सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अर्धाभिहरण पर्व)
छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम, श्रीनारद जी के द्वारा श्रीकृष्ण महिमा का वर्णन और भीष्म जी की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर अभिषेचनीय कर्म के दिन सत्कार के योग्य महर्षिगण और ब्राह्मण लोग राजाओं के साथ यज्ञ भवन में गये। महात्मा राजा युधिष्ठिर के उस यज्ञ भवन में राजर्षिर्यों के साथ बैठे हुर नारद आदि महर्षि उस समय ब्रह्मा जी की सभा में एकत्र हुए देवताओं और देवर्षियों के समान सुशोभित हो रहे थे। बीच-बीच में यज्ञ सम्बन्धी एक-एक कर्म से आवकाश पाकर अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्वान् आपस में जल्प (वाद-विवाद) करते थे। ‘यह इसी प्रकार होना चाहिये,’ ‘नहीं, ऐसे नहीं हो चाहिये,’ ‘यह बात ऐसी ही है, ऐसी ही है, इससे भिन्न नहीं है। इस प्रकार कह-कहकर बहुत-से वितण्डावादी द्विज वहाँ वाद विवाद करते थे।
कुछ विद्वान शास्त्र निश्चित नाना प्रकार के तर्कों और युक्तियों से दुर्बल पक्षों को पुष्ट और पुष्ट पक्षों को दुर्बल सिद्ध कर देते थे। वहीं कुछ मेधावी पण्डित, जो दूसरों के कथन में दोष दिखाने के ही अभ्यासी थे, अन्य लोगों के कहे हुए अनुमान साधित विषय को उसी तरह बीच से ही लोक लेते थे, जैसे बाज मांस के लोथड़े को आकाश में ही एक दूसरे से छीन लेते हैं। उन्हीं में कुछ लोग धर्म और अर्थ के निर्णय में अत्यनत निपुण थे। कोई महान व्रत का पालन करने वाले थे। इस प्रकार सम्पूर्ण भाष्य के विद्वानों में श्रेष्ठ वे महात्मा अच्छी कथाएँ और शिक्षाप्रद बातें कहकर स्वयं भी सुखी होते और दूसरों को भी प्रसन्न करते थे। जैसे नक्षत्रमालाओं द्वारा मण्डित विशाल आकाश मण्डल की शोभा होती है, उसी प्रकार वेदज्ञ देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों और महर्षियों से वह वेदी सुशोभित हो रही थी।
ये भी पड़े !!... सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण के सभी 12 स्कंध श्लोक संख्या सहित (All the 12 sections of the entire Shrimad Bhagwat Mahapuran)
राजन! युधिष्ठिर की यज्ञशाला के भीतर उस अन्तर्वेदी के आस पास उस समय न तो कोई शूद्र था और न व्रतहीन द्विज ही। परम बुद्धिमान राजलक्ष्मी सम्पन्न धर्मराज युधिष्ठिर के उस धन वैभव और यज्ञविधि को देखकर देवर्षि नारद को बड़ी प्रसन्नता हुई। जनमेजय! उस समय वहाँ समस्त क्षत्रियों का सम्मेलन देखकर मुनविर नारद जी सहसा चिन्तित हो उठे। नरश्रेष्ठ! भगवान के सम्पूर्ण अंशों (देवताओं) सहित अवतार लेने के सम्बन्ध में ब्रह्मलोक में पहले जो चर्चा हुई थी, वह प्राचीन घटना उन्हें याद आ गयी। कुरुनन्दन! नारद जी ने यह जानकर कि राजाओं के इस समुदाय के रूप में वास्तव में देवताओं का ही समागम हुआ है, मन ही मन कमलनयन भगवान श्रीहरि का चिन्तन किया। वे सोचने लगे- ‘अहो! सर्वव्यापक देवशत्रु विनाशक वैरिनगर विजयी साक्षात् भगवान नारायण ने ही अपनी इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये क्षत्रियकुल में अवतार ग्रहण किया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 15-32 का हिन्दी अनुवाद)
‘पूर्वकाल में सम्पूर्ण भूतों के उत्पादक साक्षात् उन्हीं भगवान ने देवताओं को यह आदेश दिया था कि तुम लोग भूतल पर जन्म ग्रहण करके अपना अभीष्ट साधन करते हुए आपस में एक दूसरे को मारकर फिर देवलोक में आ जाओंगे। कलयाणस्वरूप भूतभावन भगवान नारायण ने सब देवताओं को यह आज्ञा देने के पश्चात स्वयं भी यदुकुल में अवतार लिया। अन्धक और वृष्णियों के कुल में वंशधारियों श्रेष्ठ वे ही भगवान इस पृथ्वी पर प्रकट हो अपनी सर्वोत्तम कान्ति से उसी प्रकार शोभायमान हैं, जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा सुशोभित होते हैं। इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता जिनके बाहुबल की उपासना करते हैं, वे ही शत्रुमर्दन श्रीहरि यहाँ मनुष्य के समान बैठे हैं। अहो! ये स्वयम्भू महाविष्णु ऐसे बलसम्पन्न क्षत्रिय समुदाय को पुन: उच्छिन्न करता चाहते हैं’। धर्मज्ञ नारद जी ने इसी पुरातन वृत्तान्त का स्मरण किया और ये भगवान श्रीकृष्ण ही समस्त यज्ञों के द्वारा आराधनीय, सर्वेश्वर नारायण हैं, ऐसा समझकर वे धर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ परम बुद्धिमान देवर्षि मेधावी धर्मराज के उस महायज्ञ में बड़े आदर के साथ बैठे रहे।
जनमेजय! तत्पश्चात भीष्म जी ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा,,
भीष्म बोले ;- ‘भरतकुलभूषण युधिष्ठिर! अब तुम यहाँ पधारे हुए राजाओं का यथायोग्य सत्कार करो। आचार्य, ऋत्विज, सम्बन्धी, स्नातक, प्रिय मित्र तथा राजा- इन छहों को अर्घ्य देकर पूजने योग्य बताया गया है। ये यदि एक वर्ष बिताकर अपने यहाँ आवें तो इनके लिये अर्घ्य निवेदन करके इनकी पूजा करनी चाहिये, ऐसा शास्त्रज्ञ पुरुषों का कथन है। ये सभी नरेश हमारे यहाँ सुदीर्यकाल के पश्चात पधारे हैं। इसलिये राजन्! तुम बारी-बारी से इन सबके लिये अर्घ्य दो और इन सबमें जो श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली हो, उसको सबसे पहले अर्घ्य समर्पित करो’।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- कुरुनन्दन पितामह! इन समागत नरेशों में किस एक को सबसे पहले अर्घ्य निवेदन करना आप उचित समझते हैं? यह मुझे बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं- तब महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म ने अपनी बुद्धि से निश्चय करके भगवान श्रीकृष्ण को ही भूमण्डल में सबसे अधिक पूजनीय माना।
भीष्म ने कहा ;- 'कुन्तीनन्दन! ये भगवान श्रीकृष्ण इन सब राजाओं के बीच में अपने तेज, बल और पराक्रम से उसी प्रकार देवीप्यमान हो रहे हैं, जैसे ग्रह नक्षत्रों में भुवन भास्कर भगवान सूर्य। अन्धकारपूर्ण स्थान जैसे सूर्य का उदय होने पर ज्योति से जगमग हो उठता है और वायुहीन स्थान जैसे वायु के संचार से सजीव सा हो जाता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा हमारी यह सभा आह्वादित और प्रकाशित हो रही है (अत: ये ही अग्रपूजा के योग्य हैं)।'
भीष्म की आज्ञा मिल जाने पर प्रतापी सहदेव ने वृष्णिकुलभूषण भगवान श्रीकृष्ण को विधिपूर्वक उत्तम अर्घ्य निवेदन किया। श्रीकृष्ण ने शास्त्रीय विधि के अनुसार वह अर्घ्य स्वीकार किया। वसुदेवनन्दन भगवान श्रीहरि की वह पूजा राजा शिशुपाल नहीं सह सका। महाबली चेदिराज भरी सभा में भीष्म और धर्मराज युधिष्ठिर को उलाहना देकर भगवान वासुदेव पर आक्षेप करने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरण पर्व में श्रीकृष्ण को अर्घ्यदानविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अर्धाभिहरण पर्व)
सैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन"
शिशुपाल बोला ;- कौरव्य! यहाँ इन महात्मा भूमिपतियों के रहते हुए यह वृष्णिवंशी कृष्ण राजाओं की भाँति राजोचित पूजा का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता। महात्मा पाण्डवों के लिये यह विपरीत आचार कभी उचित नहीं है। पाण्डुकुमार! तुमने स्वार्थवश कमलनयन कृष्ण का पूजन किया है। पाण्डवो! अभी तुम लोग बालक हो। तुम्हें धर्म का पता नहीं है, क्योंकि धर्म का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है। ये गंगानन्दन भीष्म बहुत बूढ़े हो गये हैं। अब इनकी स्मरणशक्ति जवाब दे चुकी है। इनकी सूझ और समझ भी बहुत कम हो गया है (तभी इन्होंने श्रीकृष्णपूजा की सम्मति दी है)। भीष्म तुम्हारे जैसा धर्मात्मा पुरुष भी जब मनमाना अथवा किसी का प्रिय करने के लिये मुहदेखी करने लगता है, तब वह साधु पुरुषों के समाज में अधिक अपमान का पात्र बन जाता है। यह भी जानते है कि यदुवंशी कृष्ण राजा नहीं है, फिर सम्पूर्ण भूपालों के बीच तुम लोगों ने जिस प्रकार इसकी पूजा की है, वैसी पूजा का अधिकारी यह कैसे हो सकता है? कुरुपुंगव! अथवा यदि तुम श्रीकृष्ण को बड़ा-बूढ़ा समझते हो तो इसके पिता वृद्ध वसुदेव जी के रहते हुए उनका यह पुत्र कैसे पूजा का पात्र हो सकता है? अथवा यह मान लिया जाय कि वासुदेव कृष्ण तुम लोगों का प्रिय चाहने वाला और तुम्हारा अनुसरण करने वाला सुहृद है, इसीलिये तुमने इसकी पूजा की है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तुम्हारे सबसे बड़े सुहृद तो राजा द्रुपद हैं उनके रहते यह माधव पूजा पाने का अधिकारी है कैसे हो सकता है।
कुरुनन्दन! अथवा यह समझ लें कि तुम कृष्ण को आचार्य मानते हो, फिर भी आचार्यों में भी बड़ेे-बूढ़े द्रोणाचार्य के रहते हुए इस यदुवंशी की पूजा तुमने क्यों की है? कुरुकुल को आनन्दित करने वाले युधिष्ठिर अथवा यदि यह कहा जाय कि तुम कृष्ण को अपना ऋत्विज समझते हो तो ऋत्विजों में भी सबसे वृद्धि द्वैपायन वेदव्यास के रहते हुए तुमने कृष्ण की अग्रपूजा कैसे की? राजन! शान्तनुनन्दन भीष्म पुरुषशिरोमणि तथा स्वच्छन्दमृत्यु हैं। इनके रहते तुमने कृष्ण की अर्चना कैसे की? कुरुनन्दन युधिष्ठिर! सम्पूर्ण शास्त्रों के निपुण विद्वान वीर अश्वत्थामा के रहते हुए तुमने कृष्ण की पूजा कैसे कर डाली? पुरुषप्रवर राजाधिराज दुर्योधन और भरतवंश के आचार्य महात्मा कृप के रहते हुए तुमने कृष्ण की पूजा का औचित्य कैसे स्वीकार किया?
तुमने किम्पुरुषों के आचार्य द्रुम का उल्लंघन करके कृष्ण की अग्रपूजा क्यों की? पाण्डु के समान दुुर्धर्ष वीर तथा राजोचित शुभ लक्षणों से सम्पन्न भीष्मक, राजा रुक्मी और उसी प्रकार श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य तथा मद्रराज शल्य के रहते हुए तुम्हारे द्वारा कृष्ण की पूजा किस दृष्टि से की गयी है। भारत! ये जो अपने बल के द्वारा सब राजाओं से होड़ लेते हैं, विप्रवर परशुराम जी के प्रिय शिष्य हैं तथा जिन्होंने अपने बल का भरोसा करके युद्ध में अनेक राजाओं को परास्त किया है, उन महाबली कर्ण को छोड़कर तुमने कृष्ण की आराधना कैसे की? कुरुश्रेष्ठ! मधुसूदन कृष्ण न ऋत्विज है, न आचार्य है और न राजा ही है, फिर तुमने किस प्रिय कामना से इसकी पूजा की है? भारत! अथवा यदि मधुसूदन ही तुम लोगों का पूजनीय देवता है, इसलिये इसकी पूजा तुम्हें करनी थी तो इन राजाओं को केवल अपमानित करने के लिये बुलाने की क्या आवयकता थी?
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद)
राजाओं! हम सब लोग इन महात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को जो कर दे रहे हैं, वह भय, लोभ अथवा कोई विशेष आश्वासन मिलने के कारण नहीं। हमने तो यही समझा था कि यह धर्माचरण में संलग्न रहने वाला क्षत्रिय सम्राट का पद पाना चाहता है तो अच्छा ही है। यही सोचकर हम उसे कर देते हैं, पंरतु यह राजा युधिष्ठिर हम लोगों को नहीं मानता है। युधिष्ठिर! इससे बढ़कर दूसरा अपमान और क्या हो सकता है कि तुमने राजाओं की सभा में जिसे राजोचित चिह्न छत्र-चँवर आदि प्राप्त नहीं हुआ है, उस कृष्ण की अर्घ्य के द्वारा पूजा की है। धर्मपुत्र युधिष्ठिर को अकस्मात ही धर्मात्मा होने का यश प्राप्त हो गया है अन्यथा कौन ऐसा धर्मनिष्ठ पुरुष होगा जो किसी धर्मच्युत की इस प्रकार पूजा करेगा।
वृष्णिकुल में पैदा हुए इस दुरात्मा ने तो कुछ ही दिन पहले महात्मा राजा जरासंध का अन्यायपूर्वक वध किया है। आज युधिष्ठिर का धर्मात्मापन दूर निकल गया, क्योंकि इन्होंने कृष्ण को अर्घ्य निवेदन करके अपनी कायरता ही दिखायी है।
अब शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को देखकर कहा,,
शिशुपाल बोला ;- माधव! कुन्ती के पुत्र डरपोक, कायर और तपस्वी हैं। इन्होंने तुम्हें ठीक-ठीक न जानकर यदि तुम्हारी पूजा कर दी तो तुम्हें तो समझना चाहिये था कि तुम किस पूजा के अधिकारी हो? अथवा जनार्दन! इन कायरों द्वारा उपस्थित की हुई इस अग्रपूजा को उसके योग्य न होते हुए भी तुमने क्यों स्वीकार कर लिया? जैसे कुत्ता एकान्त में चूकर गिरे हुए थोड़े से हविष्य (घृत) को चाट ले और अपने को धन्य-धन्य मानने लगे, उसी प्रकार तुम अपने लिये अयोग्य पूजा स्वीकार करके अपने आपको बहुत बड़ा मान रहे हो।
कृष्ण! तुम्हारी इस अग्रपूजा से हम राजाधिराजों का कोई अपमान नहीं होता, परंतु ये कुरुवंशी पाण्डव तुम्हें अर्घ्य देकर वास्तव में तुम्ही को ठग रहे हैं। मधुसूदन! जैसे नपुंसक का ब्याह रचाना और अंधे को रूप दिखाना उनका उपहास ही करना है, उसी प्रकार तुम जैसे राज्यहीन की यह राजाओं के समान पूजा भी विडम्बना मात्र ही है। आज मैंने राजा युधिष्ठिर को देख लिया, भीष्म भी जैसे हैं, उनको भी देख लिया और इस वासुदेव कृष्ण का भी वास्तविक रूप क्या है, यह भी देख लिया। वास्तव में ये सब ऐसे ही हैं। उनसे ऐसा कहकर शिशुपाल अपने उत्तम आसन से उठकर राजाओं के साथ उस सभा भवन से जाने को उद्यत हो गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरण पर्व में शिशुपाल का क्रोध विषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (अर्धाभिहरण पर्व)
अड़तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के 38 भाग 1 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर का शिशुपाल को समझाना और भीष्म जी का उसके आक्षेपों का उत्तर देना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिर शिशुपाल के समीप दौड़े गये और उसे शान्तिपूर्वक समझाते हुए मधुर वाणी में बोले,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘राजन्! तुमने जैसी बात कह डाली है, वह कदापि उचित नहीं है। किसी के प्रति इस प्रकार व्यर्थ कठोर बातें कहना महान् अधर्म है। शान्तनुनन्दन भीष्म जी धर्म के तत्त्व को न जानते हों ऐसी बात नहीं है, अत: तुम इनका अनादर न करो। देखो! ये सभी नरेश, जिनमें से कई तो तुम्हारी अपेक्षा बहुत बड़ी अवस्था के हैं, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा को चुपचाप सहन कर रहे हैं, इसी प्रकार तुम्हें भी इस विषय में कुछ नहीं बोलना चाहिये। चेदिराज! भगवान श्रीकृष्ण को यथार्थ रूप से हमारे पितामह भीष्म जी ही जानते हैं। कुरुनन्दन भीष्म को उनके तत्त्व का जैसा ज्ञान है, वैसा तुम्हें नहीं हैं।'
भीष्म जी ने कहा ;- धर्मराज! भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत में सबसे चढ़कर हैं। वे ही परम पूजनीय हैं। जो उनकी अग्रपूजा स्वीकार नहीं करता है, उसकी अनुनयविनय नहीं करनी चाहिये। वह सान्त्वना देने या समझाने बुझाने के योग्य भी नहीं है। जो योद्धाओं में श्रेष्ठ क्षत्रिय जिसे युद्ध में जीतकर अपने वश में करके छोड़ देता है, वह उस पराजित क्षत्रिय के लिये गुरुतुल्य पूज्य हो जाता है। राजाओं के इस समुदाय में एक भी भूपाल ऐसा नहीं दिखायी देता, जो युद्ध में देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के तेज से परास्त न हो चुका हो। महाबाहु श्रीकृष्ण केवल हमारे लिये ही परम पूजनीय हों, ऐसी बात नहीं है, ये तीनों लोकों के पूजनीय हैं। श्रीकृष्ण के द्वारा संग्राम में अनेक क्षत्रियशिरोमणी परास्त हुए हैं। यह सम्पूर्ण जगत वृष्णिकुलभूषण भगवान श्रीकृष्ण में ही पूर्णरूप से प्रतिष्ठित हैं। इसीलिये हम दूसरे वृद्ध पुरुषों के होते हुए भी श्रीकृष्ण की ही पूजा करते हैं, दूसरों की नहीं।
राजन! तुम्हें श्रीकृष्ण के प्रति वैसी बातें मुँह से नहीं निकालनी चाहिये थीं। उनके प्रति तुम्हें ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिये। मैंने बहुत से ज्ञानवृद्ध महात्माओं का संग किया है। अपने यहाँ पधारे हुए उन संतों के मुख से अनन्तगुणशाली भगवान श्रीकृष्ण के असंख्य बहुसम्मत गुणों का वर्णन सुना है। जन्मकाल से लेकर अब तक इन बुद्धिमान श्रीकृष्ण के जो जो चरित्र बहुधा बहुतेरे मनुष्यों द्वारा कहे गये हैं, उन सबको मैंने बार बार सुना है। चेदिराज! हम लोग किसी कामना से, अपना सम्बन्धी मानकर अथवा इन्होंने हमारा किसी प्रकार का उपकार किया है, इस दृष्टि से श्रीकृष्ण की पूजा नहीं कर रहे हैं। हमारी दृष्टि तो यह है कि ये इस भूमण्डल के सभी प्राणियों को सुख पहुँचाने वाले हैं और बड़े-बड़े संत महात्माओं ने इनकी पूजा की है। हम इनके यश, शौर्य और विजय को भली-भाँति जान कर इनकी पूजा कर रहे हैं। यहाँ बैठे हुए लोगों में से कोई छोटा सा बालक भी ऐसा नहीं है, जिसके गुणों की हम लोगों ने पूर्णत: परीक्षा न की हो। श्रीकृष्ण के गुणों को ही दृष्टि में रखते हुए हमने वयोवृद्ध पुरुषों का उल्लंघन करके इनको ही परम पूजनीय माना है। ब्राह्मणों में वही पूजनीय समझा जाता है, जो ज्ञान में बड़ा हो तथा क्षत्रियों में वही पूजा के योग्य है, जो बल में सबसे अधिक हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 2 का हिन्दी अनुवाद)
वैश्यों में वही सर्वमान्य है, जो धन धान्य में बढ़कर हो, केवल शूद्रों में ही जन्म काल को ध्यान में रखकर जो अवस्था में बड़ा हो, उसको पूजनीय माना जाता है। श्रीकृष्ण के परम पूजनीय होने में दोनों ही कारण विद्यमान हैं। इनमें वेद वेदांगों का ज्ञान तो है ही, बल भी सबसे अधिक हैं। श्रीकृष्ण के सिवा संसार के मनुष्यों में दूसरा कौन सबसे बढ़कर है? दान, दक्षता, शास्त्रज्ञान, शौर्य, लज्जा, कीर्ति, उत्तम बुद्धि, विनय, श्री, धृति, तुष्टि और पुष्टि- ये सभी सद्गुण भगवान श्रीकृष्ण में नित्य विद्यमान हैं। जो अर्घ्य पाने के सर्वथा योग्य और पूजनीय है, उन सकल गुण सम्पन्न, श्रेष्ठ, पिता और गुरु भगवान श्रीकृष्ण की हम लोगों ने पूजा की है, अत: सब राजा लोग इसके लिये हमें क्षमा करें।
श्रीकृष्ण हमारे ऋत्विक, गुरु, आचार्य, स्नातक, राजा और प्रिय मित्र सब कुछ हैं। इसलिये हमने इनकी अग्रपूजा की है। भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। यह सारा चराचर विश्व इन्हीं के लिये प्रकट हुआ है। ये ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता तथा सम्पूर्ण भूतों से परे हैं, अत: भगवान अच्युत ही सबसे बढ़कर पूजनीय हैं। महतत्त्व, अहंकार, मनसहित ग्यारह इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज- ये चार प्रकार के प्राणी भगवान श्रीकृष्ण में ही प्रतिष्ठित हैं। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रह, दिशा और विदिशा सब उन्हीं में स्थित हैं। जैसे वेदों में अग्निहोत्र कर्म, छन्दों में गायत्री, मनुष्यों में राजा, नदियों (जलाशयों) में समुद्र, नक्षत्रों में चन्द्रमा, तेजोमय पदार्थों में सूर्य, पर्वतों में मेरु और पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार देवलोक सहित सम्पूर्ण लोकों में ऊपर-नीचे, दाँयें-बाँयें, जितने भी जगत के आश्रय हैं, उन सब में भगवान श्रीकृष्ण ही श्रेष्ठ हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 3 का हिन्दी अनुवाद)
(भगवान नारायण की महिमा और उनके द्वारा मधु-कैटभ का वध)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर भीष्म जी का वह समयोचित वचन सुनकर कौरवनन्दन बुद्धिमान युधिष्ठिर ने उनसे इस प्रकार कहा। युधिष्ठिर बोले- पितामह! मैं इन भगवान श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। आप उन्हें कृपापूर्वक बतावें। पितामह! भगवान के अवतारों और चरित्रों का क्रमश: वर्णन कीजिये। साथ ही मुझे यह भी बताइये कि श्रीकृष्ण का शील स्वभाव कैसा है?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय युधिष्ठिर के इस प्रकार अनुरोध करने पर भीष्म ने राजाओं के उस समुदाय में देवराज इन्द्र के समान सुशोभित होने वाले भगवान वासुदेव के सामने ही शत्रुहन्ता भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर से भगवान श्रीकृष्ण के अलौकिक कर्मों का, जिन्हें दूसरा कोई कदापि नहीं कर सकता, वर्णन किया। धर्मराज के समीप बैठे हुए सम्पूर्ण नरेश उनकी यह बात सुन रहे थे। राजन्! बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भीमकर्मा भीष्म ने शत्रुदमन चेदिराज शिशुपाल को सान्त्वनापूर्ण शब्दों में ही समझाकर कुरुराज युधिष्ठिर से पुन: इस प्रकार कहना आरम्भ किया।
भीष्म बोले ;- राजा युधिष्ठिर! पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य कर्मों की गति बड़ी गहन है। उन्होंने पूर्व काल में और इस समय जो भी महान कर्म किये हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो। ये सर्वशक्तिमान् भगवान अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त स्वरूप धारण करके स्थित हैं। पूर्वकाल में ये भगवान श्रीकृष्ण ही नारायण रूप में स्थित थे। ये ही स्वयम्भू एवं सम्पूर्ण जगत के प्रपितामह हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 4 का हिन्दी अनुवाद)
इनके सहस्रों मस्तक हैं। ये ही पुरुष, ध्रुव, अव्यक्त एवं सनातन परमात्मा हैं। इनके सहस्रों नेत्र, सहस्रों मुख और सहस्रों चरण हैं। ये सर्वव्यापी परमेश्वर सहस्रों भुजाओं, सहस्रों रूपों और सहस्रों नामों से युक्त हैं। इनके मस्तक सहस्रों मुकुटों से मण्डित हैं। ये महान् तेजस्वी देवता हैं। सम्पूर्ण विश्व इन्हीं का स्वरूप है। इनके अनेक वर्ण हैं। ये देवताओं के भी आदि कारण हैं और अव्यक्त प्रकृति से परे (अपने सच्चिदानन्दघन स्वरूप में स्थित) हैं। उन्हीं सामर्थ्यवान भगवान नारायण ने सबसे पहले जल की सृष्टि की है। फिर उस जल में उन्होंने स्वयं ही ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया। ब्रह्माजी के चार मुख हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि की है। इस प्रकार आदिकाल में समस्त जगत की उत्पत्ति हुई। फिर प्रलयकाल आने पर, जैसा कि पहले हुआ था, समस्त स्थावर जंगम सृष्टि का नाश हो जाता है एवं चराचर जगत का नाश होने के पश्चात ब्रह्मा आदि देवता भी अपने कारणतत्त्व में लीन हो जाते हैं। और समस्त भूतों का प्रवाह प्रकृति में विलीन हो जाता है, उस समय एकमात्र सर्वात्मा भगवान महानारायण शेष रह जाते हैं। भरतनन्दन! भगवान नारायण के सब अंग सर्वदेवमय हैं। राजन! द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि और पृथ्वी चरण हैं। दोनों अश्विनीकुमार उनकी नासिका के स्थान में हैं, चन्द्रमा और सूर्य, नेत्र हैं एवं इन्द्र और अग्रिदेवता उन परमात्मा के मुख हैं।
इसी प्रकार अन्य सब देवता भी उन महात्मा के विभिन्न अवयव हैं। जैसे गुँथी हुई माला की सभी मणियों में एक ही सूत्र व्याप्त रहता है, उसी प्रकार भगवान श्रीहरि सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हैं। प्रलयकाल के अन्त में सबको अन्धकार से व्याप्त देख सर्वश परमात्मा ब्रह्मभूत महायोगी नारायण ने स्वयं अपने आपको ही ब्रह्मारूप में प्रकट किया। इस प्रकार अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले, सब की उत्पत्ति के कारण भूत और सम्पूर्ण भूतों के अध्यक्ष श्रीहरि ने ब्रह्मारूप से प्रकट हो सनत्कुमार, रुद्र, मनु तथा तपस्वी ऋषि मुनियों को उत्पन्न किया। सबकी सृष्टि उन्होंने ही की। उन्हीं से सम्पूर्ण लोकों और प्रजाओं की उत्पत्ति हुई। युधिष्ठिर! समय आने पर उन मनु आदि ने भी सृष्टि का विस्तार किया। उन सब महात्माओं से नाना प्रकार की सृष्टि प्रकट हुई।
इस प्रकार एक ही सनातन ब्रह्म अनेक रूप में अभिव्यक्त हो गया। भरतनन्दन! अब तक कई करोड़ कल्प बीत चुके हैं और कितने ही करोड़ प्रलयकाल भी गत हो चुके हैं। मन्वन्तर, युग, कल्प और प्रलय- ये निरन्तर चक्र की भाँति घूमते रहते हैं। यह सम्पूर्ण जगत विष्णुमय है। देवाधिदेव भगवान नारायण चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा की सृष्टि करके सम्पूर्ण लोकों का हित करने के लिये क्षीरसागर में निवास करते हैं। ब्रह्मा जी सम्पूर्ण देवताओं तथा लोकों के पितामह हैं, इसलिये श्रीनारायण देव सबके प्रपितामह हैं। जो अव्यक्त होते हुए व्यक्ति शरीर में स्थित हैं, सृष्टि और प्रलय काल में भी जो नित्य विद्यमान रहते हैं, उन्हीं सर्वशक्तिमान् भगवान नारायण ने इस जगत की रचना की है। युधिष्ठिर! इन भगवान श्रीकृष्ण ने ही नारायण रूप में स्थित होकर स्वयं ब्रह्म, सूर्य, चन्द्रमा और धर्म की सृष्टि की है। ये समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा हैं और कार्यवश अनेक रूपों में अवतीर्ण होते रहते हैं। इनके सभी अवतार दिव्य हैं और देवगणों से संयुक्त भी हैं। मैं उन सबका वर्णन करता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 5 का हिन्दी अनुवाद)
देवाधिदेव जगदीश्वर महायशस्वी भगवान श्रीहरि सहस्र युगों तक शयन करने के पश्चात कल्पान्त की सहस्र युगात्मक अवधि पूरी होने पर प्रकट होते और सृष्टि कार्य में संलग्न हो परमेष्ठी ब्रह्मा, कपिल, देवगणों, सप्तर्षियों तथा शंकर की उत्पत्ति करते हैं। इसी प्रकार भगवान श्रीहरि सनत्कुमार, मनु एवं प्रजापति को भी उत्पन्न करते हैं। पूर्वकाल में प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी नारायण देव ने ही देवताओं आदि की सृष्टि की है। पहले की बात है, प्रलय काल में समस्त चराचर प्राणी, देवता, असुर, मनुष्य, नाग तथा राक्षस सभी नष्ट हो चुके थे। उस समय एकार्णव (महासागर) की जलराशि में दो अत्यन्त दुर्धर्ष दैत्य रहते थे, जिनके नाम थे मधु और कैटभ। वे दोनों भाई युद्ध की इच्छा रखत थे। उन्हीं भगवान नारायण ने उन्हें मनोवान्छित वर देकर उन दोनों दैत्यों का वध किया था। कहते हैं, वे दोनों महान् असुर महात्मा भगवान विष्णु के कानों की मैल से उत्पन्न हुए थे।
पहले भगवान ने इस पृथ्वी को आवद्ध करके मिट्टी से ही उनकी आकृति बनायी थी। वे पर्वतराज हिमालय के समान विशाल शरीर लिये महासागर के जल में सो रहे थे। उस समय ब्रह्मा जी की प्रेरणा से स्वयं वायुदेव ने उनके भीतर प्रवेश किया। फिर तो वे दोनों महान असुर सम्पूर्ण द्युलोक को आच्छादित करके बढ़ने लगे। वायुदेव ही जिनके प्राण थेे, उन दोनों असुरों को देखकर ब्रह्मा जी ने धीरे-धीरे उनके शरीर पर हाथ फेरा। एक का शरीर उन्हें अत्यन्त कोमल प्रतीत हुआ और दूसरे का अत्यन्त कठोर। तब जल से उत्पन्न होने वाले भगवान ब्रह्मा ने उन दोनों का नामकरण किया। यह जो मृदुल शरीर वाला असुर है, इसका नाम मधु होगा और जिसका शरीर कठोर है, वह कैटभ कहलायेगा।
इस प्रकार नाम निश्चित हो जाने पर वे दोनों दैत्य बल से उन्मत्त होकर सब ओर विचरने लगे। राजन्! सबसे पहले वे दोनों महादैत्य मधु और कैटभ द्युलोक में पहुँचे और उस सारे लोक को आच्छादित करके सब और विचरने लगे। उस समय सारा लोक जलमय हो गया था। उसमें युद्ध की कामना से अत्यन्त निर्भय होकर आये हुए उन दोनों असुरों को देखकर लोक पितामह ब्रह्मा जी वहीं एकार्णरूप जलाराशि में अन्तर्धान हो गये। वे भगवान पद्मनाभ (विष्णु) की नाभि से प्रकट हुए कमल में जा बैठे। वह कमल वहाँ पहले ही स्वयं प्रकट हुआ था। कहने को तो वह पंकज था, परंतु पंक से उसकी उत्पत्ति नहीं हुई थी। लोक पितामह ब्रह्मा ने अपने निवास के लिये उस कमल को ही पसंद किया और उसकी भूरी-भूरि सराहना की। भगवान नारायण और ब्रह्मा दोनों ही अनेक सहस्र वर्षों तक उस जल के भीतर सोते रहे, किंतु कभी तनिक भी कम्पायमान नहीं हुए। तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात वे दोनों असुर मधु और कैटभ उसी स्थान पर पहुँचे, जहाँ ब्रह्माजी स्थित थे। उन दोनों को आया देख महातेजस्वी लोकनाथ भगवान पद्मनाभ अपनी शय्या से खड़े हो गये। क्रोध से उनकी आँखे लाल हो गयीं। फिर तो उन दोनों के साथ उनका बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। उस भयानक एकार्णव में जहाँ त्रिलोकी जलरूप हो गयी थी, सहस्रों वर्षों तक उनका वह घमासान युद्ध चलता रहा, परंतु उस समय उस युद्ध में उन दोनों दैत्यों को तनिक भी थकावट नहीं होती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 6 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात् दीर्घकाल व्यतीत होने पर वे दोनों रणोन्मत्त दैत्य प्रसन्न होकर सर्वशक्तिमान् भगवान नारायण से बोले,,
दैत्य बोले ;- ‘सुरश्रेष्ठ! हम दोनों तुम्हारे युद्ध कौशल से बहुत प्रसन्न है। तुम हमारे लिये स्पृहणीय मृत्यु हो। हमें ऐसी जगह मारो, जहाँ की भूमि पानी में डूबी हुई न हो। तथा मरने के पश्चात हम दोनों तुम्हारे पुत्र हों। जो हमें युद्ध में जीत ले, हम उसी के पुत्र हों- ऐसी हमारी इच्छा है।’ उनकी बात सुनकर भगवान नारायण ने उन दोनों दैत्यों को युद्ध में पकड़कर उन्हें दोनों हाथों से दबाया और मधु तथा कैटभ दोनों को अपनी जाँघों पर रखकर मार डाला। मरने पर उन दानों की लाशें जल में डूबकर एक हो गयीं। जल की लहरों से मथित होकर उन दोनों दैत्यों ने जो मेद छोड़ा, उससे आच्छादित होकर वहाँ का जल अदृश्य हो गया। उसी पर भगवान नारायण ने नाना प्रकार के जीवों की सृष्टि की। राजन् कुन्तीकुमार! उन दोनों दैत्यों के मेद से सारी वसुधा आच्छादित हो गयी अत: तभी से यह मही ‘मेदिनी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। भगवान पद्मनाभ के प्रभाव से यह मनुष्यों के लिये शाश्वत आधार बन गयी।
[वराह, नृसिंह, वामन, दत्तात्रेय, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण तथा कल्कि अवतारों की संक्षिप्त कथा]
भीष्म जी कहते हैं ;- कुरुनन्दन! भगवान के अब तक कई सहस्र अवतार हो चुके हैं। मैं यहाँ कुछ अवतारों का यथाशक्ति वर्णन करूँगा। तुम ध्यान देकर उनका वृत्तान्त सुनो।
वराहावतार
बपूर्वकाल में जब भगवान पद्मनाभ समुद्र के जल में शयन कर रहे थे, पुष्कर में उनसे अनेक देवताओं और महर्षियों का प्रादुर्भाव हुआ। यह भगवान का ‘पोष्करिक’ (पुष्करसम्बन्धी) पुरातन अवतार कहा गया है, जो वैदिक श्रुति द्वारा अनुमोदित है। महात्मा श्रीहरि का जो वराह नामक अवतार है, उस में भी प्रधानत: वैदिक श्रुति ही प्रमाण है। उस अवतार के समय भगवान ने वराहरूप धारण करके पर्वतों और वनों सहित सारी पृथ्वी को जल से बाहर निकाला था। चारों वेद ही भगवान वराह के चार पैर थे। यूप ही उनकी दाढ़ थे। क्रतु (यज्ञ) ही दाँत और ‘चिति’ (दृष्टि का चयन) ही मुख थे। अग्नि जिह्वा, कुश रोम तथा ब्रह्म मस्तक थे। वे महान् तप से सम्पन्न थे। दिन और रात ही उनके दो नेत्र थे। उनका स्वरूप दिव्य था। वेदांग ही उनके विभिन्न अंग थे। श्रुतियाँ ही उनके लिए आभूषण का काम देती थीं। घी उनकी नासिका, स्रुवा उनकी यूथुन और सामवेद का स्वर ही उनकी भीषण गर्जना थी। उनका शरीर बहुत बड़ा था। धर्म और सत्य उनका स्वरूप था, वे अलौकिक तेज से सम्पन्न थे। वे विभिन्न कर्मरूपी विक्रम से सुशोभित हो रहे थे, पशु उनके घुटनों के स्थान में थे और महान वृषभ (धर्म) ही उनका श्रीविग्रह था। उद्गाता का होमरूप कर्म उनका लिंग था, फल और बीज ही उनके लिये महान औषध थे, वे बाह्य और आभयन्तर जगत के आत्मा थे, वैदिक मंत्र ही उनके शारीरिक अस्थि विकार थे। देखने में उनका स्वरूप बड़ा ही सौम्य था। यज्ञ की वेदी ही उनके कंधे, हविष्य सुगन्ध और हव्य कव्य आदि उनके वेग थे। प्रागवंश (यजमानगृह एवं पत्नीशाला) उनका शरीर कहा गया है। वे महान तेजस्वी और उनके प्रकार की दीक्षाओं से व्याप्त थे। दक्षिणा उनके हृदय के स्थान में थीं, वे महान् योगी और महान शास्त्रस्वरूप थे। प्रीतिकारक उपाकर्म उनके ओष्ठ और प्रवर्ग्य कर्म ही उनके रत्नों के आभूषण थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 7 का हिन्दी अनुवाद)
जल में पढ़ने वाली छाया (परछाई) ही पत्नी की भाँति उनकी सहायिका थी। वे मणिमय पर्वत की भाँति उनकी सहायिका थी। इस प्रकार यज्ञमय वराहरूप धारण करके एकार्णव के जल में प्रविष्ठ हो सर्वशक्तिमान् सनातन भगवान विष्णु ने उस जल में गिरकर डूबी हुई पर्वत, वन और समुद्रों सहित अपनी महारानी भूदेवी का (दाढ़ या) सींग की सहयाता से मार्कण्डेय मुनि के देखते देखते उद्धार किया। सहस्रों मस्तकों से सुशोभित होने वाले उन भगवान ने सींग (या दाढ़) के द्वारा सम्पूर्ण जगत के हित के लिये इस पृथ्वी का उद्धार करके उसे जगत का एक सुदृढ़ आश्रय बना दिया। इस प्रकार भूत, भविष्य और वर्तमानस्वरूप भगवान यज्ञ वराह ने समुद्र का जलहरण करने वाली भूदेवी का पूर्व काल में उद्धार किया था। उस समय उन देवाधिदेव विष्णु ने समस्त दानवों का संहार किया था यह वराह अवतार का वृत्तान्त बतलाया गया।
नृसिंहावतार
अब नृसिंहावतार का वर्णन सुनो, जिसमें नरसिंह रूप धारण करके भगवान ने हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का वध किया था। राजन्! प्राचीन काल में देतवओं का शत्रु हिरण्यकशिपु समस्त दैत्यों का राजा था। वह बलावान तो था ही, उसे अपने बल का घमंड भी बहुत था। वह तीनों लोकों के लिये कण्टक रूप हो रहा था। पराक्रमी हिरण्यकशिपु धीर और बलवान् था। दैत्यकुल का आदिपुरुष वही था। राजन्! उसने वन में जाकर बड़ी भारी तपस्या की। साढ़े ग्यारह हजार वर्षों तक पूर्वोक्त तपस्या के हेतु भूत जप और उपवास में संलग्न रहने से वह ठूँठे काठ के समान अविचल और दृढ़तापूर्वक मौनव्रत का पालन करने वाला हो गया। निष्पाप नरेश! उसके इतन्दियसंयम, मनोनिग्रह, ब्रह्मचर्य, तपस्या तथा शौच संतोषादि नियमों के पालन से ब्रह्मा जी के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। भूपाल! तदनन्तर स्वयम्भू भगवान ब्रह्मा हंस जुते हुए सूर्य के समान तेजस्वी विमान द्वारा स्वयं वहाँ पधारे। उनके साथ आदित्य, वसु, साध्य, मरुद्गण, देवगतण, रुद्रगण, विश्वेदेव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, दिशा, विदिशा, नदी, समुद्र, नक्षत्र, मुहूर्त, अन्यान्य आकाशचारी ग्रह, तपस्वी देवर्षि, सिद्ध, सप्तर्षि, पुण्यात्मा राजर्षि, गन्धर्व तथा अप्सराएँ भी थीं।
ब्रह्मा जी ने कहा ;- उत्तम व्रत का पालन करने वाले दैत्यराज! तुम मेरे भक्त हो। तुम्हारी इस तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा भला हो। तुम कोई वर माँगो और मनोवच्छित वस्तु प्राप्त करो।
हिरण्यकशिपु बोला ;- सुरश्रेष्ठ! मुझे देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच- कोई भी न मार सके। लोकपितामह! तपस्वी ऋषि-महर्षि कुपित होकर मुझे शाप भी न देें यही वर मैंने माँगा है। न शस्त्र से, न अस्त्र से, न पर्वत से न वृृक्ष से, न सूखे से, न गीले से और न दूसरे ही किसी आयुध से मेरा वध हो। पितामह! न आकाश में, न पृथ्वी पर, न रात में, न दिन में तथा न बाहर और भीतर ही मेरा वध हो सके। पशु या मृग, पक्षी अथवा सरीसृप (सर्प-बिच्छू) आदि से भी मेरी मृत्यु न हो। देवदेव! यदि आप वर दे रहे हैं तो मैं इन्हीं वरो को लेना चाहता हूँ।
ब्रह्माजी ने कहा ;- तात! ये दिव्य और अद्भुत वर मैंने तुम्हें दे दिये। वत्स! इसमें संशय नहीं कि सम्पूर्ण कामनाओं सहित इन मनोवान्छित वरों को तुम अवश्य प्राप्त कर लोगे।
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर भगवान ब्रह्मा आकाश मार्ग से चले गये और ब्रह्मलोक मे जाकर ब्रह्मर्षिगणों से सेवित होकर अत्यन्त शोभा पाने लगे। तदनन्तर देवता, नाग, गन्धर्व और मुनि उस वरदान का समाचार सुनकर ब्रह्मा जी की सभा में उपस्थित हुए।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 8 का हिन्दी अनुवाद)
देवता बोले ;- इस वर के प्रभाव से वह असुर हम लोगों को बहुत कष्ट देगा, अत: आप प्रसन्न होइये और उसके वध का कोई उपाय सोचिये। क्योंकि आप ही सम्पूर्ण भूतों के आदि स्रष्टा, स्वयम्भू, सर्वव्यापी, हव्य-कव्य से निर्माता तथा अव्यक्त प्रकृति और ध्रुवस्वरूप हैं।
भीष्म कहते हैं ;- युधिष्ठिर देवताओं का यह लोकहितकारी वचन सुनकर दिव्यशक्ति सम्पन्न भगवान प्रजापति ने उन सब देवगणों से इस प्रकार कहा।
ब्रह्मा जी ने कहा ;- देवताओ! उस असुर को अपनी तपस्या का फल अवश्य प्राप्त होगा। फल भोग के द्वारा जब तपस्या की समाप्ति हो जायगी, तब भगवान विष्णु स्वयं ही उसका वध करेंगे।
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ब्रह्मा जी के द्वारा इस प्रकार उसके वध की बात सुनकर सब देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने दिव्य धाम को चले गये। दैत्य हिरण्यकशिपु ब्रह्मा जी का वर पाते ही समस्त प्रजा को कष्ट पहुँचाने लगा। वरदान से उसका घमण्ड बहुत बढ़ गया था। वह दैत्यों का राजा होकर राज्य भोगने लगा। झुड के झुंड दैत्य उसे घेरे रहते थे। उसने सातों द्वीपों और अनेक लोक कलोकान्तरों को बलपूर्वक अपने वश में कर लिया। उस महान् असुर ने तीनों लोकों में रहने वाले समस्त देवताओं को जीतकर सम्पूर्ण दिव्य लोकों और वहाँ के दिव्य भोगों पर अधिकार प्राप्त कर लिया। इस प्रकार तीनों लोगों को अपनी अधीन करके वह दैत्य स्वर्ग लोक में निवास करने लगा। वरदान के मद से उन्मत्त हो दानव हिरण्यकशिपु देवलोक का निवासी बन बैठा। तदनन्तर वह महान असुर अन्य समस्त लोकों को जीत कर यह सोचने लगा कि मैं ही इन्द्र हो जाऊँ, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, सूर्य, जल, आकाश, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, क्रोध, काम, वरुण, वसुगण, अर्यमा, धन देने वाले धनाध्यक्ष, यक्ष और किम्पुरुषों का स्वामी- ये सब मैं ही हो जाऊँ। ऐसा सोचकर उसने स्वयं ही बलपूर्वक उन-उन पदों पर अधिकार जमा लिया। उनके स्थान ग्रहण करके उन सबके कार्य वह स्वयं देखने लगा।
उत्तम देवर्षिगण श्रेष्ठ यज्ञों द्वारा जिन देवताओं का यजन करते थे, उन सबके स्थान पर वह स्वयं ही यज्ञभाग का अधिकारी बन बैठा। नरक में पड़े हुए सब जीवों को वहाँ से निकालकर उसने स्वर्ग का निवासी बना दिया। बलवान दैत्यराज ने ये सब कार्य करके मुनियों के आश्रमों पर धावा किया और कठोर व्रत का पालन करने वाले सत्यधर्म परायण एवं जितेन्द्रिय महाभाग मुनियों को सताना आरम्भ किया। उसने दैत्यों को यज्ञ का अधिकारी बनाया और देवताओं को उस अधिकार से वन्छित कर दिया। जहाँ-जहाँ देवता जाते थे, वहाँ-वहाँ वह उनका पीछा करता था। देवताओं के सारे स्थान हड़पकर वह स्वयं ही त्रिलोकी के राज्य का पालन करने लगा। उस दुरात्मा के राज्य करते पाँच करोड़ इकसठ लाख साठ हजार वर्ष व्यतीत हो गये। इतने वर्षों तक दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने दिव्य भोगों और ऐश्वर्य का उपभोग किया। महाबली दैत्यराज हिरण्यकशिपु के द्वारा अत्यन्त पीड़ित हो इन्द्र आदि सब देवता ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्माजी के पास पहुँचकर खेदग्रस्त हो हाथ जोड़कर बोले।
देवताओं ने कहा ;- भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी भगवान पितामह! हम यहाँ आपकी शरण में आये हैं। आप हमारी रक्षा कीजिये। अब हमें उस दैत्य से दिन रात घोर भय की प्राप्ति हो रही है। भगवन! आप सम्पूर्ण भूतों के आदिस्रष्टा, स्वयम्भू, सर्वव्यापी, हव्य कव्यों के निर्माता, अव्यक्त प्रकृति एवं नित्य स्वरूप हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 9 का हिन्दी अनुवाद)
ब्रह्मा जी बोले ;- देवताओ! सुनो, ऐसी विपत्ति को समझना मेरे लिये भी अत्यनत कठिन है। अन्तर्यामी भगवान नारायण ही हमारी सहायता कर सकते हैं। वे विश्वरूप, महातेजस्वी, अव्यक्तस्वरूप, सर्वव्यापी, अविनाशी तथा सम्पूर्ण भूतों के लिये अचिन्त्य हैं। संकट काल में मेरे और तुम्हारे वे ही परम गति हैं। भगवान नारायण अव्यक्त से परे हैं और मेरा आविर्भाव अव्यक्त से हुआ है। मुझसे समस्त प्रजा सम्पूर्ण लोक तथा देवता और असुर भी उत्पन्न हुए हैं। देवताओ! जैसे मैं तुम लोगों का जनक हूँ, उसी प्रकार भगवान नारायण मेेरे जनक हैं। मैं सबका पितामह हूँ और वे भगवान विष्णु प्रपितामह हैं। देवताओं! इस हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का वे विष्णु ही संहार करेंगे। उनके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है, अत: सब लोग उन्हीं की शरण में जाओ, विलम्ब न करो।
भीष्म कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! पितामह ब्रह्मा का यह वचन सुनकर सब देवता उनके साथ ही क्षीर समुद्र के तट पर गये। आदित्य, मरुद्गण, साध्य, विश्वेदेव, वसु, रुद्र, महर्षि, सुन्दर रूप वाले अश्विनी कुमार तथा अन्यान्य जो दिव्य योनि के पुरुष हैं, वे सब अर्थात अपने गणों सहित समस्त देवता चतुर्मुख ब्रह्मा जी को आगे करके श्वेतद्वीप में उपस्थित हुए। क्षीरसमुद्र के तट पर पहुँचकर सब देवता अनन्त नामक शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले अनन्त एवं उद्दीप्त तेज से प्रकाशमान उन शरणागत वत्सल सनातन देवता श्रीविष्णु के सम्मुख उपस्थित हुए, जो सबके सनातन परम गति हैं। वे प्रभु देवस्वरूप, वेदमय, यज्ञरूप, ब्राह्मण को देवता मानने वाले, महान् बल और पराक्रम के आश्रय, भूत, वर्तमान और भविष्य रूप, सर्वसमर्थ, विश्ववन्दित, सर्वव्यापी, दिव्य शक्तिसम्पन्न तथा शरणागत रक्षक हैं। वे सब देवता उन्हीं भगवान नारायण की शरण में गये।
देवता बोले ;- देवेश्वर! आज आप हिरण्यकशिपु का वध करके हमारी रक्षा कीजिये। सुरश्रेष्ठ! आप ही हमारी और ब्रह्मा आदि के भी धारण पोषण करने वाले परमेश्वर हैं। खिले हुए कमल दल के समान नेत्रों वाले नारायण! आप शत्रुपक्ष को भय प्रदान करने वाले हैं। प्रभो! आज आप दैत्यों का विनाश करने के लिये उद्यत हो हमारे शरणदाता होइये।
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! देवताओं की यह बात सुनकर पवित्र कीर्ति वाले भगवान विष्णु ने उस समय सम्पूर्ण भूतों से अदृश्य रहकर बोलना आरम्भ किया।
श्रीभगवान बोले ;- देवताओं! भय छोड़ दो। मैं तुम्हें अभय देता हूँ। देवगण! तुम लोग अविलम्ब स्वर्गलोक में जाओ और पहले की ही भाँति वहाँ निर्भय होकर रहो। मैं वरदान पाकर घमंड में भरे हुए दानवराज हिरण्यकशिपु को, जो देवेश्वरों के लिये भी अवध्य हो रहा है, सेवकों सहित अभी मार डालता हूँ।
ब्रह्मा जी ने कहा ;- भूत, भविष्य, और वर्तमान के स्वामी नारायण! ये देवता बहुत दुखी हो गये हैं, अत: आप दैत्यराज हिरण्यकशिपु को शीघ्र मार डालिये। उसकी मृत्यु का समय आ गया है, इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये।
श्रीभगवान बोले ;- ब्रह्मा तथा देवताओं! मैं शीघ्र ही उस दैत्य का नाश करूँगा, अत: तुम सब लोग अपने-अपने दिव्यलोक में जाओ।
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने देवेश्वरों को विदा करके आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का सा बनाकर नरसिंह विग्रह धारण करके एक हाथ से दूसरे हाथ को रगड़ते हुए बड़ा भयंकर रूप बना लिया। वे महातेजस्वी नरसिंह मुँह बाये हुए काल के समान जान पड़ते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 10 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! तदनन्तर भगवान विष्णु हिरण्यकशिपु के पास गये। नृसिंहरूपधारी महाबली भगवान श्रीहरि को आया देख दैत्यों ने कुपित होकर उन पर अस्त्र शस्त्रों की वर्षा आरम्भ की। उनके द्वारा चलाये हुए सभी शस्त्रों को भगवान खा गये, साथ ही उन्होंने उस युद्ध में कई हजार दैत्यों का संहार का डाला। क्रोध में भरे हुए उन सभी महाबलवान दैत्येश्वरों का विनाश करके अत्यन्त कुपित हो भगवान ने बलोन्मत्त दैत्यराज हिरण्यकशिपु पर धावा किया। भगवान नृसिंह की अंगकान्ति मेघों की घटा के समान श्याम थी। वे मेघों की गम्भीर गर्जना के समान दहाड़ रहे थे। उनका उद्दीप्त तेज भी मेघों के ही समान शोभा पाता था और वे मेघों के ही समान महान् वेगशाली थे। भगवान नृसिंह को आया देख देवताओं से द्वेष रखने वाला दुष्ट दैत्य हिरण्यकशिपु उनकी ओर दौड़ा। कुपित सिंह के समान पराक्रमी उस अत्यन्त बलशाली, दर्पयुक्त एवं दैत्यगणों से सुरक्षित दैत्य को सामने आया देख महातेजस्वी भगवान नृसिंह ने नखों के तीखे अग्रभागों के द्वारा उस दैत्य के साथ घोर युद्ध किया। फिर संध्याकाल आने पर बड़ी उतावली के साथ उसे पकड़कर वे राजभवन की देहली पर बैठ गये।
तदनन्तर उन्होंने अपनी जाँघों पर दैत्यराज को रखकर नखों से उसका वक्ष:स्थल विदीर्ण कर डाला। सुरश्रेष्ठ श्रीहरि ने वरदान से घमंड में भरे हुए महाबली महापराक्रमी दैत्यराज को बड़े वेग से मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकशिपु तथा उसके अनुयायी सब दैत्यों का संहार करके महातेस्वी भगवान श्रीहरि ने देवताओं तथा प्रजाजनों का हितसाधन किया और इस पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करके वे बड़े प्रसन्न हुए। पाण्डुनन्दन! यह मैंने तुम्हें संक्षेप से नृसिंहावतार की कथा सुनायी है।
वामनावतार
अब तुम परमात्मा श्रीहरि के वामन अवतार का वृत्तान्त सुनो।
राजन्! प्राचीन त्रेतायुग की बात है, विरोचनकुमार बलि दैत्यों के राजा थे। बल में उनके समान दूसरा कोई नहीं था। बलि अत्यन्त बलावान होने के साथ ही महान् वीर भी थे। महाराज! दैत्य समूह से घिरे हुए बलि ने बड़े वेग से इन्द्र पर आक्रमण किया और उन्हें जीतकर इन्द्रलोक पर अधिकार प्राप्त कर लिया। राजा बलि के आक्रमण से अत्यन्त त्रस्त हुए इन्द्र आदि देवता ब्रह्मा जी को आगे करके क्षीरसागर के तट पर गये और सबने मिलकर देवाधिदेव भगवान नारायण का स्तवन किया। देवताओं के स्तुति करने पर श्रीहरि ने उन्हें दर्शन दिया और कहा जाता है, उन पर कृपा प्रसाद करने के फलस्वरूप भगवान का अदिति के गर्भ से प्रादुर्भाव हुआ। जो इस समय यदुकुल को आनन्दित कर रहे हैं, ये ही भगवान श्रीकृष्ण पहले अदिति के पुत्र होकर इन्द्र के छोटे भाई विष्णु (या उपेन्द्र) के नाम से विख्यात हुए। उन्हीं दिनों महापराक्रमी दैत्यराज बलि ने क्रतुश्रेष्ठ अश्वमेध के अनुष्ठान की तैयारी आरम्भ की। युधिष्ठिर! जब दैत्यराज का यज्ञ आरम्भ हो गया, उस समय भगवान विष्णु ब्राह्मण वेषधारी वामन ब्रह्मचारी के रूप में अपने को छिपाकर सिर मुँड़ाये, यज्ञोपवीत, काला मृगचर्म और शिखा धारण किये, हाथ में पलाश का डंडा लिये उस यज्ञ में गये। उस समय भगवान वामन की अद्भुत शोभा दिखायी देती थी। बलि के वर्तमान यज्ञ में प्रवेश करके उन्होंने दैत्यराज से कहा,,
भगवान वामन बोले ;- ‘मुझे तीन पग भूमि दक्षिणारूप में दीजिये। केवल तीन पग भूमि मुझे दे दीजिये’ ऐसा कहकर उन्होंने महान असुर बलि से याचना की। बलि ने भी ‘तथास्तु’ कहकर श्रीविष्णु को भूमि दे दी।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 11 का हिन्दी अनुवाद)
बलि से वह भूमि पाकर भगवान विष्णु बड़े वेग से बढ़ने लगे। राजन्! वे पहले तो बालक जैसे लगते थे, किंतु उन्होंने बढ़कर तीन ही पगों में स्वर्ग, आकाश और पृथ्वी सबको माप लिया। इस प्रकार बलवान राजा बलि के यज्ञ में जब महाबली भगवान विष्णु ने केवल तीन पगों द्वारा त्रिलोकी को नाप लिया, तब किसी से भी क्षुब्ध न किया जा सकने वाले महान असुर क्षुब्ध हो उठे। राजन्! उनमें विप्रचित्त आदि दानव प्रधान थे। क्रोध में भरे हुए उन महाबली दैत्यों के समुदाय अनेक प्रकार के वेषधारण किये वहाँ उपस्थित थे। उनके मुख अनेक प्रकार के दिखायी देते थे। वे सब-के-सब विशालकाय थे। उनके हाथों में भाँति-भाँति के अस्त्र शस्त्र थे। उन्होंने विविध प्रकार की मालाएँ तथा चन्दन धारण कर रखे थे। वे देखने में बड़े भयंकर थे और तेज से मानो प्रज्वलित हो रहे थे। भरतनन्दन! जब भगवान विष्णु ने तीनों लोकों को मापना आरम्भ किया, उस समय सभी दैत्य अपने-अपने आयुध लेकर उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। भगवान ने महाभयंकर रूप धारण करके उन सब दैत्यों को लातों-थप्पड़ों से मारकर भूमण्डल का सारा राज्य उनसे शीघ्र छीन लिया। उनका एक पैर आकाश में पहुँचकर आदित्य मण्डल में स्थित हो गया। भूतात्मा भगवान श्रीहरि उस समय अपने तेज से सूर्य की अपेक्षा बहुत बढ़ चढ़कर प्रकाशित हो रहे थे। महाबली महाबाहु भगवान विष्णु सम्पूर्ण दिशाओं विदिशाओं तथा समस्त लोकों को प्रकाशित करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे।
जिस समय वे वसुधा को अपने पैरों से माप रहे थे, उस समय वे इतने बड़े कि चन्द्रमा और सूर्य उनकी छाती के सामने आ गये थे। जब वे आकाश को लाँघने लगे तब वे ही चन्द्रमा और सूर्य उनके नाभिदेश में आ गये। जब वे आकाश या स्वर्ग लोक से भी ऊपर को पैर बढ़ाने लगे, उस समय उनका रूप इतना विशाल हो गया कि सूर्य और चन्द्रमा उनके घुटनों में स्थित दिखायी देने लगे। इस प्रकार ब्राह्मण लोग अमितपराक्रमी भगवान विष्णु के उस विशाल रूप का वर्णन करते हैं। युधिष्ठिर! भगवान का पैर ब्रह्माण्डकपाल तक पहुँच गया और उसके आघात से कपाल में छिद्र हो गया, जिससे झर-झर करके एक नदी प्रकट हो गयी, जो शीघ्र ही नीचे उतरकर समुद्र में जा मिली। सागर में मिलने वाली वह पावन सरिता ही गंगा है। भगवान श्री हरि ने बड़े-बड़े दानवों को मारकर सारी पृथ्वी उनके अधिकार से छीन ली और तीनों लोकों के साथ सारी आसुरी सम्पदा का अपहरण करके उन असुरों को स्त्री पुत्रों सहित पाताल में भेज दिया।
नमुचि, शम्बर और महामना प्रह्लाद भगवान के चरणों के स्पर्श से पवित्र हो गये। भगवान ने उनको भी पाताल में भेज दिया। राजन्! भूतात्मा भगवान श्रीहरि ने अपने श्रीअंगों में विशेष रूप से पंचमहाभूतों तथा भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कालों का दर्शन कराया। उनके शरीर में सारा संसार इस प्रकार दिखायी देता था, मानो उसमें लाकर रख दिया गया है। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो उन परमात्मा से व्याप्त न हो। परमेश्वर भगवान विष्णु के उस रूप को देखकर उनके तेज से तिरस्कृत हो देवता, दानव और मानव सभी मोहित हो गये। अभिमानी राजा बलि को भगवान ने यज्ञमण्डप में ही बाँध लिया और विरोचन के समस्त कुल को स्वर्ग से पाताल में भेज दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 12 का हिन्दी अनुवाद)
गरुड़वाहन भगवान विष्णु को अपने परेमश्वरीय तेज से उपर्युक्त कर्म करके भी अहंकार नहीं हुआ। दानवसूदन श्रीविष्णु ने शचीपति इन्द्र को समस्त देवताओं का अधिपत्य देकर त्रिलोकी का राज्य भी उन्हें दे दिया। इस प्रकार परमात्मा श्रीहरि के वामन अवतार का वृत्तान्त संक्षेप से तुम्हें बताया गया।
वेदवेत्ता ब्राह्मण भगवान विष्णु के इस सुयश का वर्णन करते हैं। युधिष्ठिर! अब तुम मनुष्यों में श्रीहरि के जो अवतार हुए हैं, उनका वृत्तान्त सुनो।
महाराज! अब मैं पुन: भगवान विष्णु के दत्तात्रेय नामक अवतार का वर्णन करता हूँ।
दत्तात्रेय अवतार
दत्तात्रेय महान् यशस्वी महर्षि थे। एक समय की बात है, सारे वेद नष्ट से हो गये। वैदिक कर्मों और यज्ञ-यागादिकों का लोप हो गया। चारों वर्ण एक में मिल गये और सर्वत्र वर्णसंकरता फैल गयी। धर्म शिथिल हो गया एवं अधर्म दिनों दिन बढ़ने लगा। सत्य दब गया और सब और असत्य ने सिक्का जमा लिया। प्रजा क्षीण होने लगी और धर्म को अधर्म द्वारा हर तरह से पीड़ा (हानि) पहुँचने लगी। ऐसे समय में महात्मा दत्तात्रेय ने यज्ञ और कर्मानुष्ठान की विधि सहित सम्पूर्ण वेदों का पुनरुद्धार किया और पुन: चारों वर्णों को पृथक-पृथक अपनी अपनी मर्यादा में स्थापित किया। इन्होंने ही हैहयराज अर्जुन को वर दिया था। दैहहयराज अर्जुन ने अपनी सेवाओं द्वारा दत्तात्रेय जी को प्रसन्न कर लिया था। वह अच्छी तरह सेवा में संलग्न हो वन में मुनिवर दत्तात्रेय की परिचर्या में लगा रहता था। उसने दूसरों का दोष देखना छोड़ दिया था। वह ममता और अहंकार से रहित था। उसने दीर्घकाल तक दत्तात्रेय जी की अराधना करके उन्हें संतुष्ट किया। दत्तात्रेय जी आप्त पुरुषों से भी बढ़कर आप्त पुरुष थे। बड़े-बड़े विद्वान उनकी सेवा में रहते थे। विद्वानु सहस्रबाहु अर्जुन ने उन ब्रह्मर्षि से ये निम्नांकित वर प्राप्त किये। अमरत्व छोड़कर उसके माँगे हुए सभी वर विद्वान ब्राह्मण दत्तात्रेय जी ने दे दिये। उसने चार वरों के लिये महर्षि से प्रार्थना की थी और उन चारों का ही महर्षि ने अभिनन्दन किया था।
वे वर इस प्रकार हैं,,,-
हैहयराज बोला ;- ‘मैं श्रीमान्, मनस्वी, बलवान, सत्यवादी, अदोषदर्शी तथा सहस्र भुजाओं से विभूषित होऊँ, यह मेरे लिये पहला वर है। मैं जरायुज और अण्डज जीवों के साथ-साथ समस्त चराचर जगत का धर्मपूर्वक शासन करना चाहता हूँ मेरे लिये दूसरा वह यही हो। मैं अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा ब्राह्मण अतिथियों का यजन करूँ और जो लोग मेरे शत्रु हैं, उन्हें समरांगण में तीखे बाणों द्वारा मारकर यमलोक पहुँचा दूँ। भगवन दत्तात्रेय! मेरे लिये यही तीसरा वर हो। जिसके समान इहलोक या स्वर्गलोक में कोई पुरुष न था, न है और न होगा ही, वही मेरा वध करने वाला हो (यह मेरे लिये चौथा वर हो)।' वह अर्जुन राजा कृतवीर्य का ज्येष्ठ पुत्र था युद्ध में महान शौर्य का परिचय देता था। उसने माहिष्मती नगरी में दस लाख वर्षों तक निरन्तर अभ्युदयशील होकर राज्य किया। जैसे आकाश में सूर्य देव सदा प्रकाशमान होते हैं, उसी प्रकारकृतवीर्य अर्जुन सारी पृथ्वी और समुदी द्वीपों को जीतकर इस भूतल पर अपने पुण्यकर्मों से प्रकाशित हो रहा था। शक्तिशाली सहस्रबाहु ने इन्द्रद्वीप, कशेरुद्वीप, ताम्रद्वीप, गभस्तिमान द्वीप, गन्धर्वद्वीप, वरुणद्वीप और सौम्याक्ष द्वीप को, जिन्हें उसके पूर्वजों ने भी नहीं जीता था, जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। उसका श्रेष्ठ राजभवन बहुत ही सुन्दर और सारा का सारा सुवर्णमय था। उसने अपने राज्य की आय को चार भागों में बाँट रखा था और इस विभाजन के अनुसार ही वह प्रजा का पालन करता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 13 का हिन्दी अनुवाद)
वह उस आय के एक अंश के द्वारा सेना का संग्रह और संरक्षण करता था, दूसरे अंश के द्वारा गृहस्थी का खर्च चलाता था तथा उसका जो तीसरा अंश था, उसके द्वारा राजा अर्जुन प्रजाजनों की भलाई के लिये यज्ञों का अनुष्ठान करता था। वह सबका विश्वासपात्र और परम कल्याणकारी था। वह राजकीय आय के चौथे अंश के द्वारा गाँवों और जंगलों में डाकुओं और लुटेरों को शासनपूर्वक रोकता था। कार्तवीर्यकुमार अर्जुन उसी धन को अच्छा मानता था, जिसे उसने अपने बल-पराक्रम द्वारा प्राप्त किया हो। काक या मूषकवृत्ति से जो लोग प्रजा के धन का अपहरण करते थे, उन सबको वह नष्ट कर देता था। उसके राज्य के भीतर गाँवों तथा नगरों में घर के दरवाजे बंद नहीं किये जाते थे।
राजन! कार्तवीर्य अर्जुन ही समूचे राष्ट्र का पोषक, स्त्रियों का संरक्षक, बकरियों की रक्षा करने वाला तथा गौओं का पालक था। वही जंगलों में मनुष्यों के खेतों की रक्षा करता था। यह है कृतवीर्य का अद्भुत कार्य, जिसकी मनुष्यों से तुलना नहीं हो सकती है। न पहले का कोई राजा कृतवीर्य की किसी महत्ता को प्राप्त कर सका और न भविष्य में ही कोई प्राप्त कर सकेगा। वह जब समुद्र में चलता था, तब उसका वस्त्र नहीं भींगता था। राजा अर्जुन दत्तात्रेय जी के कृपा प्रसाद से लाखों वर्ष तक पृथ्वी पर शासन करते हुए इस प्रकार राज्य का पालन करता रहा। इस प्रकार उसने लोकहित के लिये बहुत से कार्य किये। भरतश्रेष्ठ! यह मैंने भगवान विष्णु के दत्तात्रेय नामक अवतार का वर्णन किया।
परशुराम अवतार
भगवान का वह अवतार जामदग्न्य (परशुराम) के नाम से विख्यात है। उन्होंने किसलिये और कब भृगुकुल में अवतार ग्रहण किया, वह प्रसंग बतलाता हूँ, सुनो।
महाराज युधिष्ठिर! महर्षि जमदग्नि के पुत्र परशुराम बड़े पराक्रमी हुए हैं। बलवानों में श्रेष्ठ परशुराम जी ने ही हैहयवंश का संहार किया था। महापराक्रमी कार्तवीर्य अर्जुन बल में अपना सानी नहीं रखता था, किंतु अपने अनुचित बर्ताव के कारण जमदग्निनन्दन परशुराम के द्वारा मारा गया। शत्रुसूदन हैहयराज कार्तवीर्य अर्जुन रथ पर बैठा था, परंतु युद्ध में पराशुराम जी ने उसे नीचे गिराकर मार डाला। ये भगवान गोविन्द ही पराक्रम परशुराम रूप से भृगुवंश में अवतीर्ण हुए थे। ये ही जम्भासुर का मस्तक विदीर्ण करने वाले तथा शतदुन्दुभि के घातक हैं। इन्होंने सहस्रों विजय पाने वाले सहस्रबाहु अर्जुन का युद्ध में संहार करने के लिये ही अवतार लिया था। महायशस्वी परशुराम ने केवल धनुष की सहायता से सरस्वती नदी के तट पर एकत्रित हुए छ: लाख चालीस हजार क्षत्रियों पर विजय पायी थी। वे सभी क्षत्रिय ब्राह्मणों से द्वेष करने वाले थे। उनका वध करते समय नरश्रेष्ठ परशुराम ने और भी चौदह हजार शूरवीरों का अन्त कर डाला। तदनन्तर शत्रुदमन राम ने दस हजार क्षत्रियों का और वध किया। इसके बाद उन्होंने हजारों वीरों को मूसल से मारकर यमलोक पहुँचा दिया तथा सहस्रों को फरसे से काट डाला। भृगुनन्दन परशुराम ने चौदह हजार क्षत्रियों को क्षण मात्र में मार गिराया तथा शेष ब्रह्मद्रोहियों का भी मूलोच्छेद करके स्नान किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 14 का हिन्दी अनुवाद)
क्षत्रियों से पीड़ित होकर ब्राह्मण ने ‘राम-राम’ कहकर आर्तनाद किया था, इसीलिये सर्वविजयी परशुराम ने पुन: फरसे से दस हजार क्षत्रियों का अन्त किया। जिस समय द्विज लोग 'भृगुनन्दन परशुराम! दौड़ो, बचाओ’ इत्यादि बातें कहकर करुणक्रन्दन करते, उस समय उन पीड़ितों द्वारा कही हुई वह आर्तवाणी परशुराम जी नहीं सहन कर सके। उन्होंने काश्मीर, दरद, कुन्तिभोज, क्षुद्रक, मालव, शक, चेदि, काशि, करूष, ऋषिक, क्रथ, कैशिक, अंग, वंग, कलिंग, मागध, काशी, कोसल, रात्रायण, वीतिहोत्र, किरात, तथा मार्तिकावत- इनको तथा अन्य सहस्रों राजेश्वरों को प्रत्येक देश में तीखे बाणों से मारकर यमराज के भेंट कर दिया। मेरु और मन्दर पर्वत जिसके आभूषण हैं, वह पृथ्वी करोड़ों क्षत्रियों की लाशों से पट गयी। एक-दो बार नहीं, इक्कीस बार परशुराम ने यह पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी।
तदनन्तर महाबाहु परशुराम ने प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान करके सौ वर्षों तक सौभ नामक विमान पर बैठे हुए राजा शाल्व के साथ युद्ध किया। भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तदनन्तर सुन्दर रथ पर बैठकर सौभ विमान के साथ युद्ध करने वाले शक्तिशाली वीर भृगुश्रेष्ठ परशुराम ने गीत गाती हुई नग्निका कुमारियों के मुख से यह सुना- ‘राम! राम! महाबाहो! तुम भृगुवंशी की कीर्ति बढ़ाने वाले हो, अपने सारे अस्त्र शस्त्र नीचे डाल दो। तुम सौभ विमान का नाश नहीं कर सकोगे। भयभीतों को अभय देने वाले चक्रधारी गदापाणि भगवान श्रीविष्णु प्रद्युम्न और साम्ब को साथ लेकर युद्ध में सौभ विमान का नाश करेंगे।' यह सुनकर पुरुषसिंह परशुराम उसी समय वन को चल दिये। राजन्! वे महायशस्वी मुनि कृष्णावतार के समय की प्रतीक्षा करते हुए अपने सारे अस्त्र शस्त्र, रथ, कवच, आयुध बाण, परशु और धनुष जल में डालकर बड़ी भारी तपस्या में लग गये। शत्रुओं का नाश करने वाले धर्मात्मा परशुराम ने लज्जा, प्रज्ञा, श्री, कीर्ति और लक्ष्मी- इन पाँचों का आश्रय लेकर अपने पूर्वोक्त रथ को त्याग दिया। आदि काल में जिसकी प्रवृत्ति हुई थी, उस काल का विभाग करके भगवान परशुराम ने कुमारियों की बात पर श्रद्धा होने के कारण ही सौभ विमान का नाश नहीं किया, असमर्थता के कारण नहीं। जमदग्निनन्दन परशुराम के नाम से विख्यात वे महर्षि, जो विश्वविदित ऐश्वर्यशाली महर्षि हैं, वे इन्हीं श्रीकृष्ण के अंश है, जो इस समय तपस्या कर रहे हैं।
श्रीराम अवतार
राजन्! अब महात्मा भगवान विष्णु के साक्षात् स्वरूप श्रीराम के अवतार का वर्णन सुनो, जो विश्वामित्र मुनि को आगे करके चलने वाले थे।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अविनाशी भगवान महाबाहु विष्णु ने अपने आपको चार स्वरूपों में विभक्त करके महराज दशरथ के सकाश से अवतार ग्रहण किया था। वे भगवान सूर्य के समान तेजस्वी राजकुमार लोक में श्रीराम के नाम से विख्यात हुए। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! जगत को प्रसन्न करने तथा धर्म की स्थापना के लिये ही महायशस्वी सनातन भगवान विष्णु वहाँ प्रकट हुए थे। मनुष्यों के स्वामी भगवान श्रीराम को साक्षात् सर्वभूतपति श्रीहरि का ही स्वरूप बतलाया जाता है। भारत! उस समय विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न डालने के कारण राक्षस सुबाहु श्रीरामचन्द्र जी के हाथों मारा गया और मारीच नामक राक्षस को भी बड़ी चोट पहुँची। परम बुद्धिमान विश्वामित्र मुनि ने देवशत्रु राक्षसों का वध करने के लिये श्रीरामचन्द्र जी को ऐसे-ऐसे दिव्यास्त्र प्रदान किये थे, जिनका निवारण करना देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन था।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 15 का हिन्दी अनुवाद)
बउन्हीं दिनों महात्मा जनक के यहाँ धनुषयज्ञ हो रहा था, उसमें श्रीराम ने भगवान शंकर के महान् धनुष को खेल खेल में ही तोड़ डाला। तदनन्तर सीता जी के साथ विवाह करके रघुनाथ जी अयौध्यापुरी में लौट आये और वहाँ सीता जी के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे। कुछ काल के पश्चात पिता की आज्ञा पाकर वे अपनी विमाता महारानी कैकेयी का प्रिय करने की इच्छा से वन में चले गये। वहाँ सब धर्मों के ज्ञाता और समस्त प्राणियों के हित में तत्पर श्रीरामचन्द्र जी ने लक्ष्मण के साथ चौदह वर्षों तक वन में निवास किया। भरतवंशी राजन्! चौदह वर्षों तक उन्होंने वन में तपस्यापूर्वक जीवन बिताया। उनके साथ उनकी अत्यन्त रूपवती धर्मपत्नी भी थीं, जिन्हें लोग सीता कहते थे। अवतार के पहले श्री विष्णु रूप में रहते समय भगवान के साथ उनकी जो योग्यतमा भार्या लक्ष्मी रहा करती हैं, उन्होंने ही उपयुक्त होने के कारण श्रीरामावतार के समय सीता के रूप में अवतीर्ण हो अपने पतिदेव का अनुसरण किया था। भगवान श्रीराम जनस्थान में रहकर देवताओं के कार्य सिद्ध करते थे।
धर्मात्मा श्रीराम ने प्रजाजनों के हित की कामना से भयानक कर्म करने वाले चौदह हजार राक्षसों का वध किया। जिनमें मारीच, खर-दूषण और त्रिशिरा आदि प्रधान थे। उन्हीं दिनों दो शापग्रस्त गन्धर्व क्रूरकर्मा राक्षसों के रूप में वहाँ रहते थे, जिनके नाम विरोध और कबन्ध थे। श्रीराम ने उन दोनों का भी संहार कर डाला। उन्होंने रावण की बहिन शूर्पणखा की नाक भी लक्ष्मण के द्वारा कटवा दी, इसी के कारण (राक्षसों के षड्यन्त्र से) उन्हें पत्नी का वियोग देखना पड़ा। तब वे सीता की खोज करते हुए वन में विचरने लगे। तदनन्तर ऋष्यमूक पर्वत पर जा पम्पासरोवर को लाँघकर श्रीराम जी सुग्रीव और हनुमान जी से मिले और उन दोनों के साथ उन्होंने मैत्री स्थापित कर ली। तत्पश्चात श्रीरामचन्द्र जी ने सुग्रीव के साथ किष्किन्धा में जाकर महाबली वानरराज बाली को युद्ध में मारा और सुग्रीव को वानरों के राजा के पद पर अभिषिक्त कर दिया।
राजन्! तदनन्दर पराक्रमी श्रीराम सीता जी के लिये उत्सुक्त हो बड़ी उतावली के साथ उनकी खोज कराने लगे। वायुपुत्र हनुमान जी ने पता लगाकर यह बतलाया कि सीता जी लंका में हैं। तब समुद्र पर पुल बाँधकर वानरों सहित श्रीराम ने सीता जी के स्थान का पता लगाते हुए लंका में प्रवेश किया। वहाँ देवता, नागगण, यक्ष, राक्षस तथा पक्षियों के लिये अवध्य और युद्ध में दुर्जय राक्षसराज रावण करोड़ों राक्षसों के साथ रहता था। वह देखने में खान से खोदकर निकाले हुए कोयले के ढेर के समान जान पड़ता था। देवताओं के लिये उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी कठिन था। ब्रह्मा जी से वरदान मिलने से उसका घमंड बहुत बढ़ गया था। श्रीराम ने त्रिलोकी के लिये कण्टक रूप महाबली विशालकाय वीर रावण को उसके मन्त्रियों और वंशजों सहित युद्ध में मार डाला। इस प्रकार सम्पूर्ण भूतों के स्वामी श्रीरघुनाथ जी ने प्राचीन काल में रावण को सेवकों सहित मारकर लंका के राज्य पर राक्षसपति महात्मा विभीषण का अभिषेक करके उन्हें वहीं अमरत्व प्रदान किया। पाण्डुनन्दन! तत्पश्चात श्रीराम ने पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो सीता को साथ ले दलबल सहित अपनी राजधानी में जाकर धर्मपूर्वक राज्य का पालन किया। राजन्! उन्हीं दिनों मथुरा में मधु का पुत्र लवण नामक दानव राज्य करता था, जिसे रामचन्द्र जी की आज्ञा से शत्रुघ्न ने मार डाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 16 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी ने लोकहित के लिये बहुत से कार्य करके विधिपूर्वक राज्य का पालन किया। उन्होंने दस अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया और सरयू तट के जारुधि प्रदेश को विघ्न बाधाओं से रहित कर दिया। श्रीरामचन्द्र जी के शासन काल में कभी कोई अमंगल की बात नहीं सुनी गयी। उस समय प्राणियों की अकाल मृत्यु नहीं होती थी और किसी को भी धन की रक्षा आदि के निमित्त भय नहीं प्राप्त होता था। विधवाओं का करुण क्रन्दन नहीं सुना जाता था तथा स्त्रियाँ अनाथ नहीं होती थीं। श्रीरामचन्द्रजी के राज्य शासन काल में सम्पूर्ण जगत् संतुष्ट था। किसी भी वर्ण के लोग वर्ण सकंर संतान नहीं उत्पन्न करते थे। कोई मनुष्य ऐसी जमीन के लिये कर नहीं देता था, जो जोतने बोने के काम में न आती हो। बूढ़े लोग बालकों का अन्त्येष्टि संस्कार नहीं करते थे (उनके सामने ऐसा अवसर ही नहीं आता था)। वैश्य लोग क्षत्रियों की परिचर्चा करते थे और क्षत्रिय लोग भी वैश्यों को कष्ट नहीं होने देते थे। पुरुष अपनी पत्नियों की अवहेलना नहीं करते थे और पत्नियां भी पतियों की अवहेलना नहीं करती थीं। श्रीरामचन्द्र जी के राज्य शासन करते समय लोक में खेती की उपज कम नहीं होती थी। लोग सहस्र पुत्रों से युक्त होकर सहस्रों वर्षों तक जीवित रहते थे। श्रीराम के राज्य शासन काल में सब प्राणी नीरोग थे। श्रीरामचन्द्र जी के राज्य में इस पृथ्वी पर ऋषि, देवता और मनुष्य साथ-साथ रहते थे।
राजन्! भूमिपाल श्रीरघुनाथ जी जिन दिनों सारी पृथ्वी का शासन करते थे, उस समय उनके राज्य में लोग पूर्णत: तृप्ति का अनुभव करते थे। धर्मात्माराज राम के राज्य में पृथ्वी पर सब लोग तपस्या में ही लगे रहते थे और सब के सब धर्मानुरागी थी। श्रीराम के राज्य शासन काल में कोई भी मनुष्य अधर्म में प्रवृत्त नहीं होता था। सबके प्राण और अपान समवृत्ति में स्थित थे। जो पुराणवेत्ता विद्वान हैं, वे इस विषय में निम्नांकित गाथा गाया करते हैं- ‘भगवान श्रीराम की अंगकान्ति श्याम है, युवावस्था हैं, उनके नेत्रों में कुछ कुछ लाली है। वे गजराज जैसे पराक्रमी हैं। उनकी भुजाएँ घटनों तक लंबी हैं। मुख बहुत सुन्दर हैं। कंधे सिंह के समान हैं और वे महान बलशाली हैं। उन्होंने राज्य और भोग पाकर ग्यारह हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का शासन किया। प्रजाजनों में ‘राम राम राम’ इस प्रकार केवल राम की ही चर्चा होती थी। राम के राज्य शासन काल में यह सारा जगत राममय हो रहा था। उस समय के द्विज ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के ज्ञान में शून्य नहीं थे। इस प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी ने दण्डकारण्य में निवास करके देवताओं का कार्य सिद्ध किया और पहले के अपराधी पुलस्त्यनन्दन रावण को, जो देवताओं, गन्धर्वों और नागों का शत्रु था, युद्ध में मारा गिराया। इक्ष्वाकु कुल का अभ्युदय करने वाले महाबाहु श्रीराम महान् पराक्रमी, सर्वगुण सम्पन्न और अपने तेज से देदीप्यमान थे। वे इसी प्रकार सेवकों सहित रावण का वध रके राज्य पालन के पश्चात साकेत लोक में पधारे। इस प्रकार परमात्मा दशरथनन्दन श्रीराम के अवतार का वर्णन किया गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 17 का हिन्दी अनुवाद)
कृष्णावतार:
राजन्! तदनन्तर अब अट्ठाईसवें द्वापर में भयभीतों को अभय देने वाले श्रीवत्सविभूषित महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण के रूप में श्रीविष्णु का अवतार हुआ है। ये इस लोक में परम सुन्दर, उदार, मनुष्यों में अत्यन्त सम्मानित, स्मरण शक्ति से सम्पन्न, देश काल के शाता एवं शंख, चक्र, गदा और खड्ग आदि आयुध धारण करने वाले हैं। वासुदेव के नाम से इनकी प्रसिद्धि है। ये सदा सब लोगों के हित में संलग्न रहते हैं। भूदेवी का प्रिय कार्य करने की इच्छा से इन्होंने वृष्णि वंश में अवतार ग्रहण किया है। ये ही मनुष्यों को अभयदान करने वाले हैं। इन्हीं की मधुसूदन नाम से प्रसिद्धि है। इन्होंने ही शकटासुर, यमलार्जुन और पूतना के मर्म स्थानों में आघात करके उनका संहार किया है। मनुष्य शरीर में प्रकट हुए कंस आदि दैत्यों को युद्ध में मार गिराया। परमात्मा का यह अवतार भी लोकहित के लिये ही हुआ है।
कल्क्यवतार:
कलियुग के अन्त में जब धर्म शिथिल हो जायगा, उस समय भगवान श्रीहरि पाखण्डियों के वध तथा धर्म की वृद्धि के लिये और ब्राह्मणों के हित की कामना से पुन: अवतार लेेंगे। उनके उस अवतार का नाम होगा ‘कल्कि विष्णुयशा’। भगवान के ये तथा और भी बहुत से दिव्य अवतार देवगणों के साथ होते हैं, जिनका ब्रह्मवादी पुरुष पुराणों में वर्णन करते हैं।
[दक्षिणात्य प्रति में अध्याय समाप्त]
"श्रीकृष्ण का प्राकट्य तथा श्रीकृष्ण-बलराम की बाललीलाओं का वर्णन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भीष्म जी के इस प्रकार कहने पर आनन्दित करने वाले कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर पुन: उनसे कहा।
युधिष्ठिर बोले ;- वक्ताओं में श्रेष्ठ नरेन्द्र! मैं यशस्वी भगवान विष्णु के वृष्णिवंश में अवतार ग्रहण करने का वृत्तान्त पुन: (विस्तारपूर्वक) जानना चाहता हूँ। पितामह! परम बुद्धिमान भगवान जनार्दन इस पृथ्वी पर मधुवंश में जिस प्रकार उत्पन्न हुए, वह सब प्रसंग मुझसे कहिये। बैल के समान विशाल नेत्रों वाले लोकरक्षक महातेजस्वी श्रीकृष्ण ने किसलिये कंस का वध करके गौओं की रक्षा की? बुद्धिमानों में श्रेष्ठ पितामह! उस समय बाल्यावस्था में बालकोचित क्रीड़ाएँ करते समय भगवान गोविन्द ने क्या-क्या लीलाएँ की? यह सब मुझे बताइये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर महापराक्रमी भीष्म ने मधुवंश में भगवान केशव के अवतार लेने की कथा कहनी आरम्भ की। भीष्म जी बोले- कुरुरत्न युधिष्ठिर! अब मैं वृष्णिवंश में भगवान नारायण के अवतार ग्रहण का यथावत वृत्तान्त कहूँगा। भरत कूलभूषण तात अजातशत्रो! वसुधा की रक्षा करने वाले ये भगवान यहाँ किस प्रकार प्रकट हुए? यह में बतला रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो। भगवान के जन्म के समय आनन्दोद्रेक के कारण समुद्र में उत्ताल तरंगें उठने लगीं, पर्वत हिलने लगे और बुझी हुई अग्रियाँ भी सहसा प्रज्वलित हो उठीं। भगवान जनार्दन के जन्मकाल में शीतल, मन्द एवं सुखद वायु चलने लगी। धरती की धूल शान्त हो गयी और नक्षत्र प्रकाशित होने लगे। आकाश में देवलोक के नगाड़े जोर-जोर से बजने लगे और वेदगण आ-आकर वहाँ फूलों की वर्षा करने लगे। वे मंगलमयी वाणी द्वारा भगवान मधुसूदन की स्तुति करने लगे। भगवान के अवतार का समय जान महर्षिगण भी अत्यन्त प्रसन्न होकर वहाँ आ पहुँचे। नारद आदि देवर्षियों को उपस्थित देख गन्धर्व और अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं। उस समय सहस्र नेत्रों वाले शचीवल्लभ तेजस्वी इन्द्र भगवान गोविन्द की सेवा में उपस्थित हुए और महर्षियों का आदर करते हुए बोले।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 18 का हिन्दी अनुवाद)
इन्द्र ने कहा ;- देव! आप सम्पूर्ण जगत के स्रष्टा हैं। देवताओं के जो कर्तव्य कार्य हैं, उन सबको सम्पूर्ण जगत के हित के लिये सिद्ध करके आप अपने तेज सहित पुन: परमधाम को पधारिये।
भीष्म जी कहते हैं ;- ऐसा कहकर स्वर्गलोक के स्वामी इन्द्र देवर्षियों के साथ अपने लोक को चले गये। राजन्! तदनन्तर वसुदेव जी ने कंस के भय से सूर्य के समान तेजस्वी अपने नवजात बालक श्रीहरि को नन्द गोप के घर में छिपा दिया। श्रीकृष्ण बहुत वर्षों तक नन्दगोप के ही घर में रहे। एक दिन वहाँ शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सोये थे। माता यशोदा उन्हें वहीं छोड़कर यमुना के तट पर चली गयीं। उस समय श्रीकृष्ण शिशुलीला का प्रदर्शन कतरे हुए अपनी हाथ पैर फेंक-फेंककर मधुर स्वर में रोने लगे। पैरों को ऊपर फेंकते समय भगवान केशव ने पैर के अँगूठे से छकड़े को धक्का दे दिया और इस प्रकार एक ही पाँव से छकड़े को उलटकर गिरा दिया। उसके बाद वे स्वयं औंधे मुँह हो गये और माता का स्तन पीने की इच्छा से जोर-जोर से रोने लगे। शिशु के ही पदाघात से छकड़ा उलटकर गिर गया तथा उस पर रखे हुए सभी मटके और घड़े आदि बर्तन चकनाचूर हो गये। यह देखकर सब लोगों बड़ा आश्चर्य हुआ।
भरतनन्दन! शूरसेन देश (मथुरामण्डल) के निवासियों को यह अत्यन्त अद्भुत घटना प्रत्यक्ष दिखायी दी तथा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने (आकाश में स्थित) सब देवताओं के देखते-देखते महान् कार्य एवं विशाल स्तनों वाली पूतना को भी पहले मार डाला था। महाराज! तदनन्तर संकर्षण और विष्णु के स्वरूप बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाई कुछ काल के अनन्तर एक साथ ही घुटनों के बल रेंगने लगे। जैसे चन्द्रमा और सूर्य एक दूसरे की किरणों से बँधकर आकाश में एक साथ विचरते हों, उसी प्रकार बलराम और श्रीकृष्ण सर्वत्र एक साथ चलते फिरते थे। उनकी भुजाएँ सर्प के शरीर की भांँति सुशोभित होती थीं। नरेश्वर! बलराम और श्रीकृष्ण दोनों के अंग धूलि धूसरित होकर बड़ी शोभा पाते। भारत! कभी वे दोनों भाई घुटनों के बल चलते थे, जिससे उनमें घट्ठे पड़ गये थे। कभी वे वन में खेला करते और कभी मथते समय दही की घोल लेकर पीया करते थे।
एक दिन बालक श्रीकृष्ण एकान्त गृह में छिपकर माखन खा रहे थे। उस समय वहाँ उन्हें कुछ गोपियों ने देख लिया। तब उन यशोदा आदि गोपांगनाओं ने एक रस्सी से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया। राजन! उस समय उन्होंने उस ऊखल को यमलार्जुन वृक्षों के बीच में अड़ाकर उन्हें जड़ और शाखाओं सहित तोड़ डाला। वह एक अद्भुत सी घटना घटित हुई। उन वृक्षों पर दो विशालकाय असुर रहा करते थे। वे भी वृक्षों के टूटने के साथ ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठे। तदनन्तर वे दोनों भाई श्रीकृष्ण और बलराम बाल्यावस्था की सीमा को पार करके उस ब्रजमण्डल में ही सात वर्ष की अवस्था वाले हो गये। बलराम नीले रंग के और श्रीकृष्ण पीले रंग के वस्त्र धारण करते थे। एक के श्रीअंगों पर पीले रंग का अंगराग लगता था और दूसरे के श्वेत रंग का। दोनों भाई काकपक्ष (सिर के पिछले भाग में बड़े-बड़े केश) धारण किये बछड़े चराने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 19 का हिन्दी अनुवाद)
उन दोनों की मुखछवि बड़ी मनोहारिणी थी। वे वन में जाकर श्रवण सुखद पर्णवाद्य (पत्तों के बाजे पिपिहरी आदि) बजाया करते थे। वहाँ दो तरुण नागकुमारों की भाँति उन दोनों की बड़ी शोभा होती थी। वे अपने कानों में मोर के पंख लगा लेते, मस्तक पर पल्लवों के मुकुट धारण करते और गले में वनमाला डाल लेते थे। उस समय शाल के नये पौधों की भाँति उन दोनों की बड़ी शोभा होती थी। वे कभी कमल के फूलों के शिरोभूषण धारण करते और कभी बछड़ों की रस्सियों को यज्ञोपवीत की भाँति धारण कर लेते थे। वीरवर श्रीकृष्ण और बलराम छींके और तुम्बी लिये वन में घूमते और गोपजनोचित वेणु बजाया करते थे। वे दोनों भाई कहीं ठहर जाते, कहीं वन में एक दूसरे के साथ खेलने लगते और कहीं शय्या बिछाकर सो जाते तथा नींद लेने लगते थे। राजन्! इस प्रकार के मंगलमय बलराम और श्रीकृष्ण बछड़ों की रक्षा करते तथा उस महान् वन की शोभा बढ़ाते हुए सब ओर घूमते और भाँति-भाँति की क्रीड़ाएँ करते थे। कुन्तीनन्दन! तदनन्तर वे दोनों वसुदेवपुत्र वृन्दावन में जाकर गौएँ चराते हुए लीला विहार करने लगे।
"कालियमर्दन एवं धेनुकासुर, अरिष्टासुर और कंस आदि का वध, श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास तथा गुरु दक्षिणा रूप से गुरु जी को उनके मरे हुए पुत्र को जीवित करके देना"
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर एक दिन मनोहर रूप और सुन्दर मुख वाले भगवान गोविन्द अपने बड़े भाई संकर्षण को साथ लिये बिना ही रमणीय वृन्दावन में चले गये और वहाँ इधर-उधर भ्रमण करने लगे। उन्होंने काक पक्ष धारण कर रखा था। वे परम शोभायमान, श्याम वर्ण तथा कमल के समान सुन्दर नेत्रों से सुशोभित थे। जैसे चन्द्रमा कलंक से युक्त होकर शोभा पाता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण का वक्ष:स्थल श्रीवत्स चिह्न से शोभा पा रहा था। उन्होंने रस्सियों को यज्ञोपवीत की भाँति पहन रखा था। उनके श्रीअंगों पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। विभिन अंगों में श्वेत चन्दन का अनुलेप किया गया था। उनके मस्तक पर काले-घुँघराले केश सुशोभित थे। सिर पर मोरपंख का मुकुट शोभा पाता था, जो मन्द-मन्द वायु के झोंकों से लहरा रहा था। भगवान कहीं गीत गाते, कहीं क्रीड़ा करते, कहीं नाचते और कहीं हँसते थे।
इस प्रकार गोपालोचित वेष धारण किये मधुर गीत गाते और वेणु बजाते हुए तरुण श्रीकृष्ण गौओं को आनन्दित करने के लिये कभी-कभी वन में घूमते थे। अत्यन्त कान्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण वर्षा के समय गोकुल में वहाँ के अतिशय रमणीय प्रदेशों तथा वनश्रेणियों में विचरण करते थे। भरतश्रेष्ठ! उन वनश्रेणियों में भाँति-भाँति के खेल करके श्यामसुन्दर बड़े प्रसन्न होते थे। एक दिन वे गौओं के साथ वन में घूम रहे थे। घूमते-घूमते महात्मा भगवान केशव ने भाण्डीर नामक वटवृख देखा और उसकी छाया में बैठने का विचार किया। निष्पाप युधिष्ठिर! वहाँ श्रीकृष्ण समान अवस्था वाले दूसरे गोप बालकों के साथ बछड़े चराते थे, दिन भर खेल कूद करते थे और पहले दिव्य धाम में जिस प्रकार वे आनन्दित होते थे, उसी प्रकार वन में आनन्दपूर्वक दिन बिताते थे। भाण्डीरवन में निवास करने वाले बहुत से ग्वाले वहाँ क्रीड़ा करते हुए श्रीकृष्ण को अच्छे-अच्छे खिलौनों द्वारा प्रसन्न रखते थे। दूसरे प्रसन्नचित्त रहने वाले गोप, जिन्हें वन में घूमना प्रिय था, सदा श्रीकृष्ण की महिमा का गान किया करते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 20 का हिन्दी अनुवाद)
जब वे गीत गाते, उस समय भगवान श्रीकृष्ण पत्तों के बाजों के बीच-बीच में वेणु, तुम्बी और वीणा बजाया करते थे। इस प्रकार विभिन्न लीलाओं द्वारा श्रीकृष्ण गोपबालकों के साथ खेलते थे। भतरनन्दन! उस समय बालक श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण भूतों के देखते-देखते लोकहित के अनेक कार्य किये। वृन्दावन में कदम्बवन के पास जो हृद (कुण्ड) था, उसमें प्रवेश करके उन्होंने कालिय नाग के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी। फिर सब लोगों के सामने ही कालिय नाग को अन्यत्र जाने का आदेश देकर वे बलदेव जी के साथ वन में इधर-उधर विचरण करने लगे। राजन्! तालवन में धेनुक नामक भयंकर दैत्य निवास करता था, जो गधे का रूप धारण करके रहता था। उस समय वह बलदेव जी के हाथ से मारा गया। कुन्तीनन्दन! तदनन्तर किसी समय सुन्दर मुख वाले बलराम और श्रीकृष्ण अपने बड़े हुए गोधन को चराने के लिये वन में गये। वहाँ वन की शोभा निहारते हुए वे दोनों भाई घूमते, खेलते, गीत गाते और विभिन्न वृक्षों की खोज करते हुए बड़े प्रसन्न होते थे। शत्रुओं को संताप देने वाले वे दोनों अजेय वीर वहाँ गौओं और बछड़ों को नाम ले-लेेकर बुलाते और लोक प्रचलित बालोचित क्रीड़ाएँ करते रहते थे। वे दोनों देववन्दित देवता थे तो भी मानवी दीक्षा ग्रहण करने के कारण मानव जाति के अनुरूप गणों वाली क्रीड़ाएँ करते हुए वन में विचरते थे।
तत्पश्चात महातेजस्वी श्रीकृष्ण गौओं के व्रज में जाकर गोपबालकों द्वारा किये जाने वाले गिरि यज्ञ में सम्मिलित हो वहाँ सर्वभूत स्रष्टा ईश्वर के रूप में अपने को प्रकट करके (गिरिराज के लिये समर्पित) खीर को स्वयं ही खाने लगे। उन्हें देखकर सब गोप भगवद्बुद्धि से श्रीकृष्ण के उस स्वरूप की ही पूजा करने लगे। गोपालों द्वारा पूजित श्रीकृष्ण ने दिव्य रूप धारण कर लिया। शत्रुमर्दन युधिष्ठिर! (जब इन्द्र वर्षा कर रहे थे, उस समय) बालक वासुदेव ने गौओं की रक्षा के लिये एक सप्ताह तक गोवर्धन पर्वत को अपने हाथ पर उठा रखा था। भरतनन्दन! उस समय श्रीकृष्ण ने खेल खेल में ही अत्यन्त दुष्कर कर्म कर डाला, जो सब लोगों के लिय अत्यन्त अद्भुत सा था। देवाधिदेव इन्द्र ने भूतल पर जाकर जब श्रीकृष्ण को (गोवर्धन धारण किये) देखा, तब उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने श्रीकृष्ण को ‘गोविन्द’ नाम देकर उनका (‘गवेन्द्र’ पद पर) अभिषेक किया। देवराज इन्द्र गोविन्द को हृदय से लगाकर उनकी अनुमति ले स्वर्ग लोक को चले गये।
तदनन्तर श्रीकृष्ण ने पशुओं के हित की कामना से वृषभरूपधारी अरिष्ट नामक दैत्य को वेगपूर्वक मार गिराया। राजन्! व्रज में केशी नाम का एक दैत्य रहता था, जिसका शरीर घोड़े के समान था। उसमें दस हजार हाथियों का बल था। कुन्तीनन्दन! उस अश्व रूपधारी दैत्य को भोजकुलोत्पन्न कंस ने भेजा था। वृन्दावन में आने पर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने उसे भी अरिष्टासुर की भाँति मार दिया। कंस के दरबार में एक आन्ध्रदेशीय मल्ल था, जिसका नाम था चाणूर। वह एक महान् असुर था। श्रीकृष्ण ने उसे भी मार डाला। भरतनन्दन! (कंस का भाई) शत्रुनाशक सुनामा कंस की सारी सेना का अगुआ सेनापति था। गोविन्द अभी बालक थे, तो भी उन्होंने सुनामा को मार दिया। भारत! (दंगल देखने के लिये जुटे हुए) जन समाज में युद्ध के लिये तैयार खड़े हुए मुष्टिक नामक पहलवान को बलराम जी ने अखाड़े में ही मार दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 21 का हिन्दी अनुवाद)
युधिष्ठिर! उस समय श्रीकृष्ण ने कंस के मन में भारी भय उत्पन्न कर दिया। हाथियों में श्रेष्ठ कुवलयापीड को, जो ऐरावत कुल में उत्पन्न हुआ था और श्रीकृष्ण को कुचल देना चाहता था, श्रीकृष्ण ने कंस के देखते-देखते ही मार गिराया। फिर शत्रुनाशन श्रीकृष्ण ने सब लोगों के सामने ही कंस को मारकर उग्रसेन को राजपद पर अभिषिक्त कर दिया और अपने माता-पिता देवकी वसुदेव के चरणों में प्रणाम किया। इस प्रकार जनार्दन ने कितने ही अद्भुत कार्य किये और कुछ दिनों तक बलराम जी के साथ वे मथुरा में रहे। तात युधिष्ठिर! तदनन्तर वे दोनों धर्मज्ञ भाई गुरु सान्दीपनि के यहाँ (उज्जयिनीपुरी में) विद्याध्ययन के लिये गये। वहाँ वे गुरुसेवा परायण हो सदा धर्म के ही अनुष्ठान में लगे रहे। वे दोनों महात्मा कठोर व्रत का पालन करते हुए वहाँ रहते थे। उन्होंने चौंसठ दिन रात में ही छहों अंगों सहित सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, उन यदुकुल कुमारों ने लेख्य (चित्रकला), गणित, गान्धर्व वेद तथा सारे वैद्य को भी उतने ही समय के भीतर जान लिया। गजशिक्षा तथा अश्वशिक्षा को तो उन्होंने कुछ बारह दिनों में ही प्राप्त कर लिया। इसके बाद वे दोनों धर्मज्ञ एवं धर्मपरायण वीर धनुर्वेद सीखने के लिये पुन: सान्दीपनि मुनि के पास गये।
राजन्! धनुर्वेद के श्रेष्ठ आचार्य सान्दीपनि के पास जाकर उन दोनों ने प्रणाम किया। सान्दीपनि ने उन्हें सत्कारपूर्वक अपनाया एवं वे फिर अवन्ती में विचरते हुए वहाँ रहने लगे। पचास दिन रात में ही उन दोनों ने दस अंगों से युक्त, सुप्रतिष्ठित एवं रहस्य सहित सम्पूर्ण धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन दोनों भाईयों को अस्त्र विद्या में निपुण देखकर विप्रवर सान्दीपनि ने उन्हें गुरुदक्षिणा देने की आज्ञा दी। सान्दीपनि जी सब विषयों के विद्वान् थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से अपने अभीष्ट मनोरथ की याचना इस प्रकार की।
सान्दीपनि जी बोले ;- मेरा पुत्र इस समुद्र में नहा रहा था, उस समय ‘तिमि’ नामक जलजन्तु उसे पकड़ कर भीतर ले गया और उसके शरीर को खा गया। तुम दोनों का भला हो। मेरे उस मरे हुए पुत्र को जीवित करके यहाँ ला दो।
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इतना कहते-कहते गुरु सान्दीपनि पुत्रशोक से आर्त हो गये। यद्यपि उनकी माँग बहुत कठिन थीं, तीनों लोकों में दूसरे किसी पुरुष के लिये इस कार्य का साधन करना असम्भव था, तो भी श्रीकृष्ण ने उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। भरतश्रेष्ठ! जिसने सान्दीपनि के पुत्र को मारा था, उस असुर को उन दोनों भाइयों ने युद्ध करके समुद्र में मार गिरया। तदनन्तर अमिततेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण के कृपा प्रसाद से सान्दीपनि का पुत्र, जो दीर्घ काल से यमलोक में जा चुका था, पुन: पूर्ववत् शरीर धारण करके जी उठा। वह अशक्य, अचिन्तय और अत्यन्त अद्भुत कार्य देखकर सभी प्राणियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। बलराम और श्रीकृष्ण ने अपने गुरु को सब प्रकार के ऐश्वर्य, गाय, घोड़े और प्रचुर धन सब कुछ दिये। तत्पश्चात गुरुपुत्र को लेकर भगवान ने गुरु जी को सौंप दिया। उस पुत्र को आया देख सान्दीपनि के नगर के लोग यह मान गये कि श्रीकृष्ण के द्वारा यह ऐसा कार्य सम्पन्न हुआ है, जो अन्य सब लोगों के लिये असम्भव और अचिन्तय है। भगवान नारायण के सिवा दूसरा कौन ऐसा पुरुष है, जो इस अद्भुत कार्य को सोचा भी सके (करना तो दूर की बात है)।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 22 का हिन्दी अनुवाद)
भगवान श्रीकृष्ण ने गदा और परिघ के युद्ध में तथा सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्रों के ज्ञान में सबसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लिया। वे समस्त लोकों में विख्यात हो गये। तात युधिष्ठिर! भोजराजकुमार कंस की अस्त्र ज्ञान, बल और पराक्रम में कार्तवीर्य अर्जुन की समानता करता था। भोजवंस के राज्य की वृद्धि करने वाले भोज राजकुमार कंस से भूमण्डल के सब राजा उसी प्रकार उद्विग्न रहते थे, जैसे गरुड़ से सर्प। भरतनन्दन! उसके यहाँ धनुष, खंंग और चमचमाते हुए भाले लेकर विचित्र प्रकार से युद्ध करने वाले एक करोड़ पैदल सैनिक थे। भोजराज के रथी सैनिक, जिनके रथों पर सुवर्णमय ध्वज फहराते रहते थे तथा जो शूरवीर होने के साथ ही युद्ध में कभी पीठ दिखलाने वाले नहीं थे, आठ लाख की संख्या में थे।
युधिष्ठिर! कंस के यहाँ युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले हाथी सवार भी आठ ही लाख थे। उनके हाथियों की पीठ पर सुवर्ण के चमकीले हौदे कसे होते थे। भोजराज के वे पर्वताकार गजराज विचित्र ध्वजा पताकाओं से सुशोभिात होते थे और सदा संतुष्ट रहते थे। युधिष्ठिर! भोजराज कंस के यहाँ आभूषणों से सजी हुई शीघ्रगामिनी हथिनियों की विशाल सेना गजराजों की अपेक्षा दूनी थी। उसके यहाँ सोलह हजार घोड़े ऐसे थे, जिनका रंग पलास के फूल की भाँति लाल था। राजन्! किशोर अवस्था के घोड़ों का एक दूसरा दल भी मौजूद था, जिसकी संख्या सोलह हजार थी। इन अश्वों के सवार भी बहुत अच्छे थे। इस अश्वसेना को कोई भी बलपूर्वक दबा नहीं सकता था। कंस का भाई सुनामा इन सबका सरदार था। वह भी कंस के ही समान बलावान् था एवं सदा कंस की रक्षा के लिये तत्पर रहता था। युधिष्ठिर! कंस के यहाँ घोड़ों का एक और भी बहुत बड़ा दल था, जिसमें सभी रंग के घोड़े थे। उस दल का नाम था मिश्रक। मिश्रकों की संख्या साठ हजार बतलायी जाती है।
(कंस के साथ होने वाला महान् समर एक भयंकर नदी के समान था।) कंस का रोष ही उस नदी का महान् वेग था। ऊँचे-ऊँचे ध्वज तटवर्ती वृक्षों के समान जान पड़ते थे। मतवाले हाथी बड़ेे-बड़ेे ग्राहों के समान थे। वह नदी यमराज की आज्ञा के अधीन होकर चलती थी। अस्त्र-शस्त्र के समूह उसमें फेन का भ्रम उत्पन्न करते थे। सवारों का वेग उसमें जलप्रवाह सा प्रतीत होता था। गदा और परिघ पाठीन नामक मछलियों के सदृश जान पड़ते थे। नाना प्रकार के कवच सवार के समान थे। रथ और हाथी उसमें बड़ी बड़ी भँवरों का दृश्य उपस्थित करते थे। नाना प्रकार का रक्त ही कीचड़ का काम करता था। विचित्र धनुष उठती हुई लहरों के समान जान पड़ते थे। रथ और अश्वों का समूह हृद के समान था। योद्धाओं के इधर-उधर दौड़ने या बोलने से जो शब्द होता था, वही उस भयानक समर सरिता का कलकल नाद था। युधिष्ठिर! भगवान नारायण के सिवा ऐसे कंस को कौन मार सकता था?
भारत! जैसे हवा बड़े-बड़े बादलों को छिन्न-छिन्न कर देती है, उसी प्रकार इन भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र के रथ में बैठकर कंस की उपर्युक्त सारी सेनाओं का संहार कर डाला। सभा में विराजमान कंस को मन्त्रियों और परिवार के साथ मारकर श्रीकृष्ण ने सुहृदों सहित सम्माननीय माता देवकी का समादर किया। जनार्दन ने यशोदा और रोहिणी का भी बारंबार प्रणाम करके उग्रसेन को राजा के पद पर अभिषिक्त किया। उस समय यदुकुल के प्रधान-प्रधान पुरुषों ने इन्द्र के छोटे भाई भगवान श्रीहरि का पूजन किया। तदनन्तर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने समस्त राजाओं के सहित आक्रमण करने वाले राजा जरासंध को सरोवरों या हृदों से सुशोभित यमुना के तट पर परास्त किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 23 का हिन्दी अनुवाद)
"नरकासुर का सैनिकों सहित वध, देवता आदि की सोलह हजार कन्याओं को पत्नी रूप में स्वीकार करके श्रीकृष्ण का उन्हें द्वारका भेजना तथा इन्द्रलोक में जाकर अदिति को कुण्डल अर्पण कर द्वारकापुरी में वापस आना"
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर समस्त यदुवंशियों को आनन्दित करने वाले भगवान श्रीकृष्ण शूरसेनपुरी मथुरा को छोड़कर द्वारका में चले गये। कमलनयन श्रीकृष्ण ने असुरों को पराजित करके जो बहुत से रत्न और वाहन प्राप्त किये थे, उनका वे द्वारका में यथोचित रूप से संरक्षण करते थे। उनके इस कार्य में दैत्य और दानव विघ्न डालने लगे। तब महाबाहु श्रीकृष्ण ने वरदान से उन्मत्त हुए उन बड़े-बड़े असुरों को मार डाला। तत्पश्चात नरक नामक राक्षस ने भगवान के कार्य में विघ्न डालना आरम्भ किया। वह समस्त देवताओं को भयभीत करने वाला था। राजन्! तुम्हें तो उसका प्रभाव विदित ही है। समस्त देवताओं के लिये अन्तकरूप नरकासुर इस धरती के भीतर मूर्तिलिंग में स्थित हो मनुष्यों और ऋषियों के प्रतिकूल आचरण किया करता था। भूमि का पुत्र होने से नरक को भौमासुर भी कहते हैं।
उसने हाथी का रूप धारण करके प्रजापति त्वष्टा की पुत्री कशेरु के पास जाकर उसे पकड़ लिया। कशेरु बड़ी सुन्दरी और चौदह वर्ष की अवस्था वाली थी। नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुर का राजा था। उसके शोक, भय और बाधाएँ दूर हो गयी थीं। उसने कशेरु को मूर्च्छित करके हर लिया और अपने घर लाकर उससे इस प्रकार कहा।
नरकासुर बोला ;- देवि! देवताओं और मनुष्यों के पास जो नाना प्रकार के रत्न हैं, सारी पृथ्वी जिन रत्नों को धारण करती है तथा समुद्रों में जो रत्न संचित हैं, उन सबको आज से सभी राक्षस ला लाकर तुम्हें ही अर्पित किया करेंगे। दैत्य और दानव भी तुम्हें उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट देंगे।
भीष्म जी कहते हैं ;- भारत! इस प्रकार भौमासुर ने नाना प्रकार के बहुत से उत्तम रत्नों तथा स्त्री रत्नों का भी अपहरण किया। गन्धर्वों की जो कन्याएँ थीं, उन्हें भी नरकासुर बलपूर्वक हर लाया। देवताओं और मनुष्यों की कन्याओं तथा अप्सराओं के सात समुदायों का भी उसने अपहरण कर लिया। इस प्रकार सोलह हजार एक सौ सुन्दरी कुमारियाँ उसके घर में एकत्र हो गयीं। वे सब की सब सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करके व्रत और नियम के पालन में तत्पर हो एक वेणी धारण करती थीं। उत्साहयुक्त मन वाले भौमासुर ने उनके रहने के लिये मणिपर्वत पर अन्त:पुर का निर्माण कराया। उस स्थान का नाम था औदका (जल की सुविधा से सम्पन्न भूमि)। वह अन्त:पुर मुर नामक दैत्य के अधिकृत प्रदेश में बना था।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 24 का हिन्दी अनुवाद)
प्राग्ज्योतिषपुर का राजा भौमासुर, मुर के दस पुत्र तथा प्रधान-प्रधान राक्षस उन अन्त:पुर की रक्षा करते हुए सदा उसके समीप ही रहते थे। युधिष्ठिर! पृथ्वीपुत्र भौमासुर तपस्या के अन्त में वरदान पाकर इतना गर्वोन्मत्त हो गया था कि इसने कुण्डल के लिये देवमाता अदिति तक का तिरस्कार कर दिया। पूर्वकाल में समस्त महादैत्यों ने एक साथ मिलकर भी वैसा अत्यन्त घोर पाप नहीं किया था, जैसा अकेले इस महान् असुर ने कर डाला था। पृथ्वीदेवी ने उसे उत्पन्न किया था, प्राग्ज्योतिषपुर उसकी राजधानी थी तथा चार युद्धोन्मत्त दैत्य उसके राज्य की सीमा की रक्षा करने वाले थे। वे पृथ्वी से लेकर देवयान तक के मार्ग को रोककर खड़े रहते थे। भयानक रूप वाले राक्षसों के साथ रहकर वे देव समुदाय को भयभीत किया करते थे।
उन चारों दैत्यों के नाम इस प्रकार हैं,,- हयग्रीव, निशुम्भ, भयंकर पंचजन तथा सहस्र पुत्रों सहित महान असुर मुर, जो वरदान प्राप्त कर चुका था। उसी के वध के लिये चक्र, गदा और खड्ग धारण करने वाले ये महाबाहु श्रीकृष्ण वृष्णिकुल में देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं। वसुदेव जी के पुत्र होने से ये जनार्दन ‘वासुदेव’ कहलाते हैं।
तात युधिष्ठिर! इनका तेज सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हैं। इन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का निवास स्थान प्रधानत: द्वारका ही है, यह तुम सब लोग जानते हो। द्वारकापुरी इन्द्र की निवास स्थान अमरावती पुरी से भी अत्यन्त रमणीय है। युधिष्ठिर! भूण्डल में द्वारका की शोभा सबसे अधिक है। यह तो तुम प्रत्यक्ष ही देख चुके हो। देवपुरी के समान सुशोभित द्वारका नगरी में वृष्णिवंशियों के बैठने के लिये एक सुन्दर सभा है, जो दाशार्ही के नाम से विख्यात है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई एक-एक योजन की है। उसमें बलराम और श्रीकृष्ण आदि वृष्णि और अन्धकवंश के सभी लोग बैठते हैं और सम्पूर्ण लोक जीवन की रक्षा में दत्तचित्त रहते हैं।
भरतश्रेष्ठ! एक दिन की बात है, सभी यदुवंशी उस सभा में विराजमान थे। इतने में ही दिव्य सुगन्ध से भरी हुई वायु चलने लगी और दिव्य कुसुमों की वर्षा होने लगी। तदनन्तर दो ही घड़ी के अंदर आकाश में सहस्रों सूर्यों के समान महान एवं अद्भुत तेजो राशि प्रकट हुई। वह धीरे-धीरे पृथ्वी पर आकर खड़ी हो गयी। उस तेजोमण्डल के भीतर श्वेत हाथी पर बैठे हुए इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं सहित दिखायी दिये। बलराम, श्रीकृष्ण तथा राजा उग्रसेन वृष्णि और अन्धकवंश के अन्य लोगों के साथ सहसा उठकर बाहर आये और सबने देवराज इन्द्र को नमस्कार किया। इन्द्र हाथी से उतरकर शीघ्र ही भगवान श्रीकृष्ण को हृदय से लगाया। फिर बलराम तथा राजा उग्रसेन से भी उसी प्रकार मिले। भूतभावन ऐश्वर्यशाली इन्द्र ने वसुदेव, उद्धव, महामति विकद्रु, प्रद्युम्न, साम्ब, निशठ, अनिरुद्ध, सात्यकि, गद, सारण, अक्रूर, कृतवर्मा, चारुदेष्ण तथा सुदेष्ण आदि अन्य यादवों का भी यथोचित रीति से आलिंगन करके उन सबकी ओर दृष्टिपात किया। इस प्रकार उन्होंने वृष्णि और अन्धकवंश के प्रधान व्यक्तियों को हृदय से लगाकर उनकी दी हुई पूजा ग्रहण की तथा मुख को नीचे की ओर झुकाकर वे इस प्रकार बोले।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 25 का हिन्दी अनुवाद)
इन्द्र ने कहा ;- भैया कृष्ण! तुम्हारी माता अदिति की आज्ञा से मैं यहाँ आया हूँ। तात! भूमिपुत्र नरकासुर ने उनके कुण्डल छीन लिये हैं। मधुसूदन! इस लोक में माता का आदेश सुनने के पात्र केवल तुम्हीं हो। अत: महाभाग नरेश्वर! तुम भौमासुर को मार डालो।
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तब महाबाहु जनार्दन अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले- ‘देवराज! मैं भूमिपुत्र नरकासुर को पराजित करके माता जी के कुन्डल अवश्य ला दूँगा’। ऐसा कहकर भगवान गोविन्द ने बलराम जी से बातचीत की। तत्पश्चात प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और अनुपम बलवान् साम्ब से भी इसके विषय में वार्तापाल करके महायशस्वी इन्द्रियाधीश्वर भगवान श्रीकृष्ण शंख, चक्र, गदा और खड्ग धारण कर गरुड़ पर आरूढ़ हो देवताओं का हित करने की इच्छा से वहाँ से चल दिये। शत्रुनाशन भगवान श्रीकृष्ण को प्रस्थान करते देख इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता बड़े प्रसन्न हुए और अच्युत भगवान कृष्ण की स्तुति करते हुए उन्हीं के पीछे-पीछे चले। भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर के उन मुख्य-मुख्य राक्षसों को मारकर मुर दैत्य के बनाये हुए छ: हजार पाशों को देखा, जिनके किनारों के भागों में छुरे लगे हुए थे। भगवान ने अपने अस्त्र (चक्र) से मुर दैत्य के पाशों को काटकर मुर नामक असुर को उसके वंशजों सहित मार डाला और शिलाओं के समूहों को लाँघकर निशुम्भ को भी मार गिराया।
तत्पश्चात जो अकेला ही सहस्रों योद्धाओं के समान था और सम्पूर्ण देवताओंं के साथ अकेला ही युद्ध कर सकता था, उस महाबली एवं महापराक्रमी हयग्रीव को भी मार दिया। भरतश्रेष्ठ! सम्पूर्ण यादवों को आनन्दित करने वाले अमित तेजस्वी दुर्धर्ष वीर भगवान देवकीनन्दन ने औदका के अन्तर्गत लोहित गंगा के बीच विरूपाक्ष को तथा ‘पंचजन’ नाम से प्रसिद्ध नरकासुर के पांच भयंकर राक्षसों को भी मार गिराया। फिर भगवान अपनी शोभा से उद्दीप्त से दिखायी देने वाले प्राग्ज्योतिषपुर में जा पहुंचे। वहाँ उनका दानवों से फिर युद्ध छिड़ गया। भरत कुलभूषण! वह युद्ध महान् देवासुर संग्राम के रूप में परिणत हो गया। उसके समान लोकविस्मयकारी युुद्ध दूसरा कोई नहीं हो सकता। चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण से भिड़कर सभी दानव वहाँ चक्र से छिन्न-भिन्न एवं शक्ति तथा खड्ग से आहत होकर धराशायी हो गये। परंतप युधिष्ठिर! इस प्रकार आठ लाख दानवों का संहार करके पुरुषसिंह पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण पाताल गुफा में गये, जहाँ देव समुदाय को आतंकित करने वाला नरकासुर रहता था। अत्यन्त तेजस्वी भगवान मधुसूदन ने मधु की भाँति पराक्रमी नरकासुर से युद्ध प्रारम्भ किया।
भारत! देव माता अदिति के कुण्डलों के लिये भूमिपुत्र महाकाय नरकासुर के साथ छिड़ा वह युद्ध बड़ा भयंकर था। बलवान् मधुसूदन ने चक्र हाथ में लिये हुए नरकासुर के साथ दो घड़ी तक खिलवाड़ करके बलपूर्वक चक्र से उसके मस्तक को काट डाला। चक्र से छिन्न-भिन्न होकर घायल हुए शरीर वाले नरकासुर का मस्तक वज्र के मारे हुए वृत्रासुर के सिर की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा। भूमि ने अपने पुत्र को रणभूमि में गिरा देख अदिति के दोनों कुण्डल लौटा दिये और महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा।
भूमि बोली ;- प्राभो मधुसूदन! आपने ही इसे जन्म दिया था और आपने ही इसे मारा है। आपकी जैसी इच्छा हो, वैसी ही लीला करते हुए नरकासुर की संतान का पालन कीजिये। श्रीभगवान ने कहा- भामिनि! तुम्हारा यह पुत्र देवताओं, मुनियों, पितरों, महात्माओं तथा सम्पूर्ण भूतों के उद्वेग का पात्र हो रहा था। यह पुरुषाधम ब्राह्मणों से द्वेष रखने वाला, देवताओं का शत्रु तथा सम्पूर्ण विश्व का कण्टक था, इसलिये सब लोग इससे द्वेष रखते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 26 का हिन्दी अनुवाद)
इस बलवान असुर ने बल के घमंड में आकर सम्पूर्ण विश्व के लिये वन्दनीय देव माता अदिति को भी कष्ट पहुँचाया और उनके कुण्डल के लिये। इन्हीं सब कारणों से यह मारा गया है। भामिनि! मैंने इस समय जो कुछ किया है, उसके लिये तुम्हें मुझ पर क्षोभ नहीं करना चाहिये। महाभागे! तुम्हारे पुत्र ने मेरे प्रभाव से अत्यन्त उत्तम गति प्राप्त की है, इसलिये जाओ, मैंने तुम्हारा भार उतार दिया है।
भीष्म कहते हैं ;- युधिष्ठिर! भूमिपुत्र नरकासुर को मारकर सत्यभामा सहित भगवान श्रीकृष्ण ने लोकपालों के साथ जाकर नरकासुर के घर को देखा। यशस्वी नरक के घर में जाकर उन्होंने नाना प्रकार के रत्न और अक्षय धन देखा। मणि, मोती, मूँगे, वैदूर्यमणि की बनी हुई वस्तुएँ, पुखराज, सूर्यकान्त मणि और निर्मल स्फटिक मणि की वस्तुएँ भी वहाँ देखने में आयीं। जाम्बूनद तथा शातकुम्भसंज्ञक सुवर्ण की बनी हुई बहुत सी ऐसी वस्तुएँ वहाँ दृष्टिगोचर हुई, जो प्रज्वलित अग्नि और शीतरश्मि चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रही थी। नरकासुर का भीतरी भवन सुवर्ण के समान सुन्दर, कान्तिमान् एवं उज्ज्वल था। उसके घर में जो असंख्य एवं अक्षय धन दिखायी दिया, उतनी धनराशि राजा कुबेर के घर में भी नहीं है। देवराज इन्द्र के भवन में भी पहले कभी उतना वैभव नहीं देखा गया था।
इन्द्र बोले ;- जनार्दन! ये जो नाना प्रकार के माणिक्य, रत्न, धन तथा सोने की जालियों से सुशोभित बड़े-बड़े हौदों वाले, तोमर सति पराक्रमशाली बड़े भारी गजराज एवं उन पर बिछाने के लिये मूँगे से विभूषित कम्बल, निर्मल पताकाओं से युक्त नाना प्रकार के वस्त्र आदि हैं, इन सब पर आपका अधिकार है। इन गजराजों की संख्या बीस हजार है तथा इससे दूनी हथिनियाँ हैं। जनार्दन! यहाँ आठ लाख उत्तम देशी घोड़े हैं और बैल जुते हुए नये-नये वाहन हैं। इनमें से जिनकी आपको आवश्यकता हो, वे सब आपके यहाँ जा सकते हैं। शत्रुदमन! ये महीन ऊनी वस्त्र, अनेक प्रकार की शय्याएँ, बहुत से आसन, इच्छानुसार बोली बोलने वाले देखने में सुन्दर पक्षी, चन्दन और अगुरुमिश्रित नाना प्रकार के रथ- ये सब वस्तुएँ मैं आपके लिये वृष्णियों के निवास स्थान द्वारका में पहुँचा दूँगा।
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! देवता, गन्धर्व, दैत्य और असुर सम्बन्धी जितने भी रत्न नरकासुर के घर में उपलब्ध हुए, उन्हें शीघ्र ही गरुड़ पर रखकर देवराज इन्द्र दाशार्हवंश के अधिपति भगवान श्रीकृष्ण के साथ मणिपर्वत पर गये। वहाँ बड़ी पवित्र हवा बह रही थी तथा विचित्र एवं उज्ज्वल प्रभा सब ओर फैली हुई थी। यह सब देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। आकाशमण्डल में प्रकाशित होने वाले देवता, ऋषि, चन्द्रमा और सूर्य की भाँति वहाँ आये हुए देवगण उस पर्वत की प्रभा से तिरस्कृत हो साधारण से प्रतीत हो रहे थे। तदनन्तर बलराम जी तथा देवराज इन्द्र की आज्ञा से महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर के मणिपर्वत पर बने हुए अन्त:पुर में प्रसन्नतापूर्वक प्रवेश किया। मधुसूदन ने देखा, उस अन्त:पुर के द्वारा और गृह वैदूर्यमणि ने समान प्रकाशित हो रहे है। उनके फाटकों पर पताकाएँ फहरा रही थीं। सुवर्णमय विचित्र पताकाओं वाले महलों से सुशोभित वह मणिपर्वत चित्रलिखित मेघों के समान प्रतीत होता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 27 का हिन्दी अनुवाद)
उन महलों में विशाल अट्टालिकाएँ बनी थीं, जिन पर चढ़ने के लिए मणिनिर्मित सीढ़ियाँ सुशोभित हो रही थीं। वहाँ रहने वाली प्रधान-प्रधान गन्धर्वों और असुरों की परम सुन्दरी प्यारी पुत्रियों ने उस स्वर्ग के समान प्रदेश में खड़े हुए अपराजित वीर भगवान मधुसूदन को देखा। देखते-देखते ही उन सबने महाबाहु श्रीकृष्ण को घेर लिया। वे सभी स्त्रियाँ एक वेणी धारण किये गेरुए वस्त्र पहिने इन्द्रिय संयमपूर्वक वहाँ तपस्या करती थीं। उस समय व्रत और संतापजनित शोक उनमें से किसी को पीड़ा नहीं दे सका। वे निर्मल रेशमी वस्त्र पहने हुए यदुवीर श्रीकृष्ण के पास जा उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं। उन कमलनयनी कामिनियों ने अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों के स्वामी श्रीहरि से इस प्रकार कहा।
कन्याएँ बोलीं ;- पुरुषोत्तम! देवर्षि नारद ने हमसे कह रखा था कि ‘देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये भगवान गोविन्द यहाँ पधारेंगे। एवं वे सपरिवार नरकासुर, निशम्भ, मुर, दानव हयग्रीव तथा पंचजन को मारकर अक्षय धन प्राप्त करेंगे। थोड़े ही दिनों में भगवान यहाँ पधारकर तुम सब लोगों का इस संकट से उद्धार करेंगे।’ ऐसा कहकर परम बुद्धिमान देवर्षि नारद यहाँ से चले गये। हम सदा आपका ही चिन्तन करती हुई घोर तपस्या में लग गयीं। हमारे मन में यह संकल्प उठता रता था कि कितना समय बीतने पर हमें महाबाहु माधव का दर्शन प्राप्त होगा। पुरुषोत्तम! यही संकल्प लेकर दानवों द्वारा सुरक्षित हो हम सदा तपस्या करती आ रही हैं। भगवन्! आप गन्धर्व विवाह की रीति से हमारे साथ विवाह करके हमारा प्रिय करें। हमारे पूर्वोक्त मनोरथ को जान कर भगवान वायु देव ने भी हम सबके प्रिय मनोरथ की सिद्धि के लिये कहा था कि ‘देवर्षि नारद जी ने जो कहा है, वह शीघ्र ही पूर्ण होगा’।
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! देवताओं तथा गन्धर्वों ने देखा, वृषभ के समान विशाल नेत्रों वाले भगवान श्रीकृष्ण उन परम सुन्दरी नारियों के समक्ष वैसे ही खड़े थे, जैसे नयी गायों के आगे साँड़ हो। भगवान के मुखचन्द्र को देखकर उन सबकी इन्द्रियाँ उल्लसित हो उठीं और हर्ष में भरकर महाबाहु श्रीकृष्ण से पुन: इस प्रकार बोलीं।
कन्याओं ने कहा ;- बड़े हर्ष की बात है कि पूर्वकाल में वायुदेव ने तथा सम्पूर्ण भूतों के प्रति कृतज्ञता रखने वाले महर्षि नारद जी ने जो बात कही थी, वह सत्य हो गयी। उन्होंने कहा था कि ‘शंख, चक्र, गदा और खड्ग धारण करने वाले सर्वव्यापी नारायण भगवान विष्णु भूमिपुत्र नरक को मारकर तुम लोगों के पति होंगे’। ऋषियों में प्रधान महात्मा नारद का वह वचन आज आपके दर्शन मात्र से सत्य होने जा रहा है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। तभी तो आज हम आपके परम प्रिय चन्द्रतुल्य मुख का दर्शन कर रही हैं। आप परमात्मा के दर्शन मात्र से ही हम कृतार्थ हो गयीं। उन सब के हृदय में कामभाव का संचार हो गया था। उस समय यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने उनसे कहा।
श्रीभगवान बोले ;- विशाल नेत्रों वाली सुन्दरियों! जैसा तुम कहती हो, उसके अनुसार तुम्हारी सारी अभिलाषा पूर्ण हो जायगी।
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! सेवकों द्वारा उन सब रत्नों को तथा देवताओं एवं राजाओं आदि की कन्याओं को द्वारका भेज देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने उन उत्तम मणिपर्वत को शीघ्र ही गरुड़ी बाँह (पंख या पीठ) पर चढ़ा दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 28 का हिन्दी अनुवाद)
केवल पर्वत ही नहीं, उस पर रहने वाले जो पक्षियों के समुदाय, हाथी, सर्प, मृग, नाग, बंदर, पत्थर, शिला, न्यंकु, वराह, रुरु मृग, झरने, बड़े-बड़े शिखर तथा विचत्र मोर आदि थे, उन सबके साथ मणिपर्वत को उखाड़ कर इन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण ने सब प्राणियों के देखते-देखते गरुड़ पर रख लिया। महाबली गरुड़ श्रीकृष्ण, बलराम तथा महाबलवान् इन्द्र को, उस अनुपम रत्नराशि तथा पर्वत को, वरुण देवता के दिव्य अमृत तथा चन्द्रतुल्य उज्ज्वल शुभकारक छत्र को वहन करते हुए चल दिये। उनका शरीर विशाल पर्वत शिखर के समान था। वे अपनी पाँचों को बलपूर्वक हिला हिलाकर सब दिशाओं में भारी शोर मचाते जा रहे थे। उड़ते समय गरुड़ पर्वतों के शिखर तोड़ डालते थे, पेड़ों को उखाड़ फेंकते थे ओर ज्योतिष्पथ (आकाश) में चलते समय बड़े-बड़े बादलों को अपने साथ उड़ा ले जाते थे। वे अपने तेज से ग्रह, नक्षत्र, तारों और सप्तर्षियों के प्रकाश पुंज को तिरस्कृत करते हुए चन्द्रमा और सूर्य के मार्ग पर पहुँचे। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर मधुसूदन ने मेरु पर्वत के मध्यम शिखर पर पहुँचकर समस्त देवताओं के निवास स्थानों का दर्शन किया। युधिष्ठिर! उन्होंन विश्वेदेवों, मरुद्गणों के पुण्यतम लोक में पदार्पण किया। परंतप! तत्पश्चात शत्रुहन्ता भगवान श्रीकृष्ण देवलोक में जा पहुँचे। इन्द्र भवन में निकट जाकर भगवान जनार्दन गरुड़ पर से उतर पड़े। वहाँ उन्होंने देवमाता अदिति के चरणों में प्रणाम किया।
फिर ब्रह्मा और दक्ष आदि प्रजापतियों ने तथा सम्पूर्ण देवताओं ने उनका भी स्वागत सत्कार किया। उस समय बलराम सहित भगवान केशव ने माता अदिति को दोनों दिव्य कुण्डल और बहुमूल्य रत्न भेंट किये। वह सब ग्रहण करके माता अदिति का मानसिक दु:ख दूर हो गया और उन्होंने इन्द्र के छोटे भाई यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण और बलराम का बहुत आदर सत्कार किया। इन्द्र की महारानी शची ने उस समय भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा का हाथ पकड़कर उन्हें माता अदिति की सेवा में पहुँचाया। देवमाता की सारी चिन्ता दूर हो गयी थी। उन्होंने श्रीकृष्ण का प्रिय करने की इच्छा से सत्यभामा को उत्तम वर प्रदान किया।
अदिति बोलीं ;- सुन्दर मुख वाली बहू! जब तक श्रीकृष्ण मानव शरीर में रहेंगे, तब तक तू वृद्धावस्था को प्राप्त न होगी और सब प्रकार की दिव्य सुगन्ध एवं उत्तम गुणों से सुशोभित होती रहेगी।
भीष्म जी कहते हैं ;- युुधिष्ठिर! सुन्दरी सत्यभाम शचीदेवी के साथ घूम फिरकर उनकी आज्ञा ले भगवान श्रीकृष्ण के विश्रामगृह चली गयीं। तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले भगवान श्रीकृष्ण महर्षियों से सेवित और देवताओं द्वारा पूजित होकर देवलोक से द्वारका को चले गये। महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण लंबा मार्ग तय करके उत्तम द्वारका नगरी में, जिसके प्रधान द्वार का नाम वर्धमान था, जा पहुँचे।
द्वारकापुरी एवं रुक्मिणी आदि रानियों के महलों का वर्णन, श्रीबलराम और श्रीकृष्ण का द्वारका में प्रवेश
भीष्म जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! सर्वव्यापी नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने सब प्रकार के मनोवाच्छित पदार्थों से भरी-पूरी द्वारकापुरी को देखकर प्रसन्नतापूर्वक उसमें प्रवेश करने की तैयारी की। उन्होंने देखा, द्वारकापुरी के सब ओर बगीचों में बहुत से रमणीय वृक्ष समूह शोभा पा रहे हैं, जिनमें नाना प्रकार के फल और फूल लगे हुए हैं। वहाँ के रमणीय राजसदन सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशमान तथा मेरुपर्वत के शिखरों की भाँति गगनचुम्बी थे। उन भवनों से विभूषित द्वारकापुरी की रचाना साक्षात विश्वकर्मा ने की थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 29 का हिन्दी अनुवाद)
उस पुरी के चारों ओर बनी हुई चौड़ी खाइयाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। उनमें कमल के फूूल खिले हुए थे। हंस आदि पक्षी उनके जल का सेवन करते थे। वे देखने में गंगा और सिन्धु के समान जान पड़ती थीं। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाली ऊंची गगनचुम्बिनी श्वेत चहारदीवारी से सुशोभित द्वारकापुरी सफेद बादलों से घिरी हुई देवपुरी (अमरावती) के समान जान पड़ती थी। नन्दन और मिश्र जैसे वन सब पुरी को शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ का दिव्य चैत्ररथ वन ब्रह्मा जी के अलौकिक उद्यान की भाँति शोभित था। सभी ऋतुओं के फूलों से भरे हुए वैभ्राज नामक वन के सदृश मनोहर उपवनों से घिरी हुई द्वारकापुरी ऐसी जान पड़ती थी, मानो आकाश में तारिकाओं से व्याप्त स्वर्गपुरी शोभा पा रही हो। रमणीय द्वारकापुरी की पूर्वदिशा में महाकाय रैवतक पर्वत, जो उस पुरी का आभूषण रूप था, सुशोभित हो रहा था। उसके शिखर बड़े मनोहर थे। पुरी के दक्षिण भाग में लतावेष्ट नामक पर्वत शोभा पा रहा था, जो पाँच रंग का होने के कारण इन्द्रध्वज सा प्रतीत होता था। पश्चिमदिशा में सुकक्ष नामक रजत पर्वत था, जिसके ऊपर विचित्र पुष्पों से सुशोभित महान् वन शोभा पा रहा था।
पाण्डवश्रेष्ठ! इसी प्रकार उत्तरदिशा में मन्दराचल के सदृश श्वेत वर्णवाला वेणुमन्त पर्वत शोभायमान था। रैवतक पर्वत के पास चित्रकम्बल के से वर्ण वाले पांचजन्य वन तथा सर्वर्तुक वन की भी बड़ी शोभा होती थी। लतावेष्ट पर्वत के चारों ओर मेरुप्रभ नामक महान् वन, तालवन तथा कमलों से सुशोभित पुष्पक वन शोभा पा रहे हैं। सुकक्ष पर्वत को चारों ओर से घेरकर चित्रपुष्प नामक महावन, शतपत्र वन, करवीरवन और कुसुकम्भिवन सुशोभित होते हैं। वेणुमन्त पर्वत के सब ओर चैत्ररथ, नन्दन, रमण और भावन नामक महान् वन शोभा पाते हैं। भारत! महात्मा केशव की उस पुरी में पूर्वदिशा की ओर एक रमणीय पुष्करिणी शोभा पाती है, जिसका विस्तार सौ धनुष हैं। पचास दरवाजों से सुशोभित और सब ओर से प्रकाशमान उस सुरम्य महापुरी द्वारका में श्रीकृष्ण ने प्रवेश किया। वह कितनी बड़ी है, इसका कोई माप नहीं था। उसकी ऊँचाई भी बहुत अधिक थी। वह पुरी चारों ओर अत्यन्त अगाध जलराशि से घिरी हुई थी। सुन्दर-सुन्दर महलों से भरी हुई द्वारका श्वेत अट्टालिकाओं से सुशोभित होती थी। तीखे यंत्र, शतघ्नी, विभिन्न यंत्रों के समुदाय और लोहे के बने हुए बड़े बड़े चक्रों से सुरक्षित द्वारकापुरी को भगवान ने देखा।
देवपुरी की भाँति उसकी चहारदीवारी के निकट क्षुद्र घण्टिकाओं से सुशोभित आठ हजार रथ शोभा पाते थे, जिनमें पताकाएँ फहराती रहती थीं। द्वारकापुरी की चौड़ाई आठ योजन है एवं लम्बाई बारह योजन है अर्थात वह कुल 16 योजन विस्तृत है। उसका उपनिवेश (समीपस्थ प्रदेश) उससे दुगुना अर्थात् 192 योजन विस्तृत है। वह पुरी सब प्रकार से अविचल है। श्रीकृष्ण ने उस पुरी को देखा। उसमें जाने के लिये आठ मार्ग हैं, बड़ी-बड़ी ड्योढ़ियाँ हैं और सोलह बड़े बड़े चौराहे हैं। इस प्रकार विभिन्न मार्गों से परिष्कृत द्वारकापुरी साक्षात् शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनायी गयी है। व्यूहों के बीच-बीच में मार्ग बने हैं, सात बड़ी बड़ी सड़कें हैं। साक्षात् विश्वकर्मा ने इस द्वारका नगरी का निर्माण किया है। सोने और मणियों की सीढ़ियों से सुशोभित यह नगरी जन जन को हर्ष प्रदान करने वाली है।
(सम्पूर्ण महाभारत सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 30 का हिन्दी अनुवाद)
यहाँ गीत के मधुर स्वर तथा अन्य प्रकार के घोष गूँजते रहते हैं। बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं के कारण वह पुरी परम सुन्दर प्रतीत होती है। नगरों में श्रेष्ठ उस द्वारका में यशस्वी दशार्हवंशियों के महल देखकर भगवान पाकशासन इन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन महलों के ऊपर ऊँची पताकाएँ फहरा रही थीं। वे मनोहर भवन मेघों के समान जान पड़ते थे और सुवर्णमय होने के कारण अत्यन्त प्रकाशमान थे। वे मेरुपर्वत के उत्तुंग शिखरों के समान आकाश को चूम रहे थे। उन गृहों के शिखर चूने से लिपे पुते और सफेद थे। उनकी छतें सुवर्ण की बनी हुई थीं। वहाँ के शिखर, गुफा और शृंग सभी रत्नमय थे। उस पुरी के भवन सब प्रकार के रत्नों से विभूषित थे।
(भगवान ने देखा) वहाँ बड़े-बड़े महल, अटारी तथा छज्जे हैं और उन छज्जों में लटकते हुए पक्षियों के पिंजड़े शोभा पाते हैं। कितने ही यन्त्रगृह वहाँ के महलों की शोभा बढ़ाते हैं। अनेक प्रकार के रत्नों से जटित होने के कारण द्वारका के भवन विधि धातुओं से विभूषित पर्वतों के समान शोभा धारण करते हैं। कुछ गृह तो मणि के बने हैं, कुछ सुवर्ण से तैयार किये गये हैं और कुछ पार्थिव पदार्थों (ईंट, पत्थर आदि) द्वारा निर्मित हुए हैं। उन सबके निम्नभाग चूने से स्वच्छ किये गये हैं। उनके दरवाजे (खैखड-किंवाड़े) जाम्बूनद सुवर्ण के बने हैं और अर्गलाएँ (सिटकनियाँ) वैदूर्यमणि तैयार की गयी हैं। उन गृहों का स्पर्श सभी ऋतुओं में सुख देने वाला है। वे सभी बहुमूल्य सामानों से भरे हैं। उनकी समतल भूमि, गुफा और शिखर सभी अत्यन्त मनोहर हैं। इससे उन भवनों की शोभा विचित्र पर्वतों के समान जान पड़ती है। उन गृहों में पाँच रंगों के सुवर्ण मढ़े गये हैं। उनसे जो बहुरंगी आभा फैलती है, वह फलझड़ी सी जान पड़ती है। उन गृहों से मेघ की गम्भीर गर्जना के समान शब्द होते रहते हैं। वे देखने में अनेक वर्णों के बादलों के समान जान पड़ते हैं।
विश्वकर्मा के बनाये हुए वे (ऊँचे और विशाल) भवन महेन्द्र पर्वत के शिखरों की शोभा धारण करते हैं। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो वे आकाश में रेखा खींच रहे हों। उनका प्रकाश चन्द्रमा और सूर्य से भी बढ़कर है। जैसे भोगवती गंगा प्रचण्ड नागगणों से भरे हुए भयंकर कुण्डों से सुशोभित होती है, उसी प्रकार द्वारकापुरी दशार्हकुल के महान् सौभाग्यशाली पुरुषों से भरे हुए उपर्युक्त भवन रूपी हृदों के द्वारा शोभा पा रही है। जैसे आकाश मेघों की घटा से आच्छादित होता है, उसी प्रकार द्वारकापुरी मनोहर भवनरूपी मेघों से अलंकृत दिखायी देती है। ये भगवान श्रीकृष्ण ही वहाँ इन्द्र एवं पर्जन्य (प्रमुख मेघ) के समान है। वृष्णिवंशी युवक मतवाले मयूरों के समान उन भवनरूपी मेघों को देखकर हर्ष से नाच उठते हैं। सहस्रों स्त्रियों की कान्ति विद्युत की प्रभा के समान उनमें व्याप्त है। जैसे मेघ कृष्णध्वज (अग्रि या सूर्य किरण) के उपबाह्य (आधेय अथवा कार्य) हैं, उसी प्रकार द्वारका के भवन भी कृष्णध्वज से विभूषित उपहबाह्य (वाहनों) से सम्पन्न हैं। यदुवंशियों के विविध प्रकार के अस्त्र शस्त्र उन मेघ सदृश महलों में इन्द्रधनुष की बहुरंगी छटा छिटकाते हैं। भारत! देवाधिदेव भगवान श्रीकृष्ण का भवन, जिसे साक्षात विश्वकर्मा ने अपने हाथों बनाया है, चार योजन लम्बा और उतना ही चौड़ा दिखायी देता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 31 का हिन्दी अनुवाद)
उनमें कितनी बहुमूल्य सामग्रियाँ लगी हैं। इसका अनुमान लगाना असम्भव है। उस विशाल भवन के भीतर सुन्दर-सुन्दर महल और अट्टालिकाएँ बनी हुई हैं। वह प्रासाद जगत के सभी पर्वतीय दृश्यों से युक्त है। श्रीकृष्ण, बलराम और इन्द्र ने उस द्वारका को देखा। महाबाहु विश्वकर्मा ने इन्द्र की प्रेरणा से भगवान पद्मनाभ के लिये जिस मनोहर प्रासाद का निर्माण किया है, उसका विस्तार सब ओर से एक-एक योजन का है। उसके ऊँचे शिखर पर सुवर्ण मढ़ा गया है, जिससे वह मेरु पर्वत के उत्तुंग शृंग की शोभा धारण कर रहा है। वह प्रामाद महात्मा विश्वकर्मा ने महारानी रुक्मिणी के रहने के लिये बनाया है। यह उनका सर्वोत्तम निवास है। श्रीकृष्ण की दूसरी पटरानी सत्यभामा सदा श्वेत रंग के प्रासाद में निवास करती हैं, जिसमें विचित्र मणियों के सोपान बनाये गये हैं। उसमें प्रवेश करने पर लोगों को (ग्रीष्म ऋतु में भी) शीतलता का अनुभव होता है।
निर्मल सूर्य के समान तेजस्विनी पताकाएँ उस मनोरम प्रसाद की शोभा बढ़ाती हैं। एक सुन्दर उद्यान में उस भवन का निर्माण किया गया है। उसके चारों और ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ फहराती हैं। इसके सिवा वह प्रमुख प्रसाद, जो रुक्मिणी तथा सत्यभामा के महलों के बीच में पड़ता है और जिसकी उज्ज्वल प्रभा सब ओर फैली रहती है, जाम्बवती देवी द्वारा विभूषित किया गया है। वह अपनी दिव्य प्रभा और विचित्र सजावट से मानो तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा है। उसे भी विश्वकर्मा ने ही बनाया है। जाम्बवती का वह विशाल भवन कैलाश शिखर के समान सुशोभित होता है। जिसका दरवाजा जाम्बूनद सुवर्ण के समान उद्दीप्त होता है, जो देखने में प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ता है। विशालता में समुद्र से जिसकी उपमा दी जाती है, जो मेरु के नाम से विख्यात है, उस महान् प्रासाद में गान्धाराज की कुलीन कन्या सुकेशी को भगवान श्रीकृष्ण ने ठहराया है।
महाबाहो! पद्मकूट नाम से विख्यात जो कमल के समान कान्ति वाला प्रसाद है, वह महारानी सुप्रभा का परम पूजित निवास स्थान है। कुरुश्रेष्ठ! जिस उत्तम प्रासाद की प्रभा सूर्य के समान है, उसे शांर्गधन्वा श्रीकृष्ण ने महारानी लक्ष्मणा को दे रखा है। भारत! वैदूर्यमणि के समान कान्तिमान हरे रंग का महल, जिसे देखकर सब प्राणियों को ‘श्रीहरि’ ही हैं, ऐसा अनुभव होता है, वह मित्रविन्दा का निवास स्थान है। उसकी देवगण भी सराहना करते हैं। भगवान वासुदेव की रानी मित्रविन्दा का यह भवन अन्य सब महलों का आभूषणरूप हैं। युधिष्ठिर! द्वारका में जो दूसरा प्रमुख प्रासाद है, उसे सम्पूर्ण शिल्पियों ने मिलकर बनाया है। वह अत्यन्त रमणीय भवन हँसता सा खड़ा है। सभी शिल्पी उसके निर्माण कौशल की सराहना करते हैं। उस प्रासाद का नाम है केतुमान। वह भगवान वासुदेव की महारानी सुदत्ता देवी का सुन्दर निवास स्थान है। वहीं ‘बिरज’ नास से प्रसिद्ध एक प्रासाद है, जो निर्मल एवं रजोगुण के प्रभाव से शून्य है। वह परामात्मा श्रीकृष्ण का उपस्थानगृह (खास रहने का स्थान) है। इसी प्रकार वहाँ एक और भी प्रमुख प्रासाद है, जिसे स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया है। उसकी लंबाई-चौड़ाई एक-एक योजन की है। भगवान का वह भवन सब प्रकार के रत्नों द्वारा निर्मित हुआ है। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के सुन्दर सदन में जो मार्गदर्शक ध्वज है, उन सबके दण्ड सुवर्णमय बनाये गये हैं। उन सब पर पताकाएँ फहराती रहती हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 32 का हिन्दी अनुवाद)
द्वारकापुरी में सभी के घरों में घंटा लगाया गया है। यदुसिंह श्रीकृष्ण ने वहाँ लाकर वैजयन्ती पताकाओं से युक्त पर्वत स्थापित किया है। वहाँ हसंकूट पर्वत का शिखर है, जो साठ ताड़ के बराबर ऊँचा और आधा योजन चौड़ा है। वहीं इन्द्रद्युम्न सरोवर भी है, जिसका विस्तार बहुत बड़ा है। वहाँ सब भूतों के देखते-देखते किन्नरों के संगीत का महान् शब्द होता रहता है। वह भी अमिततेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण का ही लीलास्थल है। उसकी तीनों लोकों में प्रसिद्धि है। मेरुपर्वत का जो सूर्य के मार्ग तक पहुँचा हुआ जाम्बूनदमय दिव्य और त्रिभुवन विख्यात उत्तम शिखर है, उसे उखाड़कर भगवान श्रीकृष्ण कठिनाई उठाकर भी अपने महल में ले आये हैं। सब प्रकार की औषधियों से अलंकृत वह मेरुशिखर द्वारका में पूर्ववत प्रकाशित है। शत्रुओं को संताप, देने वाले भगवान श्रीकृष्ण जिसे इन्द्र भवन से हर ले आये थे, वह पारिजात वृक्ष भी उन्होंने द्वारका में ही लगा रखा है। भगवान वासुदेव ने ब्रह्मलोक के बड़े-बड़े वृक्षों को भी लाकर द्वारका में लगाया है। साल, ताल, अश्वकर्ण (कनेर), सौ शाखाओं से सुशोभित वटवृक्ष, भल्लातक (भिलावा), कपित्थ (कैथ), चन्द्र (बड़ी इलाचयी के) वृक्ष, चम्पा, खजूर और केतक (केवड़ा)- ये वृक्ष वहाँ सब ओर लगाये गये थे।
द्वारका में जो पुष्करिणियाँ और सरोवर हैं, ये कमल पुष्पों से सुशोभित स्वच्छ जल से भरे हुए हैं। उनकी आभा लाल रंग की है। उनमें सुगन्धयुक्त उत्पल खिले हुए हैं। उनमें स्थित बालू के कण मणियों और मोतियों के चूर्ण जैसे जान पड़ते हैं। वहाँ लगाये हुए बड़े-बड़े वृक्ष उन सरोवरों के सुन्दर तटों की शोभा बढ़ाते हैं। जो वृक्ष हिमालय पर उगते हैं तथा जो नन्दनवन में उत्पन्न होते हैं, उन्हें भी यदुप्रवर श्रीकृष्ण ने वहाँ लाकर लगाया है। कोई वृक्ष लाल रंग के हैं, कोई पीत वर्ण के हैं और कोई अरुण कान्ति से सुशोभित हैं तथा बहुत से वृक्ष ऐसे हैं, जिनमें श्वेत रंग के पुष्प शोभा पाते हैं।
द्वारका के उपवनों में लगे हुए पूर्वोक्त सभी वृक्ष सम्पूर्ण ऋतुओं के फलों से परिपूर्ण हैं। सहस्रदल कमल, सहस्रों मन्दार, अशोक, कर्णिकार, तिलक, नागमल्लिका, कुरव (कटसरैया), नागपुष्प, चम्पक, तृण, गुल्म, सप्तपर्ण (छितवन), कदम्ब, नीप, कुरबक, केतकी, केसर, हिंताक, तल, ताटक, ताल, प्रियंगु, वकुल (मौलसिरी), पिण्डिका, बीजूर (बिजौरा), दाख, आँवला, खजूर, मुनक्का, जामुन, आम, कटहल, अंकोल, तिल, तिन्दुक, लिकुच (लीची), आमड़ा, क्षीरिका (काकोली नाम की जड़ी या पिंडखजूर), कण्टकी (बेर), नारियल, इंगुद (हिंगोट), उत्क्रोशकवन, कदलीवन, जाति (चमेली), मल्लिक (मोतिया), पाटल, भल्लातक, कपित्थ, तैतभ, बन्धुजीव (दुपहरिया), प्रवाल, अशोक और काश्मरी (गाँभारी), आदि सब प्रकार के प्राचीन वृक्ष, प्रियंगुलता, बेर, जौ, स्पन्दन, चन्दन, शमी, बिल्व, पलाश, पाटला, बड़, पीपल, गूलर, द्विदल, पालाश, परिभद्रक, इन्द्रवृक्ष, अर्जुन वृक्ष, अश्वत्थ, चिरिबिल्व, सौभंजन, भल्लट, अश्वपुष्प, सर्ज, ताम्बूललता, लवंग, सुपारी तथा नाना प्रकार के बाँस ये सब द्वारकापुरी में श्रीकृष्ण भवन के चारों ओर लगाये हैं। नन्दवन में और चैत्ररथवन जो-जो वृक्ष होते हैं, वे सभी युदपति भगवान श्रीकृष्ण ने लाकर यहाँ सब ओर लगाये हैं। भगवान श्रीकृष्ण के गृहोद्यान में कुमुद और कमलों से भरी हुई कितनी ही छोटी बावलियाँ हैं। सहस्रों कुएँ बने हुए हैं। जल से भरी हुई बड़ी-बड़ी वापिकाएँ भी तैयार करायी गयी हैं, जो देखने में पीत वर्ण की हैं और जिनकी बालुकाएँ लाल हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 33 का हिन्दी अनुवाद)
उनके गृहोद्यान में स्वच्छ जल से भरे हुए कुण्डवाली कितनी ही कृत्रिम नदियाँ प्रवाहित होती रहती हैं, जो प्रफुल्ल उत्पलयुक्त जल से परिपूर्ण है तथा जिन्हें दोनों ओर से अनेक प्रकार के वृक्षों ने घेर रखा है। उस भवन के उद्यान की सीमा में मणिमय कंकड़ और बालुकाओं से सुशोभित नदियाँ निकाली गयी हैं, जहाँ मतवाले मयूरों के झुंड विचरते हैं और मदोन्मत्त कोकिलाएँ कुहू कुहू किया करती हैं। उन गृहोद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अंशत: संग्रहीत हुए हैं। वहाँ हाथियों के यूथ तथा गाय भैसों के झुंंड रहते है। वहीं जंगली सूअर, मृग और पक्षियों के रहने योग्य निवास स्थान भी बनाये गये हैं। विश्वकर्मा द्वारा निर्मित पर्वत माला ही उस विशाल भवन की चहारदीवारी है। उसकी ऊँचाई सौ हाथ की है और वह चन्द्रमा के समान अपनी श्वेत छटा छिटकाती रहती है। पूर्वोक्त बड़े-बड़े पर्वत, सरिताएँ, सरोवर और प्रासाद के समीपवर्ती वन उपवन इस चहारदीवारी से घिरे हुए हैं। इस प्रकार शिल्पियों में श्रेष्ठ विश्वकर्मा द्वारा बनाये हुए द्वारका नगर में प्रवेश करते समय भगवान श्रीकृष्ण ने बार-बार सब ओर दृष्टिपात किया। देवताओं के साथ श्रीमान् इन्द्र ने वहाँ द्वारका को सब ओर दृष्टि दौड़ाते हुए देखा।
इस प्रकार उपेन्द्र (श्रीकृष्ण), बलराम तथा महायशस्वी इन्द्र इन तीनों श्रेष्ठ महापुरुषों ने द्वारकापुरी की शोभा देखी। तदनन्तर गरुड़ के ऊपर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापर्वूक श्वेत वर्ण वाले अपने उस पांचजन्य शंख को बजाया, जो शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देने वाला है। उस घोर शंखध्वनि से समुद्र विक्षुब्ध हो उठा तथा सारा आकशमण्डल गूँजने लगा। उस समय वहाँ यह अद्भुत बात हुई। पांचजन्य का गम्भीर घोस सुनकर और गरुड़ का दर्शन कर कुकुर और अन्धकवंशी यादव शोक रहित हो गये। भगवान श्रीकृष्ण के हाथों में शंख, चक्र और गदा आदि आयुध सुशोभित थे। वे गरुड़ के ऊपर बैठे थे। उनका तेज सूर्योदय के समान नूतन चेतना और उत्साह पैदा करने वाला था। उन्हें देखकर सबको बड़ा हर्ष हुआ।
तदनन्तर तुरही और भेरियाँ बज उठीं। समस्त पुरवासी भी सिंहनाद कर उठे। उस समय दशार्ह, कुकुर और अन्धकवंश के सब लोग भगवान मधुसूदन का दर्शन करके बड़े प्रसन्न हुए और सभी उनकी अगवानी के लिये आ गये। राजा उग्रसेन भगवान वासुदेव को आगे करके वेणुनाद और शंखध्वनि के साथ उनके महल तक उन्हें पहुँचाने के लिये गये। देवकी, रोहिणी तथा उग्रसेन की स्त्रियाँ अपने-अपने महलों में भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन करने के लिये यथा स्थान खड़ी थीं। पास आने पर उन सबने उनका यथावत सत्कार किया।
वे आशीर्वाद देती हुई इस प्रकार बोलीं ;- ‘समस्त ब्राह्मणद्वेषी असुर मारे गये, अन्धक और वृष्णिवंश के वीर सर्वत्र विजयी हो रहे हैं।’ स्त्रियों ने भगवान मधुसूदन से ऐसा कहकर उनकी ओर देखा। तदनन्तर श्रीकृष्ण गरुड़ के द्वारा ही अपने महल में गये। वहाँ उन परमेश्वर ने एक उपयुक्त स्थान में मणिपर्वत को स्थापित कर दिया। इसके बाद कमलनयन मधुसूदन ने सभा भवन में धन और रत्नों को रखकर मन ही मन पिता के दर्शन की अभिलाषा की। फिर विशाल एवं कुछ लाल नेत्रों वाले उन महायशस्वी महाबाहु ने पहले मन ही मन गुरु सान्दीपनि के चरणों का स्पर्श किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 34 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात भाई बलराम जी के साथ जाकर श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक पिता के चरणों में प्रणाम किया। उस समय पिता वसुदेव के नेत्रों में प्रेम के आँसू भर गये और उनका हृदय आनन्द के समुद्र में निमग्न हो गया। अन्धक और वृष्णिवंश के सब लोगों ने बलराम और श्रीकृष्ण को हृदय से लगाया। भगवान श्रीकृष्ण ने रत्न और धन की उस राशि को एकत्र करके अलग-अलग बाँट दिया और सम्पूर्ण वृष्णिवंशियों से कहा,,
श्री कृष्ण बोले ;- ‘यह सब आप लोग ग्रहण करें’। तदनन्तर यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों में जो श्रेष्ठ पुरुष थे, उन सबसे क्रमश: मिलकर सब यादवों को नाम ले लेकर बुलाया और उन सबको वे सभी रत्नमय धन पृथक-पृथक बाँट दिये। जैसे पर्वत की कन्दरा सिंहों से सुशोभित होती है, उसी प्रकार द्वारकापुरी उस समय भगवान श्रीकृष्ण, देवराज इन्द्र तथा वृष्णिवंशी वीर पुरुषसिंहों से अत्यन्त शोभा पा रही थी। जब सभी यदुवंशी अपने-अपने आसनों पर बैठे गये, उस समय देवताओं के स्वामी महायशस्वी महेन्द्र अपनी कल्याणमयी वाणी द्वारा कुुकुर और अन्धक आदि यादवों तथा राजा उग्रसेन का हर्ष बढ़ाते हुए बोले।
इन्द्र ने कहा ;- यदुवंशी वीरो! परमात्मा श्रीकृष्ण का मनुष्य योनि में जिस उद्देश्य को लेकर अवतार हुआ है और भगवान वासुदेव ने इस सयम जो महान पुरुषार्थ किया है, वह सब मैं संक्षेप में बताऊँगा। शत्रुओं का दमन करने वाले कमलनयन श्रीहरि ने एक लाख दानवों का संहार करके उस पाताल विवर में प्रवेश किया था, जहाँ पहले के प्रह्लाद, बलि और शम्बर आदि दैत्य भी नहीं पहुँच सके थे। भगवान आप लोगों के लिये यह धन वहीं से लाये हैं। बुद्धिमान श्रीकृष्ण ने पाश सहित मुर नामक दैत्य को कुचलकर पंचजन नाम वाले रासक्षों का विनाश किया और शिला समूहों को लाँघकर सेवकगणों सहित निशुम्भ को मौत के घाट उतार दिया। तत्पश्चात इन्होंने बलवान एवं पराक्रमी दानव हयग्रीव पर आक्रमण करके उसे मार गिराया और भौमासुर का भी युद्ध में संहार कर डाला। इसके बाद केशव ने माता अदिति के कुण्डल प्राप्त करके उन्हें यथा स्थान पहुँचाया और स्वर्ग लोक तथा देवताओं में अपने महान् यश का विस्तार किया।
अन्धक और वृष्णिवंश के लोक श्रीकृष्ण के बाहुबल का आश्रय लेकर शोक, भय और बाधाओं से मुक्त हैं। अब ये सभी नाना प्रकार के यज्ञों तथा सोमरस द्वारा भगवान का यजन करें। अब पुन: बाणासुर के वध का अवसर उपस्थित होने पर मैं तथा सब देवता, वसु और साध्यगण मधुसूदन श्रीकृष्ण की सेवा में उपस्थित होंगे।
भीष्म कहते हैं ;- युधिष्ठिर! समस्त कुकुर और अन्धकवंश के लोगों से ऐसा कहकर सबसे विदा ले देवराज इन्द्र ने बलराम, श्रीकृष्ण और वसुदेव को हृदय से लगाया। प्रद्युम्न, साम्ब, निशठ, अनिरुद्ध, सारण, बभ्रु, झल्लि, गद, भानु, चारुदेष्ण, सारण और अक्रूर का भी सत्कार करके वृत्रासुरनिषूदन इन्द्र ने पुन: सात्यकि से वार्तालाप किया। इसके बाद वृष्णि और कुकुरवंश के अधिपति राजा उग्रसेन को गले लगाया। तत्पश्चात भोज, कृतवर्मा तथा अन्य अन्धकवंशी एवं वृष्णिवंशियों का आलिंगन करके देवराज ने अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण से विदा ली। तदनन्तर शचीपति भगवान इन्द्र सब प्राणियों के देखते-देखते श्वेतपर्वत के समान सुशोभित ऐरावत हाथी पर आरुढ़ हुए। वह श्रेष्ठ गजराज अपनी गम्भीर गर्जना से पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्गलोक को बारंबार निनादित सा कर रहा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 35 का हिन्दी अनुवाद)
उसकी पीठ पर सोने के खंभों से युक्त बहुत बड़ा हौदा कसा हुआ था। उसके दाँतों में सोना मढ़ा गया था। उसके ऊपर मनोहर झूल पड़ी हुई थी। वह सब प्रकार के रत्नमय आभूषित था। सैकड़ों रत्नों से अलंकृत पताकाएँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। उसके मस्तक से निरन्तर मद की धारा इस प्रकार बहती रहती थी, मानो मेघ पानी बरसा रहा हो। वह विशालकाय दिग्गज सोने की माला धारण किये हुए था। उस पर बैठे हुए देवराज इन्द्र मन्दराचल के शिखर पर तपते हुए सूर्यदेव की भाँति उद्भासित हो रहे थे। तदनन्तर शचीपति इन्द्र वज्रमय भंयकर एवं विशाल अंकुश लेकर बलवान अग्रिदेव के साथ स्वर्गलोक को चल दिये। उनके पीछे हाथी-हथिनियों के समुदायों और विमानों द्वारा मरुद्गण, कुबेर तथा वरुण आदि देवता भी प्रसन्नतापूर्वक चल पड़े।
इन्द्र देव पहले वायुपथ में पहुँचकर वैश्वानरपथ (तेजोमय लोक) में जा पहुँचे। तत्पश्चात सूर्य देव के मार्ग में जाकर वहाँ अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर सब दशार्हकुल की स्त्रियाँ, राजा उग्रसेन की रानियाँ, नन्दगोप की विश्वविख्यात रानी यशोदा, महाभागा रेवती (बलभद्र पत्नी) तथा पतिव्रता रुक्मिणी, सत्या, जाम्बवती, गान्धारराज कन्या शिंशुमा, विशोका, लक्ष्मणा, साध्वी सुमित्रा, केतुमा तथा भगवान वासुदेव की अन्य रानियाँ ये सब की सब श्रीजी के साथ भगवान केशव की विभूति एवं नवागत सुन्दरी रानियों को देखने के लिये और श्रीअच्युत का दर्शन करने के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ सभा भवन में गयीं। देवकी तथा रोहिणी जी सब रानियों के आगे चल रही थीं। सबने वहाँ जाकर श्रीबलराम जी के साथ बैठे हुए श्रीकृष्ण को देखा। उन दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्ण ने उठकर पहले रोहिणी जी को प्रणाम किया। फिर देवकी जी की तथा सात देवियों में से श्रेष्ठता के क्रम से अन्य सभी माताओं की चरण वन्दना की।
बलराम सहित भगवान उपेन्द्र ने जब इस प्रकार मातृ चरणों में प्रणाम किया, तब वृष्णिकुल की महिलाओं में अग्रणी माता देवकी जी ने एक श्रेष्ठ आसन पर बैठकर बलराम और श्रीकृष्ण दोनों को गोद में ले लिया। वृषभ के सदृश विशाल नेत्रों वाले उन दोनों पुत्रों के साथ उस समय माता देवकी की वैसी ही शोभा हुई, जैसी मित्र और वरुण के साथ देवमाता अदिति की होती है। इसी समय यशोदा जी को पुत्री क्षणभर में वहाँ आ पहुँची। भारत! उसके श्रीअंग दिव्य प्रभा से प्रज्वलित से हो रहे थे। उस कामरूपिणी कन्या का नाम था ‘एकानंगा’। जिसके निमित्त से पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने सेवकों सहित कंस का वध किया था। तब भगवान बलराम ने आगे बढ़कर उस मानिनी बहिन को बायें हाथ से पकड़ लिया और वात्सल्य स्नेह से उसका मस्तक सूँघा। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने भी उस कन्या को दाहिने हाथ से पकड़ लिया। लोगों ने उस सभा में बलराम और श्रीकृष्ण की इस बहिन को देखा, मानो दो श्रेष्ठ गजराजों के बीच में सवुर्णमय कमल के आसन पर विराजमान भगवती लक्ष्मी हों। तत्पश्चात वृष्णिवंशी पुरुषों ने प्रसन्न होकर बलराम और श्रीकृष्ण पर लाजा (खील), फूल और घीसे युक्त अक्षत की वर्षा की। उस समय बालक, वृद्ध, ज्ञाति, कुल और बन्ध- बान्धवों सहित समस्त वृष्णिवंशी प्रसन्नतापूर्वक भगवान मधुसूदन के समीप बैठ गये। इसके बाद पुरवासियों की प्रीति बढ़ाने वाले पुरुषसिंह महाबाहु मधुसूदन ने सबसे पूजित हो अपने महल में प्रवेश किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 36 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ सदा प्रसन्न रहने वाले श्रीकृष्ण रुक्मिणी देवी के साथ बड़े सुख का अनुभव करने लगे। भारत! तत्पश्चात सदा लीला विहार करने वाले यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण क्रमश: सत्यभामा तथा जाम्बवती आदि सभी देवियों के निवास स्थानों में गये। तात! महाबाहु युधिष्ठिर! शांर्ग नामक धनुष धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण की यह विजय गाथा कही गयी है। इसकी के लिये महात्मा श्रीकृष्ण का मनुष्यों में अवतार हुआ बताया जाता है।
"भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा बाणासुर पर विजय और भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार"
भीष्म जी कहते हैं ;- महाराज युधिष्ठिर! तदनन्तर महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ दिन रात सुख का अनुभव करते हुए द्वारकापुरी में आनन्दपूर्वक रहने लगे। भरतश्रेष्ठ! उन्होंने अपने पौत्र अनिरुद्ध को निमित्त बनाकर देवताओं का जो हित साधन किया, वह इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये अत्यन्त दुष्कर था। भरतकुलभूषण! बाण नामक एक राजा हुआ था, जो बलि का ज्येष्ठ पुत्र था। वह महान बलवान और पराक्रमी होने के साथ ही सहस्र भुजाओं से सुशोभित था। राजन! बाणासुर ने सच्चे मन से बड़ी कठोर तपस्या की। उसने बहुत वर्षों तक भगवान शंकर की आराधना की। महात्मा शंकर ने उसे अनेक वरदान दिये। भगवान शंकर से देव दुर्लभ वरदान पाकर बाणासुर अनुपम बलशाली हो गया और शोणितपुर में राज्य करने लगा। भरतवंशी पाण्डुनन्दन! बाणासुर ने सब देवताओं को आतंकित कर रखा था। उसने इन्द्र आदि सब देवताओं को जीतकर कुबेर की भाँति दीर्घकाल तक इस भूतल पर महान् राज्य का शासन किया। ज्ञानी विद्वान शुक्राचार्य उसकी समृद्धि बढ़ाने के लिये प्रयत्न करते रहते थे। राजन्! बाणासुर के एक पुत्री थी, जिसका नाम उषा था। संसार में उसके रूप की तुलना करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। वह मेनका अप्सरा की पुत्री सी प्रतीत होती थी।
कुन्तीनन्दन! महान् तेजस्वी प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्ध किसी उपाय से उषा तक पहुँचकर छिपे रहकर उसके साथ आनन्द का उपभोग करने लगे। युधिष्ठिर! महातेजस्वी बाणासुर ने गुप्त रूप से छिपे हुए प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध का अपनी पुत्री के साथ रहना जान लिया और उन्हें अपनी पुत्री सहित बलपूर्वक कारागार में ठूँस देने के लिये बंदी बना लिया। राजन्! वे सुकुमार एवं सुख भोगने के योग्य थे, तो भी उन्हें उस समय दु:ख उठाना पड़ा। बाणासुर के द्वारा भाँति-भाँति के कष्ट दिये जाने पर अनिरुद्ध मृर्च्छित हो गये। कुन्तीकुमार! इसी समय मुनिप्रवर नारद जी द्वारका में आकर श्रीकृष्ण से मिले और इस प्रकार बोले।
नारद जी ने कहा ;- महाबाहु श्रीकृष्ण! आप युदवंशियों की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। इस समय अमिततेजस्वी बाणासुर आपके पौत्र अनिरुद्ध को बहुत कष्ट दे रहा है। वे संकट में पड़े हैं और सदा कारागार में निवास कर रहे हैं।
भीष्म जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा कहकर देवर्षि नारद बाणासुर की राजधानी शोणितपुर को चले गये। नारद जी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने बलराम जी तथा महातेजस्वी प्रद्युम्न को बुलाया और उन दोनों के साथ वे गरुड़ पर आरुड़ हुए। तदनन्तर वे तीनों महापराक्रमी पुरुष रत्न गरुड़ पर आरूढ़ हो क्रोध में भरकर बाणासुर के नगर की ओर चले दिये। महाराज! वहाँ जाकर उन्होंने बाणासुर की पुरी को देखा, जो ताँबे की चहारदिवारी से घिरी हुई थी। चाँदी के बने हुए दरवाजे उसकी शोभा बड़ा रहे थे। वह पुरी सुवणमय प्रासादों से भरी हुई थी और मुक्ता मणियों से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 37 का हिन्दी अनुवाद)
उसमें स्थान स्थान पर उद्यान और वन शोभा पा रहे थे। वह नगरी नृत्य और गीतों से सुशोभित थी। वहाँ अनेक सुन्दर फाटक बने थे। सब और भाँति-भाँति के पक्षी चहचहाते थे। कमलों से भरी हुई पुष्करिणी उस पुरी की शोभा बढ़ाती थी। उसमें हष्ट-पुष्ट स्त्री पुरुष निवास करते थे और वह पुरी स्वर्ग के समान मनोहर दिखायी देती थी। प्रसन्नता से भरी हुई उसे सुवर्णमयी नगरी को देखकर श्रीकृष्ण, बलराम और प्रद्युम्न तीनों को बड़ा विस्मय हुआ। बाणासुर की राजधानी में कितने ही देवता सदा द्वार पर बैठकर पहरा देते थे। राजन्! भगवान शंकर, कार्तिकेय, भद्रकाली देवी और अग्नि ये देवता सदा उन पुरी की रक्षा करते थे। युधिष्ठिर! शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले महातेजस्वी श्रीकृष्ण ने अत्यन्त कुपित हो पूर्वद्वार के रक्षकों को बलपूर्वक जीत कर भगवान शंकर के द्वारा सुरक्षित उत्तर द्वार पर आक्रमण किया। वहाँ महान् तेजस्वी भगवान महेश्वर हाथ में त्रिशूल लिये खड़े थे। जब उन्हें मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुँह बाये काल की भाँति आ रहे हैं, तब वे महाबाहु महेश्वर बाणासुर के हित साधन की इच्छा से बाण सहित पिनाक नामक धनुष हाथ में लेकर श्रीकृष्ण के सम्मुख आये।
तदनन्तर भगवान वासुदेव और महेश्वर परस्पर युद्ध करने लगे। उनका वह युद्ध अचिन्त्य, रोमांचकारी तथा भयंकर था। वे दोनों देवता एक दूसरे पर विजय पाने की इच्छा से परस्पर प्रहार करने लगे। दोनों ही क्रोध में भरकर एक दूसरे पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते थे। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने शूलपाणि भगवान शंकर के साथ दो घड़ी तक युद्ध करके महादेव जी को जीत लिया तथा द्वार पर खड़े हुए अन्य शिवगणों को भी परास्त करके उस उत्तम नगर में प्रवेश किया। पाण्डुनन्दन! पुरी में प्रवेश करके अत्यन्त क्रोध में भरे हुए श्रीजनार्दन ने बाणासुर के पास पहुँचकर उसके साथ युद्ध छेड़ दिया। भरतश्रेष्ठ! बाणासुर भी क्रोध से आग बबूला हो रहा था। उसने भी युद्ध में भगवान केशव पर सभी तीखे-तीखे अस्त्र शस्त्र चलाये। फिर उसने उद्योपूर्वक अपनी सभी भुजाओं से उस समरांगण में कुपित हो श्रीकृष्ण पर सहस्रों शस्त्रों का प्रहार किया।
भारत! परंतु श्रीकृष्ण ने वे सभी शस्त्र काट डाले। राजन्! तदनन्तर भगवान अधोक्षज ने दो घड़ी तक बाणासुर के साथ युद्ध करके अपना दिव्य उत्तम शस्त्र चक्र हाथ में उठाया और अमित तेजस्वी बाणासुर की सहस्र भुजाओं को काट दिया। महाराज! तब श्रीकृष्ण द्वारा अत्यन्त पीड़ित होकर बाणासुर भुजाएँ कट जाने पर शाखाहीन वृक्ष की भाँति धरती पर गिर पड़ा। इस प्रकार बलिपुत्र बाणासुर को रणभूमि में गिराकर श्रीकृष्ण ने बड़ी उतावली के साथ कैद में पड़े हुए प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध को छुड़ा लिया। पत्नी सहित अनिरुद्ध को छुड़ाकर भगवान गोविन्द ने बाणासुर के सभी प्रकार के असंख्य रत्न हर लिये। उसके घर में जो भी गोधन अथवा अन्य किसी प्रकार के धन मौजूद थे, उन सबको भी यहुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले भगवान हृषीकेश ने हर लिया। फिर वे सब रत्न लेकर मधुसूदन ने शीघ्रतापूर्वक रख लिये। कुन्तीनन्दन! तत्पश्चात उन्होंने महाबली बलदेव, अमितपराक्रमी प्रद्युम्न, परम कान्तिमान अनिरुद्ध तथा सेवकों और दासियों सहित सुन्दरी उषा- इन सबको और नाना प्रकार के रत्नों को भी गरुड़ पर चढ़ाया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 38 का हिन्दी अनुवाद)
इसके बार शंख, चक्र, गदा और खड्ग धारण करने वाले, पीताम्बरधारी, महाबली एवं महातेजस्वी श्रीकृष्ण बड़ी प्रसन्नता के साथ स्वयं भी गरुड़ पर आरूढ़ हुए, मानो भगवान भास्कर उदयाचल पर आसीन हुए हों। उस समय भगवान के श्रीअंग दिव्य आभूषणों से विचित्र शोभा धारण कर रहे थे। गरुड़ पर आरूढ़ हो श्रीकृष्ण द्वारका की ओर चल दिये। राजन्! अपनी पुरी द्वारका में पहुँचकर वे यदुवंशियों के साथ ठीक वैसे ही आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे इन्द्र स्वर्गलोक में देवताओं के साथ रहते हैं। भरतश्रेष्ठ! भगवान श्रीकृष्ण ने मुर दैत्य के पाश काट दिये, निशुम्भ और नरकासुर को मार डाला और प्राग्ज्योतिषपुर का मार्ग सब लोगों के लिये निष्कण्टक बना दिया। इन्होंने अपने धनुष की टंकार और पांचजन्य शंख के हुंकार से समस्त भूपालों को आतंकित कर दिया है।
भरतकुलभूषण! भगवान केशव ने उस रुक्मी को भी भयभीत कर दिया, जिसके पास मेघों की घटा के समान असंख्य सेनाएँ हैं और जो दाक्षिणात्य सेवकों से सदा सुरक्षित रहता है। इन चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने रुक्मी को हराकर सूर्य के समान तेजस्वी तथा मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाले रथ के द्वारा भोजकुलोत्पन्न रुक्मिणी का अपहरण किया, जो इस समय इनकी महारानी के पद पर प्रतिष्ठित है। ये जारूथी नगरी में वहाँ के राजा आहुति को तथा क्राथ एवं शिशुपाल को भी परास्त कर चुके हैं। इन्होंने शैब्य, दन्तवक्र तथा शतधन्वा नामक क्षत्रियों को भी हराया है। इन्होंने इन्द्रद्युम्न, कालयवन और कशेरुमान का भी क्रोधपूर्वक वध किया है। कमलनयन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने चक्र द्वारा सहस्रों पर्वतों को विदीर्ण करके द्युमत्सेन के साथ युद्ध किया। भरतश्रेष्ठ! जो बल में अग्नि और सूर्य के समान थे और वरुण देवता के उभय पार्श्व में विचरण करते तथा जिनमें पलक मारते-मारे एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँच जाने की शक्ति थी, वे गोपति और ताल केतु भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा महेन्द्र पर्वत शिखर पर इरावती नदी के किनारे पकड़ और मारे गये।
अक्षप्रपतन के अन्तर्गत नेमिहंस पथ नामक स्थान में, जो उनके अपने ही राज्यों में पड़ता था, उन दोनों को भगवान श्रीकृष्ण ने मारा था। बहुतेरे असुरों से घिरे हुए पुरश्रेष्ठ प्राग्ज्योतिष में पहुँचकर वहाँ की पर्वतमाला के लाल शिखरों पर जाकर श्रीकृष्ण ने उन लोकपाल वरुण देवता पर विजय पायी, जो दूसरों के लिये दुर्धर्ष, अजेय एवं अत्यन्त तेजस्वी हैं। पार्थ! यद्यपि इन्द्र पारिजात के लिये द्वीप (रक्षक) बने हुए थे, स्वयं ही उसकी रक्षा करते थे, तथापि महाबली केशव ने उस वृक्ष का अपहरण कर लिया। लक्ष्मीपति जनार्दन ने पाण्ड्य, पौण्ड, मत्स्य, कलिंग और अंग आदि देशों के समस्त राजाओं का एक साथ पराजित किया। यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने केवल एक रथ पर चढ़कर अपने विरोध में खड़े हुए सौ क्षत्रिय नरेशों को मौत के घाट उतारकर गान्धारराजकुमारी शिंशुमा को अपनी महारानी बनाया। युधिष्ठिर! चक्र और गदा धारण करने वाले इन भगवान ने बभ्रु का प्रिय करने की इच्छा से वेणुदारि के द्वारा अपहृत की हुई उनकी भार्या का उद्धार किया था। इतना ही नहीं, मधुसूदन ने वेणुदारि के वंश में पड़ी हुई घोड़ों, हाथियों एवं रथों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी को भी जीत लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के भाग 39 का हिन्दी अनुवाद)
भारत! जिस बाणासुर ने तपस्या द्वारा बल, वीर्य और ओज पाकर समस्त देवेश्वरों को उनके गणों सहित भयभीत कर दिया था, इन्द्र आदि देवताओं के द्वारा बारंबार वज्र, अशनि, गदा और पाशों का प्रहार करके त्रास दिये जाने पर भी समरांगण में जिसकी मृत्यु न हो सकी, उसी दैत्यराज बाणासुर को महामना भगवान गोविन्द ने उसकी सहस्र भुजाएँ काटकर पराजित एवं क्षत विक्षत कर दिया। मधु दैत्य का विनाश करने वाले इन महाबाहु जनार्दन ने पीठ, कंस, पैठक और अतिलोमा नामक असुरों को भी मार दिया। भरतश्रेष्ठ! इन महायशस्वी श्रीकृष्ण ने जम्भ, ऐरावत, विरूप और शत्रुमर्दन शम्बरासुर को (अपनी विभूतियों द्वार) मरवा डाला। भरतकुलभूषण! इन कमलनयन श्रीहरि ने भोगवतीपुरी में जाकर वासुकि नाग को हराकर राहिणीनन्दन को बन्धन से छुड़ाया। इस प्रकार संकर्षण सहित कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में ही बहुत से अद्भुत कर्म किये थे। ये ही देवताओं और असुरों को सर्वथा अभय तथा भय देने वाले हैं। भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण दुष्टों का दमन करने वाले ये महाबाहु भगवान श्रीहरि अनन्त देवकार्य सिद्ध करके अपने परमधाम को पधारेंगे।
ये महायशस्वी श्रीकृष्ण मुनिजन वान्छित एवं भोगों से सम्पन्न रमणीय द्वारकापुरी को आत्मसात् करके समुद्र में विलीन कर देंगे। ये चैत्य और यूपों से सम्पन्न, परम पुण्यवती, रमणीय एवं मंगलमयी द्वारका को वन उपवनों सहित वरुणालय में डुबा देंगे। सूर्यलोक के समान कान्तिमती एवं मनोरम द्वारकापुरी को जब शांर्गधन्वा वासुदेव त्याग देंगे, उस समय समुद्र इसे अपने भीतर ले लेगा। भगवान मधुसूदन के सिवा देवताओं, असुरों और मनुष्यों में ऐसा कोई राजा न हुआ और न होगा ही, जो द्वारकापुरी में रहने का संकल्प भी कर सके। उस समय वृष्णि और अन्धकवंश के महारथी एवं उनके कान्तिमान् शिशु भी प्राण त्यागकर भगवत्सेवित परमधाम को प्राप्त करेंगे। इस प्रकार के दशार्हवंशियों के सब कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न करेंगे। ये स्वयं ही विष्णु, नारायण, सोम, सूर्य और सविता हैं। ये अप्रमेय हैं। इन पर किसी का नियंत्रण नहीं चल सकता। ये इच्छानुसार चलने वाले और सबको अपने वंश में रखने वाले हैं। जैसे बालक खिलौने से खेलता है, उसी प्रकार ये भगवान सम्पूर्ण प्राणियों के साथ आनन्दमयी क्रीड़ा करते हैं। ये प्रभु ना तो किसी के गर्भ में आते हैं और न किसी योनिविशेष में इनका आवास हुआ है अर्थात ये अपने आप ही प्रकट हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण अपने ही तेज से सब की सद्गति करते हैं। जैसे बूंद बूंद पानी से उठकर फिर उसी में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार समस्त चराचर भूत सदा भगवान नारायण से प्रकट होकर उन्हीं में विलीन हो जाते हैं। भारत! इन महाबाहु केशव की कोई इतिश्री नहीं बतायी जा सकती। इन विश्वरूप परमेश्वर से भिन्न पर और अपर कुछ भी नहीं है। यह शिशुपाल मूढ़बुद्धि पुरुष है, यह भगवान श्रीकृष्ण को सर्वत्र व्यापक तथा सर्वदा स्थिर नहीं जानता है, इसीलिए उनके सम्बन्ध में ऐसी बातें कहता है। जो बुद्धिमान मनुष्य उत्तम धर्म की खोज करता है, वह धर्म के स्वरूप को जैसा समझता है, वैसा यह चेदिराज शिशुपाल नहीं समझता। अथवा वृद्धों और बालकों सहित यहाँ बैठे हुए समस्त महात्मा राजाओं में ऐसा कौन है, जो श्रीकृष्ण को पूज्य न मानता हो या कौन है, जो इनकी पूजा न करता हो? यदि शिशुपाल इस पूजा को अनुचित मानता है, तो अब उस अनुचित पूजा के विषय में उसे जो उचित जान पड़े, वैसा करे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरण पर्व में भीष्मवाक्य नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें