सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के पहले अध्याय से पाचवें अध्याय तक (From the first chapter to the fifth chapter of the entire Mahabharata (van Parva))



सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (अरण्य पर्व)

पहला अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) प्रथम अध्या के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"पाण्‍डवों का वनगमन, पुरवासियों द्वारा उनका अनुगमन और युधिष्ठिर के अनुरोध करने पर उनमें से बहुतों का लौटना तथा पाण्‍डवों का प्रमाण कोटि तीर्थ में रात्रिवास"

‘अंर्तयामी नारायण स्‍वरूप भगवान श्रीकृष्‍ण, नरस्‍वरूप नरश्रेष्‍ठ अर्जुन, भगवती सरस्‍वती और महर्षि वेदव्‍यास को नमस्‍कार करके जय का पाठ करना चाहिए।

   जनमेजय ने पूछा ;- प्रियवर! मन्त्रियों सहित धृतराष्‍ट्र के दुरात्‍मा पुत्रों ने जब इस प्रकार कष्‍ट पूर्वक कुन्‍ती कुमारों को जुए में हराकर कुपित कर दिया और घोर वैर की नींव डालते हुए उन्‍हें अत्‍यन्‍त कठोर बातें सुनायी, तब मेरे पूर्व पितामह युधिष्ठिर आदि कुरुवंशियों ने क्‍या किया?

   तथा जो सहसा ऐश्‍वर्य से वंचित हो जाने के कारण महान दु:ख में पड़ गये थे, उन इन्‍द्र के तुल्‍य तेजस्‍वी पाण्‍डवों ने वन में किस प्रकार विचरण किया?

उस भारी संकट में पड़े हुए पाण्‍डवों के साथ वन में कौन-कौन गये थे? वन में वे किस आचार-व्‍यवहार से रहते थे? क्‍या खाते थे और उन महात्‍माओं का निवास स्‍थान कहाँ था?

   महामुने! ब्राह्मण श्रेष्ठ! शत्रुओं का संहार करने वाले उन शूरवीर महारथियों के बारह वर्ष वन में किस प्रकार बीते?

तपोधन! संसार की समस्‍त सुन्‍दरियों में श्रेष्‍ठ, पवित्रता एवं सदा सत्‍य बोलने वाली वह महाभागी राजकुमारी द्रौपदी, जो दु:ख भोगने के योग्‍य कदापी नहीं थी, वनवास के भयंकर कष्‍ट को कैसे सह सकी? यह सब मुझे विस्‍तार पूर्वक बतलाइये।

ब्राह्मण! मैं आपके द्वारा कहे जाते हुए महान पराक्रम और तेज से सम्‍पन्‍न पाण्‍डवों के चरित्र को सुनना चाहता हूँ। इसके लिए मेरे मन में अत्‍यन्‍त कौतूहल हो रहा है।

वैशम्‍पायनजी ने कहा ;- राजऩ! इस प्रकार मंत्रियों सहित दुरात्‍मा धृतराष्‍ट्र पुत्रों द्वारा जुए में पराजित करके क्रुद्ध किये हुए कुन्‍ती कुमार हस्तिनापुर से बाहर निकले। वर्धमानपुर की दिशा में स्थित नगर द्वार से निकलकर शस्‍त्रधारी पाण्‍डवों ने द्रौपदी के साथ उत्‍तराभिमुख होकर यात्रा आरम्‍भ की।इन्‍द्रसेन यदि चौदह से अधिक सेवक सारी स्त्रियों को शीघ्रगामी रथों पर बिठाकर उनके पीछे-पीछे चले।

पाण्‍डव वन की ओर गये हैं, यह जानकर हस्‍तिनापुर के निवासी शोक से पीडित हो बिना किसी भय के भीष्‍म, विदुर, द्रोण और कृपाचार्य की बारंबार निंदा करते हुए एक-दूसरे से मिलकर इस प्रकार कहने लगे। 

  पुरवासी बोले ;- अहो! हमारा यह समस्‍त कुल, हम तथा हमारे घर-द्वार अब सुरक्षित नहीं है; क्‍योंकि यहाँ पापात्‍मा दुर्योधन सबल पुत्र शकुनि से पालित हो कर्ण और दु:शासन की सम्‍मति से इस राज्‍य का शासन करना चाहता है।  जहाँ पापियों की ही सहायता से यह पापाचारी राज्‍य करना चाहता है, वहाँ हम लोगों के कुल, आचार, धर्म और अर्थ भी नहीं रह सकते, फिर सुख तो रह ही कैसे सकता है।

  दुर्योधन गुरुजनों से द्वेष रखने वाला है। उसने सदाचार और पाण्‍डवों जैसे सुहृदों को त्‍याग दिया है। वह अर्थलोलुप, अभिमानी, नीच और स्‍वभावत: ही निष्‍ठुर है। जहाँ दुर्योधन राजा है, वहाँ की सारी पृथ्‍वी नहीं के बराबर है, अत: यही ठीक होगा कि हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ पाण्‍डव जा रहे हैं। पाण्‍डवगण दयालु, महात्‍मा, जितेन्द्रिय, शत्रुविजयी, लज्‍जाशील, यशस्‍वी, धर्मात्‍मा तथा सदाचार परायण हैं।

वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;– ऐसा कहकर वे पुरवासी पाण्‍डवों के पास गये और उन कुन्‍तीकुमारों तथा माद्री पुत्रों से मिलकर वे सबके-सब हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले। ‘पाण्‍डवो! आप लागों का कल्‍याण हो। हम आप के वियोग से बहुत दु:खी हैं। आप लोग हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हैं? आप जहाँ जायेंगे, वहीं हम भी आप के साथ चलेंगे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद)

  ‘निर्दयी शत्रुओं ने आप को अधर्मपूर्वक जुए में हराया है, यह सुनकर हम सब लोग अत्‍यन्‍त उद्विग्‍न हो उठे हैं। आप लोग हमारा त्‍याग न करें; क्‍योंकि हम आपके सेवक हैं, प्रेमी हैं, सुहृद हैं और सदा आपके प्रिय एवं हित में संलग्‍न रहने वाले हैं। आपके बिना दस दुष्‍ट राजा के राज्‍य में रहकर हम नष्‍ट होना नहीं चाहते। 

‘नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों! शुभ और अशुभ आश्रय में रहने पर वहाँ का संसर्ग मनुष्‍य में गुण दोषों की सृष्टि करता है, उनका हम वर्णन करते हैं,सुनिये। ‘जैसे फूलों के संसर्ग में रहने पर उनकी सुगंध वस्‍त्र, जल, तिल और भूमि को सुवासित कर देती है, उसी प्रकार संसर्गजति गुण भी अपना प्रभाव डालते हैं।

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  मूढ़ मनुष्‍यों से मिलना-जुलना मोहजाल की उत्‍पत्ति का कारण होता है। इसी प्रकार साधु महात्‍माओं का संग करना प्रतिदिन धर्म की प्राप्ति कराने वाला है। ‘इसलिए विद्वानों, वृद्ध पुरुषों तथा उत्‍तम स्‍वभाव वाले शान्ति परायण तपस्‍वी सत्‍पुरुषों का संग करना चाहिये। 

‘जिन पुरुषों के विद्या, जाति और कर्म-ये तीनों उज्ज्वल हों, उनका सेवन करना चाहिये; क्‍योंकि उन महापुरुषों के साथ बैठना शास्‍त्रों के स्‍वध्‍याय से भी बढ़्कर है। हम लोग अग्नि-होत्र आदि शुभ कर्मों का अनुष्‍ठान नहीं करते, तो भी पुण्‍यात्‍मा साधु पुरुषों के समुदाय में रहने से हमें पुण्‍य की ही प्राप्ति होगी। इसी प्रकार पापी जनों के सेवन से हम पाप के ही भागी होंगे। 

‘दुष्‍ट मनुष्‍यों के दर्शन, स्‍पर्श, उनके साथ वार्तालाप अथवा उठने-बैठने से धार्मिक आचारों की हानि होती है। इसलिए वैसे मनुष्‍यों को कभी सिद्धि प्राप्‍त नहीं होती। 

'नीच पुरुषों का साथ करने से मनुष्‍यों की बुद्धि नष्‍ट होती है। मध्‍यम श्रेणी के मनुष्‍यों का साथ करने से मध्‍यम होती है और उत्‍तम पुरुषों का संग करने से उत्तरोत्तर श्रेष्‍ठ होती है।'

‘उत्‍तम, प्रसिद्ध एवं विशेषत: धर्मिष्‍ठ मनुष्‍यों ने लोक में धर्म, अर्थ और काम की उत्‍पत्ति के हेतुभूत जो वेदोक्‍त गुण बताये हैं वे ही लोकाचार में प्रकट होते हैं- लोगों द्वारा काम में लाये जाते हैं और शिष्‍ट पुरुष उन्‍हीं का आदर करते हैं। ‘वे सभी सद्गुण पृथक-पृथक और एक साथ आप लोगों में विद्यमान हैं, अत: हम लोग कल्‍याण की इच्‍छा से आप जैसे गुणवान पुरुषों के बीच में रहना चाहते हैं।'

युधिष्ठिर ने कहा ;– हम लोग धन्‍य हैं; क्‍योंकि ब्राह्मण आदि प्रजा वर्ग के लोग हमारे प्रति स्‍नेह और करुणा के पाश में बँधकर जो गुण हमारे अंदर नहीं हैं, उन गुणों को भी हम में बतला रहे हैं।’ भाइयों सहित मैं आप सब लोगों से कुछ निवेदन करता हूँ। आप लोग हम पर स्‍नेह और कृपा करके उसके पालन से मुख न मोड़ें।  हमारे पितामह भीष्‍म, राजा धृतराष्‍ट्र, विदुरजी, मेरी माता तथा प्राय: अन्‍य सगे संबन्‍धी भी हस्तिनापुर में ही हैं। 

वे सब लोग आप लोगों के साथ ही शोक और संताप से व्‍याकुल हैं, अत: आप लोग हमारे हित की इच्‍छा रखकर उन सबका यत्‍नपूर्वक पालन करें। अच्‍छा,अब लौट जाइये, आप लोग बहुत दूर चले आये हैं। मैं अपनी शपथ दिलाकर अनुरोध करता हूँ कि आप लोग मेरे साथ न चलें। मेरे स्‍वजन आपके पास धरोहरों के रूप में हैं। उनके प्रति आप लोगों के हृदय में स्‍नेह भाव रहना चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 38-46 का हिन्दी अनुवाद)

मेरे हृदय में स्थित सब कार्यों में यही कार्य सबसे उत्‍तम है, आपके द्वारा इसके किए जाने पर मुझे महान संतोष प्राप्‍त होगा और इसी से मेरा सत्‍कार भी हो जायेगा। 

वैशम्‍पायनजी कहते है ;– जनमेजय! धर्मराज के द्वारा इस प्रकार विनयपूर्वक अनुरोध किये जाने पर उन समस्‍त प्रजा ने ‘हां! महाराज! ' ऐसा कहकर एक ही साथ भयंकर आर्तनाद किया। कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर के गुणों का स्‍मरण करके प्रजावर्ग के लोग दु:ख से पीड़ित और अत्‍यन्‍त आतुर हो गये। उनकी पाण्‍डवों के साथ जाने की इच्‍छा पूर्ण नहीं हो सकी। वे केवल उनसे मिलकर लौट आये।

पुरवासियों के लौट जाने पर पाण्‍डवगण रथों पर बैठकर गंगाजी के किनारे प्रमाणकोटि नामक वट के समीप आये। संध्‍या होते-होते उस वट के निकट पहुँचकर शूरवीर पाण्‍डवों ने पवित्र जल का स्‍पर्श करके वह रात वहीं व्‍यतीत की। 

दु:ख से पीडित हुए वे पाँचों पाण्‍डुकुमार उस रात में केवल जल पीकर ही रह गये। कुछ ब्राह्मण लोग भी इन पाण्‍डवों के साथ स्‍नेहवश वहाँ तक चले आये थे। उनमें से कुछ साग्नि थे और कुछ निरग्नि। उन्‍होंने अपने शिष्‍यों तथा भाई-बंधुओं को भी साथ ले लिया था। वेदों का स्वाध्याय करने वाले उन ब्राह्मणों से घिरे हुए राजा की बड़ी शोभा हो रही थी। 

संध्‍या काल की नैसर्गिक शोभा से रमणीय तथा राक्षस, पिशाच आदि के संचरण का समय होने से अत्‍यंत भयंकर प्रतीत होने वाले उस मुहूर्त में अग्नि प्रज्‍वलित करके वेद मंत्रों के घोषपूर्वक अग्निहोत्र करने के बाद उन ब्राह्मणों में परस्‍पर संवाद होने लगा।। हंस के समान मधुर स्‍वर में बोलने वाले उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने कुरुकुलरत्‍न राजा युधिष्ठिर को आश्‍वासन देते हुए सारी रात उनका मनोरंजन किया। 

(इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अरण्य पर्व में पुरवासियों के लौटने से संबंध रखने वाला पहला अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (अरण्य पर्व)

दूसरा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"धन के दोष, अतिथि सत्‍कार की महत्ता तथा कल्‍याण के उपायों के विषय में धर्मराज युधिष्ठिर से ब्राह्मणों तथा शौनक जी की बातचीत"

वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;– हे राजन! जब रात बीती और प्रभात उदय हुआ तथा अनायास ही महान पराक्रम करने वाले पाण्‍डव वन की ओर जाने के लिए उद्यत हुए, उस समय भिक्षान्‍न भोजी ब्राह्मण साथ चलने के लिए उनके सामने खड़े हो गये। 

  तब कुन्‍ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा ;- ‘ब्राह्मणों! हमारा राज्‍य, लक्ष्‍मी और सर्वस्‍व जुए में हरण कर लिया गया है। हम फल, मूल तथा अन्‍न के आहार पर रहने का निश्‍चय करके दुखी होकर वन में जा रहे हैं। वन में बहुत से दोष हैं। वहाँ सर्प बिच्छू आदि असंख्‍य भयंकर जन्‍तु हैं।

‘मैं समझता हूँ, वहाँ आप लोगों को अवश्‍य ही महान कष्‍ट का सामना करना पड़ेगा। ब्राह्मणों को दिया हुआ क्‍लेश तो देवताओं का भी विनाश कर सकता है, फिर मेरी तो बात ही क्‍या है? अत: ब्राह्मणों! आप लोग यहाँ से अपने अभीष्‍ट स्‍थान को लौट जायँ।' 

ब्राह्मणों ने कहा ;- राजन आपकी जो गति होगी, उसे भुगतने के लिए हम भी उद्यत हैं। हम आपके भक्त तथा उत्‍तम धर्म पर दृष्टि रखने वाले हैं। इसलिए आपको हमारा परित्‍याग नहीं करना चाहिये। देवता भी अपने भक्‍तों पर विशेषत: सदाचार परायण ब्राह्मणों पर तो अवश्‍य ही दया करते हैं।

   युधिष्ठिर बोले ;- विप्रगण! मेरे मन में भी ब्राह्मणों के प्रति उत्‍तम भक्ति है, किंतु यह सब प्रकार के सहायक साधनों का अभाव ही मुझे दु:खमग्‍न-सा किये देता है। जो फल-मूल एवं शहद आदि आहार जुटा कर ला सकते थे, वे ही मेरे भाई शोकजनित दु:ख से मोहित हो रहे हैं। द्रौपदी के अपमान तथा राज्‍य के अपहरण के कारण ये दु:ख से पी‍डित हो रहे हैं, अत: मैं इन्‍हें अधिक क्‍लेश में डालना नहीं चाहता। 

  ब्राह्मण बोले ;- पृथ्‍वीनाथ आपके हृदय में हमारे पालन-पोषण की चिन्‍ता नहीं होनी चाहिए। हम स्‍वयं ही अपने लिये अन्‍न आदि की व्‍यवस्‍था करके आपके साथ चलेंगे। हम आपके अभीष्‍ट चिन्‍तन और जप के द्वारा आप का कल्‍याण करेंगे तथा आपको सुन्‍दर-सुन्‍दर कथाएँ सुनाकर आपके साथ ही प्रसन्‍नतापूर्वक वन में विचरेंगे।

   युधिष्ठिर ने कहा ;- महात्‍माओं! आप का कहना ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि मैं सदा ब्राह्मणों के साथ रहने में ही प्रसन्‍नता का अनुभव करता हूँ, किंतु इस समय धन आदि से हीन होने के कारण मैं देख रहा हूँ कि मेरे लिए यह अपकीर्ति की-सी बात है। आप सब लोग स्‍वयं ही आहार जुटा कर भोजन करें, यह मैं कैसे देख सकूँगा? आप लोग कष्‍ट भोगने के योग्‍य नहीं हैं, तो भी मेरे प्रति स्‍नेह होने के कारण इतना क्‍लेश उठा रहे हैं। धृतराष्‍ट्र के पापी पुत्रों को धिक्‍कार है।

  वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- राजन! इतना कहकर धर्मराज युधिष्ठिर शोकमग्‍न हो चुपचाप पृथ्‍वी पर बैठ गये। उस समय अध्‍यात्‍म विषय में रत अर्थात परमात्मचिन्‍तन में तत्‍पर विद्वान ब्राह्मण शौनक ने, जो कर्मयोग और संख्‍ययोग- दोनों ही निष्‍ठाओं के विचार में प्रवीण थे, राजा से इस प्रकार कहा। शोक के सहस्‍त्रों और भय के सैंकड़ों स्‍थान हैं। वे मूढ़ मनुष्‍य पर प्रतिदिन अपना प्रभाव डालते हैं, परंतु ज्ञानी पुरुष पर वे प्रभाव नहीं डाल सकते।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)

'अनेक दोषों से युक्‍त, ज्ञान विरुद्ध एवं कल्‍याणनाशक कर्म आप जैसे ज्ञानवान पुरुष नहीं फँसते हैं।

  राजन! योग के आठ अंग,,– यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान, और समाधि से सम्‍पन्‍न, अमंगलों का नाश करने वाली तथा श्रुतियों और स्‍मृतियों के स्‍वाध्‍याय से भली-भाँति दृढ़- की हुई जो उत्‍तम बुद्धि कही गयी है, आप में स्थित है।

‘अर्थ संकट, दुस्‍तर दु:ख तथा स्‍वजनों पर आयी हुई विपत्तियों में आप जैसे ज्ञानी शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीड़ित नहीं होते।' 

‘पूर्वकाल में महात्‍मा राजा जनक के अन्‍त:करण को स्थिर करने वाले करने वाले कुछ श्‍लोकों का गान किया था। मैं उन श्‍लोकों का वर्णन करता हूँ, आप सुनिये,,,। 

‘सारा जगत मानसिक और शारीरिक दु:खों से पीडित है। उन दोनों प्रकार के दु:खों की शांति का यह उपाय संक्षेप और विस्‍तार से सुनिये। ‘रोग, अप्रिय घटनाओं की प्राप्ति, अधिक परिश्रम त‍था प्रिय वस्‍तुओं का वियोग- इन चार कारणों से शारीरिक दु:ख प्राप्‍त होता है।'  ‘समय पर इन चारों कारणों का प्रतिकार करना एवं कभी उसका चिन्‍तन न करना– ये दो क्रिया योग हैं। इन्‍हीं से आधि-व्‍याधि की शान्ति होती है।

‘अत: बुद्धिमान तथा विद्वान पुरुष, प्रिय वचन बोलकर तथा हितकर भोगों की प्राप्ति कराकर पहले मनुष्‍यों के मानसिक दु:खों का ही निवारण किया करते हैं। ‘क्‍योंकि मन में दु:ख होने पर शरीर भी संतप्‍त होने लगता है; ठीक वैसे ही जैसे तपाया हुआ लोहा का गोला डाल देने पर घड़े में रखा हुआ शीतल जल भी गरम हो जाता है।'

‘इसलिए जल से अग्नि को शान्‍त करने की भाँति ज्ञान के द्वारा मानसिक दु:ख को शान्‍त करना चाहिए। मन का दु:ख मिट जाने पर मनुष्‍य के शरीर का दु:ख भी दूर हो जाताहै।' ‘मन के दु:ख का मूल कारण क्‍या है? इसका पता लगाने पर ‘स्‍नेह, की ही उपलब्धि होती है। इसी स्‍नेह के कारण ही जीव कहीं आसक्‍त होता है और दु:ख पाता है।' 

‘दु:ख का मूल कारण है आसक्ति। आसक्ति से ही भय होता है। शोक, हर्ष तथा क्‍लेश- इन सबकी प्राप्ति भी आसक्ति के कारण से होती है। आसक्ति से ही विषयों में भाव और अनुराग होते हैं। ये दोनों ही अमंगलकारी हैं। इनमें भी पहला अर्थात विषयों के प्रति भाव महान अनर्थ कारक माना गया है। 

‘जैसे खोखले में लगी हुई आग सम्‍पूर्ण वृक्ष को जड़- मूल सहित जलाकर भस्‍म कर देती है, उसी प्रकार विषयों के प्रति थोड़ी- सी भी आसक्ति धर्म और अर्थ दोनों का नाश कर देती है।'

‘विषयों के प्राप्‍त न होने पर जो उनका त्याग करता है, वह त्‍यागी नहीं है; अपितु जो विषयों के प्राप्‍त होने पर भी उनमें दोष देखकर उनका परित्‍याग करता है- वही वैराग्‍य को प्राप्‍त होता है। उसके मन में किसी के प्रति द्वेष- ‌भाव न होने के कारण वह निर्वैर तथा बन्‍धनमुक्‍त होताहै। ‘इसलिए मित्रों तथा धनराशि को पाकर इनके प्रति स्नेह न करे। अपने शरीर से उत्पन्न हुई आसक्ति को ज्ञान से निवृत्‍त करे।

‘जो ज्ञानी, योगयुक्‍त, शास्‍त्रज्ञ तथा मन को वश में रखने वाले हैं, उन पर आसक्ति का प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ता, जैसे कमल के पत्‍ते पर जल नहीं ठहरता।' 

‘राग के वशीभूत हुए पुरुषों को काम अपनी ओर आकृष्‍ट कर लेता है। फिर उसके मन में कामभोग की इच्‍छा जाग उठती है। तत्‍पश्‍चात तृष्‍णा बढ़ने लगती है। तृष्‍णा सबसे बढ़कर पापिष्‍ठ है तथा नित्‍य उद्वेग करने वाली बतायी गयी है। उसके द्वारा प्राय: अधर्म ही होता है। वह अत्‍यन्‍त भयंकर पापबन्‍धन में डालने वाली है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 36-53 का हिन्दी अनुवाद)

‘खोटी बुद्धि वाले मनुष्‍यों के लिये जिसे त्‍यागना अत्‍यन्‍त कठिन है, जो शरीर के जरा से जीर्ण हो जाने पर भी स्‍वयं जीर्ण नहीं होती तथा जिसे प्राणनाशक रोग बताया गया है, उस तृष्‍णा को त्‍याग देता है, उसी को सुख मिलता है। 

‘यह तृष्‍णा यद्यपि मनुष्‍यों के शरीर के भीतर ही रहती है, तो भी इसका कहीं आदि-अन्‍त नहीं है। लाहे के पिण्‍ड की आग के समान यह तृष्‍णा प्राणियों का विनाश कर देती है। ‘जैसे काष्‍ठ अपने से ही उत्‍पन्‍न हुई आग से जलकर भस्‍म हो जाता है, उसी प्रकार जिसका मन वश में नहीं है, वह मनुष्‍य अपने शरीर के साथ उत्‍पन्‍न हुए लोभ के द्वारा स्‍वयं नष्‍ट हो जाता है। 

‘धनवान मनुष्‍यों को राजा, जल, अग्नि, चोर, तथा स्‍वजनों से भी उसी प्रकार भय बना रहता है, संग प्राणियों की मृत्‍यु से। ‘जैसे मांस के टुकड़े को आकाश में पक्षी, पृथ्‍वी पर हिंस्त्र जन्‍तु तथा जल में मछलियाँ खा जाती हैं, उसी प्रकार धनवान पुरुष को सब लोग सर्वत्र नोचते रहते हैं।

‘कितने ही मनुष्‍यों के लिये अर्थ ही अनर्थ का कारण बन जाता है; क्‍योंकि अर्थ द्वारा सिद्ध होने वाले श्रेय में आसक्‍त मनुष्‍य वास्‍तविक कल्‍याण को नहीं प्राप्‍त होता।

‘इसलिए धन प्राप्ति के सभी उपाय मन में मोह बढ़ाने वाले हैं। कृपणता, घमण्‍ड, अभिमान, भय और उद्वेग इन्‍हें विद्वानों, देहधारियों के लिए धनजनित दु:ख माना है। धन के उपार्जन, संरक्षण तथा व्‍यय में मनुष्‍य महान दु:ख सहन करते हैं और धन के ही कारण एक दूसरे को मार डालते हैं। धन को त्‍यागने में महान दु:ख होता है और यदि उसकी रक्षा की जाये तो वह शत्रु का-सा काम करता है।

‘धन की प्राप्ति भी दु:ख से ही होती है। इसलिये उसका चिन्‍तन न करें; क्‍योंकि धन की चिन्‍ता करना अपना नाश करना है। मूर्ख मनुष्‍य सदा असंतुष्‍ट रहते हैं और विद्वान पुरुष संतुष्‍ट। 'धन की प्यास कभी बुझती नहीं है; अत: संतोष ही परम सुख है। इसीलिये ज्ञानीजन संतोष को ही सबसे उत्तम समझते हैं। 

‘यौवन, रूप, जीवन, रत्‍नों का संग्रह, ऐश्‍वर्य तथा प्रियजनों का एकत्र निवास- ये सभी अनित्‍य हैं; अत: विद्वान पुरुष उनकी अभिलाषा न करें। ‘इसलिए धन-संग्रह का त्‍याग करें और उसके त्‍याग से जो क्‍लेश हो, उसे धैर्यपूर्वक सह लें। जिनके पास धन का संग्रह है, ऐसा कोई भी मनुष्‍य उपद्रव रहित नहीं देखा जाता है। अत: धर्मात्‍मा पुरुष उसी धन की प्रशंसा करते हैं, जो दैवेच्‍छा से न्‍यायपूर्वक स्‍वत: प्राप्‍त हो गया हो।

‘जो धर्म करने के लिए धनोपार्जन इच्‍छा करता है, उसका धन की इच्‍छा न करना ही अच्‍छा है।' कीचड़ लगाकर धोने की अपेक्षा मनुष्‍यों के लिये उसका स्‍पर्श न करना ही श्रेष्‍ठ है।

‘युधिष्ठिर! इस प्रकार आपके लिए किसी भी वस्‍तु की अभिलाषा करना उचित नहीं है। यदि आपको धर्म से ही प्रयोजन हो तो धन की इच्‍छा का सर्वथा त्‍याग कर दें।

युधिष्ठिर ने कहा ;- ब्रह्मन! मैं जो धन चाहता हूँ, वह इसलिये नहीं कि मुझे धन संबंधी भोग भोगने की इच्छा है; मैं तो ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिये ही धन की इच्‍छा रखता हूँ, लोभवश नहीं। विप्रवर! गृहस्थ-आश्रम में रहने वाला मेरे जैसा पुरुष अपने अनुयायियों का भरण-पोषण भी न करे, यह कैसे उचित को सकता है।

गृहस्थ के भोजन में देवता, पितृ, मनुष्य एवं समस्त प्राणियों का हिस्सा देखा जाता है। गृहस्थ का धर्म है कि वह अपने हाथ से भोजन न बनाने वाले संन्यासी आदि को अवश्य पका-पकाया अन्न दे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 54-69 का हिन्दी अनुवाद)

आसन के लिए तृण बैठने के लिए स्थान, जल और चौथी मधुर वाणी सत्पुरुषों के घर में इन चार वस्तुओं का अभाव कभी नहीं होता। रोग आदि से पीड़ित मनुष्य को सोने के लिये शय्या, थके माँदे हुए को बैठने के लिए आसन, प्यासे को पानी और भूखे को भोजन तो देना ही चाहिये। जो अपने घर पर आ जाये उसे प्रेमभरी दृष्टि से देखें, मन से उसके प्रति उत्तम भाव रखें, उससे मीठे वचन बोलें और उठ के उसके लिए आसन दें। यह गृहस्थ का सनातन धर्म है। अतिथि को आते देख उठकर उसकी अगवानी और यथोचित रीति से उसका आदर सत्कार करें। यदि गृहस्थ मनुष्य अग्निहो़त्र, जाति-भाई अतिथि, अभ्यासगत बन्धु-बान्धव, स्त्री-पुत्र तथा मृत्युजनों का आदर-सत्कार करे तो व अपनी क्रोधाग्नि से उसे जला सकते हैं। 

  केवल अपने लिए अन्न न पकावे निकम्मे पशुओं पर हानि न करें और जिस वस्तु को विधिपूर्वक देवता आदि के लिये अर्पित न करें, उसे स्वयं भी न खाय। कुत्तों, चाण्डालों और कौवों के लिए पृथ्वी पर अन्न डाल दें। यह वैश्वदेव नामक महान यज्ञ है, जिसका अनुष्ठान प्रातःकाल और सायंकाल में भी किया जाता है। अतः गृहस्थ मनुष्य प्रतिदिन विघस एवं अमृत भोजन करे। घर के सब लोगों के भोजन कर लेने पर जो अन्न शेष रह जाये उसे विघस कहते हैं तथा कलिवैश्वदेव से बचे हुए देव का नाम अमृत है।

अतिथि को नेत्र दे मन दे तथा मधुर वाणी प्रदान करे। जब वह जाने लगे तब कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे जाय और वह जब तक घर पर रहे, तब तक उसके पास बैठे। यह पाँच प्रकार की दक्षिाणाओं से युक्त अतिथि यज्ञ है। जो गुहस्थ अपरिचित थके-माँदे पथिक को प्रसन्नतापूर्वक भोजन देता है, उसे महान पुण्यफल की प्राप्ति हेती है।

ब्रह्मन जो गृहस्थ इस वृत्ति से रहता है, उसके लिये उत्तम धर्म की प्राप्ति बतायी गयी है, अथवा इस विषय में आपकी क्या सम्मती है। 

  शौनकजी ने कहा ;- अहो! बहुत दुःख की बात है, इस जगत में विपरीत बातें दिखायी देती हैं। साधु पुरुष जिस कर्म से लज्जित होते हैं, दुष्ट मनुष्यों को उसी से प्रसन्नता प्राप्त होती है।

अज्ञानी मनुष्य अपनी जननेन्द्रियों तथा उदर की तृप्ति के लिए मोह एवं राग के वशीभूत हो विषयों का अनुसरण करता हुआ नाना प्रकार की विषय-सामग्री को यज्ञावशेष मानकर उनका संग्रह करता है। समझदार मनुष्य भी मन को हर लेने वाली इन्द्रियों द्वारा विषयों की ओर खींच लिया जाता है। उस समय उसकी विचारशक्ति मोहित हो जाती है। जैसे दुष्ट घोड़े वश में न हाने पर सारथि को कुमार्ग में घसीट ले जाते हैं, यही दशा उस अजितेन्द्रिय पुरुष की भी होती है।

   जब मन और पाँचों इन्द्रियाँ अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं, उस समय प्राणियों के पूर्व संकल्प के अनुसार उसी की वासना से वासित मन विचलित हो उठता है। मन जिस इन्द्रिय के विषयों का सेवन करने जाता है, उसी में उस विषय के प्रति उत्सुकता भर जाती है और वह इन्द्रिय उस विषय के उपभोग में प्रवृत्त हो जाती है।

तदनन्तर संकल्प ही जिसका बीज है उस काम के द्वारा विषयरूपी बाणों से बंधकर मनुष्य ज्योति के लोभ से पतंग की भाँति लाभ की आग में गिर पड़ता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 70-84 का हिन्दी अनुवाद)

इसके बाद इच्छानुसार आहार-विहार से मोहित हो महामोहमय सुख में निमग्न रहकर वह मनुष्य अपने आत्मा के ज्ञान से वंचित हो जाता है। इस प्रकार अवि़द्या, कर्म और तृष्णा द्वारा चक्र की भाँति भ्रमण करता हुआ मनुष्य संसार की विभिन्न योनियों में गिरता है।

फिर तो ब्रह्माजी से लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियों में तथा जल, भूमि और आकाश में वह मनुष्य बारम्बार जन्म लेकर चक्कर लगाता रहता है। यह अविवेकी पुरुषों की गति बतायी गयी है। अब आप मुझसे विवेकी पुरुषों की गति का वर्णन सुनें। जो धर्म एवं कल्याण मार्ग में तत्पर हैं और मोक्ष के विषय में जिनका निरन्तर अनुराग है, वे विवेकी हैं। 

वेद की यह आज्ञा है कि कर्म करो और कुकर्म छोड़ो; अतः आगे बताये जाने वाले सभी धर्मों का अहंकार शून्य होकर अनुष्ठान करना चाहये। यज्ञ, अध्ययन, दान, तन, सत्य, क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम तथा लोभ का परित्याग- ये धर्म के आठ मार्ग हैं।

इनमें से पहले बताये हुए चार धर्म पितृयान के मार्ग में स्थित हैं अर्थात इन चारों का सकाम भाव से अनुष्ठान करने पर ये पितृयान मार्ग ले जाते हैं। अग्निहोत्र और संध्योपासनादि जो अवश्य करने योग्य कर्म हैं, उन्हें कर्तव्य बुद्धि से ही अभिमान छोड़कर करें। अन्तिम चार धर्मों को देवायन मार्ग का स्वरूप बताया गया है। साधु पुरुष सदा उसी मार्ग का आश्रय लेते हैं। आगे बताये जाने वाले आठ अंगों से युक्त मार्ग द्वारा अपने अन्तःकरण को शुद्ध करके कर्तव्य कर्मोंं का कर्तव्य के अभिमान से रहित होकर पालन करे।

पूर्णतया संकल्पों के एक ध्येय में लगा देने से इन्द्रियों को भली प्रकार वश में कर लेने से, अहिंसादि व्रतों का अच्छी प्रकार पालन करने से भली प्रकार शुरू की सेवा करने से, यथायोग्य योगसाधनापयोगी आहार करने से, वेदादि का भली प्रकर अध्ययन करने से कर्मों को भली-भाँति भगवतसम्पन्न करने से और चित्त का भली प्रकार निरोध करने से मनुष्य परम कल्याण को प्राप्त होता है।

संसार को जीतने की इच्छा वाले बुद्धिमान पुरुष इसी प्रकार राग-द्वेष से मुक्त होकर कर्म करते हैं। इन्हीं नियमों के पालन से देवता लोग ऐश्वर्य को प्राप्त हुए हैं। रुद्र, साध्य, आदित्य, वसु तथा दोनों अश्विनी कुमार योगजनित ऐश्वर्य से मुक्त होकर इन प्रजाजनों का भरण-पोषण करते हैं।

कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार आप भी मन और इन्द्रियों को भली-भाँति वश में करके तपस्या द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त करने की चेष्टा कीजिए।

यज्ञ, युद्धादि कर्मों से प्राप्त हाने वाली सिद्धि पितृ-मातृमयी है, जो आपको प्राप्त कर चुकी है। अब तपस्या द्वारा योगसिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न कीजिये, जिससे कि ब्राह्मणों का भरण-पोषण हो सके।  सिद्ध पुरुष जो-जो वस्तु चाहते हैं, उसे अपने तप के प्रभाव से प्राप्त कर लेते हैं। अतः आप तपस्या का आश्रय लेकर अपने मनोरथ की पूर्ति कीजिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वन पर्व के अरण्यपर्व में पाण्डवों का विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (अरण्य पर्व)

तीसरा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर के द्वारा अन्न के लिए भगवान सर्य की उपासना और उनसे अक्षपात्र की प्राप्ति"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! शौनक के ऐसा कहने पर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अपने पुरोहित के पास आकर भाइयों के बीच में इस प्रकार बोले।

   विप्रवर! ये वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण मेरे साथ वन में चल रह हैं। परंतु मैं इनका पालन-पोषण करने में असमर्थ हूँ, यह सोचकर मुझे बड़ा दुख हो रहा है।

'भगवन! मैं इनका त्याग नहीं कर सकता; परंतु इस समय मुझमें अन्न देने की शक्ति नहीं है। ऐसी अवस्था में क्या करना चाहिए? यह कृपा करके बताइये।'

वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धौम्य मुनि ने युधिष्ठिर का प्रश्‍न सुनकर दो घड़ी तक ध्यान-सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपाय का अन्वेषण करने के पश्चात उनसे इस प्रकार कहा।

धौम्य बोले ;- राजन! सृष्टि के प्रारम्भ काल में जब सभी प्राणी भूख से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे, तब भगवान सूर्य ने पिता की भाँति उन सब पर दया करके उत्तरायण में जाकर अपनी किरणों से पृथ्वी का रस खींचा और दक्षिणायण में लौटकर पृथ्वी को उस रस से आविष्ट किया। इस प्रकार सारे भूमण्डल में क्षेत्र तैयार हो गया, तब औषधियों स्वामी चन्द्रमा ने अन्तरिक्ष मेघों के रूप में परिणत हुए सूर्य के तेज को प्रकट करके उसके द्वारा बरसाये हुए जल से अन्न आदि औषधियों को उत्पन्न किया। चन्द्रमा की किरणों से अभिषिक्त हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृति में स्थित हो जाता है, तब छः प्रकार के रसों से युक्त जो पवित्र औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, वही पृथ्वी में प्राणियों के लिये अन्न होता है।

इस प्रकार सभी जीवों के प्राणों की रक्षा करने वाला अन्न सूर्य रूप ही है। अतः भगवान सूर्य ही समस्त प्राणियों के पिता हैं, इसलिये तुम उन्हीं की शरण में जाओ। जो जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियों से परम उज्ज्वल हैं, ऐसे महात्मा राजा भारी तपस्या का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्रजाजनों का संकट से उद्धार करते हैं।

भीम, कार्तवीर्य अर्जुन, वेनपुत्र पृथु तथा नहुष आदि नरेशों के तपस्या योग और समाधि में स्थित होकर भारी आपत्तियों से प्रजा को उबारा है। धर्मात्मा भारत! इसी प्रकार तुम भी सत्कर्म से शुद्ध होकर तपस्या का आश्रय ले, धर्मानुसार द्विजातियों का भरण-पोषण करो।

जनमेजय ने पूछा ;- भगवन! पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिए जिनका दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, उन भगवान सूर्य की अराधना किस प्रकार की?

वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजेन्द्र! मैं सब बातें बता रहा हूँ। तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित्त होकर सुनो और धैर्य रखो। महाते! धौम्य ने जिस प्रकार महात्मा युधिष्ठिर को पहले भगवान सूर्य के एक सौ आठ नाम बताये थे इनका वर्णन करता हूँ सुनो।

धौम्य बाले ;- 1. सूर्य, 2. अर्यमा, 3. भग, 4. त्वष्टा, 5. पूषा, 6. अर्क, 7. सविता, 8. रवि, 9. गभस्तिमान, 10. अज, 11. काल, 12. मृत्यु, 13. धाता, 14. प्रभाकर, 15. पृथ्वी, 16. आप, 17. तेज, 18. ख (आकाश), 19. वायु, 20. परायण, 21. सोम, 22. बृहस्पति, 23. शुक्र, 24. बुध, 25. अंगारक[2] , 26. इन्द्र, 27. विवस्वान, 28. दीप्तांशु, 29. शुचि, 30. शौरि, 31. शनैश्चर, 32. ब्रह्मा, 33. विष्णु, 34. रुद्र, 35. स्कन्द, 36. वरुण, 37. यम, 38. वैद्युताग्रि, 39. जाठराग्नि, 40. ऐन्धनाग्नि, 41. तेजःपति, 42. धर्मध्वज, 43. वेदकर्ता, 44. वेदांग, 45. वेदवाहन, 46. कृत, 47. त्रेता, 48. द्वापर, 49. सर्वमलाश्रय कलि, 50. कला काष्ठा मुहर्तरूप समय, 51. क्षपा [3] , 52. याम, 53. क्षण, 54. संवत्सरकर, 55. अश्वत्थ, 56. कालचक्र प्रवर्तक विभावसु, 57. शाश्वत पुरुष, 58. योगी, 59. व्यक्ताव्यक्त, 60. सनातन, 61. कालाध्यक्ष, 62. प्रजाध्यक्ष, 63. विश्वकर्मा, 64. तमोनुद, 65. वरुण, 66. सागर, 67. अंशु, 68. जीमूत, 69. जीवन, 70. अरिहा, 71. भूताश्रय, 72. भूतपति, 73. सर्वलोकनमस्कृत, 74. स्रष्टा, 75. संवर्तक, 76. वह्नि, 77. सर्वादि, 78. अलोलुप, 79. अनन्त, 80. कपिल, 81. भानु, 82. कामद, 83. सर्वतोमुख, 84. जय, 85. विशाल, 86. वरद, 87. सर्वधातु, 88. मनःसुपर्ण, 89. भूतादि, 90. शीघ्रग, 91. प्राणधारक, 92. धन्वतरि, 93. धूमकेतु, 94. आदिदेव, 95. अदितिसुत, 96. द्वादशात्मा, 97. अरविन्दाक्ष, 98. पिता-माता-पितामह, 99. स्वर्गद्वार-प्रजाद्वार, 100. मोक्षद्वारत्रिविष्टप, 101. देहकर्ता, 102. प्रशान्तात्मा, 103. विश्वात्मा, 104. विश्वतोमुख, 105. चराचरात्मा, 106. सूक्ष्मात्मा, 107. मैत्रेय, 108. करुणान्वित। ये अमित तेजस्वी भगवान सूर्य के कीर्तन करने योग्य एक सौ आठ नाम हैं, जिनका उपदेश साक्षात ब्रह्मजी ने किया है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 29-48 का हिन्दी अनुवाद)

समस्त देवता, पितर और यक्ष जिनकी सेवा करते हैं, असुर, राक्षस तथा सिद्ध जिनकी वन्दना करते हैं तथा जो उत्तम सुवर्ण और अग्नि के समान कान्तिमान हैं उन भगवान भास्कर को मैं हित के लिए प्रणाम करता हूँ। जो मनुष्य सूर्योदय के समय भली-भाँति एकाग्रचित्त हो इन नामों का पाठ करता है, वह स्त्री, पुरुष, रत्नराशि, पूर्वजन्म की स्मृति, धैर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त कर लेता है।

जो मानव स्नान आदि करके पवित्र, शुद्धचित्त एवं एकाग्र हो देवेश्वर भगवान सूर्य के इस नामात्मक स्त्रोत का कीर्तन करता है, वह शोकरूपी दानव से युक्त दुष्कर संसार सागर से मुक्त हो मनचाही वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है। 

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! पुरोहित धौम्य के इस प्रकार समयोचित बात कहने पर ब्राह्मणों को देने के लिये अन्न की प्राप्ति के उद्देश्य से नियम में स्थित हो मन को वश में रखकर दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हुए शुद्ध चेता धर्मराज युधिष्ठिर ने उत्तम तपस्या का अनुष्ठान आरम्भ किया। राजा युधिष्ठिर ने गंगा जी के जल से पुष्प और नैवेद्य आदि उपहारों द्वारा भगवान दिवाकर की पूजा की और उनके सम्मुख मुँह करके खड़े हो गये। धर्मात्मा पाण्डु कुमार चित्त को एकाग्र करके इंद्रियों को संयम में रखते हुए केवल वायु पीकर रहने लगे।

   गंगा जल का आचमन करके पवित्र हो वाणी को वश में रखकर तथा प्राणायामपूर्वक स्थित रहकर पूर्वोत्तर अष्टोत्तरशतनामात्मक स्तोत्र का जप किया।

युधिष्ठिर बोले ;- सूर्य देव आप सम्पूर्ण जगत के नेत्र तथा समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। आप ही सब जीवों के उत्पत्ति-स्थान और कर्मानुष्ठान में लगे हुए पुरुषों के सदाचार हैं।

   सम्पूर्ण सांख्ययोगियों के प्राप्तव्य स्थान पर ही हैं। आप ही सब कर्म योगियों के आश्रय हैं। आप ही मोक्ष के उन्मुक्त द्वार हैं और आप ही मुमुक्षुओं की गति हैं।  आप ही सम्पूर्ण जगत को धारण करते हैं। आपसे ही यह प्रकाशित होता है। आप ही इसे पवित्र करते हैं और आपके ही द्वारा निःस्वार्थ भाव से उसका पालन किया जाता है।

सूर्यदेव! आप सभी ऋषिगणों द्वारा पूजित हैं। वेद के तत्त्वश ब्राह्मण लोग अपनी-अपनी वेद शाखओं में वर्णित मंत्रों द्वारा उचित समय पर उपस्थान करके आपका पूजन किया करते हैं।

सिद्ध, चारण, गन्धर्व, यक्ष, गुह्यक और नाग आपसे वर पाने की अभिलाषा से आपके गतिशील दिव्य रथ के पीछे-पीछे चलते हैं।तैंतीस देवता एवं विमानचारी सिद्ध गण भी उपेन्द्र तथा महेन्द्र सहित आपकी अराधना करके सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। 

  श्रेष्ठ विद्याधरगण दिव्य मन्दार-कुसुमों की मालाओं से आपकी पूजा करके सफल मनोरथ हो तुरंत आपके समीप पहुँच जाते हैं। गुह्यक, सात प्रकार के पितृगण तथा दिव्य मानव आपकी ही पूजा करके श्रेष्ठ पद को प्राप्त करते हैं। वसुगण, मरुद्रगण, रुद्र, साध्य तथा आपकी किरणों का पान करने वाले वालखिल्य आदि सिद्ध महर्षि आपकी ही आराधना से सब प्राणियों में श्रेष्ठ हुए हैं।

  ब्रह्मलोक सहित ऊपर के सातों लोकों में तथा अन्य सब लोकों में भी ऐसा कोई प्राणी नही, दिखता जो आप भगवान सूर्य से बढ़कर हो। भगवन! जगत में और बहुत से प्राणी हैं परंतु उनकी कांति और प्रभाव आपके समान नहीं हैं। सम्पूर्ण ज्योर्तिमय पदार्थ आपके ही अंर्तगत हैं। आप ही समस्त ज्योंतियों के स्वामी हैं। सत्य, सत्त्व तथा समस्त सात्तिक भाव आप में ही प्रतिष्ठित हैं। शांर्ग नामक धनुष धारण करने वाले भगवान विष्णु ने जिसके द्वारा घमंड चूर्ण किया है, उस सुदर्शन चक्र को विश्वकर्मा ने आपके ही तेज से बनाया है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 49-69 का हिन्दी अनुवाद)

  आप ग्रीष्म-ऋतु में अपनी किरणों से समस्त देहधारियों से तेज और सम्पूर्ण औषधियों के रस का सार खींचकर पुनः उसे वर्षाकाल में उसे बरसा देते हैं।

   वर्षा ऋतु में आपकी कुछ किरणें तपती हैं, कुछ जलाती हैं कुछ मेघ बनकर गरजती हैं, बिजली बनकर चमकती हैं तथा वर्षा भी करती हैं।शीत काल की वायु से पीड़ित जगत को अग्नि, कम्बल और वस्त्र भी उतना सुख नहीं देते, जितना आप की किरणें देती हैं। आप अपनी किरणों द्वारा तेरह द्वीपों से युक्त सम्पूर्ण पृथ्वी को प्रकाशित करते हैं व अकेले ही तीनों लोकों के हित के लिए तत्पर रहते हैं। 

यदि आप उदय न हों तो सारा जगता अंधा हो जाये और मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ एवं काम संबंधी कर्मों में से प्रवृत्त न हों। गर्भाधान या अग्नि की स्थापना, पशुओं को बाँधना, इष्टि, मन्त्र, यज्ञानुष्ठान, और तप आदि समस्त क्रियाएँ आपकी ही कृपा से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यगणों द्वारा सम्पन्न की जाती हैं।

ब्रह्मा जी का जो एक सहस्र युगों का दिन बताया गया है, कालमान के जानने वाले विद्वानों ने उसका आदि अन्त आपको बताया है। मनु और मनु पुत्रों के जगत के अमानव पुरुष के समस्त मनवन्तरों के तथा ईश्वरो के भी ईश्वर भी आप हैं। प्रलयकाल आने पर आप के ही क्रोध से प्रकट हुई संवर्तक नामक अग्नि तीनों लोकों को भस्म करके फिर आपस में ही स्थित हो जाती है। आपकी ही किरणों से उत्पन्न हुए रंग एरावत हाथी महामेघ और बिजलियाँ सम्पूर्ण भूतों का संहार करती हैं।

फिर आप ही अपने को महामेघ और बिजली रूप में सम्पूर्ण भूतों का संहार करते हुए एकार्णव के समस्त जल को सोख लेते हैं। 

आपको ही इन्द्र कहते हैं। आप ही रुद्र, आप ही विष्णु और आप ही प्रजापति हैं। अग्नि, सूक्ष्म मन, प्रभु, तथा सनातन ब्रह्म भी आप ही हैं।    आप ही हंस, सविता, भानु, अंशुमाली, वृषाकपि, विवस्वान्, मिहिर, पुषा, मित्र, धर्म, सहस्ररश्मि, आदित्य, तपन, गवाम्पति, मर्तण्ड, अर्क, रवि, सूर्य, शरणय, दिनकृत्, दिवाकर, सप्तसप्ति, धामकेशी, विरोचन, आशुगामी, तमोघ्न, तथा हरिताश्व कहे जाते हैं। 

   जो सप्तमी अथवा अष्टमी को खेद अहंकार भक्तिभाव से आपकी पूजा करता है, उस मनुष्य को लक्ष्मी प्राप्त होती है। भगवन! जो अनन्य चित्त से आपकी अर्चना और वन्दना करते हैं, उन पर कभी आपत्ति नहीं आती। वे मानसिक चिंताओं तथा रोगों से भी ग्रस्त न‍हीं होते हैं। जो प्रेमपूर्वक आपके प्रति भक्ति रखते हैं वे समस्त रोगों तथा पापों से रहित हो चिरंजीव एवं सुखी होते हैं।

   अन्नपते! मैं श्रद्धापूर्वक सबका आतिथ्य करने की इच्छा से अन्न प्राप्त करना चाहता हूँ। आप मुझे अन्न देने की कृपा करें। आपके चरणों के निेकट रहने वाले जो माठर, अरुण तथा दण्ड आादि अनुचर हैं, वे विद्युत के प्रवर्तक हैं। मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ। क्षुभा साथ जो मैत्रीभाव से तथा गौरी-पह्मा आदि अन्य भूताएँ हैं, उन सब को नमस्कार करता हूँ। वे मेरी व सभी शरणागत की रक्षा करें। 

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 70-86 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्पायनजी कहते हैं ;- महाराज! जब युधिष्ठिर ने लोकभावन भगवान भास्कर का इस प्रकार स्तवन किया, तब दिवाकर ने प्रसन्न होकर उन पाण्डु कुमारों को दर्शन दिया। उस समय उनके श्री अंग प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित हो रहे थे।

भगवान सूय बोले ;- धर्मराज! तुम जो कुछ चाहते होगा, वह सब तुम्हें प्राप्त होगा। मैं बारह वर्षों तक तुम्हें अन्न प्रदान करूँगा। राजन! यह मेरी दी हुई ताँबे की बटलोई लो। सुवत! तुम्हारे रसोई घर में इस पात्र द्वारा फल‌, मूल, भोजन करने के योग्य अन्य पदार्थ तथा साग आदि जो चार प्रकार की भोजन-सामग्री तैयार होगी, वह तब तक अक्षय बनी रहेगी, जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी। 

   आज से चौदहवें वर्ष में तुम अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लोगे।

वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन इतना कहकर भगवान सूर्य वहीं अंर्तधान हो गये। जो कोई अन्य पुरुष भी मन को संयम में रखकर चित्तवृत्तियों को एकाग्र करके इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वर भी माँगे तो भगवान सूर्य उसकी मनवांछित वस्तु को दे सकते हैं।

  जो प्रतिदिन इस स्तोत्र को धारण करता अथवा बार-बार सुनता है, वह यदि पुत्रार्थी हो तो पुत्र पाता है, धन चाहता हो तो धन पाता है, विद्या की अभिलाषा रखता हो तो उसे विद्या प्राप्त होती है और पत्नी की इच्छा रखने वाले पुरुष को पत्नी सुलभ होती है। स्त्री हो या पुरुष यदि दोनों संध्याओं के समय इस स्तोत्र का पाठ करता है, तो आपत्ति में पड़कर भी उससे मुक्त हो जाता है। बन्धन में पड़ा हुआ मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है।

  यह स्तुति सबसे पहले ब्रह्माजी ने महात्मा इन्द्र को दी, इन्द्र ने नारद जी से और नारद जी ने धौम्य से इसे प्राप्त किया। धौम्य से इसका उपदेश पाकर राजा युधिष्ठिर ने अपनी सब कामनाएँ प्राप्त कर लीं। जो इसका अनुष्ठान करता है, वह सदा संग्राम में विजयी होता है, बहुत धन पाता है, सब पापों से मुक्त होता है और अन्त में सूर्यलोक को जाता है।

वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! वर पाकर धर्म के ज्ञाता कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर गंगाजी के जल से बाहर निकले। उन्होंने धौम्य जी के दोनों चरण पकड़े और भाइयों को हृदय से लगा लिया। द्रौपदी ने उन्हें प्रणाम किया और वे उससे प्रेमपूर्वक मिले। फिर उसी समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने चूल्हे पर बटलोई रखकर रसोई तैयार करायी। 

उसमें तैयार की हुई चार प्रकार की थोड़ी-सी भी रसोई उस पात्र के प्रभाव से बढ़ जाती और अक्षय हो जाती थी। उसी से वे बाह्यणों को भोजन कराने लगे। ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर अपने छेाटे भाईयों को भी कराने के पश्चात विघस अवशिष्ट अन्न को युधिष्ठिर सबसे पीछे खाते थे।

  युधिष्ठिर को भोजन को कर लेने पर द्रौपदी शेष अन्न स्वयं खाती थी। द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उस पात्र का अन्न समाप्त हो जाता था। इस प्रकार सूर्य से मनोवांछित वरों को पाकर उन्हीं के समान तेजस्वी प्रभावशाली राजा युधिष्ठिर ब्राह्मणों को नियमपूर्वक अन्न दान करने लगे। पुरोहितों को प्रणाम करके उत्तम तिथि, नक्षत्र एवं पर्वों पर विधि मन्त्र के प्रणाम के अनुसार उनके यज्ञ संबंधी कार्य करने लगे। 

तदनन्तर स्वस्तिवाचन कराकर ब्राह्यण समुदाय से घिरे हुए पाण्डव धौम्यजी के साथ काम्यक वन को चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वन पर्व के अन्तर्गत अरण्यपर्व में काम्यकवन प्रवेश विषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (अरण्य पर्व)

चौथा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"विदुरजी का धृतराष्ट्र को हित की सलाह देना और धृतराष्ट्र का रुष्ट होकर महल में चला जाना"

  वैशम्पायनजी कहते है ;- जनमेजय! जब पाण्डव वन में चले गये, तब प्रज्ञाचक्षु अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र मन-ही-तन संतप्त हो उठे। उन्होंने अगाध बुद्धि धर्मात्मा विदुर को बुलाकार स्वयं सुखद आसन पर बैठे हुए उनसे इस प्रकार कहा।

  धृतराष्ट्र बोले ;- विदुर! तुम्हारी बुद्धि शुक्राचार्य के समान शुद्ध है। तुम सूक्ष्म-से-सूक्ष्म श्रेष्ठ धर्म को जानते हो तुम्हारी सबके प्रति समान दृष्टि है और कौरव तुम्हारा सम्मान करते हैं। अतः मेरे इन पाण्डवों के लिए जो हितकर कार्य हो, वह मुझे बताओ।

विदुर! ऐसी दशा में हमारा जो कर्तव्य हो वह बताओ। ये पुरवासी कैसे हम लोगों से प्रेम करेंगे? तुम ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे वे पाण्डव हम लोगों को जड़-मूल सहित उखाड़ न फेंकें। तुम अच्छे कार्यों को जानते हो। अतः हमें ठीक-ठीक कर्तव्य का निर्देश करो।

विदुरजी ने कहा ;- नरेन्द्र! धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की प्राप्ति का मूल कारण धर्म से ही है। धर्मात्मा पुरुष भी इस राज्य की जड़ भी धर्म को ही बतलाते हैं, अतः महाराज! आप धर्म के मार्ग पर स्थिर रहकर यथाशक्ति अपने तथा पाण्डु के सब पुत्रों का पालन कीजिये।शकुनि आदि पापात्माओं ने द्यूतसभा में उस धर्म के साथ विश्वासघात किया क्योंकि आपके पुत्र ने सत्यप्रतिज्ञ कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर को बुलाकर उन्हें कपटपूर्वक पराजित किया है। कुरु राजा! दुरात्माओं द्वारा पाण्डवों के प्रति किये हुए इस दुर्व्यवहार की शान्ति का उपाय मैं जानता हूँ, जिससे आपका पुत्र दुर्योधन पाप से मुक्त हो लोक में भली- भाँति प्रतिष्ठा प्राप्त करे।

  आपने जो पाण्डवों को राज्य दिया था, वह सब उन्हें मिल जाना चाहिये। राजा के लिये यह सबसे बड़ा धर्म है कि वह अपने धन से संतुष्ट रहे। दूसरे के धन पर लोभ भरी दृष्टि न डाले।

ऐसा कर लेने पर आपके यश का नाश नहीं होगा, भाइयों में फूट नहीं होगी और आपको धर्म की भी प्राप्ति होगी। आपके लिये सबसे प्रमुख कार्य यह है कि पाण्डवों को संतुष्ट करें और शकुनि का तिरस्कार करें।

राजन! ऐसा करने पर भी आपके पुत्रों का भाग्य शेष होगा तो उनका राज्य उनके पास रह जायगा; अतः आप शीघ्र ही यह काम कर डालिये। महाराज! यदि आप ऐसा न करेंगे तो कौरवकुल का निश्चय ही नाश हो जायगा।

क्रोध में भरे हुए भीमसेन अथवा अर्जुन अपने शत्रुओं की सेना में किसी को भी जीवित नहीं छोड़ेगे। अस्त्र विद्या में निपुण सव्यसाची अर्जुन जिनके योद्धा हैं, सम्पूर्ण लोकों का सारभूत गाण्डवी जिनका धनुष है तथा अपने बाहुबल से सुसोभित होने वाले भीमसेन जिनकी ओर से युद्ध करने वाले हैं, उन पाण्डवों के लिए संसार में ऐसी कोई वस्तु है, जो प्राप्त न हो सके। आपके पुत्र दुर्योधन के जन्म लेते ही मुझे उस समय जो हित ही बात जान पड़ी वह मैंने पहले ही बता दी थी।

   मैंने साफ कह दिया था कि आपका यह पुत्र समस्त कुल का अहित करने वाला है, अतः इसको त्याग दीजिये; परंतु आपने मेरी उत्तम और सात्त्विक सलाह के अनुसार कार्य नहीं किया। राजन! इस समय भी मैंने जो यह आपके हित की बात बतायी है यदि उसे आप नहीं करेंगे तो आपको बहुत पश्चात्ताप करना पड़ेगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद)

  यदि आपका पुत्र दुर्योधन प्रसन्नतापूर्वक पाण्डवों के साथ राज्य बनाने की बात मान ले तो आपको पश्चाताप नहीं होगा, प्रसन्नता ही प्राप्त होगी। यदि दुर्योधन आपकी बात न माने तो समस्त कुल को सुख पहुँचाने के लिए आप उस पुत्र पर नियन्त्रण कीजिये।

इस प्रकार अहितकारी दुर्योधन को काबू में करके आप पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को राज्य पर अभिषिक्त कर दीजिये क्योंकि वे अजातशत्रु हैं। उनका किसी से राग-द्वेष नहीं है। राजन! वे ही पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन करेंगे।  महाराज यदि ऐसा हुआ तो! भूमण्डल के समसत राजा वैश्यों की भाँति उपहार ले, हम कौरवों की सेवा में शीघ्र उपस्थित होंगे। राजराजेश्वर! दुर्योधन, शकुनि तथा सूतपुत्र कर्ण प्रेमपूर्वक पाण्डवों का अपनावें। दुःशासन भरी सभा में भीमसेन तथा द्रौपदी से क्षमा माँगे और आप युधिष्ठिर को भलीभाँति सान्त्वना दे सम्मानपूर्वक इस राज्य पर बिठा दीजिये। कुरुराज! आपने हित की बात पूछी है तो मैं इसके सिवा और क्या बताऊँ। यह सब कर लेने पर आप कृत-कृत्य हो जायँगे।

   धृतराष्ट्र ने पूछा ;- विदुर! तुमने यहाँ सभा में पाण्डवों के तथा मेरे विषय में जो बात कही है, वह पाण्डवों लिए तो हितकर है, पर मेरे पुत्रों के लिए अहितकारक है, अतः यह सब मेरा मन स्वीकार नहीं करता है।

   इस समय तुम जो कुछ कह रहे हो इससे यह भलीभाँति निश्चय होता है कि तुम पाण्डवों के हित के लिए ही यहाँ आये थे। तुम्हारे आज के ही व्यवहार से मैं समझ गया कि तुम मेरे हितैषी नहीं हो। मैं पाण्डवों के लिए अपने पुत्रों को कैसे त्याग दूँ।

इसमें संदेह नहीं कि पाण्डव मेरे पुत्र हैं, पर दुर्योधन साक्षात मेरे शरीर से उत्‍पन्‍न हुआ है। समता की ओर दृष्टि रखते हुए भी कौन किसको ऐसी बातें कहेगा कि तुम दूसरे के हित के लिये अपने शरीर का त्याग कर दो। विदुर! मैं तुम्हारा अधिक सम्मान करता हूँ, किन्तु तुम मुझे कुटिलतापूर्ण सलाह दे रहे हो। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। कुलटा स्त्री को कितनी ही सांत्वना दी जाय, वह स्वामी को त्याग ही देती है।

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र सहसा उठकर महल के भीतर चले गये। तब विदुरजी ने यह कहकर कि अब इस कुल का नाश अवश्यम्भावी है, जहाँ पाण्डव थे, वहाँ चले गये। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वन पर्व के अन्तर्गत अरण्यपर्व में विदुरवाक्यप्रत्याख्यान विषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (अरण्य पर्व)

पाचवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"पाण्डवों का काम्यकवन में प्रवेश और विदुर जी का वहाँ जाकर उनसे मिलना और बातचीत करना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भरतवंशशिरोमणि पाण्डव वनवास के लिये गंगा के तट से अपने साथियों सहित कुरुक्षेत्र गये। उन्होंने क्रमशः सरस्वती, दृषद्वती और यमुना नदी का सेवन करते हुए एक वन से दूसरे वन में प्रवेश किया। इस प्रकार वे निरन्तर पश्चिम की दिशा की ओर बढ़ते गये। तदनन्तर सरस्वती-तट तथा मरुभूमि एवं वन्य प्रदेशों की यात्रा करते हुए उन्होंने काम्यकवन का दर्शन किया, जो ऋषि-मुनियों के समुदाय को बहुत ही प्रिय था।

   भारत! उस समय वन में बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते थे। वहाँ मुनियों ने उन्हें बिठाया और बहुत सांत्वना दी। फिर वे वीर पाण्डव वहीं रहने लगे। इधर विदुर जी सदा पाण्डवों को देखने के लिए उत्सुक रहा करते थे। वे एकमात्र रथ के द्वारा काम्यकवन में गये, जो वनोचित सम्पत्तियों से भरा-पूरा था। शीघ्रगामी अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले रथ से काम्यकवन में पहुँचकर विदुर जी ने देखा धर्मात्मा युधिेष्ठिर एकान्त प्रदेश में द्रौपदी, भाइयों तथा ब्राह्मणों के साथ बैठे हैं। सत्य-प्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिर ने जब बड़ी उतावली के साथ विदुर जी को अपने निकट आते देखा,
   तब भाई भीमसेन से कहा ;- 'ये विदुर जी हमारे पास आकर न जाने क्या कहेंगें। ये शकुनि के कहने से फिर जुआ खेलने के लिये बुलाने तो नहीं आ रहे हैं। कहीं नीच शकुनि हमें फिर द्यूतसभा में बुलाकर हमारे आयुधों को तो नहीं लेगा। भीमसेन आओ, कहकर यदि कोई मुझे (युद्ध तथा द्यूत के लिए ) बुलावे, तो मैं पीछे नहीं हट सकता। ऐसी दशा में गाण्डीव धनुष किसी तरह जुए में हार गए, तो हमारी राज्य-प्राप्ति संशय में पड़ जायेगी।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर सब पाण्डवों ने उठकर विदुर जी की अगवानी की। उनके द्वारा किया हुआ यथोचित स्‍वागत-ग्रहण करके अजमीगढ़वंशी विदुर पाण्‍डवों से मिले। विदुर जी के आदर-सत्कार पाने पर नरश्रेष्ठ पाण्डवों ने उनसे वन में आने का कारण पूछा। उनके पूछने पर विदुर जी ने श्रीअम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने जैसा बर्ताव किया था, वह सब विस्तारपूर्वक कह सुनाया।

   विदुर जी बोले ;- अजातशत्रो! राजा धृतराष्ट्र ने मुझे अपना रक्षक समझकर बुलाया और मेरा आदर करके कहा,,
धृतराष्ट्र बोले ;- 'विदुर! आज की परिस्थिति में समभाव रखकर तुम ऐसा कोई उपाय बताओ, जो मेरे और पाण्डवों के लिये हितकर हो। तब मैंने भी ऐसी बातें बतायीं, जो सर्वथा उचित तथा कौरव वंश एवं धृतराष्ट्र के लिए भी हितकर और लाभदायक थीं। वह बात उनको नहीं जंची और मैं उसके सिवा दूसरी कोई बात उचित नहीं समझता था। पाण्डवों! मैंने दोनों पक्षों के लिये परम कल्याण की बात बतायी थी, परंतु अम्बिकानन्दन महाराज धृतराष्ट्र ने मेरी वह बात नहीं सुनी। जैसे रोगी को हितकर भोजन अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार राजा धृतराष्ट्र को मेरी कही हुई हितकर बात पसंद नहीं आती। अजातशत्रो! क्षत्रियों के घर की दुष्टा स्त्री श्रेय के मार्ग पर नहीं लायी जा सकती, उसी प्रकार राजा धृतराष्ट्र को कल्याण के मार्ग पर लाना असम्भव है। जैसे कुमारी कन्या को साठ वर्ष का बूढ़ा पति अच्छा नहीं लगता है, उसी प्रकार भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्र को मेरी कही हुई बात निश्चय ही नहीं रुचती। राजन! राजा धृतराष्ट्र कल्याणकारी उपाय नहीं ग्रहण करते हैं, अतः यह निश्चय जान पड़ता है कि कौरव कुल का विनाश अवश्यम्भावी है। जैसे कमल के पत्ते पर डाला हुआ जल ठहर नहीं सकता, उसी प्रकार कही हुई हितकर बात राजा धृतराष्ट्र के मन में स्थान नहीं पाती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 17-22 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय राजा धृतराष्ट्र ने कुपित होकर मुझसे कहा,,
धृतराष्ट्र बोले ;- भारत! जिस पर तुम्हारी श्रद्धा हो, वहीं चले जाओ। अब मैं इस राज्य अथवा नगर का पालन करने के लिए तुम्हारी सहायता नहीं चाहता।
    नरेन्द्र! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र ने मुझे त्याग दिया है। अतः मैं तुम्हें उपदेश देने आया हूँ। मैंने सभा में जो कुछ भी कहा था और पुनः इस समय जो कुछ कर रहा हूँ, वह सब तुम धारण करो। जो शत्रुओं द्वारा दुःसह कष्ट दिये जाने पर भी क्षमा करते हुए अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करता है तथा जिस प्रकार थोड़ी-सी आग को भी लोग घास-फूस आदि के द्वारा प्रज्वलित करके बढ़ा लेते हैं, वैसे ही जो मन को वश में रखकर अपनी शक्ति और सहायकों को बढ़ाता है, वह अकेला ही सारी पृथ्वी का उपभोग करता है।
   राजन! जिसका धन सहायकों के लिये नहीं बंटा है अर्थात! जिसके धन को सहायक भी अपना ही समझकर भोगते हैं, उसके दुःख में भी वे लोग हिस्सा बँटाते हैं। सहायकों के संग्रह का यही उपाय है, सहायकों की प्राप्ति हो जाने पर पृथ्वी की ही प्राप्ति हो गयी, ऐसा कहा जाता है।
   पाण्डुनन्दन! व्यर्थ की बकवास से रहित सत्य बोलना ही श्रेष्ठ है। अपने सहायक बन्धुओं के साथ बैठ कर समान अन्न का भोजन करना चाहिए। उन सब के आगे अपनी मान-बड़ाई तथा पूजा की बातें नहीं करनी चाहिये। ऐसा बर्ताव करने वाला भूपाल सदा उन्नतशील होता है।
  युधिष्ठिर बोले ;- विदुर जी! मैं उत्तम बुद्धि का आश्रय ले सतत रहकर आप जैसा कहते हैं वैसा ही करूँगा और भी देशकाल के अनुसार आप जो कर्तव्य उचित समझें, वह बतावें, मैं उसका पूर्णरूप से पालन करूँगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अरण्यपर्व में विदुर निर्वासन विषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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