सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) के इक्यावनवें अध्याय से पचपनवें अध्याय तक (From the 51 chapter to the 55 chapter of the entire Mahabharata (Sabha Parva))


 सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

इक्यावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के भाग 1 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर को भेंट में मिली हुई वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन"

  दुर्योधन बोला ;- भारत! मैंने पाण्डवों के यज्ञ में राजाओं के द्वारा भिन्न-भिन्न देशों से लाये हुए जो उत्तम धनरत्न देखे थे, उन्हें बताता हूँ, सुनिये। भरत कुलभूषण! आप सच मानिये, शत्रुओं का वह वैभव देखकर मेरा मन मूढ़ सा हो गया था। मैं इस बात को न जान सका कि यह धन कितना है और किस देश से लाया गया है। काम्बोज नरेश ने भेड़ के ऊन, बिल में रहने वाले चूहे आदि के रोएँ तथा बिल्लियों की रोमावलियों से तैयार किये हुए सुवर्ण चित्रित बहुत से सुन्दर वस्त्र और मृगचर्म भेंट में दिये थे। तीतर पक्षी की भाँति चितकबरे और तोते के समान नाक वाले तीन सौ घोड़े दिये थे। इसके सिवा तीन तीन सौ ऊँटनियाँ और खच्चरियाँ भी दी थीं, जो पीलु, शमी और इंगुद खाकर मोटी ताजी हुई थीं। 

   महाराज! ब्राह्मण लोग तथा गाय-बैलों का पोषण करने वाले वैश्य और दास कर्म के योग्य शूद्र आदि सभी महात्मा धर्मराज की प्रसन्नता के लिये तीन स्वर्ग के लागत की भेंट लेकर दरवाजे पर रोके हुए खड़े थे। ब्राह्मण लोग तथा हरी भरी खेती उपजाकर जीवन निर्वाह करने वाले और बहुत से गाय बैल रखने वाले वैश्य सैकड़ों दलों में इकठ्ठे होकर सोने के बने हुए सुन्दर कलश एवं अन्य भेंट सामग्री लेकर द्वार पर खड़े थे। परंतु भीतर प्रवेश नहीं कर पाते थे। द्विजों में प्रधान राजा कुणिन्द ने परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर को बड़े प्रेम से एक शंख निवेदन किया। उस शंख को सब भाइयों ने मिलकर किरीटधारी अर्जुन को दे दिया। उसमें सोने का हार जड़ा हुआ था और एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ मढ़ी गयी थीं। अर्जुन ने उसे सादर ग्रहण किया। वह शंख अपने तेज से प्रकाशित हो रहा था।

   साक्षात विश्वकर्मा ने उसे रत्नों द्वारा विभूषित किया था। वह बहुत ही सुन्दर और दर्शनीय था। साक्षात धर्म ने उस शंख को बार-बार नमस्कार करके धारण किया था। अन्नदान करने पर वह शंख अपने आप बज उठता था। उस समय उस शंख ने बड़े जोर से अपनी ध्वनि का विस्तार किया। उसके गम्भीर नाद से समस्त भूमिपाल तेजोहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। केवल धृष्टद्युम्न, पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा आठवें श्रीकृष्ण धैर्यपूर्वक खड़े रहे। ये सब के सब एक दूसरे का प्रिय करने वाले तथा शौर्य से सम्पन्न हैं। इन्होंने मुझ को तथा दूसरे भूमिपालों को मूर्च्छित हुआ देख जोर जोर से हँसना आरम्भ किया। उस समय अर्जुन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर एक श्रेष्ठ ब्राह्मण को पाँच सौ हष्ट पुष्ट बैल दिये। वे बैल गाड़ी का बोझ ढोने में समर्थ थे और उनके सींगों में सोना मढ़ा गया था। भारत! राजा सुमुख ने अजात शत्रु युधिष्ठिर के पास भेंट की प्रमुख वस्तुएँ भेजी थीं। कुणिन्द ने भाँति-भाँति के वस्त्र और सुवर्ण दिये थे। काश्मीर नरेश ने मीठे तथा रसीले शुद्ध अंगूरों के गुच्छे भेंंट किये थे। साथ ही सब प्रकार की उपहार सामग्री लेकर उन्होंने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित की थी। कितने ही यवन मन के समान वेगशाली पर्वतीय घोड़े, बहुमूल्य, आसन, नूतन, सूक्ष्म, विचित्र दर्शनीय और कीमती कम्बल, भाँति-भाँति के रत्न तथा अन्य वस्तुएँ लेकर राज द्वार पर खड़े थे, फिर भी अंदर नहीं जाने पाते थे। कलिंग नरेश श्रुतायु ने उत्तम मणिरत्न भेंट किये।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के भाग 2 का हिन्दी अनुवाद)

   इसके सिवा, उन्होंने दूसरे भूपालों से दक्षिण समुद्र के निकट से सैंकड़ों उत्तरीय वस्त्र, शंख, रत्न तथा अन्य उपहार सामग्री लेकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को समर्पित की। पाण्ड्य नरेश ने मलय और दुर्दर पर्वत के श्रेष्ठ चन्दन के छियानवे भार युधिष्ठिर को भेंट किये। फिर उतने ही शंख भी समर्पित किये। चोल और केरल देश के नरेशों ने असंख्य चन्दन, अगुरु तथा मोती, वैदूर्य तथा चित्रक नामक रत्न धर्मराज युधिष्ठिर को अर्पित किये। राजा अश्मक ने बछड़ों सहित दस हजार दुधारू गौएँ भेंट कीं, जिनके सींगों में सोना मढ़ा हुआ था और गले में सोने के आभूषण पहनाये गये थे। उनके थन घड़ों के समान दिखायी देते थे। सिन्धु नरेश ने सुवर्ण मालाओं से अलंकृत पच्चीस हजार सिन्धुदेशीय घोड़े उपहार में दिये थे। सौवीरराज ने हाथी जुते हुए रथ प्रदान किये, जो तीन सौ से कम न रहे होंगे। उन रथों को सुवर्ण, मणि तथा रत्नों से सजाया गया था। वे दोपहर के सूर्य की भाँति जगमगा रहे थे। उनसे जो प्रभा फैल रही थी, उसकी कहीं भी उपमा न थी। इन रथों के सिवा, उन्होंने अन्य सब प्रकार की भी उपहार सामग्री युधिष्ठिर को भेंट की थी।

    नरश्रेष्ठ भरतनन्दन! अवन्तीनरेश नाना प्रकार के सहस्रों रत्न, हार, श्रेष्ठ अंगद (बाजूबंद), भाँति-भाँति के अन्यान्य आभूषण, दस हजार दासियों तथा अन्यान्य उपहार सामग्री साथ लेकर राजसभा के द्वार पर खड़े थे और भीतर जाकर युधिष्ठिर का दर्शन पाने के लिये उत्सुक हो रहे थे। दशार्णनरेश, चेदिराज तथा पराक्रमी राजा शूरसेन ने सब प्रकार की उपहार सामग्री लाकर युधिष्ठिर को समर्पित की। राजन्! काशी नरेश ने भी बड़ी प्रसन्नता के साथ अस्सी हजार गौएं, आठ सौ गजराज तथा नाना प्रकार के रत्न भेंट किये।

   विदेहराज कृतक्षण तथा कोसलनरेश बृहद्बल ने चौदह-चौदह हजार उत्तम घोड़े दिये थे। वस आदि नरेशों सहित राजा शैब्य तथा मालवों सहित त्रिगर्तराज ने युधिष्ठिर को बहुत से रत्न भेंट किये, उनमें से एक-एक भूपाल ने असंख्य हार, श्रेष्ठ मोती तथा भाँति-भाँति के आभूषण समर्पित किये थे। कार्पासिक देश में निवास करने वाली एक लाख दासियाँ उस यज्ञ में सेवा कर रही थीं। वे सब की सब श्यामा तथा तन्वंगी थीं। उन सबके केश बड़े-बड़े थे और वे सभी सोने के आभूषणों से विभूषित थीं। महाराज! भरुकच्छ (भड़ौच) निवासी शूद्र श्रेष्ठ ब्राह्मणों के उपयोग में आने योग्य रंकुमृग के चर्म तथा अन्य सब प्रकार की भेंट सामग्री लेकर उपस्थित हुए थे। वे अपने साथ गान्धारदेश के बहुत से घोड़े भी लाये थे। जो समुद्रतटवर्ती गृहोद्यान में तथा सिन्ध के उस पार रहते हैं, वर्धा द्वारा इन्द्र के पैदा किये हुए तथा नदी के जल से उत्पन्न हुए नाना प्रकार के धान्यों द्वारा जीवन निर्वाह करते हैं, वे वैराम, पारद, आभीर तथा कितव जाति के लोग नाना प्रकार के रत्न एवं भाँति-भाँति की भेंट सामग्री- बकरी, भेड़, गाय, सुवर्ण, गधे, ऊँट, फल से तैयार किया हुआ मधु तथा अनेक प्रकार के कम्बल लेकर राज द्वार पर रोक दिये जाने के कारण (बाहर ही) खड़े थे और भीतर नहीं जाने पाते थे। प्राग्ज्योतिषपुर के अधिपति तथा म्लेच्छों के स्वामी शूरवीर एवं बलावान् महारथी राजा भगदत्त यवनों के साथ पधारे थे और वायु के समान वेग वाले अच्छी जाति के शीघ्रगामी घोड़े तथा सब प्रकार की भेंट सामग्री लेकर राज द्वार पर खड़े थे। (अधिक भीड़ के कारण) उनका प्रवेश भी रोक दिया गया था।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के भाग 3 का हिन्दी अनुवाद)

  उस समय प्राग्ज्योतिषनरेश भगदत्त हीरे और पद्मराग आदि मणियों के आभूषण तथा विशुद्ध हाथी दाँत की मूँठ वाले खड्ग देकर भीतर गये थे। द्वयक्ष, व्यक्ष, ललाटाक्ष, औष्णीक, अन्तवास, रोमक, पुरुषादक तथा एकपाद- इन देशों के राजा नाना दिशाओं से आकर राजद्वार पर रोक दिये जाने के कारण खड़े थे, यह मैंने अपनी आँखों देखा था। ये राजालोग भेंट सामग्री लेकर आये थे और अपने साथ अनेक रंग वाले बहुत से दूरगामी गधे (खच्चर) लाये थे, जिनकी गर्दन काली और शरीर विशाल थे। उनकी संख्या दस हजार थी। वे सभी रासभ सिखलाये हुए तथा सम्पूर्ण दिशाओं में विख्यात थे। उनकी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई जैसी होनी चाहिये, वैसी ही थी। उनका रंग भी अच्छा था। वे समस्त रासभ वंक्षु नदी के तट पर उत्पन्न हुए थे। उक्त राजा लोग युधिष्ठिर को भेंट के लिये बहुत सा सोना और चाँदी देते थे और देकर युधिष्ठिर के यज्ञ मण्डप में प्रविष्ट होते थे। एक पाददेशीय राजाओं ने इन्द्रगोप (बीरबहूटी) के समान लाल, तोते के समान हरे, मन के समान वेगशाली इन्द्रधनुष के तुल्य बहुरंगे, संध्या काल के बादलों के सदृश लाल ओर अनेक वर्ण वाले महावेगशाली जंगली घोड़े एवं बहुमूल्य सुवर्ण उन्हें भेंट में दिये। चीन, शंक, ओड्र, वनवासी बर्बर, वार्ष्णेय, हार, हूण, कृष्ण, हिमालय प्रदेश, नीप और अनूप देशों के नाना रूपधारी राजा वहाँ भेंट देने के लिये आये थे, किंतु रोक दिये जाने के कारण दरवाजे पर ही खड़े थे। उन्होंने अनेक रूप वाले दस हजार गधे भेंट के लिये वहाँ प्रस्तुत किये थे, जिनकी गर्दन काली और शरीर विशाल, जो सौ कोस तक लगातार चल सकते थे।

   वे सभी सिखलाये हुए तथा सब दिशााओं में विख्यात थे। जिनकी लंबाई चौड़ाई पूरी थी, जिनका रंग सुन्दर और स्पर्श सुखद था, ऐसे बाह्लीक चीन के बने हुए, ऊनी, हिरन के रोम समूह से बने हुए, रेशमी, पाटके, विचित्र गुच्छेदार तथा कमल के तुल्य कोमल सहस्रों चिकने वस्त्र, जिनमें कपास का नाम भी नहीं था तथा मुलायम मृगचर्म- ये सभी वस्तुएँ भेंट के लिये प्रस्तुत थीं। तीखी और लंबी तलवारें, ऋष्टि, शक्ति, फरसे, अपरान्त (पश्चिम) देश के बने हुए तीखे परशु, भाँति-भाँति के रस और गन्ध, सहस्रों रत्न तथा सम्पूर्ण भेंट सामग्री लेकर शंक, तुषार, कंक, रोमश तथा शृंगी देश के लोग राजद्वार पर रोके जाकर खड़े थे। दूर तक जाने वाले बड़े-बड़े हाथी, जिनकी संख्या एक अर्बुद थी एवं घोड़े, जिनकी संख्या कई सौ अर्बुद थी और सुवण जो एक पद्म की लागत का था। इन सबको तथा भाँति-भाँति की दूसरी उपहरा सामग्री को साथ लेकर कितने ही नरेश राजद्वार पर रोके जाकर भेंट देने के लिये खड़े थे। बहुमूल्य आसन, वाहन, रत्न तथा सुवर्ण से जटित हाथी दाँत की बनी हुई शय्याएं, विचित्र कवच, भाँति-भाँति के शस्त्र, सुवर्ण भूषित, व्याघ्र चर्म से आच्छादित और सुशिक्षित घोड़ों से जुते हुए अनेक प्रकार के रथ, हाथियों पर बिछाने योग्य विचित्र कम्बल, विभिन्न प्रकार के रत्न, नाराच, अर्धनाराच तथा अनेक तरह के शस्त्र- इन सब बहुमूल्य वस्तुओं को देकर पूर्वदेश के नरपति गण महात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के यज्ञ मण्डप में प्रविष्ट हुए थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन-संताप-विषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

बावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्विपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर को भेंंट में मिली हुई वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन"

  दुर्योधन बोला ;- अनघ! राजाओं द्वारा युधिष्ठिर के यज्ञ के लिये दिये हुए जिस महान् धन का संग्रह वहाँ हुआ था, वह अनेक प्रकार का था। मैं उसका वर्णन करता हूँ, सुनिये। मेरु और मंदराचल के बीच में प्रवाहित होने वाली शैलोदा नदी के दोनों तटों पर छिद्रों में वायु के भर जाने से वेणु की तरह बजने वाले बाँसों की रमणीय छाया में जो लोग बैठते और विश्राम करते हैं, वे खस, एकासन, अर्ह, प्रदर, दीर्घवेण, पारद, पुलिन्द, तंगण और परतंगण आदि नरेश भेंट में देने के लिये पिपीलिकाओं (चींटियों) द्वारा निकाले हुए 'पिपीलिक' नाम वाले सुवर्ण के ढेर के ढेर उठा लाये थे। उसका माप द्रोण से किया जाता था। इतना ही नहीं, वे सुन्दर काले रंग के चँवर तथा चन्द्रमा के समान श्वेत दूसरे चामर एवं हिमालय के पुष्पों से उत्पन्न हुआ स्वादिष्ट मधु भी प्रचुर मात्रा में लाये थे। उत्तरकुरु देश से गंगाजल और माला के योग्य रत्न तथा उत्तर कैलास से प्राप्त हुई अतीव बलसम्पन्न ओषधियाँ एवं अन्य भेंट की सामग्री साथ लेकर आये हुए पर्वतीय भूपालगण अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर के द्वार पर रोके जाकर विनीतभाव से खड़े थे। पिता जी! मैंने देखा कि जो राजा हिमालय के परार्ध भाग में निवास करते हैं, जो दायगिरि के निवासी हैं, जो समुद्रतटवर्ती करूष देश में रहते हैं तथा जो लौहित्यपर्वत के दोनों और वास करते हैं, फल और मूल ही जिनका भोजन है, वे चर्म वस्त्रधारी क्रूरतापूर्वक शास्त्र चलाने वाले और क्रूर कर्मा किरात नरेश भी वहाँ भेंट लेकर आये थे।

   राजन्! चन्दन और अगुरुकाष्ट तथा कृष्णागुरु कोष्ठ के अनेक भार, चर्म, रत्न, सवुर्ण तथा सुगन्धित पदार्थों की राशि और दस हजार किरात देशीय दासियाँ, सुन्दर-सुन्दर पदार्थ, दूर देशों के मृग और पक्षी तथा पर्वतों से संगृहित तेजस्वी सुवर्ण एवं सम्पूर्ण भेंट सामग्री लेकर आये हुए राजा लोग द्वार पर जाने के कारण खड़े थे। किरात, दरद, दर्व, शूर, यमक, औदुम्बर, दुर्विभाग, पारद, वाह्विक, काश्मीर, कुमार, घोरक, हंसकायन, शिवि, त्रिगर्त, यौधेय, भद्र, केकय, अम्बष्ठ, कौकुर, तार्क्ष्य, वस्त्रप, पह्वव, वशातल, मौलेय, क्षुद्रक, मालव, शौण्डिक, कुक्कर, शक, अंग, वंग, पुण्ड, शाणवत्य तथा गाय- ये उत्तम कुल में उत्पन्न श्रेष्ठ एवं शस्त्रधारी क्षत्रिय राजकुमार सैकड़ों की संख्या में पंक्तिबद्ध खड़े होकर अजातशत्रु युधिष्ठिर को बहुत धन अर्पित कर रहे थे। भारत! वंग, कलिंग, मगध, ताम्रलिप्त, पुण्डक, दौवालिक, सागरक, पत्रोर्ण, शैशव तथा कर्णप्रवारगण आदि बहुत से क्षत्रिय नरेश वहाँ दरवाजे पर खड़े थे तथा राजाज्ञा से द्वारपालगण उन सबको यह संदेश देते थे कि आप लोग अपने लिये समय निश्चित कर लें।

   फिर उत्तम भेंट सामग्री अर्पित करें। इसके बाद आप लोगों को भीतर जाने का मार्ग मिल सकेगा। तदनन्तर एक-एक क्षमाशील और कुलीन राजा ने काम्यक सरोवर के निकट उत्पन्न हुए एक-एक हजार हाथियों की भेंट देकर द्वार के भीतर प्रवेश किया। उन हाथियों के दाँत हलदण्ड के समान लंबे थे। उनको बाँधने की रस्सी सोने की बनी हुई थी। उन हाथियों का रंग कमल के समान सफेद था। उनकी पीठ पर झूल पड़ा हुआ था। वे देखने में पर्वताकार और उन्मत्त प्रतीत होते थे। ये तथा और भी बहुत से भूपालगण अनेक दिशाओं से भेंट लेकर आये थे। दूसरे-दूसरे महामना नरेशों ने भी वहाँ रत्नों की भेंट अर्पित की थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्विपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 23-43 का हिन्दी अनुवाद)

  इन्द्र के अनुगामी गन्धर्वराज चित्ररथ ने चार सौ दिव्य अश्व दिये, जो वायु के समान वेगशाली थे। तुम्बुरु नामक गन्धर्वराज ने प्रसन्नतापूर्वक सौ घोड़े भेंट किये, जो आम के पत्ते के समान हरे रंग वाले तथा सुवर्ण की मालाओं से विभूषित थे। महाराज! शूकर देश के पुण्यात्मा राजा ने कई सौ गजरत्न भेंट किये। मत्स्य देश के राजा विराट ने सुवर्ण मालाओं से विभूषित दो हजार मतवाले हाथी उपहार के रूप में दिये। राजन्! राजा वसुदान ने पांशुदेश से छब्बीस हाथी, वेग और शक्ति से सम्पन्न दो हजार सुवर्ण मालाभूषित जवान घोड़े और सब प्रकार की दूसरी भेंट सामग्री भी पाण्डवों को समर्पित की। राजन्! राजा द्रुपद ने चौदह हजार दासियाँ, दस हजार सप्त्नीक दास, हाथी जुते हुए छब्बीस रथ तथा अपना सम्पूर्ण राज्य कुन्तीपुत्रों को यज्ञ के लिये समर्पित किया था। वृष्णि कुलभूषण वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन का आदर करते हुए चौदह हजार उत्तम हाथी दिये। श्रीकृष्ण अर्जुन के आत्मा हैं और अर्जुन श्रीकृष्ण के आत्मा हैं। अर्जुन श्रीकृष्ण से जो कह देंगे, वह सबके नि:संदेह पूर्ण करेंगे। श्रीकृष्ण अर्जुन के लिये परमधाम को भी त्याग सकते हैं।

  इसी प्रकार अर्जुन भी श्रीकृष्ण के लिये अपने प्राणों तक का त्याग कर सकते हैं। मलय तथा दर्दुर पर्वत से वहाँ के राजा लोग सोने के घोड़ों में रखे हुए सुगन्धित चन्दन रस तथा चन्दन एवं अगुरु के ढेर भेंट के लिये लेकर आये थे। चोल और पाण्ड्य देशों के नरेश चमकीले मणि रत्न, सुवर्ण तथा महीन वस्त्र लेकर उपस्थित हुए थे, परंतु उन्हें भी भीतर जाने के लिये रास्ता नहीं मिला। सिंहल देश के क्षत्रियों ने समुद्र का सारभूत वैदूर्य, मोतियों के ढेर तथा हाथियों के सैकड़ों झूल अर्पित किये। वे सिंहल देशीय वीर मणियुक्त वस्त्रों से अपने शरीरों को ढके हुए थे। उनके शरीर का रंग काला था और उनकी आँखों के कोने लाल दिखायी देते थे। उन भेंट सामग्रियों को लेकर वे सब लोग दरवाजे पर रोके हुए खेड़े थे। ब्राह्मण, विजित क्षत्रिय, वैश्य तथा सेवा की इच्छा वाले शूद्र प्रसन्नतापूर्वक वहाँ उपहार अर्पित करते थे। सभी म्लेच्छ तथा आदि, मध्य और अन्त में उत्पन्न सभी वर्ण के लोग विशेष प्रेम और आदर के साथ युधिष्ठिर के पास भेंट लेकर आये थे।

   अनेक देशों में उत्पन्न और विभिन्न जाति के लोगों के अगामन से युधिष्ठिर के यज्ञ मण्डप में मानो यह सम्पूर्ण लोक ही एकत्र हुआ जान पड़ता था। मेरे शत्रुओं के घर में राजाओं द्वारा लाये हुए बहुत से छोटे-बड़े उपहरों को देखकर दु:ख से मुझे मरने की इच्छा होती थी। राजन्! पाण्डवों के वहाँ जिन लोगों का भरण-पोषण होता है, उनकी संख्या मैं आपको बता रहा हूँ। राजा युधिष्ठिर उन सबके लिये कच्चे-पक्के भोजन की व्यवस्था करते हैं। युधिष्ठिर के यहाँ तीन पद्म दस हजार हाथी सवार और घुड़ सवार, एक अर्बुद (दर करोड़) रथारोही तथा असंख्य पैदल सैनिक हैं। युधिष्ठिर के यज्ञ में कहीं कच्चा अन्न तौला जा रहा था, कहीं पक रहा था, कहीं परोसा जाता था और कहीं ब्राह्मणों के पुण्याहवाचन की ध्वनि सुनायी पड़ती थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्विपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 44-49 का हिन्दी अनुवाद)

  मैंने युधिष्ठिर के यज्ञ मण्डप में सभी वर्ण के लोगों में से किसी को ऐसा नहीं देखा, जो खा पीकर आभूषणों से विभूषित और सत्कृत न हुआ हो। राजा युधिष्ठिर घर में बसने वाले जिन अठ्ठासी हजार स्न्नातकों का भरण भोषण करते हैं, उनमें से प्रत्येेक की सेवा में तीस तीस दास दासी उपस्थित रहते हैं। वे सब ब्राह्मण भोजन से अत्यन्त तृप्त एवं संतुष्ट हो राजा युधिष्ठिर को उनके (काम-क्राधादि) शत्रुओं के विनाश के लिये आशीर्वाद देते हैं।

   इसी प्रकार युधिष्ठिर के महल में दूसरे दस हजार ऊर्ध्वरेता यति भी सोने की थालियों में भोजन करते हैं। राजन्! उस यज्ञ में द्रौपदी प्रतिदिन स्वयं पहले भोजन न करके इस बात की देखभाल करती थी कि कुबड़े और बौनों से लेकर सब मुनष्यों में किसने खाया है और किसने अभी तक भोजन नहीं किया है। भारत! कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को दो ही कुल के लोग कर नहीं देते थे। सम्बन्ध के कारण पांचाल और मित्रता के कारण अन्धक एवं वृष्णि।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन संताप-विषयक-बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

तिरपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रिपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन"

  दुर्योधन बोला ;- पिता जी! जो राजा आर्य, सत्यप्रतिज्ञ, महव्रती, विद्वान, वक्ता, वेदोक्त यज्ञों के अन्त में अवभृथ स्न्नान करने वाले, धैर्यवान, लज्जाशील, धर्मात्मा, यशस्व तथा मूर्धाभिषिक्त थे, वे सभी इन धर्मराज युधिष्ठिर की उपासना करते थे। राजाओं ने दक्षिणा में देने के लिये जो गौएँ मँगवायी थीं, उन सबको मैंने जहाँ-तहाँ देखा। उनके दुग्धपात्र काँसे के थे। वे सबकी सब जंगलों में खुली चरने वाली थीं तथा उनकी संख्या कई हजार थी। भारत! राजा लोग युधिष्ठिर के अभिषेक के लिये स्वयं ही प्रयत्न करके शान्तचित्त हो सत्कारपूर्वक छोटे बड़े पात्र उठा उठाकर ले आये थे। बाह्लीक नरेश रथ ले आये, जो सुवर्ण से सजाया गया था। सुदक्षिण ने उस रथ में काम्बोज देश के सफेद घोड़े जोत दिये। महाबली सुनीथ ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उस में अनुकर्ष (रथ के नीचे लगने योग्य काष्ठ) लगा दिया।

   चेदिराज ने स्वयं उस रथ में ध्वजा फहरा दी। दक्षिण देश के राजा ने कचव दिया। मगध नरेश ने माला और पगड़ी प्रस्तुत की। महान् धनुर्धर वसुदान ने साठ वर्ष की अवस्था का एक गजराज उपस्थित कर दिया। मत्स्य नरेश ने सुवर्ण जटित धुरीला दी। एकलव्य ने पैरों के समीप जूते लाकर रख दियेे। अवन्ती नरेश ने अभिषेक के लिये अनेक प्रकार का जल एकत्र कर दिया। चेकितान ने तूणीर और काशिराज ने धनुष अर्पित किया। शल्य ने अच्छी मूठवाली तलवार तथा छीके पर रखा हुआ सुवर्णभूषित कलश प्रदान किया। तदनन्तर धौम्य तथा महातपस्वी व्यास ने देवर्षि नारद, देवल और असित मुनि को आगे करके युधिष्ठिर का अभिषेक किया। परशुराम जी के साथ वेद के पारंगत दूसरे विद्वान महर्षियों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा युधिष्ठिर का अभिषेक किया। जैसे स्वर्ग में देवराज इन्द्र के पास सप्तर्षि पधारते हैं, उसी प्रकार पर्याप्त दक्षिणा देने वाले महाराज युधिष्ठिर के पास बहुत से महात्मा मन्त्रोचारण करते हुए पधारे थे।

   सत्यपराक्रमी सात्यकि ने युधिष्ठिर के लिये छत्र धारण किया तथा अर्जुन और भीमसेन ने व्यजन डुलाये। तथा नकुल और सहदेव ने दो विशुद्ध चँवर हाथ में ले लिये। पूर्वकाल में प्रजापति ने इन्द्र के लिये जिस शंख को धारण किया था, वही वरुण देवता का शंख समुद्र ने युधिष्ठिर को भेंट किया था। विश्वकर्मा ने एक हजार स्वर्ण मुद्राओं से जिस शैक्यपात्र (छींके पर रखे हुए सुवर्ण कलश) का निर्माण किया था, उसमें स्थित समुद्र जल को शंख में लकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर का अभिषेक किया। उस समय वहाँ मुझे मूर्च्छा आ गयी थी। पिता जी! लोग जल लाने के लिये पूर्व से पश्चिम समुद्र तक जाते हैं, दक्षिण समुद्र की भी यात्रा करते हैं। परंतु उत्तर समुद्र तक पक्षियों के सिवा और कोई नहीं जाता, (किंतु वहाँ भी अर्जुन पहुँच गये।) वहाँ अभिषेक के समय सैकड़ों मंगलकारी शंख एक साथ ही जोर-जोर से बजने लगे, जिससे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। उस समय वहाँ जो तेजोहीन भूपाल थे, वे भय के मारे मूर्च्छित होकर गिर पड़े। धृष्टद्युम्न, पाँचों पाण्डव, सात्यकि और आठवें श्रीकृष्ण ये ही धैर्यपूर्वक स्थिर हैं। ये सभी पराक्रम सम्पन्न तथा एक-दूसरे का प्रिय करने वाले हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रिपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-26 का हिन्दी अनुवाद)

  वे मुझे तथा अन्य राजाओं को अचेत हुए देखकर उस समय जोर-जोर से हँस रहे थे। भारत! तदनन्तर अर्जुन ने प्रसन्न होकर पाँच सौ बैलों को, जिनके सींगों में सोना मँढ़ा हुआ था, मुख्य-मुख्य ब्राह्मणों में बाँट दिया।

  पिता जी! न रन्तिदेव, न नाभाग, न मान्धाता, न मनु, न वेननन्दन राजा पृथु, न भगीरथ, न ययाति और न नहुष ही वैसे ऐश्वर्य सम्पन्न सम्राट थे, जैसे कि आज राजा युधिष्ठिर हैं। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ पूर्ण करके अत्यन्त उच्च कोटि की राजलक्ष्मी से सम्पन्न हो गये हैं। ये शक्तिशाली महाराज हरिश्चन्द्र की भाँति सुशोभित होते हैं। भारत! हरिश्चन्द्र की भाँति कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की इस राजलक्ष्मी को देखकर मेरा जीवित रहना आप किस दृष्टि से अच्छा समझते हैं?

  राजन्! यह युग अंधे विधाता से बँधा हुआ है। इसीलिये इसमें सब बातें उल्टी हो रही हैं। छोटे बढ़ रहे हैं और बड़े हीन दशा में गिरते जा रहे हैं। कुरुप्रवीर! ऐसा देखकर अच्छी तरह विचार करने पर भी मुझे चैन नहीं पड़ता। इसी से मैं दुर्बल, कान्तिहीन और शोकमग्न हो रहा हूँ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन संतापविषयक-तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

चौवनवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतु:पश्चात्तम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझान"

  धृतराष्ट्र बोले ;- दुर्योधन! तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो, जेठी रानी के गर्भ से उत्पन्न हुए हो। बेटा! पाण्डवों से द्वेष मत करो, क्योंकि द्वेष करने वाला मनुष्य मृत्यु के समान कष्ट पाता है। युधिष्ठिर किसी के साथ छल नहीं करते, उनका धन तुम्हारे ही जैसा है। जो तुम्हारे मित्र हैं, उनके भी मित्र हैं और युधिष्ठिर तुमसे कभी द्वेष नहीं करते। भरतकुलतिलक! फिर तुम्हारे जैसे पुरुष को उनसे द्वेष क्यों करना चाहिये? राजन्! तुम्हारा और युधिष्ठिर का कुल एवं पराक्रम एक सा है। बेटा! तुम महोवश अपने भाई की लक्ष्मी की इच्छा क्यों करते हो? ऐसे अधम न बनो, शान्त भाव से रहो। शोक न करो। भरतश्रेष्ठ! यदि तुम उन यज्ञ वैभव को पाने की अभिलाषा रखते हो तो ऋत्विज लोग तुम्हारे लिये भी गायत्री आदि सात छन्दरूपी तन्तुओं से युक्त राजसूय महायज्ञ का अनुष्ठान करा देंगे। उसमें देश-देश के राजा लोग तुम्हारे लिये भी बड़े प्रेम और आदर से रत्न, आभूषण तथा बहुत धन ले आयेंगे। बेटा! यह पृथ्वी कामधेनु है। इसे वीरपत्नी भी कहते हैं। अपने पराक्रम से जीती हुई भूमि मनोवान्छित फल प्रदान करती है। यदि तुममें भी बल और पराक्रम हो तो तुम इस पृथ्वी का यथेष्ट उपभोग कर सकते हो।

  तात! दूसरे के धन की स्पृहा रखना नीच पुरुषों का काम है। जो भली-भाँति अपने धन से संतुष्ट तथा अपने धर्म में ही स्थित है, वही सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है। दूसरे के धन को हड़पने की कोई चेष्टा न करना, अपने कर्त्तव्य को पूरा करने के लिये सदा प्रयत्नशील रहना और अपने को जो कुछ प्राप्त है, उसकी रक्षा करना- यही उत्तम वैभव का लक्षण है। जो विपत्तियों में व्यथित नहीं होता, सदा उद्योगशील बना रहता है, जिसमें प्रमाद का अभाव है तथा जिसके हृदय में विनय रूप सद्गुण है, वह चतुर मनुष्य सदा कल्याण ही देखता है। ये पाण्डुपुत्र तुम्हारी भुजाओं के समान हैं, इन्हें काटो मत। इसी प्रकार तुम भाईयों के धन के लिये मित्रद्रोह न करो। राजन्! तुम पाण्डवों से द्वेष न करो। वे तुम्हारे भाई हैं और भाइयों का सारा धन तुम्हारा ही है। तात! मित्रद्रोह से बहुत बड़ा पाप होता है। देखो, जो तुम्हारे बाप-दादे हैं, वे ही उनके भी हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम यज्ञ में धन दान करो, मन को प्रिय लगने वाले भोग भोगो और निर्भय होकर स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए शान्त रहो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन संतापविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (द्यूत पर्व)

पचपनवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना"

   दुर्योधन बोला ;- पिता जी! जिसके पास अपनी बुद्धि नहीं है, जिसने केवल बहुत से शास्त्रों का श्रवण भर किया है, वह शास्त्र के तात्पर्य को नहीं समझ सकता, ठीक उसी तरह, जैसे कलछी दाल के रस को नहीं जानती। एक नौका में बँधी हुई दूसरी नौका के समान आप विदुर की बुद्धि के आश्रित है। जानते हुए भी मुझे मोह में क्यों डालते हैं, स्वार्थ साधन के लिये क्या आप में तनिक भी सावधानी नहीं है, अथवा आप मुझसे द्वेष रखते हैं। आप जिनके शासक हैं, वे धृतराष्ट्र नहीं के बराबर हैं (क्योंकि आप उन्हें स्वेच्छा से उन्नति के पथ पर बढ़ने नहीं देते)। आप सदा अपने वर्तमान कर्तव्य को भविष्य पर ही टालते रहते हैं। जिस दल का अगुआ दूसरे की बुद्धि पर चलता है, वह अपने मार्ग में सदा मोहित होता रहता है। फिर उसके पीछे चलने वाले लोग अपने मार्ग का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? राजन्! आपकी बुद्धि परिपक्व है, आप वृद्ध पुरुषों की सेवा करते रहते हैं, आपने अपनी इन्द्रियों पर विजय पा ली है, तो भी जब हम लोग अपने कार्यों में तत्पर होते हैं, उस समय आप हमें बार-बार मोह में ही डाल देते हैं।

  बृहस्पति ने राजव्यवहार को लोकव्यवहार से भिन्न बताया है, अत: राजा को सावधान होकर सदा अपने प्रयोजन का ही चिन्तन करना चाहिये। महाराज! क्षत्रिय की वृत्ति विजय में ही लगी रहती है, वह चाहे धर्म हो या अधर्म। अपनी वृत्ति के विषय में क्या परीक्षा करनी है? भरतकुलभूषण! शत्रु की जगमगाती हुई राजलक्ष्मी को अपने अधिकार में करने की इच्छा वाला भूपाल सम्पूर्ण दिशाओं का उसी प्रकार संचालन करे, जैसे सारथि चाबुक से घोड़ों को हाँक कर अपनी रूचि के अनुसार चलाता है। गुप्त या प्रकट, जो उपाय शत्रु को संकट में डाल दे, वहीं शस्त्रज्ञ पुरुषों का शस्त्र है। केवल काटने वाला शस्त्र ही शस्त्र नहीं है। राजन्! अमुक शत्रु है और अमुक मित्र, इसका कोई लेखा नहीं है और न शत्रु मित्रसूचक कोई अक्षर ही है। जो जिसको संताप देता है, वही उसका शत्रु कहा जाता है। असंतोष ही लक्ष्मी की प्राप्ति का मूल कारण है, अत: मैं असंतोष चाहता हूँ।

   राजन्! जो अपनी उन्नति के लिये प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न ही सर्वाेत्तम नीति है। ऐश्वर्य अथवा धन में ममता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि पहले की उपार्जित धन को दूसरे लोग बलात्कार से छीन लेते हैं। यही राजधर्म माना गया है। इन्द्र ने नमुचि से कभी बैर न करने की प्रतिज्ञा करके उस पर विश्वास जमाया और मौका देखकर उसका सिर काट लिया। तात! शत्रु के प्रति इसी प्रकार का व्यवहार सदा से होता चला आया है। यह इन्द्र को भी मान्य है। जैसे सर्प बिल में रहने वाले चूहों आदि को निगल जाता है, उसी प्रकार यह भूमि विरोध न करने वाले राजा तथा परदेश में न विचरने वाले ब्राह्मण (संन्यासी) को ग्रस लेती है। नरेश्वर! मनुष्य का जन्म से कोई शत्रु नहीं होता, जिसके साथ एक सी जीविका होती है, अर्थात जो लोग एक ही वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हैं, वे ही (ईर्ष्या के कारण) आपस में एक दूसरे के शत्रु होते हैं, दूसरे नहीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 16-21 का हिन्दी अनुवाद)

  जो निरन्तर बढ़ते हुए शत्रु पक्ष की ओर से मोहवश उदासीन हो जाता है, बढ़े हुए रोग की भाँति शत्रु उस उदासीन राजा की जड़ काट डालता है। जैसे वृक्ष की जड़ में उत्पन्न हुई दीमक उस में लगी रहने के कारण उस वृक्ष को ही खा जाती है, वैसे ही छोटा सा भी शत्रु यदि पराक्रम से बहुत बढ़ जाय, तो वह पहले के प्रबल शत्रु को भी नष्ट कर डालता है।
   भरतकुलभूषण! अजमीढ़नन्दन! आपको शत्रु की लक्ष्मी अच्छी नहीं लगनी चाहिये। हर समय न्याय को सिर पर चढ़ाये रखना भी बुद्धिमानों के लिये भार ही है। जो जन्म काल से शरीर आदि की वृद्धि के समान धनवृद्धि की भी अभिलाषा करता है, वह कुटुम्बीजनों में बहुत आगे बढ़ जाता है। पराक्रम करना तत्काल उन्नति का कारण है। जब तक मैं पाण्डवों की सम्पत्ति को प्राप्त कर लूँ, तब तक मेरे मन में दुविधा ही रहेगी। इसलिये या तो मैं पाण्डवों की उस सम्पत्ति को ले लूँगा अथवा युद्ध में मरकर सो जाऊँगा (तभी मेरी दुविधा मिटेगी)।
    महाराज! आज जो मेरी दशा है, इसमें मेरे जीवित रहने से क्या लाभ है? पाण्डव प्रतिदिन उन्नति कर रहे हैं और हम लोगों की वृद्धि (उन्नति) अस्थिर है- अधिक काल तक टिकने वाली नहीं जान पड़ती है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन-संताप-विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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