सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) के छठे अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the 6th chapter to the 10th chapter of the entire Mahabharata (Sabha Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

छठा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर की सभाओं के विषय में जिज्ञासा"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! देवर्षि नारद का यह उपदेश पूर्ण होने पर युधिष्ठिर ने भलीभाँति उनकी पूजा की; तदनन्तर उनसे आज्ञा लेकर उनके प्रश्न का उत्तर दिया। 

युधिष्ठिर बोले ;- भगवन! आपने जो यह राजधर्म का यथार्थ सिद्धान्त बताया है, वह सर्वथा न्यायोचित है। मैं आपके इस न्यायानुकूल आदेश का यथाशक्ति पालन करता हूँ। इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन काल के राजाओं ने जो कार्य जैसे सम्पन्न किया, वह प्रत्येक न्यायोचित, सकारण और किसी विशेष प्रयोजन से युक्त होता था।

प्रभो! हम भी उन्हीं के उत्तम मार्ग से चलना चाहते हैं, परंतु उस प्रकार चल नहीं पाते; जैसे वे नियतात्मा महापुरुष चला करते थे।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर धर्मात्मा युधिष्ठिर ने नारद जी के पूर्वोक्त प्रवचन की बड़ी प्रशंसा की। फिर सम्पूर्ण लोकों में विचरने वाले नारद मुनि जब शान्तिपूर्वक बैठ गये, तब दो घड़ी के बाद ठीक अवसर जानकर महातेजस्वी पाण्डु पुत्र राजा युधिष्ठिर भी उन के निकट आ बैठे और सम्पूर्ण राजाओं के बीच वहाँ उनसे इस प्रकार पूछने लगे।

युधिष्ठिर ने पूछा ;- मुनिवर! आप मन के समान वेगशाली हैं, अतः ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में जिनका निर्माण किया है, उन अनेक प्रकार के बहुत-से लोकों का दर्शन करते हुए आप उनमें सदा बेरोक-टोक विचरते रहते हैं। ब्रह्मन! क्या आपने पहले कहीं ऐसी या इससे भी अच्छी कोई सभा देखी है? मैं जानना चाहता हूँ, अतः आप मुझसे यह बात बतावें। 

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर का यह प्रश्न सुनकर देवर्षि नारद जी मुस्‍कराने लगे और उन पाण्डु कुमार को इसका उत्तर देते हुए मधुर वाणी में बोले।

नारद जी ने कहा ;- तात! भरतवंशी नरेश! मणि एवं रत्नों की बनी हुई जैसी तुम्हारी यह सभा है, ऐसी सभा मैंने मनुष्‍य लोक में ना तो पहले देखी है और न कानों से ही सुनी है।  भरतश्रेष्ठ! यदि तुम्हारा मन दिव्य सभाओं का वर्णन सुनने को उत्सुक हो तो मैं तुम्हें पितृराज यम, बुद्धिमान वरुण, स्वर्गवासी इन्द्र, कैलास निवासी कुबेर तथा ब्रह्मा जी की दिव्य सभा का वर्णन सुनाऊँगा, जहाँ किसी प्रकार का क्लेश नहीं है एवं जो दिव्य और अदिव्य भोगों से सम्पन्न तथा संसार के अनेक रूपों से अलंकृत है। वह देवता, पितृगण, साध्यगण, याजक तथा मन को वश में रखने वाले शान्त मुनिगणों से सेवित है। वहाँ उत्तम दक्षिणाओं से युक्त वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान होता है। 

  नारद जी के ऐसा कहने पर भाइयों तथा सम्पूर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ महामनस्वी धर्मराज युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा- ‘महर्षे! हम सभी दिव्य सभाओं का वर्णन सुनना चाहते हैं। आप उनके विषय में सब बातें बताइये।

‘ब्रह्मन! उन सभाओं का निर्माण किस द्रव्य से हुआ है? उनकी लंबाई-चैड़ाई कितनी है? ब्रह्मा जी की उस दिव्य सभा में कौन-कौन सभासद उन्हें चारों ओर से घेरकर बैठते हैं? ‘इसी प्रकार देवराज इन्द्र, वैवस्वत यम, वरुण तथा कुबेर की सभा में कौन-कौन लोग उनकी उपासना करते हैं? ‘ब्रह्मर्षे! हम सब लोग आपके मुख से ये सब बातें यथोचित रीति से सुनना चाहते हैं। हमारे मन में उसके लिये बड़ा कौतूहल है’।

पाण्डु कुमार युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर नारद जी ने उत्तर दिया- राजन! तुम हमसे यहाँ उन सभी दिव्य सभाओं का क्रमशः वर्णन सुनो’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत लोकपाल सभाख्यान पर्व में युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा- विषयक छठा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"इन्द्र सभा का वर्णन"

नारद जी कहते हैं ;- कुरुनन्दन! इन्द्र की तेजोमयी दिव्य सभा सूर्य के समान प्रकाशित होती है। प्रयत्नों से उसका निर्माण हुआ है। स्वंय इन्द्र ने उस पर विजय पायी है।

उसकी लंबाई डेढ़ सौ चौड़ाई सौ योजन की है। वह आकाश में विचरने वाली और इच्छा के अनुसार तीव्र या मन्द गति से चलने वाली है। उसकी ऊँचाई भी पाँच योजन की है।

उसमें जीर्णता,शोक और थकावट आदि का प्रवेश नहीं है। वहाँ भय नहीं है, वह मंगलमयी और शोभा सम्पन्न है। उसमें ठहरने के लिये सुन्दर-सुन्दर महल और बैठने के लिये उत्तमोत्तम सिंहासन बने हुए हैं। वह रमणीय सभा दिव्य वृक्षों से सुशोभित होती है। 

   भारत! कुन्तीनन्दन! उस सभा में सर्वश्रेष्ठ सिंहासन पर देवराज इन्द्र शोभा में लक्ष्मी के समान प्रतीत होने वाली इन्द्राणी शची के साथ विराजते हैं। उस समय वे अवर्णनीय रूप धारण करते हैं। उनके मस्तक पर किरीट रहता है और दोनों भुजाओं में लाल रंग के बाजू बंद शोभा पाते हैं। उनके शरीर पर स्वच्छ वस्त्र और कण्ठ में विचित्र माला सुशोभित होती है। वे लज्जा, कीर्ति और कान्ति- इन देवियों के साथ उस दिव्य सभा में विराजमान होते हैं।

राजन! उस दिव्य सभा में सभी मरूद्गण और गृहवासी देवता सौ यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण कर लेने वाले महात्मा इन्द्र की प्रतिदिन सेवा करते हैं।

सिद्ध, देवर्षि, साध्यदेवगण तथा मरुत्वान- ये सभी सुवर्ण-मालाओं से सुशोभित हो तेजस्वी रूप धारण किये एक साथ उस दिव्य सभा में बैठकर शत्रुदमन महामना देवराज इन्द्र की उपासना करते हैं। वे सभी देवता अपने अनुचरों के साथ वहाँ विराजमान होते हैं। वे दिव्य रूप धारी होने के साथ ही उत्तमोत्तम अलंकारों से अलंकृत रहते हैं।

कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार जिनके पाप धुल गये हैं, वे अन्नि के समान उद्दीप्त होने वाले सभी निर्मल देवर्षि वहाँ इन्द्र की उपासना करते हैं। वे देवर्षिगण तेजस्वी, सोमयाग करने वाले तथा शोक और चिन्ता से शून्य हैं।

  पराशर, पर्वत, सावर्णि, गालव, शंख, लिखित, गौरशिरा मुनि, दुर्वासा, क्रोधन, श्येन,दीर्घतमा मुनि, पवित्रपाणि, सावर्णि (द्वितीय), याज्ञवल्क्य, भालुकि, उद्दालक, श्वेतकेतु, ताण्डव्य, भाण्डायनि, हविष्मान, गरिष्ठ, राजा हरिश्चंद्र, हृद्य, उदरशाण्डिल्य, पराशरनन्दन व्यास, कृषीवल, वातस्कन्ध, विशाख, विधाता, काल, करालदन्त, त्वष्टा, विश्वकर्मा तथा तुम्बुरु- ये और दूसरे अयोनिज या योनिज मुनि एवं वायु पीकर रहने वाले तथा हविष्य-पदार्थों को खाने वाले महर्षि सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर वज्रधारी इन्द्र की उपासना करते हैं।

  भरतवंशी नरेश पाण्डु नन्दन! सहदेव, सुनीथ, महातपस्वी वाल्मीकि, सत्यवादी शमीक, सत्यप्रतिज्ञ प्रचेता, मेधातिथि, वामदेव, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, मरुत्त, मरीचि, महातपस्वी स्थाणु, कक्षीवान, गौतम, तार्क्ष्य, वैश्वानरमुनि, षडर्तु, कवष, धूम्र, रैभ्य, नल, परावसु, स्वस्त्यात्रेय, जरत्कारु, कहोल, काश्यप, विभाण्डक, ऋष्यश्रृंग, उन्मुख, विमुख, कालकवृक्षीय मुनि, आश्राव्य, हिरण्मय, संवर्त, देवहव्य, पराक्रमी विष्वक्सेन, कण्व, कात्यायन, गार्ग्य, कौशिक, दिव्यजल, ओषधियाँ, श्रद्धा, मेधा, सरस्वती, अर्थ, धर्म, काम, विद्युत, जलधरमेघ, वायु, गर्जना करने वाले बादल, प्राची दिशा, यज्ञ के हविष्य को वहन करने वाले सत्ताईस पावक, सम्मिलित अग्नि और सोम, संयुक्त इन्द्र और अग्नि, मित्र, सविता, अर्यभा, भग, विश्वेदेव, साध्य, बृहस्पति, शुक्र, विश्वावसु, चित्रसेन, सुमन, तरुण, विविध यज्ञ, दक्षिणा, ग्रह, तारा और यज्ञनिर्वाहक मन्त्र- ये सभी वहाँ इन्द्रसभा में बैठते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 24-30 का हिन्दी अनुवाद)

राजन! इसी प्रकार मनोहर अप्सराएँ तथा सुन्दर गन्धर्व नृत्य, वाद्य, गीत एवं नाना प्रकार के हास्यों द्वारा देवराज इन्द्र का मनोरंजन करते हैं। इतना ही नहीं, वे स्तुति, मंगल पाठ और पराक्रम सूचक कर्मों के गायन द्वारा बल और वृत्रनामक असुरों के नाशक महात्मा इन्द्र का स्तवन करते हैं।

ब्रह्मर्षि, राजर्षि तथा सम्पूर्ण देवर्षि माला पहने एवं वस्त्राभूषणों से विभूषित हो, नाना प्रकार के दिव्य विमानों द्वारा अग्नि के समान देदीप्यमान होते हुए वहाँ आते-जाते रहते हैं। बृहस्पति और शुक्र वहाँ नित्य विराजते हैं। ये तथा और भी बहुत से संयमी महात्मा जिनका दर्शन चन्द्रमा के समान प्रिय है, चन्द्रमा की भाँति चमकीले विमानों द्वारा वहाँ उपस्थित होते हैं। राजन! भृगु और सप्तर्षि, जो साक्षात ब्रह्माजी के समान प्रभावशाली हैं, ये भी इन्द्र-सभा की शोभा बढ़ाते हैं।

महाबाहु नरेश! शतक्रतु इन्द्र की कमल-मालाओं से सुशोभित सभा मैंने अपनी आँखों देखी है। अब यमराज की सभा का वर्णन सुनो। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत लोकपाल सभाख्यान पर्व में इन्द्र-सभा-वर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)

"यमराज की सभा का वर्णन"

नारद जी कहते हैं ;- कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! अब मैं सूर्यपुत्र यम की सभा का वर्णन करता हूँ, सुनो। उसकी रचना भी विश्वकर्मा ने ही की है। राजन! वह तेजोमयी विशाल सभा लम्बाई और चौड़ाई में भी सौ योजन है तथा पाण्डुनन्दन! सम्भव है, इससे भी कुछ बड़ी हो।

उसका प्रकाश सूर्य के समान है। इच्छानुसार रूप धारण करने वाली वह सभा सब ओर से प्रकाशित होती है। वह न तो अधिक शीतल है, न अधिक गर्म। मन को अत्यन्त आनन्द देने वाली है। उसके भीतर न शोक है, न जीर्णता; न भूख लगती है, न प्यास। वहाँ कोई भी अप्रिय घटना नहीं घटित होती। दीनता, थकावट अथवा प्रतिकूलता का तो वहाँ नाम भी नहीं है।

शत्रुदमन! वहाँ दिव्य और मानुष, सभी प्रकार के भोग उपस्थित रहते हैं। सरस एवं स्वादिष्ठ भक्ष्य-भोज्य पदार्थ प्रचुर मात्रा में संचित रहते हैं।

इसके सिवा चाटने योग्य, चूसने योग्य, पीने योग्य तथा हृदय को प्रिय लगने वाली और भी स्वादिष्ठ एवं मनोहर वस्तुएँ वहाँ सदा प्रस्तुत रहती हैं। उस सभा में पवित्र सुगन्ध फैलाने वाली पुष्प-मालाएँ और सदा इच्छानुसार फल देने वाले वृक्ष लहलहाते रहते हैं। वहाँ ठंडे और गर्म स्वादिष्ठ जल नित्य उपलब्ध होते हैं। तात! वहाँ बहुत से पुण्यात्मा राजर्षि और निर्मल हृदय-वाले ब्रह्मर्षि प्रसन्नतापूर्वक बैठकर सूर्य पुत्र यम की उपासना करते हैं। 

ययाति, नहुष, पूरु, मान्धाता, सोमक, नृग, त्रसद्दस्यु, राजर्षि कृतवीर्य, श्रुतश्रवा, अरिष्टनेमि, सिद्ध, कृतवेग, कृति, निमि, प्रतर्दन, शिबि, मत्स्य, पृथुलाक्ष, बृहद्रथ, वार्त, मरुत्त, कुशिक, सांकाश्य, सांकृति, ध्रुव, चतुरश्व, सदश्वोर्मि, राजा कार्तवीर्य अर्जुन, भरत, सुरथ, सुनीथ, निशठ, नल, दिवोदास, सुमना, अम्बरीष, भगीरथ, व्यश्व, सदश्व, बध्यश्व, पृथुवेग, पृथुश्रवा, पृषदश्व, वसुमना, महाबली क्षुप, रुषद्रु, वृषसेन, रथ और ध्वजा से युक्त पुरुकुत्स, आर्ष्टिषेण, दिलीप महात्मा उशीनर, औशीनरि, पुण्डरीक, शर्याति, शरभ, शुचि, अंग, अरिष्ट, वेन, दुष्यन्त, सृन्जय, जय, भांगासुरि, सुनीथ, निषधेश्वर, वहीनर, करन्धम, बाह्लिक, सुद्युम्न, बलवान मधु, इला नन्दन पुरूरवा, बलवान राजा मरुत्त, कपोतरोमा, तृणक, सहदेव, अर्जुन, व्यश्व, साश्व, कृशाश्व, राजा शशबिन्दु, महाराज दशरथ, ककुत्स्थ, प्रवर्धन, अलर्क, कक्षसेन, गय, गौराश्व, जमदग्निनन्दन परशुराम, नाभाग, सगर, भूरिद्युम्न, महाश्व, पृथाश्व, जनक, राजा पृथु, वारिसेन, पुरूजित, जनमेजय, ब्रह्मदत्त, त्रिगर्त, राजा उपरिचर, इन्द्रद्युम्न, भीमजानु, गौरपृष्ठ, अनघ, लय, पद्म, मुचुकुन्द, भूरिद्युम्न, प्रसेनजित, अरिष्टनेमि, सुद्युम्न , पृथुलाश्व, अष्टक, एक सौ मत्स्य, एक सौ नीप, एक सौ गय, एक सौ धृतराष्ट्र, अस्सी जनमेजय, सौ ब्रह्मदत्त, सौ वीरी, सौ ईरी, दो सौ भीष्म, एक सौ भीम, एक सौ प्रतिविन्ध्य, एक सौ नाग तथा एक सौ हय, सौ पलाश, सौ काश और सौ कुश राजा एवं शान्तनु, तुम्हारे पिता पाण्डु, उशंगव, शतरथ, देवराज, जयद्रथ, मन्त्रियों सहित बुद्धिमान राजर्षि वृषदर्भ तथा इनके सिवा सहस्रों शशबिन्दु नामक राजा, जो अधिक दक्षिणा वाले अनेक महान अश्वमेध यज्ञों द्वारा यजन करके धर्मराज के लोक में गये हुए हैं। राजेन्द्र! ये सभी पुण्यात्मा, कीर्तिमान और बहुश्रुत राजर्षि उस सभा में सूर्यपुत्र यम की उपासना करते हैं।

  अगस्त्य, मतंग, काल, मृत्यु, यज्ञकर्ता, सिद्ध, योग-शरीरधारी, अग्निष्वात्त पितर, फेनप, ऊष्मप, स्वधावान, बर्हिषद तथा दूसरे मूर्तिमान पितर, साक्षात कालचक्र, भगवान हव्य-वाहन, दक्षिणायन में मरने वाले तथा सकामभाव से दुष्कर कर्म करने वाले मनुष्य, जनेश्वर काल की आज्ञा में तत्पर यमदूत, शिंशप एवं पलाश, काश और कुश आदि के अभिमानी देवता मूर्तिमान होकर उस सभा में धर्मराज की उपासना करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 33-41 का हिन्दी अनुवाद)

ये तथा और भी बहुत - से लोग पितृराज यम की सभा के सदस्य हैं, जिनके नामों और कर्मों की गणना नहीं की जा सकती। कुन्तीनन्दन! वह सभा बाधारहित है। वह रमणीय तथा इच्छानुसार गमन करने वाली है। विश्वकर्मा ने दीर्घकाल तक तपस्या करके उसका निर्माण किया है।

भारत! वह सभा अपने तेज से प्रज्वलित तथा उद्भासित होती रहती है। कठोर तपस्या और उत्तम व्रत का पालन करने वाले, सत्यवादी, शान्त, संन्यासी तथा अपने पुण्यकर्म से शुद्ध एवं पवित्र हुए पुरुष उस सभा में जाते हैं। उन सबके शरीर तेज से प्रकाशित होते रहते हैं। सभी निर्मल वस्त्र धारण करते हैं।

सभी अद्भुत बाजूबंद, विचित्र हार और जगमगाते हुए कुण्डल धारण करते हैं। वे अपने पवित्र शुभ कर्मों तथा वस्त्राभूषणों से भी विभूषित होते हैं।

कितने ही महामना गन्धर्व और झुंड-की- झुंड अप्सराएँ उस सभा में उपस्थित हो सब प्रकार के वाद्य, नृत्य, गीत, हास्य और लास्य की उत्तम कला का प्रदर्शन करती हैं।

कुन्तीकुमार! उस सभा में सदा सब ओर पवित्र गन्ध, मधुर शब्द और दिव्य मालाओें के सुखद स्पर्श प्राप्त होते रहते हैं। सुन्दर रूप धारण करने वाले एक करोड़ धर्मात्मा एवं मनस्वी पुरुष महात्मा यम की उपासना करते हैं। राजन! पितृराज महात्मा यम की सभा ऐसी ही है। अब मैं वरुण की मूर्तिमान पुष्कर आदि तीर्थमालाओं से सुशोभित सभा का भी वर्णन करूँगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत लोकपाल सभाख्यान पर्व में यम-सभा-वर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

नवाँ अध्याय

(महाभारत: सभा पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"वरुण की सभा का वर्णन"

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! वरुण देव की दिव्य सभा अपनी अनन्त कान्ति से प्रकाशित होती रहती है। उसकी भी लम्बाई-चौड़ाई मान वही है, जो यमराज की सभा का है। उसके परकोटे और फाटक बड़े सुन्दर हैं। विश्वकर्मा ने उस सभा को जल के भीतर रहकर बनाया है। वह फल-फूल देने वाले दिव्य रत्नमय वृक्षों से सुशोभित होती है।

उस सभा के भिन्न-भिन्न प्रदेश नीले-पीले, काले, सफेद और लाल रंग के लतागुल्मों से आच्छादित हैं। उन लताओं ने मनोहर मञ्जरीपुञ्ज धारण कर रक्खे हैं। सभा भवन के भीतर विचित्र और मधुर स्वर से बोलने-वाले सैकड़ो-हजारों पक्षी चहकते रहते हैं। उनके विलक्षण रूप-सौन्दर्य का वर्णन नहीं हो सकता। उनकी आकृति बड़ी सुन्दर है।

वरुण की सभा का स्‍पर्श बड़ा ही सुखद है, वहाँ न सर्दी है, न गर्मी। उसका रंग श्वेत है, उसमें कितने ही कमरे और आसन सजाये गये हैं। वरुण जी के द्वारा सुरक्षित वह सभा बड़ी रमणीय जान पड़ती है।

उसमें दिव्य रत्नों और वस्त्रों को धारण करने वाले तथा दिव्य अलंकारों से अलंकृत वरुणदेव वारूणी देवी के साथ विराजमान होते हैं। उस सभा में दिव्य हार, दिव्य सुगन्ध तथा दिव्य चन्दन का अंगराग धारण करने वाले आदित्यगण जल के स्वामी वरुण की उपासना करते हैं। वासुकि नाग, तक्षक, ऐरावतनाग, कृष्ण, लोहित, पद्म और पराक्रमी चित्र।

   कम्बल, अश्वतर, धृतराष्ट्र, बलाहक, मणिनाग, नाग, मणि, शंखनख, कौरव्य, स्वस्तिक, एलापत्र, वामन, अपराजित, दोष, नन्दक, पूरण, अभीक, शिभिक, श्वेत, भद्र, भद्रेश्वर, मणिमान, कुण्डधार, कर्कोटक, धनञ्जय।

पाणिमान, बलवान, कुण्डधार, प्रह्राद, मूषिकाद, जनमेजय आदि नाग जो पताका, मण्डल और फणों से सुशोभित वहाँ उपस्थित होते हैं, महानाग भगवान अनन्त भी वहाँ स्थित होते हैं, जिन्हें देखते ही जल के स्वामी वरुण आसन आदि देते और सत्कार पूर्वक उन का पूजन करते हैं। वासुकि आदि सभी नाग हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े होते और भगवान शेष की आज्ञा पाकर यथायोग्य आसनों पर बैठकर वहाँ शोभा बढ़ाते हैं। युधिष्ठिर! ये तथा और भी बहुत-से नाग उस सभा में क्लेशरहित हो महात्मा वरुण की उपासना करते हैं। 

विरोचन पुत्र राजा बलि, पृथ्वी विजयी नरकासुर, प्रह्लाद, विप्रचित्ति, कालखञ्ज दानव, सुहनु, दुर्मुख, शंख, सुमना, सुमति, घटोदर, महापार्श्व, क्रथन, पिठर, विश्वरूप, स्वरूप, विरूप, महाशिरा, दशमुख रावण, वाली, मेघवासा, दशावर, टिट्टिभ, विटभूत, संह्राद तथा इन्द्रतापन आदि सभी दैत्यों और दानवों के समुदाय मनोहर कुण्डल, सुन्दर हार, किरीट तथा दिव्य वस्त्रा भूषण धारण किये उस सभा में धर्मपाशधारी महात्मा वरुण देव की सदा उपासना करते हैं। वे सभी दैत्य वरदान पाकर शौर्यसम्पन्न हो मृत्यु-रहित हो गये हैं। उनका चरित्र एवं व्रत बहुत उत्तम है। चारों समुद्र, भागीरथी नदी, कालिन्दी, विदिशा, वेणा, नर्मदा, वेगवाहिनी। विपाशा, शतद्रु, चन्द्रभागा, सरस्वती, इरावती, वितस्ता, सिन्धु, देवनदी।  गोदावरी, कृष्णवेणा, सरिताओं में श्रेष्ठ कावेरी, किम्पुना, विशल्या, वैतरणी। तृतीया, ज्येष्ठिला, महानद शोण, चर्मण्वती, पर्णाशा, महानदी। 

सरयू, वारवत्या, सरिताओं में श्रेष्ठ लांगली, करतोया, आत्रेयी, महानद लौहित्य।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 23-30 का हिन्दी अनुवाद)

भरतवंशी राजेन्द्र युधिष्ठिर! लंघती, गोमती, संध्या और त्रिस्रोतसी, ये तथा दूसरे लोक विख्यात उत्तम तीर्थ। समस्त सरिताएँ, जलाशय, सरोवर, कूप, झरने, पोखरे और तालाब, सम्पूर्ण दिशाएँ, पृथ्वी तथा सम्पूर्ण जलचर जीव अपने-अपने स्वरूप धारण करके महात्मा वरुण की उपासना करते हैं।

सभी गन्धर्व और अप्सराओं के समुदाय भी गीत गाते और बाजे बजाते हुए उस सभा में वरुण देवता की स्तुति एवं उपासना करते हैं। 

रत्नयुक्त पर्वत और प्रतिष्ठित रस अत्यन्त मधुर कथाएँ कहते हुए वहाँ निवास करते हैं। वरुण का मन्त्री सुनाभ अपने पुत्र-पौत्रों से घिरा हुआ गौ तथा पुष्कर नाम वाले तीर्थ के साथ वरुण देव की उपासना करता है। ये सभी शरीर धारण करके लोकश्वर वरुण की उपासना करते रहते हैं। 

भरतश्रेष्ठ! पहले सब ओर घूमते हुए मैंने वरुण जी की इस रमणीय सभा का भी दर्शन किया है। अब तुम कुबेर की सभा का वर्णन सुनो। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत लोकपाल सभाख्यान पर्व में वरुण-सभा-वर्णन विषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

"कुबेर की सभा का वर्णन"

नारद जी कहते हैं ;- राजन! कुबेर की सभा सौ योजन लंबी और सत्तर योजन चौड़ी है, वह अत्यन्त श्वेत प्रभा से युक्त है।

   युधिष्ठिर! विश्रवा के पुत्र कुबेर ने स्वयं ही तपस्या करके उस सभा को प्राप्त किया है। वह अपनी धवल कान्ति से चन्द्रमा की चाँदनी भी तिरस्कृत कर देती है और देखने में कैलास शिखर -सी जान पड़ती है। गुह्यकगण जब सभा को उठाकर ले चलते हैं, उस समय वह आकाश में सटी हुई- सी सुशोभित होती है। यह दिव्य सभा ऊँचे सुवर्णमय महलों से शोभायमान होती है।

  महान रत्नों से उसका निर्माण हुआ है। उसकी झाँकी बड़ी विचित्र है। उससे दिव्य सुगन्ध फैलती रहती है और वह दर्शक के मन को अपनी ओर खींच लेती है। श्वेत बादलों के शिखर-सी प्रतीत होने वाली वह सभा आकाश में तैरती-सी दिखायी देती है। उस दिव्य सभा की दीवारों विद्युत के समान उद्दीप्त होने वाले सुनहले रंगों से चित्रित की गयी हैं। उस सभा में सूर्य के समान चमकीले दिव्य बिछौनों से ढके हुए दिव्य पादपीठों से सुशोभित श्रेष्ठ सिंहासन पर कानों में ज्योति से जगमगाते कुण्डल और अंगों में विचित्र वस्त्र एवं आभूषण धारण करने वाले श्रीमान राजा वैश्रवण सहस्रों स्त्रियों से घिरे हुए बैठते हैं।

उदार मन्दार वृक्षों के वनों को आन्दोलित करता तथा सौगन्धिक कानन, अलका नामक पुष्करिणी और नन्दन वन की सुगन्ध का भार वहन करता हुआ हृदय को आनन्द प्रदान करने वाला गन्धवाही शीतल समीर उस सभा में कुबेर की सेवा करता है। महाराज! देवता और गन्धर्व अप्सराओं के साथ उस सभा में आकर दिव्य तानों से युक्त गीत गातें हैं।

मिश्वकेशी, रम्भा, चित्रसेना, शुचिस्मिता, चारूनेत्रा, घृताची, मेनका, पुन्जिकस्थला, विश्वाची, सहजन्या, प्रम्लोचा, उर्वशी, इरा, वर्ग, सौरभेयी, समीची, बुद्बुदा तथा लता आदि नृत्य और गीत में कुशल सहस्रों अप्सराओं और गन्धर्वों के गण कुबेर की सेवा में उपस्थित होते हैं। गन्धर्व और अप्सराओं के समुदाय से भरी तथा दिव्‍य वाद्य, नृत्य एवं गीतों से निरन्तर गूँजती हुई कुबेर की वह सभा बड़ी मनोहर जान पड़ती है।

किन्नर तथा नर नाम वाले गन्धर्व, मणिभद्र, धनद, श्वेतभद्र गुह्यक, कशेरक, गण्डकण्डू, महाबली प्रद्योत, कुस्तुम्बुरू पिशाच, गजकर्ण, विशालक, वराहकर्ण, ताम्रोष्ठ, फलकक्ष, फलोदक, हंसचूड़, शिखावर्त, हेमनेत्र, विभीषण, पुष्पानन, पिंगलक, शोणितोद, प्रवालक, वृक्षवासी, अनिकेत तथा चीरवासा, भारत! ये तथा दूसरे बहुत-से यक्ष लाखों की संख्या में उपस्थित होकर उस सभा में कुबेर की सेवा करते हैं। धन-सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी भगवती लक्ष्मी, नलकूबर, मैं तथा मेरे-जैसे और भी बहुत-से लोग प्रायः उस सभा में उपस्थित होते हैं।

ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा अन्य ऋषिगण उस सभा में विराजमान होते हैं। इनके सिवा, बहुत-से पिशाच और महाबली गन्धर्व वहाँ लोकपाल महात्मा धनद की उपासना करते हैं।

  नृपश्रेष्ठ! लाखों भूत समूहों से घिरे हुए उग्र धनुर्धर महाबली पशुपति, शूलधारी, भगदेवता के नेत्र नष्ट करने वाले तथा त्रिलोचन भगवान उमापति और क्लेशरहित देवी पार्वती ये दोनों वामन विकट, कुब्ज, लाल नेत्रों वाले, महान कोलाहल करने वाले, मेदा और मांस खाने वाले, अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले तथा वायु के समान महान वेगशाली भयानक भूतप्रेतादि के साथ उस सभा में सदैव धन देने वाले अपने मित्र कुबेर के पास बैठते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 25-40 का हिन्दी अनुवाद)

इनके सिवा और भी विविध वस्त्राभूषणों से विभूषित और प्रसन्नचित्त सैकड़ों गन्धर्वपति विश्वावसु, हाहा, हूहू, तुम्बुरु, पर्वत, शैलूष, संगीतज्ञ चित्रसेन तथा चित्ररथ- ये और अन्य गन्धर्व भी धनाध्यक्ष कुबेर की उपासना करते हैं। विद्याधरों के अधिपति चक्रधर्मा भी अपने छोटे भाइयों के साथ वहाँ धनेश्वर भगवान कुबेर की आराधना करते हैं।

 भगदत्त आदि राजा भी उस सभा में बैठते हैं तथा किन्नरों के स्वामी द्रुम कुबेर की उपासना करते हैं। महेन्द्र, गन्धमादन एवं धर्मनिष्ठ राक्षसराज विभीषण भी यक्षों, गन्धर्वों तथा सम्पूर्ण निशाचरों के साथ अपने भाई भगवान कुबेर की उपासना करते हैं।

हिमवान, पारियात्र, विन्ध्य, कैलास, मन्दराचल, मलय, दर्दुर, महेन्द्र, गन्धमादन और इन्द्रकील तथा सुनाभ नाम-वाले दोनों दिव्य पर्वत-ये तथा अन्य सब मेरु आदि बहुत-से पर्वत धन के स्वामी महामना प्रभु कुबेर की उपासना करते हैं। भगवान नन्दीश्वर, महाकाल तथा शंकु कर्ण आदि भगवान शिव के सभी दिव्य-पार्षद काष्ठ, कुटीमुख, दन्ती, तपस्वी विजय तथा गर्जनशील महाबली श्वेत वृषभ वहाँ उपस्थित रहते हैं।

दूसरे-दूसरे राक्षस और पिशाच भी धनदाता कुबेर की उपासना करते हैं। पार्षदों से घिरे हुए देवदेवेश्वर, त्रिभुवन-भावन, बहुरूपधारी, कल्याण स्वरूप, उमावल्लभ भगवान महेश्वर जब उस सभा में पधारते हैं, तब पुलस्त्यनन्दन धनाध्यक्ष कुबेर उनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करते और उनकी आज्ञा ले उन्हीं के पास बैठ जाते हैं। उनका सदा यही नियम है। कुबेर के सखा भगवान शंकर कभी-कभी उस सभा में पदार्वण किया करते हैं।

श्रेष्ठ निधियों में प्रमुख और धन के अधीश्वर शंख तथा पद्म-ये दोनों अन्य सब निधियों को साथ ले धनाध्यक्ष कुबेर की उपासना करते हैं। 

राजन! कुबेर की वैसी रमणीय सभा जो आकाश में विचरने वाली है, मैंने अपनी आँखों देखी है। अब मैं ब्रह्मा जी की सभा का वर्णन करूँगा, उसे सुनो।

(इस प्रकार श्री महाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत लोकपाल सभाख्यान पर्व में कुबेर-सभा वर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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