सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
छियालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"व्यास जी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता और समत्वपूर्ण बर्ताव करने की प्रतिज्ञा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यज्ञों में श्रेष्ठ परम दुर्लभ राजसूय यज्ञ में समाप्त हो जाने पर शिष्यों से घिरे हुए भगवान व्यास राजा युधिष्ठिर के पास आये। उन्हें देखकर भाइयों से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर तुरंत आसन से उठकर खड़े हो गये और आसन एवं पाद्य आदि समर्पण करके उन्होंने पितामह व्यास जी का यथावत् पूजन किया। तत्पश्चात सुवर्णमय उत्तम आसन पर बैठकर भगवान व्यास ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा,,
व्यास जी बोले ;- ‘बैठ जाओ’। भाइयों से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर के बैठ जाने पर बातचीत में कुशल भगवान व्यास ने उनसे कहा,
व्यास जी फिर बोले ;- ‘कुन्तीनन्दन! बड़े आनन्द की बात है कि तुम परम दुर्लभ सम्राट का पद पाकर सदा उन्नतिशील हो रहे हो। कुरुकुल का भार वहन करने वाले नरेश! तुमने समस्त कुरुवंशियों को समृद्धिशाली बना दिया। राजन्! अब मैं जाऊँगा। इसके लिये तुम्हारी अनुमति चाहता हूँ। तुमने मेरा अच्छी तरह सम्मान किया है।’ महात्मा कृष्णद्वैपायन व्यास के ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने उस पितामह के दोनों चरणों को पकड़ कर प्रणाम किया और कहा।
युधिष्ठिर बोले ;- नरश्रेष्ठ! मेरे मन में एक भारी संशय उत्पन्न हो गया है। विप्रवर! आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो उसका समाधान कर सके। पितामह! देवर्षि भगवान नारद ने स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी विषयक तीन प्रकार के उत्पात बताये हैं। क्या शिशुपाल के मारे जाने से वे महान उत्पात शान्त हो गये?
वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर का यह प्रश्न सुनकर पराशरनन्दन कृष्ण द्वैपायन भगवान व्यास ने इस प्रकार कहा,,
व्यास जी बोले ;- ‘राजन्! उत्पादों का महान फल तेरह वर्षों तक हुआ करता है। इस समय जो उत्पात प्रकट हुआ था, वह समस्त क्षत्रियों का विनाश करने वाला होगा। भरत कुलतिलक! एकमात्र तुम्ही को निमित्त बनाकर यथा समय समस्त भूमिपालों का समुदाय आपस में लड़कर अपराध से लड़कर नष्ट हो जाएगा। भारत! क्षत्रियों का यह विनाश दुर्योधन के अपराध से तथा भीमसेन और अर्जुन के पराक्रम द्वारा सम्पन्न होगा। राजेन्द्र! तुम रात के अन्त में स्वप्न में उन वृषभध्वज भगवान शंकर का दर्शन करोगे, जो नीलकण्ठ, भव, स्थाणु, कपाली, त्रिपुरान्तक, उग्र, रुद्र, पशुपति, महादेव, उमापति, हर, शर्व, वृष, शूली, पिनाकी तथा कृत्तिवासा कहलाते हैं। उन भगवान शिव की कान्ति कैलाश शिखर के समान उज्ज्वल होगी। वे वृषभ पर आरूढ़ हुए सदा दक्षिण दिशा की ओर देख रहे होंगे। राजन्! तुम्हें इस प्रकार ऐसा स्वप्न दिखायी देगा, किंतु उसके लिये तुम्हेंं चिन्ता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि काल सब के लिये दुर्लंघय है। तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं कैलास पर्वत पर जाऊँगा। तुम सावधान एवं जितेन्द्रिय होकर पृथ्वी का पालन करो’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यास वेद मार्ग का अनुसरण करने वाले अपने शिष्यों के साथ कैलाश पर्वत पर चले गये। अपने पितामह व्यास जी के चले जाने पर चिन्ता और शोक से युक्त राजा युधिष्ठिर बारंबार गरम साँसें लेते हुए उसी बात का चिन्तन करते रहे। अहो! देव का विधान पुरुषार्थ से किस प्रकार टाला जा सकता है? महर्षि ने जो कुछ कहा है, वह निश्चय ही होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 21-33 का हिन्दी अनुवाद)
यही सोचते-सोचते महातेजस्वी युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों से कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘पुरुषसिंहों! महर्षि व्यास ने मुझसे जो कहा है, उसे तुम लोगों ने सुना है न? उनकी वह बात सुनकर मैंने मरने का निश्चय कर लिया है। तात! यदि समस्त क्षत्रियों के विनाश में विधाता ने मुझे ही निमित्त बनाने की इच्छा की है, काल ने मुझे ही इस अनर्थ का कारण बनाया है तो मेरे जीवन का क्या प्रयोजन है?’
राजा की ऐसी बातें सुनकर अर्जुन ने उत्तर दिया,,
अर्जुन बोले ;- ‘राजन्! इस भयंकर मोह में न पड़िये, यह बुद्धि को नष्ट करने वाला है। महाराज! अच्छी तरह सोच विचार कर आपको जो कल्याणप्रद जान पड़े, वह कीजिये’। तब सत्यवादी युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों से व्यास जी की बातों पर विचार करते हुए कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘तात! तुम लोगों का कल्याण हो, भाइयों के विनाश का कारण बनने के लिये मुझे तेरह वर्षों तक जीवित रहने से क्या लाभ? यदि जीना है तो आज से ही मेरी यह प्रतिज्ञा सुन लो- ‘मैं अपने भाइयों तथा दूसरे राजाओं से कभी कड़वी बात नहीं बोलूँगा। बन्धु बान्धओं की आज्ञा में रहकर प्रसन्नतापूर्वक उनकी मुँह माँगी वस्तुएँ लाने में संलग्र रहूँगा’।
'इस प्रकार समतापूर्ण बर्ताव करते हुए मेरा अपने पुत्रों तथा दूसरों के प्रति भेदभाव न होगा, क्यों जगत में लड़ाई झगड़े का मूल कारण भेदभाव ही है। नररत्नों! विग्रह या वैर विरोध को अपने से दूसर ही रखकर सबका प्रिय करते हुए मैं संसार में निन्दा का पात्र नहीं हो सकूँगा’। अपने बड़े भाई की वह बात सुनकर सब पाण्डव उन्हीं के हित में तत्पर हो सदा उनका ही अनुसरण करने लगे। राजन्! धर्मराज ने अपने भाईयों के साथ भरी सभा में यह प्रतिज्ञा करके देवताओं तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण किया। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! समस्त क्षत्रियों के चले जाने पर कल्याणमय मांगलिक कृत्य पूर्ण करे भाईयों से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर ने मन्त्रियों के साथ अपने उत्तम नगर में प्रवेश किया। महाराज! दुर्योधन तथा सुबलपुत्र शकुनि ये दोनों उस रमणीय सभा में ही रह गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में युधिष्ठिर प्रतिज्ञा-विषयक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
सैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन का मयनिर्मित सभा भवन को देखना और पग पग पर भ्रम के कारण उपहासक का पात्र बनना तथा युधिष्ठिर के वैभव को देखकर उसका चिन्तित होना"
वैशम्पायन जी कहते है ;- नरश्रेष्ठ जनमेजय! राजा दुर्योधन ने उस सभा भवन में निवास करते समय शकुनि के साथ धीरे-धीरे उस सारी सभा का निरीक्षण किया। कुरुनन्दन दुर्योधन उस सभा में उन दिव्य अभिप्रायों (दृश्यों) को देखने लगा, जिन्हें उसने हस्तिनापुर में पहले कभी नहीं देखा था। एक दिन की बात है, राजा दुर्योधन उस सभा भवन में घूमता हुआ स्फटिक मणिमय स्थल पर जा पहुँचा ओर वहाँ जल की आशंका से उसने अपना वस्त्र ऊपर उठा लिया। इस प्रकार बुद्धि मोह हो जाने से उसका मन उदास हो गया और वह उस स्थान से लौटकर सभा में दूसरी ओर चक्कर लगाने लगा। तदनन्तर वह स्थल में ही गिर पड़ा, इससे वह मन ही मन दुखी और लज्जित हो गया तथा वहाँ से हटकर लम्बी साँसें लेता हुआ सभा भवन में घूमने लगा। तत्पश्चात स्फटिकमणि के समान स्वच्छ जल से भरी और स्फटिक मणियम कमलों से सुशोभित बावली को स्थल मानकर वह वस्त्र सहित जल में गिर पड़ा। उसे जल में गिरा देख महाबली भीमसेन हँसने लगे। उनके सेवकों ने भी दुर्योधन की हँसी उड़ायी तथा राजाज्ञा से उन्होंने दुर्योधन को सुन्दर वस्त्र दिये।
दुर्योधन की यह दुरवस्था देख महाबली भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव सभी उस समय जोर जोर से हँसने लगे। दुर्योधन स्वभाव से ही अमर्षशील था, अत: वह उनका उपहास न सह सका। वह अपने चेहरे के भाव को छिपाये रखने के लिये उनकी ओर दृष्टि नहीं डालता था। फिर स्थल में ही जल का भ्रम हो जाने से वह कपड़े उठाकर इस प्रकार चलने लगा, मानो तैरने की तैयारी कर रहा हो। इस प्रकार जब वह ऊपर चढ़ा, तब सब लोग उनकी भ्रान्ति पर हँसने लगे। उसके बाद राजा दुर्योधन ने एक स्फटिकमणि का बना हुआ दरवाजा देखा, जो वास्वत में बंद था, तो भी खुला दीखता था। उसमें प्रवेश करते ही उसका सिर टकरा गया और उसे चक्कर सा आ गया। ठीक उसी तरह का एक दूसरा दरवाजा मिला, जिसमें स्फटिकमणि के बड़े-बड़े किवाड़ लगे थे। यद्यपि वह खुला था, तो भी दुर्योधन ने उसे बंद समझकर उस पर दोनों हाथों से धक्का देना चाहा। किंतु धक्के से वह स्वयं द्वार के बाहर निकल कर गिर पड़ा। आगे जाने पर उसे एक बहत बड़ा फाटक और मिला, परंतु कहीं पिछले दरवाजों की भाँति यहाँ भी कोई अग्रिम घटना न घटित हो इस भय से वह उस दरवाजे के इधर से ही लौट आया।
राजन्! इस प्रकार बार बार धोखा खाकर राजा दुर्योधन राजसूय महायज्ञ में पाण्डवों के पास आयी हुई अद्भुत समृद्धि पर दृष्टि डालकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा ले अप्रसन्न मन से हस्तिनापुर को चला गया। पाण्डवों की राजलक्ष्मी से संतप्त हो उसी का चिन्तन करते हुए जाने वाले राजा दुर्योधन के मन में पापपूर्ण विचार का उदय हुआ। कुरुश्रेष्ठ! यह देखकर कि कुन्ती के पुत्रों का मन प्रसन्न है, भूमण्डल के सब नरेश उनके वश में हैं तथा बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सारा जगत उनका हितैषी है, इस प्रकार महात्मा पाण्डवों की महिमा अत्यन्त बढ़ी हुई देखकर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन का रंग फीका पड़ गया। रास्ते में जाते समय वह नाना प्रकार के विचारों से चिन्तातुर था। वह अकेला ही परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर की अलौकिक सभा तथा अनुपम लक्ष्मी के विषय में सोच रहा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)
इस समय धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन उन्मत्त सा हो रहा था। वह शकुनि के बार बार पूछने पर भी उसे कोई उत्तर नहीं दे रहा था। उसे नाना प्रकार की चिन्ताओं से युक्त देख शकुनि ने पूछा,,
शकुनि बोला ;- ‘दुर्योधन! तुम्हें कहाँ से दु:ख का कारण प्राप्त हो गया, जिससे तुम लंबी साँसे खींचते चल रहे हो।’
दुर्योधन ने कहा ;- मामा जी! मैंने देखा है, श्वेत वाहन महात्मा अर्जुन ने अस्त्रों के प्रताप से जीती हुई यह सारी पृथ्वी युधिष्ठिर के वश में हो गयी है। महातेजस्वी युधिष्ठिर का वह राजसूय यज्ञ उसी प्रकार सम्पन्न हुआ है, जैसे देवताओं में देवराज इन्द्र का यज्ञ पूर्ण हुआ था। यह सब देखकर मैं दिन रात ईर्ष्या से भरा ठीक उसी प्रकार जलता रहता हूँ, जैसे ग्रीष्म ऋतु में थोड़ा सा जल जल्दी सूख जाता है। और भी देखिये, यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को मार गिराया, परंतु वहाँ कोई भी वीर पुरुष उसका बदला लेने को तैयार नहीं हुआ। पाण्डवजनित आग से दग्ध होने वाले राजाओं ने वह अपराध क्षमा कर दिया। अन्यथा इतने बड़े अन्याय को कौन सह सकता है। वासुदेव श्रीकृष्ण ने जैसा महान अनुचित कर्म किया था, वह महामाना पाण्डवों के प्रताप से सफल हो गया। जैसे कर देने वाले व्यापारी वैश्य नाना प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर राजा की सेवा में उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार सब राजा अनेक प्रकार के उत्तम रत्न लेकर राजा युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित हुए थे।
पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के समीप प्राप्त हुई उन प्रकाशमयी लक्ष्मी को देखकर मैं ईर्ष्यावश जल रहा हूँ। यद्यपि मेरी यह दुरवस्था उचित नहीं है। ऐसा निश्चय करके दुर्योधन चिन्ता की आग से दग्ध सा होता हुआ पुन: गान्धारराज शकुनि से बोला। मैं आग में प्रवेश कर जाऊँगा, विष खा लूँगा अथवा जल में डूब मरूँगा, अब मैं जीवित नहीं रह सकूँगा। संसार में कौन ऐसा शक्तिशाली पुरुष होगा, जो शत्रुओं की वृद्धि और अपनी हीन दशा होती देखकर भी चुपचाप सहन कर लेगा। मैं इस समय न तो स्त्री हूँ, न अस्त्र बल से सम्पन्न हूँ, न पुरुष हूँ और न नपुंसक ही हूँ, तो भी अपने शत्रुओं के पास आयी हुई वैसी उत्कृष्ट सम्पत्ति को देखकर भी चुपचाप सहन कर रहा हूँ? शत्रुओं के पास समस्त भूमण्डल का वह साम्राज्य, वैसी धन रत्नों से भरी सम्पदा और उनका वैसा उत्कृष्ट राजसूय यज्ञ देखकर मेरे जैसा कौन पुरुष चिन्तित न होगा? मैं अकेला उस राजलक्ष्मी को हड़प लेने में असमर्थ हूँ और अपने पास योग्य सहायक नहीं देखता हूँ, इसीलिये मृत्यु का चिन्तन करता हूँ। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के पास उस अक्षय विशुद्ध लक्ष्मी का संचय देख मैं दैव को ही प्रबल मानता हूँ, पुरुषार्थ तो निरर्थक जान पड़ता है।
सुबलपुत्र! मैंने पहले धर्मराज युधिष्ठिर को नष्ट कर देने का प्रयत्न किया था, किंतु उन सारे संकटों को लाँघ करके वे जल में कमल की भाँति उत्तरोत्तर बढ़ते गये। इसी से मैं दैव को उत्तम मानता हूँ और पुरुषार्थ को निरर्थक, क्योंकि हम धृतराष्ट्रपुत्र हानि उठा रहे हैं और ये कुन्ती के पुत्र प्रतिदिन उन्नति करते जा रहे हैं। मैं उस राजलक्ष्मी को, उस दिव्य सभा को तथा रक्षकों द्वारा किये गये अपने उपहास को देखकर निरन्तर संतप्त हो रहा हूँ, मानो आग में जलता होऊँ। मामा जी! अब मुझे (मरने के लिये) आज्ञा दीजिये, क्योंकि मैं बहुत दुखी हूँ और ईर्ष्या की आग में जल रहा हूँ। महाराज धृतराष्ट्र को मेरी यह अवस्था सूचित कर दीजियेगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन संतापविषयक-सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
अड़तालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने के लिये शकुनि और दुर्योधन की बातचीत"
शकुनि बोला ;- दुर्योधन! तुम्हें युधिष्ठिर के प्रति ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये, क्योंकि पाण्डव सदा अपने भाग्य का ही उपभोग करते आ रहे हैं। तुमने उन्हें वश में लाने के लिये अनेक प्रकार के उपायों का अवलम्बन किया, परंतु उनके द्वारा तुम उन्हें अपने अधीन न कर सकें। शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज! तुमने बार बार पाण्डवों पर कुचक्र चलाये, परंतु वे नरश्रेष्ठ अपने भाग्य से उन सभी संकटों से छुटकारा पाते गये। उन पाँचों ने पत्नी रूप में द्रौपदी को तथा पुत्रों सहित राजा द्रुपद एवं सम्पूर्ण पृथ्वी की प्राप्ति में कारण महापराक्रमी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को सहायक रूप में प्राप्त किया है। श्रीकृष्ण को बस देवता, असुर और मनुष्य मिलकर भी जीत नहीं सकते। उन्हीं के तेज से राजा युधिष्ठिर की उन्नति हुई है, इसके लिये शोक करने की क्या बात है?
पृथ्वीपते! पाण्डवों ने अपने उद्देश्य से विचलित न होकर निरन्तर प्रयत्न करके राज्य में अपना पैतृक अंश प्राप्त किया है और वह पैतृक सम्पत्ति आज उन्हीं के तेज से बहुत बढ़ गयी है, अत: उसके लिये चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है? अर्जुन ने अग्नि देव को संतुष्ट करके गाण्डीव धनुष, अक्षय तरकस तथा कितने ही दिव्य अस्त्र प्राप्त किये हैं। उस श्रेष्ठ धनुष के द्वारा तथा अपनी भुजाओं के बल से उन्होंने समस्त राजाओं को वश में किया है, इसके लिये शोक की क्या आवश्कता है। सव्यसाची परंतप अर्जुन ने मय दानव को आग में जलने से बचाया और उसी के द्वारा उस दिव्य सभा का निर्माण कराया। उस मय के ही कहने से किंकर नामधारी भयंकर राक्षसगण उस सभा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। अत: इसके लिये भी शोक संताप क्यों किया जाय? भारत! तुमने जो अपने को असहाय बताया है, वह मिथ्या है, क्योंकि तुम्हारे ये सब भाई तुम्हारी आज्ञा के अधीन हैं। महान् धनुर्धर और पराक्रमी द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ तुम्हारी सहायता के लिये उद्यत हैं। राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण, महारथी कृपाचार्य, भाइयों सहित मैं तथा राजा भूरिश्रवा- इन सबके साथ तुम भी सारी पृथ्वी पर विजय प्राप्त करो।
दुर्योधन ने कहा ;- राजन्! यदि तुम्हारी अनुमति हो, तो तुम्हारे और इन द्रोण आदि अन्य महारथियों के साथ इन पाण्डवों को ही युद्ध में जीत लूँ। इनके पराजित हो जाने पर अभी यह सारी पृथ्वी, समस्त भूपाल और वह महाधन सम्पन्न सभा भी हमारे अधीन हो जायगी।
शकुनि बोले ;- राजन्! अर्जुन, श्रीकृष्ण, भीमसेन, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा पुत्रों सहित द्रुपद- इन्हें देवता भी युद्ध में परास्त नहीं कर सकते। ये सब के सब महारथी, महान् धनुर्धर, अस्त्रविद्या में निपुण तथा युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले हैं। राजन्! मैं वह उपाय जानता हूँ, जिससे युधिष्ठिर स्वयं पराजित हो सकते हैं। तुम उसे सुनो और उसका सेवन करो।
दुर्योधन ने कहा ;- मामा जी! यदि मेरे सगे सम्बन्धियों तथा अन्य महात्माओं की सतत सावधानी से किसी उपाय द्वारा पाण्डवों को जीता जा सके तो वह मुझे बताइये।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 19-23 का हिन्दी अनुवाद)
शकुनि बोला ;- राजन्! कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को जूए का खेल बहुत प्रिय है, किंतु वे उसे खेलना नहीं जानते। यदि महाराज युधिष्ठिर को द्यूतक्रीड़ा के लिये बुलाया जाय तो वे पीछे नहीं हट सकेंगे। मैं जूआ खेलने में बहुत निपुण हूँ। इस कला में मेरी समानता करने वाला पृथ्वी पर दूसरा कोई नहीं हैं। केवल यही नहीं, तीनों लोकों में मेरे जैसा द्यूतिविद्या का जानकार नहीं है।
अत: कुरुनन्दन! तुम द्यूतक्रीड़ा के लिये युधिष्ठिर को बुलाओं। नरश्रेष्ठ! मैं पासा फेंकने में कुशल हूँ, अत: युधिष्ठिर के राज्य तथा देदीप्यमान राजलक्ष्मी को तुम्हारे लिये अवश्य प्राप्त कर दूँगा, इसमे संशय नहीं है। दुर्योधन! तुम ये सारी बातें पिता जी से कहो। उनकी आज्ञा मिल जाने पर नि:संदेह पाण्डवों को जीत लूँगा।
दुर्योधन ने कहा ;- सुबलनन्दन! आप ही कुरुकुल के प्रधान महाराज धृतराष्ट्र से इन सब बातों को यथोचित रूप से कहिये। मैं स्वयं कुछ नहीं कह सकूँगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन संताप विषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
उनचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! गान्धारीपुत्र दुर्योधन के सहित सुबलनन्दन शकुनि राजा युधिष्ठिर के राजसूय महायज्ञ का उत्सव देखकर जब लौटा, तब पहले दुर्योधन के अपने अनुकूल मत को जानकर और उसकी पूरी बातें सुनकर सिंहासन पर बैठे हुए प्रज्ञाचक्षु महाप्राज्ञ राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर इस प्रकार बोला।
शकुनि ने कहा ;- महाराज! दुर्योधन की कान्ति फीकी पड़ती जा रही है। वह सफेद और दुर्बल हो गया है। उसकी बड़ी दयनीय दशा है। वह निरन्तर चिन्ता में डूबा रहता है। नरेश्वर! उसके मनोभाव को समझिये। उसे शत्रुओं की ओर से कोई अच्छा कष्ट प्राप्त हुआ है। आप उसकी अच्छी तरह परीक्षा क्यों नहींं करते? दुर्याेधन आपका ज्येष्ठ पुत्र है। उसके हृदय में महान् शोक व्याप्त है। आप उसका पता क्यों नहीं लगाते?
धृतराष्ट्र दुर्योधन के पास जाकर बोले ;- बेटा दुर्योधन! तुम्हारे दु:ख का कारण क्या है? सुना है तुम बड़े कष्ट में हो। कुरुनन्दन! यदि मेरे सुनने योग्य हो तो वह बात मुझे बताओं। यह शकुनि कहता है कि तुम्हारी कान्ति फीकी पड़ गयी है। तुम सफेद और दुबले हो गये हो, परंतु मैं बहुत सोचने पर भी तुम्हारे शोक का कोई कारण नहीं देखता। बेटा! इस सम्पूर्ण महान ऐश्वर्य का भार तुम्हारे ही ऊपर है। तुम्हारे भाई सुहृद कभी तुम्हारे प्रतिकूल आचरण नहीं करते। तुम बहुमूलय वस्त्र ओढ़ते पहनते हो, बढ़िया विशुद्ध भात खाते हो तथा अच्छी जाति के घोड़े तुम्हारी सवारी में रहते हैं, फिर किस दु:ख से तुम सफेद और दुबले हो गये हो? बहुमूल्य शय्याएँ, मन को प्रिय लगने वाली युवतियाँ, सभी ऋतुओं में लाभदायक भवन और इच्छानुसार सुख देने वाले विहार स्थान देवताओं की भाँति ये सभी वस्तुएँ नि:संदेह तुम्हें वाणी द्वारा कहने मात्र से सुलभ हैं। मेरे दुर्द्धर्ष पुत्र! फिर तुम दीन की भाँति क्यों शोक करते हो?
जैसे स्वर्ग में इन्द्र को सम्पूर्ण मनोवान्छित भोग सुलभ हैं, उसी प्रकार समस्त अभिलषित भोग और खाने पीने की विविधि उत्तम वस्तुएँ तुम्हारे लिये सदा प्रस्तुत हैं। फिर तुम किसलिये शोक करते हो? तुमने कृपाचार्य से निरुक्त, निगम, छन्द, वेद के छहों अंंग, अर्थशास्त्र तथा आठ प्रकार के व्याकरण शास्त्रों का अध्ययन किया है। हलायुध, कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य से तुमने अस्त्रविद्या सीखी है। बेटा! तुम इस राज्य के स्वामी होकर इच्छानुसार सब वस्तुओं का उपभोग करते हो। सूत और मागध सदा तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम्हारी बुद्धि की प्रखरता प्रसिद्ध है। तुम इस जगत में ज्येष्ठ पुत्र के लिये सुलभ समस्त राजोचित सुखों के भागी हो। फिर भी तुम्हें कैसे चिन्ता हो रही है? बेटा! तुम्हारे इस शोक का कारण क्या है? यह मुझे बताओ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- पिता का यह कथन सुनकर क्रोध के वशीभूत हुए मूढ़ दुर्योधन ने उन्हें अपना विचार बताते हुए इस प्रकार उत्तर दिया।
दुर्योधन बोला ;- पिता जी! मैं अच्छा खाता पहनता तो हूँ, पंरतु कायरों की भाँति। मैं समय के परिवर्तन की प्रतीक्षा में रहकर अपने हृदय में भारी ईर्ष्या धारण करता हूँ। जो शत्रुओं के प्रति अमर्श रख उन्हें पराजित करके विश्राम लेता है और अपनी प्रजा के शत्रुजनित क्लेश से छुड़ाने की इच्छा करता है, वही पुरुष कहलाता है। भारत! संतोष लक्ष्मी और अभिमान का नाश कर देता है। दया अैर भय ये दोनों भी वैसे ही हैं। इन (संतोषादि) से युक्त मनुष्य कभी ऊँचा पद नहीं पा सकता।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 15-32 का हिन्दी अनुवाद)
कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की वह अत्यन्त प्रकाशमान राज लक्ष्मी देखकर मुझे भोजन अच्छा नहीं लगता। वही मेरी कान्ति को नष्ट करने वाली है। शत्रुओं को बढ़ते और अपने को हीन दशा में जाते देख तथा युधिष्ठिर की उस अदृश्य लक्ष्मी पर भी प्रत्यक्ष की भाँति दृष्टिपात करके मैं चिन्तित हो उठा हूँ। यही कारण है कि मेरी कान्ति फीकी पड़ गयी है तथा मैं दीन, दुर्बल और सफेद हो गया हूँ। राजा युधिष्ठिर अपने घर में बसने वाले अठ्ठासी हजार स्नातकों का भरण पोषण करते हैं। उनमें से प्रत्येक की सेवा के लिये तीस तीस दासियाँ प्रस्तुत रहती हैं। इसके सिवा युधिष्ठिर के महल में दस हजार अन्य ब्राह्मण प्रतिदिन सोने की थालियों में भोजन करते हैं। काम्बोजराज ने काले, नीले और लाल रंग के कदली मृग के चर्म तथा अनेक बहुमूल्य कम्बल युधिष्ठिर के लिये भेंट में भेजे थे। उन्हीं की भेजी हुई सैकड़ों हथिनियाँ, सहस्रों गायें और घोड़े तथा तीस तीस हजार ऊँट और घोड़ियाँ वहाँ विचरती थीं। सभी राजा लोग भेंट लेकर युधिष्ठिर के भवन में एकत्र हुए थे। पृथ्वी! उस महान् यज्ञ में भूपालगण कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के लिये भाँति-भाँति के बहुत से रत्न लाये थे। बुद्धिमान पाण्डुकुमार युधिष्ठिर के यज्ञ में धन की जैसी प्राप्ति हुई है, वैसी मैंने पहले कहीं न तो देखी हैं और न सुनी ही है।
महाराज! शत्रु की वह अनन्त धनराशि देखकर मैं चिन्तित हो रहा हूँ, मुझे चैन नहीं मिलता। ब्राह्मण लोग तथा हरी भरी खेती उपजा कर जीवन निर्वाह करने वाले और बहुत से गाय बैल रखने वाले वैश्य सैकड़ों दलों में इकठ्ठे होकर तीन खर्व भेंट लेकर राजा के द्वार पर रोके हुए खड़े थे। वे सब लोग सोने के सुन्दर कलश और इतना धन लेकर आये थे, तो भी वे सभी राज द्वार में प्रवेश नहीं कर पाते थे अर्थात् उनमें से कोई कोई ही प्रवेश कर पाते थे। देवांगनाएँ इन्द्र के लिये कलशों में जैसा मधु लिये रहती हैं, वैसा ही वरुण देवता का दिया हुआ और काँस के पात्र में रखा हुआ मधु समुद्र ने युधिष्ठिर के लिये उपहार में भेजा था। वहाँ छींके पर रखकर लाया हुआ एक हजार स्वर्ण मुद्राओं का बना हुआ कलश रखा था, जिसमें अनेक प्रकार के रत्न जड़े हुए थे। उस पात्र में स्थित समुद्र जल को उत्तम शंख में लेकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर का अभिषेक किया था।
तात! वह सब देखकर मुझे ज्वर सा आ गया। भरतश्रेष्ठ! वैसे ही सुवर्ण कलशों को लेकर पाण्डव लोग जल लाने के लिये पूर्व, दक्षिण, पश्चिम समुद्र तक तो जाया करते थे, किंतु सुना जाता है कि उत्तर समुद्र के समीप, जहाँ पक्षियों के सिवा मनुष्य नहीं जा सकते, वहाँ भी जाकर अर्जुन अपार धन कर के रूप में वसूल कर लाये। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में एक यह अद्भुत बात और भी हुई थी, वह मैं बताता हूँ सुनिये। जब एक लाख ब्राह्मणों को रसाई परोस दी जाती, तब उसके लिये एक संकेत नियत किया गया था, प्रतिदिन लाख की संख्या पूरी होते ही बड़े जोर से शंख बजाया जाता था। भारत! ऐसा शंख वहाँ बार-बार बजता था और मैं निरन्तर उस शंख ध्वनि को सुना करता था, इससे मेरे शरीर में रोमान्च हो आता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 33-48 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! वहाँ यज्ञ देखने के लिये आये हुए बहुत से राजाओं द्वारा भरी हुई यज्ञमण्डप की बैठक ताराओं से व्याप्त हुए निर्मल आकाश की भाँति शोभा पाती थी। जनेश्वर! बुद्धिमान पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के उस यज्ञ में भूपालगण सब रत्नों की भेंट लेकर आये थे। राजा लोग वैश्यों की भाँति ब्राह्मणों को भोजन परोसते थे। राजा युधिष्ठिर के पास जो लक्ष्मी है, वह देवराज इन्द्र, यम, वरुण अथवा यक्षराज कुबेर के पास भी नहीं होगी। पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की उस उत्कृष्ट लक्ष्मी को देखकर मेरे हृदय में जलन हो गयी, अत: मुझे क्षणभर भी शान्ति नहीं मिलती। पाण्डवों का ऐश्वर्य यदि मुझे नहीं प्राप्त हुआ तो मेरे मन को शान्ति नहीं मिलेंगी। या तो मैं बाणों द्वारा रण भूमि में उपस्थित होकर शत्रुओं की सम्पत्ति पर अधिकार प्राप्त करूँगा या शत्रुओं द्वारा मारा जाकर संग्राम में सदा के लिये सो जाऊँगा। तरंतप! ऐसी स्थिति में मेरे इस जीवन से क्या लाभ? पाण्डव दिनों दिन बढ़ रहे हैं और हमारी उन्नति रुक गयी है।
शकुनि ने दुर्योधन से पुन: कहा ;- सत्यपराक्रमी दुर्योधन! तुमने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के यहाँ जो अनुपम लक्ष्मी देखी है, उसकी प्राप्ति का उपाय मुझ सेे सुनो। भारत! मैं इस भूमण्डल में द्यूतविद्या का विशेष जानकार हूँ, द्यूतक्रीड़ा का मर्म जानता हूँ, दाव लगाने का भी मुझे ज्ञान है तथा पासे फेंकने की कला का भी मैं विशेषज्ञ हूँ। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को जुआ खेलना बहुत प्रिय है, परंतु वे उसे खेलना जानते नहीं हैं। द्यूत अथवा युद्ध किसी भी उद्देश्य से यदि उन्हें बुलाया जाय, तो वे अवश्य पधारेंगे। प्रभो! मैं छल करके युधिष्ठिर को निश्चय ही जीत लूँगा और उनकी उस दिव्य समृद्धि को यहाँ माँगा लूँगा, अत: तुम उन्हें बुलाओ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शकुनि के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन ने तुरंत ही धृतराष्ट्र से इस प्रकार कहा,,
दुर्योधन बोला ;- ‘राजन्! ये अक्षयविद्या का मर्म जानने वाले हैं और जूए के द्वारा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की राजलक्ष्मी का अपहरण कर लेने का उत्साह रखते हैं, अत: इसके लिये इन्हें आज्ञा दीजिये’।
धृतराष्ट्र बोल ;- महाबुद्धिमान विदुर मेरे मंत्री हैं, जिनके आदेश के अनुसार मैं चलता हूँ। उनसे मिलकर विचार करने के पश्चात मैं यह समझ सकूँगा कि इस कार्य के सम्बन्धों में क्या निश्चय किया जा? विदुर दूरदर्शी हैं, वे धर्म को सामने रखकर दोनों पक्षों के लिये उचित और परम हित की बात सोचकर उसके अनुकूल ही कार्य का निश्च बातयेंगे।
दुर्योधन ने कहा ;- विदुर जब आप से मिलेंगे, तब अवश्य ही आपको इस कार्य से निवृत्त कर देंगे। राजेन्द्र! यदि आपने इस कार्य से मुँह मोड़ लिया तो मैं नि:संदेह प्राण त्याग दूँगा। राजन्! मेरी मृत्यु हो जाने पर आप विदुर के साथ सुख से रहियेगा और सारी पृथ्वी का राज्य भोगियेगा। मेरे जीवित रहने से आप क्या प्रयोजन सिद्ध करेंगे?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अपने पुत्र का यह प्रमेपूर्ण आर्तवचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र दुर्योधन के मत में आ गये और सेवकों से इस प्रकार बोले,,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘बहुत से शिल्पी लगकर एक परम सुन्दर दर्शनीय एवं विशाल सभा भवन का शीघ्र निर्माण करें। उसमें सौ दरवाजे हों और एक हजार खंभे लगे हुए हों।'
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनपन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 49-60 का हिन्दी अनुवाद)
‘फिर सब देशों से बढ़ई बुलाकर उस सभा भवन के खंभों और दिवारों में रत्न जड़वा दिये जायँ। इस प्रकार वह सुन्दर एवं सुसज्जित सभा भवन जब सुखपूर्वक प्रवेश योग्य हो जाए, तब धीर से मेरे पास आकर इसकी सूचना दो’। महाराज! दुर्योधन की शान्ति के लिये ऐसा निश्चय करके राजा धृतराष्ट्र ने विदुर के पास दूत भेजा। विदुर से पूछे बिना उनका कोई भी निश्चय नहीं होता था। जूए के दोषों को जानते हुए भी वे पुत्र स्नेह से उसकी ओर आकृष्ट हो गये थे। बुद्धिमान विदुर कलह के द्वाररूप जूए का अवसर उपस्थित हुआ सुनकर और विनाश का मुख प्रकट हुआ जान धृतराष्ट्र के पास दौड़े आये। विदुर ने अपने श्रेष्ठ भ्राता महामना धृतराष्ट्र के पास जाकर उनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा।
विदुुर बोले ;- राजन्! मैं आपके इस निश्चय को पसंद नहीं करता। प्रभो! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे जूए के लिये आपके और पाण्डु के पुत्रों में भेदभाव न हो।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- विदुर! यदि हम लोगों पर देवताओं की कृपा होगी तो मेरे पुत्रों का पाण्डुपुत्रों के साथ नि:संदेह कलह न होगा। अशुभ हो या शुभ, हितकर हो या अहितकर, सुहृदों में यह द्यूतक्रीड़ा प्रारम्भ होनी चाहिेये। नि:संदेह यह भाग्य से ही प्राप्त हुई है। भारत! जब मैं, द्रोणाचार्य, भीष्म जी तथा तुम- ये सब लोग संनिकट रहेंगे, तब किसी प्रकार दैव विहित अन्याय नहीं होने पायगा। तुम वायु के समान वेगशाली घोड़ों द्वारा जुते हुए रथ पर बैठकर अभी खाण्डवप्रस्थ को जाओं और युधिष्ठिर को बुला ले आओ। विदुर! मेरा निश्चय तुम युधिष्ठिर से न बताना, यह बात मैं तुमसे कहे देता हूँ। मैं दैव को भी प्रबल मानता हूँ, जिसकी प्रेरणा से यह द्यूतक्रीड़ा का आरम्भ होने जा रहा है। धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर बुद्धिमान विदुर जी यह सोचते हुए कि यह द्यूतक्रीड़ा अच्छी नहीं है, अत्यन्त दुखी हो महाज्ञानी गंगानन्दन भीष्म जी के पास गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन संताप-विषयक-उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (द्यूत पर्व)
पचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दु:ख और चिन्ता का कारण बताना"
जनमेजय ने पूछा ;- मुने! भाइयों में वह महाविनाशकारी द्यूत किस प्रकार आरम्भ हुआ, जिसमें मेरे पितामह पाण्डवों को उस महान संकट का सामना करना पड़ा? ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे! वहाँ कौन-कौन से राजा सभासद थे? किसने द्यूतक्रीड़ा का अनुमोदन किया और किसने निषेध? ब्रह्मन्! मैं इस प्रसंग को आपके मुख से विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। विप्रवर! यह द्यूत ही समस्त भूमण्डल के विनाश का मुख्य कारण है।
सौति कहते हैं ;- राजा के इस प्रकार पूछने पर व्यास जी के प्रतापी शिष्य वेदतत्त्वज्ञ वैशम्पायन जी वह सब प्रसंग सुनाने लगे।
वैशम्पायन जी ने कहा ;- भरतवंशशिरोमणे! महाराज जनमेजय! यदि तुम्हारा मन यह सब सुनने में लगता है तो पुन: विस्तार के साथ इस कथा को सुनो। विदुर का विचार जानकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने एकान्त में दुर्योधन से पुन: इस प्रकार कहा,,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘गान्धारीनन्दन! जूए का खेल नहीं होना चाहिये, विदुर इसे अच्छा नहीं बताते हैं। महाबुद्धिमान विदुर हमें कोई ऐसी सलाह नहीं देंगे, जिससे हम लोगों का अहित होने वाला हो। विदुर जो कहते हैं, उसी को मैं अपना सर्वोत्तम हित मानता हूँ। बेटा! तुम भी वही सब करो। मेरी समझ में तुम्हारे लिये यही हितकर है। उदार बुद्धि वाले इन्द्रगुरु देवर्षि भगवान बृहस्पति ने परम बुद्धिमान देवराज इन्द्र को जिस शास्त्र का उपदेश दिया था, वह सब उसके रहस्य सहित महाज्ञानी विदुर जानते हैं। बेटा! मैं भी सदा विदुर की बात मानता हूँ। कुरुकुुल में सबसे श्रेष्ठ और मेधावी विदुर माने गये हैं तथा वृष्णिवंश में पूजित उद्धव को परम बुद्धिमान बताया गया है।
अत: बेटा! जूआ खेलने से कोई लाभ नहीं है। जूए में वैर विरोध की सम्भावना दिखायी देती है। वैर-विरोध होने से राज्य का नाश हो जाता है, अत: पुत्र! जूए का आग्रह छोड़ दो। पिता माता को चाहिये कि वे पुत्र को उत्तम कर्त्तव्य की शिक्षा दें, इसीलिये मैंने ऐसा कहा है। बेटा! तुम अपने बाप दादों के पद पर प्रतिष्ठित हो, तुमने वेदों का स्वाध्याय किया है, शास्त्रों की विद्वत्ता प्राप्त की है और घर में सदा तुम्हारा लालन पालन हुआ है। महाबाहो! तुम अपने भाइयों में बड़े हो, अत: राजा के पद पर स्थित हो, तुम्हें किस कल्याणमय वस्तु की प्राप्ति नहीं होती है? दूसरे लोगों के लिये जो अलभ्य है, वह उत्तम भोजन और वस्त्र तुम्हें प्राप्त हैं। फिर तुम क्यों शोक करते हो? महाबाहो! तुम्हारे बाप दादों का यह महान राष्ट्र धन-धान्य से सम्पन्न है। स्वर्ग में देवराज इन्द्र की भाँति तुम इस लोक में सदा सब पर शासन करते हुए शोभा पाते हो। तुम्हारी उत्तम बुद्धि प्रसिद्ध है। फिर तुम्हें शोक की कारण भूत यह दु:खदायिनी चिन्ता कैसे प्राप्त हुई है? यह मुझसे बताओ’।
दुर्योधन बोला ;- मैं अच्छा खाता हूँ और अच्छा पहिनता हूँ, इतना ही देखते हुए जो पापी पुरुष शत्रुओं के प्रति ईर्ष्या नहीं करता, वह अधम बताया गया है। राजेन्द्र! यह साधारण लक्ष्मी मुझे प्रसन्न नहीं कर पाती। मैं तो कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की उस जगमगाती हुई लक्ष्मी को देखकर व्यथित हो रहा हूँ। सारी पृथ्वी युधिष्ठिर के अधीन हो गयी है, फिर भी मैं पाषाणतुल्य हूँ, जो कि ऐसा दु:ख प्राप्त होने पर भी जीवित हूँ और आपसे बातें करता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनन्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)
नीप, चित्रक, कुुकुर, कारस्कर तथा लोहजंघ आदि क्षत्रिय नरेश युधिष्ठिर के घर में सेवकों की भाँति सेवा करते हुए शोभा पा रहे थे। हिमालय प्रदेश तथा समुद्री द्वीपों के रहने वाले और रत्नों की खानों के सभी अधिपति म्लेच्छजातीय नरेश युधिष्ठिर के घर में प्रवेश करने नहीं पाते थे, उन्हें महल से दूर ही ठहराया गया था। महाराज! मुझे अन्य सब भाइयों से ज्येष्ठ और श्रेष्ठ मानकर युधिष्ठिर ने सत्कारपूर्वक रत्नों की भेंट लेने के काम पर नियुक्त कर दिया था। भारत! वहाँ भेंट लाये हुए नरेशों के द्वारा उपस्थित श्रेष्ठ और बहुमूल्य रत्नों की जो राशि एकत्र हुई थी, उसका आर-पार दिखायी नहीं देता था। उस रत्नराशि को ग्रहण करते करते जब मेरा हाथ थक गया, तब मेरे थक जाने पर राजा लोग रत्न राशि लिये बहुत दूर तक खड़े दिखायी देने लगते थे।
भारत! बिन्दु सरोवर से लाये हुए रत्नों द्वारा मयासुर ने एक कृत्रिम पुष्करिणी का निर्माण किया था, जो स्फटिकमणि की शिलाओं से आच्छादित है। वह मुझे जल से भरी हुई सी दिखायी दी। भारत! जब मैं उसमें उतरने के लिये वस्त्र उठाने लगा, तब भीमसेन ठठाकर हँस पड़े। शत्रु की विशिष्ट समृद्धि से मैं मूढ़ सा हो रहा था और रत्नों से रहित तो था ही। उस समय वहाँ यदि मैं समर्थ होता तो भीमसेन को वहीं मार गिराता। राजन्! यदि मैं भीमसेन को मारने का उद्योग करता तो मेरी भी शिशुपाल की सी ही दशा हो जाती, इसमें संशय नहीं है। भारत! शत्रु केे द्वारा किया हुआ उपहास मुझे दग्ध किये देता है। नरेश्वर! मैंने पुन: एक वैसी ही बाबली को देखकर, जो कमलों से सुशोभित हो रही थी, समझा कि यह भी पहली पुष्करिणी की भाँति स्फटिकशिला से पाटकर बराबर कर दी गयी होगी, पंरतु वह वास्तव में जल से परिपूर्ण थी, इसलिये मैं भ्रम से उसमें गिर पड़ा। वहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ मेरी ओर देखकर जोर जोर से हँसने लगे।
स्त्रियों सहित द्रौपदी भी मेरे हृदय में चोट पहुँचाती हुई हँस रही थी। मेरे सब कपड़े जल में भीग गये थे, अत: राजा की आज्ञा से सेवकों ने मुझे दूसरे वस्त्र दिये। यह मेरे लिये बड़े दु:ख की बात हुई। महाराज! एक और वन्चना मुझे सहनी पड़ी, जिसे बताता हूँ, सुनिये। एक जगह बिना द्वार के ही द्वार की आकृति बनी हुई थी, मैं उसी में निकलने लगा, अत: शिला से टकरा गया। जिससे मेरे ललाट में बड़े जोर की चोट लगी। उस समय नकुल और सहदेव ने दूर से मुझे टकराते देख निकट आकर अपने हाथों से मुझे पकड़ लिया और दोनों भाई साथ रहकर मेरे लिये शोक करने लगे। वहाँ सहदेव ने मुझे आश्यर्च में डालते हुए बार-बार यह कहा,,
सहदेव बोला ;- ‘राजन्! यह दरवाजा है, इधर चलिये'। महाराज! वहाँ भीमसेन ने मुझे ‘धृतराष्टपुत्र’ कहकर सम्बोधित किया और हँसते हुए कहा,,
भीमसेन बोला ;- ‘राजन्! इधर दरवाजा है’। मैंने उस सभा में जो-जो रत्न देखे हैं, उनके पहले कभी नाम भी नहीं सुने थे, अत: इन सब बातों के लिये मेरे मन में बड़ा संताप हो रहा है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन संतापविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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