुदेष्ण ने अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी शत्रुनाशक बाण को महान (दिव्य) अस्त्र से अभिमन्त्रित करके अपने धनुष पर संघान किया। राजन! तत्पश्चात मेरे उस महारथी पुत्र ने क्रोध में भरकर विविन्ध्य पर बाण चलाया। उसके लगते ही विविन्ध्य प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। विविन्ध्य को मारा गया और सेना को तहस-नहस हुई देख शाल्व इच्छानुसार चलने वाले सौभ विमान द्वारा फिर वहाँ आया।
महाबाहु नरेश्वर! उस समय सौभ विमान पर बैठे हुए शाल्व को देखकर द्वारका की सारी सेना भय से व्याकुल हो उठी। महाराजा कुरुनन्दन! तब प्रद्युम्न ने निकलकर आनर्तवासियों की उस सेना को धीरज बँधाया और इस प्रकार कहा,,
प्रद्युम्न बोले ;- ‘यादवों! आप सब लोग (चुपचाप) खड़े रहें और मेरे पराक्रम को देखें; मैं किस प्रकार युद्ध में राजा शाल्व के सहित सौभ विमान की गति को रोक देता हूँ। यदुवंशियो! मैं अपने धर्नुदंड से छूटे हुए लोहे के सर्पतुल्य बाणों द्वारा सौभपति शाल्व की सेना को अभी नष्ट किये देता हूँ। आप धैर्य धारण करें, भयभीत न हों, सौभराज अभी नष्ट हो रहा है। दुष्टात्मा शाल्व मेरा सामना होते ही सौभ विमान सहित नष्ट हो जायेगा।'
वीर पाण्डुनन्दन! हर्ष में भरे हुए प्रद्युम्न के ऐसा कहने पर वह सारी सेना स्थिर हो पूर्ववत प्रसन्नता और उत्साह के साथ युद्ध करने लगी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमन पर्व में सौभवधोपाख्यान विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
सत्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"प्रद्युम्न और शाल्व का घोर युद्ध"
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! यादवों से ऐसा कहकर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न एक सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हुए, जिसमें बख्तर पहनाये हुए घोड़े जुते थे। उन्होंने अपनी मकरचिह्नित ध्वजा को ऊँचा किया, जो मुँह बाये हुए काल के समान प्रतीत होती थी। उनके रथ के घोड़े ऐसे चलते थे, मानो आकाश में उड़े जा रहे हों। ऐसे अश्वों से जुते हुए रथ के द्वारा महाबली प्रद्युम्न ने शत्रुओं पर आक्रमण किया। वे अपने श्रेष्ठ धनुष को बारंबार खींचकर उसकी टंकार फैलाते हुए आगे बढ़े। उन्होंने पीठ पर तरकस और कमर में तलवार बाँध ली थी। उनमें शौर्य भरा था और उन्होंने गोह में चमड़े के बने हुए दस्ताने पहन रखे थे। वे अपने धनुष को एक हाथ से दूसरे हाथ में ले लिया करते थे। उस समय वह धनुष बिजली के समान चमक रहा था। उन्होंने उस धनुष के द्वारा सौभ विमान में रहने वाले समस्त दैत्यों को मूर्च्छित कर दिया। वे बारंबार धनुष को खींचते, उस पर बाण रखते और उसके द्वारा शत्रु सैनिकों को युद्ध में मार डालते थे। उनकी उक्त क्रियाओं में किसी को भी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं दिखायी देता था। उनके मुख का रंग तनिक भी नहीं बदलता था। उनके अंग भी विचलित नहीं होते थे। सब ओर गर्जना करते हुए प्रद्युम्न का उत्तम एवं अद्भुत बल-पराक्रम का सूचक सिंहनाद सब लोगों को सुनायी देता था। शाल्व की सेना के ठीक सामने प्रद्युम्न के श्रेष्ठ रथ पर उनकी उत्तम ध्वजा फहराती हुई शोभा पा रही थी। उस ध्वजा के सुवर्णमय दण्ड के ऊपर सब तिमि नामक जल-जन्तुओं का प्रथमन करने वाले मुँह बाये एक मगरमच्छ का चिह्न था। वह शत्रु सैनिकों को अत्यन्त भयभीत कर रहा था।
नरेश्वर! तदनन्तर शत्रुहन्ता प्रद्युम्न तुरंत आगे बढ़कर राजा शाल्व के साथ युद्ध करने की इच्छा से उसी की ओर दौड़े। कुरुकुलतिलक! उस महासंग्राम में वीर प्रद्युम्न के द्वारा किया हुआ वह आक्रमण क्रुद्ध राजा शाल्व न सह सका। शत्रु की राजधानी पर विजय पाने वाले शाल्व ने रोष एवं बल के मद से उन्मत हो इच्छानुसार चलने वाले विमान से उतरकर प्रद्युम्न से युद्ध आरम्भ किया। शाल्व तथा वृष्णिवंशी वीर प्रद्युम्न में बलि और इन्द्र के समान घोर युद्ध होने लगा। उस समय लोग एकत्र होकर उन दोनों का युद्ध देखने लगे। वीर! शाल्व के पास सुवर्णभूषित मायामय रथ था। वह रथ ध्वजा, पताका, अनुकर्ष (हरसा) और तरकस से युक्त था।
प्रभो कुरुनन्दन! श्रीमान महाबली शाल्व ने उस श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो बाणों की वर्षा आरम्भ की। तब प्रद्युम्न भी युद्ध भूमि में अपनी भुजाओं के वेग से शाल्व को मोहित करते हुए-से उसके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणों की बौछार करने लगे। सौभ विमान का स्वामी राजा शाल्व युद्ध में प्रद्युम्न के बाणों से घायल होने पर यह सहन नहीं कर सका-अमर्ष में भर गया और मेरे पुत्र पर प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी बाण छोड़ने लगा। महाबली प्रद्युम्न ने उन बाणों को आते ही काट गिराया। तत्पश्चात शाल्व ने मेरे पुत्र पर और भी बहुत-से प्रज्वलित बाण छोड़े।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 17-25 का हिन्दी अनुवाद)
राजेन्द्र! शाल्व के बाणों से घायल होकर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न ने तुरंत ही उस युद्ध भूमि में शाल्व पर एक ऐसा बाण चलाया, जो मर्मस्थल को विदीर्ण कर देने वाला था। मेरे पुत्र के चलाये हुए उस बाण ने शाल्व के कवच को छेदकर उसके हृदय को बींध डाला। इससे वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा।
वीर शाल्वराज के अचेत होकर गिर जाने पर उसकी सेना के समस्त दानवराज पृथ्वी को विदीर्ण करके पाताल में पलायन कर गये। पृथ्वीपते! उस समय सौभ विमान का स्वामी राजा शाल्व जब संज्ञाशून्य होकर धराशायी हो गया, तब उसकी समस्त सेना में हाहाकर मच गया।
कुरुश्रेष्ठ! तत्पश्चात जब चेत हुआ, तब महाबली शाल्व सहसा उठकर प्रद्युम्न पर बाणों की वर्षा करने लगा। शाल्व के उन बाणों द्वारा कण्ठ के मूलभाग में गहरा आघात लगने से अत्यन्त घायल होकर समर में स्थित महाबाहु वीर प्रद्युम्न उस समय रथ पर मूर्च्छित हो गये।
महाराज! रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न को घायल करके शाल्व बड़े जोर-जोर से सिंहनाद करने लगा। उसकी आवाज से वहाँ की सारी पृथ्वी गूँज उठी। भारत! मेरे पुत्र के मूर्च्छित हो जाने पर भी शाल्व ने उन पर और भी बहुत-से दुर्द्धर्ष बाण शीघ्रतापूर्वक छोड़े। कौरवश्रेष्ठ! इस प्रकार बहुत-से बाणों से आहत होने के कारण प्रद्युम्न उस रणांगण में मूर्च्छित एवं निश्चेष्ट हो गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगनपर्व में सौभवधोपाख्यान विषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
अठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"मूर्च्छावस्था में सारथि के द्वारा रणभूमि से बाहर लाये जाने पर प्रद्युम्न का अनुताप और इसके लिये सारथि को उपालम्भ देना"
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- बलवानों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न जब शाल्व के बाणों से पीड़ित हो (मूर्च्छित हो) गये, तब सेना में आये हुए वृष्णिवंशी वीरों का उत्साह भंग हो गया। उन सबको बड़ा दुख हुआ। राजन! प्रद्युम्न के मूर्च्छित होने पर वृष्णि और अंधकवंश की सारी सेना में हाहाकार मच गया और शत्रु लोग अत्यन्त प्रसन्नता से खिल उठे। दारुक का पुत्र प्रद्युम्न का सुशिक्षित था। वह प्रद्युम्न को इस प्रकार मूर्च्छित देख वेगशाली अश्वों द्वारा उन्हें तुरंत रणभूमि से बाहर ले गया। अभी वह रथ अधिक दूर नहीं जाने पाया था, तभी बड़े-बड़े महारथियों को परास्त करने वाले प्रद्युम्न सचेत हो गये और हाथ में धनुष लेकर सारथि से इस प्रकार बोले,,
प्रधुम्न बोले ;- ‘सूतपुत्र! आज तूने क्या सोचा है? क्यों युद्ध से मुँह मोड़कर भागा जा रहा है? युद्ध से पलायन करना वृष्णिवंशी वीरों का धर्म नहीं है। सूतनन्दन! इस महासंग्राम में राजा शाल्व को देखकर तुझे मोह तो नहीं हो गया है? अथवा युद्ध देखकर तुझे विषाद तो नहीं होता है? मुझसे ठीक-ठीक बता (तेरे इस प्रकार भागने का क्या कारण है?)
सूतपुत्र ने कहा ;- 'जनार्दनकुमार! न मुझे मोह हुआ है और न मेरे मन में भय ही समाया है। केशवनन्दन! मुझे ऐसा मालूम होता है कि यह राजा शाल्व आपके लिये अत्यन्त भार-सा हो रहा है। वीरवर! मैं धीरे-धीरे रणभूमि से दूर इसलिये जा रहा हूँ क्योंकि यह पापी शाल्व बड़ा बलवान है। सारथि का यह धर्म है कि यदि शूरवीर रथी संग्राम में मूर्च्छित हो जाये तो वह किसी प्रकार उसके प्राणों की रक्षा करे। आयुष्मान! मुझे आपकी और आपको मेरी सदा रक्षा करनी चाहिये। रथी सारथि के द्वारा सदा रक्षणीय है, इस कर्तव्य का विचार करके ही मैं रणभूमि से लौट रहा हूँ। महाबाहो! आप अकेले हैं और इन दानवों की संख्या बहुत है। रुक्मिणीनन्दन! इस युद्ध में इतने विपक्षियों का सामना करना अकेले आपके लिये कठिन है।'
कुरुनन्दन! सूत के ऐसा कहने पर मकरध्वज प्रद्युम्न ने उससे कहा,,
प्रधुम्न बोले ;- ‘दारुककुमार! तू रथ को पुनः युद्ध भूमि की ओर लौटा ले चल। सूतपुत्र! आज से फिर कभी किसी प्रकार भी मेरे जीते-जी रथ को रणभूमि से न लौटाना। वृष्णिवंश में ऐसा कोई (वीर पुरुष) नहीं पैदा हुआ है, जो युद्ध छोड़कर भाग जाये अथवा गिरे हुए को तथा 'मैं आपका हूँ' यह कहने वाले को मारे। इसी प्रकार स्त्री, बालक, वृद्ध, रथहीन, अपने पक्ष से बिछड़े हुए तथा जिसके अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो गये हों, ऐसे लोगों पर जो हथियार उठाता हो, ऐसा मनुष्य भी वृष्णिकुल में नहीं उत्पन्न हुआ है। दारुककुमार! तू सूतकुल में उत्पन्न होने के साथ ही सूतकर्म की अच्छी तरह शिक्षा पा चुका है। वृष्णिवंशी वीरों का युद्ध में क्या धर्म है, यह भी भली-भाँति जानता है। सूतनन्दन! युद्ध के मुहाने पर डटे हुए वृष्णिकुल के वीरों का सम्पूर्ण चरित्र तुझसे अज्ञात नहीं है; अतः तू फिर कभी किसी तरह भी युद्ध से न लौटना।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)
‘युद्ध से लौटने या भ्रान्तचित्त होकर भागने पर जब मेरी पीठ में शत्रु के बाणों का आघात लगा हो, उस समय किसी से परास्त न होने वाले मेरे पिता गदाग्रज भगवान माधव मुझसे क्या कहेंगे? अथवा पिताजी के बड़े भाई नीलाम्बरधारी मदोत्कट महाबाहु बलराम जी जब यहाँ पधारेंगे, तब वे मुझसे क्या कहेंगे? सूत! युद्ध से भागने पर मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी महाधर्नुधर सात्यकि तथा समर विजयी साम्ब मुझसे क्या कहेंगे? सारथे! दुर्धर्ष वीर चारुदेष्ण, गद, सारण और महाबाहु अक्रूर मुझसे क्या कहेंगे? मैं शूरवीर, सम्भावित (सम्मानित), शान्तस्वभाव तथा सदा अपने को वीर पुरुष मानने वाला समझता हूँ। (युद्ध से भागने पर) मुझे देखकर झुंड की झुंड एकत्र हुई वृष्णि वीरों की स्त्रियाँ मुझे क्या कहेंगी? सब लोग यही कहेंगे- ‘यह प्रद्युम्न भयभीत हो महान संग्राम छोड़कर भाग रहा है; इसे धिक्कार है’, उस अवस्था में किसी के मुख से मेरे लिये अच्छे शब्द नहीं निकलेंगे। सूतकुमार! मेरे अथवा मेरे जैसे किसी भी पुरुष के लिये धिक्कारयुक्त वाणी द्वारा कोई परिहास भी कर दे, तो वह मृत्यु से भी अधिक कष्ट देने वाला है; अतः तू फिर कभी युद्ध छोड़कर न भागना।
मेरे पिता मधुसूदन भगवान श्रीहरि यहाँ की रक्षा का सारा भार मुझ पर रखकर भरतवंशशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ में गये हैं। (आज मुझसे जो अपराध हो गया है,) इसे वे कभी क्षमा नहीं कर सकेंगे। सूतपुत्र! वीर कृतवर्मा शाल्व का सामना करने के लिये पुरी से बाहर आ रहे थे; किंतु मैंने उन्हें रोक दिया और कहा,,- ‘आप यहीं रहिये। मैं शाल्व को परास्त कर दूँगा।' कृतवर्मा मुझे इस कार्य के लिये समर्थ जानकर युद्ध से निवृत्त हो गये। आज युद्ध छोड़कर जब मैं उन महारथी वीर से मिलूँगा, तब उन्हें क्या जबाब दूँगा?
शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले कमलनयन महाबाहु एवं अजेय वीर भगवान पुरुषोत्तम जब यहाँ मेरे निकट पदार्पण करेंगे, तब उन्हें क्या उत्तर दूँगा? सात्सकि से बलराम जी से तथा अन्धक और वृष्णि वंश के अन्य वीरों से, जो सदा मुझसे स्पर्धा रखते हैं, मैं क्या कहूँगा? सूतपुत्र! तेरे द्वारा रण से दूर लाया हुआ मैं इस युद्ध को छोड़कर और पीठ पर बाणों की चोट खाकर विवशतापूर्ण जीवन किसी प्रकार भी नहीं धारण करूँगा। दारुकनन्दन! अतः तू शीघ्र ही रथ के द्वारा पुनः संग्राम भूमि की ओर लौट। आज मुझ पर आपत्ति आने पर भी तू किसी तरह ऐसा बर्ताव न करना। सूतपुत्र! पीठ पर बाणों की चोट खाकर भयभीत हो युद्ध से भागने वाले जीवन को मैं किसी प्रकार भी आदर नहीं देता। सूतपुत्र! क्या तू मुझे कायरों की तरह भय से पीड़ित और युद्ध छोड़कर भागा हुआ समझता है? दारुककुमार! तुझे संग्रामभूमि का परित्याग करना कदापि उचित नहीं था। विशेषतः उस अवस्था में, जबकि मैं युद्ध की अभिलाषा रखता था। अतः जहाँ युद्ध हो रहा है, वहाँ चल।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यान विषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
उन्नीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"प्रद्युम्न द्वारा शाल्व की पराजय"
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- कुन्तीनन्दन! प्रद्युम्न के ऐसा कहने पर सूतपुत्र ने शीघ्र ही बलवानों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न से थोड़े शब्दों में
मधुरतापूर्वक कहा ;- ‘रुक्मिणीनन्दन! संग्रामभूमि में घोड़ों की बागडोर सँभालते हुए मुझे तनिक भी भय नहीं होता। मैं वृष्णिवंशियों में युद्धधर्म को भी जानता हूँ। आपने जो कुछ कहा है, उसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है। आयुष्मान! मैंने तो सारथ्य में तत्पर रहने वाले लोगों के इस उपदेश का स्मरण किया था कि सभी दशाओं में रथी की रक्षा करनी चाहिये। उस समय आप भी अधिक पीड़ित थे। वीर शाल्व के चलाये हुए बाणों से अधिक घायल होने के कारण आपको मूर्च्छा आ गयी थी, इसीलिये मैं आपको लेकर रणभूमि से हटा था। सात्वत वीरों मे प्रधान केशवनन्दन! अब दैवेच्छा से आप सचेत हो गये हैं, अतः घोड़े हाँकने की कला में मुझे कैसी उत्तम शिक्षा मिली है, उसे देखिये। मैं दारुक का पुत्र हूँ और उन्होंने ही मुझे सारथ्य कर्म की यथावत शिक्षा दी है। देखिये! अब मैं निर्भय होकर राजा शाल्व की इस विख्यात सेना में प्रवेश करता हूँ।'
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- वीरवर! ऐसा कहकर उस सूतपुत्र ने घोड़ों की बागडोर हाथ में लेकर उन्हें युद्धभूमि की ओर हाँका और शीघ्रतापूर्वक वहाँ जा पहुँचा। उसने समान-असमान और वाम-दक्षिण आदि सब प्रकार की विचित्र मण्डलकार गति से रथ का संचालन किया। राजन! वे श्रेष्ठ घोड़े चाबुक की मार खाकर, बागडोर हिलाने से तीव्र गति से दौड़ने लगे, मानो आकाश में उड़ रहे हों। महाराज! दारुकपुत्र के हस्तलाघव को समझकर वे घोड़े प्रज्वलित अग्नि की भाँति दमकते हुए इस प्रकार जा रहे थे, मानो अपने पैरों से पृथ्वी को स्पर्श भी न कर रहे हों। भरतकुलभूषण! दारुक के पुत्र ने अनायास ही शाल्व की उस सेना को अपसव्य (दाहिने) कर दिया। यह एक अद्भुत बात हुई। शोभराज शाल्व प्रद्युम्न के द्वारा अपनी सेना का अपसव्य किया जाना न सह सका। उसने सहसा तीन बाण चलाकर प्रद्युम्न के सारथी को घायल कर दिया। महाबाहो! दारुककुमार ने वहाँ बाणों के वेगपूर्वक प्रहार की कोई चिन्ता न करते हुए शाल्व की सेना को अपसव्य (दाहिने) करते हुए रथ को आगे बढ़ाया। वीरवर! तब शोभराज शाल्व ने पुनः मेरे पुत्र रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न पर अनेक प्रकार के बाण चलाये। शत्रु वीरों का संहार करने वाले रुक्मिणनन्दन प्रद्युम्न अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए शाल्व के बाणों को अपने पास आने से पहले ही तीक्ष्ण बाणों से मुस्कुराकर काट देते थे।
प्रद्युम्न के द्वारा अपने बाणों को छिन्न-भिन्न होते देख सौभराज ने भयंकर आसुरी माया का सहारा लेकर बहुत-से बाण बरसाये। प्रद्युम्न ने शाल्व को अति शक्तिशाली दैत्यास्त्र का प्रयोग करता जानकर ब्रह्मास्त्र के द्वारा उसे बीच में ही काट डाला और अन्य बहुत-से बाण बरसाये। वे सभी बाण शत्रुओं का रक्त पीने वाले थे। उन बाणों ने शाल्व के अस्त्रों का नाश करके उसके मस्तक, छाती और मुख को बाँध डाला, जिससे वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। क्षुद्र स्वभाव वाले राजा शाल्व के बाण विद्ध होकर गिर जाने पर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न ने अपने धनुष पर एक उत्तम बाण का संधान किया, जो शत्रु का नाश कर देने वाला था।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 20-27 का हिन्दी अनुवाद)
वह बाण समस्त यादव समुदाय के द्वारा सम्मानित विषैले सर्प के समान विषाक्त तथा प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशमान था। उस बाण को प्रत्यंचा पर रखा देख अन्तरिक्ष लोक में हाहाकार मच गया।
तब इन्द्र और कुबेर सहित सम्पूर्ण देवताओं ने देवर्षि नारद तथा मन के समान वेग वाले वासुदेव को भेजा। उन दोनों ने रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न के पास आकर देवताओं का यह संदेश सुनाया,,
नारद जी व वासुदेव जी बोले ;- ‘वीरवर! यह राजा शाल्व युद्ध में कदापि तुम्हारा वध्य नहीं है। तुम अपने इस बाण को फिर से लौटा लो; क्योंकि यह शाल्व तुम्हारे द्वारा अवध्य है। तुम्हारे इस बाण का प्रयोग होने पर युद्ध में कोई भी पुरुष बिना मरे नहीं रह सकता। महाबाहो! विधाता ने युद्ध में देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के हाथ से ही इसकी मृत्यु निश्चित की है। उनका वह संकल्प मिथ्या नहीं होना चाहिये।'
यह सुनकर प्रद्युम्न बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने श्रेष्ठ धनुष से उस उत्तम बाण को उतार लिया और पुनः तरकस में रख दिया।
राजेन्द्र! तदनन्तर शाल्व उठकर अत्यन्त दुःखित-चित्त हो प्रद्युम्न के बाणों से पीड़ित होने के कारण अपनी सेना के साथ तुरंत भाग गया। महाराज! उस समय वृष्णिवंशियों से पीड़ित हो क्रूर स्वभाव वाला शाल्व द्वारका को छोड़कर अपने सौभ नामक विमान का आश्रय ले आकाश में जा पहुँचा।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यान विषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 1- 20 का हिन्दी अनुवाद)
"श्रीकृष्ण और शाल्व का भीषण युद्ध"
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- राजन! आपका राजसूय महायज्ञ समाप्त हो जाने पर मैं शाल्व से विमुक्त आनर्त नगर (द्वारका) में गया। महाराज! मैंने वहाँ पहुँचकर देखा, द्वारका श्रीहीन हो रही है। वहाँ न तो स्वाध्याय होता है, न वषट्कार। वह पुरी आभूषणों से रहित सुन्दरी नारी की भाँति उदास लग रही थी। द्वारका के वन-उपवन तो ऐसे हो रहे थे, मानो पहचाने ही न जाते हों। यह सब देखकर मेरे मन में बड़ी आशंका हुई और मैंने कृतवर्मा से पूछा,,
श्री कृष्ण बोले ;- ‘नरश्रेष्ठ! इस वृष्णिवंश में प्रायः सभी स्त्री-पुरुष अस्वस्थ दिखायी देते हैं, इसका क्या कारण है? यह मैं ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ।' नृपश्रेष्ठ! मेरे इस प्रकार पूछने पर कृतवर्मा ने शाल्व के द्वारकापुरी पर घेरा डालने और फिर छोड़कर भाग जाने का सब समाचार विस्तारपूर्वक कह सुनाया।
भरतवंशशिरोमणे! यह सब वृतान्त पूर्णरूप से सुनकर मैंने शाल्वराज के विनाश का पूर्ण निश्चय कर लिया। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर मैं नगरवासियों को आश्वासन देकर राजा उग्रसेन, पिता वसुदेव तथा सम्पूर्ण वृष्णिवंशियों का हर्ष बढ़ाते हुए बोला,,
श्री कृष्ण बोले ;- ‘यदुकुल के श्रेष्ठ पुरुषों! आप लोग नगर की रक्षा के लिये सदा सावधान रहें। मैं शाल्वराज का नाश करने के लिये यहाँ से प्रस्थान करता हूँ। आप यह निश्चय जानें; मैं शाल्व का वध किये बिना द्वारकापुरी को नहीं लौटूँगा। शाल्व सहित सौभ नगर का नाश कर लेने पर ही मैं पुनः आप लोगों का दर्शन करूँगा। अब शत्रुओं को भयभीत करने वाले इस नगाड़े को तीन बार बजाइये।'
भरतकुलभूषण! मेरे इस प्रकार आश्वासन देने पर सभी यदुवंशी वीरों ने प्रसन्न होकर मुझसे कहा,,
सभी यदुवंशी बोले ;- ‘जाइये और शत्रुओं का विनाश कीजिये।' प्रसन्न चित्त वाले उन वीरों के द्वारा आशीर्वाद से अभिनन्दित होकर मैंने श्रेष्ठ ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन और मस्तक झुकाकर भगवान शिव को प्रणाम किया। नरश्रेष्ठ! तदनन्तर शैव्य और सुग्रीव नामक घोड़ों से जुते हुए अपने रथ के द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनि करते हुए श्रेष्ठ शंख पांचजन्य को बजाकर मैंने विशाल सेना के साथ रण के लिये प्रस्थान किया। मेरी उस व्यूहरचना से युक्त और नियन्त्रित सेना में हाथी, घोडे़, रथी और पैदल-चारों ही अंग मौजूद थे। उस समय वह सेना विजय से सुशोभित हो रही थी। तब मैं बहुत से देशों और वृक्षों से हरे-भरे पर्वतों, सरोवरों और सरिताओं को लाँघता हुआ मार्तिकावन में जा पहुँचा। नरव्याघ्र! वहाँ मैंने सुना कि शाल्व सौभ विमान पर बैठकर समुद्र के निकट जा रहा है। तब मैं उसी के पीछे लग गया। शत्रुनाशक! फिर समुद्र के निकट पहुँचकर उत्ताल तरंगों वाले महासागर की कुक्षि के अन्तर्गत उसके नाभिदेश (एक द्वीप) में जाकर राजा शाल्व सौभ विमान पर ठहरा हुआ था।
युधिष्ठिर! वह दुष्टात्मा दूर से ही मुझे देखकर मुस्कुराता हुआ-सा देखकर बारंबार युद्ध के लिये ललकारने लगा। मेरे शारंग धनुष से छूटे हुए बहुत-से मर्म-भेदी बाण शाल्व के विमान तक नहीं पहुँच सके। इससे मैं रोष में भर गया। राजन! नीच दैत्य दुर्द्धर्ष राजा शाल्व के स्वभाव से ही पापाचारी था। उसने मेरे ऊपर सहस्रों बाणधाराएँ बरसायीं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)
मेरे सारथि, घोड़ों तथा सैनिकों पर उसने भी बाणों की झड़ी लगा दी। भारत! उसके बाणों की बौछार को कुछ न समझकर मैं युद्ध में ही लगा रहा। तदनन्तर शाल्व के अनुगामी वीरों ने युद्ध में मेरे ऊपर झुकी हुई गाँठ वाले लाखों बाण बरसाये। उस समय उन असुरों ने मर्म-भेधी बाणों द्वारा मेरे घोड़ों को, रथ को और दारुक को भी ढक दिया। वीरवर! उस समय मेरे घोड़े, रथ, मेरा सारथि दारुक, मैं तथा मेरे सारे सैनिक-सभी बाणों से आच्छादित होकर अदृश्य हो गये।
कुन्तीनन्दन! तब मैंने भी अपने धनुष द्वारा दिव्य विधि से अभिमन्त्रित किये हुए कई हजार बाण बरसाये। भारत! शाल्व का सौभ विमान आकाश में इस प्रकार प्रवेश कर गया था कि मेरे सैनिकों की दृष्टि में आता ही नहीं था, मानो एक कोस दूर चला गया हो। तब वे सैनिक रंगशाला में बैठे हुए दर्शकों की भाँति केवल मेरे युद्ध का दृश्य देखते हुए जोर-जोर से सिंहनाद और करतलध्वनि करके मेरा हर्ष बढ़ाने लगे। तब मेरे हाथों से छूटे हुए मनोहर पंख वाले बाण दानवों के अंगों में शलभों की भाँति घुसने लगे। इससे सौभ विमान में मेरे तीखे बाणों से मरकर महासागर में गिरने वाले दानवों का कोलाहल बढ़ने लगा। कंधे और भुजाओं के कट जाने से कबन्ध की आकृति में दिखायी देने वाले वे दानव भयंकर नाद करते हुए समुद्र में गिरने लगे। जो गिरते थे, उन्हें समुद्र में रहने वाले जीव-जन्तु निगल जाते थे। तत्पश्चात मैंने गोदुग्ध, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा, मृणाल तथा तथा चाँदी की-सी कान्ति वाले पांचजन्य नामक शंख को बड़े जोर से फूँका। उन दानवों को समुद्र मे गिरते देख सौभराज शाल्व महान माया युद्ध के द्वारा मेरा सामना करने लगा। फिर तो मेरे ऊपर गदा, हल, प्राप्त, शूल, शक्ति, फरसे, खड्ग, शक्ति, वज्र, पाश, ऋषि, कनप, बाण, पट्टिश और भुशुण्डी आदि शस्त्रों की निरन्तर वर्षा होने लगी। मैंने शस्त्रों को उसकी माया द्वारा ही नियन्त्रित करके नष्ट कर दिया। उस माया का नाश होने पर वह पर्वत के शिखरों द्वारा युद्ध करने लगा।
तदनन्तर कभी अन्धकार-सा हो जाता, कभी प्रकाश-सा हो जाता, कभी मेघों से आकाश घिर जाता और कभी बादलों के छिन्न-भिन्न होने से सुन्दर दिन प्रकट हो जाता था। कभी सर्दी और कभी गर्मी पड़ने लगती थी। अंगार और धूल की वर्षा के साथ-साथ शस्त्रों की भी वृष्टि होने लगती। इस प्रकार शत्रु ने मेरे साथ माया का प्रयोग करते हुए युद्ध आरम्भ किया। वह सब प्रकार जान मैंने माया द्वारा ही उसकी माया का नाश कर दिया। यथासमय युद्ध करते हुए मैंने बाणों द्वारा शाल्व की सेना को सब ओर से संतप्त कर दिया।
कुन्तीपत्रु महाराज युधिष्ठिर! इसके बाद आकाश सौ सूर्यों से उद्भासित-सा दिखायी देने लगा। उसमें सैकड़ों चन्द्रमा और करोड़ों तारे दिखायी देने लगे। उस समय यह जान नहीं पड़ता था कि यह दिन है या रात्रि। दिशाओें का भी ज्ञान नहीं होता था; इससे मोहित होकर मैंने प्रज्ञास्त्र का संघान किया। कुन्तीकुमार! तब उस अस्त्र ने उस सारी माया को उसी प्रकार उड़ा दिया, जैसे हवा रूई को उड़ा देती है। इसके बाद शाल्व के साथ हम लोगों का अत्यन्त भयंकर तथा रोमांचकारी युद्ध होने लगा। राजेन्द्र! सब ओर प्रकाश हो जाने पर मैंने पुनः शत्रु से युद्ध आरम्भ कर दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यान विषयक बीसवाँ अध्याय)
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