सभा पर्व प्रस्तावना
महाभारत का आदिपर्व समाप्त हो चुका है। अब यहाँ से सभा पर्व का आरम्भ हो रहा है। आदिपर्व के उत्तर भारतीय (प्रधानतया नीलकण्ठी) पाठ के अनुसार 8540 श्लोक आदिपर्व में थे। दाक्षिणात्य पाठ के उपयोगी समझकर 736 1/2 श्लोक और ले लिये गये। इससे आदिपर्व 9276 1/2 श्लोकों का हो गया। इसी प्रकार सभापर्व में भी दाक्षिणात्य पाठ के उपयोगी श्लोक लिये जायँगे। यों श्लोकसंख्या में वृद्धि होती रहेगी।
सभा पर्व प्रारंभ
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)
पहला अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा के अनुसार मयासुर द्वारा सभाभवन बनाने की तैयारी"
"अंर्तयामी नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, भगवती सरस्वती और महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय का पाठ करना चाहिये"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय खाण्डवदाह के अनन्तर मयासुर ने भगवान श्रीकृष्ण के पास बैठे हुए अर्जुन की बारंबार प्रशंसा करके हाथ जोड़कर मधुर वाणी में उनसे कहा।
मयासुर बोला ;- कुन्तीनन्दन! आपने अत्यन्त क्रोध में भरे हुए इन भगवान श्रीकृष्ण से तथा जला डालने की इच्छा वाले अग्निदेव से भी मेरी रक्षा की है। अतः बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?
अर्जुन ने कहा ;- असुरराज! तुमने इस प्रकार कृतज्ञता प्रकट करके मेरे उपकार का मानो सारा बदला चुका दिया। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। मुझ पर प्रेम बनाये रखना। हम भी तुम्हारे प्रति सदा स्नेह का भाव रखेंगे।
मयासुर बोला ;- प्रभो! पुरुषोत्तम! आपने जो बात कही है, वह आप जैसे महापुरुष के अनुरूप ही है। परंतु भारत! मैं बड़े प्रेम से आपके लिये कुछ करना चाहता हूँ।
पाण्डुनन्दन! मैं दानवों का विश्वकर्मा एवं शिल्पविद्या का महान पण्डित हूँ। अतः मैं आपके लिये किसी वस्तु का निर्माण करना चाहता हूँ।
कुन्तीनन्दन! पूर्वकाल में मैंने दानवों के बहुत से महल बनाये हैं। इसके सिवा देखने में रमणीय, सुख और भोग साधनों से सम्पन्न अनेक प्रकार के रमणीय उद्यानों, भाँति-भाँति के सरोवरों, विचित्र अस्त्र-शस्त्रों, इच्छानुसार चलने वाले रथों, अट्टालिकाओं, चहारदिवारियों और बड़े-बड़े़ फाटकों सहित विशाल नगरों, हजारों अद्भुत एवं श्रेष्ठ वाहनों तथा बहुत सी मनोहर एवं अत्यन्त सुखदायक सुरंगों का मैने निर्माण किया है। अतः अर्जुन! मैं आपके लिये भी कुछ बनाना चाहता हूँ।
अर्जुन बोले ;- मयासुर! तुम मेरे द्वारा अपने को प्राणसंकट से मुक्त हुआ मानते हो और इसलिये कुछ करना चाहते हो। ऐसी दशा में मैं तुमसे कोई काम नहीं करा सकूँगा।
दानव! साथ ही मैं यह भी नहीं चाहता कि तुम्हारा यह संकल्प व्यर्थ हो। इसलिये तुम भगवान श्रीकृष्ण का कोई कार्य कर दो, इससे मेरे प्रति तुम्हारा कर्तव्य पूर्ण हो जायगा।
भरतश्रेष्ठ! तब मयासुर ने भगवान श्रीकृष्ण से काम बताने का अनुरोध किया। उसके प्रेरणा करने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अनुमानतः दो घड़ी तक विचार किया कि ‘इसे कौन सा काम बताया जाय ?’
तदनन्तर मन ही मन कुछ सोचकर प्रजापालक लोकनाथ भगवान श्रीकृष्ण ने उससे कहा,,
श्री कृष्ण बोले ;- ‘शिल्पियों में श्रेष्ठ दैत्यराज मय! यदि तुम मेर कोई प्रिय कार्य करना चाहते हो तो तुम धर्मराज युधिष्ठिर के लिये जैसा ठीक समझो, वैसा एक सभाभवन बना दो। ‘वह सभा ऐसी बनाओ, जिसके बन जाने पर सम्पूर्ण मनुष्य लोक के मानव देखकर विस्मित हो जायँ और कोई उसकी नकल न कर सकें।
‘मयासुर! तुम ऐसे सभा भवन का निर्माण करो, जिसमें हम तुम्हारे द्वारा अंकित देवता, असुर और मनुष्यों की शिल्पनिपुणता का दर्शन कर सकें’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! भगवान श्रीकृष्ण की उस आज्ञा को शिरोधार्य करके मयासुर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उस समय पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के लिये विमान जैसी सभा बनाने का निश्चय किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 15-21 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने धर्मराज युधिष्ठिर को ये सब बातें बताकर मयासुर को उनसे मिलाया। भारत! राजा युधिष्ठिर ने उस समय मयासुर का यथायोग्य सत्कार किया और मयासुर ने भी बड़े आदर के साथ उनका वह सत्कार ग्रहण किया। जनमेजय! दैत्यराज मय ने उस समय वहाँ पाण्डवों को दैत्यों के अद्भुत चरित्र सुनाये। कुछ दिनों तक वहाँ आराम से रहकर दैत्यों के विश्वकर्मा मयासुर ने सोच विचारकर महात्मा पाण्डवों के लिये सभाभवन बनाने की तैयारी की।
उसने कुन्तीपुत्रों तथा महात्मा श्रीकृष्ण की रुचि के अनुसार सभा बनाने का निश्चय किया। किसी पवित्र तिथि को मंगलानुष्ठान, स्वस्तिवाचन आदि करके महातेजस्वी और पराक्रमी मय ने हजारों श्रेष्ठ ब्राह्मणों को खीर खिलाकर तृप्त किया तथा उन्हें अनेक प्रकार का धन दान किया। इसके बाद उसने सभा बनाने के लिये समस्त ऋतुओं के गुणों से सम्पन्न दिव्य रूप वाली मनोरम सब ओर से दस हजार हाथ की धरती नपवायी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत सभाक्रिया पर्व में सभा स्थान निर्णयविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)
दूसरा अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)
तीसरा अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)
चौथा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"मय द्वारा निर्मित सभा भवन में धर्मराज युधिष्ठिर का प्रवेश तथा सभा में स्थित महर्षियों और राजाओं आदि का वर्णन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस श्रेष्ठ सभा भवन का निर्माण करके मयासुर ने अर्जुन से कहा।
मयासुर बोला ;- सव्यसाचिन्! यह है आपकी सभा, इसमें एक ध्वजा होगी। उसके अग्रभाग में भूतों का महापराक्रमी किंकर नामक गण निवास करेगा। जिस समय तुम्हारे धनुष की टंकार ध्वनि होगी, उस समय उस ध्वनि के साथ ये भूत भी मेघों के समान गर्जना करेंगे। यह जो सूर्य के समान तेजस्वी अग्निदेव का उत्तम रथ है और ये जो श्वेत वर्ण वाले दिव्य एवं बलवान अश्वरत्न हैं तथा यह जो वानरचिह्न से उपलक्षित ध्वज है, इन सबका निर्माण माया से ही हुआ है। यह ध्वज वृक्षों में कहीं अटकता नहीं हैं तथा अग्नि की लपटों के समान सदा ऊपर की ओर ही उठा रहता है। आपका यह वानरचिह्नित ध्वज अनेक रंग का दिखायी देता है। आप युद्ध में उत्कट एवं स्थिर ध्वज को कभी झुकता नहीं देखेंगे । ऐसा कहकर मयासुर ने अर्जुन को हृदय से लगा लिया और उनसे विदा लेकर चला गया।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने घी और मधु मिलायी हुई खीर, खिचड़ी, जीवन्तिका के साग, सब प्रकार के हविष्य, भाँति-भाँति के भक्ष्य तथा फल, ईख आदि नाना प्रकार के चोष्य और बहुत अधिक पेय आदि सामग्रियों द्वारा दस हजार ब्राह्मणें को भोजन कराकर उस सभाभवन में प्रवेश किया । उन्होंने नये-नये वस्त्र और छोटे-बडे़ अनेक प्रकार के हार आदि के उपहार देकर अनेक दिशाओं से आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त किया। भारत! तत्पश्चात उन्होंने प्रत्येक ब्राह्मण को एक-एक हजार गौएँ दी। उस समय वहाँ ब्राह्मणों के पुण्याहवाचन का गम्भीर घोष मानो स्वर्गलोक तक गूँज उठा।
कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने अनेक प्रकार के बाजे तथा भाँति-भाँति के दिव्य सुगन्धित पदार्थों द्वारा उस भवन में देवताओं की स्थापना एवं पूजा की। इसके बाद वे उस भवन में प्रविष्ट हुए। वहाँ धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर की सेवा में कितने ही मल्ल, नट, झल्ल, सूत और वैतालिक उपस्थित हुए। इस प्रकार पूजन का कार्य सम्पन्न करके भाइयों सहित पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर स्वर्ग में इन्द्र की भाँति उस रमणीय सभा में आनन्दपूर्वक रहने लगे। उस सभा में ऋषि तथा विभिन्न देशों से आये हुए नरेश पाण्डवों के साथ बैठा करते थे। असित, देवल, सत्य, सर्पिर्माली, महाशिरा, अर्वावसु, सुमित्र, मैत्रेय, शुनक, बलि, बक, दाल्भ्य, स्थूलशिरा, कृष्ण द्वैपायन, शुकदेव, व्यास जी के शिष्य सुमन्तु, जैमिनि, पैल तथा हमलोग, तित्तिर, याज्ञवल्क्य, पुत्र सहित लोमहर्षण, अप्सुहोम्य, धौम्य, अणीमाण्डव्य, कौशिक, दामोष्णीष, त्रैबलि, पर्णाद, घटनाजुक, मौञ्जायन, वायुभक्ष, पाराशर्य, सारिक, बलिवाक, सिनीवाक, सत्यपाल, कृतश्रम, जातूकर्ण, शिखावान, आलम्ब, पारिजातक, महाभाग पर्वत, महामुनि मार्कण्डेय, पवित्रपाणि, सावर्ण, भालुकि, गालव, जंघाबन्धु, रैभ्य, कोपवेग, भृगु, हरिबभ्रु, कौण्डिन्य, बभ्रुमाली, सनातन, काक्षीवान, औशिज, नाचिकेत, गौतम, पैंगय, वराह, शुनक (द्वितीय), महातपस्वी शाणिडल्य, कुक्कुर, वेणुजंघ, कालाप तथा कठ आदि धर्मज्ञ, जितात्मा और जितेन्द्रिय मुनि उस सभा में विराजते थे।
ये तथा और भी वेद-वेदांगों के पारंगत बहुत से मुनि श्रेष्ठ उस सभा में महात्मा युधिष्ठिर के पास बैठा करते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)
वे धर्मज्ञ, पवित्रात्मा और निर्मल महर्षि राजा युधिष्ठिर को पवित्र कथाएँ सुनाया करते थे। इसी प्रकार क्षत्रियों में श्रेष्ठ नरेश भी वहाँ धर्मराज युधिष्ठिर की उपासना करते थे। श्रीमान महामना धर्मात्मा मुञ्जकेतु, विवर्धन, संग्रामजित, दुर्मुख, पराक्रमी उग्रसेन, राजा कक्षसेन, अपराजित क्षेमक, कम्बोजराज कमठ और महाबली कम्पन, जो अकेले ही बल-पौरूषसम्पन्न, अस्त्र विद्या के ज्ञाता तथा अमित तेजस्वी यवनों को सदा उसी प्रकार कँपाते रहते थे, जैसे व्रजधारी इन्द्र ने कालकेय नामक असुरों को कम्पित किया था। इनके सिवा जटासुर, मद्रराज शल्य, राजा कुन्तिभोज, किरातराज पुलिन्द, अंगराज, वंगराज, पुण्ड्रक, पाण्ड्य, उड्रराज, आन्ध्रनरेश, अंग, बंग, सुमित्र, शत्रुसूदन शैव्य, किरातराज सुमना, यवननरेश, चाणूर, देवरात, भोज, भीमरथ, कलिंगराज श्रुतायुध, मगधदेशीय जयसेन, सुकर्मा, चेकितान, शत्रुसंहारक पुरु, केतुमान, वसुदान, विदेहराज कृतक्षण, सुधर्मा, अनिरुद्ध, महाबली श्रुतायु, दुर्धर्ष वीर अनूपराज, क्रमजित, सुदर्शन, पुत्रसहित शिशुपाल, करूषराज दन्तवक्त्र, वृष्णिवंशियों के देवस्वरूप दुर्धर्ष राजकुमार, आहुक, विपृथु, गद, सारण, अक्रूर, कृतवर्मा, शिनिपुत्र सत्यक, भीष्मक, आकृति, पराक्रमी द्युमत्सेन, महान धनुर्धर केकय राजकुमार, सोमक-पौत्र द्रुपद, केतुमान तथा अस्त्र विद्या में निपुण महाबली वसुमान - ये तथा और भी बहुत से प्रधान क्षत्रिय उस सभा में कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की सेवा में बैठते थे। जो महाबली राजकुमार अर्जुन के पास रहकर कृष्ण मृगचर्म धारण किये धनुर्वेद की शिक्षा लेते थे राजन! वृष्णिवंश को आनन्दित करने वाले राजकुमारों को वहीं शिक्षा मिली थी।
रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न, जाम्बवती कुमार साम्ब, सत्यक पुत्र युयुधान, सुधर्मा, अनिरुद्ध, नरश्रेष्ठ शैव्य- ये और दूसरे भी बहुत से राजा उस सभा में बैठते थे। पृथ्वीपते! अर्जुन के सखा तुम्बुरु गन्धर्व भी उस सभा में नित्य विराजमान होते थे। मन्त्री सहित चित्रसेन आदि सत्ताईस गन्धर्व और अप्सराएँ सभा में बैठे हुए महात्मा युधिष्ठिर की उपासना करतीं थी।
गाने बजाने में कुशल, साम्य और ताल के विशेषज्ञ तथा प्रमाण, लय और स्थान की जानकारी के लिये विशेष परिश्रम किये हुए मनस्वी किन्नर तुम्बुरु की आज्ञा से वहाँ अन्य गन्धर्वों के साथ दिव्य तान छेड़ते हुए यथोचित रीति से गाते और पाण्डवों तथा महर्षियों का मनोरंजन करते हुए धर्मराज की उपासना करते थे। जैसे देवता लोग दिव्य लोग की सभा में ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं, उसी प्रकार कितने ही सत्य प्रतिज्ञ और उत्तम व्रत का पालन करने वाले महापुरुष उस सभा में बैठकर महाराज युधिष्ठिर की आराधना करते थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत सभाक्रिया पर्व में सभा प्रवेश नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)
पाँचवा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"नारद जी का युधिष्ठिर की सभा में आगमन और प्रश्र के रूप में युधिष्ठिर को शिक्षा देना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! एक दिन उस सभा में महात्मा पाण्डव अन्यान्य महापुरुषों तथा गन्धर्वों आदि के साथ बैठे हुए थे।उसी समय वेद और उपनिषदों के ज्ञाता, ऋषि, देवताओं द्वारा पूजित, इतिहास-पुराण के मर्मज्ञ, पूर्व कल्प की बातों के विशेषज्ञ, न्याय के विद्वान, धर्म के तत्त्व को जानने वाले, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्यौतिष- इन छहों अंगों के पण्डितों में शिरोमणि, ऐक्य, संयोग नानात्व और समवाय के ज्ञान में विशारद, प्रगल्भ वक्ता, मेधावी, स्मरणशक्ति सम्पन्न, नीतिज्ञ, त्रिकालदर्शी, अपर ब्रह्म और परब्रह्म को विभाग पूर्वक जानने वाले, प्रमाणों द्वारा एक निश्रित सिद्धान्त पर पहुँचे हुए, पंचावयवयुक्त वाक्य के गुण-दोष को जानने वाले, बृहस्पति-जैसे वक्ता के साथ भी उत्तर-प्रत्युत्तर करने में समर्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थों के सम्बन्ध में यथार्थ निश्चय रखने वाले तथा इन सम्पूर्ण चौदहों भुवनों को ऊपर, नीचे, और तिरछे सब ओर से प्रत्यक्ष देखने वाले, महाबुद्धिमान, सांख्य और योग के विभाग पूर्वक ज्ञाता, देवताओं और असुरों में भी निर्वेद (वैराग्य) उत्पन्न करने के इच्छुक, संधि और विग्रह के तत्त्व को समझने वाले, अपने और शत्रु पक्ष के बलाबल का अनुमान से निश्चय करके शत्रु पक्ष के मन्त्रियों आदि को फोड़ने के लिये धन आदि बाँटने के उपयुक्त अवसर का ज्ञान रखने वाले, संधि (सुलह), विग्रह (कलह), यान (चढ़ाई करना), आसन (अपने स्थान ही चुप्पी मारकर बैठे रहना), द्वैधीभाव (शत्रुओं में फूट डालना) और समाश्रय (किसी बलवान राजा का आश्रय ग्रहण करना)- राजनीति के इन छहों अंगों के उपयोग के जानकार, समस्त शास्त्रों के निपुण विद्वान, युद्ध और संगीत की कला में कुशल, सर्वत्र क्रोध रहित, इन उपर्युक्त गुणों के सिवा और भी असंख्य सद्गुणों से सम्पन्न, मननशील, परम कान्तिमान महातेजस्वी देवर्षि नारद लोक-लोकान्तरों में घूमते-फिरते पारिजात, बुद्धिमान पर्वत तथा सौम्य, सुमुख आदि अन्य अनेक ऋषियों के साथ सभा में स्थित पाण्डवों से प्रेमपूर्वक मिलने के लिये मन के समान वेग से वहाँ आये और उन ब्रह्मर्षि ने जयसूचक आशीर्वादों द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर का अत्यन्त सम्मान किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद)
सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता पाण्डव श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद को आया देख भाइयों सहित सहसा उठकर उन्हें प्रेम,विनय और नम्रता पूर्वक उस समय नमस्कार किया और उन्हें उनके योग्य आसन देकर धर्मज्ञ नरेश ने गौ, मधु पर्क तथा अर्घ्य आदि उपचार अर्पण करते हुए रत्नों से उनका विधिपूर्वक पूजन किया तथा उनकी सब इच्छाओं की पूर्ति करके उन्हें संतुष्ट किया। राजा युधिष्ठिर से यथोचित पूजा पाकर नारद जी भी बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रकार सम्पूर्ण पाण्डवों से पूजित होकर उन वेदवेत्ता महर्षि ने युधिष्ठिर से धर्म, काम और अर्थ तीनों के उपदेश पूर्वक ये बातें पूछीं।
नारद जी बोले ;- राजन! क्या तुम्हारा धन तुम्हारे (यज्ञ, दान तथा कुटुम्बरक्षा आदि आवश्यक कार्यों के) निर्वाह के लिये पूरा पड़ जाता है? क्या धर्म में तुम्हारा मन प्रसन्नतापूर्वक लगता है? क्या तुम्हें इच्छानुसार सुख-भोग प्राप्त होते हैं? (भगवचिंन्तन में लगे हुए) तुम्हारे मन को (किन्हीं दूसरी वृत्तियों-द्वारा) आघात या विक्षेप तो नहीं पहुँचता है? नरदेव! क्या तुम ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र- इन तीनों वर्णों की प्रजाओं के प्रति अपने पिता-पितामहों द्वारा व्यवहार में लायी हुई धर्मार्थयुक्त उत्तम एवं उदार वृत्ति का व्यवहार करते हो? तुम धन के लोभ में पड़कर धर्म को, केवल धर्म ही संलग्न रहकर धन को अथवा आसक्ति ही जिसका बल है, उस कामभोग के सेवन द्वारा धर्म और अर्थ दोनों को ही हानि तो नहीं पहुँचाते?
विजयी वीरों में श्रेष्ठ एवं वरदायक नरेश! तुम त्रिवर्गसेवन के उपयुक्त समय का ज्ञान रखते हो; अतः काल का विभाग करके नियत और उचित समय पर सदा धर्म, अर्थ एवं काम का सेवन करते हो न? निष्पाप युधिष्ठिर! क्या तुम राजोचित छः गुणों के द्वारा सात उपायों की, अपने और शत्रु के बलाबली तथा देशपाल, दुर्गपाल आदि चौदह व्यक्तियों की भलीभाँति परख करते रहते हो?
विजेताओं में श्रेष्ठ भरतवंशी युधिष्ठिर! क्या तुम अपनी और शत्रु की शक्ति को अच्छी तरह समझ कर यदि शत्रु प्रबल हुआ तो उसके साथ संधि बनाये रखकर अपने धन और कोष की वृद्धि के लिये आठ कर्मों का सेवन करते हो?
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 23-32 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! तुम्हारी मन्त्री आदि सात प्रकृतियाँ कहीं शत्रुओं में मिल तो नहीं गयी हैं ? तुम्हारे राज्य धनी लोग बुरे व्यसनों से बचे रहकर सर्वथा तुम से प्रेम करते हैं न? जिन पर तुम्हें संदेह, नहीं होता, ऐसे शत्रु के गुप्तचर कृत्रिम मित्र बनकर तुम्हारे मन्त्रियों द्वारा तुम्हारी गुप्त मन्त्रणा को जानकर उसे प्रकाशित तो नहीं कर देते? क्या तुम मित्र, शत्रु और उदासीन लोगों के सम्बन्ध में यह ज्ञान रखते हो कि वे कब क्या करना चाहते हैं ? उपयुक्त समय का विचार करके ही संधि और विग्रह की नीति का सेवन करते हो न?
क्या तुम्हें इस बात का अनुमान है कि उदासीन एवं मध्यम व्यक्तियों के प्रति कैसा बर्ताव करना चाहिये? वीर! तुमने अपने स्वयं के समान विश्वसनीय वृद्ध, शुद्ध हृदय वाले, किसी बात को अच्छी तरह समझाने में समर्थ, उत्तम कुल में उत्पन्न और अपने प्रति अत्यन्त अनुराग रखने वाले पुरुषों को ही मन्त्री बना रक्खा है न? क्योंकि भारत! राजा की विजय-प्रप्ति का मूल कारण अच्छी मन्त्रणा (सलाह) और उसकी सुरक्षा ही है, (जो सुयोग्य मन्त्री के अधीन है)। तात! मन्त्र को गुप्त रखने वाले उन शास्त्रज्ञ सचिवों द्वारा तुम्हारा राष्ट्र सुरक्षित तो है न? शत्रुओं द्वारा उसका नाश तो नहीं हो रहा है?
तुम असमय में ही निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते? समय पर जग जाते हो न? अर्थ शास्त्र के जानकार तो तुम हो ही। रात्रि के पिछले भाग में जगकर अपने अर्थ (आवश्यक कर्तव्य एवं हित) के विषय में विचार तो करते हो न? कोई भी गुप्त मन्त्रणा दो से चार कानों तक ही गुप्त रहती है, छः कानों में जाते ही वह फूट जाती है, अतः मैं पूछता हूँ, तुम किसी गूढ़ विषय पर अकेले ही तो विचार नहीं करते अथवा बहुत लोगों के साथ बैठकर तो मन्त्रणा नहीं करते? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हारी निश्चित की हुई गुप्त मन्त्रणा फूटकर शत्रु के राज्य तक फैल जाती हो?
धन की वृद्धि के ऐसे उपायों का निश्चय करके, जिन में मूलधन तो कम लगाना पड़ता हो, किंतु वृद्धि अधिक होती हो, उनका शीघ्रतापूर्वक आरम्भ कर देते हो न ? वैसे कार्यों में अथवा वैसा कार्य करने वाले लोगों के मार्ग में तुम विघ्न तो नहीं डालते?
तुम्हारे राज्य के किसान- मजदूर आदि श्रमजीवी मनुष्य तुमसे अज्ञात तो नहीं हैं ? उनके कार्य और गतिविधि पर तुम्हारी तो दृष्टि है न? वे तुम्हारे अविश्वास के पात्र तो नहीं हैं अथवा तुम उन्हें बार-बार छोड़ते और पुनः काम पर लेते तो नहीं रहते? क्योंकि महान अभ्युदय या उन्नति में उन सब का स्नेहपूर्ण सहयोग ही कारण है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद)
कृषि आदि के कार्य विश्वसनीय, लोभ रहित और बड़े-बूढ़ों के समय से चले आने वाले कार्यकर्ताओं द्वारा ही कराते हो न? राजन्! वीर शिरोमणे! क्या तुम्हारे कार्यों के सिद्ध हो जाने पर या सिद्धि के निकट पहुँच जाने पर ही लोग जान पाते हैं? सिद्ध होने से पहले ही तुम्हारे किन्हीं कार्यों को लोग जान तो नहीं लेते।
तुम्हारे यहाँ जो शिक्षा देने का काम करते हैं, वे धर्म एवं सम्पूर्ण शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान होकर ही राजकुमारों तथा मुख्य-मुख्य योद्धाओं को सब प्रकार की आवश्यक शिक्षाएँ देते हैं न? तुम हजारों मूर्खों के बदले एक पण्डित को ही तो खरीदते हो न? अर्थात आदरपूर्वक स्वीकार करते हो न ? क्योंकि विद्वान पुरुष ही अर्थ संकट के समय महान कल्याण कर सकता है। क्या तुम्हारे सभी दुर्ग (किले) धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यन्त्र (मशीन), शिल्पी और धनुर्धर सैनिकों से भरे-पूरे रहते हैं?
यदि एक भी मन्त्री मेधावी, शौर्य सम्पत्र, संयमी और चतुर हो तो राजा अथवा राजकुमार को विपुल सम्पत्ति की प्राप्ति करा देता है। क्या तुम शत्रु पक्ष के अठारह और अपने पक्ष के पंद्रह तीर्थों की तीन-तीन अज्ञात गुप्तचरों द्वारा देख-भाल या जाँच-पड़ताल करते रहते हो?
शत्रुसूदन! तुम शत्रुओं से अज्ञात, सतत सावधान और नित्य प्रयत्नशील रहकर अपने सम्पूर्ण शत्रुओं की गतिविधि पर दृष्टि रखते हो न? क्या तुम्हारे पुरोहित विनयशील, कुलीन, बहुज्ञ, विद्वान, दोष दृष्टि से रहित तथा शास्त्र चर्चा में कुशल हैं? क्या तुम उनका पूर्ण सत्कार करते हो ?
तुमने अग्निहोत्र के लिये विधिज्ञ, बुद्धिमान और सरल स्वभाव के ब्राह्मण को नियुक्त किया है न? वह सदा किये हुए और किये जाने वाले हवन को तुम्हें ठीक समय पर सूचित कर देता है न?
क्या तुम्हारे यहाँ हस्त-पादादि अंगों की परीक्षा में निपुण, ग्रहों की वक्र तथा अतिचार आदि गतियों एवं उनके शुभाशुभ परिणाम आदि को बताने वाला तथा दिव्य, भौम एवं शरीर सम्बन्धी सब प्रकार के उत्पातों को पहले से ही जान लेने में कुशल ज्योतिषी है?
तुमने प्रधान-प्रधान व्यक्तियों को उनके योग्य महान कार्यों में मध्यम श्रेणी के कार्यकर्ताओं को मध्यम कार्यों में तथा निम्न श्रेणी के सेवकों को उनकी योग्यता के अनुसार छोटे कामों में ही लगा रक्खा है न?
क्या तुम निश्छल, बाप-दादों के क्रम से चले आये हुए और पवित्र आचार-विचार वाले श्रेष्ठ मन्त्रियों को सदा श्रेष्ठ कर्मों में लगाये रखते हो? भरत श्रेष्ठ! कठोर दण्ड के द्वारा तुम प्रजाजनों को अत्यन्त उद्वेग में तो नहीं डाल देते? मन्त्री लोग तुम्हारे राज्य का न्याय पूर्वक पालन करते हैं न? जैसे पवित्र याजक पतित यजमान का और स्त्रियाँ कामचारी पुरुष का तिरस्कार कर देती हैं, उसी प्रकार प्रजा कठोरता पूर्वक अधिक कर लेने के कारण तुम्हारा अनादर तो नहीं करती?
(सम्पूर्ण महाभारत (सभाक्रिया पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 47-58 का हिन्दी अनुवाद)
क्या तुम्हारा सेनापति हर्ष और उत्साह से सम्पन्न, शूर-वीर, बुद्धिमान, धैर्यवान, पवित्र, कुलीन, स्वामिभक्त तथा अपने कार्य में कुशल है?
तुम्हारी सेना के मुख्य-मुख्य दलपति सब प्रकार के युद्धों में चतुर, धृष्ट, निष्कपट और पराक्रमी हैं न? तुम उनका यथोचित सत्कार एवं सम्मान करते हो न?
अपनी सेना के लिये यथोचित भोजन और वेतन ठीक समय पर दे देते हो न? जो उन्हें दिया जाना चाहिये, उसमें कमी या विलम्ब तो नहीं कर देते? भोजन और वेतन में अधिक विलम्ब होने पर भृत्यगण अपने स्वामी पर कुपित हो जाते हैं और उनका वह कोप महान अनर्थ का कारण बताया गया है।
क्या उत्तम कुल में उत्पन्न मन्त्री आदि सभी प्रधान अधिक सभी प्रधान अधिकारी तुमसे प्रेम रखते हैं? क्या वे युद्ध में तुम्हारे हित के लिये अपने प्राणों तक का त्याग करने को सदा तैयार रहते हैं?
तुम्हारे कर्मचारियों में कोई ऐसा तो नहीं है, जो अपनी इच्छा के अनुसार चलने वाला और तुम्हारे शासन का उल्लंघन करने वाला हो तथा युद्ध के सारे साधनों एवं कार्यों को अकेला ही अपनी रुचि के अनुसार चला रहा हो?
कोई पुरुष अपने पुरुषार्थ से जब किसी कार्य को अच्छे ढंग से सम्पन्न करता है, तब वह आप से अधिक सम्मान अथवा अधिक भत्ता और वेतन पाता है न?
क्या तुम विद्या से विनयशील एवं ज्ञाननिपुण मनुष्यों को उनके गुणों के अनुसार यथायोग्य धन आदि देकर उनका सम्मान करते हो?
भरतश्रेष्ठ! जो लोग तुम्हारे हित के लिये सहर्ष मृत्यु का वरण कर लेते हैं अथवा भारी संकट में पड़ जाते हैं, उनके बाल-बच्चों की रक्षा तुम करते हो न?
कुन्तीनन्दन! जो भय से अथवा अपनी धन-सम्पत्ति का नाश होने से तुम्हारी शरण में आया हो या युद्ध में तुमसे परास्त हो गया हो, ऐसे शत्रु का तुम पुत्र के समान पालन करते हो या नहीं?
पृथ्वीपते! क्या समस्त भूमण्डल की प्रजा तुम्हें ही समदर्शी एवं माता-पिता के समान विश्वसनीय मानती है?
भरत कुलभूषण! क्या तुम अपने शत्रु को दुर्व्यसनों में फँसा हुआ सुनकर उसके त्रिविध बल पर विचार करके यदि वह दुर्बल हो तो उसके ऊपर बड़े वेग से आक्रमण कर देते हो?
(महाभारत (सभाक्रिया पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 59-66 का हिन्दी अनुवाद)
शत्रुदमन! क्या तुम पार्ष्णिग्राह आदि बारह व्यक्तियों के मण्डल को जानकर अपने कर्तव्य का निश्चय करके और पराजय मूलक व्यसनों का अपने पक्ष में अभाव तथा शत्रु पक्ष में आधिक्य देखकर उचित अवसर आने पर दैव का भरोसा करके अपने सैनिकों को अग्रिम वेतन देकर शत्रु पर चढ़ाई कर देते हो?
परंतप! शत्रु के राज्य में जो प्रधान-प्रधान योद्धा हैं, उन्हें छिपे-छिपे यथायोग्य रत्न आदि भेंट करते रहते हो या नहीं ?
कुन्तीनन्दन! क्या तुम पहले अपनी इन्द्रियों और मन को जीत कर ही प्रमाद में पड़े हुए अजितेन्द्रिय शत्रुओं को जीतने की इच्छा करते हो?
शत्रुओें पर तुम्हारे आक्रमण करने से पहले अच्छी तरह प्रयोग में लाये हुए तुम्हारे साम, दान, भेद और दण्ड- ये चार गुण विधिपूर्वक उन शत्रुओं तक पहुँच जाते हैं न?
महाराज! तुम अपने राज्य की नींव को दृढ़ करके शत्रुओं पर धावा करते हो न? उन शत्रुओं को जितने के लिये पूरा पराक्रम प्रकट करते हो न? और उन्हें जीत कर उनकी पूर्ण रूप से रक्षा तो करते रहते हो न?
क्या धनरक्षक, द्रव्यसंग्राहक, चिकित्सक, गुप्तचर, पाचक, सेवक, लेखक और प्रहरी- इन आठ अंगों और हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल- इन चार प्रकार के बलों से युक्त तुम्हारी सेना सुयोग्य सेनापतियों द्वारा अच्छी तरह संचालित होकर शत्रुओं का संहार करने में समर्थ होती है? शत्रुओं को संतप्त करने वाले महाराज! तुम शत्रुओं के राज्य में अनाज काटने और दुर्भिक्ष के समय की उपेक्षा न करके रणभूमि में शत्रुओं को मारते हो न?
क्या अपने और शत्रु के राष्ट्रों में बहुत-से अधिकारी स्थान-स्थान में घूम-फिरकर प्रजा को वश में करने एवं कर लेने आदि प्रयोजनों को सिद्ध करते हैं और परस्पर मिलकर राष्ट्र एवं अपने पक्ष के लोगों की रक्षा में लगे रहते हैं?
(सम्पूर्ण महाभारत (सभाक्रिया पर्व) पंचम अध्याय: श्लोक 67-82 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! तुम्हारे खाद्य पदार्थ, शरीर में धारण करने के वस्त्र आदि तथा सूँघने के उपयोग में आने वाले सुगन्धित द्रव्यों की रक्षा विश्वस्त पुरुष ही करते हैं न?
तुम्हारे कल्याण के लिये सदा प्रयत्नशील रहने वाले, स्वामिभक्त मनुष्यों द्वारा ही तुम्हारे धन-भण्डार, अन्न-भण्डार, वाहन, प्रधान द्वार, अस्त्र-शस्त्र तथा आय के साधनों की रक्षा एवं देख-भाल की जाती है न?
प्रजापालक नरेश! क्या तुम रसोइये आदि भीतरी सेवकों तथा सेनापति आदि बाह्य सेवकों द्वारा भी पहले अपनी ही रक्षा करते हो, फिर आत्मीय जनों द्वारा एवं परस्पर एक-दूसरे से उन सब की रक्षा पर भी ध्यान देते हो?
तुम्हारे सेवक पूर्वाह्णकाल में तुमसे मद्यपान, द्यूत, क्रीड़ा और युवती स्त्री आदि दुर्व्यसनों में तुम्हारा समय और धन को व्यर्थ नष्ट करने के लिये प्रस्ताव तो नहीं करते?
क्या तुम्हारी आय के एक चौथाई या आधे अथवा तीन चौथाई भाग से तुम्हारा सारा खर्च चल जाता है?
तुम अपने आश्रित कुटुम्ब के लोगों, गुरुजनों, बड़े-बूढ़ों, व्यापारियों, शिल्पियों तथा दीन-दुखियों को धन-धान्य देकर उन पर सदा अनुग्रह करते रहते हो न?
तुम्हारी आमदनी और खर्च को लिखने और जोड़ने के काम में लगाये हुए सभी लेखक और गणक प्रतिदिन पूर्वाह्णकाल में तुम्हारे सामने अपना हिसाब पेश करते हैं न?
किन्हीं कार्यों में नियुक्त किये हुए प्रौढ़, हितैषी एवं प्रिय कर्मचारियों को पहले उनके किसी अपराध को जाँच किये बिना तुम काम से अलग तो नहीं कर देते हो?
भारत! तुम उत्तम, मध्यम और अधम श्रेणी के मनुष्यों को पहचानकर उन्हें उनके अनुरूप कार्यों में ही लगाते हो न?
राजन! तुमने ऐसे लोगों को तो अपने कामों पर नहीं लगा रक्खा है? जो लोभी, चोर, शत्रु अथवा व्यावहारिक अनूभव से सर्वथा शून्य हों? (
चोरों, लोभियों, राजकुमारों या राजकुल की स्त्रियों द्वारा अथवा स्वयं तुमसे ही तुम्हारे राष्ट्र को पीड़ा तो नहीं पहुँच रही है? क्या तुम्हारे राज्य के किसान संतुष्ट हैं?
क्या तुम्हारे राज्य के सभी भागों में जल से भरे हुए बड़े-बड़े तालाब बनवाये गये हैं? केवल वर्षा के पानी के भरोसे ही तो खेती नहीं होती है?
तुम्हारे राज्य के किसान का अन्न या बीज तो नष्ट नहीं होता? क्या तुम प्रत्येक किसान पर अनुग्रह करके उसे एक रूपया सैकड़े ब्याज पर ऋण देते हो?
तात! तुम्हारे राष्ट्र में अच्छे पुरुषों द्वारा वार्ता- कृषि, गोरक्षा तथा व्यापार का काम अच्छी तरह किया जाता है न? क्योंकि उपर्युक्त वार्तावृत्ति पर अवलम्बित रहने वाले लोग ही सुखपूर्वक उन्नति करते हैं।
राजन्! क्या तुम्हारे जनपद के प्रत्येक गाँव में शूरवीर, बुद्धिमान और कार्य कुशल पाँच-पाँच पंच मिल कर सुचारू रूप से जनहित के कार्य करते हुए सबका कल्याण करते हैं?
क्या नगरों की रक्षा के लिये गाँवों को भी नगर के ही समान बुहत-से शूरवीरों द्वारा सुरक्षित कर दिया गया है? सीमावर्ती गाँवों को भी अन्य गाँवों की भाँति सभी सुविधाएँ दी गई हैं? तथा क्या वे सभी प्रान्त, ग्राम और नगर तुम्हें धन समर्पित करते हैं?
(सम्पूर्ण महाभारत (सभाक्रिया पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 83-97 का हिन्दी अनुवाद)
क्या तुम्हारे राज्य में कुछ रक्षक पुरुष सेना साथ लेकर चोर-डाकुओं का दमन करते हुए सुगम एवं दुर्गम नगरों में विचरते रहते हैं ?
तुम स्त्रियों को सान्त्वना देकर संतुष्ट रखते हो न? क्या वे तुम्हारे यहाँ पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं? तुम उन पर पूरा विश्वास तो नहीं करते? और विश्चास करके उन्हें कोई गुप्त बात तो नहीं बता देते?
राजन! तुम कोई अमंगल सूचक समाचार सुनकर और उस के विषय में बार-बार विचार करके भी प्रिय भोग-विलासों का आनन्द लेते हुए अन्तःपुर में ही सोते तो नहीं रह जाते?
प्रजानाथ! क्या तुम रात्रि के जो प्रथम दो याम हैं, उन्हीं में सोकर अन्तिम पहर में उठकर बैठ जाते और धर्म एवं अर्थ का चिन्तन करते हो?
पण्डु नन्दन! तुम प्रतिदिन समय पर उठकर स्नान आदि के पश्चात वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो देश-काल के ज्ञाता मन्त्रियों के साथ बैठकर मनुष्यों की इच्छा पूर्ण करते हो न?
शत्रुदमन! क्या लाल वस्त्र धारण करके अलंकारों से अलंकृत हुए योद्धा अपने हाथों में तलवार लेकर तुम्हारी रक्षा के लिये सब ओर से सेवा में उपस्थित रहते हैं?
महाराज! क्या तुम दण्डनीय अपराधियों के प्रति यमराज और पूजनीय पुरुषों के प्रति धर्मराज का-सा बर्ताव करते हो ? प्रिय एवं अप्रिय व्यक्तियों की भलीभाँति परीक्षा करके ही व्यवहार करते हो न?
कुन्तीकुमार! क्या तुम औषधि सेवन या पथ्य-भोजन आदि नियमों के पालन द्वारा अपने शारीरिक कष्ट को तथा वृद्ध पुरुषों की सेवा रूप सत्संग द्वारा मानसिक संताप को सदा दूर करते रहते हो?
तुम्हारे वैद्य अष्टांग चिकित्सा में कुशल, हितैषी, प्रेमी एवं तुम्हारे शरीर को स्वस्थ रखने के प्रयत्न में सदा संलग्न रहने वाले हैं न?
नरेश्वर! कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम अपने यहाँ आये हुए अर्थी और प्रत्यर्थी की ओर लोभ, मोह अथवा अभिमानवश किसी प्रकार आँख उठाकर देखते तक नहीं?
कहीं अपने आश्रित जनों की जीविकावृत्ति को तुम लोभ, मोह, आत्मविश्वास अथवा आसक्ति से बंद तो नहीं कर देते?
तुम्हारे नगर तथा राष्ट्र के निवासी मनुष्य संगठित होकर तुम्हारे साथ विरोध तो नहीं करते? शत्रुओं ने उन्हें किसी तरह घूस देकर खरीद तो नहीं लिया है?
कोई दुर्बल शत्रु जो तुम्हारे द्वारा पहले बलपूर्वक पीड़ित किया गया, अब मन्त्रणा शक्ति से अथवा मन्त्रणा और सेना दोनों ही शक्तियों से किसी तरह बलवान होकर सिर तो नहीं उठा रहा है?
क्या सभी मुख्य-मुख्य भूपाल तुम से प्रेम रखते हैं? क्या वे तुम्हारे द्वारा सम्मान पाकर तुम्हारे लिये अपने प्राणों की बलि दे सकते हैं?
क्या तुम्हारे मन में सभी विद्याओं के प्रति गुण के अनुसार आदर का भाव है? क्या तुम ब्राह्मणों तथा साधु-संतों की सेवा-पूजा करते हो? जो तुम्हारे लिये शुभ एवं कल्याणकारिणी है। इन ब्राह्मणों को तुम सदा दक्षिणा तो देते रहते हो न ? क्योंकि वह स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली है।
(महाभारत (सभाक्रिया पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 98-112 का हिन्दी अनुवाद)
तीनों वेद ही जिस के मूल हैं और पूर्व पुरुषों ने जिसका आचरण किया है, उस धर्म का अनुष्ठान करने के लिये तुम अपने पूर्वजों ही भाँति प्रयत्नशील तो रहते हो? धर्मानुकूल कर्म में ही तुम्हारी प्रवृत्ति तो रहती है?
क्या तुम्हारे महल में तुम्हारी आँखों के सामने गुणवान ब्राह्मण स्वादिष्ट और गुणकारक अन्न भोजन करते हैं? और भोजन के पश्चात उन्हें दक्षिणा दी जाती है?
अपने मन को वश में करके एकाग्रचित्त हो वाजपेय और पुण्डरीक आदि सभी यज्ञ-यागों का तुम पूर्ण रूप से अनुष्ठान करने का प्रयत्न तो करते हो न?
जाति-भाई, गुरुजन, वृद्ध पुरुष, देवता, तपस्वी, चैत्यवृक्ष आदि तथा कल्याणकारी ब्राह्मणों को नमस्कार तो करते हो न? निष्पाप नरेश! तुम किसी के मन में शोक या क्रोध तो नहीं पैदा करते ? तुम्हारे पास कोई मनुष्य हाथ में मंगल-सामग्री लेकर सदा उपस्थित रहता है न?
पापरहित युधिष्ठिर! अब तक जैसा बतलाया गया है, उसके अनुसार ही तुम्हारी बुद्धि और वृत्ति हैं न? ऐसी धर्मानुकूल बुद्धि और वृत्ति आयु तथा यश को बढ़ाने-वाली एवं धर्म, अर्थ तथा काम को पूर्ण करने वाली है।
जो ऐसी बुद्धि के अनुसार बर्ताव करता है, उसका राष्ट्र कभी संकट में नहीं पड़ता। वह राजा सारी पृथ्वी को जीतकर बड़े सुख से दिनों दिन उन्नति करता है।
कहीं ऐसा तो नहीं होता कि शास्त्रकुशल विद्वानों का संग न करने वाले तुम्हारे मूर्ख मन्त्रियों ने किसी विशुद्ध हृदय-वाले श्रेष्ठ एवं पवित्र पुरुष पर चोरी का अपराध लगाकर उसका सारा धन हड़प लिया हो ? और फिर अधिक धन के लोभ से वे उसे प्राणदण्ड देते हों ?
नरश्रेष्ठ! कोई ऐसा दुष्ट चोर जो चोरी करते समय गृहरक्षकों, द्वारा देख लिया गया और चोरी के माल सहित पकड़ लिया गया हो, धन के लोभ से छोड़ तो नहीं दिया जाता? भारत! तुम्हारे मन्त्री चुगली करने वाले लोगों के बहकावे में आकर विवेक शून्य हो किसी धनी के या दरिद्र के थोड़े समय में ही अचानक पैदा हुए अधिक धन को मिथ्यादृष्टि से तो नहीं देखते? या उनके बढ़े हुए धन को चोरी आदि से लाया हुआ तो नहीं मान लेते ?
युधिष्ठिर! तुम नास्तिकता, झूठ, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानियों का संग न करना, आलस्य, पाँचों इन्द्रियों-के विषयों में आसक्ति, प्रजाजनों पर अकेले ही विचार करना, अर्थशास्त्र को न जानने वाले मूर्खों के साथ विचार-विमर्श, निश्चित कार्यों के आरम्भ करने में विलम्ब या टालमटोल, गुप्त मन्त्रणा को सुरक्षित न रखना, मांगलिक उत्सव आदि न करना तथा एक साथ ही सभी शत्रुओं पर चढ़ाई कर देना- इन राज सम्बन्धी चौदह दोषों का त्याग तो करते हो न? क्योंकि जिनके राज्य की जड़ जम गयी है, ऐसे राजा भी इन दोषों के कारण नष्ट हो जाते हैं।
क्या तुम्हारे वेद सफल हैं ? क्या तुम्हारा धन सफल है? क्या तुम्हारी स्त्री सफल है? और क्या तुम्हारा शास्त्र-ज्ञान सफल है?
युधिष्ठिर ने पूछा ;- देवर्षें! वेद कैसे सफल होते हैं, धन की सफलता कैसे होती हे ? स्त्री की सफलता कैसे मानी गयी है तथा शास्त्र ज्ञान कैसे सफल होता है?
(सम्पूर्ण महाभारत (सभाक्रिया पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 113-129 का हिन्दी अनुवाद)
नारद जी ने कहा ;- राजन! वेदों की सफलता अग्नि होत्र से होती है, दान और भोग से ही धन सफल होता है, स्त्री का फल है- रति और पुत्र की प्राप्ति तथा शास्त्र ज्ञान का फल है, शील और सदाचार।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! यह कहकर महातपस्वी नारद मुनि ने धर्मात्मा युधिष्ठिर से पुनः इस प्रकार प्रश्न किया।
नारद जी ने पूछा ;- राजन! कर वसूलने का काम करने वाले तुम्हारे कर्मचारी लोग दूर से लाभ उठाने के लिये आये हुए व्यापारियों से ठीक-ठीक कर वसूल करते हैं न?
महाराज! वे व्यापारी लोग आपके नगर और राष्ट्र में सम्मानित हो लिये बिक्री के लिये उपयोगी सामान लाते हैं न! उन्हें तुम्हारे कर्मचारी छल से ठगते तो नहीं?
तात! तुम सदा धर्म और अर्थ के ज्ञाता एवं अर्थशास्त्र के पूरे पण्डित बड़े-बूढ़े लोगों की धर्म और अर्थ से युक्त बातें सुनते रहते हो न?
क्या तुम्हारे यहाँ खेती से उत्पन्न होने वाले अन्न तथा फल-फूल एवं गौओं से प्राप्त होने वाले दूध, घी आदि में से मधु और घृत आदि धर्म के लिये ब्राह्मणों को जाते हैं?
नरेश्वर! क्या तुम सदा नियम से सभी शिल्पियों को व्यवस्थापूर्वक एक साथ इतनी वस्तु-निर्माण की साम्रगी दे देते हो, जो कम-से-कम चौमासे भर चल सके।
महाराज! क्या तुम्हें किसी के किये हुए उपकार का पता चलता है? क्या तुम उस उपकारी की प्रशंसा करते हो और साधु पुरुषों से भरी हुई सभा के बीच उस उपकारी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उसका आदर-सत्कार करते हो?
भरतश्रेष्ठ! क्या तुम संक्षेप से सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले सभी सूत्र ग्रन्थ- हस्तिसूत्र, अश्वसूत्र एवं रथसूत्र आदि संग्रह करते रहते हो?
भरत कुलभूषण! क्या तुम्हारे घर पर धनुर्वेद-सूत्र, यन्त्र-सूत्र और नागरिक सूत्र का अच्छी तरह अभ्यास किया जाता है?
निष्पाप नरेश! तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र, वेदोक्त दण्ड-विधान तथा शत्रुओं का नाश करने वाले सब प्रकार के विषप्रयोग ज्ञात हैं न?
क्या तुम अग्नि, सर्प, रोग तथा राक्षसों के भय से अपने सम्पूर्ण राष्ट्र की रक्षा करते हो ?
धर्मज्ञ! क्या तुम अंधों, गूँगों, पंगुओं अंगहीनों और बन्धु-बान्धवों से रहित अनाथों तथा संन्यासियों का भी पिता की भाँति पालन करते हो?
महाराज! क्या तुमने निद्रा, आलस्य, भय, क्रोध, कठोरता और दीर्घसूत्रता- इन छः दोषों को पीछे कर दिया है?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुरुश्रेष्ठ महात्मा राजा युधिष्ठिर ने ब्रह्मा के पुत्रों में श्रेष्ठ नारद जी का यह वचन सुनकर उनके दोनों चरणों में प्रणाम एवं अभिवादन किया और अत्यन्त संतुष्ट हो देवस्वरूप नारद जी से कहा।
युधिष्ठिर बोले ;- देवर्षे! आपने जैसा उपदेश दिया है, वैसा ही करूँगा। आपके इस प्रवचन से मेरी प्रज्ञा और भी बढ़ गयी है। ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर ने वैसा ही आचरण किया और इसी से समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य पा लिया।
नारद जी ने कहा ;- जो राजा इस प्रकार चारों वर्णों की रक्षा में संलग्न रहता है, वह इस लोक में अत्यन्त सुख पूर्वक विहार करके अन्त में देवराज इन्द्र के लोक में जाता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत लोकपाल सभाख्यान पर्व में नारद जी के द्वारा प्रश्न के व्याज से राजधर्म का उपदेश विषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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