सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
छाछठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"विदुर का दुर्योधन को फटकारना"
दुर्योधन बोला ;- विदुर! यहाँ आओ। तुम जाकर पाण्डवों की प्यारी और मनोनुकूल पत्नी द्रौपदी को यहाँ ले जाओ। वह पापाचारिणी शीघ्र यहाँ आये और मेरे महल में झाड़ू लगाये। उसे वहीं दासियों के साथ रहना होगा।
विदुर बोला ;- ओ मूर्ख! तेरे-जैसे नीच के मुख से ही ऐसा दुर्वचन निकल सकता है। अरे! तू कालपाश से बँधा हुआ है, इसीलिये कुछ समझ नहीं पाता। तू ऐसे ऊँचे स्थान में लटक रहा है जहाँ से गिरकर प्राण जाने में अधिक विलम्ब नहीं; किंतु तुझे इस बात का पता नहीं है। तू एक साधारण मृग होकर व्याघ्रों को अत्यन्त क्रुद्ध कर रहा है। मन्दात्मन्! तेरे सिर पर कोप में भरे हुए महान् विषधर सर्प चढ़ आये हैं। तू उनका क्रोध न बढ़ा, यमलोक में जाने का उद्यत न हो। द्रौपदी कभी दासी नहीं हो सकती, क्योंकि राजा युधिष्ठिर जब पहले अपने को हारकर द्रौपदी को दाँव पर लगाने का अधिकार खो चुके थे, उस दशा में उन्होंने इसे दाँव पर रखा है (अत: मेरा विश्वास है कि द्रौपदी हारी नहीं गयी)। जैसे बाँस अपने नाश के लिये ही फल धारण करता है, उसी प्रकार धृतराष्ट्र के पुत्र इस राजा दुर्योधन ने महान् भयदायक वैर की सृष्टि के लिये इस जूए के खेल को अपनाया है। यह ऐसा मत वाला हो गया है कि मौत सिर पर नाच रही है; कितु इसे उसका पता ही नहीं है। किसी को मर्मभेदी बात न कहे, किसी से कठोर वचन न बोले। नीच कर्म के द्वारा शत्रु को वश में करने की चेष्टा न करे। जिस बात से दूसरे को उद्वेग हो, जो जलन पैदा करने वाली नरक की प्राप्ति कराने वाली हो, वैसी बात मुँह से कभी निकाले।
मुँह से जो कटु वचनरूपी बाण निकलते हैं, उनसे आहत हुआ मनुष्य रात-दिन शोक और चिन्ता में डूबा रहता है। वे दूसरे के मर्म पर ही आघात करते हैं; अत: विद्वान् पुरुष को दूसरों के प्रति निष्ठुर वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। कहते है, एक बकरा कोई शस्त्र निगलने लगा; किंतु जब वह निगला ना जा सका, तब उसने पृथ्वी पर अपना सिर पटक-पटककर उस शस्त्र को निगल जाने का प्रयत्न किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि वह भयानक शस्त्र उस बकरे का ही गला काटने वाला हो गया। इसी प्रकार तुम पाण्डवों से वैर न ठानो। कुन्ती के पुत्र किसी वनवासी, गृहस्थ, तपस्वी अथवा विद्वान् से ऐसी कड़ी बात कभी नहीं बोलते। तुम्हारे-जैसे कुत्ते-से स्वभाव वाले मनुष्य ही सदा इस तरह दूसरों को भूँका करते हैं। धृतराष्ट्र का पुत्र नरक के अत्यन्त भयंकर एवं कुटिल द्वार को नहीं देख रहा है। दु:शासन के साथ कौरवों से बहुत-से लोग दुर्योधन की इस द्यूतक्रीड़ा में उसके साथी बन गये। चाहे तूँबी जल में डूब जाय, पत्थर तैरने लग जाय तथा नौकाएँ भी सदा ही जल में डूब जाया करें; परंतु धृतराष्ट्र का यह मूर्ख पुत्र राजा दुर्योधन मेरी हितकर बातें नहीं सुन सकता। यह दुर्योधन निश्चय ही कुरुकुल का नाश करने वाला होगा। इसके द्वारा अत्यन्त भयंकर सर्वनाश का अवसर उपस्थित होगा। वह अपने सुहृदों का पाण्डित्यपूर्ण हितकर वचन भी नहीं सुनता; इसका लोभ बढ़ता ही जा रहा है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में विदुरवाक्य-विषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
सरसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"प्रातिकामी के बुलाने से न आने पर दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना एवं सभासदों से द्रौपदी का प्रश्र"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन गर्व से उन्मत्त हो रहा था। उसने 'विदुर को धिक्कार है' ऐसा कहकर प्रातिकामी की ओर देखा सभा में बैठे हुए श्रेष्ठ पुरुषों के बीच उससे कहा।
दुर्योधन बोला ;- प्रातिकार्मिन्! तुम द्रौपदी को यहाँ ले आओ। तुम्हें पाण्डवों से कोई भय नहीं है। ये विदुर तो डरपोक हैं, अत: सदा ऐसी ही बातें कहा करते हैं। ये कभी हम लोगों की वुद्धि नहीं चाहते।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! दुर्योधन के ऐसा कहने पर राजा की आज्ञा शिरोधार्य करके वह सूत प्रातिकामी शीघ्र चला गया एवं जैसे कुत्ता सिंह की माँद में घुसे, उसी प्रकार उस राजभवन में प्रवेश करके वह पाण्डवों की महारानी के पास गया।
प्रातिकामी बोला ;- द्रुपदकुमारी! धर्मराज युधिष्ठिर जूए के मद से उन्मत्त हो गये थे। उन्होंने सर्वस्व हारकर आप-को दाँव पर लगा दिया। तब दुर्योधन ने आपको जीत लिया। याज्ञसेनी! अब आप धृतराष्ट्र के महल में पधारें। मैं आपको वहाँ दासी का काम करवाने के लिये ले चलता हूँ।
द्रौपदी ने कहा ;- प्रातिकामिन्! तू ऐसी बात कैसे कहता है? कौन राजकुमार अपनी पत्नी को दाँव पर रखकर जूआ खेलेगा? क्या राजा युधिष्ठिर जूए के नशे में इतने पागल हो गये कि उनके पास जुआरियों को देने के लिये दूसरा कोई धन नहीं रह गया?
प्रातिकामी बोला ;- राजकुमारी! जब जुआरियों को देने के लिये दूसरा कोई धन नहीं रह गया, तब अजातशत्रु पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर इस प्रकार जुआ खेलने लगे। पहले तो उन्होंने अपने भाइयों को दाँव पर लगाया उसके बाद अपने को और अन्त में आपको भी दाँव पर रख दिया।
द्रौपदी ने कहा ;- सूतपुत्र! तुम सभा में उन जुआरी महाराज के पास जाओ और जाकर यह पूछो कि ‘आप पहले अपने को हारे थे या मुझे?' सूतनन्दन! यह जानकर आओ। तब मुझे ले चलो। राजा क्या करना चाहते हैं? यह जानकर ही मैं दु:खिनी अबला उस सभा में चलूँगी।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! प्रातिकामी ने सभा में जाकर राजाओं के बीच में बैठे हुए युधिष्ठिर से द्रौपदी की वह बात कर सुनायी।
प्रातिकमी ने कहा ;- ‘द्रौपदी आपसे पूछना चाहती है कि किस-किस वस्तु के स्वामी रहते हुए आप मुझे हारे हैं? आप पहले अपने को हारे हैं या मुझे?’ राजन्! उस समय युधिष्ठिर अचेत और निष्प्राण-से हो रहे थे, अत: उन्होंने प्रातिकामी को भला-बुरा कुछ भी उत्तर नहीं दिया।
तब दुर्योधन बोला ;- सूतपुत्र! जाकर कह दो, द्रौपदी यही आकर अपने इस प्रश्न को पूछे। यहीं सब सभासद् उसके प्रश्न और युधिष्ठिर के उत्तर को सुनें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! प्रातिकामी दुर्योधन के वश में था, इसलिये वह राजभवन में जाकर द्रौपदी से व्यथित होकर बोला।
प्रातिकामी ने कहा ;- राजकुमारी! वे (दुर्योधन आदि) सभासद् तुम्हें सभा में ही बुला रहे हैं। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, अब कौरवों के विनाश का समय आ गया है। जो (दुर्योधन) इतना गिर गया है कि तुम्हें सभा में बुलाने का साहस करता है, वह कभी अपने धन-वैभव की रक्षा नहीं कर सकता।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)
द्रौपदी ने कहा ;- सूतपुत्र! निश्चय ही विधाता का ऐसा ही विधान है। बालक और वृद्ध सबको सुख-दु:ख प्राप्त होते हैं। जगत् में एक मात्र धर्म को ही श्रेष्ठ बतलाया जाता है। यदि हम उसका पालन करें तो वह हमारा कल्याण करेगा। मेरे इस धर्म का उल्लंघन न हो, इसलिये तुम सभा में बैठे हुए कुरुवंशियों के पास जाकर मेरी यह धर्मानुकूल बात पूछो- ‘इस समय मुझे क्या करना चाहिये?' वे धर्मात्मा, नीतिश और श्रेष्ठ महापुरुष मुझे जैसी आज्ञा देंगे, मैं निश्चय ही वैसा करूँगी। द्रौपदी का कथन सुनकर सूत प्रातिकामी ने पुन: सभा में जाकर द्रौपदी के प्रश्र को दुहराया; किंतु उस समय दुर्योधन के उस दुराग्रह को जानकर सभी नीचे मुँह किये बैठे रहे, कोई कुछ भी नहीं बोला।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! दुर्योधन क्या करना चाहता है, यह सुनकर युधिष्ठिर ने द्रौपदी के पास एक ऐसा दूत भेजा, जिसे वह पहचानती थी और उसी के द्वारा यह संदेश कहलाया, ‘पाचालराजकुमारी! यद्यपि तुम रजस्वला और नीबी को नीचे रखकर एक ही वस्त्र धारण कर रही हो, तो भी उसी दशा में रोती हुई सभा में आकर अपने श्वशुर के सामने खड़ी हो जाओ। तुम-जैसी राजकुमारी को सभा में आयी देख सभी सभासद् मन-ही-मन इस दुर्योधन की निन्दा करेंगे’। राजन्! वह बुद्धिमान दूत तुरंत द्रौपदी के भवन में गया। वहाँ उसने धर्मराज का निश्चित मत उसे बता दिया। इधर महात्मा पाण्डव सत्य के बन्धन से बँधकर अत्यन्त दीन और दु:खमग्न हो गये। उन्हें कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। उनके दीन मुँह की ओर देखकर राजा दुर्योधन अत्यन्त प्रसन्न हो सूत से बोला,,
दुर्योधन बोला ;- ‘प्रातिकामिन्! तुम द्रौपदी को यहीं ले जाओ। उसके सामने ही धर्मात्मा कौरव उसके प्रश्नों का उत्तर देंगे’।
तदनन्तर दुर्योधन के वश में रहने वाले प्रातिकामी ने द्रौपदी के क्रोध से डरते हुए अपने मान-सम्मान की परवा न करके पुन: सभासदों से पूछा,,
प्रातिकामी बोला ;- ‘मैं द्रौपदी को क्या उत्तर दूँ?’
दुर्योधन बोला ;- दु:शासन! यह मेरा सेवक सूतपूत्र प्रातिकामी बड़ा मूर्ख है। इसे भीमसेन का डर लगा हुआ है। तुम स्वयं द्रौपदी को यहाँ पकड़ लाओ। हमारे शत्रु पाण्डव इस समय हम लोगों के वश में हैं। वे तुम्हारा क्या कर लेंगे। भाई का यह आदेश सुनकर राजकुमार दु:शासन उठ खड़ा हुआ और लाल आँख किये वहाँ से चल दिया। महारथी पाण्डवों के महल में प्रवेश करके उसने राजकुमारी द्रौपदी से इस प्रकार कहा,,
दुःशासन बोला ;- ‘पांचालि! आओ, आओ, तुम जूए में जीती जा चुकी हो। कृष्णे! अब लज्जा छोड़कर दुर्योधन की ओर देखो। कमल के समान विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी! हमने धर्म के अनुसार तुम्हें प्राप्त किया है, अत: तुम कौरवों की सेवा करो। अभी राजसभा में चली चलो’।
यह सुनकर द्रौपदी का हृदय अत्यन्त दु:खित होने लगा। उसने अपने मलिन मुख को हाथ से पोंछा। फिर उठकर वह आर्त अबला उसी ओर भागी, जहाँ बूढ़े महाराज धृतराष्ट्र की स्त्रियाँ बैठी हुई थीं। तब दु:शासन भी रोष से गर्जता हुआ बड़े वेग से उसके पीछे दौड़ा। उसने महाराज युधिष्ठिर की पत्नी द्रौपदी के लम्बे, नीले और लहराते हुए केशों को पकड़ लिया। जो केश राजसूय महायज्ञ के अवभृथस्थान में मन्त्रपूत जल से सींचे गये थे, उन्हीं को दु:शासन ने पाण्डवों के पराक्रम की अवहेलना करके बलात्कारपूर्वक पकड़ लिया। लम्बे-लम्बे केशों वाली वह द्रौपदी यद्यपि सनाथा थी, तो भी दु:शासन उस बेचारी आर्त अबला को अनाथ की भाँति घसीटता हुआ सभा के समीप ले आया और जैसे वायु केले के वृक्ष को झकझोरकर झुका देता है, उसी प्रकार वह द्रौपदी को बलपूर्वक खींचने लगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 30-42 का हिन्दी अनुवाद)
दु:शासन के खींचने से द्रौपदी का शरीर झुक गया। उसने धीरे से कहा,,
द्रोपदी बोली ;- 'मन्दबुद्धि दुष्टत्मा दु:शासन! मैं रजस्वला हूँ तथा मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है। इस दशा में मुझे सभा में ले जाना अनुचित है’। यह सुनकर दु:शासन उसके काले-काले केशों को और जोर से पकड़कर कुछ बकने लगा; इधर यज्ञसेनकुमारी कृष्णा ने अपनी रक्षा के लिये सर्वपापहारी, सर्वविजयी, नरस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को पुकारने लगी।
दु:शासन बोला ;- द्रौपदी! तू रजस्वला, एकवस्त्रा अथवा नंगी ही क्यों न हो, हमने तुझे जूए में जीता है; अत: तू हमारी दासी हो चुकी है, इसलिये अब तुझे हमारी इच्छा अनुसार दासियों में रहना पड़ेगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गये थे। दु:शासन के झकझोरने से उसका आधा वस्त्र भी खिसकर गिर गया था। वह लाज से गड़ी जाती थी और भीतर-ही-भीतर क्रोध से दग्ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली।
द्रौपदी ने कहा ;- अरे दुष्ट! ये सभा में शास्त्रों के विद्वान्, कर्मठ और इन्द्र के समान तेजस्वी मेरे पिता के समान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में खड़ी होना नहीं चाहती। क्रूरकर्मा दुराचारी दु:शासन! तू इस प्रकार मुझे न खींच, न खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इन्द्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिये आ जायँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पाण्डव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे। धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर धर्म में ही स्थित हैं। धर्म का स्वरूप बड़ा सूक्ष्म है। बुद्धि वाले धर्मपालन में निपुण महापुरुष ही उसे समझ सकते हैं। मैं अपने पति के गुणों को छोड़कर बाणी द्वारा उनके परमाणुतुल्य छोटे-से छोटे दोष को भी कहना नहीं चाहती। अरे! तू इन कौरववीरों के बीच में मुझे रजस्वला स्त्री को खींचकर लिये जा रहा है, यह अत्यन्त पापपूर्ण कृत्य है। मैं देखती हूँ यहाँ कोई भी मनुष्य तेरे इस कुकर्म की निन्दा नहीं कर रहा है। निश्चय ही ये सब लोग तेरे मत में हो गये।
अहो! धिक्कार है! भरतवंश के नरेशों का धर्म निश्चय ही नष्ट हो गया तथा क्षत्रियधर्म के जानने वाले इन महापुरुषों का सदाचार भी लुप्त हो गया; क्योंकि यहाँ कौरवों की धर्ममर्यादा-का उल्लंघन हो रहा है, तो भी सभा में बैठे हुए सभी कुरुवंशी चुपचाप देख रहे हैं। जान पड़ता है द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, महात्मा विदुर तथा राजा धृतराष्ट्र में अब कोई शक्ति नहीं रह गयी है; तभी तो ये कुरुवंश के बड़े-बड़े महापुरुष राजा दुर्योधन के इस भयानक पापाचार की ओर दृष्टिपात नहीं कर रहे हैं। मेरे इस प्रश्न का सभी सभासद उत्तर दें। राजाओ! आप-लोग क्या समझते हैं? धर्म के अनुसार मैं जीती गयी हूँ या नहीं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार करूण स्वर में विलाप करती सुमध्यमा द्रौपदी ने क्रोध में भरे हुए अपने पतियों की ओर तिरछी दृष्टि से देखा। पाण्डवों के अंग-अंग में क्रोध की अग्नि व्याप्त हो गयी थी। द्रौपदी ने अपने कटाक्ष द्वारा देखकर उनकी क्रोधाग्नि को और भी उदीप्त कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 43-54 का हिन्दी अनुवाद)
राज्य, धन तथा मुख्य-मुख्य रत्नों को हार जाने पर भी पाण्डवों को उतना दु:ख नहीं हुआ था, जितना कि द्रौपदी के लज्जा एवं क्रोधयुक्त कटाक्षपात से हुआ था। द्रौपदी को अपने पतियों की ओर देखती देख दु:शासन उसे बड़े वेग से झकझोरकर जोर-जोर से हँसते हुए ‘दासी’ कहकर पुकारने लगा। उस समय द्रौपदी मूर्च्छित-सी हो रही थी। कर्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने खिलखिलाकर हँसते हुए दु:शासन के उस कथन की बड़ी सराहना की। सुबलपुत्र गान्धारराज शकुनि ने भी दु:शासन का अभिनन्दन किया। उस समय वहाँ जितने समासद् उपस्थित थे, उनमें से कर्ण, शकुनि और दुर्योधन को छोड़कर अन्य सब लोगों को सभा में इस प्रकार घसीटी जाती हुई द्रौपदी की दुर्दशा देखकर बड़ा दु:ख हुआ।
उसम समय भीष्म ने कहा ;- सौभाग्यशाली बहू! धर्म का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण मैं तुम्हारे इस प्रश्न का ठीक-ठीक विवेचन नहीं कर सकता। जो स्वामी नहीं है वह पराये धन को दाँव पर नहीं लगा सकता, परंतु स्त्री को सदा अपने स्वामी के अधीन देखा जाता है, अत: इन सब बातों पर विचार करने से मुझसे कुछ कहते नहीं बनता। मेरा विश्वास है कि धर्मराज युधिष्ठिर धन-समृद्धि से भरी हुई इस सारी पृथ्वी को त्याग सकते हैं, किंतु धर्म को नहीं छोड़ सकते। इन पाण्डुनन्दन ने स्वयं कहा है कि मैं अपने को हार गया; अत: मैं इस प्रश्न का विवेचन नहीं कर सकता। यह शकुनि मनुष्यों में द्यूतविद्या का अद्वितीय जानकार है। इसी ने कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर प्रेरित करके उनके मन में तुम्हें दाँव पर रखने की इच्छा उत्पन्न की है, परंतु युधिष्ठिर इसे शकुनि का छल नहीं मानते हैं; इसीलिये मैं तुम्हारे इस प्रश्न का विवेचन नहीं कर पाता हूँ।
द्रौपदी ने कहा ;- जूआ खेलने में निपुण, अनार्य, दुष्टात्मा, कपटी तथा द्यूत प्रेमी धूर्तों ने राजा युधिष्ठिर को सभा में बुलाकर जूए का खेल आरम्भ कर दिया। इन्हें जूआ खेलने का अधिक अभ्यास नहीं है। फिर इनके मन में जूए की इच्छा क्यों उत्पन्न की गई? जिनके हृदय की भावना शुद्ध नहीं है, जो सदा छल और कपट में लगे रहते हैं, उन समस्त दुरात्माओं ने मिलकर इन भोले-भोले कुरु-पाण्डव-शिरोमणि महाराज युधिष्ठिर को पहले जूए में जीत लिया है, तत्पश्चात् ये मुझे दाँव पर लगाने के लिये विवश किये गये हैं। ये कुरुवंशी महापुरुष जो सभा में बैठे हुए हैं, सभी पुत्रों और पुत्र वधुओं के स्वामी हैं (सभी के घर में पुत्र और पुत्र-वधुएँ हैं), अत: ये सब लोग मेरे कथन पर अच्छी तरह विचार करके इस प्रश्न का ठीक-ठीक विवेचन करें। वह सभा नहीं है जहाँ वृद्ध पुरुष न हों, वे वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात न बतावें, वह धर्म नहीं है जिसमें सत्य न हो और वह सत्य नहीं है जो छल से युक्त हो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार द्रौपदी करूणस्वर में बोलकर रोती हुई अपने दीन पतियों की ओर देखने लगी। उस समय दु:शासन ने उसके प्रति कितने ही अप्रिय कठोर एवं कटुवचन कहे। कृष्णा राजस्वलावस्था मे घसीटी जा रही थी, उसके सिर का कपड़ा सरक गया था, वह इस तिरस्कार के योग्य कदापि नहीं थी। उसकी यह दुरवस्था देखकर भीमसेन को बड़ी पीड़ा हुई। वे युधिष्ठिर की ओर देखकर अत्यन्त कुपित हो उठे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में द्रौपदीप्रश्न-विषयक सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
अड़सठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"भीमसेन का क्रोध एवं अर्जुन का उन्हें शान्त करना, विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण के द्वारा विरोध, द्रौपदी का चीर-हरण एवं भगवान द्वारा उसकी लज्जा रक्षा तथा विदुर के द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिये प्रेरित करना"
भीमसेन बोले ;- भैया युधिष्ठिर! जुआरियों के घर में प्राय: कुलटा स्त्रियाँ रहती हैं, किंतु वे भी उन्हें दाँव पर लगाकर जुआ नहीं खेलते। उन कुलटाओं के प्रति भी उनके हृदय में दया रहती है। काशिराज ने जो धन उपहार में दिया था एवं और भी जो उत्तम द्रव्य वे हमारे लिये लाये थे तथा अन्य राजाओं ने भी जो रत्न हमें भेंट किये थे, उन सबको और हमारे वाहनों, वैभवों, कवचों, आयुधों, राज्य, आपके शरीर तथा हम सब भाइयों को भी शत्रुओं ने जूए के दाँव पर रखवाकर अपने अधिकार में कर लिया। किंतु इसके लिए मेरे मन में क्रोध नहीं हुआ; क्योंकि आप हमारे सर्वस्व के स्वामी हैं। पर द्रौपदी को जो दाँव पर लगाया गया, इसे मैं बहुत ही अनुचित मानता हूँ। यह भोली-भाली अबला पाण्डवों को पतिरूप में पाकर इस प्रकार अपमानित होने के योग्य नहीं थी, परंतु आपके कारण ये नीच, नृशंस और अजितेन्द्रिय कौरव इसे नाना प्रकार के कष्ट दे रहे हैं। राजन्! द्रौपदी की इस दुर्दशा के लिये में आप पर ही अपना क्रोध छोड़ता हूँ। आपकी दोनों बाहें जला डालूँगा। सहदेव! आग ले आओ।
अर्जुन बोले ;- भैया भीमसेन! तुमने पहले कभी ऐसी बातें नहीं कही थीं। निश्चय ही क्रूरकर्मा शत्रुओं ने तुम्हारी धर्मविषयक गौरव बुद्धि को नष्ट कर दिया है। भैया! शत्रुओं की कामना सफल न करो; उत्तम धर्म का ही आचरण करो। भला, अपने धर्मात्मा ज्येष्ठ भ्राता का अपमान कौन कर सकता है? महाराज युधिष्ठिर को शत्रुओं ने द्यूत के लिये बुलाया है; अत: ये क्षत्रियव्रत को ध्यान में रखकर दूसरों की इच्छा से जूआ खेलते हैं। यह हमारे महान् यश का विचार करने वाला है।
भीमसेन ने कहा ;- अर्जुन! यदि मैं इस विषय में यह न जानता कि इनका यह कार्य क्षत्रिय धर्म के अनुकूल ही है, तो बलपूर्वक प्रज्वलित अग्नि में इनकी दोनों बाँहों को एक साथ ही जलाकर राख कर डालता।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पाण्डवों को दुखी और पांचाल राजकुमारी द्रौपदी को घसीटी जाती हुई देख धृतराष्ट्रनन्दन विकर्ण ने यह कहा,,
विकर्ण बोला ;- ‘भूमिपालो! द्रौपदी ने जो प्रश्न उपस्थित किया है, उसका आप लोग उत्तर दें। यदि इसके प्रश्न का ठीक-ठीक विवेचन नहीं किया गया, तो हमें शीघ्र ही नरक भोगना पड़ेगा। पितामह भीष्म और पिता धृतराष्ट्र - ये दोनों कुरुवंश के सबसे वृद्ध पुरुष हैं। ये तथा परम बुद्धिमान विदुर जी मिलकर कुछ उत्तर क्यों नहीं देते? हम सबके आचार्य भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ये दोनों ब्राह्मण कुल के श्रेष्ठ पुरुष हैं। ये दोनों भी इस प्रश्न पर अपने विचार क्यों नहीं प्रकट करते? जो दूसरे राजा लोग चारों दिशाओं से यहाँ पधारे हैं, वे सभी काम और क्रोध को त्यागकर अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दें। राजाओ! कल्याणी द्रौपदी ने बार-बार जिस प्रश्न को दुहराया है, उस पर विचार करके आप लोग उत्तर दें, जिससे मालूम हो जाय कि इस विषय में किसका क्या पक्ष (विचार) है।’
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार विकर्ण ने उन सब सभासदों से बार-बार अनुरोध किया; परंतु उन नरेशों ने उस विषय में उससे भला-बुरा कुछ नहीं कहा। उन सब राजओं से बार-बार आग्रह करने पर भी जब कुछ उत्तर नहीं मिला, तब विकर्ण ने हाथ पर हाथ मलते हुए लंबी साँस खींचकर कहा,,
विकर्ण फिर बोला ;- ‘कौरवो तथा अन्य भूमिपालो! आप लोग द्रौपदी के प्रश्न-पर किसी प्रकार का विचार प्रकट करें या न करें, मैं इस विषय में जो न्यायसंगत समझता हूँ वह कहता हूँ। नरश्रेष्ठ भूपालो! राजाओं के चार दुर्व्यसन बताये गये हैं- शिकार, मदिरापान, जूआ तथा विषय भोग में अत्यन्त आसक्ति। इन दुर्व्यसनों में आसक्त मनुष्य धर्म की अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करने लगता है।
इस प्रकार व्यसनासक्त पुरुष के द्वारा किये हुए किसी भी कार्य को लोग सम्मान नहीं देते हैं। ये पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर द्यूतरूपी दुर्व्यसन में अत्यन्त आसक्त हैं। इन्होंने धूर्त जुआरियों से प्रेरित होकर द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया है। सती-साध्वी द्रौपदी समस्त पाण्डवों की समानरूप से पत्नी है, केवल युधिष्ठिर की ही नहीं है। इसके सिवा, पाण्डुकुमार युधिष्ठिर पहले अपने आपको हार चुके थे, उसके बाद उन्होंने द्रौपदी को दाँव पर रखा है। सब दाँवों को जीतने की इच्छा वाले सुबलपुत्र शकुनि ने ही द्रौपदी को दाँव पर लगाने की बात उठायी है। इन सब बातों पर विचार करके मैं द्रुपदकुमारी कृष्णा को जीती हुई नहीं मानता’। यह सुनकर सभी सभासद विकर्ण की प्रशंसा और सुबलपुत्र शकुनि की निन्दा करने लगे। उस समय वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया। उस कोलाहल शान्त होने पर राधानन्दन कर्ण क्रोध से मूर्च्छित हो उसकी सुन्दर बाँह पकड़कर इस प्रकार बोला।
कर्ण ने कहा ;- विकर्ण! इस जगत् में बहुत-सी वस्तुएँ विपरीत परिणाम उत्पन्न करने वाली देखी जाती हैं। जैसे अरणि से उत्पन्न हुई अग्नि उसी को जला देती है, उसी प्रकार कोई-कोई मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है, उसी का विनाश करने वाला बन जाता है। रोग यद्यपि शरीर में ही पलता है, तथापि वह शरीर के ही बल का नाश करता है। पशु घास को ही चरते हैं, फिर भी उसे पैरों से कुचल डालते हैं। उसी प्रकार कुरु-कुल में उत्पन्न होकर भी तुम अपने ही पक्ष को हानि पहुँचाना चाहते हो। विकर्ण! द्रोण, भीष्म, कृप, अश्वत्थामा, महाबुद्धिमान विदुर, धृतराष्ट्र तथा गांधारी -ये तुमसे अधिक बुद्धिमान हैं। द्रौपदी ने बार-बार प्रेरित किया है, तो भी ये सभासद कुछ भी नहीं बोलते हैं; क्योंकि ये सब लोग द्रुपदकुमारी को धर्म के अनुसार जीती हुई समझते हैं।
धृतराष्ट्रकुमार! तुम केवल अपनी मूर्खता के कारण आप ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हो; क्योंकि तुम बालक होकर भी भरी सभा में वृद्धों की-सी बातें करते हो। दुर्योधन के छोटे भाई! तुम्हें धर्म के विषय में यथार्थ ज्ञान नहीं है। तुम जो जीती हुई द्रौपदी को नहीं जीती हुई बता रहे हो, इससे तुम्हारे मन्दबुद्धि होने का परिचय मिलता है। धृतराष्ट्रकुमार! तुम कृष्णा को नहीं जीती हुई कैसे मानते हो? जबकि पाण्डवों के बड़े भाई युधिष्ठिर ने द्यूत सभा के बीच अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! द्रौपदी भी तो सर्वस्व के भीतर ही है। इस प्रकार जब कृष्णा को धर्मपूर्वक जीत लिया गया है, तब तुम उस नहीं जीती हुई क्यों समझते हो? युधिष्ठिर ने अपनी वाणी द्वारा कहकर द्रौपदी को दाँव पर रखा और शेष पाण्डवों ने मौन रहकर उसका अनुमोदन किया। फिर किस कारण से तुम उसे नहीं जीती हुई मानते हो? अथवा यदि तुम्हारी यह राय हो कि एकवस्त्रा द्रौपदी को इस सभा में अधर्मपूर्वक लाया गया है, तो इसके उत्तर में भी मेरी उत्तम बात सुनो। कुरुनन्दन! देवताओं ने स्त्री के लिये एक ही पति का विधान किया है; परंतु यह द्रौपदी अनेक पतियों के अधीन है, अत: निश्चय ही वेश्या है। इसका सभा में लाया जाना कोई अनोखी बात नहीं हैं। यह एकवस्त्रा अथवा नंगी हो तो भी यहाँ लायी जा सकती है, यह मेरा स्पष्ट मत है। इन पाण्डवों के पास जो कुछ धन है, जो यह द्रौपदी है तथा जो ये पाण्डव हैं, इन सबको सुबलपुत्र शकुनि ने यहाँ जूए के धन के रूप में धर्मपूर्वक जीता है। दु:शासन! यह विकर्ण अत्यन्त मूढ़ है, तथापि विद्वानों की–सी बातें बनाता है। तुम पाण्डवों के और द्रौपदी के भी वस्त्र उतार लो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कर्ण की बात सुनकर समस्त पाण्डव अपने-अपने उत्तरीय वस्त्र उतारकर सभा में बैठ गये। राजन्! तब दु:शासन ने उस भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्र बलपूर्वक पकड़कर खींचना प्रारम्भ किया।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब वस्त्र खींचा जाने लगा, तब द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया।
द्रौपदी ने मन-ही-मन कहा,,- मैंने पूर्वकाल में महात्मा वसिष्ठ जी की बतायी हुई इस बात को अच्छी तरह समझा है कि भारी विपत्ति पड़ने पर भगवान श्रीहरि का स्मरण करना चाहिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा विचारकर द्रौपदी ने बार-बार ‘गोविन्द’ और ‘कृष्ण’ का नाम लेकर पुकारा और आपत्ति काल में अभय देने वाले लोक प्रपितामह नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का मन-ही-मन चिन्तन किया। ‘गोविन्द! हे द्वारकावासी श्रीकृष्ण! हे गोपांगनाओं के प्राणवल्लभ केशव! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्या आप नहीं जानते? हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे संकटनाशन जनार्दन! मैं कौरवरूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। सच्च्िदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण! महायोगिन्! विश्रमात्मन्! विश्वभावन! गोविन्द! कौरवों के बीच में कष्ट पाती हुई मुझे शरणागत अबला की रक्षा कीजियें’।
राजन्! इस प्रकार तीनों लोकों के स्वामी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का बार-बार चिन्तन करके मानिनी द्रौपदी दुखी हो अंचल से मुँह ढककर जोर-जोर से रोने लगी। द्रुपद्रनन्दिनी की वह करूण पुकार सुनकर कृपालु श्रीकृष्ण गद्गद हो गये तथा शय्या और आसन छोड़कर दया से द्रवित हो पैदल ही दौड़ पड़े। यज्ञसेनकुमारी कृष्णा अपनी रक्षा के लिये श्रीकृष्ण, विष्णु, हरि और नर आदि भगवन्नामों को जोर-जोर से पुकार रही थी। इसी समय धर्मस्वरूप महात्मा श्रीकृष्ण ने अव्यक्तरूप से उसके वस्त्र में प्रवेश करके भाँति-भाँति के सुन्दर वस्त्रों द्वारा द्रौपदी को आच्छादित कर लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 47-66 का हिन्दी अनुवाद)
जनमेजय! द्रौपदी के वस्त्र खींचे जाते समय उसी तरह के दूसरे-दूसरे अनेक वस्त्र प्रकट होने लगे। राजन्! धर्मपालन के प्रभाव से वहाँ भाँति-भाँति के सैकड़ों रंग-बिरेंगे वस्त्र प्रकट होते रहे। उस समय वहाँ बड़ा भयंकर कोलाहल मच गया। जगत् में यह अद्भुत हृदय देखकर सब राजा द्रौपदी की प्रशंसा और दु:शासन की निन्दा करने लगे। उस समय वहाँ समस्त राजाओं के बीच हाथ पर हाथ मलते हुए भीमसेन ने क्रोध से फड़कते हुए ओठों द्वारा भयंकर गर्जना के साथ यह शाप दिया (प्रतिज्ञा की)।
भीमसेन ने कहा ;- देश-देशान्तर के निवासी क्षत्रियो! आप लोग मेरी इस बात पर ध्यान दें। ऐसी बात आज से पहले न तो किसी ने कही होगी और न दूसरा कोई कहेगा ही। भूमिपालो! यह खोटी बुद्धि वाला दु:शासन भरतवंश के लिये कलंक है। मैं युद्ध में बलपूर्वक इस पापी की छाती फाड़कर इसका रक्त पीऊँगा। यदि न पीऊँ अर्थात्- अपनी कही हुई उस बात को पूरा न करूँ, तो मुझे अपने पूर्वज बाप-दादों की श्रेष्ठ गति न मिले।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भीमसेन की यह रोंगटे खडे़ कर देने वाली भयंकर बात सुनकर वहाँ बैठे हुए राजाओं ने धृतराष्ट्रपुत्र दु:शासन की निन्दा करते हुए भीमसेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जब सभा में वस्त्रों का ढेर लग गया, तब दु:शासन थककर लज्जित हो चुपचाप बैठ गया। उस समय कुन्तीपुत्रों की ओर देखकर सभा में उपस्थित नरेशों की ओर से दु:शासन पर रोमांचकारी शब्दों में धिक्कार की बौछार होने लगी। कौरव द्रौपदी के पूवोक्त प्रश्न पर स्पष्ट विवेचन नहीं कर रहे थे, अत: वहाँ बैठे हुए लोग राजा धृतराष्ट्र की निन्दा करते हुए उन्हें कोसने लगे। तब सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता विदुर जी ने अपनी दोनों भुजाए उपर उठाकर सभासदों को चुप कराया और इस प्रकार कहा।
विदुर जी बोले ;- इस सभा में पधारे हुए भूपालगण! द्रुपदीकुमारी कृष्णा यहाँ अपना प्रश्न उपस्थित करके इस तरह अनाथ की भाँति रो रही है; परंतु आप लोग उसका विवेचन नहीं करते, अत: यहाँ धर्म की हानि हो रही है। संकट में पड़ा हुआ मनुष्य अग्नि की भाँति चिन्ता से प्रज्वलित हुआ सभा की शरण लेता है, उस समय सभासदगण धर्म और सत्य का आश्रय लेकर अपने वचनों द्वारा उसे शान्त करते हैं। अत: श्रेष्ठ मनुष्य को उचित है कि वह धर्मानुकूल प्रश्न को सच्चाई के साथ उपस्थित करे और सभासदों को चाहिये कि वे काम-क्रोध के वेग से ऊपर उठकर उस प्रश्न का ठीक-ठीक विवेचन करें।
राजाओ! विकर्ण ने अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दिया है, अब आप लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उस प्रश्न का निर्णय करें। जो धर्मज्ञ पुरुष सभा में जाकर वहाँ उपस्थित हुए प्रश्न का उत्तर नहीं देता, वह झूठ बोलने के आधे फल का भागी होता है। इसी प्रकार जो धर्मज्ञ मानव सभा में जाकर किसी प्रश्न पर झूठा निर्णय देता है, वह निश्चय ही असत्य भाषण का पूरा फल (दण्ड) पाता है। इस विषय में विज्ञपुरुष प्रह्लाद और अंगिराकुमार मुनि सुधन्वा के संवाद् रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। दैत्यराज प्रह्लाद के एक पुत्र था विरोचन। उसका केशिनी नामवाली एक कन्या की प्राप्ति के लिये अंगिरा के पुत्र सुधन्वा के साथ विवाद हो गया।
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सभा पर्व (द्यूत पर्व)
उनहत्तरवाँ अध्याय
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सत्तरवाँ अध्याय
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