सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
इकहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"कर्ण और दुर्योधन के वचन, भीमसेन की प्रतिज्ञा, विदुर की चेतावनी और द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति"
कर्ण बोला ;- भद्रे द्रौपदी! दास, पुत्र और सदा पराधीन रहने वाली स्त्री- ये तीनों धन के स्वामी नहीं होते। जिसका पति अपने ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो गया है, ऐसी निर्धन दास की पत्नी और दास का सारा धन- इन सब पर उस दास के स्वामी का ही अधिकार होता है। राजकुमारी! अत: अब तुम राजा दुर्योधन के परिवार में जाकर सबकी सेवा करो। यही कार्य तुम्हारे लिये शेष बचा है, जिसके लिये तुम्हें यहाँ आदेश दिया जा रहा है। आज से धृतराष्ट्र के समस्त पुत्र ही तुम्हारे स्वामी हैं, कुन्ती के पुत्र नहीं। सुन्दरी अब तुम शीघ्र ही दूसरा पति चुन लो, जिससे द्यूतक्रीड़ा के द्वारा तुम्हें फिर किसी को दासी न बनना पड़े। पतियों के प्रति इच्छानुसार बर्ताव तुम-जैसी स्त्री के लिये निन्दनीय नहीं है। दासीपन में तो स्त्री की स्वेच्छाचारिता प्रसिद्ध है ही, अत: यह दास्य भाव ही तुम्हें प्राप्त हो।
यज्ञसेनकुमारी! नकुल हार गये, भीमसेन, युधिष्ठिर, सहदेव तथा अर्जुन भी पराजित होकर दास बने गये। अब तुम दासी हो चुकी हो। वे हारे हुए पाण्डव अब तुम्हारे पति नहीं हैं। क्या कुन्तीकुमार युधिष्ठिर इस जीवन में पराक्रम और पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं समझते, जिन्होंने सभा में इस द्रुपद राजकुमारी कृष्णा को दाँव पर लगाकर जूए का खेल किया?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कर्ण की वह बात सुनकर अत्यन्त अमर्ष में भरे हुए भीमसेन बड़ी वेदना का अनुभव करते हुए उस समय जोर-जोर से अच्छ्वास लेने। वे राजा युधिष्ठिर के अनुगामी होकर धर्म के पाश में बँधे हुए थे। क्रोध से उनके नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे। वे युधिष्ठिर दग्ध करते हुए-से बोले।
भीमसेन ने कहा ;- राजन्! मुझे सूत पुत्र कर्ण पर क्रोध नहीं आता। सचमुच ही दासधर्म वही है, जो उसने बताया है। महाराज! यदि आप इस द्रौपदी को दाँव पर लगाकर जूआ न खेलते तो क्या ये शत्रु हम लोगों से ऐसी बातें कह सकते थे?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भीमसेन का यह कथन सुनकर उस समय राजा दुर्योधन ने मौन एवं अचेत की सी दशा में बैठे हुए युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा,,
दुर्योधन बोला ;- ‘नरेश! भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव आपकी आज्ञा के अधीन हैं। आप ही द्रौपदी के प्रश्न पर कुछ बोलिये। क्या आप कृष्णा को हारी हुई नहीं मानते हैं?’
कुन्तीकुमार युधिष्ठिर से ऐसा कहकर ऐश्वर्य से मोहित हुए दुर्योधन ने इशारे में राधानन्दन कर्ण को बढ़ावा देते और भीमसेन का तिरस्कार-सा करते हुए अपनी जाँघ का वस्त्र हटाकर द्रौपदी की ओर मुस्कराते हुए देखा। उसने केले के खंभे के समान मोटी, समस्त लक्षणों से सुशोभित, हाथी की सूँड के सहश चढ़ाव-उतारवाली और बज्र के समान कठोर अपनी बायीं जाँघ द्रौपदी- की दृष्टि के सामने करके दिखायी। उसे देखकर भीमसेन आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। वे आँखें फाड़-फाड़कर देखते और सारी सभा को सुनाते हुए-से राजओं के बीच में बोले,,
भीम बोले ;- ‘दुर्योधन! यदि महासभा में तेरी इस जाँघ को मैं अपनी गदा से तोड़ डालूँ तो मुझे भीमसेन को अपने पूर्वजों के साथ उन्हीं के समान पुण्य लोकों की प्राप्ति न हो’।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय क्रोध में भरे हुए भीमसेन के रोम-रोम से आग की चिनगारियाँ निकल रही थी; ठीक उसी तरह, जैसे जलते हुए वृक्ष के कोटरों से आग की लपटें निकलती दिखायी देती हैं।
विदुर जी ने कहा ;- धृतराष्ट्र के पुत्रों! देखो, भीमसेन- से यह बड़ा भारी भय उपस्थित हो गया है। इस पर ध्यान दो। निश्चय ही प्रारब्ध की प्रेरणा से ही भरतवंशियों के समक्ष यह महान् अन्याय उत्पन्न हुआ है। धृतराष्ट्र के पुत्रों! तुम लोगों ने मर्यादा का उल्लंघन करके यह जूए का खेल किया है। तभी तो तुम भरी सभा में स्त्री को लाकर उसके लिये विवाद कर रहे हो। तुम्हारे योग और क्षेम दोनों पूर्णतया नष्ट हो रहे हैं। आज सब लोगों को मालूम हो गया कि कौरव पापपूर्ण मन्त्रणा ही करते हैं। कौरवों! तुम धर्म की इस महत्ता को शीघ्र ही समझ लो; क्योंकि धर्म का नाश होने पर सारी सभा को दोष लगता है। यदि जूआ खेलने वाले राजा युधिष्ठिर अपने शरीर को हारे बिना पहले ही इस द्रौपदी को दाँव पर लगाते तो वे ऐसा करने के अधिकारी हो सकते थे। (परंतु वे पहले अपने को हारकर उसे दाँव पर लगाने का अधिकार ही खो बैठे थे, तब उसका मूल्य ही क्या रहा?) अनधिकारी पुरुष जिस धन को दाँव पर लगता है, उसकी हार-जीत मैं वैसी ही मानता हूँ जैसे कोई स्वप्न में किसी धन को हारता या जीतता है। कौरवो! तुम लोग गान्धारराज शकुनि की बात सुनकर अपने धर्म से भ्रष्ट न होओ।
दुर्योधन बोला ;- द्रौपदी! मैं भीम, अर्जुन एवं नकुल-सहदेव की बात मानने के लिए तैयार हूँ। ये सब लोग कह दें कि युधिष्ठिर को तुम्हें हारने का कोई अधिकार नहीं था, फिर तुम दासीपन से मुक्त कर दी जाओगी।
अर्जुन ने कहा ;- कुन्तीनन्दन महात्मा धर्मराज राजा युधिष्ठिर पहले तो हमें दाँव पर लगाने के अधिकारी थे ही, किंतु जब वे अपने शरीर को ही हार गये, तब किस के स्वामी रहे? इस बात पर सब कौरव विचार करें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तत्पश्चात् राजा धृतराष्ट्र अग्रिशाला के भीतर एक गीदड़ आकर जोर-जोर से हुँआ-हुँआ करने लगा। उस शब्द को लक्ष्य करके सब ओर गदहे रेंकने लगे तथा गृध्र आदि भयंकर पक्षी भी चारों ओर अशुभसूचक कोलाहल करने लगे। तत्त्वज्ञानी विदुर तथा सुबलपुत्री गान्धारी ने भी उस भयानक शब्द को सुना। भीष्म, द्रोण, और गौतमवंशीय विद्वान् कृपाचार्य के कानों में भी वह अमंगलकारी शब्द सुन पड़ा। फिर तो वे सभी लोग उच्च स्वर से ‘स्वस्ति’ ‘स्वस्ति’ ऐसा कहने लगे।
तदनन्तर गान्धारी और विद्वान् विदुर ने उस उत्पातसूचक भयंकर शब्द को लक्ष्य करके अत्यन्त दुखी हो राजा धृतराष्ट्र से उसके विषय में निवेदन किया, तब राजा ने इस प्रकार कहा।
धृतराष्ट्र बोले ;- रे मन्दबुद्धि दुर्योधन! तू तो जीता ही मारा गया। दुर्विनीत! तू श्रेष्ठ कुरुवंशियों की सभा में अपने ही कुल की महिला एवं विशेषत: पाण्डवों की धर्म पत्नी को ले आकर उससे पापपूर्ण बातें कर रहा है। ऐसा कहकर बन्धु-बान्धवों को विनाश से बचाकर उनके हित की इच्छा रखने वाले तत्त्वदर्शी एवं मेधावी राजा धृतराष्ट्र ने अपनी बुद्धि से इस दु:खद प्रसंग पर विचार करके पांचालराजकुमारी कृष्णा को सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 27-36 का हिन्दी अनुवाद)
धृतराष्ट्र ने कहा ;- बहु द्रौपदी! तुम मेरी पुत्रवधुओं में सबसे श्रेष्ठ एवं धर्म परायणा सती हो। तुम्हारी जो इच्छा हो, उसके अनुसार मुझसे वर माँग लो।
द्रौपदी बोली ;- भरतवंश शिरोमणे! यदि आप मुझे वर देते हुए तो मैं यही माँगती हूँ कि सम्पूर्ण धर्म का आचरण करने-वाले राजा युधिष्ठिर दास भाव से मुक्त हो जायें। जिससे मेरे मनस्वी पुत्र प्रतिविन्ध्य को अज्ञानवश दूसरे राजकुमार ऐसा न कह सकें कि यह ‘दासपुत्र’ है। जैसे पहले राजकुमार होकर फिर कोई मनुष्य कभी दासपुत्र नहीं हुआ है, उसी प्रकार राजाओं के द्वारा जिसका लालन-पालन हुआ है, उस मेरे पुत्र प्रतिविन्ध्य का दासपुत्र होना कदापि उचित नहीं है।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- कल्याणि! तुम जैसा कहती हो, वैसे ही हो। भद्रे! अब मैं तुम्हें दूसरा वर देता हूँ, वह भी माँग लो। मेरा मन मुझे वर देने के लिये प्रेरित कर रहा है कि तुम एक ही वर पाने के योग्य नहीं हो।
द्रौपदी बोली ;- राजन्! मैं दूसरा वर यह माँगती हूँ कि भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव अपने रथ और धनुष-बाण सहित रहित एवं स्वतन्त्र हो जायँ।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- महाभागे! तुम अपने कुल को आनन्द प्रदान करने वाली हो। तुम जैसा चाहती हो, वैसा ही हो। अब तुम तीसरा वर और माँगो। तुम मेरी सब पुत्र वधुओं में श्रेष्ठ एवं धर्म का पालन करने वाली हो। मैं समझता हूँ, केवल दो घरों से तुम्हारा पूरा सत्कार नहीं हुआ।
द्रौपदी बोली ;- भगवन्! लोभ धर्म का नाशक होता है, अत: अब मेरे मन में वर माँगने का उत्साह नहीं है। राजशिरोमणे! तीसरा वर लेने का मुझे अधिकार भी नहीं है। राजेन्द्र! वैश्य को एक वर माँगने का अधिकार बताया गया है, क्षत्रिय की स्त्री वर माँग सकती है, क्षत्रिय को तीन तथा ब्राह्मण को सो वर लेने का अधिकार है। राजन्! ये मेरे पति दासभाव को प्राप्त होकर भारी विपत्ति में फँस गये थे। अब उससे पार हो गये। इसके बाद कर्मों के अनुष्ठान द्वारा ये लोग स्वयं कल्याण प्राप्त कर लेंगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में द्रौपदीवरलाभ-विषयक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
बहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"शत्रुओं को मारने के लिये उद्यत हुए भीम को युधिष्ठिर शान्त करना"
कर्ण बोला ;- मैंने मनुष्यों में जिन सुन्दरी स्त्रियों के नाम सुने हैं, उनमें से किसी ने भी ऐसा अद्भुत कार्य किया हो, यह मेरे सुनने में नहीं आया। कुन्ती के पुत्र धृतराष्ट्र के पुत्र सभी एक-दूसरे के प्रति अत्यन्त क्रोध से भरे हुए थे, ऐसे समय में यह द्रुपदकुमारी कृष्णा इन पाण्डवों को परम शान्ति देने वाली बन गयी। पाण्डव लोग नौका और आधार से रहित जल में गोते खा रहे थे अर्थात् संकट के अथाह सागर में डूब रहे थे, किंतु यह पांचालराजकुमारी इनके लिये पार लगाने वाली नौका बन गयी।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! कौरवों के बीच में कर्ण की यह बात सुनकर अत्यन्त असहनशील भीमसेन मन-ही-मन बहुत दुखी होकर बोले,,
भीमसेन बोले ;- ‘हाय! पाण्डवों को उबारने वाली एक स्त्री हुई’।
भीमसेन ने फिर कहा ;- महर्षि देवल का कथन है कि पुरुष में तीन प्रकार की ज्योतियाँ हैं- संतान, कर्म और ज्ञान; क्योंकि इन्हीं से सारी प्रजा की सृष्टि हुई। जब यह शरीर प्राणरहित होकर शून्य एवं अपवित्र हो जाता है तथा समस्त बन्धु-बान्धव उसे त्याग देते हैं, तब ये ही ज्ञान आदि तीनों ज्योतियाँ (परलोकगत) पुरुष के उपयोग में आती हैं। धंनजय! हमारी धर्म पत्नी द्रौपदी के शरीर का बलपूर्वक स्पर्श करके दु:शासन ने उसे अपवित्र कर दिया है, इससे हमारी संतानरूप ज्योति नष्ट हो गयी। जो पराये पुरुष से छू गयी, उस स्त्री से उत्पन्न संतान किस काम की होगी?
अर्जुन बोले ;- भारत! (द्रौपदी सती है। उसके विषय में आप ऐसी बात न कहें। दु:शासन ने अवश्य नीचता की है, किंतु) श्रेष्ठ पुरुष नीच पुरुषों द्वारा कही या न कही गयी कड़वी बातों का कभी उत्तर नहीं देते। प्रतिशोध का उपाय जानते हुए भी सत्पुरुष दूसरों के उपकारों को ही याद रखते है, उनके द्वारा किये हुए वैर को नहीं। उन साधु पुरुषों को स्वयं सबसे सम्मान प्राप्त होता रहता है।
भीमसेन ने (राजा युधिष्ठिर से) कहा ;- भरतवंशी राजराजेश्वर! (यदि आपकी आज्ञा हो, तो) यहाँ आये हुए इन सब शत्रुओं मैं यहीं समाप्त कर दूँ। और यहाँ से बाहर निकलकर इनके मूल का भी नाश कर डालूँ। भारत! अब यहाँ विवाद या उत्तर-प्रत्युत्तर करने की हमें क्या आवश्यकता है? मैं आज ही इन सबको यमलोक भेज देता हूँ, आप इस सारी पृथ्वी का शासन कीजिये। अपने छोटे भाइयों के साथ खडे़ हुए भीमसेन उपर्युक्त बात कहकर शत्रुओं की ओर बार-बार देखने लगे; मानों सिंह मृगों के समूह में खड़ा हो उन्हीं की ओर देख रहा हो। अनायास ही महान् पराक्रम कर दिखाने वाले अर्जुन शत्रुओं-की ओर देखने वाले भीमसेन को बार-बार शान्त कर रहे थे, परंतु पराक्रमी महाबाहु भीमसेन अपने भीतर धधकती हुई क्रोधाग्नि से जल रहे थे। राजन्! उस समय क्रोध में भरे हुए भीमसेन की श्रवणादि इन्द्रियों के छिद्रों तथा रोमकूपों से धूम और चिनगारियों-सहित आग की लपटें निकल रही थीं। भौंहें तनी होने के कारण प्रलयकाल में मूर्तिमान् यमराज की भाँति उनके भयानक मुख की ओर देखना भी कठिन हो रहा था। भारत! तब विशाल भुजाओं से सुशोभित होने वाले भीमसेन को अपने एक हाथ से रोकते हुए
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘ऐसा न करो, शान्तिपूर्वक बैठ जाओ’। उस समय महाबाहु भीम के नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे। उन्हें रोककर राजा युधिष्ठिर हाथ जोड़े हुए अपने ताऊ महाराज धृतराष्ट्र के पास गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में भीमसेन का क्रोधविषयक बाहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
तीहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर सारा धन लौटाकर एवं समझा-बुझाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश देना"
युधिष्ठिर बोले ;- राजन्! आप हमारे स्वामी हैं। आज्ञा दीजिये, हम क्या करें। भारत! हम लोग सदा आपकी आज्ञा के अधीन रहना चाहते हैं।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- अजातशत्रो! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी आज्ञा से हारे हुए धन के साथ बिना किसी विघ्न-बाधा के कुशलपूर्वक अपनी राजधानी को जाओ और अपने राज्य का शासन करो। मुझे वृद्ध की यही आज्ञा है। एक बात और है, उस पर भी ध्यान देना। मेरी कही हुई सारी बातें तुम्हारे हित और परम मण्डल के लिये होगी। तात युधिष्ठिर! तुम धर्म की सूक्ष्म गति को जानते हो। महामते! तुममें विनय है। तुमने बडे़-बूढ़ों की उपासना की है। जहाँ बुद्धि है, वहीं शान्ति है। भारत! तुम शान्त हो जाओ। (जो कुछ हुआ है, उसे भूल जाओ।) पत्थर या लोहे पर कुल्हाड़ी नहीं पड़ती। लोग उसे लकड़ी पर ही चलाते हैं। जो पुरुष वैर को याद नहीं रखते, गुणों को ही देखते हैं, अवगुणों को नहीं तथा किसी से विरोध नहीं रखते, वे ही उत्तम पुरुष कहे गये हैं। साधु पुरुष दूसरों के सत्कमों (उपकारादि) को ही याद रखते हैं, उनके किये हुए वैर को नहीं। वे दूसरों की भलाई तो करते हैं; परंतु उनसे बदला लेने-की भावना नहीं रखते। युधिष्ठिर! नीच मनुष्य साधारण बातचीत में भी कटुवचन बोलने लगते हैं। जो स्वयं पहले कटुवचन न कहकर प्रत्युत्तर में कठोर बातें कहते हैं, वे मध्यम श्रेणी के पुरुष हैं। पंरतु जो घीर एवं श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे किसी के कटुवचन बोलने या न बोलने पर भी अपने मुख से कभी कठोर एवं अहितकर बात नहीं निकालते। महात्मा पुरुष अपने अनुभव को सामने रखकर दूसरों के सुख-दु:ख को भी अपने समान जानते हुए उनके अच्छे बर्तावों को ही याद रखते हैं, उनके द्वारा किये हुए वैर-विरोध- को नहीं सत्पुरुष आर्य मर्यादा को कभी भंग नहीं करते। उनके दर्शन-से सभी लोग प्रसन्न हो जाते हैं।
युधिष्ठिर! कौरव-पाण्डवों के समागम में तुमने श्रेष्ठ पुरुषों के समान ही आचरण किया है। तात! दुर्योधन जो कठोर बर्ताव किया है, उसे तुम अपने हृदय में मत लाना। भारत! तुम तो उत्तम गुण ग्रहण करने की इच्छा से अपनी माता गान्धारी तथा यहाँ बैठे हुए मुझ अंधे बूढ़े ताऊ की ओर देखो। मैंने सोच-समझकर भी इस जूए की इसलिये उपेक्षा कर दी- उसे रोकने की चेष्टा नहीं की कि मैं मित्रों और सुहृदों से मिलना चाहता था और अपने पुत्रों के बलाबल को देखना चाहता था। राजन्! जिनके तुम शासक हो और सब शास्त्रों में निपुण परम बुद्धिमान विदुर जिनके मन्त्री हैं, वे कुरुवंशी कदापि शोक के योग्य नहीं हैं। तुममें धर्म है, अर्जुन में धैर्य है, भीमसेन में पराक्रम है और नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव में श्रद्धा एवं विशुद्ध गुरुसेवा का भाव है। अजातशत्रो! तुम्हारा भला हो। अब तुम खाण्डवप्रस्थ को जाओ। दुर्योधन आदि बन्धुओं के प्रति तुम्हें अच्छे भाई का-सा स्नेह भाव रहे और तुम्हारा मन सदा धर्म में लगा रहे।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! राजा धृतराष्ट्र के इस प्रकार कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर पूज्य वर धृतराष्ट्र के आदेश को स्वीकार करके भाईयों के सहित वहाँ से विदा हो गये। वे मेघ के समान शब्द करने वाले रथों पर द्रौपदी के साथ बैठकर प्रसन्न मन से नगरों में उत्तम इन्द्रप्रस्थ को चले दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में धृतराष्ट्रवरदानपूर्वक युधिष्ठिर का इन्द्रप्रस्थगमन-विषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
चौंहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के भाग 1 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अर्जुन की वीरता बतलाकर पुन
द्यूत क्रीड़ा के लिये पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध और उनकी स्वीकृति"
जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन! जब कौरवों को यह मालूम हुआ कि पाण्डवों की रथ और धन के संग्रहसहित खाण्डवप्रस्थ- जाने की आज्ञा मिल गयी, तब उनके मन की अवस्था कैसी हुई?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतकुलषण जनमेजय! परम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को जाने की आज्ञा दे दी, यह जानकर दु:शासन शीघ्र ही अपने भाई भरतश्रेष्ठ दुर्योधन के पास, जो अपने मन्त्रियों (कर्ण एवं शकुनि) के साथ बैठा था, गया और दु:ख से पीड़ित होकर इस प्रकार बोला।
दु:शासन ने कहा ;- महारथियों! आप लोगों को यह मालूम होना चाहिये कि हमने बड़े दु:ख से जिस धनराशि को प्राप्त किया था, उसे हमारा बूढ़ा बाप नष्ट कर रहा है। उसने सारा धन शत्रुओं के अधीन कर दिया। यह सुनकर दुर्योधन, कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि, जो बड़े ही अभिमानी थे, पाण्डवों से बदला लेने के लिये परस्पर मिलकर सलाह करने लगे। फिर सब ने बड़ी उतावली के साथ विचित्रवीर्यनन्दन मनीषी राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर मधुर बाणी में कहा।
दुर्योधन बोला ;- पिताजी! संसार में अर्जुन के समान पराक्रमी धनुर्धर दूसरा कोई नहीं है। वे दो बाहु वाले अर्जुन सहस्र भुजाओं वाले कार्तवीर्य अर्जुन के समान शक्तिशाली हैं। महाराज! अर्जुन ने पहले जो-जो आचिन्त्य साहसपूर्ण कार्य किये हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनिये। राजन्! पहले राजा द्रुपद के नगर में द्रौपदी के स्वयंवर के समय धनुर्धरों में श्रेष्ठ अर्जुन ने वह पराक्रम कर दिखाया था, जो दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है। उस समय महाबली अर्जुन ने सब राजओं को कुपित देख तीखे बाणों के प्रहार से उन्हें जहाँ के तहाँ रोक दिया और स्वयं ही सब पर विजय पायी। कर्ण आदि सभी राजाओं को अपने बल और पराक्रम से युद्ध में जीतकर कुन्तीकुमार अर्जुन ने उस समय शुभलक्षणा द्रौपदी को प्राप्त किया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकाल में भीष्म जी ने सम्पूर्ण क्षत्रिय-समुदाय में अपने बल-पराक्रम से काशिराज की कन्या अम्बिका आदि को प्राप्त किया था।
तदन्दर अर्जुन किसी समय स्वयं तीर्थयात्रा के लिये गये। उस यात्रा में ही उन्होंने नागलोक में पहुँचकर परम सुन्दरी नागकन्या उलूपी को उसके प्रार्थना करने पर विधिपूर्वक पत्नी रूप में ग्रहण किया। फिर क्रमश: अन्य तीर्थों में भ्रमण करते हुए दक्षिण दिशा में जाकर गोदावरी, वेष्णा तथा कावेरी आदि नदियों में स्थान किया। दक्षिण समुद्र में तट पर कुमारी तीर्थ में पहुँचकर अर्जुन ने अत्यन्त शौर्य का परिचय देते हुए ग्राहरूपधारिणी पाँच अप्सराओं का बलपूर्वक उद्धार किया। तत्पश्चात कन्याकुमारी तीर्थ की यात्रा करके वे दक्षिण से लौट आये और अनेक तीर्थों में भ्रमण करते हुए द्वारकापुरी जा पहुँचे। वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से अर्जुन ने सुभद्रा को लेकर रथ पर बिठा लिया और अपनी नगरी इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान किया। महाराज! अर्जुन के साहस का और भी वर्णन सुनिये; उन्होंने अग्निदेव को उनके माँगने पर खाण्डवन वन समर्पित किया था। राजन्! उनके द्वारा उपलब्ध होते ही भगवान अग्निदेव ने उस वन को अपना आहार बनाना आरम्भ किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के भाग 2 का हिन्दी अनुवाद)
राजेन्द्र! जब अग्निदेव खाण्डववन को जलाने लगे, उस समय (अग्निदेव से) रथ, धनुष, बाण और कवच आदि लेकर महान् बल तथा प्रभाव से युक्त सव्यवसाची अर्जुन अपने पराक्रम से उसकी रक्षा करने लगे। खाण्डववन के दाह का समाचार सुनकर देवराज इन्द्र ने मेघों को आग बुझाने की आज्ञा दी। उनकी प्रेरणा से मेघों ने बड़ी भारी वर्षा प्रारम्भ की। यह देख अर्जुन ने आकाशगामी बाण समूहों द्वारा सब ओर से बादलों को रोक दिया। वह एक अद्भुत-सी घटना हुई। मेघों को रोका गया सुनकर इन्द्रप्रस्थ कुपित हो उठे। श्वेत वर्ण वाले ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो वे समस्तन देवताओं के साथ खाण्डववन की रक्षा के निर्मित्त अर्जुन से युद्ध करने के लिये गये। भारत! उस समय रुद्र, मरुद्रण, वसु, अश्विनी कुमार, आदित्य, साध्यगण, विश्वेदेव, गन्धर्व तथा अन्य देवगण अपने-अपने तेज से देदीप्य मान एवं अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न हो युद्ध के लिये गये। वे सभी देवेश्वर अर्जुन को मार डालने की इच्छा से उन पर टूट पड़े।
भारतश्रेष्ठ! कुन्तीकुमार अर्जुन के साथ बार-बार युद्ध करके जब देवताओं ने यह समझ लिया कि इन्हें समरांगण में पराजित करना असम्भव है, तब वे अर्जुन के बाणों से अत्यन्त-पीड़ित होने के कारण युद्ध से विरत हो गये (भाग खडे़ हुए)। महाराज! प्रलयकाल में जो विनाशसूचक अत्यन्त भयंकर अपशकुन दिखायी देते हैं, वे सभी उस समय प्रत्यक्ष दीखने लगे। तदन्दर सब देवताओं ने एक साथ अर्जुन पर धावा किया; परंतु उस देवसेना को देखकर अर्जुन मन में घबराहट नहीं हुई। वे तुरंत ही तीखे प्राण हाथ में लेकर इन्द्र और देवताओं की ओर देखते हुए प्रलयकाल में सर्वसंहार के काल की भाँति अविचल भाव से खड़े हो गये। राजन्! अर्जुन को मानव समझकर इन्द्र सहित सब देवता उन पर बाण समूहों की बौछार करने लगे। परंतु महातेजस्वीे पार्थ ने शीघ्रतापूर्वक गाण्डीव धनुष लेकर अपने बाण समूहों की वर्षा से देवताओं के बाणों को रोक दिया। पिता जी! यह देख समस्त महाबली देवता पुन: कुपित हो गये और उस युद्ध में मरणधर्मा अर्जुन पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की बौछार करने लगे।
अर्जुन ने अपने तीखे बाणों द्वारा देवताओं के छोड़े हुए उन अस्त्र-शस्त्रों के आकाश में ही दो-दो तीन-तीन टुकड़े कर दिये। फिर अधिक क्रोध में भरकर अर्जुन ने अपने धुनष को इस प्रकार खींचा कि वह मण्डलकार दिखायी देने लगा ओर उसके द्वारा सब ओर तीखे सायकों की वृष्टि करके सब देवताओं को घायल कर दिया। देवताओं को युद्ध से भागा हुआ देख महातेजस्वी इन्द्र ने अत्यन्त कुपित हो पार्थ पर बाणों की झड़ी लगा दी। पार्थ ने मनुष्य होकर भी देवताओं के स्वामी इन्द्र को अपने सायकों से बींध डाला। तब देवेश्वर ने अर्जुन पर पत्थरों की वर्षा आरम्भ की। यह देख अर्जुन अत्यन्त अमर्ष में भर गये और अपने बाणों द्वारा उन्होंने इन्द्र की उस पाषाण-वर्षा का निवारण कर दिया। तदनन्तर देवराज इन्द्र ने सव्यसाची अर्जुन के पराक्रम की परीक्षा लेने के लिये पुन: उस पाषाण वर्षा को पहले से भी अधिक बढ़ा दिया। यह देख पाण्डुनन्दन अर्जुन ने इन्द्र का हर्ष बढ़ाते हुए उस अत्यन्त वेगशालिनी पाषाण वर्षा को अपने बाणों से विलीन कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के भाग 3 का हिन्दी अनुवाद)
तब इन्द्र ने श्वेतवाहन अर्जुन को कुचल डालने की इच्छा से वृक्षों सहित अंगद नामक पर्वत (जो मन्दराचल का एक शिखर है) को दोनों हाथों से उठाकर उनके ऊपर छोड़ दिया। यह देख अर्जुन ने अग्नि के समान प्रज्वलित और सीधे लक्ष्य तक पहुँचने वाले सहस्रों वेगशाली बाणों द्वारा उस पर्वतराज को खण्ड-खण्ड कर दिया। साथ ही पार्थ ने उस युद्ध में बलपूर्वक बाण मारकर इन्द्र को स्तब्ध कर दिया। महाराज! तदनन्तर तेज और बल से सम्पन्न वीर धनंजय को युद्ध में जीतना असम्भव जानकर इन्द्र को अपने पुत्र के पराक्रम से वहाँ बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। राजन्! उस समय वहाँ स्वर्ग का कोई भी महायशस्वी वीर, चाहे साक्षात् प्रजापति ही क्यों न हों, ऐसा नहीं था, जो अर्जुन को जीतने में समर्थ हो सके।
तदनन्तर महातेजस्वी अर्जुन अपने बाणों से यक्ष, राक्षस और नागों को मारकर उन्हें लगातार प्रज्वलित अग्नि में गिराने लगे। स्वर्गवासी देवताओं सहित इन्द्र को अर्जुन ने युद्ध से विरत कर दिया, यह देख उस समय कोई भी उनकी ओर दृष्टिपात नहीं कर पाते थे। भारत! जैसे पूर्वकाल में गरुड़ ने अमृत के लिये देवताओं को जीत लिया था, उसी प्रकार कुन्तीपुत्र अर्जुन ने भी देवताओं को जीतकर खाण्डवचन के द्वारा अग्निदेव को तृप्त किया। इस प्रकार पार्थ ने अपने पराक्रम से अग्निदेव को तृप्त करके उनसे रथ, ध्वजा, अश्व, दिव्यास्त्र, उत्तम धनुष गाण्डीव तथा अक्षय बाणों से भरे हुए दो तूणीर प्राप्त किये। इनके सिवा अनुपम यश और मयासुर से एक सभावचन भी उन्हें प्राप्त हुआ। राजेन्द्र! अर्जुन के पराक्रम की कथा अभी और सुनिये। उन्होंने उत्तर दिशा में जाकर नगरों और पर्वतों सहित जम्बूद्वीप के नौ वर्षों पर विजय पायी। भरतश्रेष्ठ! उन्होंने समस्त जम्बूद्वीप को वश में करके सब राजओं को बलपूर्वक जीत लिया और सब कर लगाकर उनसे सब प्रकार के रत्नों की भेट ले वे पुन: अपनी पुरी को लौट आये। भारत! तदनन्तर अर्जुन ने अपने बड़े भाई महात्मा धर्मराज युधिष्ठिर से क्रतु श्रेष्ठ राजसूर्य का अनुष्ठान करवाया।
पिता जी! इस प्रकार अर्जुन ने पूर्वकाल में ये तथा और भी बहुत-से पराक्रम कर दिखाये हैं। संसार में कहीं कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो बल और पराक्रम में अर्जुन की समानता कर सके। देवता, दानव, यक्ष, पिशाच, नाग, राक्षस एवं भीष्म, द्रोण आदि समस्त कौरव महारथी, भूमण्डल के सम्पूर्ण नरेश तथा अन्य धनुर्धर वीर- ये तथा अन्य बहुत-से शूरवीर युद्ध भूमि में अकेले अर्जुन को चारों ओर से घेरकर पूरी सावधानी के साथ खड़े हो जायँ, तो भी उनका सामना नहीं कर सकते। कुरुश्रेष्ठ! मैं साधु शिरोमणि अर्जुन के विषय में नित्य-निरन्तर चिन्तन करते हुए उनके भय से अत्यन्त उद्विग्र हो जाता हूँ। पिता जी! मुझे प्रत्येक घर में सदा हाथ में पाश लिये यमराज की भाँति गाण्डीव धनुष पर बाण चढ़ाये अर्जुन दिखायी देते हैं। भारत! मैं इतना डर गया हूँ कि मुझे सहस्रों अर्जुन दृष्टिगोचर होते हैं। यह सारा नगर मुझे अर्जुनरूप ही प्रतीत होता है। भारत! मैं एकान्त में अर्जुन को ही देखता हूँ। स्वप्न में भी अर्जुन को देखकर मैं अचेत और उद्भ्रान्त हो उठता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के भाग 4 का हिन्दी अनुवाद)
मेरा हृदय अर्जुन से इतना भयभीत हो गया है कि अश्व, अर्थ और अज आदि अकारादि नाम मेरे मन में त्रास उत्पन्न कर देते हैं। तात! अर्जुन के सिवा शत्रुपक्ष के दूसरे किसी वीर से मुझे डर नहीं लगता है। महाराज! मेरा विश्वास है कि अर्जुन युद्ध में प्रह्लाद अथवा बलि को भी मार सकते है; अत: उनके साथ किया हुआ युद्ध हमारे सैनिकों को ही संहार का कारण होगा। मैं अर्जुन के प्रभाव को जानता हूँ। इसीलिये सदा दु:ख के भार से दबा रहता हूँ। जैसे पूर्वकाल में दण्ड कारण्यवासी महापराक्रमी श्रीरामचन्द्र जी से मारीच को भय हो गया था, उसी प्रकार अर्जुन से मुझे भय हो रहा है।
धृतराष्ट्र बोले ;- बेटा! अर्जुन के महान् पराक्रम को तो मैं जानता ही हूँ। इस पराक्रम का सामना करना अत्यन्त कठिन है। अत: तुम वीर अर्जुन का कोई अपराध न करो। उनके साथ द्यूतक्रीड़ा, शस्त्रयुद्ध अथवा कटु वचन का प्रयोग कभी न करो; क्योंकि इन्हीं के कारण उनका तुम लोगों के साथ विवाद हो सकता है। अत: बेटा! तुम अर्जुन के साथ सदा स्नेहपूर्ण बर्ताव करो। भारत! जो मनुष्य इस पृथ्वी पर अर्जुन के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रखते हुए उनसे सद्व्यवहार करता है, उसे तीनों लोकों में तनिक भी भय नहीं है; अत: वत्स! तुम अर्जुन के साथ सदा स्नहेपूर्ण बर्ताव करो।
दुर्योधन बोला ;- कुरुश्रेष्ठ! जूए में हम लोगों ने अर्जुन के प्रति छल-कपट का बर्ताव किया था, अत: आप किसी दूसरे उपाय से उन्हें मार डालें। इसी से हम लोगों का सदा भला होगा।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- भारत! पाण्डवों के प्रति किसी अनुचित उपाय का प्रयोग नहीं करना चाहिये। बेटा! तुमने उन सबको मारने के लिये पहले बहुत- से उपाये किये हैं। कुन्ती के पुत्र तुम्हारे उन सभी प्रयत्नों का उल्लंघन करके बहुत बार आगे बढ़ गये हैं; अत: वत्स! यदि तुम अपने कुल और आत्मीय-जनों की जीवनरक्षा के लिये किसी हितकर उपाय का अवलम्बन करना चाहते हो तो मित्र, बन्धु-बान्धव तथा भाइयों सहित तुम अर्जुन के साथ सदा स्नेहपूर्ण बर्ताव करो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- धृतराष्ट्र की यह बात सुनकर राजा दुर्योधन दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार करके विधाता से प्रेरित हो इस प्रकार बोला,,
दुर्योधन बोला ;- राजन्! देवगुरु विद्वान् बृहस्पति जी ने इन्द्र को नीति का उपदेश करते हुए जो बात नहीं है, उसे शायद आपने नहीं सुना है। शत्रुसूदन! जो आपका अहित करते हैं, उन शत्रुओं को बिना युद्ध के अथवा युद्ध करके- सभी उपायों से मार डालना चाहिये। महाराज! यदि हम पाण्डवों के धन से सब राजाओं का सत्कार करके उन्हें साथ ले पाण्डवों युद्ध करें, तो हमारा क्या बिगड़ जायेगा? क्रोध में भरकर काटने के लिये उद्यत हुए विषधर सर्पों को अपने गले में लटकाकर अथवा पीठ पर चढ़ाकर कौन मनुष्य उन्हें उसी अवस्था में छोड़ सकता है? तात! अस्त्र-शस्त्रों को लेकर रथ में बैठे हुए पाण्डव कुपित होकर क्रुद्ध विषधर सर्पों की भाँति आप के कुल का संहार कर डालेंगे। हमने सुना है, अर्जुन कवच धारण करके दो उत्तम तूणीर पीठ पर लटकाये हुए जाते हैं। वे बार-बार गाण्डीव धनुष हाथ में लेते हैं और लम्बी साँसें खींचकर इधर-उधर देखते हैं। इसी प्रकार भीमसेन शीघ्र ही अपना रथ जोतकर भारी गदा उठाये बड़ी उतावली के साथ यहाँ से निकलकर गये हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के भाग 5 का हिन्दी अनुवाद)
नकुल अर्धचन्द्र विभूषित ढाल एवं तलवार लेकर जा रहे हैं। सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर ने भी विभित्र चेष्टाओं-द्वारा यह व्यक्त कर दिया है कि वे लोग क्या करना चाहते हैं? वे सब लोग अनेक शस्त्र आदि सामग्रियों से सम्पन्न रथों पर बैठकर शत्रुपक्ष के रथियों का संहार करने के उदेश्य से सेना एकत्र करने के लिये गये हैं। हमने उनका तिरस्कार किया है, अत: वे इसके लिये हमें कभी क्षमा न करेंगे। द्रौपदी को जो कष्ट दिया गया है, उसे उनमें से कौन चुपचाप सह लेगा? पुरुषश्रेष्ठ! आपका भला हो, हम चाहते हैं कि वनवास की शर्त रखकर पाण्डवों के साथ फिर एक बार जूआ खेलें। इस प्रकार इन्हें हम अपने वश में कर सकेंगे। जूए में हार जाने पर वे या हम मृगचर्म धारण करके महान् वन में प्रवेश करें और बारह वर्ष तक वन में ही निवास करें। तेरहवें वर्ष में लोगों की जानकारी से दूर किसी नगर में रहें। यदि तेरहवें वर्ष किसी की जानकारी में आ जायँ तो फिर दुबारा बारह वर्ष तक बनवास करें। हम हारें तो हम ऐसा करें और उनकी हार हो तो वे। इसी शर्त पर फिर जूए का खेल आरम्भ हो। पाण्डव पासे फेंककर जूआ खेलें।
भरतकुलभूषण महाराज! यही हमारा सबसे महान् कार्य है। ये शकुनि मामा विद्यासहित पासे फेंकने की कला को अच्छी तरह जानते हैं। (हमारी विजय होने पर) हम लोग बहुत-से मित्रों का संग्रह करके बलशाली, दुर्धर्ष एवं विशाल सेना का पुरस्कार आदि के द्वारा सत्कार करते हुए इस राज्य पर अपनी जड़ जमा लेंगे। यदि वे तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास की प्रतिज्ञा पूर्ण कर लेंगे तो हम उन्हें युद्ध में परास्त कर देंगे। शत्रुओं को संताप देने-वाले नरेश! आप हमारे इस प्रस्ताव को पसंद करें।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- बेटा! पाण्डव लोग दूर चले गये हों, तो भी तुम्हारी इच्छा हो, तो उन्हें तुरंत बुला लो। समस्त पाण्डव यहाँ आयें और इस नये दाँव पर फिर जूआ खेलें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब द्रोणाचार्य, सोमदत्त, बाह्लीक, कृपाचार्य, विदुर, अश्वत्थामा, पराक्रमी युयुत्सु, भूरिश्रवा, पितामह भीष्म तथा महारथी विकर्ण सब ने एक स्वर से इस निर्णय का विरोध करते हुए कहा,,
सभी बोले ;- ‘अब जूआ नहीं होना चाहिये, तभी सर्वत्र शान्ति बनी रह सकती है'। भावी अर्थ को देखने और समझने वाले सुहृद अपनी अनिच्छा प्रकट करते ही रहे गये; किंतु दुर्योधन आदि पुत्रों के प्रेम में धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को बुलाने का आदेश दे ही दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में युधिष्ठिरप्रत्यानयन-विषयक चौंहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)
पचहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"गान्धारी की धृतराष्ट्र को चेतावनी और धृतराष्ट्र का अस्वीकार करना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय भावी अनिष्ट की आशंका से धर्मपरायणा गान्धारी पुत्र स्नेहवश शोक से कातर हो उठी और राजा धृतराष्ट्र से इस प्रकार बोली,,
गान्धारी बोली ;- ‘आर्यपुत्र! दुर्योधन के जन्म लेने पर परम बुद्धिमान विदुर जी ने कहा था,,- यह बालक अपने कुल का नाश करने-वाला होगा; अत: इसे त्याग देना चाहिये। भारत! इसने जन्म लेते ही गीदड़ की भाँति ‘हुँआ-हुँआ’ का शब्द किया था; अत: यह अवश्य ही इस कुल का अन्त करने वाला होगा। कौरवों! आप लोग भी इस बात को अच्छी तरह समझ लें। भरतकुलतिलक! आप अपने ही दोष से इस कुल को विपत्ति महासागर में न डुबाइये। प्रभो! इन उदण्ड बालकों की हाँ में हाँ न मिलाइये। इस कुल के भयंकर विनाश में स्वयं ही कारण न बनिये। भरतश्रेष्ठ! बँधे हुए पुल को कौन तोडे़गा? बुझी हुई वैर की आग को फिर कौन भड़कायेगा? कुन्ती के शान्ति परायण पुत्रों को फिर कुपित करने का साहस कौन करेगा?
अजमीढ़-कुल के रत्न! आप सब कुछ जानते और याद रखते हैं, तो भी मैं पुन: आपको स्मरण दिलाती रहूँगी। राजन्! जिसकी बुद्धि खोटी है, उसे शास्त्र भी भला-बुरा कुछ नहीं सिखा सकता। मन्दबुद्धि बालक वृद्धों जैसा विवेकशील किसी प्रकार नहीं हो सकता। आपके पुत्र आपके ही नियन्त्रण में रहे, ऐसी चेष्टा कीजिये। ऐसा ने हो कि वे सभी मर्यादा का त्याग करके प्राणों से हाथ धो बैठें और आपको इस बुढ़ापे में छोड़कर चल बसें। इसलिये आप मेरी बात मानकर इस कुलंगार दुर्योधन को त्याग दें। महाराज! आपको जो करना चाहिये था, वह आपने पुत्र स्नेहवश नहीं किया। अत: समझ लीजिये, उसी का यह फल प्राप्त हुआ, जो समूचे कुल के विनाश का कारण होने जा रहा है। शान्ति, धर्म तथा उत्तम नीति से युक्त जो आपकी बुद्धि थी, वह बनी रहे। आप प्रमाद मत कीजिये। क्रूरतापूर्ण कर्मों से प्राप्त की हुई लक्ष्मी विनाशशील होती है और कोमलतापूर्ण बर्ताव से बढ़ी हुई धन-सम्पति पुत्र पौत्रों तक चली जाती है’।
तब महाराज धृतराष्ट्र ने धर्म पर दृष्टि रखने वाली गान्धारी से कहा- ‘देवि! इस कुल का अन्त भले ही हो जाय, परंतु मैं दुर्योधन को रोक नहीं सकता। ये सब जैसा चाहते हैं, वैसा ही हो। पाण्डव लौट आयें और मेरे पुत्र उनके साथ फिर जूआ खेंलें।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में गांधारीवाक्य-विषयक पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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