सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) के उनतालीसवें अध्याय से पैतालीसवें अध्याय तक (From the 39 chapter to the 45 chapter of the entire Mahabharata (Sabha Parva))


 सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (अर्धाभिहरण पर्व)

उन्तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद)

"सहदेव की राजाओं को चुनौति तथा क्षुब्ध हुए शिशुपाल आदि नरेशों का युद्ध के लिये उद्यत होना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर महाबली भीष्म चुप हो गये। तत्पश्चात माद्रीकुमार सहदेव ने शिशुपाल की बातों का मुँहतोड़ उत्तर देते हुए यह सार्थक बात कही,,

सहदेव बोले ;- ‘राजाओ! केशी दैत्य का वध करने वाले अनन्तपराक्रमी भगवान श्रीकृष्ण की मेरे द्वारा जो पूजा की गयी है, उसे आप लोगों में से जो सहन न कर सके, उन सब बलवानों के मस्तक पर मैंने यह पैर रख दिया। मैंने खूब सोच समझकर यह बात कही है। जो इसका उत्तर देना चाहे, वह सामने आ जाय। मेरे द्वारा वह वध के योग्य होगा, इसमें संशय नहीं है। जो बुद्धिमान राजा हों वे मेरे द्वारा की हुई आयार्च, पिता, गुरु, पूजनीय तथा अर्घ्यनिवेदन के सर्वथा योग्य भगवान श्रीकृष्ण की पूजा का हृदय से अनुमोदन करें’।

  सहदेव ने महामानी और बलवान राजाओं के बीच खड़े होकर अपना पैर दिखाया था, तो भी जो बुद्धिमान एवं श्रेष्ठ नरेश थे, उनमें से कोई कुछ न बोला। उस समय सहदेव के मस्तक पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और अदृश्यरूप से खड़े हुए देवताओं ने ‘साधु’, ‘साधु’, कहकर उनके साहस की प्रशंसा की। तदनन्तर कभी पराजित न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण की महिमा के ज्ञाता, भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों कालों की बातें बताने वाले, सब लोगों के सभी संशयों का निवारण करने वाले तथा सम्पूर्ण लोकों से परिचित देवर्षि नारद समस्त उपस्थित प्राणियों के बीच स्पष्ट शब्दों में बोले,,

  देवर्षि नारद बोले ;- ‘जो मानव कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा नहीं करेंगे, वे जीते जी ही मृतक तुल्य समझे जायँगे। ऐसे लोगों से कभी बातचीत नहीं करनी चाहिये’

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वहाँ आये हुए ब्राह्मणों और क्षत्रियों में विशिष्ट व्यक्तियों को पहचानने वाले नरदेव सहदेव ने क्रमश: पूज्य व्यक्तियों की पूजा करके वह अर्घ्यनिवेदन का कार्य पूरा कर दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण का पूजन सम्पन्न हो जाने पर शत्रु विजयी शिशुपाल ने क्रोध से अत्यन्त लाल आँखें करके समस्त राजाओं से कहा,,

   शिशुपाल बोला ;- ‘भूमिपालो! मैं सबका सेनापति बनकर खड़ा हूँ। अब तुम लोग किस चिन्ता में पड़े हो। आओ, हम सब लोग युद्ध के लिये सुसज्जित हो पाण्डवों और यादवों की सम्मिलित सेना का सामना करने के लिये डट जायँ’। इस प्रकार उन सब राजाओं को युद्ध के लिये उत्साहित करके चेदिराज ने युधिष्ठिर के यज्ञ में विघ्न डालने के उदेश्य से राजाओं से सलाह की।

   शिशुपाल के इस प्रकार बुलाने पर उसके सेनापतित्व में सुनीथ आदि कुछ प्रमुख नरेशगण चले आये। वे सब के सब अत्यन्त क्रोध से भर रहे थे एवं उनके मुख की कान्ति बदली हुई दिखायी देती थी। उन सबने यह कहा कि ‘युधिष्ठिर के अभिषेक और श्रीकृष्ण की पूजा का कार्य सफल न हो, वैसा प्रयत्न करना चाहिये’। इस निर्णय एवं निष्कर्ष पर पहुँचकर वे सभी नरेश क्रोध से मोहित हो गये। सहदेव की बातों से अपमान का अनुभव करके अपनी शक्ति की प्रबलता का विश्वास करके राजाओं ने उपर्युक्त बातें कहीं थीं। अपने सगे सम्बन्धियों के मना करने पर भी उनका क्रोध से तमतमाता हुआ शरीर उन सिंहों के समान सुशोभित हुआ, जो मांस से वन्चित कर दिये जाने के कारण दहाड़ रहे हों। राजाओं का वह समुदाय अक्षय समुद्रा की भाँति उमड़ रहा था। उसका कहीं अन्त नहीं दिखायी देता था। सेवाएं ही उसकी अपार जलराशि थीं। उसे इस प्रकार शपथ करते देख भगवान श्रीकृष्ण ने यह समझ लिया कि अब ये नरेश युद्ध के लिये तैयार हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरण पर्व में राजाओं की मन्त्रणाविषयक उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

चालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर की चिन्ता और भीष्मजी का उन्हें सान्त्वना देना"

वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर प्रलय कालीन महावायु के थपेड़ों से क्षुब्ध हुस भयंकर महासागर की भाँति राजाओं के उस समुदाय को क्रोध से चंचल हुआ देख धर्मराज युधिष्ठिर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ और कुरुकुल के वृद्धि पितामह भीष्म जी से उसी प्रकार बोले, जैसे शत्रुहन्ता महातेजस्वी इन्द्र बृहस्पति जी से कोई बात पूछते हैं,,

युधिष्ठिर बोले ;- ‘पितामह! यह देखिये, राजाओं का महासमुद्र रोष से अत्यन्त चंचल हो उठा है। अब यहाँ इन सबको शान्त करने जो उचित उपाय जान पड़े, वह मुझ बताइये। दादाजी! यज्ञ में विघ्न न पड़े और प्रजाओं का हित हो तथा जिस प्रकार सर्वत्र शान्ति भी बनी रहे, वह सब उपाय अब मुझे बताने की कृपा करें'।

  धर्म के ज्ञाता युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर कुरुकुल पितामह भीष्म जी इस प्रकार बोले,,

भीष्म बोले ;- ‘कुरुवंश के वीर! तुम डरो मत, क्या कुत्ता कभी सिंह को मार सकता है? हमने कल्याणमय मार्ग पहले चुन लिया है (श्रीकृष्ण का आश्रय ही वह मार्ग है जिसका मैंने वरण कर लिया है)। जैसे सिंह के सो जाने पर बहुत से कुत्ते उसके निकट आकर एक साथ भूँकने लगते हैं, उसी प्रकार ये सामने खड़े हुए राजा भी तभी तक भूँक रहे हैं, जब तक वृष्णिवंश का सिंह सो रहा है। क्रोध में भरे हुए कुत्तों के समान ये लोग सिंह के निकट तभी तक कोलहाल मचा रहे हैं, जब तक भगवान श्रीकृष्ण सिंह की तरह जाग नहीं उठते- इन्हें दण्ड देने के लिये उद्यत नहीं हो जाते। राजाओं में श्रेष्ठ चेदिकुलभूषण नृसिंह शिशुपाल भी अपनी विवेकशक्ति खो बैठा है, तभी इन सब नरेशों को यमलोक में भेज देने की इच्छा से कुत्तों से सिंह बनाने की कोशिश कर रहा है।

  भारत! अवश्य ही भगवान श्रीकृष्ण इस शिशुपाल के भीतर उनका तो तेज है, उसे पुन: समेट लेना चाहते हैं। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! तुम्हारा कल्याण हो। अवश्य ही इस चेदिराज शिशुपाल की तथा इन समस्त भूपालों की बुद्धि मारी गयी है। क्योंकि नरेश्रेष्ठ श्रीकृष्ण जिस जिस को अपने में विलीन कर लेना चाहते हैं, उस-उस मनुष्य की बुद्धि इसी प्रकार नष्ट हो जाती है, जैसे इस चेदिराज शिशुपाल की। युधिष्ठिर! माधव श्रीकृष्ण तीनों लोकों में जो स्वदेज, अण्डज, अद्भिज और जरायुज- ये चार प्रकार के प्राणी हैं, उन सबकी उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म की यह बात सुनकर चेदिराज शिशुपाल उनको बड़ी कठोर बातें सुनाने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत शिशुपालवध पर्व में युधिष्ठिर को आश्वासन नामक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

इकतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा"

शिशुपाल बोला ;- कुल को कलंकित करने वाले भीष्म! तुम अनेक प्रकार की विभीषिकाओं द्वारा इन सब राजाओं को डराने की चेष्टा कर रहे हो। बड़े-बूढ़े होकर भी तुम्हें अपने इस कृत्य पर लज्जा क्यों नही आती? तुम तीसरी प्रकृति में स्थित (नपुंसक) हो, अत: तुम्हारे लिये इस प्रकार धर्म विरुद्ध बातें कहना उचित ही है। फिर भी यह आश्चर्य है कि तुम समूचे कुरुकुल के श्रेष्ठ पुरुष कहे जाते हो। भीष्म! जैसे एक नाव दूसरी नाव में बाँध दी जाय, एक अंधा दूसरे अंधे के पीछे चले, वही दशा इन सब कौरवों की है, जिन्हें तुम जैसा अगुआ मिला है। तुमने श्रीकृष्ण के पूतना वध आदि कर्मों का जो विशेष रूप से वर्णन किया है, उससे हमारे मन को पुन: बहुत बड़ी चोट पहुँची है। भीष्म! तम्हें अपने ज्ञानीपन का बड़ा घमंड है, परंतु तुम हो वास्तव में बड़े मूर्ख। ओह! इस केशव की स्तुति करने की इच्छा होते ही तुम्हारी जीभ के सैकड़ों टुकड़ें क्यों नही हो जाते?

   भीष्म! जिसके प्रति मूर्ख से मूर्ख मनुष्यों को भी घृणा करनी चाहिये, उसी ग्वालिये की तुम ज्ञान वृद्ध होकर भी स्तुति करना चाहते हो (यह आश्चर्य है)। भीष्म! यदि इसने बचपन में एक पक्षी (बकासुर) को अथवा जो युद्ध की कला से सर्वथा अनभिज्ञ थे, उन अश्व (केशी) और वृषभ (अरिष्टासुर) नामक पशुओं को मार डाला तो इसमें क्या आश्चर्य की बात हो गयी? भीष्म! छकड़ा क्या है, चेतनाशून्य लकड़ियों का ढेर ही तो, यदि इसने पैर से उसको उलट ही दिया तो कौन अनोखी करामात कर डाली? आक के पौधों के बराबर दो अर्जुन वृक्षों को यदि श्रीकृष्ण ने गिरा दिया अथवा एक नाग को ही मार गिराया तो कौन बड़े आश्चर्य का काम कर डाला? भीष्म! यदि इसने गोवर्धन पर्वत को सात दिन तक अपने हाथ पर उठाये रखा तो उसमें भी मुझे कोई आश्चर्य की बात नहीं जान पड़ती, क्योंकि गोवर्धन तो दीमकों की खोदी हुई मिट्टी का ढेर मात्र है। भीष्म! कृष्ण ने गोवर्धनपर्वत के शिखर पर खेलते हुए अकेले ही बहुत सा अन्न खा लिया, यह बात भी तुम्हारे मुँह से सुनकर दूसरे लोगों को ही आश्चर्य हुआ होगा (मुझे नहीं)।

   धर्मज्ञ भीष्म! जिस महाबली कंस का अन्न खाकर यह पला था, उसी को इसने मार डाला। यह भी इसके लिये कोई बड़ी अद्भुत बात नहीं है। कुरुकुलधाम भीष्म! तुम धर्म को बिलकुल नहीं जानते। मैं तुमसे धर्म की जो बात कहूँगा, वह तुमने संत महात्माओं के मुख से भी नहीं सुनी होगी। स्त्री पर, गौ पर, ब्राह्मणों पर तथा जिसका अन्न खाया अथवा जिनके यहाँ अपने को आश्रय मिला हो, उन पर भी हथियार न चलाये। भीष्म! जगत में साधु धर्मात्मा पुरुष सजनों को सदा इसी धर्म का उपदेश देते रहते हैं, किंतु तुम्हारे निकट यह सब धर्म मिथ्या दिखायी देता है। कौरवाधम! तुम मेरे सामने इस कृष्ण की स्तुति करते हुए इसे ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध बात रहे हो, माना मैं इसके विषय में कुछ जानता ही न होऊँ। भीष्म! यदि तुम्हारे कहने से गोघाती और स्त्रीहन्ता होते हुए भी इस कृष्ण की पूजा हो रही है तो तुम्हारी धर्मज्ञता की हद हो गयी। तुम्हीं बताओ, जो इन दोनों ही प्रकार की हत्याओं का अपराधी है, वह स्तुति का अधिकारी कैसे हो सकता है?

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)

  तुम कहते हो, ‘ये बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, ये ही सम्पूर्ण जगत के ईश्वर हैं’ और तुम्हारे ही कहने से यह कृष्ण अपने को ऐसा ही समझने भी लगा है। वह इन सभी बातों को ज्यों की त्यों ठीक मानता है, परंतु मेरी दृष्टि में कृष्ण के सम्बन्ध में तुम्हारे द्वारा जो कुछ कहा गया है, वह सब निश्चय ही झूठा है। कोई भी गीत गाने वाले को कुछ सिखा नहीं सकता, चाहे वह कितनी ही बार क्यों न गाता हो। भूलिंग पक्षी की भाँति सब प्राणी अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं। निश्चय ही तुम्हारी यह प्रकृति बड़ी अधम है, इसमें संशय नहीं है। अतएव इन पाण्डवों की प्रकृति भी तुम्हारे ही समान अत्यन्त पापमयी होती जा रही है। अथवा क्यों न हो, जिनका परम पूजनीय कृष्ण है और सत्पुरुषों के मार्ग से गिरा हुआ तुम जैसा धर्मज्ञानशून्य धर्मात्मा जिनका मार्ग दर्शक है। भीष्म! कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपने को ज्ञानवानों में श्रेष्ठ और धर्मात्मा जानते हुए भी ऐसे नीच कर्म करेगा, जो धर्म पर दृष्टि रखते हुए भी तुम्हारे द्वारा किये गये हैं। यदि तुम धर्म को जानते हो, यदि तुम्हारी बुद्धि उत्तम ज्ञान और विवेक से सम्पन्न है तो तुम्हारा भला हो, बाताओ, काशिराज की जो धर्मज्ञ कन्या अम्बा दूसरे पुरुष में अनुरक्त थी, उसका अपने को पण्डित मानने वाले तुमने क्यों अपहरण किया?

  भीष्म! तुम्हारे द्वारा अपहरण की गयी उस काशिराज की कन्या को तुम्हारे भाई विचित्रवीर्य ने अपनाने की इच्छा नहीं की, क्योंकि वे सन्मार्ग पर स्थित रहने वाले थे। उन्हीं की दोनों विधवा पत्नियों के गर्भ से तुम जैसे पण्डित मानी के देखते-देखते दूसरे पुरुष द्वारा संतानें उत्पन्न की गयीं, फिर भी तुम अपने को साधु पुरुषों के मार्ग पर स्थिर मानते हो। भीष्म! तुम्हारा धर्म क्या है! तुम्हारा यह ब्रह्मचर्य भी व्यर्थ का ढकोसला मात्र है, जिसे तुमने मोहवश अथवा नपुंसकता के कारण धारण कर रखा है, इसमें संशय नहीं। धर्मज्ञ भीष्म! मैं तुम्हारी कहीं कोई उन्नति भी तो नहीं देख रहा हूँ। मेरा तो विश्वास है, तुमने ज्ञानवृद्ध पुरुषों का भी संग नहीं किया है। तभी तो तुम ऐसे धर्म का उपदेश करते हो। ज्ञान, दान, स्वाध्याय तथा बहुत दक्षिणा वाले बड़े-बड़े यज्ञ- ये सब संतान की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते।

   भीष्म! अनेक व्रतों और उपवासों द्वारा जो पुण्य कार्य किया जाता है, वह सब संतानहीन पुरुष के लिये निश्चय ही व्यर्थ हो जाता है। तुम संतानहीन, वृद्धि और मिथ्याधर्म का अनुसरण करने वाले हो, अत: इस समय हंस की भाँति तुम भी अपने जाति भाइयों के हाथ ही मारे जाओगे। भीष्म! पहले के विवेकी मनुष्य एक प्राचीन वृत्तान्त सुनाया करते हैं, वही मैं ज्यों-का-त्यों तुम्हारे सामने उपस्थित करता हूँ, सुनो। पूर्वकाल की बात है, समुद्र के निकट कोई बूढ़ा हंस रहता था। वह धर्म की बातें करता, परंतु उसका आचरण ठीक उसके विपरीत होता था। वह पक्षियों को सदा यह उपदेश दिया करता कि धर्म करो, अधर्म से दूर रहो। सदा सत्य बोलने वाले उस हंस के मुख से दूसरे-दूसरे पक्षी यही उपदेश सुना करते थे। भीष्म! ऐसा सुनने में आया है कि वे समुद्र के जल में विचरने वाले पक्षी धर्म समझकर उसके लिये भोजन जुटा दिया करते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 34-40 का हिन्दी अनुवाद)

  भीष्म! हंस पर विश्वास हो जाने के कारण वे सभी पक्षी अपने अण्डे उसके पास ही रखकर समुद्र के जल में गोते लगाते और विचरते थे, परंतु वह पापी हंस उन सबके अण्डे खा जाता था। वे बेचारे पक्षी असावधान थे और वह अपना काम बनाने के लिये सदा चौकन्ना रहता था। तदनन्तर जब वे अण्डे नष्ट होने लगे, तब एक बुद्धिमान पक्षी को हंस पर कुछ संदेह हुआ और एक दिन उसने उसकी सारी करतूत देख भी ली। हंस का यह पापपूर्ण कृत्य देखकर वह पक्षी दु:ख से अत्यन्त आतुर हो उठा और उसने अन्य सब पक्षियों से सारा हाल कह सुनाया।

  कुरुवंशी भीष्म! तब उन पक्षियों ने निकट जाकर सब कुछ प्रत्यक्ष देख लिया और धर्मात्मा का मिथ्या ढोंग बनाये हुए उस हंस को मार डाला। तुम भी उस हंस के ही समान हो, अत: ये सब नरेश अत्यन्त कुपित होकर आज तुम्हें उसी तरह मार डालेंगे, जैसे उन पक्षियों ने हंस की हत्या कर डाली थी। भीष्म! इस विषय में पुराणवेत्ता विद्वान एक गाथा गाया करते हैं। भरतकुलभूषण! मैं उसे भी तुम को भली-भाँति सुनाये देता हूँ। 'हंस! तुम्हारी अन्तरात्मा रागादि दोषों से दूषित है, तुम्हारा यह अण्डभक्षणरूप अपवित्र कर्म तुम्हारी इस धर्मोपदेशमयी वाणी के सर्वथा विरुद्ध है’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत शिशुपालवध पर्व में शिशुपाल-वाक्य-विषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

बयालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"शिशुपाल की बातों पर भीमसेन का क्रोध और भीष्म जी का उन्हें शान्त करना"

शिशुपाल बोला ;- महाबली राजा जरासंध मेरे लिये बड़े ही सम्माननीय थे। वे कृष्ण को दास समझकर इसके साथ युद्ध में लड़ना ही नहीं चाहते थे। तब इस केशव ने जरासंध के वध के लिये भीमसेन और अर्जुन को साथ लेकर जो नीच कर्म किया है, उसे कौन अच्छा मान सकता है? पहले तो (चैत्यकगिरि के शिखर को तोड़कर) बिना दरवाजे के ही इसने नगर में प्रवेश किया। उस पर भी छद्मवेष बना लिया और अपने को ब्राह्मण प्रसिद्ध कर दिया। इस प्रकार इस कृष्ण ने भूपाल जरासंध का प्रभाव देखा। उस धर्मात्मा जरासंध ने जब इस दुरात्मा के आगे ब्राह्मण अतिथि के योग्य पाद्य आदि प्रस्तुत किये, तब इसने यह जानकर कि मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, उसे ग्रहण करने की इच्छा नहीं की। कौरव्य भीष्म! तत्पश्चात जब उन्होंने कृष्ण, भीम और अर्जुन तीनों से भोजन करने का आग्रह किया, तब इस कृष्ण ने ही उनका निषेध किया था। मूर्ख भीष्म! यदि यह कृष्ण सम्पूर्ण जगत का कर्ता-धर्ता है, जैसा कि तुम इसे मानते हो तो यह अपने को भली-भाँति ब्राह्मण भी क्यों नहीं मानता? मुझ सबसे बढ़कर आश्चर्य की बात तो यह यह जान पड़ती है कि ये पाण्डव भी तुम्हारे द्वारा सन्मार्ग से दूर हटा दिये गये हैं, इसलिये ये भी कृष्ण के इस कार्य को ठीक समझते हैं। अथवा भारत! स्त्री के समान धर्म वाले (नपुंसक) और बूढ़े तुम जैसे लोग जिनके सभी कार्यों में पथ प्रदर्शन करते हैं, उनका ऐसा समझना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शिशुपाल की बातें बड़ी रूखी थीं। उनके एक-एक अक्षर कटुता से भरा हुआ था। उन्हें सुनकर बलवानों में श्रेष्ठ प्रतापी भीमसेन क्रोधाग्रि से जल उठे। उनकी आँखे स्वभावत: बड़ी-बड़ी और कमल के समान सुन्दर थीं। वे क्रोध के कारण अधिक लाल हो गयीं, मानो उनमें खून उतर आया हो। सब राजाओं ने देखा, उनके ललाट में तीन रेखाओं से युक्त भ्रुकुटी तन गयी है, मानो त्रिकूट पर्वत पर त्रिपथगामिनी गंगा लहरा उठी हों। वे दाँतों से दाँत पीसने लगे, रोष की अधिकता से उनका मुख ऐसा भयंकर दिखायी देने लगा, मानो प्रलय काल में समस्त प्राणियों को निगल जाने की इच्छा वाला विकराल काल ही प्रकट हो गया हो। वे उछलकर शिशुपाल के पास पहुँचना ही चाहते थे कि महाबाहु भीष्म ने बड़े वेग से उठकर उन मनस्वी भीम को पकड़ लिया, मानो महेश्वर ने कार्तिकेय को रोक लिया हो।

   भारत! पितामह भीष्म के द्वारा अनेक प्रकार की बातें कहकर रोके जाने पर भीमसेन का क्रोध शान्त हो गया। शत्रुदमन भीम भीष्म जी की आज्ञा का उल्लंघन उसी प्रकार न कर सके, जैसे वर्षा के अन्त में उमड़ा हुआ होने पर भी महासागर अपनी तटभूमि से आगे नहीं बढ़ता है। राजन्! भीमसेन के कुपित होने पर भी वीर शिशुपाल भयभीत नहीं हुआ। उसे अपने पुरुषार्थ का पूरा भरोसा था। भीम को बार-बार वेग से उछलते देख शत्रुदमन शिशुपाल ने उनकी कुछ भी परवा नहीं की, जैसे क्रोध में भरा हुआ सिंह मृग को कुछ भी नहीं समझता। उस समय भयानक पराक्रमी भीमसेन को कुपित देख प्रतापि चेदिराज हँसते हुए बोला,,

शिशुपाल बोला ;- ‘भीष्म! छोड़ दो इसे, ये सभी राजा देख लें कि यह भीम मेरे प्रभाव से उसी प्रकार दग्ध हो जायगा जैसे फतिंगा आग के पास जाते ही भस्म हो जाता है’। तब चेदिराज की वह बात सुनकर बुद्धिमान में श्रेष्ठ कुरुकुल तिलक भीष्म ने भीम से यह कहा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत शिशुपालवध पर्व में भीमक्रोध-विषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

तैंतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"भीष्म जी के द्वारा शिशुपाल के जन्म के वृत्तान्त का वर्णन"

भीष्म जी बोले ;- भीमसेन! सुनो, चेदिराज दमघोष के कुल में जब यह शिशुपाल उत्पन्न हुआ, उस समय इसके तीन आँखें और चार भुजाएँ थीं। इसने रोने की जगह गदहे के रेंकने की भाँति शब्द किया और जोर जोर से गर्जना भी की। इससे इसके माता-पिता अन्य भाई बन्धुओं सहित भय से थर्रा उठे। इसकी वह विकराल आकृति देख उन्होंने इसे त्याग देने का निश्चिय किया। पत्नी, पुरोहित तथा मन्त्रियों सहित चेदिराज का हृदय चिन्ता से मोहित हो रहा था। 

उस समय आकाशवाणी हुई ,,- ‘राजन्! तुम्हारा यह पुत्र श्रीसम्पन्न और महाबली है, अत: तुम्हें इससे डरना नहीं चाहिये। तुम शान्तचित्त होकर इस शिशु का पालन करो। नरेश्वर! अभी इसकी मृत्यु नहीं आयी है और न काल ही उपस्थित हुआ है। जो इसकी मृत्यु का कारण है तथा जो शस्त्र द्वारा इसका वध करेगा, वह अन्यत्र उत्पन्न हो चुका है’।

  तदनन्तर यह आकाशवाणी सुनकर उस अन्तर्हित भूत को लक्ष्य करके पुत्रस्नेह से संतप्त हुई इसकी माता बोली,,

माता बोली ;- ‘मेरे इस पुत्र के विषय में जिन्होंने यह बात कही है, उन्हें मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करती हूँ। चाहे वे कोई देवता हों अथवा और कोई प्राणी? वे फिर मेरे प्रश्न का उत्तर दें। मैं यह यथार्थ रूप से सुनना चाहती हूँ कि मेरे इस पुत्र की मृत्यु में कौन निमित्त बनेगा?’ तब पुन: उसी अदृश्य भूत ने यह उत्तर दिया,,

  आकाश वाणी बोली ;- ‘जिसके द्वारा गोद में लिये जाने पर पांच सिर वाले दो सर्पों की भाँति इसकी पाँचों अँगुलियों से युक्त दो अधिक भुजाएँ पृथ्वी पर गिर जायँगी और जिसे देखकर इस बालक का ललाटवर्ती तीसरा नेत्र भी ललाट में लीन हो जायगा, वही इसकी मृत्यु में निमित्त बनेगा'। चार बाँह और तीन आँख वाले बालक के जन्म का समाचार सुनकर भूण्डल के सभी नरेश उसे देखने के लिये आये। चेदिराज ने अपने घर पधारे हुए उन सभी नरेशों का यथायोग्य सत्कार करके अपने पुत्र को हर एक की गोद में रखा।

   इस प्रकार वह शिशु क्रमश: सहस्रों राजाओं की गोद में अलग-अलग रखा गया, परंतु मृत्युसूचक लक्षण कहीं प्राप्त नहीं हुआ। द्वारका में यही समाचार सुनकर महाबली बलराम और श्रीकृष्ण दोनों यदुवंशी वीर अपनी बुआ से मिलने के लिये उस समय चेदिराज्य की राजधानी में गये। वहाँ बलराम और श्रीकृष्ण ने बड़े-छोटे के क्रम से सबको यथायोग्य प्रणाम किया एवं राजा दमघोष और अपनी बुआ श्रुतश्रवा से कुशल और आरोग्य विषयक प्रश्न किया। तत्पश्चात दोनों भाई एक उत्तम आसन पर विराजमान हुए। महादेवी श्रुतश्रवा ने बड़े प्रेम से उन दोनों वीरों का सत्कार किया और स्वयं ही अपने पुत्र को श्रीकृष्ण की गोद में डाल दिया। उनकी गोद में रखते ही बालक की वे दोनों बाँहें गिर गयीं और ललाटवर्ती नेत्र भी वहीं विलीन हो गया। यह देखकर बालक की माता भयभीत हो मन ही मन व्यथित हो गयी और श्रीकृष्ण से वर माँगती हुई बोली,,

श्रुतश्रवा बोली ;- ‘महाबाहु श्रीकृष्ण! मैं भय से व्याकुल हो रही हूँ। मुझे इस पुत्र की जीवन रक्षा के लिये कोई वर दो। क्योंकि तुम संकट में पड़े हुए प्राणियों के सबसे बड़े सहारे और भयभीत मनुष्यों को अभय देने वाले हो।’

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-25 का हिन्दी अनुवाद)

अपनी बुआ के ऐसा कहने पर यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने कहा,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘देवी! धर्मज्ञे! तुम डरो मत। तुम्हें मुझसे कोई भय नहीं है। बुआ! तुम्हीं कहो, मैं तुम्हें कौन-सा वर दूँ? तुम्हारा कौन सा कार्य सिद्ध कर दूँ? सम्भव हो या असम्भव, तुम्हारे वचन का मैं अवश्य पालन करूँगा।’ इस प्रकार आश्वासन मिलने पर श्रुतश्रवा यदुनन्दन श्रीकृष्ण से बोली,,

श्रुतश्रवा बोली ;- ‘महाबली यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण! तुम मेरे लिये शिशुपाल के सब अपराध क्षमा कर देना। प्रभो! यही मेरा मनोवांछित वर समझो’।

श्रीकृष्ण ने कहा ;- बुआ! तुम्हारा पुत्र अपने दोषों के कारण मेरे द्वारा यदि वध के योग्य होगा, तो भी मैं इसके सौ अपराध क्षमा करूँगा। तुम अपने मन में शोक न करो।

भीष्म जी कहते हैं ;- वीरवर भीमसेन! इस प्रकार यह मन्दबुद्धि पापी राजा शिशुपाल भगवान श्रीकृष्ण के दिये हुए वरदान से उन्मत्त होकर तुम्हें युद्ध के लिये ललकार रहा है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत शिशुपालवध पर्व में शिशुपालवृत्तान्त-वर्णनविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

चौवालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुश्वत्वारिंशो अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"भीष्म की बातों से चिढ़े हुए शिशुपाल का उन्हें फटकारना तथा भीष्म का श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिये समस्त राजाओं को चुनौति देना"

भीष्म जी कहते हैं ;- भीमसेन! यह चेदिराज शिशुपाल की बुद्धि नहीं है, जिसके द्वारा वह युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले तुम जैसे महावीर को ललकार रहा है, अवश्य ही सम्पूर्ण जगत के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण का यही यह निश्चित विधान है। भीमसेन! काल ने ही इसके मन और बुद्धि को ग्रस लिया है, अन्यथा इस भूमण्डल में कौन ऐसा राजा होगा, जो मुझ पर इस तरह आक्षेप कर सके, जैसे यह कुलकलंक शिशुपाल कर रहा है। यह महाबाहु चेदिराज निश्चय ही भगवान श्रीकृष्ण के तेज का अंश है। ये सर्वव्यापी भगवान अपने उस अंश को पुन: समेट लेना चाहते हैं। कुरुसिंह भीम! यही कारण है कि यह दुर्बुद्धि शिशुपाल हम सबको कुछ न समझकर आज सिंह के समान गरज रहा है।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भीष्म की यह बात शिशुपाल न सह सका। वह पुन: अत्यन्त क्रोध में भरकर भीष्म को उनकी बातों का उत्तर देते हुए बोला। 

शिशुपाल ने कहा ;- भीष्म! तुम सदा भाट की तरह खड़े होकर जिसकी स्तुति गाया करते हो, उस कृष्ण का जो प्रभाव है, वह हमारे शत्रुओं के पास ही रहे। भीष्म! यदि तुम्हारा मन सदा दूसरों की स्तुति में ही लगता है तो इस जनार्दन को छोड़कर इन राजाओं की ही स्तुति करो। ये दरद देश के राजा हैं, इनकी स्तुति करो। ये भूमिपालों में श्रेष्ठ बाह्लीक बैठे हैं, इनके गुण गाओ। इन्होंने जन्म लेते ही अपने शरीर के भार से इस पृथ्वी को विदीर्ण कर दिया था। भीष्म]! ये जो वंग और अंग दोनों देशों के राजा हैं, इन्द्र के समान बल पराक्रम से सम्पन्न हैं तथा महान् धनुष की प्रत्यन्चा खींचने वाले हैंं, इस वीरवर कर्ण की कीर्ति का गान करो। महाबहो! इन कर्ण के ये दोनों दिव्य कुण्डल जन्म के साथ ही प्रकट हुए हैं। किसी देवता ने ही इन कुण्डलों का निर्माण किया है। कुण्डलों के साथ-साथ इनके शरीर पर यह दिव्य कवच भी जन्म से ही पैदा हुआ है, जो प्रात:काल के सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा है। जिन्होंने इन्द्र के तुल्य पराक्रमी तथा अत्यन्त दुर्जय जरासंध को बाहुयुद्ध के द्वारा केवल परास्त ही नहीं किया, उनके शरीर को चीर भी डाला, उन भीमसेन की स्तुति करो।

   द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा दोनों पिता पुत्र महारथी हैं तथा ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं, अतएव स्तुत्य भी हैं। भीष्म! तुम उन दोनों की अच्छी तरह स्तुति करो। भीष्म! इन दोनों पिता पुत्रों में से यदि एक भी अत्यन्त क्रोध में भर जाय, तो चराचर प्राणियों सहित इस सारी पृथ्वी को नष्ट कर सकता है, ऐसा मेरा विश्वास है। भीष्म! मुझे तो कोई भी ऐसा राजा नहीं दिखायी देता, जो युद्ध में द्रोण अथवा अश्वत्थामा की बराबरी कर सके। तो भी तुम इन दोनों की स्तुति करना नहीं चाहते। इस समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी पर जो अद्वितीय अनुपम वीर हैं, उन राजाधिराज महाबाहु दुर्योधन को, अस्त्रविद्या में निपुण और सुदृढ़पराक्रमी राजा जयद्रथ को और विश्वविख्यात विक्रमशाली महाबली किम्पुरुषाचार्य द्रुम को छोड़कर तुम कृष्ण की प्रशंसा क्यों करते हो? शरद्वान मुनि के महापराक्रमी कृप भरतवंश के वृद्ध आचार्य हैं। इनका उल्लंघन करके तुम कृष्ण का गुण क्यों गाते हो?

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुश्वत्वारिंश अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)

 धनुर्धरों में श्रेष्ठ पुरुष रत्न महाबली रुक्मी की अवहेलना करके तुम केशव की प्रशंसा के गीत क्यों गाते हो? महापराक्रमी भीष्म, भूमिपाल दन्तवक्र, भगदत्त, यूपकेतु, जयत्सेन, मगधराज सहदेव, विराट, द्रुपद, शकुनि, बृहद्बल, अवन्ती के राजकुमार विन्द-अनुविन्द, पाण्ड्यनरेश श्वेत, उत्तर, महाभाग शंख, अभिमानी वृषसेन, पराक्रमी एकलव्य तथा महारथी एवं महाबली कलिंग नरेश की अवहेलना करके कृष्ण की प्रशंसा क्यों कर रहे हो? भीष्म! यदि तुम्हारा मन सदा दूसरों की स्तुति करने में ही लगता है तो इन शल्य आदि श्रेष्ठ राजाओं की स्तुति क्यों नहीं करते? भीष्म! तुमने पहले बड़े-बूढ़े धर्मोपदेशकों के मुख से यदि यह धर्मसंगत बात, जिसे मैं अभी बताऊँगा नहीं सुनी, तो मैं क्या कर सकता हूँ? भीष्म! अपनी निन्दा, अपनी प्रशंसा, दूसरे की निन्दा और दूसरे की स्तुति ये चार प्रकार के कार्य पहले के श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी नहीं किये हैं। भीष्म! जो स्तुति के सर्वथा अयोग्य है, उसी केशव की तुम मोहवश सदा भक्तिभाव से जो स्तुति करते रहते हो, उसका कोई अनुमोदन नहीं करता।

  दुरात्मा कृष्ण तो राजा कंस का सेवक है, उनकी गौओं का चरवाहा रहा है। तुम केवल स्वार्थवश इसमें सारे जगत का समावेश कर रहे हो। भारत! तुम्हारी बुद्धि ठिकाने पर नहीं आ रही है। मैं यह बात पहले ही बात चुका हूँ कि तुम भूलिंग पक्षी के समान कहते कुछ और करते कुछ हो। भीष्म! हिमालय के दूसरे भाग में भूलिंग नाम से प्रसिद्ध एक चिड़िया रहती है। उसके मुख से सदा ऐसी बात सुनायी पड़ती है, जो उसके कार्य विपरीत भाव की सूचक होने के कारण अत्यन्त निन्दनीय जान पड़ती है। वह चिड़िया सदा यही बोला करती है ‘मा साहसम्’ (अर्थात साहस का काम न करो), परंतु वह स्वयं ही भारी साहस का काम करती हुई भी यह नहीं समझ पाती। भीष्म! वह मूर्ख चिड़िया मांस खाते हुए सिंह के दाँतों में लगे हुए मांस के टुकड़े को अपनी चोंच से चुगती रहती है। नि:संदेह सिंह की इच्छा से ही वह अब तक जी रही है। पापी भीष्म! इसी प्रकार तुम भी सदा बढ़-बढ़कर बातें करते हो। भीष्म! नि:संदेह तुम्हारा जीवन इन राजाओं की इच्छा से ही बचा हुआ है, क्योंकि तुम्हारे समान दूसरा कोई राजा ऐसा नहीं है, जिसके कर्म सम्पूर्ण जगत से द्वेष करने वाले हों।

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शिशुपाल का यह कटु वचन सुनकर भीष्म जी ने शिशुपाल के सुनते हुए यह बात कही,,

भीष्म जी बोले ;- ‘अहो! शिशुपाल के कथनानुसार मैं इन राजाओं की इच्छा पर जी रहा हूँ, परंतु मैं तो इन समस्त भूपालों को तिनके बराबर भी नहीं समझता’। भीष्म के ऐसा कहने पर बहुत से राजा कुपित हो उठे। कुछ लोगों को हर्ष हुआ तथा कुछ भीष्म की निन्दा करने लगे। कुछ महान् धनुर्धर नरेश भीष्म की वह बात सुनकर कहने लगे,,

राजा बोले ;- ‘यह बूढ़ा भीष्म पापी और घमण्डी है, अत: क्षमा के योग्य नहीं है। राजाओ! क्रोध में भरे हुए हम सब लोग मिलकर इस खोटी बुद्धि वाले भीष्म को पशु की भाँति गला दबाकर मार डालें अथवा घास फूस की आग में इसे जीते जी जला दें’। उन राजाओं की ये बातें सुनकर कुरुकुल के पितामह बुद्धिमान भीष्म जी फिर उन्हीं नरेशों से बोले।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुश्वत्वारिंश अध्याय के श्लोक 39-42 का हिन्दी अनुवाद)

‘राजाओं! यदि मैं सबकी बात का अलग-अलग उत्तर दूँ तो यहाँ उसकी समाप्ति होती नहीं दिखायी देती। अत: मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह सब ध्यान देकर सुनो। तुम लोगों में साहस या शक्ति हो, तो पशु की भाँति मेरी हत्या कर दो अथवा घास फूस की आग में मुझे जला दो। मैंने तो तुम लोगों के मस्तक पर अपना यह पूरा पैर रख दिया। हमने जिनकी पूजा की है, अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले वे भगवान गोविन्द तुम लोगों के सामने मौजूद हैं। तुम लोगों में से जिसकी बुद्धि मृत्यु का आलिंगन करने के लिये उतावली हो रही हो, वह इन्हीं यदुकुलतिलक चक्रगदाधर श्रीकृष्ण को आज युद्ध के लिये ललकारे और इनके हाथों मारा जाकर इन्हीं भगवान के शरीर में प्रविष्ट हो जाय'।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत शिशुपालवध पर्व में भीष्मवाक्य-विषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

पैंतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीकृष्ण के द्वारा शिशुपाल का वध, राजसूय यज्ञ की समाप्ति तथा सभी ब्राह्मणों, राजाओं और श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भीष्म की यह बात सुनते ही महापराक्रमी चेदिराज शिशुपाल भगवान वासुदेव के साथ युद्ध के लिये उत्सुक हो उनसे इस प्रकार बोला,,

शिशुपाल बोला ;- ‘जनार्दन! मैं तुम्हें बुला रहा हूँ आओ, मेरे साथ युद्ध करो, जिससे आज मैं समस्त पाण्डवों सहित तुम्हें मार डालूँ। कृष्ण! तुम्हारे साथ ये पाण्डव भी सर्वथा मेरे वध्य हैं, क्योंकि इन्होंने सब राजाओं की अवहेलना करके राजा न होने पर भी तुम्हारी पूजा की। तुम कंस के दास थे तथा राजा भी नहीं हो, इसीलिये राजोचित पूजा के अनधिकारी हो। तो भी कृष्ण! जो लोग मूर्खतावश तुम जैसे दुर्बुद्धि की पूजनीय पुरुष की भाँति पूजा करते हैं, वे अवश्य ही मेरे वध्य है, मैं तो ऐसा ही मानता हूँ’।

   ऐसा कहकर क्रोध में भरा हुआ राजसिंह शिशुपाल दाहड़ता हुआ युद्ध के लिये डट गया। शिशुपाल के ऐसा कहने पर अनन्तपराक्रमी भगवान श्रीकृष्ण ने उसके सामने समस्त राजाओं से मधुर वाणी में कहा,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘भूमिपालों! यह है तो यदुकुल की कन्या का पुत्र, परंतु हम लोगों से अत्यन्त शत्रुता रखता है। यद्यपि यादवों ने इसका कभी कोई अपराध नहीं किया है, तो भी यह क्रूरात्मा उनके अहित में ही लगा रहता है। नरेश्वर! हम प्राग्ज्योतिषपुर में गये थे, यह बात जब इसे मालूम हुई, तब इस क्रूरकर्मा ने मेरे पिताजी का भानजा होकर भी द्वारका में आग लगवा दी। एक बार भोजराज (उग्रसेन) रैवतक पर्वत पर क्रीड़ा कर रहे थे। उस समय यह वहीं जा पहुँचा और उनके सेवकों को मारकर तथा शेष व्यक्तियों को कैद करके उन सबको अपने नगर में ले गया। मेरे पिताजी अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ले चुके थे। उसमें रक्षकों से घिरा हुआ पवित्र अश्व छोड़ा गया था। इस पापपूर्ण विचार वाले दुष्टात्मा ने पिताजी के यज्ञ में विघ्न डालने के लिये उस अश्व को भी चुरा लिया था।

  इतना ही नहीं, इसने तपस्वी बभ्रु की पत्नी का, जो यहाँ से द्वारका जाते समय सौवीर देश पहुँची थी और इसके प्रति जिसके मन में तनिक भी अनुराग नहीं था, मोहवश अपहरण कर लिया। इस क्रूरकर्मा ने माया से अपने असली रूप को छिपाकर करूषराज की प्राप्ति के लिये तपस्या करने वाली अपने मामा विशाल नरेश की कन्या भद्रा का (करूषराज के ही वेष में उपस्थित हो उसे धोखा देकर) अपहरण कर लिया। मैं अपनी बुआ के संतोष के लिये ही इसके बड़े दु:खद अपराधों का सहन कर रहा हूँ, सौभाग्य की बात है कि आज यह समस्त राजाओं के समीप मौजूद है। आप सब लोग देख रहे हैं कि इस समय यह मेरे प्रति कैसा अभद्र बर्ताव कर रहा है। इसने परोक्ष में मेरे प्रति जो अपराध किये हैं, उन्हें भी आप अच्छी तरह जान लें। परंतु आज इसने अहंकारवश समस्त राजाओं के सामने मेरे साथ जो दुर्व्यवहार किया है, उसे मैं कभी क्षमा न कर सकूँगा। अब यह मरना ही चाहता है। इस मूर्ख ने पहले रुक्मिणी के लिये उनके बन्धु बान्धओं से याचना की थी, पंरतु जैसे शूद्र वेद की ऋचाओं को श्रवण नहीं कर सकता, उसी प्रकार इस अज्ञानी को वह प्राप्त न हो सकी’।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 16-37 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण की ये सब बातें सुनकर उन समस्त राजाओं ने एक स्वर से चेदिराज शिशुपाल को धिक्कारा और उसकी निन्दा की। श्रीकृष्ण का उपर्युक्त वचन सुनकर प्रतापी शिशुपाल खिल खिलाकर हँसने लगा और इस प्रकार बोला- ‘कृष्ण! तुम इस भरी सभा में, विशेषत: सभी राजाओं के सामने रुक्मिणी को मेरी पहले की मानोनीत पत्नी बताते हुए लज्जा का अनुभव कैसे नहीं करते? मधुसूदन! तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपनी स्त्री को पहले दूसरे की वाग्दत्ता पत्नी स्वीकार करते हुए सत्पुरुषों की सभा में इसका वर्णन करेगा? कृष्ण! यदि अपनी बुआ की बातों पर तुम्हें श्रद्धा हो तो मेरे अपराध क्षमा करो या न भी करो, तुम्हारे कुपित होने या प्रसन्न होने से मेरा क्या बनने बिगड़ने वाला है?’

  शिशुपाल इस तरह की बातें कर ही रहा था कि भगवान मधुसूदन ने मन ही मन दैत्यवर्ग विनाशक सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। चिन्तन करते ही तत्काल चक्र हाथ में आ गया। तब बोलने में कुशल भगवान श्रीकृष्ण ने उच्च स्वर से यह वचन कहा,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘यहाँ बैठे हुए सब महीपाल यह सुन लें कि मैंने क्यों अब तक इसके अपराध क्षमा किये हैं? इसी की माता के याचना करने पर मैंने उसे यह प्रार्थित वर दिया था कि शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा कर दूँगा। राजाओं! वे सब अपराध अब पूरे हो गये हैं, अत: आप सभी भूमिपतियों के देखते देखते मैं अभी इसका वध किये देता हूँ’।

   ऐसा कहकर कुपित हुए शत्रुहन्ता यदुकुल तिलक भगवान श्रीकृष्ण ने चक्र से उसी क्षण शिशुपाल का सिर उड़ा दिया। महाबाहु शिशुपाल वज्र के मारे हुए पर्वत शिखर की भाँति धराशायी हो गया। महाराज! तदनन्तर सभी नरेशों ने देखा, चेदिराज के शरीर से एक उत्कृक्ष तेज निकलकर ऊपर उठ रहा है, मानो आकाश से सूर्य उदित हुआ हो। नरेश्वर! उस तेज ने विश्ववन्दित कमलदललोचन श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और उसी समय उनके भीतर प्रविष्ट हो गया। यह देखकर सभी राजाओं को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसका तेज महाबाहु पुरुषोत्तम में प्रविष्ट हो गया।

  श्रीकृष्ण के द्वारा शिशुपाल के मारे जाने पर सारी पृथ्वी हिलने लगी, बिना बादलों के ही आकाश से वर्षा होने लगी और प्रज्वलित बिजली टूट टूटकर गिरने लगी। वह समय वाणी की पहुँच के परे था। उसका वर्णन करना कठिन था। उस समय कोई भूपाल वहाँ इस विषय में कुछ भी न बोल सके मौन रह गये। वे बार बार केवल श्रीकृष्ण के मुख की ओर देखते रहे। कुछ अन्य नरेश अत्यन्त अमर्ष में भरकर हाथों से हाथ मसलने लगे तथा दूसरे लोग क्रोध से मूर्च्छित होकर दाँतों से ओठ चबाने लगे। कुछ राजा एकान्त में भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा करने लगे। कुछ ही भूपाल अत्यन्त क्रोध के वशीभूत हो रहे थे तथा कुछ लोग तटस्थ थे। बड़े बड़े ऋषि, महात्मा ब्राह्मणों तथा महाबली भूमिपालों ने भगवान श्रीकृष्ण का वह पराक्रम देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो उनकी स्तुति करते हुए उन्हीं की शरण ली।

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने भाईयों से कहा,,

युधिष्ठिर बोले ;- ‘दमघोषपुत्र वीर राजा शिशुपाल का अन्त्येष्टि संस्कार बड़े सत्कार के साथ करो, इसमें देर न लगाओ।’ पाण्डवों ने भाई के उस आज्ञा का यथार्थ रूप से पालन किया। उस समय कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने वहाँ आये हुए सभी भूमिपालों के साथ चेदिराज के राजसिंहासन पर शिशुपाल के पुत्र को अभिषिक्त कर दिया। तदनन्तर महातेजस्वी कुरुराज युधिष्ठिर वह सम्पूर्ण समृद्धियों से भरा पूरा राजसूय यज्ञ तरुण राजाओं की प्रसन्नता को बढ़ाता हुआ अनुपम शोभा पाने लगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 38-39 का हिन्दी अनुवाद)

  उस यज्ञ का विघ्न शान्त हो गया था, अत: उसका सुखपूर्वक आरम्भ हुआ। उसमें अपरिमित धन धान्य का संग्रह एवं सदुपयोग किया गया था। भगवान श्रीकृष्ण से सुरक्षित होने के कारण उस यज्ञ में कभी अन्न की कमी नहीं होने पायी। उसमें सदा पर्याप्त मात्रा में भक्ष्य भोज्य आदि की सामग्री प्रस्तुत रहती थी। भरतनन्दन! राजाओं ने सहदेव के द्वारा विष्णु बुद्धि से भगवान श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये किये जाने वाले उस यज्ञ का उत्तम विधि विधान देखा। उस यज्ञमण्डप में सुवर्णमय ताल के बने हुए फाटक दिखायी देते थे, जो अपनी प्रभा से तेजस्वी सूर्य के समान देदीप्यमान हो रहे थे। उन तेजस्वी द्वारों से वह विशाल यज्ञ मण्डप ग्रहों से आकाश की भाँति प्रकाशित हो रहा था। वहाँ शय्या, आसन और क्रीड़ा भवनों की संख्या बहुत थी। उनके निर्माण में प्रचुर धन लगा था। चारों ओर घड़े, भाँति-भाँति के पात्र, कड़ाहे और कलश आदि सुवर्ण निर्मित सामान दृष्टिगोचर हो रहे थे। वहाँ राजाओं ने कोई ऐसी वस्तु नहीं देखी, जो सोने की बनी हुई न हो। उस महान् यज्ञ में राजसेवक गण ब्राह्मणों के आगे सदा नाना प्रकार के स्वादिष्ट भात तथा चावल की बनी हुई बहुत सी दूसरी भोज्य वस्तुएँ परोसते रहते थे। वे उनके लिये मधुर पेय पदार्थ भी अर्पण करते थे। भोजन करने वाले ब्राह्मणों की संख्या जब एक लाख पूरी हो जाती थी, तब वहाँ प्रतिदिन शंख बजाया जाता था।

   जनमेजय! दिन में कई बार इस तरह की शंख ध्वनि होती थी। वह उत्तम शंखनाद सुनकर लोगों को बड़ा विस्मय होता था। इस प्रकार सहस्रों हृष्ट पुष्ट मनुष्यों से भरे हुए उस यज्ञ का कार्य चलने लगा। राजन्! उसमें अन्न के बहुत से ऊँचे ढेर लगाये गये थे, जो पर्वतों के समान पड़ते थे। लोगों ने देखा, वहाँ दही की नहरेें बह रहीं थीं तथा घी के कितने ही कुण्ड भरे हुए थे। राजन्! महाराज युधिष्ठिर के उस महान् यज्ञ में नाना जनपदों से युक्त सारा जम्बूद्वीप ही एकत्र हुआ सा दिखायी देता था। वहाँ विशुद्ध मणिमय कुण्डल तथा हार धारण किये नरेश ब्राह्मणों को राजाओं के उपभोग में आने योग्य नाना प्रकार के अन्न पान और भाँति-भाँति की चटनी परोसते थे। उस यज्ञ में निरन्तर उपर्युक्त पदार्थ भोजन करके सब ब्राह्मण आनन्दमग्न हो बड़ी तृप्ति और प्रसन्नता का अनुभव करते थे।

   इस प्रकार बहुत सी गायों तथा धन धान्य से सम्पन्न उस समृद्धिशाली यज्ञ मण्डप को देखकर सब राजाओं को बड़ा आश्चर्य होता था। ऋत्विज लोग शास्त्रीय विधि के अनुसार राजा युधिष्ठिर के उस राजसूय नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करते थे और समस्त याजक ठीक समय पर अग्नि में आहुतियाँ देते थे। व्यास और धौम्य आदि जो सोलह ऋत्विज थे, वे युधिष्ठिर के उस महायज्ञ में विधिपूर्वक अपने अपने निश्चित कार्यों का सम्पादन करते थे। उस यज्ञमण्डप में कोई भी सदस्य ऐसा नहीं था, जो वेद के छहों अंगों का ज्ञाता, बहुश्रुत, व्रतशील, अध्यापक, पापरहित, क्षमाशील एवं सामर्थ्यशील न हो। उस यज्ञ मे कोई भी मनुष्य दीन, दरिद्र, दुखी, भूखा प्यासा अथवा मूढ़ नहीं था। महातेजस्वी सहदेव महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भोजनार्थियों को सदा भोजन दिलाया करते थे। शास्त्रोक्त अर्थ पर दृष्टि रखने वाले यज्ञकुशल याजक प्रतिदिन सब कार्यों को विधिवत् सम्पन्न करते थे। वेद शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मण वहाँ सदा कथा प्रवचन किया करते थे। उस महायज्ञ में सब लोग कथा के अन्त में बड़े सुख का अनुभव करते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 38-39 का हिन्दी अनुवाद)

  देवता, असुर, यक्ष, नाग, दिव्य मानव तथा विद्याधर-गणों से भरा हुआ बुद्धिमान पाण्डुनन्दन महात्मा धर्मराज का वह राजसूय यज्ञ बड़ी शोभा पाता था। वह यज्ञमण्डप गन्धर्वों, अप्सरा-समूहों, देवताओं, मुनिगणों तथा यक्षों से सुशोभित हो दूसरे देवलोक के समान जान पड़ता था। किम्पुरुषों के गीत तथा किन्नरगण उस स्थान की शोभा बढ़ा रहे थे। नारद, महातेजस्वी तुम्बुरु, विश्वावसु, चित्रसेन तथा दूसरे गीतकुलश गन्धर्व वहाँ गीत गाकर यज्ञ कार्यों के बीच बीच में अवकाश मिलने पर सब लोगों का मनोरंजन करते थे। यज्ञ सम्बन्धी कर्मों के बीच में अवसर मिलने पर व्याकरण शास्त्र के ज्ञाता विद्वान पुरुष इतिहास पुराण तथा सब प्रकार के उपाख्यान सुनाया करते थे। वहाँ सहस्रों भेरी, मृदंग, मुड्डुक, गोमुख, शृंंग, वंशी और शंखों के शब्द सुनायी पड़ते थे। इस जगत में रहने वाले समस्त ब्राह्मण, (क्षत्रिय), वैश्य, शूद्र, सब प्रकार के म्लेच्छ तथा अग्रज, मध्यज और अन्त्यज आदि सभी वर्णों के लोग उस यज्ञ में उपस्थित हुए थे। अन्य देशों में उत्पन्न विभिन्न जाति के लोगों के शुभागमन से युधिष्ठिर के उस राजभवन में ऐसा जान पड़ता था कि यह समस्त लोक वहाँ उपस्थित हो गया है।

   उस राजसूय यज्ञ में भीष्म, द्रोण और दुर्योधन आदि समस्त कौरव, सारे वृष्णिवंशी तथा सम्पूर्ण पांचाल भी सेवकों की भाँति यथायोग्य सभी कार्य अपने हाथों करते थे। महाबाहु जनमेजय! इस प्रकार बुद्धिमान युधिष्ठिर का वह यज्ञ चन्द्रमा के राजसूय यज्ञ की भाँति शोभा पाता था। धर्मराज युधिष्ठिर उस यज्ञ में हर समय वस्त्र, कम्बर, चादर, स्वर्णपदक, सोने के बर्तन और सब प्रकार के आभूषणों का दान करते रहते थे। वहाँ राजाओं से जो-जो रत्न अथवा उत्तम धन भेंट के रूप में प्राप्त हुए, उन सबको युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने महात्मा ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में सहस्र कोटि स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान कीं। उन्होंने संसार में वह कार्य किया जिसे दूसरा कोई राजा नहीं कर सकेगा। यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण सम्पूर्ण मनोवान्छित वस्तुएँ और प्रचुर धन पाकर, सदा के लिये तृप्त हो गये। फिर राजा युधिष्ठिर ने व्याप्त, धौम्य, महामति नारद, सुमन्तु, जैमिनि, पैल, वैशम्पायन, याज्ञवल्क्य, कठ तथा महातेजस्वी कलाप- इन सब श्रेष्ठ ब्राह्मणों का पूर्ण मनोयोग के साथ सत्कार एवं पूजन किया।

  युधिष्ठिर उनसे बोले ;- महर्षियों! आप लोगों के प्रभाव से यह राजसूय महायज्ञ सांगोपांग सम्पन्न हुआ। भगवान श्रीकृष्ण के प्रताप से मेरा सारा मनोरथ पूर्ण हो गया। वैशम्पायन जी कहते हैं। जनमेजय! इस प्रकार यज्ञ समाप्ति के समय राजा युधिष्ठिर ने अन्त में लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण, देवेश्वर बलदेव तथा कुरुश्रेष्ठ भीष्म आदि का पूजन किया। तदनन्तर उस राजसूय महायज्ञ को विधिपूर्वक समाप्त किया। शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने आरम्भ से लेकर अन्त तक उस यज्ञ की रक्षा की।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पन्चचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 40-62 का हिन्दी अनुवाद)

  तदनन्तर धर्मात्मा युधिष्ठिर जब अवभृथस्नान कर चुके, उस समय क्षत्रिय राजाओं का समुदाय उनके पास जाकर बोला,,

राजा बोले ;- ‘धर्मज्ञ! आपका अभ्युदय हो रहा है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। आपने सम्राट का पद प्राप्त कर लिया। अजमीढ़कुलनन्दन राजाधिराज! आपने इस कर्म द्वारा अजमीढ़वंशी क्षत्रियों के यश का विस्तार तो किया ही है, महान धर्म का भी सम्पादन किया है। नरव्याघ्र! आपने मारे लिये सब प्रकार के अभीष्ट पदार्थ सुलभ करके हमारा बड़ा सम्मान किया है। अब हम आपसे जाने की अनुमति लेना चाहते हैं। हम अपने-अपने राष्ट्र को जायँगे, आप हमें आज्ञा दें।’ राजाओं का यह वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उन पूजनीय नरेशों का यथा योग्य सत्कार करके सब भाइयों से कहा,,

युधिष्ठिर बोले ;- ‘ये सभी राजा प्रेम से ही हमारे यहाँ पधारे थे। ये परंतप भूपाल अब मुझसे पूछकर अपने राष्ट्रों को जाने के लिय उद्यत हैं। तुम लोगों का भला हो। तुम लोग अपने राज्य की सीमा तक आदरपूर्वक इन श्रेष्ठ नरपतियों को पहुँचा आओं’।

  भाई की बात मनाकर वे धर्मात्मा पाण्डव एक-एक करके यथायोग्य सभी राजाओं के साथ गये। प्रतापी धृष्टद्युम्न तुरंत ही राजा विराट के साथ गया। धनंजय ने महारथी महात्मा द्रुपद का अनुसरण किया। महाबली भीमसेन भीष्म और धृतराष्ट्र के साथ गये। योद्धाओं में श्रेष्ठ सहदेव ने द्रोणाचार्य तथा उनके वीर पुत्र अश्वत्थामा को पहुँचाया। राजन्! सुबल और उनके पुत्र के साथ नकुल गये। द्रौपदी के पाँच पुत्रों तथा अभिमन्यु ने पर्वतीय महारथियों को अपने राज्य की सीमा तक पहुँचाया। इसी प्रकार अन्य क्षत्रिय शिरोमणियों ने दूसरे दूसरे क्षत्रिय राजाओं का अनुगमन किया। इसी तरह सभी ब्राह्मण भी अत्यन्त पूजित हो सहस्रों की संख्या में वहाँ से विदा हुए। राजाओं तथा ब्राह्मणों के चले जाने पर प्रतापी भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘कुरुनन्दन! मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ, अब मैं द्वारका पुरी को जाऊँगा। सौभाग्य से आपने सब यज्ञों में उत्तम राजसूय का सम्पादन कर लिया’।

  उनके ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर जनार्दन से बोले,,

युधिष्ठिर बोले ;- ‘गोविन्द! आपकी ही कृपा से मैंने यह श्रेष्ठ यज्ञ सम्पन्न किया है। तथा सारा क्षत्रियमण्डल भी आपके ही प्रसाद से मेरे अधीन हुआ और उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट ले मेरे पास आया। अनघ! आपको जाने के लिये मेरी वाणी कैसे कह सकती है? वीर! मैं आपके बिना कभी प्रसन्न नहीं रह सकूँगा। परंतु आपका द्वारकापुरी जाना भी आवश्यक ही है।’ उनके ऐसा कहने पर महायशस्वी धर्मात्मा श्रीहरि युधिष्ठिर को साथ ले बुआ कुन्ती के पास गये और प्रसन्नतापूर्वक बोले,,

श्री हरि बोले ;- ‘बुआ जी! तुम्हारे पुत्रों ने अब साम्राज्य प्राप्त कर लिया, उनका मनोरथ पूर्ण हो गया। वे सब-के-सब धन तथा रत्नों से सम्पन्न हैं। अब तुम इनके साथ प्रसन्नतापूर्वक रहो। यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं द्वारका जाना चाहता हूँ। कुन्ती की आज्ञा ले श्रीकृष्ण सुभद्रा और द्रौपदी से भी मिले और मीठे वचनों से उन दोनों को प्रसन्न किया। तत्पश्चात वे युधिष्ठिर के साथ अन्त:पुर से बाहर निकले। फिर एक स्थान ओर जप करके उन्होंने ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराया। इसके बाद महाबाहु दारुक मेघ के समान नीले रंग का सुन्दर रथ जोतकर उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। गरुड़ध्वज से सुशोभित उस सुन्दर रथ को उपस्थित देख महामना कमलनयन श्रीकृष्ण ने उसकी दक्षिणावर्त प्रदक्षिणा की और उस पर आरूढ़ हो वे द्वारकापुरी की ओर चल पड़े।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 63-68 का हिन्दी अनुवाद)

   सात्यकि और कृतवर्मा शीघ्रतापूर्वक उस रथ पर आरूढ़ हो श्रीहरि की सेवा के लिये चँवर डुलाने लगे। देवेश्वर बलदेव जी तथा सहस्रों यदुवंशी धर्मपुत्र युधिष्ठिर से पूजित हो राजा की भाँति वहाँ से विदा हुए।

  तदनन्तर सोने के श्रेष्ठ सिंहासन को छोड़कर भाइयों सहित श्रीमान् धर्मराज युधिष्ठिर पैदल ही महाबली भगवान वासुदेव के पीछे पीछे चलने लगे। तब कमललोचन भगवान श्रीहरि ने दो घड़ी तक अपने श्रेष्ठ रथ को रोक कर कुन्तीकुमार युधिष्ठिर से कहा,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘राजन्! आप सदा सावधान रहकर प्रजाजनों के पालन में लगे रहें। जैसे सब प्राणी मेघ को, पक्षी महान् वृक्ष को और सम्पूर्ण देवता इन्द्र को अपने जीवन का आधार मानकर उनका आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार सभी बन्धु बान्धव जीवन निर्वाह के लिये आपका आश्रय लें।’

  श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर आपस में इस प्रकार बातें करके एक-दूसरे की आज्ञा ले अपने अपने स्थान को चल दिये। राजन्! यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण के द्वारका चले जाने पर भी राजा दुर्योंधन तथा सुबलपुत्र शकुनि ये दोनों नरश्रेष्ठ उस दिव्य सभा भवन में ही रहे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत शिशुपालवध पर्व में शिशुपालवध विषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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