सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
ग्यारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"भीमसेन के द्वारा किर्मीर के वध की कथा"
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- विदुर! मैं किर्मीर वध का वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ, कहो। उस राक्षस के साथ भीमसेन की मुठभेड़ कैसे हुई?
विदुर जी ने कहा ;- राजन! मानव शक्ति से अतीत कर्म करने वाले भीमसेन के इस भयानक कर्म को आप सुनिये, जिसे मैंने उन पाण्डवों के कथा प्रसंग में (ब्राह्मणों से) बार-बार सुना है।
राजेन्द्र! पाण्डव जुए में पराजित होकर जब यहाँ से गये, तब तीन दिन चले और रात में काम्यकवन में जा पहुँचे। आधी रात के भयंकर समय में, जबकि भयानक कर्म करने वाले नरभक्षी राक्षस विचरते रहते हैं, तपस्वी मुनि और वनचारी गोपगण भी उस राक्षस के भय से उस वन को दूर से ही त्याग देते थे। भारत! उस वन में प्रवेश करते ही वह राक्षस उनका मार्ग रोककर खड़ा हो गया। उसकी आँखें चमक रही थीं। वह भयानक राक्षस मशाल लिये आया था। अपनी दोनों भुजाओं को बहुत ही बड़ी करके मुँह को भयानक रूप से फैलाकर वह उसी मार्ग को घेरकर खड़ा हो गया, जिससे वे कुरुवंशशिरोमणि पाण्डव यात्रा कर रहे थे। उसकी आठ दाढ़ें स्पष्ट दिखायी देती थीं, आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं एवं सिर के बाल ऊपर की ओर उठे हुए और प्रज्वलित-से जान पड़ते थे। उसे देखकर ऐसा मालूम होता था, मानो सूर्य की किरणों, विद्युत्मंडल और बकपंक्तियों के साथ मेघ शोभा पा रहा है। वह भयंकर गर्जना के साथ राक्षसी माया की सृष्टि कर रहा था। सजल जलधर के समान जोर-जोर से सिंहनाद करता था।
उसकी गर्जना से भयभीत हुए स्थलचर पक्षी जलचर पक्षियों के साथ चींचीं करते हुए सब दिशाओं में भाग चले। भागते हुए मृग, भेड़िये, भैंसे तथा रीछों से भरा हुआ वह वन उस राक्षस की गर्जना से ऐसा हो गया, मानो वह वन ही भाग रहा हो। उसकी जाँघों की हवा के वेग से आहत हो ताम्रवण के पल्लवरूपी बाँहों द्वारा सुशोभित दूर की लताएँ भी मानो वृक्षों से लिपटी जाती थीं। इसी समय बड़ी प्रचण्ड वायु चलने लगी। उसकी उड़ायी हुई धूल से आच्छादित हो आकाश के तारे भी अस्त हो गये-से जान पड़ते थे। जैसे पाँचों इन्द्रियों को अकस्मात अतुलित शोकावेश प्राप्त हो जाये, उसी प्रकार पाँचों पाण्डवों का वह तुलनारहित महान शत्रु सहसा उनके पास आ पहुँचा; पर पाण्डवों को उस राक्षस का पता नहीं था। उसने दूर से ही पाण्डवों को कृष्ण मृगचर्म धारण किये आते देख मैनाक पर्वत की भाँति उस वन के प्रवेश द्वार को घेर लिया। उस अदृष्टपूर्व राक्षस के निकट पहुँचकर कमललोचना कृष्णा ने भयभीत हो अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये। दुःशासन के हाथों से खुले हुए उसके केश सब ओर बिखरे हुए थे। वह पाँच पर्वतों के बीच में पड़ी हुई नदी की भाँति व्याकुल हो उठी। उसे मूर्च्छित होती हुई देख पाँचों पाण्डवों ने सहारा देकर उसी तरह थाम लिया, जैसे विषयों में आसक्त हुई इन्द्रियाँ तत्सम्बंधी अनुरक्ति को धारण किये रहती हैं। तदनन्तर वहाँ प्रकट हुई अत्यन्त भयानक राक्षसी माया को देख शक्तिशाली धौम्य मुनि ने अच्छी तरह प्रयोग में लाये हुए राक्षस विनाशक विविध मन्त्रों द्वारा पाण्डवों के देखते-देखते उस माया का नाश कर दिया। माया नष्ट होते ही वह अत्यन्त बलवान एवं इच्छानुसार रूप धारण करने वाला क्रूर राक्षस आँखें फाड़-फाड़कर देखता हुआ काल के समान दिखायी देने लगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 22-38 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय परम बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर ने उससे पूछा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘तुम कौन हो, किसके पुत्र हो अथवा तुम्हारा कौन-सा कार्य सम्पादन किया जाये? यह सब बताओ।’
तब उस राक्षस ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा,,
राक्षस बोला ;- ‘मैं बक का भाई हूँ, मेरा नाम किर्मीर है, इस निर्जन काम्यकवन में निवास करता हूँ। यहाँ मुझे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है। यहाँ आये हुए मनुष्यों को युद्ध में जीतकर सदा उन्हीं को खाया करता हूँ। तुम लोग कौन हो? जो स्वयं ही मेरा आहार बनने के लिये मेरे निकट आ गये? मैं तुम सब को युद्ध में परास्त करके निश्चिन्त हो अपना आहार बनाऊँगा।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! उस दुरात्मा की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे गोत्र एवं नाम आदि सब बातों का परिचय दिया।
युधिष्ठिर बोले ;- 'मैं पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर हूँ। सम्भव है, मेरा नाम तुम्हारे कानों में भी पड़ा हो। इस समय मेरा राज्य शत्रुओं ने जुए में हरण कर लिया है। अतः मैं भीमसेन, अर्जुन आदि सब भाइयों के साथ वन में रहने का निश्चय करके तुम्हारे निवास स्थान इस घोर काम्ययकवन में आया हूँ।'
विदुर जी कहते हैं ;- राजन! जब किर्मीर ने युधिष्ठिर से कहा- ‘आज सौभाग्यवश देवताओं ने यहाँ मेरे बहुत दिनों के मनोरथ की पूर्ति कर दी। मै प्रतिदिन हथियार उठाये भीमसेन का वध करने के लिये सारी पृथ्वी पर विचरता था; किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था। आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाई का हत्यारा है, मैं बहुत दिनों से इसकी खोज में था। राजन! इसने (एकचक्रा नगरी के पास) वैत्रकीयवन में ब्राह्मण का कपट वेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्याबल का आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुर का वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था।
इसी प्रकार वन में रहने वाले मेरे प्रिय मित्र हिडिम्ब को भी इस दुरात्मा ने मार डाला और उसकी बहिन का अपहरण कर लिया। ये सब बहुत पहले की बातें हैं। वही यह मूढ़ भीमसेन हम लोगों के घूमने-फिरने की बेला में आधी रात के समय मेरे इस गहन वन में आ गया है। ‘आज इससे मैं उस पुराने वैर का बदला लूँगा और इसके प्रचुर रक्त से बकासुर का तर्पण करूँगा। आज मैं राक्षसों के लिये कण्टकरूप इस भीमसेन को मारकर अपने भाई तथा मित्र के ऋण से उऋण हो परम शान्ति प्राप्त करूँगा। युधिष्ठिर! यदि पहले बकासुर ने भीमसेन को छोड़ दिया, तो आज मैं तुम्हारे देखते-देखते इसे खा जाऊँगा। जैसे महर्षि अगस्त्य ने वातापि नामक महान राक्षस को खाकर पचा लिया, उसी प्रकार मैं भी इस महाबली भीम को मारकर खा जाऊँगा और पचा लूँगा।'
उसके कहने पर धर्मात्मा एवं सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने कुपित हो उस राक्षस को फटकारते हुए कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘ऐसा कभी नहीं हो सकता।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 39-55 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर महाबाहु भीमसेन ने बड़े वेग से हिलाकर एक दस व्याम लम्बे वृक्ष को उखाड़ लिया और उसके पत्ते झाड़ दिये। इधर विजयी अर्जुन ने भी पलक मारते-मारते अपने उस गाण्डीव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी, जिसे वज्र को भी पीस डालने का गौरव था।
भारत! भीमसेन ने अर्जुन को रोक दिया और मेघ के समान गर्जना करने वाले उस राक्षस पर आक्रमण करते हुए कहा,,
भीमसेन बोले ;- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह।' ऐसा कहकर अत्यन्त क्रोध में भरे हुए बलवान पाण्डुनन्दन भीमसेन ने वस्त्र से अच्छी तरह अपनी कमर कस ली औार हाथ से हाथ रगड़कर दाँतों से होंठ चबाते हुए वृक्ष को ही आयुध बनाकर बड़े वेग से उसकी तरफ दौड़े और जैसे इन्द्र वज्र का प्रहार करते हैं, उसी प्रकार यमदण्ड के समान उस भयंकर वृक्ष को राक्षस के मस्तक पर उन्होंने बड़े जोर से मारा, तो भी वह निशाचर युद्ध में अविचल भाव से खड़ा दिखायी दिया। तत्पश्चात उसने भी प्रज्वलित वज्र के समान जलता हुआ काठ भीम के ऊपर फेंका, परंतु योद्धाओं में श्रेष्ठ भीम ने उस जलते काठ को अपने बाँयें पैर से मारकर इस तरह फेंका कि वह पुनः उस राक्षस पर ही जा गिरा। फिर तो किर्मीर ने भी सहसा एक वृक्ष उखाड़ लिया और क्रोध में भरे हुए दण्डपाणि यमराज की भाँति उस युद्ध में पाण्डुकुमार भीम पर आक्रमण किया।
जैसे पूर्वकाल में स्त्री की अभिलाषा रखने वाले बाली और सुग्रीव दोनों भाइयों में भारी युद्ध हुआ था, उसी प्रकार उन दोनों का वह वृक्ष-युद्ध वन के वृक्षों का विनाशक था। जैसे दो मतवाले गजराजों के मस्तक पर पड़े हुए कमल-पत्र क्षण-भर में छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाते हैं, वैसे ही उन दोनों के मस्तक पर पड़े हुए वृक्षों के अनेक टुकड़े हो जाते थे। वहाँ उस महान वन में बहुत-से वृक्ष मूँज की भाँति जर्जर हो गये थे। वे फटे चीथड़ों की तरह इधर-उधर फैले हुए सुशोभित होते थे।
भरतश्रेष्ठ! राक्षसराज किर्मीर और मनुष्यों में भीमसेन का वह वृक्ष युद्ध दो घड़ी तक चलता रहा। तदनन्तर राक्षस ने कुपित हो, एक पत्थर की चट्टान लेकर युद्ध में खड़े हुए भीमसेन पर चलायी। भीम उसके प्रहार से जड़वत हो गये। वे शिला के आघात से जड़वत हो रहे थे। उस अवस्था में वह राक्षस भीमसेन की ओर उसी तरह दौड़ा जैसे राहु अपनी भुजाओं से सूर्य की किरणों का निवारण करते हुए उन पर आक्रमण करता है। वे दोनों वीर परस्पर भिड़ गये और दोनों को खींचने लगे। दो हष्ट-पुष्ट की भाँति परस्पर भिड़े हुए उन दोनों योद्धाओं की बड़ी शोभा हो रही थी। नख और दाढ़ी से ही आयुधा का काम लेने वाले दो उन्मत्त व्याघ्रों की भाँति उन दोनों में अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था। दुर्योधन के द्वारा प्राप्त हुए तिरस्कार से तथा अपने बाहुबल से भीमसेन का शौर्य एवं अभिमान जाग उठा था। इधर द्रौपदी भी प्रेमपूर्ण दृष्टि से उनकी ओर देख रही थी; अतः वे उस युद्ध में उत्तरोत्तर उत्साहित हो रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 56-75 का हिन्दी अनुवाद)
उन्होंने अमर्ष में भरकर सहसा आक्रमण करके दोनों भुजाओं से उस राक्षस को उसी तरह पकड़ लिया, जैसे मतवाला गजराज गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले दूसरे हाथी से भिड़ जाता है। उस बलवान राक्षस ने भी भीमसेन को दोनों भुजाओं से पकड़ लिया; तब बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन ने उसे बलपूर्वक दूर फेंक दिया। युद्ध में उन दोनों बलवानों की भुजाओं की रगड़ से बाँस के फटने के समान भयंकर शब्द हो रहा था। जैसे प्रचण्ड वायु अपने वेग से वृक्ष को झकझोर देती है, उसी प्रकार भीमसेन ने बलपूर्वक उछलकर उसकी कमर पकड़ ली और उस राक्षस को बड़े वेग से घुमाना आरम्भ किया। बलवान भीम की पकड़ में आकर वह दुर्बल राक्षस अपनी शक्ति के अनुसार उनसे छूटने की चेष्टा करने लगा। उसने भी पाण्डुनन्दन भीमसेन को इधर-उधर खींचा। तदनन्तर उसे थका हुआ देख भीमसेन ने अपनी दोनों भुजाओं से उसी तरह कस लिया, जैसे पशुओं को डोरी से बांध देते हैं।
राक्षस किर्मीर फूटे हुए नगाड़े की-सी आवाज में बड़े जोर-जोर से चीत्कार करने और छटपटाने लगा। बलवान भीम उसे देर तक घुमाते रहे, इससे वह मूर्च्छित हो गया। उस राक्षस को विषाद में डूबा हुआ जान पाण्डुनन्दन भीम ने दोनों भुजाओं से वेगपूर्वक दबाते हुए पशु की तरह उसे मारना आरम्भ किया। भीम ने उस राक्षस के कटि प्रदेश को अपने घुटने से दबाकर दोनों हाथों से उसका गला मरोड़ दिया। किर्मीर का सारा अंग जर्जर हो गया और उसकी आँखें घूमने लगीं, इससे वह और भी भयंकर प्रतीत होता था। भीम ने उसी अवस्था में उसे पृथ्वी पर घुमाया ओैर यह बात कही,,
भीमसेन बोले ;- ‘ओ पापी! अब तू यमलोक में जाकर भी हिडिम्ब और बकासुर के आँसू न पोंछ सकेगा।' ऐसा कहकर क्रोध से भरे हृदय वाले नरवीर भीमसेन ने उस राक्षस को, जिसके वस्त्र और आभूषण खिसककर इधर-उधर गिर गये थे और चित्त भ्रान्त हो रहा था, प्राण निकल जाने पर छोड़ दिया। उस राक्षस का रंग-रूप मेघ के समान काला था। उसके मारे जाने पर राजकुमार पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए और भीमसेन के अनेक गुणों की प्रशंसा करते हुए द्रौपदी को आगे करके वहाँ से द्वैतवन की ओर चल दिये।
विदुर जी कहते हैं ;- नरेश्वर! इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भीमसेन ने किर्मीर को युद्ध में मार गिराया। तदनन्तर विजयी एवं धर्मज्ञ पाण्डुकुमार उस वन को निष्कण्टक (राक्षसरहित) बनाकर द्रौपदी के साथ वहाँ रहने लगी। भरतकुल के भूषणरूपी उन सभी वीरों ने द्रौपदी को आश्वासन देकर प्रसन्नचित्त हो प्रेमपूर्वक भीमसेन की सराहना की। भीमसनेन के बाहुबल से पिसकर जब वह राक्षस नष्ट हो गया, तब उस अकण्टक एवं कल्याणमय वन में उन सभी वीरों ने प्रवेश लिया। मैंने महान वन में जाते और आते समय रास्ते में मरकर गिरे हुए उस भयानक एवं दुष्टात्मा राक्षस के शव को अपनी आँखों से देखा था, जो भीमसेन के बल से मारा गया था। भारत! मैंने वन में उन ब्राह्मणों के मुख से, जो वहाँ आये हुए थे, भीमसेन के इस महान कर्म का वर्णन सुना।
वैशम्पयन जी कहते है ;- जनमेजय! इस प्रकार राक्षसप्रवर किर्मीर का युद्ध में मारा जाना सुनकर राजा धृतराष्ट्र किसी भारी चिन्ता में डूब और शोकातुर मनुष्य की भाँति लम्बी साँस खींचने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अंर्तगत किर्मीरवधपर्व में विदुर वाक्य सम्बन्धी ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
बारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"अर्जुनाभिगमनपर्व"
"अर्जुन और द्रौपदी के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति, द्रौपदी का भगवान श्रीकृष्ण से अपने प्रति किये गये अपमान और दुःख का वर्णन और भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं धृष्टद्युम्न का उसे आश्वासन देना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब भोज, वृष्णि और अन्धक वंश के वीरों ने सुना कि पाण्डव अत्यन्त दुःख से संतप्त हो राजधानी से निकलकर चले गये, तब वे उनसे मिलने के लिये महान वन में गये। पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न, चेदिराज धृष्टकेतु तथा महापराक्रमी लोकविख्यात केकय राजकुमार सभी भाई क्रोध और अमर्ष में भरकर धृतराष्ट्रपुत्रों की निदा करते हुए कुन्तीकुमारों से मिलने के लिये वन में गये और आपस में इस प्रकार कहने लगे,,
सभी बोले ;- ‘हमें क्या करना चाहिये।' भगवान श्रीकृष्ण को आगे करके वे सभी क्षत्रियशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे। उस समय भगवान श्रीकृष्ण विषादग्रस्त हो कुरुप्रवर युधिष्ठिर को नमस्कार करके इस प्रकार बोले।
श्रीकृष्ण ने कहा ;- राजाओं! जान पड़ता है, यह पृथ्वी, दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि और चौथे दुःशासन, इन सबके रक्त का पान करेगी। युद्ध में इनको और इनके सब सेवकों को अन्य राजाओं सहित परास्त करके हम सब लोग धर्मराज युधिष्ठिर को पुनः चक्रवर्ती नरेश के पद पर अभिषिक्त करें। जो दूसरों के साथ छल-कपट अथवा धोखा करके सुख भोग रहा है, उसे मार डालना चाहिये, यह सनातन धर्म है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुन्तीपुत्रों के अपमान से भगवान श्रीकृष्ण ऐसे कुपित हो उठे, मानो वे समस्त प्रजा को जलाकर भस्म कर देंगे। उन्हें इस प्रकार क्रोध करते देख अर्जुन ने उन्हें शान्त किया और उन सत्य और उन सत्यकीर्ति महात्मा द्वारा पूर्व शरीर में किये हुए कर्मों का कीर्तन आरम्भ किया। भगवान श्रीकृष्ण अंर्तयामी, अप्रमेय, अमिततेजस्वी, प्रजापतियों के भी पति, सम्पूर्ण लोकों के रक्षक तथा परम बुद्धिमान श्रीविष्णु ही हैं (अर्जुन ने उनकी इस प्रकार स्तुति की )।
अर्जुन बोले ;- श्रीकृष्ण! पूर्वकाल में गन्धमादन पर्वत पर आपने यत्रसायंगृह मुनि के रूप में दस हजार वर्षों तक विचरण किया है अर्थात नारायण ऋषि के रूप में निवास किया है। सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! पूर्वकाल में कभी इस धरा-धाम में अवतीर्ण हो जाने पर आपने ग्यारह हजार वर्षों तक केवल जल पीकर रहते हुए पुष्कर तीर्थ में निवास किया है। मधुसूदन! आप विशालपुरी के बदरिकाश्रम में दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये केवल वायु का आहार करते हुए सौ वर्षों तक एक पैर से खड़े रहे हैं।
कृष्ण! आप सरस्वती नदी के तट पर उत्तरीय वस्त्र तक का त्याग करके द्वादश वार्षिक यज्ञ करते समय तक शरीर से अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। आपके सारे शरीर में फैली हुई नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं। गोविन्द! आप पुण्यात्मा पुरुषों के निवास योग्य प्रभास तीर्थ में जाकर लोगों को तप में प्रवृत्त करने के लिये शौचद-संतोषादि नियमों में स्थित हो महातेजस्वीस्वरूप से एक सहस्र दिव्य वर्षों तक एक ही पैर से खड़े रहे। ये सब बातें मुझसे श्रीव्यास जी ने बतायी हैं। केशव! आप क्षेत्रज्ञ (सबके आत्मा), सम्पूर्ण भूतों के आदि और अन्त, तपस्या के अधिष्ठान, यज्ञ और सनातन पुरुष हैं। आप भूमिपुत्र नरकासुर को मारकर अदिति के दोनों मणिमय कुण्डलों को ले आये थे एवं आपने ही सृष्टि के आदि में उत्पन्न होने वाले यज्ञ के उपयुक्त घोड़े की रचना की थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद)
सम्पूर्ण लोकों पर विजय पाने वाले लोकेश्वर प्रभु ने वह कर्म करके सामना करने के लिये आये हुए समस्त दैत्यों और दानवों का युद्धस्थल में वध किया। महाबाहु केशव! तदनन्तर शचीपति को सर्वेश्वर पद प्रदान करके आप इस समय मनुष्यों में प्रकट हुए हैं। परंतप! पुरुषोत्तम! आप ही पहले नारायण होकर फिर हरिरूप में प्रकट हुए, ब्रह्मा, सोम, धर्म, धाता, यम, अनल, वायु, कुबेर, रुद्र, काल, आकाश, पृथ्वी, दिशाएँ, चराचरगुरु तथा सृष्टिकर्ता एवं अजन्मा आप ही हैं। मधुसूदन श्रीकृष्ण! आपने चैत्ररथ वन में अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया है। आप सबके उत्तम आश्रय, देवशिरोमणि और महातेजस्वी हैं। जनार्दन! उस समय आपने प्रत्येक यज्ञ के रूप में पृथक-पृथक एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दक्षिणा के रूप में दीं।
यदुनन्दन! आप अदिति के पुत्र हो, इन्द्र के छोटे भाई होकर सर्वव्यापी विष्णु के नाम से विख्यात हैं। परंतप! श्रीकृष्ण! आपने वामन अवतार के समय छोटे-से बालक होकर भी अपने तेज से तीन डगों द्वारा द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूलोक-तीनों को नाप लिया। भूतात्मन! आप ने सूर्य के रथ पर स्थित हो द्युलोक और आकाश में व्याप्त होकर अपने तेज से भगवान भास्कर को भी अत्यन्त प्रकाशित किया है। विभो! आपने सहस्रों अवतार धारण किये हैं और उन अवतारों में सैकडों असुरों का, जो अधर्म में रुचि रखने वाले थे, वध किया है। आपने मुर दैत्य के लोहमय पाश काट दिये, निसुन्द और नरकासुर को मार डाला और पुनः प्राग्ज्योतिषपुर का मार्ग सकुशल यात्रा करने योग्य बना दिया। भगवन! आपने जारूथी नगरी में आहुति, क्राथ, साथियों सहित शिशुपाल, जरासंध, शैब्य और शतधन्वा को परास्त किया। इसी प्रकार मेघ के समान घर्घर शब्द करने वाले सूर्य-तुल्य तेजस्वी रथ के द्वारा कुण्डिनपुर में जाकर आपने रुक्मि को युद्ध में जीता और भोजवंशी कन्या रुक्मिणी को अपनी पटरानी के रूप में प्राप्त किया। प्रभो! आपने क्रोध से इन्द्रद्युम्न को मारा और यवन जातीय कसेरुमान एवं सौभपति शाल्व के सौभ विमान को भी छिन्न-भिन्न करके धरती पर गिरा दिया।
इस प्रकार इन पूर्वोक्त राजाओं को आपने युद्ध में मारा है। अब आपके द्वारा मारे हुए औरों के भी नाम सुनिये। इरावती के तट पर आपने कार्तवीर्य अर्जुन के सदृश पराक्रमी भोज को युद्ध में मार गिराया। गोपति और तालकेतु-ये दोनों भी आपके हाथों से मारे गये। जनार्दन! भोग सामग्रियों से सम्पन्न तथा ऋषि-मुनियों की प्रिय अपने अधीन की हुई पुण्यमयी द्वारका नगरी को आप अन्त में समुद्र में विलीन कर देंगे। मधुसूदन! वास्तव में आप में न तो क्रोध है, न मात्सर्य है, न असत्य है, न निर्दयता ही है। दाशार्ह! फिर आप में कठोरता तो हो ही कैसे सकती है? अच्युत! महल के मध्य भाग में बैठे और अपने तेज से उद्भासित हुए आपके पास आकर सम्पूर्ण ऋषियों ने अभय की याचना की। परंतप मधुसूदन! प्रलयकाल में समस्त भूतों का संहार करके इस जगत को स्वयं ही अपने भीतर रखकर आप अकेले ही रहते हैं। वार्ष्णेय! सृष्टि के प्रारम्भ काल में आपके नाभिकमल से चराचर गुरु ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनका रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 39-57 का हिन्दी अनुवाद)
जब ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, उस समय दो भयंकर दानव मधु और कैटभ उनके प्राण लेने को उद्यत हो गये। उनका यह अत्याचार देखकर क्रोध में भरे हुए आप श्रीहरि के ललाट से भगवान शंकर का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके हाथों में त्रिशूल शोभा पा रहा था। उनके तीन नेत्र थे। इस प्रकार वे दोनों देव ब्रह्मा और शिव आपके ही शरीर से उत्पन्न हुए हैं। वे दोनों आपके ही आज्ञा का पालन करने वाले हैं, यह बात मुझे नारद जी ने बतलायी थी। नारायण श्रीकृष्ण! इसी प्रकार पूर्वकाल में चैत्ररथ वन के भीतर आपने प्रचुर दक्षिणाओं से सम्पन्न अनेक यज्ञों तथा महासत्र का अनुष्ठान किया था। भगवान पुण्डरीकाक्ष! आप महान बलवान हैं। बलदेव जी आपके नित्य सहायक हैं। आपने बचपन में ही जो-जो महान कर्म किये हैं, उन्हें पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती पुरुषों ने न तो किया है न करेंगे। आप ब्राह्मणों के साथ कुछ काल तक कैलाश पर्वत पर भी रहे हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! श्रीकृष्ण के आत्मस्वरूप पाण्डुनन्दन अर्जुन उन महात्मा से ऐसा कहकर चुप हो गये। तब भगवान जनार्दन ने कुन्तीकुमार से इस प्रकार कहा,,
श्री कृष्ण बोले ;- ‘पार्थ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है, वह मुझसे भी रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। दुर्द्धर्ष वीर! तुम नर हो और मैं नारायण हरि हूँ। इस समय हम दोनों नर-नारायण ऋषि ही इस लोक में आये है। कुन्तीकुमार! तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे पृथक नहीं हूँ। भरतश्रेष्ठ! हम दोनों का भेद जाना नहीं जा सकता।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! रोषावेश से भरे हुए राजाओं की मण्डली में उस वीर समुदाय के मध्य महात्मा केशव के ऐसा कहने पर धृष्टद्युम्न आदि भाइयों से घिरी और कुपित हुई पांचाल राजकुमारी द्रौपदी भाइयों के साथ बैठे हुए शरणागतवत्सल श्रीकृष्ण के पास जा उनकी शरण की इच्छा रखती हुई बोली।
द्रौपदी ने कहा ;- 'प्रभो! ऋषि लोग प्रजा सृष्टि के प्रारम्भ-काल में एकमात्र आपको ही सम्पूर्ण जगत का स्रष्टा एवं प्रजापति कहते हैं। महर्षि असित-देवल का का यही मत है। दुर्द्धर्ष मधुसूदन! आप ही विष्णु हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप ही यजमान हैं और आप ही यजन करने योग्य श्रीहरि हैं, जैसा कि जमदग्निनन्दन परशुराम का कथन है।
पुरुषोत्तम! कश्यप जी का कहना है कि महर्षिगण आपको क्षमा और सत्य का स्वरूप कहते हैं। सत्य से प्रकट हुए यज्ञ भी आप ही हैं। भूतभावन भूतेश्वर! आप साध्य देवताओं तथा कल्याणकारी रुद्रों के अधीश्वर हैं। नारद जी ने आप के विषय में सही विचार प्रकट किया है। नरश्रेष्ठ! जैसे बालक खिलौने से खेलता है, उसी प्रकार आप ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं से बारम्बार क्रीड़ा करते रहते हैं। प्रभो! स्वर्गलोक आपके मस्तक में और पृथ्वी आपके चरणों में व्याप्त है। ये सब लोक आपके उदरस्वरूप हैं। आप सनातन पुरुष हैं। विद्या और तपस्या से सम्पन्न तथा तप के द्वारा शोभित अन्तःकरण वाले आत्मज्ञान से तृप्त महर्षियों में आप ही परमश्रेष्ठ हैं। पुरुषोत्तम! युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले, सब धर्मों से सम्पन्न पुण्यात्मा राजर्षियों के आप ही आश्रय हैं। आप ही प्रभो (सबके स्वामी), आप ही विभु (सर्वव्यापी) और आप सम्पूर्ण भूतों के आत्मा हैं। आप ही विविध प्राणियों के रूप में नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 58-77 का हिन्दी अनुवाद)
लोक, लोकपाल, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, आकाश, चन्द्रमा और सूर्य सब आप में प्रतिष्ठित हैं। महाबाहो! भूलोक के प्राणियों की मृत्युपरवशता, देवताओं की अमरता तथा सम्पूर्ण जगत का कार्य सब कुछ आप में ही प्रतिष्ठित है। मधुसूदन! मैं आपके प्रति प्रेम होने के कारण आपसे अपना दुःख निवेदन करूँगी; क्योंकि दिव्य और मानव जगत में जितने भी प्राणी हैं; उन सबके ईश्वर आप ही हैं। भगवान कृष्ण! मेरे-जैसी स्त्री जो कुन्तीपुत्रों की पत्नी, आपकी सखी और धृष्टद्युम्न जैसे वीर की बहिन हो, क्या किसी तरह सभा में (केश पकड़कर) घसीटकर लायी जा सकती है? मैं रजस्वला थी, मेरे कपड़ों पर रक्त के छींटे लगे थे, शरीर पर एक ही वस्त्र था और लज्जा एवं भय से मैं थर-थर काँप रही थी। उस दशा में मुझ दु:खिनी अबला को कौरवों की सभा में घसीटकर लाया गया था। भरी सभा में राजाओं की मण्डली के बीच अत्यन्त रक्तस्राव हाने के कारण मैं रक्त से भीगी जा रही थी। उस अवस्था में मुझे देखकर धृतराष्ट्र के पापात्मा पुत्रों ने जोर-जोर से हँसकर मेरी हँसी उड़ायी।
मधुसूदन ! पाण्डवों, पांचालों और वृष्णिवंशी वीरों के जीते-जी धृतराष्ट्र के पुत्रों ने दासीभाव से मेरा उपभोग करने की इच्छा प्रकट की। श्रीकृष्ण! मैं धर्मतः भीष्म और धृतराष्ट्र दोनों की पुत्रवधु हूँ; तो भी उनके सामने ही बलपूर्वक दासी बनायी गयी। मैं तो संग्राम में श्रेष्ठ इन महाबली पाण्डवों की निन्दा करती हूँ; जो अपनी यशस्विनी धर्मपत्नी को शत्रुओं द्वारा सतायी जाती हुई देख रहे थे। जनार्दन! भीमसेन के बल को धिक्कार है, अर्जुन के गाण्डीव धनुष को भी धिक्कार है, जो उन नराधर्मों द्वारा मुझे अपमानित होती देखकर भी सहन करते रहे। सत्पुरुषों द्वारा सदा आचरण में लाया हुआ यह धर्म का सनातन मार्ग है कि निर्बल पति भी अपनी पत्नी की रक्षा करते हैं। पत्नी की रक्षा करने से अपनी संतान सुरक्षित होती है और संतान की रक्षा होने पर अपने आत्मा की रक्षा होती है। अपनी आत्मा ही स्त्री के गर्भ से जन्म लेती है; इसीलिये वह 'जाया' कहलाती है। पत्नी को भी अपने पति की रक्षा इसीलिये करनी चाहिये कि यह किसी प्रकार मेरे उदर से जन्म ग्रहण करे। ये अपनी शरण में आने पर कभी किसी का भी त्याग नहीं करते; किन्तु इन्हीं पाण्डवों ने मुझ शरणागत अबला पर तनिक भी दया नहीं की।
जनार्दन! इन पाँच पतियों से उत्पन्न हुए मेरे महाबली पाँच पुत्र हैं। उनकी देखभाल के लिये भी मेरी रक्षा आवश्यक थी। युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक और छोटे पाण्डव सहदेव से श्रुतकर्मा का जन्म हुआ है। ये सभी कुमार सच्चे पराक्रमी हैं। श्रीकृष्ण! आपका पुत्र प्रद्युम्न जैसा शूरवीर है, वैसे ही मेरे महारथी पुत्र भी हैं। ये धनुर्विद्या में श्रेष्ठ तथा शत्रुओं द्वारा युद्ध में अजेय हैं तो भी दुर्बल धृतराष्ट्र-पुत्रों का अत्याचार कैसे सहन करते हैं? अधर्म से सारा राज्य ग्रहण कर लिया गया, सब पाण्डव दास बना दिये गये और मैं एकवस्त्रधारिणी रजस्वला होने पर भी सभा में घसीटकर लायी गयी। मधुसूदन! अर्जुन के पास जो गाण्डीव धनुष है, उस पर अर्जुन, भीम अथवा आपके सिवा दूसरा कोई प्रत्यन्चा भी नहीं चढ़ा सकता (तो भी ये मेरी रक्षा न कर सके)।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 78-99 का हिन्दी अनुवाद)
कृष्ण! भीमसेन के बल को धिक्कार है, अर्जुन के पुरुषार्थ को भी धिक्कार है, जिसके होते हुए दुर्योधन इतना बड़ा अत्याचार करके दो घड़ी भी जीवित रह रहा है। मधुसूदन! पहले बाल्यावस्था में, जबकि पाण्डव ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए अध्ययन में लगे थे, किसी की हिंसा नहीं करते थे, जिस दुष्ट ने इन्हें इनकी माता के साथ राज्य से बाहर निकाल दिया था। जिस पापी ने भीमसेन के भोजन में नूतन, तीक्ष्ण परिमाण में अधिक एवं रोमांचकारी कालकूट नामक विष डलवा दिया था। महाबाहु नरश्रेष्ठ जनार्दन! भीमसेन की आयु शेष थी, इसीलिये वह घातक विष अन्न के साथ ही पच गया और उसने कोई विकार नहीं उत्पन्न किया (इस प्रकार उस दुर्योधन के अत्याचारों को कहाँ तक गिनाया जाये)।
श्रीकृष्ण! प्रमाणकोटि तीर्थ में, जब भीमसेन विश्वस्त होकर सो रहे थे, उस समय दुर्योधन ने इन्हें बाँधकर गंगा में फेंक दिया और स्वयं चुपचाप राजधानी में लौट आया। जब इनकी आँख खुली तो ये महाबली महाबाहु भीमसेन सारे बन्धनों को तोड़ कर जल से ऊपर उठे। इनके सारे अंगों में विषैले काले सर्पो से डसवाया; परंतु शत्रुहन्ता भीमसेन मर न सके। जागने पर कुन्तीनन्दन भीम ने सब सर्पों को उठा-उठा-कर पटक दिया। दुर्योधन ने भीमसेन के प्रिय सारथि को भी उलटे हाथ से मार डाला। इतना ही नहीं, वारणावत में आर्या कुन्ती के साथ में ये बालक पाण्डव सो रहे थे, उस समय उसने घर में आग लगवा दी, ऐसा दुष्कर्म दूसरा कौन कर सकता है? उस समय वहाँ आर्या कुन्ती भयभीत हो रोती हुई पाण्डवों से इस प्रकार बोलीं,,
कुन्ती बोली ;- ‘मैं बड़े भारी संकट में पड़ी, आग से घिर गयी। हाय! हाय! मैं मारी गयी, अब इस आग से कैसे शान्ति प्राप्त होगी? मैं अनाथ की तरह अपने पुत्रों के साथ नष्ट हो जाऊँगी।' उस समय वहाँ वायु के समान वेग और पराक्रम वाले महाबाहु भीमसेन ने आर्या कुन्ती तथा भाइयों को आश्वासन देते हुए कहा,,
भीमसेन बोले ;- ‘पक्षियों में श्रेष्ठ विनतानन्दन गरुड़ जैसे उड़ा करते हैं, उसी प्रकार मैं भी तुम सब को लेकर यहाँ से चल दूँगा। अतः तुम्हें यहाँ तनिक भी भय नहीं है।'
ऐसा कहकर पराक्रमी एवं बलवान भीम ने आर्या कुन्ती को बायें अंग में, धर्मराज को दाहिने अंग में, नकुल और सहदेव को दोनों कंधों पर तथा अर्जुन को पीठ पर चढ़ा लिया और सबको लिये-लिये सहसा वेग से उछलकर इन्होंने उस भयंकर अग्नि से भाइयों तथा माता की रक्षा की। फिर वे यशस्वी पाण्डव माता के साथ रात में ही वहाँ से चल दिये और हिडिम्ब वन के पास एक भारी वन में जा पहुँचे। वहाँ माता सहित ये दु:खी पाण्डव थककर सो गये। सो जाने पर इनके निकट हिडिम्बा नामक राक्षसी आयी। माता सहित पाण्डवों को वहाँ धरती पर सोते देख काम से पीड़ित हो उस राक्षसी ने भीमसेन की कामना की। भीम के पैरों को अपनी गोदी में लेकर वह कल्याणमयी अबला अपने कोमल हाथों से प्रसन्नतापूर्वक दबाने लगी। उसका स्पर्श पाकर बलवान सत्य पराक्रमी तथा अमेयात्मा भीमसेन जाग उठे। जागने पर उन्होंने पूछा,,
भीमसेन बोले ;- ‘सुन्दरी! यहाँ तुम क्या चाहती हो?।' इस प्रकार पूछने पर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली उस अनिन्ध सुन्दरी राक्षसकन्या ने महात्मा भीम से कहा,,
राक्षसी बोली ;- ‘आप लोग यहाँ से जल्दी भाग जायें, मेरा यह बलवान भाई हिडिम्ब आपको मारने के लिये आयेगा; अतः आप जल्दी चले जाइये, देर न कीजिये‘।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 100-122 का हिन्दी अनुवाद)
यह सुनकर भीम ने अभिमानपूर्वक कहा,,
भीमसेन बोले ;- ‘मैं उस राक्षस से नहीं डरता। यदि वह यहाँ आयेगा, तो मैं ही उसे मार डालूँगा।' उन दोनों की बातचीत सुनकर वह भीम रूपधारी भयंकर एवं नीच राक्षस बड़े जोर से गर्जना करता हुआ वहाँ आ पहुँचा।
राक्षस बोला ;- 'हिडिम्बे! तू किससे बात कर रही है? लाओ इसे मेरे पास। हम लोग खायेंगे। अब तुम्हें देर नहीं करनी चाहिये।' मनस्विनी एवं अनिन्दिता हिडिम्बा ने स्नेहयुक्त हृदय के कारण दयावश यह क्रूरतापूर्ण संदेश भीमसेन से कहना उचित न समझा। इतने में ही वह नरभक्षी राक्षस घोर गर्जना करता हुआ बड़े वेग से भीमसेन की ओर दौड़ा। क्रोध में भरे हुए उस बलवान राक्षस ने बड़े वेग से निकट जाकर अपने हाथ से भीमसेन का हाथ पकड़ लिया। भीमसेन के हाथ का स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान था। उनका शरीर भी वैसा सुदृढ़ था। राक्षस ने भीमसेन से भिड़कर उनके हाथ को सहसा झटक दिया। राक्षस ने भीमसेन के हाथ को अपने हाथ से पकड़ लिया; यह बात महाबाहु भीमसेन नहीं सह सके। वे वहीं कुपित हो गये। उस समय सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता भीमसेन और हिडिम्ब में इन्द्र और वृत्तासुर के समान भयानक एवं घमासान युद्ध होने लगा।
निष्पाप श्रीकृष्ण! महापराक्रमी और बलवान भीमसेन ने उस राक्षस के साथ बहुत देर तक खिलवाड़ करके उसके निर्बल हो जाने पर उसे मार डाला। इस प्रकार हिडिम्ब को मारकर हिडिम्बा को आगे किये भीमसेन अपने भाइयों के साथ आगे बढ़े। उसी हिडिम्बा से घटोत्कच का जन्म हुआ। तदनन्तर सब परंतप पाण्डव अपनी माता के साथ आगे बढ़े। ब्राह्मणों से घिरे हुए ये लोग एकचक्रा नगरी की ओर चल दिये। उस यात्रा में इनके प्रिय एवं हित में लगे हुए व्यास जी ही इनके परामर्शदाता हुए। उत्तम व्रत का पालन करने वाले पाण्डव उन्हीं की सम्मति से एकचक्रापुरी में गये। वहाँ जाने पर भी इन्हें नरभक्षी राक्षस महाबली बकासुर मिला। वह भी हिडिम्ब के समान भयंकर था।
योद्धाओं में श्रेष्ठ भीम उस भयंकर राक्षस को मारकर अपने सब भाइयों के साथ मेरे पिता द्रुपद की राजधानी में गये। श्रीकृष्ण! जैसे आपने भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणी को जीता था, उसी प्रकार मेरे पिता की राजधानी में रहते समय सव्यसाची अर्जुन ने मुझे जीता। मधुसूदन! स्वयंवर में, जो महान कर्म दूसरों के लिये दुष्कर था, वह करके भारी युद्ध में भी अर्जुन ने मुझे जीत लिया था। परंतु आज मैं इन सबके होते हुए भी अनेक प्रकार के क्लेश भोगती और अत्यन्त दुःख में डूबी रहकर अपनी सास कुन्ती से अलग हो धौम्य जी को आगे रखकर वन में निवास करती हूँ। ये सिंह के समान पराक्रमी पाण्डव बलवीर्य में शत्रुओं से बढ़े-चढ़े हैं, इनसे सर्वथा हीन कौरव मुझे भरी सभा में कष्ट दे रहे थे, तो भी इन्होंने क्यों मेरी उपेक्षा की? पापकर्मों में लगे हुए अत्यन्त दुर्बल, पापी शत्रुओं को दिये हुए ऐसे-ऐसे दुःख मैं सह रही हूँ और दीर्घकाल से चिन्ता की आग में जल रही हूँ। यह प्रसिद्ध है कि मैं दिव्य विधि से एक महान कुल में उत्पन्न हुई हूँ। पाण्डवों की प्यारी पत्नी और महाराज पाण्डु की पुत्रवधु हूँ। मधुसूदन श्रीकृष्ण! मैं श्रेष्ठ और सती-साध्वी होती हुए भी इन पाँचों पाण्डवों के देखते-देखते केश पकड़कर घसीटी गयी।
ऐसा कहकर मृदुभाषिणी द्रौपदी कमलकोश के समान कान्तिमान एवं कोमल हाथ से अपना मुँह ढककर फूट-फूटकर रोने लगी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 123-136 का हिन्दी अनुवाद)
पांचाल राजकुमारी कृष्णा अपने कठोर, उभरे हुए, शुभ लक्षण तथा सुन्दर स्तनों पर दुःखजनित अश्रुबिन्दुओं की वर्षा करने लगी। कुपित हुई द्रौपदी बार-बार सिसकती और आँसू पोंछती हुई आँसू भरे कण्ठ से बोली,,
द्रोपदी बोली ;- ‘मधुसूदन! मेरे लिये न पति हैं, न पुत्र हैं, न बान्धव हैं, न भाई हैं, न पिता हैं और न आप ही हैं। क्योंकि आप सब लोग, नीच मनुष्यों द्वारा जो मेरा अपमान हुआ था, उसकी उपेक्षा कर रहे हैं, मानो इसके लिये आपके हृदय में तनिक भी दुःख नहीं है। उस समय कर्ण ने जो मेरी हँसी उड़ायी थी, उससे उत्पन्न हुआ दुःख मेरे हृदय से दूर नहीं होता है। श्रीकृष्ण! चार कारणों से आपको सदा मेरी रक्षा करनी चाहिये। एक तो आप मेरे सम्बन्धी, दूसरे अग्नि कुण्ड में उत्पन्न होने के कारण मैं गौरवशालिनी हूँ, तीसरे आपकी सच्ची सखी हूँ और चौथे आप मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने वीरों के उस समुदाय में द्रौपदी से इस प्रकार कहा।
श्रीकृष्ण बोले ;- भाविनि! तुम जिन पर क्रुद्ध हुई हो, उनकी स्त्रियाँ भी अपने प्राण प्यारे पतियों को अर्जुन के बाण से छिन्न-भिन्न और खून से लथपथ हो मरकर धरती पर पड़ा देख इसी प्रकार रोयेंगी। पाण्डवों के हित के लिये जो कुछ भी सम्भव है, वह सब करूँगा, शोक न करो। मैं सत्य प्रतिज्ञापूर्वक कह रहा हूँ कि तुम राजरानी बनोगी। कृष्णे! आसमान फट पड़े, हिमालय पर्वत विदीर्ण हो जाये, पृथ्वी के टुकड़े-टुकड़े हो जायें और समुद्र सूख जाये, किंतु मेरी यह बात झूठी नहीं हो सकती।'
द्रौपदी ने अपनी बातों के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण के मुख से ऐसी बातें सुनकर तिरछी चितवन से अपने मँझले पति अर्जुन की ओर देखा। महाराज!
तब अर्जुन ने द्रौपदी से कहा ;- ‘ललिमायुक्त सुन्दर नेत्रों वाली देवि! वरवर्णिनि! रोओ मत! भगवान मधुसूदन जो कुछ कह रहे हैं, वह अवश्य होकर रहेगा; टल नहीं सकता।'
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- बहिन! मैं द्रोण को मार डालूँगा, शिखण्डी भीष्म का वध करेंगे, भीमसेन दुर्योधन को मार गिरायेंगे और अर्जुन कर्ण को यमलोक भेज देंगे। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम का आश्रय पाकर हम लोग युद्ध में शत्रुओं के लिये अजेय हैं। इन्द्र भी हमें रण में परास्त नहीं कर सकते। फिर धृतराष्ट्र के पुत्रों की तो बात ही क्या है?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धृष्टद्युम्न के ऐसा कहने पर वहाँ बैठे हुए वीर भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखने लगे। उनके बीच में बैठे हुए महाबाहु केशव ने उनसे ऐसा कहा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमन पर्व में द्रौपदी-आश्वासनविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
तैरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 1- 17 का हिन्दी अनुवाद)
"श्रीकृष्ण का जूए के दोष बताते हुए पाण्डवों पर आयी हुई विपत्ति में अपनी अनुपस्थिति को कारण मानना"
भगवान श्रीकृष्ण बोले ;- राजन! यदि मैं पहले द्वारका में या उसके निकट होता तो आप इस भारी संकट में नहीं पड़ते। दुर्जयवीर! अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र, राजा दुर्योधन तथा अन्य कौरवों के बिना बुलाये भी मैं उस द्यूतसभा में आता और जुए के अनेक दोष दिखाकर उसे रोकने की चेष्टा करता। प्रभो! मैं आपके लिये भीष्म, द्रोण, कृप, बाहीक तथा राजा धृतराष्ट्र को बुलाकर कहता- ‘कुरुवंश के महाराज!' आपके पुत्रों को जुआ नहीं खेलना चाहिये।‘ राजन! मैं द्यूतसभा में जूए के उन दोषों को स्पष्ट रूप से बताता, जिनके कारण आपको अपने राज्य से वंचित होना पड़ा है तथा जिन दोषों ने पूर्वकाल में वीरसेनपुत्र महाराज नल को राजसिंहासन से च्युत किया।
नरेश्वर! जूआ खेलने से सहसा ऐसा सर्वनाश उपस्थित हो जाता है, जो कल्पना में भी नहीं आ सकता। इसके सिवा उससे सदा जूआ खेलने की आदत बन जाती है। यह सब बातें मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। स्त्रियों के प्रति आसक्ति, जूआ खेलना, शिकार खेलने का शौक और मद्यपान- ये चार प्रकार के कामनाजनित दुःख बताये गये हैं, जिनके कारण मनुष्य अपने धन-एश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है। शास्त्रों के निपुण विद्वान सभी परिस्थियों में चारों को निन्दनीय मानते हैं; परंतु द्यूत क्रीड़ा को तो जुए के दोष जानने वाले लोग विशेष रूप से निन्दनीय समझते हैं। जुए से एक ही दिन में सारे धन का नाश हो जाता है। साथ ही जुआ खेलने से उसके प्रति आसक्ति होनी निश्चित है। समस्त भोग पदार्थों का बिना भोगे ही नाश हो जाता है और बदले में केवल कटु वचन सुनने को मिलते हैं।
कुरुनन्दन! ये और भी बहुत से दोष हैं, जो जुए के प्रसंग से कटु परिणाम उत्पन्न करने वाले हैं। महाबाहो! मैं धृतराष्ट्र से मिलकर जुए के ये सभी दोष बतलाता। कुरुवर्धन! मेरे इस प्रकार समझाने-बुझाने पर यदि वे मेरी बात मान लेते, तो कौरवों में शान्ति बनी रहती और धर्म का भी पालन होता। राजेन्द्र! भरतश्रेष्ठ! यदि वे मेरे मधुर एवं हितकर वचन को न मानते, तो मैं उन्हें बलपूर्वक रोक देता। यदि वहाँ सुहृद नामधारी शत्रु अन्याय का आश्रय ले इस धृतराष्ट्र का साथ देते, तो मैं उन सभासद जुआरियों को मार डालता।
कुरुश्रेष्ठ! मैं उन दिनों आनर्त देश में ही नहीं था, इसीलिये आप लोगों पर यह द्यूतजनित संकट आ गया। कुरुप्रवर पाण्डुनन्दन! जब मैं द्वारका में आया, तब आपके संकट में पड़ने का यथावत समाचार सुना। राजेन्द्र! वह सुनते ही मेरा मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और प्रजेश्वर! मैं तुरंत ही आपसे मिलने के लिये चला आया। भरतकुलभूषण! अहो! आप सब लोग बड़ी कठिनाई में पड़ गये हैं। मैं तो आपको सब भाइयों सहित विपत्ति के समुद्र में डूबा हुआ देख रहा हूँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में वासुदेव वाक्य विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
चौदहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 1- 22 का हिन्दी अनुवाद)
"द्यूत के समय न पहुँचने में श्रीकृष्ण के द्वारा शाल्व के साथ युद्ध करने और सौभ विमान सहित उसे नष्ट करने का संक्षिप्त वर्णन"
युधिष्ठिर ने कहा ;- वृष्णिकुल को आनन्दित करने वाले श्रीकृष्ण! जब यहाँ द्यूत क्रीड़ा का आयोजन हो रहा था, उस समय तुम द्वारका में क्यों अनुपस्थित रहे? उन दिनों तुम्हारा निवास कहाँ था और उस प्रवास के द्वारा तुमने कौन सा कार्य सिद्ध किया?
श्रीकृष्ण ने कहा ;- भरतवंशशिरोमणे! कुरुकुलभूषण! मैं उन दिनों शाल्व के सौभ नामक नगराकार विमान को नष्ट करने के लिये गया हुआ था। इसका क्या कारण था, वह बतलाता हूँ, सुनिये।
भरतश्रेष्ठ! आपके राजसूय यज्ञ में अग्रपूजा के प्रश्न को लेकर जो क्रोध के वशीभूत हो इस कार्य को नहीं सह सका था और इसीलिये जिस दुरात्मा महातेजस्वी महाबाहु एवं महायशस्वी दमघोषनन्दन वीर राजा शिशुपाल को मैंने मार डाला था; उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर शाल्व प्रचण्ड रोष से भर गया। भारत! मैं तो यहाँ हस्तिनापुर में था और वह हम लोगों से सूनी द्वारकापुरी जा पहुँचा। राजन! वहाँ वृष्णिवंश के श्रेष्ठकुमारों ने उसके साथ युद्ध किया। वह इच्छानुसार चलने वाले सौभ नामक विमान पर बैठ कर आया और क्रूर मनुष्य की भाँति यादवों की हत्या करने लगा। उस खोटी बुद्धि वाले शाल्व ने वृष्णिवंश के बहुतेरे बालकों का वध करके नगर के सब बगीचों को उजाड़ डाला। महाबाहो! उसने यादवों से पूछा- ‘वह वृष्णिकुल का कलंक मन्दात्मा वसुदेवपुत्र कृष्ण कहाँ हैं? उसे युद्ध की बड़ी इच्छा रहती है, आज उसके घमंड को मैं चूर कर दूँगा। आनर्त निवासियों! सच-सच बतला दो। वह कहाँ है? जहाँ होगा, वहीं जाऊँगा और कंस तथा केशी का संहार करने वाले उस कृष्ण को मारकर ही लौटूँगा। मैं अपने अस्त्र-शस्त्रों को छूकर सौगन्ध खाता हूँ कि अब कृष्ण को मारे बिना नहीं लौटूँगा।'
सौभ विमान का स्वामी शाल्व संग्राम भूमि में मेरे युद्ध की इच्छा रखकर चारों ओर दौड़ता और सबसे यही पूछता था कि ‘वह कहाँ है, कहाँ है?‘ राजन! साथ ही वह यह भी कहता था कि ‘आज उस नीच पापाचारी और विश्वासघाती कृष्ण को शिशुपाल वध के अमर्ष के कारण मैं यमलोक भेज दूँगा। उस पापी ने मेरे भाई राजा शिशुपाल को मार गिराया है, अतः मैं भी उसका वध करूँगा। मेरा भाई शिशुपाल अभी छोटी अवस्था का था, दूसरे वह राजा था, तीसरे युद्ध के मुहाने पर खड़ा नहीं था, चौथे असावधान था, ऐसी दशा में उस वीर की जिसने हत्या की है, उस जनार्दन को मैं अवश्य मारूँगा।'
कुरुनन्दन! महाराज! इस प्रकार शिशुपाल के लिये विलाप करके मुझ पर आक्षेप करता हुआ वह इच्छानुसार चलने वाले सौभ विमान द्वारा आकाश में ठहरा हुआ था। कुरुश्रेष्ठ! यहाँ से द्वारका जाने पर मैंने, मार्तिकावतक देश के निवासी दुष्टात्मा एवं दुर्बुद्धि राजा शाल्व ने मेरे प्रति जो दुष्टतापूर्ण बर्ताव किया था (आक्षेपपूर्ण बातें कही थीं), वह सब कुछ सुना। कुरुनन्दन! तब मेरा मन भी रोष से व्याकुल हो उठा। राजन! फिर मन-ही-मन कुछ निश्चय करके मैंने शाल्व के वध का विचार किया। कुरुप्रवर! पृथ्वीपते! उसने आनर्त देश में जो महान संहार मचा रखा था, वह मुझ पर जो आक्षेप करता था तथा उस पापाचारी का घमंड जो बहुत बढ़ गया था, वह सब सोच कर मैं सौभनगर का नाश करने के लिये प्रस्थित हुआ। मैंने सब ओर उसकी खोज की तो वह मुझे समुद्र के एक द्वीप में दिखायी दिया। नरेश्वर! तदनन्तर मैंने पांचजन्य शंख बजाकर शाल्व को समरभूमि मे बुलाया और स्वयं भी युद्ध के लिये उपस्थित हुआ। वहाँ सौम निवासी दानवों के साथ दो घड़ी तक मेरा युद्ध हुआ और मैंने सब को वश में करके पृथ्वी पर मार गिराया। महाबाहो! यही कार्य उपस्थित हो गया था, जिससे मैं उस समय न आ सका। लौटकर ज्यों ही सुना कि हस्तिनापुर में दुर्योधन की उद्दण्डता के कारण जूआ खेला गया (और पाण्डव उसमें सब कुछ हारकर वन को चले गये); तब अत्यन्त दु:ख मे पड़े हुए आप लोगों को देखने के लिये मैं तुरंत यहाँ चला आया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अंतर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यान विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अरण्य पर्व)
पन्द्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"सौभ-नाश की विस्तृत कथा के प्रसंग में द्वारका में युद्ध सम्बन्धी रक्षात्मक तैयारियों का वर्णन"
युधिष्ठिर ने कहा ;- महाबाहो! वसुदेवनन्दन! महामते! तुम सौभ-विमान के नष्ट होने का समाचार विस्तारपूर्वक कहो। मैं तुम्हारे मुख से इस प्रसंग को सुनते-सुनते तृप्त नहीं हो रहा हूँ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले ;- महाबाहो! नरेश्वर! भरतश्रेष्ठ! श्रुतश्रवा के पुत्र शिशुपाल के मारे जाने का समाचार सुनकर शाल्व ने द्वारकापुरी पर चढ़ाई की। पाण्डुनन्दन! उस दुष्टात्मा शाल्व ने सेना द्वारा द्वारकापुरी को सब ओर से घेर लिया था। वह स्वयं आकाशचारी विमान सौभ पर व्यूह रचनापूर्वक विराजमान हो रहा था। उसी पर रहकर राजा शाल्व द्वारकापुरी के लोगों से युद्ध करता था। वहाँ भारी युद्ध छिड़ा हुआ था और उसमें सभी दिशाओें से अस्त्र-शस्त्र के प्रहार हो रहे थे। द्वारकापुरी में सब ओर पताकाएँ फहरा रहीं थी। ऊँचे-ऊँचे गोपुर वहाँ चारों दिशाओें में सुशोभित थे। जगह-जगह सैनिकों के समुदाय युद्ध के लिये प्रस्तुत थे। सैनिकों के आत्मरक्षापूर्वक युद्ध की सुविधा के लिये स्थान-स्थान पर बुर्ज बने हुए थे। युद्धोपयोगी यन्त्र वहाँ बैठाये गये थे तथा सुरंग द्वारा नये-नये मार्ग निकालने के काम में बहुत-से लोग जुटे हुए थे। सड़कों पर लोहे के विषाक्त काँटे अदृश्य रूप से बिछाये गये थे। अट्टालिकाओं और गोपुर में अन्न का संग्रह किया गया था। शत्रुपक्ष के प्रहारों को रोकने के लिये जगह-जगह मोर्चाबंदी की गयी थी। शत्रुओें के चलाये हुए जलते गोले और अलात (प्रज्वलित लौहमय अस्त्र) को भी विफल करके नीचे गिरा देने वाली शक्तियाँ सुसज्जित थीं। अस्त्रों से भरे हुए मिट्टी और चमड़े के असंख्य पात्र रखे गये थे।
भरतश्रेष्ठ! ढोल, नगारे और मृदंग आदि जुझाऊ बाजे भी बज रहे थे। राजन! तोमर, अंकुश, शतघ्नी, लांगल, भुशुण्डी, पत्थर के गोले, अन्यान्य अस्त्र-शस्त्र, फरसे, बहुत-सी सुदृढ़ ढालें और गोला-बारूद से भरी हुई तोपें यथास्थान तैयार रखी गयी थीं। भरतकुलभूषण! शास्त्रोक्त विधि से द्वारकापुरी को रक्षा के सभी उत्तम उपायों से सम्पन्न किया गया था। कुरुश्रेष्ठ! शत्रुओं का सामना करने में समर्थ गद, साम्ब और उद्धव आदि अनेक वीर नाना प्रकार के बहुसंख्यक रथों द्वारा द्वारकापुरी की रक्षा में दत्तचित थे। जो अत्यन्त विख्यात कुलों में उत्पन्न थे तथा युद्ध के अवसरों पर जिनके बलवीर्य का परिचय मिल चुका था, ऐसे वीर रक्षक मध्यम गुल्म (नगर के मध्यवर्ती दुर्ग) में स्थित हो पुरी की पूर्णतः रक्षा कर रहे थे। सबको प्रमाद से बचाने वाले उग्रसेन और उद्धव आदि ने शत्रुओं के गुल्मों को नष्ट करने की शक्ति रखने वाले घुड़़सवारों के हाथ में झंडे देकर समूचे नगर में यह घोषणा करा दी थी कि किसी को भी मद्यपान नहीं करना चाहिये। क्योंकि मदिरा से उन्मत हुए लोगों पर राजा शाल्व घातक प्रहार कर सकता है। यह सोचकर वृष्णि और अन्धक वंश के सभी योद्धा पूरी सावधानी के साथ युद्ध में डटे हुए थे। धनसंग्रह की रक्षा करने वाले यादवों ने आनर्त देशीय नटों, नर्तकों तथा गायों को शीघ्र ही नगर से बाहर कर दिया था। कुरुनन्दन! द्वारकापुरी में आने के लिये जो पुल मार्ग में पड़ते थे, वे सब तोड़ दिये गये। नौकाएँ रोक दी गयी थीं और खाइयों में काँटे बिछा दिये गये थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 16-23 का हिन्दी अनुवाद)
कुरुश्रेष्ठ! द्वारकापुरी के चारों ओर एक कोस तक के चारों ओर के कुएँ इस प्रकार जलशून्य कर दिये गये थे, मानो भाड़ हों और उतनी दूर की भूमि भी लौहकण्टक आदि से व्याप्त कर दी गयी थी। निष्पाप नरेश! द्वारका एक तो स्वभाव से ही दुर्गम्य, सुरक्षित और अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न है, तथापि उस समय इसकी विशेष व्यवस्था कर दी गयी थी।
भरतश्रेष्ठ! द्वारका नगर इन्द्र भवन की भाँति ही सुरक्षित, सुगुप्त और सम्पूर्ण आयुधों से भरा-पूरा है। राजन! सौभनिवासियों के साथ युद्ध होते समय वृष्णि और अंधकवंशी वीरों के उस नगर में कोई भी राजमुद्रा (पास) के बिना न तो बाहर निकल सकता था और न बाहर से नगर के भीतर ही आ सकता था।
कुरुनन्दन राजेन्द्र! वहाँ प्रत्येक सड़क और चौराहे पर बहुत-से हाथी सवार और घुड़सवारों से युक्त विशाल सेना उपस्थित रहती थी। महाबाहो! उस समय सेना के प्रत्येक सैनिक को पूरा-पूरा वेतन और भत्ता चुका दिया गया था। सबको नये-नये हथियार और पोशाकें दी गयी थीं और उन्हें विशेष पुरस्कार आदि देकर उनका प्रेम और भरोसा प्राप्त कर लिया गया था। कोई भी सैनिक ऐसा नहीं था, जिसे सोने-चाँदी के सिवा ताँबा आदि के वेतन के रूप में दिया जाता हो अथवा जिसे समय पर वेतन न प्राप्त हुआ हो। किसी भी सैनिक को दयावश सेना में भर्ती नहीं किया गया था। कोई भी ऐसा न था, जिसका पराक्रम बहुत दिनों से देखा न गया हो।
कमलनयन राजन्! जिसमें बहुत-से दक्ष मनुष्य निवास करते थे, उस द्वारका नगरी की रक्षा के लिये इस प्रकार की व्यवस्था की गयी थी। वह राजा उग्रसेन द्वारा भलीभाँति सुरक्षित थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमन पर्व में सौभवध विषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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