सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
इकसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"जूए में शकुनि के छल से प्रत्येक दाँव पर युधिष्ठिर की हार"
युधिष्ठिर ने कहा ;- शकुने! तुमने छल से इस दाँव में मुझे हरा दिया, इसी पर तुम गर्वित हो उठे हो; आओ, हम लोग पुन: परस्पर पासे फेंककर जुआ खेलें। मेरे पास हजारों निष्कों से भरी हुई बहुत-सी सुन्दर पेटियाँ रखी हैं। इसके सिवा खजाना है, अक्षय धन है और अनेक प्रकार के सुवर्ण हैं। राजन्! मेरा यह सब धन दाँव पर लगा दिया गया। मैं इसी के द्वारा तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले कौरवों के वंशधर एवं पाण्डु के ज्येष्ठ पुत्र राजा युधिष्ठिर से शकुनि ने फिर कहा,,
शकुनि बोला ;- ‘लो, यह दाँव भी मैंने ही जीता’।
युधिष्ठिर ने कहा ;- यह जो परमानन्ददायक राजरथ है, जो हम लोगों को यहाँ तक ले आया है, रथों में श्रेष्ठ जैत्र नामक पुण्यमय श्रेष्ठ रथ है। चलते समय इससे मेघ और समुद्र की गर्जना के सम्मान गम्भीर ध्वनि होती रहती है। यह अकेला ही एक हजार रथों के समान है। इसके ऊपर बाघ का चमड़ा लगा हुआ है। यह अत्यन्त सुदृढ़ है। इसके पहिये तथा अन्य आवश्यक सामग्री बहुत सुन्दर है। यह परंम शोभायमान रथ क्षुद्र घण्टिकाओं से सजाया गया है। कुरर पक्षी की सी कान्ति वाले आठ अच्छे घोड़े, जो समूचे राष्ट्र में सम्मानित हैं, इस रथ को वहन करते हैं। भूमिका स्पर्श करने-वाला कोई भी प्राणी इन घोड़ों के सामने पड़ जाने पर बच नहीं सकता। राजन् इन घोड़ों सहित यह रथ मेरा धन है, जिसे दाँव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर छल का आश्रय लेने वाले शकुनि ने पुन: पासे फेंके और जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- ‘लो, यह भी जीत लिया’।
युधिष्ठिर ने कह ;- मेरे पास एक लाख तरुणी दासियाँ हैं, जो सुवर्णमय मांगलिक आभूषण धारण करती हैं। जिनके हाथों में शंख की चूडि़याँ, बाँहों में भुजबंद, कण्ठ में निष्कों का हार तथा अन्य अंगों में भी सुन्दर आभूषण हैं। बहुमूल्य हार उनकी शोभा बढ़ाते हैं। उनके वस्त्र बहुत ही सुन्दर हैं। वे अपने शरीर में चन्दन का लेप लगाती हैं, मणि और सुवर्ण धारण करती हैं तथा चौसठ कलाओं में निपुण हैं। नृत्य और गाने में भी वे कुशल हैं। ये सब-की-सब मेरे आदेश से स्नातकों, मन्त्रियों तथा राजाओं की सेवा-परिचर्या करती हैं। राजन्! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनि ने पुन: जीत का निश्चय करके पासे फेंके और युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- 'यह दाँव भी मैंने ही जीता'।
युधिष्ठिर ने कहा ;- दासियों की तरह ही मेरे यहाँ एक लाख दास हैं। वे कार्यकुशल तथा अनुकूल रहने वाले हैं। उनके शरीर पर सदा सुन्दर उत्तरीय वस्त्र सुशोभित होते हैं। वे चतुर, बुद्धिमान्, संयमी और तरुण अवस्था वाले हैं। उनके कानों में कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं। वे हाथों में भोजनपात्र लिये दिन-रात अतिथियों को भोजन परोसते रहते हैं। राजन्! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 14-31 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर पुन: शठता का आश्रय लेने वाले शकुनि ने अपनी ही जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- 'लो, यह दाँव भी मैंने जी लिया'।
युधिष्ठिर ने कहा ;- सुबलकुमार! मेरे यहाँ एक हजार मतवाले हाथी हैं, जिनके बाँधने के रस्से सुवर्णमय हैं। वे सदा आभूषणों से विभूषित रहते हैं। उनके कपोल और मस्तक आदि अगों पर कमल के चिह्न बने हुए हैं। उनके गले में सोने के हार सुशोभित होते हैं। वे अच्छी तरह वश में किये हुए हैं और राजाओं की सवारी के काम में आते हैं। युद्ध में वे सब प्रकार के शब्द सहन करने वाले हैं। उनके दाँत हलदण्ड के समान लंबे हैं और शरीर विशाल है। उनमें से प्रत्येक के आठ-आठ हथिनियाँ हैं। उनकी कान्ति नूतन मेघों की घटा के समान है। वे सबके-सब बड़े-बड़े नगरों को भी नाश कर देने की शक्ति रखते हैं। राजन्। यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसी बातें कहते हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से शकुनि ने हँसकर कहा,,
शकुनि बोला ;- 'इस दाँव को भी मैंने ही जीता'।
युधिष्ठिर ने कहा ;- मेरे पास उतने ही अर्थात् एक हजार रथ हैं, जिनकी ध्वजाओं में सोने के डंडे लगे हैं। उन रथों पर पताकाएँ फहराती रहती हैं। उनमें सधे हुए घोड़े जोते जाते हैं और विचित्र युद्ध करने वाले रथी उनमें बैठते हैं। उन रथियों में से प्रत्येक को अधिक-से-अधिक एक सहस्त्र स्वर्णमुद्राएँ तक वेतन में मिलती हैं। वे युद्ध कर रहे हों या न कर रहे हों, प्रत्येक मास में उन्हें यह वेतन प्राप्त होता रहता है। राजन्! यह मेरा धन है, इसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उनके ऐसा कहने पर वैरी दुरात्मा शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- 'लो, यह भी जीत लिया'।
युधिष्ठिर ने कहा ;- मेरे यहाँ तीतर पक्षी के समान विचित्र वर्ण वाले गन्धर्व देश के घोडे़ है, जो सोने के हार से विभूषित हैं। शत्रुदमन चित्ररथ गंधर्व ने युद्ध में पराजित एवं तिरस्कृत होने के पश्चात संतुष्ट हो गाण्डीवधारी अर्जुन को प्रेमपूर्वक वे घोड़े भेंट किये थे। राजन्! यह मेरा धन है जिस दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर छल का आश्रय लेने वाले शकुनि ने पुन: अपनी ही जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- 'यह दाँव भी मैंने ही जीता है'।
युधिष्ठिर ने कहा ;- मेरे पास दस हजार श्रेष्ठ रथ और छकडे़ हैं। जिनमें छोटे-बडे़ वाहन सदा जुटे ही रहते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वर्ण के हजारों चुन हुए योद्धा मेरे यहाँ एक साथ रहते हैं। वे सब-के-सब वीरोचित पराक्रम से सम्पन्न एवं शूरवीर हैं। उनकी संख्या साठ हजार हैं। वे दूध पीते और शालि के चावल का भात खाकर रहते हैं। उन सबकी छाती बहुत चौड़ी है। राजन्! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर शठता के उपासक शकुनि ने पुन: युधिष्ठिर से पूर्ण निश्चय के साथ कहा,
शकुनि बोला ;-'यह दाँव भी मैंने ही जीता है'।
युधिष्ठिर ने कहा ;- मेरे पास ताँबे और लोहे की चार सौ निधियाँ यानि खजाने से भरी हुई पेटियाँ हैं। प्रत्येक में पाँच-पाँच द्रोण विशुद्ध सोना भरा हुआ है, यह सारा सोना तपाकर शुद्ध किया हुआ हैं, उसकी कीमत आँकी नहीं जा सकती। भारत! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा सुनकर छल का आश्रय लेने वाले शकुनि ने पूर्ववत् पूर्ण निश्चय के साथ युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- 'यह दाँव भी मैंने ही जीता'।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में द्यूतक्रीड़ाविषयक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
बासठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार जब सर्वस्व का अपहरण करने वाली वह भयानक द्यूतक्रीड़ा चल रही थी, उसी समय समस्त संशयों का निवारण करने वाले विदुर जी बोल उठे।
विदुर जी ने कहा ;- भरतकुलतिलक महाराज धृतराष्ट्र! मरणासन्न रोगी को जैसे ओषधि अच्छी नहीं लगती, उसी प्रकार आप लोगों को मेरी शास्त्रसम्मत बात भी अच्छी नहीं लगेगी। फिर भी मैं आपसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे अच्छी तरह सुनिये और समझिये। यह भरतवंश का विनाश करने वाला पापी दुर्योधन पहले जब गर्भ से बाहर निकला था, गीदड़ के समान जोर-जोर से चिल्लाने लगा था; अत: यह निश्चय ही आप सब लोगों के विनाश का कारण बनेगा। राजन्! दुर्योधन के रूप में आपके घर के भीतर एक गीदड़ निवास कर रहा है; परंतु आप मोहवश इस बात को समझ नहीं पाते। सुनिये, मैं आपको शुक्राचार्य की कही हुई नीति की बात बतलाता हूँ। मधु बेचने वाला मनुष्य जब कहीं ऊँचे वृक्ष आदि पर मधु का छत्ता देख लेता है, तब वहाँ से गिरने की सम्भावना की ओर ध्यान नहीं देता। वह ऊँचे स्थान पर चढ़कर या तो मधु पाकर मग्न हो जाता है अथवा उस स्थान से नीचे गिर जाता है। वैसे ही यह दुर्योधन जूए के नशे में इतना उन्मत्त हो गया है कि मधुमत्त पुरुष की भाँति अपने ऊपर आने वाले संकट को नहीं देखता। महारथी पाण्डवों के साथ वैर करके हमें पतन के गर्त में गिरकर मरना पड़ेगा, इस बात को समझ नहीं पा रहा है।
महाप्राज्ञ! मुझे मालूम है कि भोजवंश के एक नरेश ने पूर्वकाल में पुरवासियों के हित की इच्छा से अपने कुमार्गगामी पुत्र का परित्याग कर दिया था। अन्धकों, यादवों और भोजों ने मिलकर कंस को त्याग दिया तथा उन्हीं के आदेश से शत्रुघाती श्रीकृष्ण ने उसको मार डाला। इस प्रकार उसके मारे जाने से समस्त बन्धु-बान्धव सदा के लिये सुखी हो गये हैं। आप भी आज्ञा दें तो ये सव्यसाची अर्जुन इस दुर्योधन को बंदी बना ले सकते हैं। इसी पापी के कैद हो जाने से समस्त कौरव सुख और आनन्द से रह सकते हैं। राजन्! दुर्योधन कौवा है और पाण्डव मोर। इस कौवे को देकर आप विचित्र पंख वाले मयूरों को खरीद लीजिये। इस गीदड़ के द्वारा इन पाण्डव रूपी शेरों को अपनाइये। शोक के समुद्र में डूबकर प्राण न दीजिये। समूचे कुल की भलाई के लिये एक मनुष्य को त्याग दे, गाँव के हित के लिये एक कुल को छोड़ दे, देश की भलाई के लिये एक गाँव को त्याग दे और आत्मा के उद्धार के लिये सारी पृथ्वी का ही परित्याग कर दे।
सबके मनोभावों को जानने वाले तथा सब शत्रुओं के लिये भयंकर सर्वज्ञ शुक्राचार्य ने जम्भ दैत्य को त्याग करने के समय समस्त बडे़-बड़े असुरों से यह कथा सुनायी थी। एक वन में कुछ पक्षी रहते थे, जो अपने मुख से सोना उगला करते थे। एक दिन जब वे अपने घोंसलों में आराम से बैठे थे, उस देश के राजा ने उन्हें लोभवश मरवा डाला। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! उस राजा को एक साथ बहुत-सा सुवर्ण पा लेने की इच्छा थी। उपभोग- के लोभ ने उसे अंधा बना दिया था।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 14-17 का हिन्दी अनुवाद)
अत: उसने उस धन के लोभ से उन पक्षियों का वध करके वर्तमान और भविष्य दोनों लाभों का तत्काल नाश कर दिया। राजन्! इसी प्रकार आप पाण्डवों का सारा धन हड़प लेने के लोभ से उनके साथ द्रोह न करें। अन्यथा उन पक्षियों की हिंसा करने वाले राजा की भाँति आपको भी मोहवश पश्चात्ताप करना पड़ेगा। इस द्रोह से आपका उसी तरह सर्वनाश हो जायगा, जैसे बंसी का काँटा निगल लेने से मछली का नाश हो जाता है।
भरतकुलभूषण! जैसे माली उद्यान के वृक्षों को बार-बार सींचता रहता है और समय-समय पर उनसे खिले पुष्पों को चुनता भी रहता है, उसी प्रकार आप पाण्डवरूपी वृक्षों को स्नेहजल से सींचते हुए उनसे उत्पन्न होने वाले धनरूपी पुष्पों को लेते रहिये। जैसे कोयला बनाने वाला वृक्षों को जलाकर भस्म कर देता है, उसी प्रकार आप इन्हें जड़ मूल सहित जलाने की चेष्टा न कीजिये। कहीं ऐसा न हो कि पाण्डवों के साथ विरोध करने के कारण आपको पुत्र, मन्त्री और सेना के साथ यमलोक में जाना पड़े।
भरतवंशीय राजन्! देवताओं सहित साक्षात् देवराज इन्द्र ही क्यों न हों, जब कुन्तीपुत्र संगठित होकर युद्ध के लिये तैयार होंगे, उनका मुकाबला कौन कर सकता है?
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में विदुर के हितकारक-वचनसम्बन्धी बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
तिरसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)
"विदुर जी के द्वारा जूए का घोर विरोध"
विदुर जी बोल ;- महाराज! जूआ खेलना झगडे़ की जड़ है। इससे आपस में फूट पैदा होती है, जो बड़े भयंकर संकट की सृष्टि करती है। यह धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन उसी का आश्रय लेकर इस समय भयानक वैर की सृष्टि कर रहा है। दुर्योधन के अपराध से प्रतीप, शान्तनु, भीमसेन तथा बाह्लीक के वंशज सब प्रकार से घोर संकट में पड़ जायँगे। जैसे मतवाला बैल मदोन्मत्त होकर स्वयं ही अपने सींगों को तोड़ लेता है, उसी प्रकार यह दुर्योधन मदान्धता के कारण स्वयं अपने राज्य से मंडल का बहिष्कार कर रहा है। राजन्! जो वीर और विद्वान् मनुष्य अपनी दृष्टि की अवहेलना करके दूसरे के चित्त के अनुसार चलता है, वह समुद्र में मूर्ख नाविक द्वारा चलायी जाती हुई बैठे हुए मनुष्य के समान भयंकर विपत्ति में पड़ जाता है। दुर्योधन पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के साथ दाँव लगाकर जूआ खेल रहा है, साथ ही वह जीत भी रहा है; यह सोचकर तुम बहुत प्रसन्न हो रहे हो; किंतु आज का यह अतिशय विनोद शीघ्र ही भयंकर युद्ध के रूप में परिणत होने वाला है, जिससे (अगणित) मनुष्यों का संहार होगा।
जूआ अध:पतन करने वाला है; परंतु शकुनि ने उत्तम मानकर यहाँ उपस्थित किया है। यह जूए का निश्चय आप लोगों के हृदय में गुप्त मन्त्रणा के पश्चात् स्थिर हुआ है। परंतु यह जूए- का खेल आपके अपने ही बन्धु युधिष्ठिर के साथ आप के विचार और इच्छा के विरुद्ध कलह के रूप में परिणत हो जाएगा। प्रतीप और शान्तनु के वंशजो! कौरवों की सभा में मेरी कही हुई बात ध्यान से सुनो! यह विद्वानों को भी मान्य है। तुम लोग इस मूर्ख दुर्योधन के पीछे चलकर वैर की धधकती हुई भयानक आग में न कूदो। जूए के मद में भूले हुए अजातशत्रु युधिष्ठिर जब अपना क्रोध न रोक सकेंगे तथा भीमसेन, अर्जुन एवं नकुल-सहदेव भी जब क्रुद्ध हो उठेंगे, उस समय घमासान युद्ध छिड़ जाने पर विपित्त के महासागर में डूबते हुए तुम लोगों का कौन आश्रयदाता होगा?
महाराज! आप जूए से पहले भी मन से जितना धन चाहते, उतना धन पा सकते थे; यदि अत्यन्त धनवान् पाण्डवों को आपने जूए के द्वारा जीत ही लिया तो इससे आपका क्या होगा? कुन्ती के पुत्र स्वयं ही धनस्वरूप हैं। आप इन्हीं को अपनाइये। मैं सुबलपुत्र शकुनि का जूआ खेलना कैसा है, यह जानता हूँ। यह पर्वतीय नरेश जूए की सारी कपटविद्या को जानता है। मेरी इच्छा है कि यह शकुनि जहाँ से आया है, वहाँ लौट जाय। भारत! इस तरह कौरवों तथा पाण्डवों में युद्ध की आग न भड़काओ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में विदुरवाक्य-विषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
चौसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतु:षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन का विदुर को फटकारना और विदुर का उसे चेतावनी देना"
दुर्योधन बोल ;- विदुर! तुम सदा हमारे शत्रुओं के ही सूर्यवश की डींग हाँकते रहते हो और हम सभी धृतराष्ट्र के पुत्रों की निन्दा किया करते हो। तुम किसके प्रेमी हो, यह हम जानते हैं, हमें मूर्ख समझकर तुम सदा हमारा अपमान ही करते रहते हो। जो दूसरों को चाहने वाला है, यह मनुष्य पहचान में आ जाता है; क्योंकि वह जिसके प्रति द्वेष होता है, उसकी निन्दा और जिसके प्रति राग होता है, उसकी प्रशंसा में संलग्न रहता है। तुम्हारा हृदय हमारे प्रति किस प्रकार द्वेष से परिपूर्ण है, यह बात तुम्हारी जिह्वा प्रकट कर देती है। तुम अपने से श्रेष्ठ पुरुषों के प्रति इस प्रकार हृदय का द्वेष न प्रकट करो। हमारे लिये तुम गोद में बैठे साँप के समान हो और बिलाव की भाँति पालने वाले का ही गला घोंट रहे हो। तुम स्वामि-द्रोह रखते हो, फिर भी तुम्हें लोग पापी नहीं कहते? विदुर! तुम इस पाप से डरते क्यों नहीं? हमने शत्रुओं को जीतकर (धनरूप) महान् फल प्राप्त किया है। विदुर! तुम हमसे यहाँ कटु वचन न बोलो। तुम शत्रुओं के साथ मेल करके प्रसन्न हो रहे हो और हमारे साथ मेल करके भी अब (हमारे शत्रुओं की प्रशंसा करके) हम लोगों के बार-बार द्वेष के पात्र बन रहे हो अक्षम्य कटुवचन बोलने वाला मनुष्य शत्रु बन जाता है। शत्रु की प्रशंसा करते समय भी लोग अपने गूढ़ मनोभाव को छिपाये रखते हैं। निर्लज्ज विदुर! तुम भी उसी नीति का आश्रय लेकर चुप क्यों नहीं रहते? हमारे काम में बाधा क्यों डालते हो? तुम जो मन में आता है, वही बक जाते हो।
विदुर! तुम हम लोगों का अपमान न करो, तुम्हारे इस मन को जान चुके हैं। तुम बड़े बूढ़ों के निकट बैठकर बुद्धि सीखो। अपने पूर्वार्जित यश की रक्षा करो। दूसरों के कामों में हस्तक्षेप न करो। विदुर! 'मैं ही कर्ता-धर्मा हूँ' ऐसा न समझो और हमें प्रतिदिन कड़वी बातें न कहो। मैं अपने हित के सम्बन्ध में तुमसे कोई सलाह नहीं पूछता हूँ। तुम्हारा भला हो। हम तुम्हारी कठोर बातें सहते चले जाते हैं, इसलिये हम क्षमाशीलों को तुम अपने वचनरूपी बाणों से छेदो मत। देखों, इस जगत् का शासन करने वाला एक ही है, दूसरा नहीं। वही शासक माता के गर्भ में सोये हुए शिशु पर भी शासन करता है; उसी के द्वारा मैं भी अनुशासित हूँ। अत: जैसे जल स्वाभाविक ही नीचे की ओर जाता है, वैसे ही वह जगन्नियन्ता मुझे जिस काम में लगाता है, मैं वैसे ही उसी काम में लगता हूँ। जिनसे प्रेरित होकर मनुष्य अपने सिर से पर्वत को विदीर्ण करना चाहता है- अर्थात् पत्थर पर सिर पटककर स्वयं ही अपने को पीड़ा देता है तथा जिनकी प्रेरणा से मनुष्य सर्प को भी दूध पिलाकर पालता है, उसी सर्वनियन्ता की बुद्धि समस्त जगत् के कार्यों का अनुशासन करती है। जो बलपूर्वक किसी पर अपना उपदेश लादता है, वह अपने उस व्यवहार के द्वारा उसे अपना शत्रु बना लेता है। इस प्रकार मित्रता का अनुसरण करने वाले मनुष्य को विद्वान् पुरुष त्याग दे। भारत! जो पहले कपूर में आग लगाकर उसके प्रज्वलित हो जाने पर देर तक उसे बुझाने के लिये नहीं दौड़ता, वह कहीं उसकी बची हुई राख भी नहीं पाता।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतु:षष्टितम अध्याय के श्लोक 11-20 का हिन्दी अनुवाद)
विदुर! जो शत्रु का पक्षपाती हो, अपने से द्वेष रखता हो और अहित करने वाला हो, ऐसे मनुष्य को घर में नहीं रहने देना चाहिये। अत: तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चले जाओ। कुलटा स्त्री को मीठी-मीठी बातों द्वारा कितनी ही सान्त्वना दी जाय, वह पति को छोड़ ही देती है।
विदुर ने कहा ;- राजन्! जो इस प्रकार मन के प्रतिकूल किंतु हित भरी शिक्षा देने मात्र से अपने हितैषी पुरुष को त्याग देते हैं, उनका वह बर्ताव कैसा है, यह आप साक्षी की भाँति् पक्षपातरहित होकर बताइये; क्योंकि राजाओं के चित्त द्वेष सें भरे होते हैं, इसलिये वे सामने मीठे वचनों द्वारा सान्त्वना देकर पीठ-पीछे मूसलों से आघात करवाते हैं।
राजकुमार दुर्योधन! तुम्हारी बुद्धि बड़ी मन्द है। तुम अपने को विद्वान् और मुझे मूर्ख समझते हो। जो किसी पुरुष को सुहृद् के पद पर स्थापित करके फिर स्वयं ही उस पर दोषारोपण करता है, वही मूर्ख है। जैसे श्रोत्रिय के घर में दुराचारिणी स्त्री कल्याणमय अग्नि-होत्र आदि कार्यों में नहीं लगायी जा सकती, उसी प्रकार मन्द-बुद्धि पुरुष को कल्याण मार्ग पर नहीं लगाया जा सकता। जैसे कुमारी कन्या को साठ वर्ष का बूढ़ा पति नहीं पसंद था आ सकता, उसी प्रकार भरतवंश शिरोमणि दुर्योधन को निश्चय ही मेरा उपदेश रुचिकर नहीं प्रतीत होता। राजन्! यदि तुम भले-बुरे सभी कार्यों में केवल चिकनी-चुपड़ी बातें ही सुनना चाहते हो, तो स्त्रियों, मूर्खों, पडुओं तथा उसी तरह के अन्य सब मनुष्यों से सलाह लिया करो।
इस संसार में सदा मन को प्रिय लगने वाले वचन बोलने-वाला महापापी मनुष्य भी अवश्य मिल सकता है; परंतु हितकर होते हुए भी अप्रिय को कहने और सुनने वाले दोनों दुर्लभ हैं। जो धर्म में तत्पर रहकर स्वामी के प्रिय-अप्रिय का विचार छोड़कर अप्रिय होने पर भी हितकर वचन बोलता है, वही राजा का सच्चा सहायक है। महाराज! जो पी लेने पर मानसिक रोगों का नाश करने वाला है, कड़वी बातों से जिसकी उत्पत्ति होती है, जो तीखा, तापदायक, कीर्तिनाशक, कठोर और दूषित प्रतीत होता है, जिसे दुष्ट लोग नहीं पी सकते तथा जो सत्यपुरुषों के पीने की वस्तु है, उस क्रोध को पीकर शान्त हो जाइये। मैं तो चाहता हूँ कि विचित्रवीर्य नन्दन धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों को सदा यश और धन दोनों प्राप्त हों, परंतु दुर्योधन! तुम जैसे रहना चाहते हो, वैसे रहो, तुम्हें नमस्कार है। ब्राह्मण लोग मेरे लिये भी कल्याण का आशीर्वाद दें। कुरुनन्दन! मैं एकाग्र हृदय से तुमसे यह बात बता रहा हूँ, विद्वान् पुरुष उन सर्पों को कुपित न करें, जो दाँतों और नेत्रों से भी विष उगलते रहते हैं (अर्थात् ये पाण्डव तुम्हारे लिये सर्पों कभी अधिक भयंकर हैं, इन्हें मत छेड़ो)'।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में विदुर के हितकारक-वचनविषयक चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
पैसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर धन, राज्य, भाइयों तथा द्रौपदी सहित अपने को भी हारना"
शकुनि बोला ;- कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! आप अब तक पाण्डवों का बहुत-सा धन हार चुके। यदि आपके पास बिना हारा हुआ कोई धन शेष हो तो बताइये।
युधिष्ठिर बोले ;- सुबलपुत्र! मेरे पास असंख्य धन है, जिसे मैं जानता हूँ। शकुने! तुम मेरे धन का परिमाण क्यों पूछते हो? अयुत, प्रयुत, शंकु, पद्म, अर्बुद, खर्व, शंख, निखर्व, महापद्म, कोटि, मध्य, परार्घ और पर इतना धन मेरे पास है। राजन्! खेलो, मैं इसी को दाँव पर रखकर तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर शकुनि ने छल का आश्रय ले पुन: इसी निश्चय के साथ युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- 'लो, यह धन भी मैंने जीत लिया'।
युधिष्ठिर बोले ;- सुबलपुत्र! मेरे पास सिन्धु नदी के पूर्वी तट से लेकर पर्णाशा नदी के किनारे तक जो भी बैल, घोडे़, गाय, भेड़ एवं बकरी आदि पशुधन हैं, वह असंख्य है। उनमें भी दूध देने वाली गौओं की संख्या अधिक है। यह सारा मेरा धन है, जिसे मैं दाँव पर रखकर तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर शठता के आश्रित हुए शकुनि ने अपनी ही बात घोषित करते हुए युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- 'लो, यह दाँव भी मैंने ही जीता'।
युधिष्ठिर बोले ;- राजन्! ब्राह्मणों को जीविकारूप में जो ग्रामादि दिये गये हैं, उन्हें छोड़कर शेष जो नगर,जनपद तथा भूमि मेरे अधिकार में है तथा जो ब्राह्मणतर मनुष्य मेरे यहाँ रहते हैं, वे सब मेरे शेष धन हैं। शकुने! मैं इसी धन का दाँव पर रखकर तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर कपट का आश्रय ग्रहण करके शकुनि ने पुन: अपनी ही जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- 'इस दाँव पर भी मेरी ही विजय हुई'।
युधिष्ठिर बोले ;- राजन्! ये राजपुत्र जिन आभूषणों से विभूषित होकर शोभित हो रहे हैं, वे कुण्डल और गले के स्वर्णभूषण आदि समस्त राजकीय आभूषण मेरे धन हैं। इन्हे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर छल-कपट का आश्रय लेने वाले शकुनि ने युधिष्ठिर से निश्चयपूर्वक कहा,,
शकुनि बोला ;- ‘लो, यह भी मैंने जीता’।
युधिष्ठिर बोले ;- श्यामवर्ण, तरुण, लाल नेत्रों और सिंह के समान कंधों वाले महाबाहु नकुल को ही इस समय में दाँव पर रखता हूँ, इन्हीं को मेरे दाँव का धन समझो।
शकुनि बोला ;- धर्मराज युधिष्ठिर! आपके परमप्रिय राजकुमार नकुल तो हमारे अधीन हो गये, अब किस धन से आप यहाँ खेल रहे हैं?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर शकुनि ने पासे फेंके और युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- ‘लो, इस दाँव पर भी मेरी ही विजय हुई’।
युधिष्ठिर बोले ;- ये सहदेव धर्मों का उपदेश करते हैं। संसार में पण्डित के रूप में इनकी ख्याति है। मेरे प्रिय राजकुमार सहदेव यद्यपि दाँव पर लगाने के योग्य नहीं हैं, तो भी मैं अप्रिय वस्तु की भाँति इन्हें दाँव पर रखकर खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर छली शकुनि ने उसी निश्चय के साथ युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- ‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)
शकुनि बोला ;- राजन्! आपके ये दोनों प्रिय भाई माद्री के पुत्र नकुल-सहदेव तो मेरे द्वारा जीत लिये गये, अब रहे भीमसेन और अर्जुन। मैं समझता हूँ, वे दोनों आपके लिये अधिक गौरव की वस्तु हैं (इसीलिये आप इन्हें दाँव पर नहीं लगाते)।
युधिष्ठिर बोले ;- ओ मूढ़! तू निश्चय ही अधर्म का आचरण कर रहा है, जो न्याय की ओर नहीं देखता। तू शुद्ध हृदय वाले हमारे भाइयों में फूट डालना चाहता है।
शकुनि बोला ;- राजन्! धन के लोभ से अधर्म करने वाला मतवाला मनुष्य नरककुण्ड में गिरता है। अधिक उन्मत्त हुआ ठूँठा काठ हो जाता है। आप तो आयु में बड़े और गुणों में श्रेष्ठ हैं। भरतवंश विभूषण! आपको नमस्कार है। धर्मराज युधिष्ठिर! जुआरी जूआ खेलते समय पागल होकर जो अनाप-शनाप बातें बक जाया करते हैं, वे न कभी स्वप्न में दिखायी देती हैं और न जाग्रत् काल में ही।
युधिष्ठिर ने कहा ;- शकुने! जो युद्धरूपी समुद्र में हम लोगों को नौका की भाँति पार लगाने वाले हैं तथा शत्रुओं पर विजय पाते हैं, वे लोक विख्यात वेगशाली वीर राजकुमार अर्जुन यद्यपि दाँव पर लगाने योग्य नहीं हैं, तो भी उनको दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनि ने पूर्ववत् विजय का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- ‘यह भी मैंने ही जीता’।
शकुनि फिर बोला ;- राजन्! ये पाण्डवों में धनुर्धर वीर सव्यसाची अर्जुन मेरे द्वारा जीत लिये गये। पाण्डुनन्दन! अब आपके पास भीमसेन ही जुआरियों को प्राप्त होने वाले धन के रूप में शेष हैं, अत: उन्हीं को दाँव पर रखकर खेलिये।
युधिष्ठिर ने कहा ;- राजन्! जो युद्ध में हमारे सेना-पति और दानवशत्रु बज्रधारी इन्द्र के समान अकेले ही आगे बढ़ने वाले हैं; जो तिरछी दृष्टि से देखते हैं, निजकी भौंहें धनुष की भाँति झुकी हुई हैं, जिनका हृदय विशाल और कंधे सिंह के समान हैं, जो सदा अत्यन्त अमर्ष में भरे रहते हैं, बल में जिनकी समानता करने वाला कोई पुरुष नहीं है, जो गदाधारियों में अग्रगण्य तथा अपने शत्रुओं को कुचल डालने वाले हैं, उन्हीं राजकुमार भीमसेन को दाँव पर लगाकर मैं जुआ खेलता हूँ। यद्यपि वे इसके योग्य नहीं हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर शठता का आश्रय शकुनि ने उसी निश्चय के साथ युधिष्ठिर से कहा,
शकुनि बोला ;- ‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’।
शकुनि बोला फिर बोला ;- राजन्! कुन्तीनन्दन! आप अपने भाइयों और हाथी-घोड़ों सहित बहुत धन हार चुके, अब आपके पास बिना हारा हुआ धन कोई अवशिष्ट हो, तो बतलाइये।
युधिष्ठिर ने कहा ;- मैं अपने सब भाइयों में बड़ा और सबका प्रिय हूँ; अत: अपने को ही दाँव पर लगाता हूँ। यदि मैं हार गया तो पराजित दास की भाँति सब कार्य करूँगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनि ने निश्चयपूर्वक अपनी जीत घोषित करते हुए युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनि बोला ;- ‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’।
शकुनि फिर बोला ;- राजन्! आप अपने को दाँव पर लगाकर जो हार गये, यह आपके द्वारा बड़ा अधर्म-कार्य हुआ। धन के शेष रहते हुए अपने आपको हार जाना महान् पाप है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पासा फेंकने की विद्या में निपुण शकुनि ने राजा युधिष्ठिर से दाँव लगाने के विषय में उक्त बातें कहकर सभा में बैठे हुए लोकप्रसिद्ध वीर राजाओं को पृथक्-पृथक् पाण्डवों की पराजय सूचित की।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात् शकुनि ने फिर कहा ;- राजन्! आपकी प्रियतमा द्रौपदी एक ऐसा दाँव है, जिसे आप अब तक नहीं हारे हैं; अत: पांचालराज कुमारी कृष्णा को आप दाँव पर रखिये और उसके द्वारा फिर अपने को जीत लीजिये।
युधिष्ठिर ने कहा ;- जो न नाटी है न लंबी, न कृष्ण वर्णा है न अधिक रक्तवर्णा तथा जिसके केश नीले और घुँघराले हैं, उस द्रौपदी को दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ। उसके नेत्र शरद् ऋतु के प्रफूल्ल कमलदल के समान सुन्दर एवं विशाल हैं। उसके शरीर से शारदीय कमल के समान सुगन्ध फैलती रहती है। वह शरद्ऋतु के कमलों का सेवन करती है तथा रूप में साक्षात् लक्ष्मी के समान है। पुरुष जैसी स्त्री प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है, उसमें वैसा ही दयाभाव है, वैसी ही रूपसम्पति है तथा वैसे ही शील-स्वभाव हैं। वह समस्त सद्गुणों से सम्पन्न तथा मन के अनुकूल और प्रिय वचन बोलने वाली है। मनुष्य धर्म, काम और अर्थ की सिद्धि के लिये जैसी पत्नी की इच्छा रखता है, द्रौपदी वैसी ही है। वह ग्वालों और भेड़ों के चरवाहों से भी पीछे सोती और सबसे पहले जागती है। कौन-सा कार्य हुआ और कौन-सा नहीं हुआ, इन सबकी वह जानकारी रखती है। उसका स्वेदबिन्दुओं से विभूषित मुख कमल के समान सुन्दर और महिला के समान सुगन्धित है। उसका मध्यभाग वेदी के समान कृश दिखायी देता है। उसके सिर के केश बेड़-बडे़ मुख और ओष्ठ अरुणवर्ण के हैं तथा उसके अंगों में अधिक रोमावलियाँ नहीं हैं। सुबलपुत्र! ऐसी सर्वांग सुन्दरी सुमध्यमा पांचाल-राजकुमारी द्रौपदी को दाँव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ; यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान् कष्ट हो रहा है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! बुद्धिमान धर्मराज के ऐसा कहते ही उस सभा में बैठे हुए बड़े-बड़े लोगों के मुख से ‘धिक्कार है, धिक्कार है’ की आवाज आने लगी। राजन् उस समय सारी सभा में हलचल मच गयी। राजाओं को बड़ा शोक हुआ। भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि के शरीर से पसीना छूटने लगा। विदुर जी तो दोनों हाथों से अपना सिर थामकर बेहोश-से हो गये। वे फुँफकारते हुए सर्प की भाँति अच्छावास लेकर मुँह नीचे किये हुए गम्भीर चिन्ता में निमग्न हो बैठे रह गये। बाह्लीक, प्रतीप के पौत्र सोमदत्त, भीष्म, संचय, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा तथा धृतराष्ट्र युयुत्सु- ये सब मुँह नीचे किये सर्पों के समान लंबी साँसें खींचते हुए अपने दोनों हाथ मलने लगे। धृतराष्ट्र मन-ही-मन प्रसन्न हो उनसे बार-बार पूछ रहे थे, ‘क्या हमारे पक्ष की जीत हो रही है?’ वे अपनी प्रसन्नता की आकृति को न छिपा सके। दु:शासन आदि के साथ कर्ण को तो बड़ा हर्ष हुआ; परंतु अन्य सभासदों की आँखों से आँसू गिरने लगे। सुबलपुत्र शकुनि ने मैंने यह भी जीत लिया, ऐसा कहकर पासों को पुन: उठा लिया। उस समय वह विजयोउल्लास से सुशोभित और मदोन्मत्त हो रहा था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में द्रौपदीपराजय-विषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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