सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"सबके मना करने पर भी धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन जूआ खेलना और हारना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! धर्मराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ के मार्ग में बहुत दूर तक चले गये थे। उस समय बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से प्रातिकामी उनके पास गया और इस प्रकार बोला,,
प्रातिकामी बोला ;- 'भरतकुलभूषण पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर! आपके पिता राजा धृतराष्ट्र ने यह आदेश दिया है कि तुम लौट जाओ। हमारी सभा फिर सदस्यों से भर गयी है और तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। तुम पासे फेंककर जूआ खेलो'।
युधिष्ठिर ने कहा ;- समस्त प्राणी विधाता की प्ररेणा से शुभ और अशुभ फल प्राप्त करते हैं। उन्हें कोई टाल नहीं सकता। जान पड़ता है, मुझे फिर जूआ खेलना पड़ेगा। वृद्ध राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से जूए के लिये यह बुलावा हमारे कुल के विनाश का कारण है, यह जानते हुए भी मैं उनकी आशा का उल्लंघन नहीं कर सकता।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! किसी जानवर का शरीर सुवर्ण का हो, यह सम्भव नहीं; तथापि श्रीराम स्वर्णमय प्रतीत होने वाले मृग के लिये लुभा गये। जिनका पतन था पराभव निकट होता है, उनकी बुद्धि प्राय: अत्यन्त विपरीत हो जाती है। ऐसा कहते हुए पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर भाइयों के साथ पुन: लौट पड़े। वे शकुनि ने माया को जानते थे, तो भी जूआ खेलने के लिये चले आये। महारथी भरतश्रेष्ठ पाण्डव पुन: उस सभा में प्रविष्ट हुए। उन्हें देखकर सुहृदों के मन में बड़ी पीड़ा होने लगी। प्रारब्ध के वशीभूत हुए कुन्तीकुमार सम्पूर्ण लोकों के विनाश के लिये पुन: द्यूतक्रीड़ा आरम्भ करने के उदेश्य से चुपचाप वहाँ जाकर बैठ गये।
शकुनि ने कहा ;- राजन्! भरतश्रेष्ठ! हमारे बूढे़ महाराज ने आपको जो सारा धन लौटा दिया, वह बहुत अच्छा किया है। अब जूए के लिये एक ही दाँव रखा जायेगा उसे सुनिये- 'यदि आपने हम लोगों को जूए में हरा दिया तो हम मृग-चर्म धारण करके महान् वन में प्रवेश करेंगे। और बारह वर्ष वहाँ रहेंगे एवं तेरहवाँ वर्ष हम जन-समूह में लोगों से अज्ञात रहकर पूरा करेंगे और यदि हम तेरहवें वर्ष में लोगों की जानकारी में आ जायँ तो फिर दुबारा बारह वर्ष वन में रहेंगे। यदि हम जीत गये तो आप लोग द्रौपदी के साथ बारह वर्षों तक मृगचर्म धारण करते हुए वन में रहें। आपको भी तेरहवाँ वर्ष जन-समूह में लोगों से अज्ञात रहकर व्यतीत करना पड़ेगा और यदि ज्ञात हो गये तो फिर दुबारा बारह वर्ष वन में रहना होगा। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर हम या आप फिर वन से जाकर यथोचित रीति से अपना-अपना राज्य प्राप्त कर सकते है'। भरतवंशी युधिष्ठिर! इसी निश्चय के साथ आप आइये और पुन: पासा फेंककर हम लोगों के साथ जूआ खेलिये। यह सुनकर सब सभासदों ने सभा में अपने हाथ ऊपर उठाकर अत्यन्त उद्विग्नचित्त हो बड़ी घबराहट के साथ कहा।
सभासद् बोले ;- अहो धिक्कार है! ये भाई-बन्धु भी युधिष्ठिर उनके ऊपर आने वाले महान् भय की बात नहीं समझाते। पता नहीं, ये भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर अपनी बुद्धि के द्वारा इस भय को समझें या न समझें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! लोगों की तरह-तरह की बातें सुनते हुए भी राजा युधिष्ठिर लज्जा के कारण तथा धृतराष्ट्र के आज्ञापालन रूप धर्म की दृष्टि से पुन: जूआ खेलने के लिये उद्यत हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 19-24 का हिन्दी अनुवाद)
परम बुद्धिमान युधिष्ठिर जूए का परिणाम जानते थे, तो भी यह सोचकर कि सम्भवत: कुरुकुल का विनाश बहुत निकट है, वे द्यूतक्रीड़ा में प्रवृत्त हो गये।
युधिष्ठिर बोले ;- शकुने! स्वधर्मपालन में संलग्न रहने वाला मेरे-जैसा राजा जूए के लिये बुलाये जाने पर कैसे पीछे हट सकता था, अत: मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय धर्मराज युधिष्ठिर प्रारब्ध के वशीभूत हो गये थे। महाराज! उन्हें भीष्म, द्रोण और बुद्धिमान विदुर जी दुबारा जूआ खेलने से रोक रहे थे। युयुत्सु, कृपाचार्य तथा संजय भी मना कर रहे थे। गांधारी, कुन्ती, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, वीर विकर्ण, द्रौपदी, अश्वत्थामा, सोमदत्त तथा बुद्धिमान बाह्लिक भी बार-बार रोक रहे थे तो भी राजा युधिष्ठिर भावी के वश होने के कारण जूए से नहीं हटे।
शकुनि ने कहा ;- राजन् हम लोगों के पास बैल, घोडे़ और बहुत-सी दुधारू गौएँ हैं। भेड़ और बकरियों की तो गिनती ही नहीं है। हाथी, खजाना, दास-दासी तथा सुवर्ण सब कुछ हैं। फिर भी (इन्हें छोड़कर) एकमात्र वनवास का निश्चय ही हमारा दाँव है। पाण्डवों! आप लोगों या हम, जो भी हारेंगे, उन्हें वन में जाकर रहना होगा। केवल तेरहवें वर्ष हमें किसी जनसमूह में अज्ञात भाव से रहना होगा। नरश्रेष्ठगण! हम इसी निश्चय के साथ जूआ खेलें। भारत! वनवास की शर्त रखकर केवल एक ही बार पासा फेंकने से जूए का खेल पूरा हो जायेगा। युधिष्ठिर ने उसकी बात स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् सुबलपुत्र शकुनि ने पासा हाथ में उठाया और उसे फेंककर कहा,,
शकुनि बोला ;- मेरी जीत हो गयी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में युधिष्ठिरपराभव-विषयक छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"दु:शासन पाण्डवों का उपहास एवं भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की शत्रुओं को मारने के लिये भीषण प्रतिज्ञा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर जूए में हारे हुए कुन्ती के पुत्रों ने वनवास की दीक्षा ली और क्रमश: सब ने मृगचर्म को उत्तरीय वस्त्र के रूप में धारण किया। जिनका राज्य छिन गया था, वे शत्रुदमन पाण्डव जब मृगचर्म से अपने अंगों को ढँककर वनवास के लिये प्रस्थित हुए, उस समय दु:शासन ने सभा में उनको लक्ष्य करके कहा,
दुःशासन बोला ;- ‘धृतराष्ट्र महामना राजा दुर्योधन का समस्त भूमण्डल पर एकछत्र राज्य हो गया। पाण्डव पराजित होकर बड़ी भारी विपत्ति पड़ गये। आज वे पाण्डव समान मार्गों से, जिन पर आये हुओं की भीड़ के कारण जगह नहीं रही है, वन को चले जा रहे हैं। हम लोग अपने प्रति पक्षियों से गुण और अवस्था दोनों में बड़े हैं। अत: हमारा स्थान उनसे बहुत ऊँचा है। कुन्ती के पुत्र दीर्घकाल तक के लिये अनन्त दु:ख रूप नरक में गिरा दिये गये। ये सदा के लिये सुख से वंछित तथा राज्य से हीन हो गये हैं। जो लोग पहले अपने धन से उन्मत्त हो धृतराष्ट्र–पुत्रों की हँसी उड़ाया करते थे, वे ही पाण्डव आज पराजित हो अपने धन-वैभव से हाथ धोकर वन में जा रहे हैं। सभी पाण्डव अपने शरीर पर जो विचित्र कवच और चमकीले दिव्य वस्त्र हैं, उन सबको उतारकर मृगचर्म धारण कर लें; जैसा कि सुबलपुत्र शकुनि के भाव को स्वीकार करके ये लोग जूआ खेले हैं। जो अपनी बुद्धि में सदा यही अभिमान लिये बैठे थे कि हमारे-जैसे पुरुष तीनों लोकों में नहीं है, वे ही पाण्डव आज विपरीत अवस्था में पहुँचकर थोथे तिलों की भाँति नि:सत्व हो गये हैं। अब इन्हें अपनी स्थिति का ज्ञान होगा।
इन मनस्वी और बलवान् पाण्डवों का यह मृग चर्ममय वस्त्र तो देखो, जिसे यश में महात्मा लोग धारण करते हैं। मुझे तो इनके शरीर पर ये मृगचर्म यज्ञ की दीक्षा के अधिकार से रहित जंगली कोल भीलों के चर्ममय वस्त्र के समान ही प्रतीत होते हैं। महा बुद्धिमान सोमकवंशी राजा द्रुपद ने अपनी कन्या पांचाली को पाण्डवों के लिये देकर कोई अच्छा काम नहीं किया। द्रौपदी के पति ये कुन्तीपुत्र निरे नपुंसक ही हैं। द्रौपदी! जो सुन्दर महीन कपड़े पहना करते थे,उन्हीं पाण्डवों का वन में निर्धन, अप्रतिष्ठित और मृगचर्म की चादर ओढे़ देख तम्हें क्या प्रसन्नता होगी? जब तुम किसी अन्य पुरुष को, जिसे चाहो, अपना पति बना लो। ये समस्त कौरव क्षमाशील, जितेन्द्रिय तथा उत्तम धन वैभव से सम्पन्न है। इन्ही में से किसी को अपना पति चुन लो, जिससे यह विपरीत काल (निर्धनावस्था) तुम्हें संतप्त न करे। जैसे थोथे तिल बोने पर फल नहीं देते हैं, जैसे केवल चर्ममय मृग व्यर्थ हैं तथा जैसे काकयव (तंदुलरहित तृणधान्य) निष्प्रयोजन होते है, उसी प्रकार समस्त पाण्डवों का जीवन निरर्थक हो गया है। थोथे तिलों की भाँति इन पतित और नपुंसक पाण्डवों की सेवा करने से तुम्हें क्या लाभ होगा, व्यर्थ का परिश्रम ही तो उठाना पड़ेगा। इस प्रकार धृतराष्ट्र के नृशंस पुत्र दु:शासन ने पाण्डवों को बहुत-से कठोर वचन सुनाये।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)
यह सब सुनकर भीमसेन को बड़ा क्रोध हुआ। जैसे हिमालय की गुफा में रहने वाला सिंह गीदड़ के पास जाय, उसी प्रकार वे सहसा दु:शासन के पास जा पहुँचे और रोषपूर्वक उसे रोककर जोर-जोर से फटकारते हुए बोले।
भीमसेन ने कहा ;- क्रूर एवं नीच दु:शासन! तू पापी मनुष्यों द्वारा प्रयुक्त होने वाली ओछी बातें बक रहा है। अरे! तू अपने बाहुबल से नहीं, शकुनि ने छल विद्या के प्रभाव से आज राजाओं की मण्डली में अपने मुँह से अपनी बड़ाई कर रहा है। जैसे यहाँ तू अपने वचनरूपी बाणों से हमारे मर्मस्थानों में अत्यन्त पीड़ा पहुँचा रहा है, उसी प्रकार जब युद्ध में मैं तेरा हृदय विदीर्ण करने लगूँगा, उस समय तेरी कही हुई इन बातों की याद दिलाऊँगा। जो लोग क्रोध और लोभ के वशीभूत हो तुम्हारे रक्षक बनकर पीछे-पीछे चलते हैं, उन्हें उनके सम्बन्धियों सहित यमलोक भेज दूँगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! मृगचर्म धारण किये भीमसेन को ऐसी बातें करते देख निर्लज दु:शास कौरवों के बीच में उनकी हँसी उड़ाते हुए नाचने लगा और ‘ओ बैल! ओ बैल’ कहकर उन्हें पुकारने लगा। उस समय भीम का मार्ग धर्मराज युधिष्ठिर ने रोक रखा था (अन्यथा वे दु:शासन को जीता न छोड़ते्)।
भीमसेन बोले ;- ओ नृशंस दु:शासन! तेरे ही मुख से ऐसी कठोर बातें निकल सकती हैं, तेरे सिवा दूसरा कौन है, जो छल-कपट से धन पाकर इस तरह आप ही अपनी प्रशंसा करेगा। मेरी बात सुन ले। यह कुन्तीपुत्र भीमसेन यदि युद्ध में तेरी छाती फाड़कर तेरा रक्त न पीये तो इसे पुण्यलोकों की प्राप्ति न हो। मैं तुझसे सच्ची बात कह रहा हूँ, शीघ्र ही यह समय आने वाला है, जबकि समस्त धनुर्धरों के देखते-देखते मैं युद्ध में धृतराष्ट्र सभी पुत्रों का वध करके प्राप्त करूँगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब पाण्डव-लोग सभा-भवन से निकले, उस समय मन्दबुद्धि राजा दुर्योधन हर्ष में भरकर सिंह के समान मस्तानी चाल से चलने-वाले भीमसेन की खिल्ली उड़ाते हुए उनकी चाल की नकल करने लगा। यह देख भीमसेन ने अपने आधे शरीर को पीछे की ओर मोड़कर कहा,,
भीमसेन बोले ;- ‘ओ मूढ़! केवल दु:शासन के रक्तपान द्वारा ही मेरा कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता है। तुझे भी सम्बन्धियों-सहित शीघ्र ही यमलोक भेजकर तेरे इस परिहास की याद दिलाते हुए इसका समुचित उत्तर दूँगा’। इस प्रकार अपना अपमान होता देख बलवान् एवं मानी भीमसेन क्रोध को किसी प्रकार रोककर राजा युधिष्ठिर के पीछे कौरव सभा से निकलते हुए इस प्रकार बोले।
भीमसेन ने कहा ;- मैं दुर्योधन का वध करूँगा, अर्जुन कर्ण का संहार करेंगे और इस जुआरी शकुनि को सहदेव मार डालेंगे। साथ ही इस भरी सभा में मैं पुन: एक बहुत बड़ी बात कर रहा हूँ। मेरा यह विश्वास है कि देवता लोग मेरी यह बात सत्य कर दिखायेंगे। जब हम कौरव और पाण्डवों में युद्ध होगा, उस समय इस पापी दुर्योधन को मैं गदा से मार गिराऊँगा तथा रणभूमि में पड़े हुए इस पापी के मस्तक को पैर से ठुकराऊँगा। और यह जो केवल बात बनाने में बहादुर क्रूरस्वभाव वाला दुरात्मा दु:शासन है, इसकी छाती का खून उसी प्रकार पी लूँगा, जैसे सिंह किसी मृग का रक्त पान करता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 30-46 का हिन्दी अनुवाद)
अर्जुन ने कहा ;- आर्य भीमसेन! साधु पुरुष जो कुछ करना चाहते हैं, उसे इस प्रकार वाणी द्वारा सूचित नहीं करते। आज से चौहदवें वर्ष में जो घटना घटित होगी, उसे स्वयं ही लोग देखेंगे।
भीमसेन बोले ;- यह भूमि दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि तथा चौथे दु:शासन के रक्त का निश्चय ही पान करेगी।
अर्जुन ने कहा ;- भैया भीमसेन! जो हम लोगों के दोष ही ढूँढ़ा करता है, हमारे दु:ख देखकर प्रसन्न होता है, कौरवों को बुरी सलाहें देता है और व्यर्थ बढ़-बढ़कर बातें बनाता है, उस कर्ण को मैं आपकी आज्ञा से अवश्य युद्ध में मार डालूँगा। अपने भाई भीमसेन का प्रिय करने की इच्छा से अर्जुन यह प्रतिज्ञा करता है कि ‘मैं युद्ध में कर्ण और उसके अनुगामियों को भी बाणों द्वारा मार डालूँगा’। दूसरे भी जो नरेश बुद्धि के व्यामोहवश हमारे विपक्ष में होकर युद्ध करेंगे, उन सबको अपने तीक्ष्ण सायकों द्वारा मैं यमलोक पहुँचा दूँगा। यदि मेरा सत्य विचलित हो जाय तो हिमालय पर्वत अपने स्थान से हट जाये, सूर्य की प्रभा नष्ट हो जाय और चन्द्रमा से उसकी शीतलता दूर हो जाय (अर्थात् जैसे हिमालय अपने स्थान से नहीं हट सकता, सूर्य की प्रभा नष्ट नहीं हो सकती, चन्द्रमा से उसकी शीतलता दूर नहीं हो सकती, वैसे ही मेरे वचन मिथ्या नहीं हो सकते)। यदि आज से चौहदवें वर्ष में दुर्योधन सत्कारपूर्वक हमारा राज्य हमें वापस न दे देगा तो ये सब बातें सत्य होकर रहेंगी।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन के ऐसा कहने पर परम सुन्दर प्रतापी वीर माद्रीनन्दन सहदेव ने अपनी विशाल भुजा ऊपर उठाकर शकुनि के वध की इच्छा से इस प्रकार कहा; उस समय उनके नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे और वे फुँफकारते हुए सर्प की भाँति उच्छ्वास ले रहे थे।
सहदेव ने कहा ;- ओ गान्धारनिवासी क्षत्रियकुल के कलंक मूर्ख शकुने! जिन्हें तू पासे समझ रहा है, वे पासे नहीं है, उनके रूप में तूने यद्ध में तीखे बाणों का वरण किया है। आर्य भीमसेन ने बन्धु-बान्धवों सहित तेरे विषय में जो बात कही हैं, मैं अवश्य पूर्ण करूँगा। तुझे अपने बचाव-के लिये जो कुछ करना हो, वह सब कर डाल। सुबलकुमार! यदि तू क्षत्रियधर्म के अनुसार संग्राम में डटा रह जायेगा, तौ मैं वेगपूर्वक तुझे तेरे बन्धु-बान्धवों-सहित अवश्य मार डालूँगा। राजन्! सहदेव की बात सुनकर मनुष्यों में परम दर्शनीय रूप वाले नकुल ने भी यह बात कही।
नकुल बोले ;- दुर्योधन के प्रियसाधन में लगे हुए जिन धृतराष्ट्रपुत्रों ने इस द्यूमसभा में द्रुपदकुमारी कृष्णा को कठोर बातें सुनायी हैं, काल से प्रेरित हो मौत के मुँह में जाने की इच्छा रखने वाले उन दुराचारी बहुसंख्यक धृतराष्ट्रकुमारों को मैं यमलोक का अतिथि बना दूँगा। धर्मराज की आज्ञा से द्रौपदी का प्रिय करते हुए मैं सारी पृथ्वी को धृतराष्ट्र-पुत्रों से सूनी कर दूँगा; इसमे अधिक देर नहीं है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार वे सभी पुरुष सिंह महाबाहु पाण्डव बहुत-सी प्रतिज्ञाएँ करके राजा धृतराष्ट्र के पास गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में पांडवों की प्रतिज्ञा से सम्बंध रखने वाला सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र आदि से विदा लेना, विदुर का कुन्ती को अपने यहाँ रखने का प्रस्ताव और पाण्डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना"
युधिष्ठिर बोले ;- मैं भरतवंश के समस्त गुरुजनों से वन में जाने की आज्ञा चाहता हूँ। बडे़-बूढे़ पितामह भीष्म, राजा सोमदत्त, महाराज बाह्लिक, गुरुवर द्रोण और कृपाचार्य, अश्वत्थामा, अन्यान्य नृपतिगण, विदुर, राजा धृतराष्ट्र, उनके सभी पुत्र, युयुत्सु, संजय तथा दूसरे सब सदस्यों से पूछ-कर सबकी आज्ञा लेकर वन में जाता हूँ, फिर लौटकर आप लोगों का दर्शन करूँगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर सब कौरव लाज के मारे सन्न रह गये, कुछ भी उत्तर न दे सके। उन्होंने मन-ही-मन उस बुद्धिमान युधिष्ठिर के कल्याण का चिन्तन किया।
विदुर बोले ;- कुन्तीकुमारो! राजपुत्री आर्या कुन्ती वन में जाने लायक नहीं हैं। वे कोमल अगों वाली और वृद्धा हैं, सदा सुख और आराम के ही योग्य हैं; अत: वे मेरे ही घर में सत्कारपूर्वक रहेगी। यह बात तुम सब लोग जान लो। मेरी शुभ-कामना है कि तुम वहाँ सर्वथा नीरोग एवं सुख से रहो।
पाण्डवों ने कहा ;- बहुत अच्छा, ऐसा ही हो।
इतना कहकर वे सब फिर बोले,,- 'अनघ! आप हमें जैसा कहें- जैसी आज्ञा दें, वही शिरोचार्य है। आप हमारे पितृव्य अत: पिता के ही तुल्य हैं। हम सब (पिता के भाई) हैं, हम सब भाई आपकी शरण में हैं। विद्वन्! आप जैसी आज्ञा दें, वही हमें मान्य है; क्योंकि आप हमारे परमगुरु हैं। महामते! इसके सिवा और भी जो कुछ हमारा कर्तव्य हो, वह हमें बताईये'।
विदुर बोले ;- भरतकुलभूषण युधिष्ठिर! तुम मुझसे यह जान लो कि अधर्म से पराजित होने वाला कोई भी पुरुष अपनी उस पराजय के लिये दुखी नहीं होता। तुम धर्म के ज्ञाता हो। अर्जुन युद्ध में विजय पाने वाले हैं। भीमसेन शत्रुओं का नाश करने में समर्थ हैं। नकुल आवश्यक वस्तुओं को जुटाने में कुशल हैं। सहदेव संयमी हैं तथा ब्रह्मर्षि धौम्य जी ब्रह्मावेत्ताओं के शिरोमणि हैं। एवं धर्मपरायणा द्रौपदी भी धर्म ओर अर्थ के सम्पादन कुशल है। तुम लोग आपस में एक दूसरे के प्रिय हो, तुम्हें देखकर सबको प्रसन्नता होती है। शत्रु तुममें भेद या फूट नहीं डाल सकते, इस जगत् में कौन है जो तुम लोगों को न चाहता हो। भारत! तुम्हारा यह क्षमाशीलता का नियम सब प्रकार से कल्याणकारी है।
इन्द्र के समान पराक्रमी शत्रु भी इसका सामना नहीं करा सकता। पूर्वकाल में मेरूसावर्णि ने हिमालय पर तुम्हें धर्म और ज्ञान का उपदेश दिया है, वारणावत नगर में श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने, भृगुतुंग पर्वत पर परशुराम जी ने तथा दृषद्वती के तट पर साक्षात् भगवान शंकर ने तुम्हे अपने सदुपदेश से कृतार्थ किया है। अंजन पर्वत पर तुमने महर्षि असित का भी उपदेश सुना है। कल्माषी नदी के किनारे निवास करने वाले महर्षि भृगु ने भी तुम्हें उपदेश देकर अनुगृहित किया है। देवर्षि नारद जी सदा तुम्हारी देख-भाल करते हैं और तुम्हारे ये पुरोहित धौम्य जी तो सदा ही साथ रहते हैं। ऋषियों द्वारा सम्मानित उस परलोक विषयक विज्ञान का तुम कभी त्याग न करना। पाण्डुनन्दन! तुम अपनी बुद्धि से इलानन्दन पुरूरवा को भी पराजित करते हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 18-24 का हिन्दी अनुवाद)
शक्ति से समस्त राजाओं को तथा धर्म सेवन द्वारा ऋषियों को भी जीत लेते हो। तुम इन्द्र से मन में विजय का उत्साह प्राप्त करो। क्रोध को काबू में रखने का पाठ यमराज से सीखो। उदारता एवं दान में कुबेर का और संयम में वरुण का आदर्श ग्रहण करो। दूसरों के हित के लिये अपने आपको निछावर करना, सौम्यभाव (शीतलता) तथा दूसरों को जीवन-दान देना- इन सब बातों की शिक्षा तुम्हें जल से लेनी चाहिये। तुम भूमि से क्षमा, सूर्यमण्डल से तेज, वायु से बल तथा सम्पूर्ण भूतों से अपनी सम्पत्ति प्राप्त करो। तुम्हें कभी कोई रोग न हो, सदा मण्डल-ही-मण्डल दिखायी दे। कुशलपूर्वक वन से लौटने पर मैं फिर तुम्हें देखूँगा।
युधिष्ठिर! आपत्ति काल में, धर्म तथा अर्थ का संकट उपस्थित होने पर अथवा सभी कार्यों में समय-समय पर अपने उचित कर्तव्य का पालन करना। कुन्तीनन्दन! भारत! तुमसे आवश्यक बातें कर लो। तुम्हें कल्याण प्राप्त हो। जब वन से कुशलपूर्वक कृतार्थ होकर लौटोगे, तब यहाँ आने पर फिर तुमसे मिलूँगा। तुम्हारे पहले के किसी दोष को दूसरा कोई न जाने, इसकी चेष्टा रखना।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! विदुर के ऐसा कहने पर सत्यपराक्रमी पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर भीष्म और द्रोण को नमस्कार करके वहाँ से प्रस्थित हुए।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में युधिष्ठिर का वन को प्रस्थान-विषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
नवासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना तथा कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर के प्रस्थान करने पर कृष्णा ने यशस्विनी कुन्ती के पास जाकर अत्यन्त दु:ख से आतुर हो वन में जाने की आज्ञा माँगी। वहाँ जो दूसरी स्त्रियाँ बैठी थीं, उन सबकी यथायोग्य वन्दना करके सबसे गले मिलकर उसने वन में इच्छा प्रकट की। फिर तो पाण्डवों-अन्त:पुर में महान् आर्तनाद होने लगा। द्रौपदी को जाती देख कुन्ती अत्यन्त संतप्त हो उठीं और शोकाकुल वाणी द्वारा बड़ी कठिनाई से इस प्रकार बोलीं,,
कुन्ती बोली ;- 'बेटी! इस महान् संकट को पाकर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। तुम स्त्री के धर्मों को जानती हो, शील और सदाचार का पालन करने वाली हो। पवित्र मुस्कान वाली बहू! इसलिये पतियों के प्रति तुम्हारा क्या कर्तव्य है, यह तुम्हें बताने की आवश्यकता मैं नहीं समझती। तुम सती स्त्रियों के सद्गुणों से सम्पन्न हो; तुमने पति और पिता- दोनों के कुलों की शोभा बढ़ायी है।
निष्पाप द्रौपदी! ये कौरव बड़े भाग्यशाली हैं, जिन्हें तुमने अपनी क्रोधाग्नि से जलाकर भस्म नहीं कर दिया। जाओ, तुम्हारा मार्ग विघ्नबाधाओं से रहित हो; मेरे किये हुए शुभ चिन्तन अभ्युदय हो। जो बात अवश्य होने वाली है उसके होने पर साध्वी स्त्रियों के मन में व्याकुलता नहीं होती। तुम अपने श्रेष्ठ धर्म से सुरक्षित रहकर शीघ्र ही कल्याण प्राप्त करोगी। बेटी! वन में रहते हुए मेरे पुत्र सहदेव की तुम सदा देख-भाल रखना, जिससे यह परम बुद्धिमान् सहदेव इस भारी संकट में पड़कर दुखी न होने पावे'।
कुन्ती के ऐसा कहने पर नेत्रों से आँसू बहाती हुई द्रौपदी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोचार्य की। उस समय उसके शरीर पर एक ही वस्त्र था, उसका भी कुछ भाग रज से सना हुआ था और उसके सिर के बाल बिखरे हुए थे। उसी दशा में वह अन्त:पुर से बाहर निकली। रोती-बिलखती, वन को जाती हुई द्रौपदी के पीछे-पीछे कुन्ती भी दु:ख से व्याकुल हो कुछ दूर तक गयीं, इतने ही में उन्होंने अपने सभी पुत्रों को देखा, जिनके वस्त्र और आभूषण उतार लिये गये थे। उनके सभी अंग मृगचर्म से ढँके हुए थे और वे लज्जावश नीचे मुख किये चले जा रहे थे। हर्ष में भरे हुए शत्रुओं ने उन्हें सब ओर से घेर रखा था और हितैषी सुहृद उनके लिये शोक कर रहे थे। उस अवस्था में उन सभी पुत्रों के निकट पहुँचकर कुन्ती के हृदय में अत्यन्त वात्सल्य उमड़ आया। वे उन्हें हृदय से लगाकर शोकवश बहुत विलाप करती हुई बोलीं।
कुन्ती ने कहा ;- पुत्रो! तुम उत्तम धर्म का पालन करने वाले तथा सदाचारी की मर्यादा से विभूषित हो। तुममें क्षुद्रता का अभाव है। तुम भगवान् के सुदृढ़ भक्त और देवाराधन में सदा तत्पर रहने वाले हो। तो भी तुम्हारे ऊपर यह विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है। विधाता का यह कैसा विपरीत विधान है। किसके अनिष्ट चिन्तन से तुम्हारे ऊपर यह महान् दु:ख आया है, यह बुद्धि से बार-बार विचार करने पर भी मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता। यह मेरे ही भाग्य का दोष हो सकता है। तुम तो उत्तम गुणों से युक्त हो तो भी अत्यन्त दु:ख और कष्ट भोगने के लिये ही मैंने तुम्हें जन्म दिया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार सम्पत्ति से वचिंत होकर तुम वन के दुर्गम स्थानों में कैसे रह सकोगे? वीर्य, धैर्य, बल, उत्साह और तेज से परिपुष्ट होते हुए भी तुम दुर्बल हो। यदि मैं यह जानती कि नगर में आने पर तुम्हें निश्चय ही वनवास का कष्ट भोगना पड़ेगा तो महाराज पाण्डु के पर लोकवासी हो जाने पर शतश्रृंगपुर से हस्तिनापुर नहीं आती। मैं तो तुम्हारे तपस्वी एवं मेघावी पिता को ही धन्य मानती हूँ, जिन्होंने पुत्रों के दु:ख से दुखी होने का अवसर न पाकर स्वर्गलोक की अभिलाषा को ही प्रिय समझा। इसी प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न एवं परमगति को प्राप्त हुई कल्याणमयी धर्मज्ञा माद्री को भी सर्वथा धन्य मानती हूँ। जिसने अपने अनुराग, उत्तम बुद्धि और सद्व्यवहार द्वारा मुझे भुलाकर जीवित रहने के लिये विवश कर दिया। मुझको और जीवन के प्रति मेरी इस आसक्ति को धिक्कार है! जिसके कारण मुझे यह महान् क्लेश भोगना पड़ता है। पुत्रों! तुम सदाचारी और मेरे प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। मैंने बड़े कष्ट से तुम्हें पाया है; अत: तुम्हें छोड़कर अलग नहीं रहूँगी। मैं भी तुम्हारे साथ वन में चलूँगी।
हाय कृष्णे! तुम क्यों मुझे छोड़े जाती हो? यह प्राण धारण रूपीधर्म अनित्य है, एक-न-एक दिन इसका अन्त होना निश्चित है, फिर भी विधाता ने जाने क्यों प्रमादवश मेरे जीवन का भी शीघ्र ही अन्त नहीं नियत कर दिया। तभी तो आयु मुझे छोड़ नहीं रही है। हा! द्वारकावासी श्रीकृष्ण! तुम कहाँ हो! बलराम जी के छोटे भैया! मुझको तथा इन नरश्रेष्ठ पाण्डवों की इस दु:ख से क्यों नहीं बचाते? 'प्रभो! तुम आदि-अन्त से रहित हो, जो मनुष्य तुम्हारा निरन्तर स्मरण करते हैं, उन्हें तुम अवश्य संकट से बचाते हो।' तुम्हारी यह विरद व्यर्थ कैसे हो रही है? ये मेरे पुत्र उत्तम धर्म, महात्मा पुरुषों के शील-स्वभाव, यश और पराक्रम का अनुसरण करने वाले हैं, अत: कष्ट भोगने के योग्य नहीं है; भगवन्! इन पर तो दया करो।
नीति के अर्थ को जानने वाले परम विद्वान् भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि के, जो इस कुल के रक्षक हैं रहते हुए यह विपत्ति हम पर क्यों आयी? हा महाराज पाण्डु! कहाँ हो? आज तुम्हारे श्रेष्ठ पुत्रों को शत्रुओं ने जूए में जीतकर वनवास दे दिया है, तुम क्यों इनकी दुरवस्था की उपेक्षा कर रहे हो? माद्रीनन्दन सहदेव! तुम मुझे अपने शरीर से भी अधिक प्रिय हो। बेटा! लौट आओ। कुपुत्र की भाँति मेरा त्याग न करो। तुम्हारे ये भाई यदि सत्य-धर्म के पालन का आग्रह रख-कर वन में जा रहे हैं तो जायँ; तुम यहीं रहकर मेरी रक्षा-जनित धर्म का लाभ लो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- इस प्रकार विलाप करती हुई माता कुन्ती को अभिवादन एवं प्रणाम करके पाण्डव लोग दुखी हो वन को चले गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के भाग-3 का हिन्दी अनुवाद)
विदुर जी शोकाकुल कुन्ती को अनेक प्रकार की युक्तियों-द्वारा धीरज बँधाकर उन्हें धीरे-धीरे अपने घर ले गये। उस समय वे स्वयं भी बहुत दुखी थे। तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर जब वन की ओर प्रस्थित हुए, तब उस नगर के समस्त निवासी दु:ख से आतुर हो उन्हें देखने के लिये महलों, मकान की छतों, समस्त गोपुरों और वृक्षों पर चढ़ गये। वहाँ से सब लोग उदास होकर उन्हें देखने लगे। उस समय सड़कें मनुष्यों की भारी भीड़ से इतनी भर गयी थीं कि उन पर चलना असम्भव हो गया था। इसीलिये लोग ऊँचें चढ़-कर अत्यन्त दीनभाव से पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को देख रहे थे। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर छत्र रहित एवं पैदल ही चल रहे थे। शरीर पर राजोचित वस्त्रों और आभूषणों का भी अभाव था। वे वल्कल और मृगचर्म पहने हुए थे। उन्हें इस दशा में देखकर लोगों के हृदय में गहरी चोट पहुँची और वे सब लोग नाना प्रकार की बातें करने लगे।
नगरनिवासी मनुष्य बोले ;- अहो! यात्रा करते समय जिनके पीछे विशाल चतुरंगिणी सेना चलती थी, आज वे ही राजा युधिष्ठिर इस प्रकार जा रहे हैं और उनके पीछे द्रौपदी के साथ केवल चार भाई पाण्डव तथा पुरोहित चल रहे हैं। जिसे आज से पहले आकाशचारी प्राणी तक नहीं देख पाते थे, उसी द्रुपदकुमारी कृष्णों को अब सड़क पर चलने वाले साधारण लोग भी देख रहे हैं। सुकुमारी द्रौपदी के अंगों में दिव्य अंगराग शोभा पाता था। वह लाल चन्दन का सेवन करती थी, परंतु अब वन में सर्दी, गर्मी और वर्षा लगने से उसकी अंग कान्ति शीघ्र ही फीकी पड़ जाएगी। निश्चय ही आज कुन्ती देवी बड़े भारी धैर्य का आश्रय लेकर अपने पुत्रों और पुत्रवधू से वार्तालाप करती हैं; अन्यथा इस दशा में वे इनकी ओर देख भी नहीं सकतीं। गुणहीन पुत्र का भी दु:ख माता से कैसे देखा जायेगा; फिर जिस पुत्र के सदाचार मात्र से यह सारा संसार वशीभूत हो जाता है, उस पर कोई दु:ख आये, तो उसकी माता वह कैसे देख सकती है? पुरुष रत्न पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को कोमलता, दया, धैर्य, शील, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह- ये छ: सद्गुण सुशोभित करते हैं।
उनकी हानि से आज सारी प्रजा को बड़ी पीड़ा हो रही है। जैसे गर्मी में जलाशय का पानी घट जाने से जलचर जीव-जन्तु व्यथित हो उठते हैं एवं जड़ कट जाने से फल और फूलों से युक्त वृक्ष सूखने लगता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् के पालक महाराज युधिष्ठिर की पीड़ा से सारा संसार पीड़ित हो गया है। महातेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिर मनुष्यों के मूल हैं। जगत् के दूसरे लोग उन्हीं की शाखा, पत्र, पुण्य और फल हैं। आज इस अपने पुत्रों और भाई-बन्धुओं को साथ लेकर चारों भाई पाण्डवों की भाँति शीघ्र उसी मार्ग से उनके पीछे-पीछे चलें, जिससे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर जा रहे हैं। आज हम अपने श्वेत, बाग-बगीचे और घर-द्वार छोड़कर परम धर्मात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर के साथ चल दें और उन्हीं के सुख-दु:ख को अपना सुख-दु:ख समझें।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के भाग-3 का हिन्दी अनुवाद)
हम अपने घरों की गड़ी हुई निधि निकाल लें। आँगन की फर्श खोद डालें। धन-धान्य साथ ले लें। सारी आवश्यक वस्तुएँ हटा लें। इनमें चारों ओर धूल भर जाय। देवता इन घरों को छोड़कर भाग जायँ। चूहे बिल से बाहर निकलकर इनमें चारों ओर दौड़ लगाने लगे। इनमें न कभी आग जले, न पानी रहे और न झाडू ही लगे। यहाँ बलिवैश्वदेव, यज्ञ, मन्त्र पाठ, होम और जप बंद हो जाय। मानो बड़ा भारी अकाल पड़ गया हो, इस प्रकार ये सारे घर ढह जायँ। इनमें टूटे बर्तन बिखरे पड़े हो और हम सदा के लिये इन्हें छोड़ दें- ऐसी दशा में इन घरों पर कपटी सुबलपुत्र शकुनि अधिकार कर ले। अब जहाँ पाण्डव जा रहे हैं, वह वन ही नगर हो जाय और हमारे छोड़ देने पर यह नगर ही वन के रूप में परिणत हो जाय। वन में हम लोगों के भय से साँप अपने बिल छोड़कर भाग जायँ मृग और पक्षी जंगलों को छोड़ दें तथा हाथी और सिंह भी वहाँ से दूर चले जायँ। हम लोग तृण (साग-पात), अन्न और फल का उपयोग करने वाले हैं। जंगल के हिंसक पशु और पक्षी हमारे रहने के स्थानों को छोड़कर चल जायँ। वे ऐसे स्थान का आश्रय लें, जहाँ हम न जायँ और वे उन स्थानों को छोड़ दें, जिनका हम सेवन करें। हम लोग वन में कुन्तीपुत्रों के साथ बड़े सुख से रहेंगे।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार भिन्न-भिन्न मनुष्यों की कही हुई भाँति-भाँति की बातें युधिष्ठिर ने सुनीं। सुनकर भी उनके मन में कोई विकार नहीं आया। तदनन्तर चारों ओर महलों में रहने वाली ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की स्त्रियाँ अपने-अपने भवनों की खिड़कियों के पर्दे हटाकर दीन पाण्डवों को देखने लगीं। सब पाण्डवों ने मृगचर्ममय वस्त्र धारण कर रखा था। उनके साथ द्रौपदी भी पैदल ही चली जा रही थी। उसे उन स्त्रियों ने पहले कभी नहीं देखा था। उसके शरीर पर एक ही वस्त्र था, कैश खुले हुए थे, वह रजस्वला थी और रोती चली जा रही थी। उसे देखकर उस समय सब स्त्रियों का मुख उदास हो गया। वे क्षोम एवं मोह के कारण नाना प्रकार सें विलाप करती हुई दु:ख शोक से पीड़ित हो गयीं और ‘हाय हाय! इन धृतराष्ट्रपुत्रों को बार-बार धिक्कार है, धिक्कार है’ ऐसा कहकर नेत्रों से आँसू बहाने लगीं। उसके वस्त्र खींचे जाने (एवं वन में जाने) आदि का सारा वृत्तान्त सुनकर कौरवों की अत्यन्त निन्दा करती हुई फूट-फूटकर रोने लगीं और अपने मुखार विन्द को हथेली पर रखकर बहुत देर तक गहरी चिन्ता में डूबी रहीं। उस समय अपने पुत्रों के अन्याय का चिन्तन करके राजा धृतराष्ट्र का भी हृदय उद्विग्न हो उठा। उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिली। चिन्ता में पड़े-पड़े उनकी एकाग्रता नष्ट हो गयी। उनका चित्त शोक से व्याकुल हो रहा था। उन्होंने विदुर के पास संदेश भेजा कि तुम शीघ्र मेरे पास चले आओ। तब विदुर राजा धृतराष्ट्र के महल में गये। उस समय महाराज धृतराष्ट्र ने अत्यन्त उद्विग्न होकर उनसे पूछा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में द्रौपदी-कुन्तीसंवाद-विषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"वन गमन के समय पाण्डवों की चेष्टा और प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्ट्र तथा विदुर का संवाद और शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्वासन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! दूरदर्शी विदुर जी के आने पर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने शंकित सा होकर पूछा।
धृतराष्ट्र बोले ;- विदुर! कुन्तीनन्दन धर्मपुत्र युधिष्ठिर किस प्रकार जा रहे हैं? भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव -ये चारों पाण्डव भी किस प्रकार यात्रा करते है? पुरोहित धौम्य तथा यशस्विनी द्रौपदी भी कैसे जा रही है? मैं उन सबकी पृथक्-पृथक् चेष्टाओं को सुनना चाहता हूँ, तुम मुझसे कहो।
विदुर बोले ;- कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर वस्त्र से मुँह ढँककर जा रहे हैं। पाण्डुकुमार भीमसेन अपनी विशाल भुजाओं की ओर देखते हुए जाते हैं। सव्यसाची अर्जुन बालू बिखेरते हुए राजा युधिष्ठिर के पीछे-पीछे जा रहे हैं। माद्रीकुमार सहदेव अपने मुँह पर मिट्टी पोतकर जाते हैं। लोक में अत्यन्त दर्शनीय मनोहर रूप वाले नकुल अपने सब अंगों में धूल लपेटकर व्याकुलचित्त हो राजा युधिष्ठिर का अनुसरण कर रहे हैं। परम सुन्दरी विशाललोचना कृष्णा अपने केशों से ही मुँह ढँककर रोती हुई राजा के पीछे-पीछे जा रही है। महाराज! पुरोहित धौम्य जी हाथ में कुश लेकर रुद्र तथा यमदेवता सम्बन्धी साम-मन्त्रों का गान करते हुए आगे-आगे मार्ग पर चल रहे हैं।
धृतराष्ट् ने पूछा ;- विदुर! पाण्डव लोग यहाँ जो भिन्न-भिन्न प्रकार की चेष्टाएँ करते हुए यात्रा कर रहे हैं, उसका क्या रहस्य है, यह बताओ। वे क्यों इस प्रकार जा रहे हैं?
विदुर बोले ;- महाराज! यद्यपि आपके पुत्रों ने छलपूर्ण बर्ताव किया है। पाण्डवों का राज्य और धन सब कुछ चला गया है तो भी परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर की बुद्धि धर्म से विचलित नहीं हो रही है। भारत! राजा युधिष्ठिर आपके पुत्रों पर सदा दयाभाव बनाये रखते थे, किंतु इन्होंने छलपूर्ण जूए का आश्रय लेकर उन्हें राज्य से वंछित किया है, इससे उनके मन में बड़ा क्रोध है और इसीलिये वे अपनी आँखों को नहीं खोलते हैं। 'मैं भयानक दृष्टि से देखकर किसी (निरपराधी) मनुष्य को भस्म न कर डालूँ’ इसी भय से पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर अपना मुँह ढँककर जा रहे हैं। अब भीमसेन जिस प्रकार चल रहे हैं, उसका रहस्य बताता हूँ, सुनिये! भरतश्रेष्ठ! उन्हें इस बात का अभिमान है कि बाहुबल में मेरे दूसरा कोई नहीं है। इसीलिये वे अपनी विशाल भुजाओं की ओर देखते हुए यात्रा करते हैं।
राजन्! अपने बाहुबलरूपी वैभव पर उन्हें गर्व है। अत: वे अपनी दोनों भुजाएँ दिखाते हुए शत्रुओं से बदला लेने के लिये अपने बाहुबल के अनुरूप ही पराक्रम करन चाहते हैं। कुन्तीपुत्र सव्यसाची अर्जुन उस समय राजा के पीछे-पीछे जो बालू बिखेरते हुए यात्रा कर रहे थे, उसके द्वारा वे शत्रुओं पर बाण बरसाने की अभिलाषा व्यक्त करते थे। भारत! इस समय उनके गिराये हुए बालू के कण जैसे आपस में संसक्त न होते हुए लगातार गिरते हैं, उसी प्रकार वे शत्रुओं पर परस्पर संसक्त न होने वाले अपंख्य बाणों की वर्षा करेंगे। भारत! ‘आज इस दुर्दिन में कोई मेरे मुँह को पहचान न ले’ यह सोचकर सहदेव अपने मुँह में मिट्टी पोतकर जा रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
प्रभो! ‘मार्ग में मैं स्त्रियों का चित्त न चुरा लूँ’ इस भय से नकुल अपने सारे अंगों में धूल लगाकर यात्रा करते हैं। द्रौपदी के शरीर पर एक ही वस्त्र था, उसके बाल खुले हुथे थे, वह रजस्वला थी और उसके कपड़ों में रक्त (रज) का दाग लगा हुआ था, उसने रोते हुए यह बात कही थी। जिनके अन्याय से आज मैं इस दशा को पहुँची हूँ, आज के चौहदवें वर्ष में उनकी स्त्रियाँ भी अपने पति, पुत्र और बन्धु-बान्धवों के मारे जाने से उनकी लाशों के पास लोट-लोटकर रोयेंगी और अपने अंगों में रक्त तथा धूल लपेटे, बाल खोले हुए, अपने सगे-सम्बन्धियों को तिलांजलि दे इसी प्रकार हस्तिनापुर में प्रवेश करेंगी’।
भारत! धीरस्वभाव वाले पुरोहित धौम्य जी कुशों का अग्र-भाग नैर्ऋत्य कोण की ओर करके यम देवता सम्बन्धी साममन्त्रों का गान करते हुए पाण्डवों के आगे-आगे जा रहे हैं। धौम्य जी यह कहकर गये थे कि युद्ध में कौरवों के मारे जाने पर उनके गुरु भी इसी प्रकार कभी साम-गान करेंगे। महाराज! उस समय नगर के लोग अत्यन्त दु:ख से आतुर हो बार-बार चिल्लाकर कह रहे थे कि ‘हाय-हाय! हमारे स्वामी पाण्डव चले जा रहे हैं। अहो! कौरवों जो बडे़-बढे़ लोग हैं, उनकी यह बालकों की-सी चेष्टा तो देखो। धिक्कार है उनके इस बर्ताव को! ये कौरव लोभवश महाराज पाण्डु के पुत्रों को राज्य से निकाल रहे हैं। इन पाण्डुपुत्रों से वियुक्त होकर हम सब लोग आज अनाथ हो गये। इन लोभी और उदण्ड कौरवों के प्रति हमारा प्रेम कैसे हो सकता है?'
महाराज! इस प्रकार मनस्वी कुन्तीपुत्र अपनी आकृति एवं चिह्नों के द्वारा अपने आन्तरिक निश्चय को प्रकट करते हुए वन को गये हैं। हस्तिनापुर उन नरश्रेष्ठ पाण्डवों के निकलते ही बिना बादल के बिजली गिरने लगी, पृथ्वी काँप उठी। राजन् बिना पर्व (अमावस्या) के ही राहु ने सूर्य को ग्रस लिया था और नगर को दायें रखकर उल्का गिरी थी। गीध, गीदड़, और कौवे आदि मांसाहारी जन्तु नगर के मन्दिरों, देववृक्षों, चहार दीवारी तथा अट्टालिकाओं पर मांस और हड्डी आदि लाकर गिराने लगे थे। राजन्! इस प्रकार आपकी दुर्मन्त्रणा के कारण ऐसे-ऐसे अपशकुन रूप दुर्दम्य एवं महान् उत्पात प्रकट हुए हैं, जो भरतवंशियों के विनाश की सूचना दे रहे हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र और बुद्धिमान विदुर जब दोनों वहाँ बातचीत कर रहे थे, उसी समय सभा में महर्षियों से घिरे हुए देवर्षि नारद कौरवों के सामने आकर खड़े हो गये और यह भयंकर वचन बोले,,
देवर्षि नारद बोले ;- ‘आज से चौदहवें वर्ष में दुर्योधन के अपराध से भीम और अर्जुन के पराक्रम द्वारा कौरव कुल का नाश हो जायेगा’।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 35-39 का हिन्दी अनुवाद)
ऐसा कहकर विशाल ब्रह्मातेज धारण करने वाले देवर्षि प्रवर नारद आकाश में जाकर सहसा अन्तर्धान हो गये।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- विदुर! जब पाण्डव वन को जाने लगे, उस समय नगर और देश के लोग क्या कह रहे थे, ये सब बातें मुझे पूर्णरूप से ठीक-ठीक बताओ।
विदुर बोले ;- महाराज! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य लोग इस घटना के सम्बन्ध में जो कुछ कहते हैं, वह सुनिये, मैं आपसे सब बातें बता रहा हूँ। पाण्डवों के जाते समय समस्त पुरवासी दु:ख से आतुर हो सब ओर शोक में डुबे हुए थे और इस प्रकार कह रहे थे- ‘हाय! हाय! हमारे स्वामी, हमारे रक्षक वन में चले जा हरे हैं। भाइयों! देखो, धृतराष्ट्र के पुत्रों का यह कैसा अन्याय है?’ स्त्री, बालक और वृद्धों सहित सारा हस्तिनापुर नगर हर्षरहित, शब्दशून्य तथा उत्सवहीन-सा हो गया। सब लोग कुन्तीपुत्रों के लिये निरन्तर चिन्ता एवं शोक में निमग्न हो उत्साह खो बैठे थे। सब की दशा रोगियों के समान हो गयी थी। सब एक दूसरे से मिलकर जहाँ-जहाँ पाण्डवों-के विषय में ही वार्तालाप करते थे। धर्मराज के वन में चले जाने पर समस्त वृद्ध कौरव भी अत्यन्त शोक से व्यथित हो दु:ख और चिन्ता में निमग्न हो गये। तदनन्तर समस्त पुरवासी राजा युधिष्ठिर के लिये शोकाकुल हो गये। उस समय वहाँ ब्राह्मण लोग राजा युधिष्ठिर के विषय में निम्नांकित बातें करने लगे।
ब्राह्मणों ने कहा ;- हाय! धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर और उनके भाई निर्जन वन में कैसे रहेंगे? तथा द्रुपदकुमारी कृष्णा तो सुख भोगने ही योग्य है, वह दु:ख से आतुर हो वन में कैसे रहेगी।
विदुर जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार पुरवासी ब्राह्मण अपनी स्त्रियों पुत्रों के साथ पाण्डवों का स्मरण करते हुए बहुत दुखी हो गये। शस्त्रों के आघात से घायल हुए मनुष्यों की भाँति वे किसी प्रकार सुखी न हो सके। बात कहने पर भी वे किसी को आदरपूर्वक उत्तर नहीं देते थे। उन्होंने दिन अथवा रात में न तो भोजन किया और नींद ही ली; शोक के कारण उनका सारा विज्ञान आच्छादित हो गया था। वे सब-के-सब अचेत से हो रहे थे। जैसे त्रेतायुग में राज्य का अपहरण हो जाने पर लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्र जी के वन में चले जाने के बाद अयोध्या नगरी दु:ख से अत्यन्त आतुर हो बड़ी दुरवस्था को पहुँच गयी थी, वही दशा राज्य के अपहरण हो जाने पर भाइयों सहित युधिष्ठिर के वन में चले जाने से आज हमारे इस हस्तिनापुर की हो गयी है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! विदुर का कथन और पुरवासियों की कही हुई बातें सुनकर बन्धु-बान्धवों सहित राजा धृतराष्ट्र पुन: शोक से मूर्च्छित हो गये। तब दुर्योधन, कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि ने द्रोण को अपना द्वीप (आश्रय) माना और सम्पूर्ण राज्य उनके चरणों में समर्पित कर दिया। उस समय द्रोणाचार्य ने अमर्षशील दुर्योधन, दु:शासन, कर्ण तथा अन्य सब भरतवंशियों से कहा,,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘पाण्डव देवताओं के पुत्र हैं, अत: ब्राह्मण लोग उन्हें अवश्य बतलाते हैं। मैं यथाशक्ति सम्पूर्ण हृदय से तुम्हारे अनुकूल प्रयत्न करता हुआ तुम्हारा साथ दूँगा। भक्तिपूर्वक अपनी शरण में आये हुए इन राजाओं सहित धृतराष्ट्रपुत्रों का परित्याग करने का साहस नहीं कर सकता। दैव ही सबसे प्रबल है।'
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद)
'पाण्डव जूए में पराजित होकर धर्म के अनुसार वन में गये हैं। वे वहाँ वर्षों तक रहेंगे। वन में पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करके जब वे क्रोध और अमर्ष के वशीभूत हो यहाँ लौटेंगे, उस समय वैर का बदला अवश्य लेंगे। उनका वह प्रतीकार हमारे लिये महान् दु:ख का कारण होगा। राजन्! मैंने मैत्री के विषय को लेकर कलह प्रारम्भ होने पर राजा द्रुपद को उनके राज्य से भ्रष्ट किया था; भारत! इससे दुखी होकर उन्होंने मेरे वध के लिये पुत्र प्राप्त करने की इच्छा से एक यज्ञ का आयोजन किया। याज और उपयाज की तपस्या से उन्होंने अग्नि से धृष्टद्युम्न और वेदी के मध्यभाग से सुन्दरी द्रौपदी को प्राप्त किया। धृष्टद्युम्न तो सम्बन्ध की दृष्टि से कुन्तीपुत्रों का साला ही है, अत: सदा उनका प्रिय करने में लगा रहता है, उसी से मुझे भय है। उसके शरीर की कान्ति अग्नि की ज्वाला के समान उद्भासित होती है। वह देवता का दिया हुआ पुत्र है और धनुष, बाण तथा कवच के साथ प्रकट हुआ है। मरणधर्मा मनुष्य होने के कारण मुझे अब उससे महान् भय लगता है। शत्रुवीरों का संहार करने वाला द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न पाण्डवों के पक्ष का पोषक हो गया है। रथियों और अति-रथियों की गणना में जिसका नाम सबसे पहले लिया जाता है, वह तरुण और वीर अर्जुन धृष्टद्युम्न के लिये, यदि मेरे साथ उसका युद्ध हुआ तो, लड़कर प्राण तक देने के लिये उद्यत हो जायेगा।
कौरवो! (अर्जुन के साथ मुझे लड़ना पड़े) इस पृथ्वी पर इससे बढ़कर महान् दु:ख मेरे लिये और क्या हो सकता है? धृष्टद्युम्न द्रोण की मौत है, यह बात सर्वत्र फैल चुकी है। मेरे वध के लिये ही उसका जन्म हुआ है। यह भी सब लोगों ने सुन रखा है। धृष्टद्युम्न स्वयं भी संसार में अपनी वीरता के लिये विख्यात है। तुम्हारे लिये यह निश्चय ही बहुत उत्तम अवसर प्राप्त हुआ है। शीघ्र ही अपने कल्याण-साधन में लग जाओ। पाण्डवों को वनवास दे देने मात्र से तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता। यह राज्य तुम लोगों को लिये शीतकाल में होने वाली ताड़ के पेड़ की छाया के समान दो ही घड़ी तक सुख देने वाला है। अब तुम बडे़-बड़े यज्ञ करो, मनमाने भोग भोगो और इच्छानुसार दान कर लो। आज से चौदहवें वर्ष में तुम्हें बहुत बड़ी मार-काट का सामना करना पड़ेगा’।
द्रोणाचार्य की यह बात सुनकर,,
धृतराष्ट्र ने कहा ;- ‘विदुर! गुरु द्रोणाचार्य ने ठीक कहा है। तुम पाण्डवों को लौटा लाओ। यदि वे न लौटें तो वे अस्त्र-शस्त्रों से युक्त रथियों और पैदल सेनाओं से सुरिक्षत और भोग सामग्री से सम्पन्न हो सत्कारपूर्वक वन में भ्रमण के लिये जायँ; क्योंकि वे भी मेरे पुत्र ही हैं’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में विदुर, धृतराष्ट्र और द्रोण के वचनविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अब पाण्डव जूए में हारकर वन में चले गये, तब राजा धृतराष्ट्र को बड़ी चिन्ता हुई। महाराज धृतराष्ट्र को लंबी साँस खींचते और अद्विग्नचित्त होकर चिन्ता में डूबे हुए देख संजय ने इस प्रकार कहा।
संजय बोले ;- पृथ्वीनाथ! यह धन-रत्नों से सम्पन्न वसुधा का राज्य पाकर और पाण्डवों को अपने देश से निकालकर अब आप क्यों शोकमग्न हो रहे हैं?
धृतराष्ट्र ने कहा ;- जिन लोगों का युद्धकाल बलवान महारथी पाण्डवों से वैर होगा, वे शोकमग्न हुए बिना कैसे रह सकते हैं?
संजय बोले ;- राजन्! यह आपकी अपनी ही की हुई करतूत है, जिससे यह महान् वैर उपस्थित हुआ है और इसी के कारण सम्पूर्ण जगत् का सगे-सम्बन्धियों सहित विनाश हो जायेगा। भीष्म, द्रोण और विदुर ने बार-बार मना किया तो भी आपके मूढ़ और निर्लज पुत्र दुर्योधन ने सूतपुत्र प्रातिकामी को यह आदेश देकर भेजा कि तुम पाण्डवों की प्यारी पत्नी धर्मचारिणी द्रौपदी को सभा में ले आओ। देवता लोग जिस पुरुष को पराजय देना चाहते हैं, उसकी बुद्धि ही पहले हर लेते हैं, इससे वह सब कुछ उल्टा ही देखने लगता है। विनाशकाल उपस्थित होने पर जब बुद्धि मलिन हो जाती हैं, उस समय अन्याय ही न्याय के समान जान पड़ता है और वह हृदय से किसी प्रकार नहीं निकलता। उस समय उस पुरुष के विनाश के लिये अनर्थ ही अर्थरूप से और अर्थ भी अनर्थ रूप से उसके सामने उपस्थित होते हैं और निश्चय ही अर्थरूप में आया हुआ अनर्थ ही उसे अच्छा लगता है।
काल डंडा या तलवार लेकर किसी का सिर नहीं काटता। काल का बल इतना ही है कि वह प्रत्येक वस्तु के विषय में मनुष्य की विपरीत बुद्धि कर देता है। पांचालराजकुमारी द्रौपदी तपस्विनी है। उसका जन्म किसी मानवी स्त्री के गर्भ से नहीं हुआ है, वह अग्नि के कुल में उत्पन्न हुई और अनुपम सुन्दरी है। वह सब धर्मों को जानने वाली तथा यशस्विनी है। उसे भरी सभा में खींचकर लाने वाले दुष्टों ने भयंकर तथा रोंगटे खड़े कर देने वाले घमासान युद्ध की सम्भावना उत्पन्न कर दी है। अधर्मपूर्वक जूआ खेलने वाले दुर्योधन के सिवा कौन है, जो द्रौपदी को सभा में बुला सके। सुन्दर शरीर वाली पांचाल राजकुमारी स्त्रीधर्म से युक्त (रजस्वला) थी। उसका वस्त्र रक्त से सना हुआ था। वह एक ही साड़ी पहने हुए थी। उसने सभा में आकर पाण्डवों को देखा। उन पाण्डवों के धन, राज्य, वस्त्र और लक्ष्मी सब का अपहरण हो चुका था। वे सम्पूर्ण मनोवाच्छित भोगों से वंचित हो दाससभा को प्राप्त हो गये थे। धर्म के बन्धन में बँधे रहने के कारण वे पराक्रम दिखाने में भी असमर्थ- से हो रहे थे। उनकी यह दशा देखकर कृष्णा क्रोध और दु:ख में डूब गयी। वह तिरस्कार के योग्य कदापि न थी, तो भी कौरवों की सभा में दुर्योधन और कर्ण ने उसे कटू वचन सुनाये। राजन्! ये सारी बातें मुझे महान् दु:ख को निमन्त्रण देने वाली जान पड़ती हैं।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! द्रौपदी के उन दीनतापूर्ण नेत्रों द्वारा यह सारी पृथ्वी दग्ध हो सकती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)
संजय! उसके अभिशाप से मेरे सभी पुत्रों का आज ही संहार हो जाता, परंतु उसने सब कुछ चुपचाप सह लिया। जिस समय रूप और यौवन से सुशोभित होने वाली पाण्डवों की धर्मपरायणा धर्मपत्नी कृष्णा सभा में लायी गयी, उस समय वहाँ उसे देखकर भारतवंश की सभी स्त्रियाँ गान्धारी के साथ मिलकर बड़े भयानक स्वर से विलाप एवं चीत्कार करने लगीं। ये सारी स्त्रियाँ प्रजावर्ग की स्त्रियाँ के साथ मिलकर रात दिन सदा इसी के लिये शोक करती रहती हैं। उस दिन द्रौपदी का वस्त्र खींचे जाने के कारण सब ब्राह्मण कुपित हो उठे थे, अत: सायंकाल हमारे घरों में उन्होंने अग्निहोत्र तक नहीं किया। उस समय प्रलयकालीन मेघों की भयानक गर्जना के समान भारी आवाज के साथ बड़े जोर की आँधी चलने लगी। वज्रपात का-सा अत्यन्त कर्कश शब्द होने लगा। आकाश से उल्काएँ गिरने लगीं तथा राहु ने बिना पर्व के ही सूर्य को ग्रस लिया और प्रजा के लिये अत्यन्त घोर भय उपस्थित कर दिया। इसी प्रकार हमारी रथशालाओं में आग लग गयी और रथों की ध्वजाएँ जलकर खाक हो गयीं, जो भरतवंशियों के लिये अमंगल की सूचना देने वाली थीं। दुर्योधन के अग्निहोत्र गृह में गीदड़ियाँ आकर भयंकर स्वर से हुँआ-हुँआ करने लगी। उनकी आवाज सुनते ही चारों दिशाओं में गधे रेंकने लगे।
संजय! यह सब देखकर द्रोण के साथ भीष्म, कृपाचार्य, सोमदत्त और महामना बाह्लीक वहाँ से उठकर चल गये। तब मैंने विदुर की प्रेरणा से वहाँ यह बात कही,,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘मैं कृष्णा को मनोवाछित वर दूँगा। वह जो कुछ चाहे, माँग सकती है’। तब वहाँ पांचाली ने यह वर मांगा कि पाण्डव लोग दासभाव से मुक्त हो जायँ। मैंने भी रथ और धनुष आदि के सहित पाण्डवों को उनकी समस्त सम्पति के साथ इन्द्रप्रस्थ लौट जाने की आज्ञा दे दी थी। तदनन्तर सब धर्मों के ज्ञाता परम बुद्धिमान विदुर ने कहा,,
विदुर बोले ;- ‘भरतवंशियो! यह कृष्णा जो तुम्हारी सभा में लायी गयी, यही तुम्हारे विनाश का कारण होगा। यह जो पाचालराज की पुत्री है, वह परम उत्तम लक्ष्मी ही है। देवताओं की आज्ञा से ही पांचाली इन पाण्डवों की सेवा करती है। कुन्ती के पुत्र अमर्ष में भरे हुए है। द्रौपदी को जो यहाँ इस प्रकार क्लेश दिया गया है, इसे वे कदापि सहन नहीं करेंगे। सत्यप्रतिज्ञ भगवान श्रीकृष्ण से सुरक्षित महान् धनुर्धर वृष्णिवंशी अथवा महारथी पांचाल वीर भी इसे नहीं सहेंगे। अर्जुन पांचाल वीरों से घिरे हुए अवश्य आयँगे। उनके बीच में महाधनुर्धर महाबली भीमसेन होंगे, जो दण्डपाणि यमराज की भाँति गदा घुमाते हुए युद्ध के लिये आयँगे।
उस समय परम बुद्धिमान अर्जुन के गाण्डीव धनुष की टंकार सुनकर और भीमसेन की गदा का महान् वेग देखकर कोई भी राजा उनका सामना करने में समर्थ न हो सकेंगे। अत: मुझे तो पाण्डवों के साथ सदा शान्ति बनाये रखने के ही नीति अच्छी लगती है। उनके साथ युद्ध करना मुझे पसंद नहीं है। मैं पाण्डवों को सदा ही कौरवों से अधिक बलवान् मानता हूँ। क्योकि महान् तेजस्वी और बलवान् राजा जरासंध को भीमसेन ने बाहुरूपी शस्त्र से ही युद्ध में मार गिराया था। भरतवंशशिरोमणे! अत: पाण्डवों के साथ आप को शान्ति ही बनाये रखनी चाहिये। दोनों पक्षों के लिये यही उचित है। आप नि:शंक होकर यही उपाय करें। महाराज! ऐसा करने पर आप परम कल्याण के भागी होंगे। संजय! इस प्रकार विदुर ने मुझसे धर्म और अर्थयुक्त बातें कही थी; किंतु पुत्र का हित चाहने वाला होकर भी मैंने उनकी बात नहीं मानी।
(इस प्रकार व्यासनिर्मित श्रीमहाभारतनामक एक लाख श्लोकों की सन्हिता में सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में धृतराष्ट्रसंजय-संवादविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(इस प्रकार व्यासनिर्मित श्रीमहाभारतनामक एक लाख श्लोकों की सन्हिता में सभापर्व पुर्ण हुआ )
अब वन पर्व (महाभारत) (Van Parv - Mahabharat) प्रारंभ होता है !!
(नोट :- सभी पर्व के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
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