सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) के छप्पनवें अध्याय से साठवें अध्याय तक (From the 56 chapter to the 60 chapter of the entire Mahabharata (Sabha Parva))

 


 सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

छप्पनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"धृतराष्ट्र और दुर्योधन की बातचीत, द्यूतक्रीड़ा के लिये सभानिर्माण और धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को बुलाने के लिये विदुर को आज्ञा देना"

  शकुनि बोला ;- विजयी वीरों में श्रेष्ठ दुर्योधन! तुम पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की जिस लक्ष्मी को देखकर संतप्त हो रहे हो, उसका मैं द्यूत के द्वारा अपहरण कर लूँगा। परंतु राजन्! तुम कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को बुला लो। मैं किसी संशय में पड़े बिना, सेना के सामने युद्ध किये बिना केवल पासे फेंककर स्वयं किसी प्रकार की क्षति उठाये बिना ही पाण्डवों को जी लूँगा, क्योंकि मैं द्यूतविद्या का ज्ञाता हूँ और पाण्डव इस कला से अनभिज्ञ हैं। भारत! दावों को मेरे धनुष समझो और पासों को मेरे बाण। पासों का जो हृदय (मर्म) है, उसी को मेरे धनुष की प्रत्यन्चा समझो और जहाँ से पासे फेंके जाते हैं, वह स्थान ही मेरा रथ है।

   दुर्योधन बोला ;- राजन्! ये मामा जी पासे फेंकने की कला में निपुण हैं। ये द्यूत के द्वारा पाण्डवों से उनकी सम्पत्ति ले लेने का उत्साह रखते हैं। उसके लिये इन्हें आज्ञा दीजिये।

   धृतराष्ट्र बोले ;- बेटा! मैं अपने भाई महात्मा विदुर की सम्मति के अनुसार चलता हूँ। उनसे मिलकर यह जान सकूँगा कि इस कार्य के विषय में क्या निश्चय करना चाहिये?

  दुर्योधन बोला ;- पिता जी! विदुर सब प्रकार से संशय रहित है। वे आपकी बुद्धि को जूए के निश्चय से हटा देंगे। कुरुनन्दन! वे जैसे पाण्डवों के हित में संलग्र रहते हैं, वैसे मेरे हित में नहीं। मनुष्य को चाहिये कि वह अपना कार्य दूसरे के बल पर न करे। कुरुराज! किसी भी कार्य में दो पुरुषों की राय पूर्णरूप से नहीं मिलती। मूर्ख मनुष्य भय का त्याग और आत्मरक्षा करते हुए भी यदि चुपचाप बैठा रहे, उद्योग न करे, तो वह वर्षों काल में भीगी हुई चटाई के समान नष्ट हो जाता है। रोग अथवा यमराज इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते कि इसने श्रेय प्राप्त कर लिया या नहीं। अत: जब तक अपने में सामर्थ्य हो, तभी तक अपने हित का साधन कर लेना चाहिये।

  धृतराष्ट्र ने कहा ;- बेटा! मुझे तो बलवानों के साथ विरोध करना किसी प्रकार भी अच्छा नहीं लगता, क्योंकि वैर विरोध बड़ा भारी झगड़ा खड़ा कर देता है, जो (कुल के विनाश के लिए) बिना लोहे का शस्त्र है। राजकुमार! तुम द्यूतरूपी अनर्थ को ही अर्थ मान रहे हो। यह जूआ कलह को ही गूँथने वाला एवं अत्यन्त भयंकर है। यदि किसी प्रकार यह शुरु हो गया तो तीखी तलवारों और बाणों की भी सृष्टि कर देगा।

  दुर्योधन बोला ;- पिता जी! पुराने लोगों ने भी द्यूतक्रीड़ा का व्यवहार किया है। उसमें न तो दोष है और न युद्ध ही होता है। अत: आप शकुनि मामा की बात मान लीजिये और शीघ्र ही यहाँ (द्यूत के लिये) सभा मण्डप बन जाने की आज्ञा दीजिये। यह जूआ हम खेलने वालों के लिये एक विशिष्ट स्वर्गीय सुख का द्वार है। उसके आस-पास बैठने वाले लोगों के लिये भी वह वैसा ही सुखद होता है। इस प्रकार इसमें पाण्डवों को भी हमारे समान ही सुख प्राप्त होगा। अत: आप पाण्डवों के साथ द्यूतक्रीड़ा की व्यवस्था कीजिये।

   धृतराष्ट्र ने कहा ;- बेटा! तुमने जो बात कही है, वह मुझे अच्छी नहीं लगती। नरेन्द्र! जैसी तुम्हारी रुचि हो, वैसा करो। जूए का आरम्भ करने पर मेरी बातों को याद करके तुम पीछे पछताओगे, क्योंकि ऐसी बातें जो तुम्हारे मुख से निकली हैं, धर्मानुकूल नहीं कही जा सकतीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षट्पश्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 16-22 का हिन्दी अनुवाद)

  बुद्धि और विद्या का अनुसरण करने वाले विद्वान विदुर ने यह सब परिणाम पहले से ही देख लिया था। क्षत्रियों के लिये विनाशकारी वही यह महान् भय मुझ विवश के सामने आ रहा है।

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने दैव को परम दुस्तर माना और देव के प्रताप से ही उनके चित्त पर मोह छा गया। वे कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ हो गये। फिर पुत्र की बात मानकर उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही तत्पर होकर तोरण स्फटिक नामक सभा तैयार कराओ। उसमें सुवर्ण तथा वैदूर्य से जटित एक हजार खम्भे और सौ दरवाजे हों। उस सुन्दर सभा की लम्बाई और चौड़ाई एक-एक कोस की होनी चाहिये। उनकी यह आज्ञा सुनकर तेज काम करने वाले चतुर एवं बुद्धिमान सहस्रों शिल्पीे निर्भिक होकर काम में लग गये। उन्होंने शीघ्र ही वह सभा तैयार कर दी और उसमें सब तरह की वस्तुतएँ यथास्थान सजा दीं।

   थोडे़ ही समय में तैयार हुई उस असंख्य रत्नों से सुशोभित रमणीय एवं विचित्र सभा को अद्भुत सोने के आसनों द्वारा सजा दिया गया। तत्पश्चात विश्वस्तर सेवकों ने राजा धृतराष्ट्र- को उस सभा भवन के तैयार हो जाने की सूचना दी। तत्पश्चात विद्वान् राजा धृतराष्ट्र ने मन्त्रियों में प्रधान विदुर को आज्ञा दी कि तुम राजकुमार युधिष्ठिर के पास जाकर मेरी आज्ञा से उन्हें शीघ्र यहाँ लिवा लाओ। उनसे कहना, ‘मेरी यह विचित्र सभा अनेक प्रकार के रत्नों से जटित है। इसे बहुमूल्य शय्याओं और आसनों द्वारा सजाया गया है। युधिष्ठिर! तुम अपने भाइयों के साथ यहाँ आकर इसे देखो और इसमें सुहृदों की द्यूत क्रीड़ा प्रारम्भ हो।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में युधिष्ठिर के बुलाने से सम्बंध रखने वाला छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

सत्तावनवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-5 का हिन्दी अनुवाद)

"विदुर और धृतराष्ट्र की बातचीत"

  वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अपने पुत्र दुर्योधन का मत जानकर राजा धृतराष्ट्र ने दैव को दुस्‍तर माना और यह कार्य किया। विद्वानों में श्रेष्ठ विदुर ने धृतराष्ट्र वह अन्‍यायपूर्ण आदेश सुनकर भाई की उस बात का अभिनन्‍दन नहीं किया और इस प्रकार कहा।
    विदुर बोल ;- महाराज! मैं आपके इस आदेश का अभिनन्‍दन नहीं करता, आप ऐसा काम मत कीजिये। इससे मुझे समस्‍त कुल के विनाश का भय है। नरेन्‍द्र! पुत्रों में भेद होने पर निश्‍चय ही आपको कलह का सामना करना पड़ेगा। इस जूए के कारण मुझे भी ऐसी आशंका हो रही है।
   धृतराष्ट्र ने कहा ;- विदुर! यदि दैव प्रतिकूल न हो, तो मुझे कलह भी कष्‍ट नहीं दे सकेगा। विधाता का बनाया हुआ यह सम्‍पूर्ण जगत् दैव के अधीन होकर ही चेष्टा कर रहा है, स्‍वतन्त्र नहीं है। इसलिये विदुर! तुम मेरी आज्ञा से आज राजा युधिष्ठिर के पास जाकर उन दुर्द्धर्ष कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर को यहाँ शीघ्र बुला ले आओ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व  के अन्तर्गत द्यूतपर्व में युधिष्ठिर के बुलाने से सम्बंध रखने वाला सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

अट्ठावनवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"विदुर और युधिष्ठिर की बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर में जाकर सबसे मिलना"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर राजा धृतराष्ट्र के बलपूर्वक भेजने पर विदुर जी अत्यन्त वेगशाली, बलवान् और अच्छी प्रकार काबू में किये हुए महान् अश्वों से जुते रथ पर सवार हो परम बुद्धिमान पाण्डवों के समीप गये महाबुद्धिमान विदुर जी उस मार्ग को तय करके राजा युधिष्ठिर राजधानी में जा पहुँचे और वहाँ द्विजातियों से सम्मानित होकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया। कुबेर के भवन के समान सुशोभित राजमहल में जाकर धर्मात्मा विदुर धर्मपुत्र युधिष्ठिर से मिले। सत्यवादी महात्मा अजीमढ़नन्दन अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर ने विदुर जी का यथावत् आदर-सत्कार करके उनसे पुत्रसहित धृतराष्ट्र की कुशल पूछी।
  युधिष्ठिर बोल ;- विदुर जी! आपका मन प्रसन्न नहीं जान पड़ता। आप कुशल से तो आये हैं? बूढे़ राजा धृतराष्ट्र के पुत्र उनके अनुकूल चलते हैं न? तथा सारी प्रजा उनके वश में है न?
  विदुर ने कहा ;- राजन्! इन्द्र के समान प्रभावशाली महामना राजा धृतराष्ट्र अपने जातिभार्इयों तथा पुत्रोंसहित सकुशल हैं। अपने विनीत पुत्रों से वे प्रसन्न रहते हैं। उनमें शोक का अभाव है। वे महामना अपनी आत्मा में ही अनुराग रखने वाले हैं। कुरुराज धृतराष्ट्र ने पहले तुमसे कुशल और आरोग्य पूछकर यह संदेश दिया है कि वत्स! मैंने तुम्हारी सभा के समान ही एक सभा तैयार करायी है। तुम अपने भाइयों के साथ आकर अपने दुर्योधन आदि भाईयों की इस सभा को देखो। इसमें सभी इष्ट-मित्र मिलकर द्यूतक्रीड़ा करें और मन बहलावें। हम सभी कौरव तुम सब से मिलकर बहुत प्रसन्न होंगे। महामना राजा धृतराष्ट्र ने वहाँ जो जूए के स्थान बनवाये हैं, उनको और वहाँ जुटकर बैठे हुए धूर्त जुआरियों को तुम देखोगे। राजन् मैं इसीलिये आया हूँ। तुम चलकर उस सभा एवं द्यूतक्रीड़ा का सेवन करो।
   युधिष्ठिर ने पूछा ;- विदुर जी! जूए में झगड़ा-फसाद होता है। कौन समझदार मनुष्य जूआ खेलना पसंद करेगा अथवा आप क्या ठीक समझते हैं; हम सब लोग तो आपकी आज्ञा के अनुसार ही चलने वाले हैं।
  विदुर जी ने कहा ;- विद्वन्! मैं जानता हूँ, जूआ अनर्थ की जड़ है; इसीलिये मैंने उसे रोकने का प्रयत्‍न भी किया तथापि राजा धृतराष्ट्र ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, यह सुनकर तुम्हें जो कल्याणकर जान पड़े, वह करो।
  युधिष्ठिर ने पूछा ;- विदुर जी! वहाँ राजा धृतराष्ट्र के पुत्रों को छोड़कर दूसरे कौन-कौन धूर्त जुआ खेलने वाले हैं? यह मैं आपसे पूछता हैूं। आप उन सबको बताइये, जिनके साथ मिलकर और सैकड़ों की बाजी लगाकर हमें जुआ खेलना पड़ेगा।
   विदुर ने कहा ;- राजन्! वहाँ गान्धराज शकुनि है, जो जुए का बहुत बड़ा खिलाड़ी है। वह अपनी इच्छा के अनुसार पासे फेंकने में सिद्धहस्त है। उसे द्यूतविद्या के रहस्य का ज्ञान है। उसके सिवा राजा विविंशति, चित्रसेन, राजा सत्यव्रत, पुरूमित्र और जय भी रहेंगे।
    युधिष्ठिर बोले ;- तब तो वहाँ बड़े भयंकर, कपटी और धूर्त जुआरी हुटे हुए हैं। विधाता का रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत् दैव के ही अधीन है; स्वतन्त्र नहीं है। बुद्धिमान विदुर जी! मैं राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से जूए में अवश्य चलना चाहता हूँ। पुत्र को पिता सदैव प्रिय है; अत: आपने मुझे जैसा आदेश दिया है, वैसा ही करूँगा। मेरे मन में जूआ खेलने की इच्‍छा नहीं है। यदि मुझे विजयशील राजा धृतराष्ट्र सभा में न बुलाते, तो मैं शकुनि से कभी जुआ न खेलता; किंतु बुलाने पर मैं कभी पीछे नहीं हटूँगा। यह मेरा सदा का नियम है।
   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! विदुर से ऐसा कहकर धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरंत ही यात्रा की सारी तैयारी करने के लिये आज्ञा दे दी। फिर सवेरा होने पर उन्‍होंने अपने भाई-बन्‍धुओं, सेवकों तथा द्रौपदी आदि स्त्रियों के साथ हस्तिनापुर की यात्रा की। जैसे उत्‍कृष्‍ट तेज सामने आने पर आँख की ज्‍योति को हर लेता है, उसी प्रकार दैव मनुष्‍य की बुद्धि को हर लेता है। दैव से ही प्रेरित होकर मनुष्‍य रस्‍सी में बँधे हुए की भाँति विधाता के वश में घूमता रहता है। ऐसा कहकर शत्रुदमन राजा युधिष्ठिर जूए के लिये राजा धृतराष्ट्र के उस बुलावे को सहन न करते हुए भी विदुर जी के साथ वहाँ जाने को उद्यत हो गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-22 का हिन्दी अनुवाद)

  बह्लीक द्वारा जोते हुए रथ पर बैठकर शत्रुसूदन पाण्‍डु-कुमार युधिष्ठिर ने अपने भाईयों के साथ हस्तिनापुर की यात्रा प्रारम्‍भ की। वे अपनी राजलक्ष्‍मी से दे्दीप्‍यमान हो रहे थे। उन्‍होंने ब्राह्मण को आगे करके प्रस्‍थान किया। सबसे पहले राजा युधिष्ठिर ने अपने सेवकों को हस्तिनापुर की ओर चलने का आदेश दिया। वे नरश्रेष्‍ठ राजसेवक महाराज की आज्ञा का पालन करने में तत्‍पर हो गये। तत्‍पश्‍चात् महातेजस्‍वी राजा युधिष्ठिर समस्‍त सामग्रियों से सुसज्जित हो ब्राह्मणों से स्‍वस्तिवाचन कराकर पुरोहित धौम्‍य के साथ राजभवन से बाहर निकले। यात्रा की सफलता के लिये उन्‍होंने ब्राह्मणों को विधिपूर्वक धन देकर और दूसरों को भी मनोवाछित वस्‍तुएँ अर्पित करके यात्रा प्रारम्‍भ की। राजा के बैठने योग्‍य एक साठ वर्ष का गजराज सब आवश्‍यक सामग्रियों से सु‍सज्जित करके लाया गया। वह समस्‍त शुभ लक्षणों से सम्‍पन्‍न था। उसकी पीठ पर सोने का सुन्‍दर हौदा कसा गया था। महाराज युधिष्ठिर (पूर्वोक्‍त रथ से उतर कर) उस गजराज पर आरूढ़ हो हौदे में बैठे। उस समय वे हार, किरीट तथा अन्‍य सभी आभूषणों से विभूषित हो अपनी स्‍वर्णगौर-कान्ति तथा उत्‍कृष्‍ट राजोचित शोभा से सुशोभित हो रहे थे। उन्‍हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो सोने की वेदी पर स्‍थापित अग्निदेव घी की आहुति से प्रज्‍वलित हो रहे हों।
      तदनन्‍दर हर्ष में भरे हुए मनुष्‍यों तथा वाहनों के साथ राजा युधिष्ठिर वहाँ से चल पड़े। वे (राज परिवार के लोगों से भरे हुए पूर्वोक्‍त) रथ के महान् घोष से समस्‍त आकाशमण्‍डल को गुँजाते जा रहे थे। सूत, मागध और बन्‍दीजन नाना प्रकार की स्‍तुतियों द्वारा उनके गुण गाते थे। उस समय विशाल सेना से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर अपनी किरणों से आवृत हुए सूर्यदेव की भाँति शोभा पा रहे थे। उनके मस्‍तक पर श्‍वेत छत्र तना हुआ था, जिससे राजा युधिष्ठिर पूर्णिमा के चन्‍द्रमा की भाँति शोभा पाते थे। उनके चारों ओर स्‍वर्णदण्‍ड विभूषित चँवर डुलाये जाते थे। भरतश्रेष्‍ठ! पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर को मार्ग में बहुतेरे मनुष्‍य हर्षोल्‍लास में भरकर ‘महाराज की जय हो’ कहते हुए शुभाशीर्वाद देते थे और वे यथोचितरूप से सिर झुकाकर उन सबको स्‍वीकार करते थे। उस मार्ग में दूसरे बहुत-से एकाग्रचित्‍त हो मृगों और पक्षियों-सी आवाज में निरन्‍तर सुखपूर्वक कुरुराज युधिष्ठिर स्‍तुति करते थे।
   जनमेजय! इसी प्रकार जो सैनिक राजा युधिष्ठिर पीछे-पीछे जा रहे थे, उनका कोलाहल भी समूचे आकाश मण्‍डल को स्‍तब्‍ध करके गूँज रहा था। हाथी की पीठ पर बैठे हुए बलवान् भीमसेन राजा के आगे-आगे जा रहे थे। उनके दोनों ओर सजे-सजाये दो श्रेष्‍ठ अश्‍व थे, जिन पर नकुल और सहदेव बैठे थे। भरतश्रेष्‍ठ! वे दोनों भाई स्‍वयं तो अपने रूप सौन्‍दर्य से सुशोभित थे ही, उस विशाल सेना की भी शोभा बढ़ा रहे थे। शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ परम बुद्धिमान श्‍वेतवाहन अर्जुन अग्निदेव के दिये हुए रथ पर बैठकर गाण्डीव धनुष धारण किये महाराज के पीछे-पीछे जा रहे थे। राजन्! कुरुराज युधिष्ठिर सेना के बीच में चल रहे थे। द्रौपदी आदि स्त्रियाँ अपनी सेविकाओं तथा आवश्‍यक सामग्रियों के साथ सैकड़ों विचित्र शिबिकाओं (पालकियों) पर आरूढ़ हो बड़ी भारी सेना के साथ महाराज के आगे-आगे जा रही थीं। पाण्‍डवों की वह सेना हाथी-घोड़ों तथा पैदल सैनिकों से भरी-पूरी थी। उसमें बहुत-से रथ भी थे, जिसकी ध्‍वजाओं पर पताकाएँ फहरा रही थीं। उन सभी रथों में खड्ग आदि अस्त्र-शस्त्र संगृहित थे। सैनिकों का कोलाहल सब ओर फैल रहा था।
    राजन्! शंख, दुन्‍दुभि, ताल, वेणु और वीणा आदि वाद्यों की तुमुल ध्‍वनि वहाँ गूँज रही थी। उस समय हस्तिनापुर की ओर जाती हुई पाण्‍डवों की उस सेना की बड़ी शोभा हो रही थी। जनमेजय! कुरुराज युधिष्ठिर अनेक सरोवर, नदी, वन और उपवनों को लाँघते हुए हस्तिनापुर के समीप जा पहुँचे। वहाँ उन्‍होंने एक सुखद एवं समतल प्रदेश में सैनिकों सहित पड़ाव डाल दिया। उसी छावनी में पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर स्‍वयं भी ठहर गये। राजन् तदनन्‍तर विदुर जी ने शोकाकुल वाणी में महाराज युधिष्ठिर को वहाँ का सारा वृत्तान्‍त ठीक-ठीक बता दिया कि धृतराष्ट्र क्‍या करना चाहते हैं और इस द्यूतक्रीड़ा के पीछे क्‍या रहस्‍य है? तब धृतराष्ट्र द्वारा बुलाये हुए काल के समयानुसार धर्मात्‍मा पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर हस्तिनापुर में पहुँचकर धृतराष्ट्र के भवन में गये और उनसे मिले।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 22-38 का हिन्दी अनुवाद)

  इसी प्रकार महाराज युधिष्ठिर भीष्‍म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य और अश्वत्‍थामा के साथ भी यथायोग्‍य मिले। तत्‍पश्‍चात् पराक्रमी महाबाहु युधिष्ठिर सोमदत्त से मिलकर दुर्योधन, शल्‍य, शकुनि तथा जो राजा वहाँ पहले से ही आये हुए थे, उन सबसे मिले। फिर वीर दु:शासन, उसके समस्‍त भाई, राजा जयद्रथ तथा सम्‍पूर्ण कौरवों से मिल करके भाईयों सहित महाबाहु युधिष्ठिर ने बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र भवन में प्रवेश किया और वहाँ सदा ताराओं से घिरी रहने वाली रोहिणी देवी के समान पुत्रवधुओं के साथ बैठी हुई पतिव्रता गान्धारी देवी को देखा। युधिष्ठिर ने गान्‍धारी को प्रणाम किया और गान्‍धारी ने भी उन्‍हें आशीर्वाद देकर प्रसन्‍न किया। तत्‍पश्‍चात् उन्‍होंने अपने बूढे़ चाचा प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र-का पुन: दर्शन किया। राजा धृतराष्ट्र ने कुरुकुल को आनन्दित करने वाले युधिष्ठिर तथा भीमसेन आदि अन्य चारों पाण्‍डवों का मस्‍तक सूँघा।
  जनमेजय! उन पुरुषश्रेष्ठ प्रियदर्शन पाण्‍डवों को आये देख कौरवों को बड़ा हर्ष हुआ। तत्‍पश्‍चात् धृतराष्ट्र की आज्ञा ले पाण्‍डवों ने रत्‍नमय गृहों में प्रवेश किया। दु:शला आदि स्त्रियों ने वहाँ आये हुए उन सब को देखा। द्रुपदकुमारी की प्रज्‍वलित अग्नि के समान उत्तम समृद्धि देखकर धृतराष्ट्र की पुत्रवधुएँ अधिक प्रसन्‍न नहीं हुई। तदनन्‍तर वे नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डव द्रौपदी आदि अपनी स्त्रियों से बातचीत करके पहले व्‍यायाम एवं केश-प्रसाधन आदि कार्य किया। तदनन्‍तर नित्‍यकर्म करके सब ने अपने को दिव्‍य चन्‍दन आदि से विभूषित किया। तत्‍पश्‍चात् मन में कल्‍याण की भावना रखने वाले पाण्‍डव ब्राह्मणों से स्‍वस्तिवाचन कराकर मनोनुकूल भोजन करने के पश्‍चात शयन गृह में गये। वहाँ स्त्रियों द्वारा अपने सुयश का गान सुनते हुए वे कुरुकुल के श्रेष्‍ठ पुरुष सो गये। उनकी यह पुण्‍यमयी रात्रि रति-बिलासपूर्वक समाप्‍त हुई। प्रात: काल बन्‍दीजनों के द्वारा स्‍तुति सुनते हुए पूर्ण विश्राम के पश्‍चात् उन्‍होंने निद्रा का त्‍याग किया। इस प्रकार सुखपूर्वक रात बिताकर वे प्रात:काल उठे और संध्‍योपासनादि नित्‍यकर्म करने के अनन्‍तर उस रमणीय सभा में गये। जुआरियों ने उनका अभिनन्‍दन किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में युधिष्ठिरसभागमन-विषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

उनसठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"जूए के अनौचित्‍य के सम्‍बन्‍ध में युधिष्ठिर और शकुनि का संवाद"

  वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिर आदि कुन्‍तीकुमार उस सभा में पहुँचकर सब राजाओं से मिले। अवस्‍थाक्रम के अनुसार समस्‍त पूज्‍यनीय राजाओं का बारी-बारी से सम्‍मान करके सबसे मिलने-जुलने के पश्‍चात् वे यथायोग्‍य सुन्‍दर रमणीय गलीचों से युक्‍त विचित्र आसनों पर बैठे। उनके एवं सब नरेशों के बैठ जाने पर वहाँ सुबलकुमार शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा।
  शकुनि बोला ;- महाराज युधिष्ठिर! सभा में पासे फेंकने-वाला वस्त्र बिछा दिया गया है, सब आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब पासे फेंककर जूआ खेलने का अवसर मिलना चाहिये।
   युधिष्ठिर ने कहा ;- राजन्! जूआ तो एक प्रकार का छल है तथा पाप का कारण है! इसमें न तो क्षत्रियोचित पराक्रम दिखाया जा सकता है और न इसकी कोई निश्चित नीति ही है। फिर तुम द्यूत की प्रशंसा क्‍यों करते हो। शकुने! जुआरियों का छल-कपट में ही- सम्‍मान होता है; सज्‍जन पुरुष वैसे सम्‍मान की प्रशंसा नहीं करते। अत: तुम क्रूर मनुष्‍य की भाँति अनुचित मार्ग से हमें जीतने की चेष्‍टा न करो।
   शकुनि बोला ;- जिस अंक पर पासा पड़ता है, उसे जो पहले ही समझ लेता है, जो शठता का प्रतीकार करना जानता है एवं पासे फेंकने आदि समस्‍त व्‍यापार में उत्‍साहपूर्वक लगा रहता है तथा जो परम बुद्धिमान पुरुष द्यूतक्रीड़ा विषयक सब बातों की जानकारी रखता है, वही जूए का असली खिलाड़ी है; वह द्यूतक्रीड़ा में दूसरों की सारी शठतापूर्ण चेष्‍टाओं को सह लेता है। कुन्‍तीनन्‍दन! यदि पासा विपरीत पड़ जाय तो हम खिलाड़ियों में से एक पक्ष को पराजित कर सकता है; अत: जय-पराजय दैवाधीन पासों के ही आश्रित है। उसी से पराजय-रूप दोष की प्राप्ति होती है। हारने की तो शंका हमें भी है, फिर भी हम खेलते हैं। अत: भूमिपाल! आप शंका न कीजिये, दाँव लगाइये, अब विलम्‍ब न कीजिये।
   युधिष्ठिर ने कहा ;- मुनिश्रेष्ठ असित-देवल ने, जो सदा इन लोक द्वारा में भ्रमण करते रहते हैं, ऐसा कहा है कि जुआरियों के साथ शठतापूर्वक जो जूआ खेला जाता है, पाप है। धर्मानुकूल विजय तो युद्ध में ही प्राप्‍त होती है; अत: क्षत्रियों के लिये युद्ध ही उत्तम है, जूआ खेलना नहीं। श्रेष्‍ठ पुरुष वाणी द्वारा किसी के प्रति अनुचित शब्‍द नहीं निकालते तथा कपटपूर्ण बर्ताव नहीं करते। कुटिलता और शठता से रहित युद्ध ही सत्‍पुरुषों व्रत है। शकुने! हम लोग जिस धन से अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों की रक्षा करने का ही प्रयत्‍न करते हैं, उसको तुम जूआ खेलकर हम लोगों से हड़पने की चेष्‍टा न करो। मैं धूर्ततापूर्ण बर्ताव के द्वारा सुख अथवा धन पाने की इच्‍छा नहीं करता; क्‍योंकि जुआरी के कार्य को विद्वान् पुरुष अच्‍छा नहीं समझते है।

शकुनि बोला ;- युधिष्ठिर! श्रोत्रिय विद्वान् दूसरे श्रोत्रिय विद्वनों के पास जब उन्‍हें जीतने के लिये जाता है, तब शठता से ही काम लेता है। विद्वान् अविद्वानों को शठता से ही पराजित करता है; परंतु इसे जनसाधारण शठता नहीं कहते।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 16-21 का हिन्दी अनुवाद)

धर्मराज! जो द्यूतविद्या में पूर्ण शिक्षित है, वह अशिक्षितों- पर शठता से ही विजय पाता है। विद्वान् पुरुष अविद्वानों को जो परास्‍त करता है, वह भी शठता ही है; किंतु लोग उसे शठता नहीं कहते। धर्मराज युधिष्ठिर! अस्‍त्रविद्या निपुण योद्धा अनाड़ी को एवं बलिष्‍ठ पुरुष दुर्बल को शठता से ही जीतना चाहता है। इस प्रकार सब कार्यों में विद्वान् पुरुष अविद्वानों को शठता से ही जीतते हैं; किंतु लोग उसे शठता नहीं कहते। इसी प्रकार आप यदि मेरे पास आकर यह मानते हैं कि आपके साथ शठता की जायगी एवं यदि आपको भय मालूम होता है तो इस जूए के खेल से निवृत्त हो जाइये।
   युधिष्ठिर ने कहा ;- राजन्! मैं बुलाने पर पीछे नहीं हटता, यह मेरा निश्चित व्रत है। दैव बलवान् है। मैं दैव के वश में हूँ। अच्‍छा तो यहाँ जिन लोगों का जमाव हुआ है, उनमें किसके साथ मुझे जुआ खेलना होगा? मेरे मुकाबले में बैठकर दूसरा कौन पुरुष दाँव लगायेगा? इसका निश्‍चय हो जाय, तो जूए का खेल प्रारम्‍भ हो।

दुर्योधन बोला ;- महाराज! दाँव पर लगाने के लिये धन और रत्‍न तो मैं दूँगा; परंतु मेरी ओर से खेलेंगे ये मेरे मामा शकुनि।

युधिष्ठिर ने कहा ;- दूसरे के लिये दूसरे का जूआ खेलना मुझे तो अनुचित ही प्रतीत होता है। विद्वन्! इस बात को समझ लो, फिर इच्‍छानुसार जूए का खेल प्रारम्‍भ हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में युधिष्ठिर-शकुनि-संवाद-विषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

साठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"द्यूतक्रीड़ा का आरम्‍भ"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! जब जूए का खेल आरम्‍भ होने लगा, उस समय सब राजा लोग धृतराष्ट्र को आगे करके उस सभा में आये। भारत! भीष्‍म, द्रोण, कृप और परम बुद्धिमान विदुर- ये सब लोग असंतुष्ट चित्त से ही धृतराष्ट्र के पीछे-पीछे वहाँ आये। सिंह के समान ग्रीवा वाले वे महातेजस्‍वी राजा लोग कहीं एक-एक आसन पर दो-दो तथा कहीं पृथक्-पृथक् एक-एक आसन पर एक ही व्‍यक्ति बैठे। इस प्रकार उन्‍होंने वहाँ रखे हुए बहुसंख्‍यक विचित्र सिंहासनों को ग्रहण किया। राजन्! जैसे महाभाग देवताओं के एकत्र होने से स्‍वर्गलोक सुशोभित होता है, उसी प्रकार उन आगन्‍तुक नरेशों से उस सभा की बड़ी शोभा हो रही थी। महाराज! वे सब-के-सब वेदवेत्ता एवं शूरवीर ये तथा उनके शरीर तेजोयुक्‍त थे। उनके बैठ जाने पर अनन्‍तर वहाँ सुहृदों की द्यूतक्रीड़ा आरम्‍भ हुई।
    युधिष्ठिर ने कहा ;- राजन्! यह समुद्र के आवर्त में उत्‍पन्‍न हुआ कान्तिमान मणिरत्न बहुत बड़े मूल्‍य का है। मेरे हारों में यह सर्वोत्तम है तथा इस पर उत्तम सुवर्ण जड़ा गया है। राजन्! मेरी ओर से यही धन दाँव पर रखा गया है। इसके बदले में तुम्‍हारी ओर से कौन-सा धन दाँव पर रखा जाता है, जिस धन के द्वारा तुम मेरे साथ खेलना चाहते हो।
    दुर्योधन बोल ;- मेरे पास भी मणियाँ और बहुत-सा धन है, मुझे अपने धन पर अहंकार नहीं है। आप इस जूए को जीतिये।
  वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर पासे फेंकने की कला में अत्‍यन्‍त निपुण शकुनि ने उन पासों को हाथ में लिया ओर उन्‍हें फेंककर युधिष्ठिर से कहा,,
शकुनी बोला ;- ‘लो, यह दाँव मैंने जीता’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में द्यूतारम्भ-विषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें