सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)
ग्यारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"ब्रह्मा जी की सभा का वर्णन"
नारद जी कहते हैं ;- तात भारत! अब तुम मेरे मुख से कही हुई पितामह ब्रह्मा जी की सभा का वर्णन सुनो! वह सभा ऐसी है, इस रूप से नहीं बतलायी जा सकती। राजन्! पहले सत्ययुग की बात है, भगवान् सूर्य ब्रह्मा जी की सभा देखकर फिर मनुष्य लोक को देखने के लिये बिना परिश्रम के ही द्युलोक से उतरकर इस लोक में आये और मनुष्य रूप से इधर-उधर विचरने लगे। पाण्डुनन्दन! सूर्य देव ने मुझ से उस ब्राह्मी सभा का यथार्थतः वर्णन किया। भरतश्रेष्ठ! वह सभा अप्रमेय, दिव्य, ब्रह्माजी के मानसिक संकल्प से प्रकट हुई तथा समस्त प्राणियों के मन को मोह लेने वाली है। उस का प्रभाव अवर्णनीय है। पाण्डु कुलभूषण युधिष्ठिर! उस सभा के अलौकिक गुण सुनकर मेरे मन में उस के दर्शन की इच्छा जाग उठी और मैंने सूर्य देव से कहा,,
नारदजी बोले ;- ‘भगवान्! मैं भी ब्रह्मा जी की कल्याणमयी सभा का दर्शन करना चाहता हूँ। किरणों के स्वामी सके, वह मुझे बताइये। भगवान्! मैं जैसे भी उस सभा को देख सकूँ , उस उपाय का वर्णन कीजिये’।
भरतश्रेष्ठ! मेरी वह बात सुनकर सहस्रों किरणों वाले भगवान् दिवाकर ने कहा,,
सुर्य देव बोले ;- ‘तुम एकाग्रचित्त होकर ब्रह्मा जी-के व्रत का पालन करो। वह श्रेष्ठ व्रत एक हजार वर्षों में पूर्ण होगा।’ तब मैंने हिमालय के शिखर पर आकर उस महान् व्रत का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया। तदनन्तर मेरी तपस्या पूर्ण होने पर पापरहित, क्लेशशून्य और परम शक्तिशाली भगवान् सूर्य मुझे साथ ले ब्रह्मा जी की उस सभा में गये। राजन्! वह सभा ‘ऐसी ही है’ इस प्रकार नहीं बतायी जा सकती; क्योंकि वह एक-एक क्षण में दूसरा अनिर्वचनीय स्वरूप धारण कर लेती है। भारत! उसकी लंबाई-चौड़ाई कितनी है अथवा उसकी स्थिति क्या है, यह सब मैं कुछ नहीं जानता। मैंने किसी भी सभा का वैसा स्वरूप पहले कभी नहीं देखा था।
राजन्! वह सदा उत्तम सुख देने वाली है। वहाँ न सर्दी का अनुभव होता है, न गर्मी का। उस सभा में पहुँच जाने पर लोगों को भूख, प्यास और ग्लानि का अनुभव नहीं होता। वह सभा अनेक प्रकार की अत्यन्त प्रकाशमान मणियों से निर्मित हुई है। वह खंभों के आधार पर नहीं टिकी है और उसमें कभी क्षयरूप विकार न आने के कारण वह नित्य मानी गयी है। अनन्त प्रभा वाले नाना प्रकार के प्रकाशमान दिव्य पदार्थों द्वारा अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य से भी अधिक स्वयं ही प्रकाशित होने वाली वह सभा अपने तेज से सूर्य मण्डल को तिरस्कृत करती हुई-सी स्वर्ग से भी ऊपर स्थित हुई प्रकाशित हो रही है। राजन्! उस सभा में सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा जी देवमाया द्वारा समस्त जगत् की स्वयं ही सृष्टि करते हुए सदा अकेले ही विराजमान होते हैं। भारत! वहाँ दक्ष आदि प्रजापतिगण उन भगवान् ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित होते हैं। दक्ष, प्रचेता, पुलह, मरीचि, प्रभावशाली कश्यप, भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, गौतम, अंगिरा, पुलस्त्य, क्रतु, प्रह्लाद, कर्दम।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 20-48 का हिन्दी अनुवाद)
अथर्वांगिरस, सूर्य किरणों का पान करने वाले बालखिल्य, मन, अन्तरिक्ष, विद्या, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, प्रकृति, विकृति तथा पृथ्वी की रचना के जो अन्य कारण हैं, इन सब के अभिमानी देवता। महामेजस्वी अगस्त्य, शक्तिशाली मार्कण्डेय, जमदग्नि, भरद्वाज, संवर्त, च्यवन। महाभाग दुर्वासा, धर्मात्मा ऋष्यश्रृंग, महातपस्वी योगाचार्य भगवान् सनत्कुमार। असित, देवल, तत्त्वज्ञानी जैगीषव्य, शत्रुविजयी ऋषभ, महापराक्रमी मणि तथा आठ अंगों से युक्त मूर्तिमान् आयुर्वेद, नक्षत्रों सहित चन्द्रमा, अंशुमाली सूर्य। वायु, क्रतु, संकल्प और प्राण- ये तथा और भी बहुत-से मूर्तिमान् महान् व्रतधारी महात्मा ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित होते हैं। अर्थ, धर्म, काम, हर्ष, द्वेष, तप और दम- ये भी मूर्ति मान् होकर ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं।
गन्धर्वों और अप्सराओं के बीस गण एक साथ उस सभा में आते हैं। सात अन्य गन्धर्व भी जो प्रधान हैं, वहाँ उपस्थित होते हैं। समस्त लोकपाल, शुक्र, बृहस्पति, बुध, मंगल, शनैश्वर, राहु तथा केतु- ये सभी ग्रह। सामगान सम्बन्धी मन्त्र, रथन्तरसाम, हरिमान्, वसुमान्, अपने स्वामी इन्द्र सहित बारह आदित्य, अग्नि-सोम आदि युगल नामों से कहे जाने वाले देवता। मरूद्गण, विश्वकर्मा, वसुगण, समस्त पितृगण, सभी हविष्य। पाण्डुनन्दन! ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा सम्पूर्ण शास्त्र। इतिहास, उपवेद, सम्पूर्ण वेदांग, ग्रह, यज्ञ, सोम और समस्त देवता। सावित्री, दुर्गम दुःख से उबारने वाली दुर्गा, सात प्रकार की प्रणवरूपा वाणी, मेधा, धृति, श्रुति, प्रज्ञा, बुद्धि, यश और क्षमा। साम, स्तुति, गति, विविध गाथा तथा तर्कयुक्त भाष्य- ये सभी देहधारी होकर एवं अनेक प्रकार के नाटक, काव्य, कथा, आख्यायिका तथा कारिका आदि उस सभा में मुर्तिमान् होकर रहते हैं। इसी प्रकार गुरुजनों की पूजा करने वाले जो दूसरे पुण्यात्मा पुरुष हैं, वे भी उस सभा में स्थित होते हैं।
युधिष्ठिर! क्षण, लव, मुहूर्त, दिन, रात, पक्ष, मास, छहों ऋतुएँ। साठ संवत्सर, पाँच संवत्सरों का युग, चार प्रकार के दिन-रात (मानव, पितर, देवता और ब्रह्मा जी के दिन-रात), नित्य, दिव्य, अक्षय एवं अव्यय कालचक्र तथा धर्मचक्र भी देह धारण करके सदा ब्रह्मा जी की सभा में उपस्थित रहते हैं। अदिति, दिति, दनु, सुरसा, विनता, इरा, कालिका, सुरभीदेवी, सरभा, गौतमी, प्रभा और कद्रू- ये दो देवियाँ, देवमाताएँ, रुद्राणी, श्री, लक्ष्मी, भद्रा तथा अपरा, षष्ठी, पृथ्वी, भूतल पर उतरी हुई गंगादेवी, लज्जा, स्वाहा, कीर्ति, सुरादेवी, शची, पुष्टि, अरून्धती संवृत्ति, आशा, नियति, सृष्टि देवी, रति तथा अन्य देवियाँ भी उस सभा में प्रजापति ब्रह्मा जी की उपासना करती हैं। आदित्य, वसु, रुद्र, मरूद्गण, अश्विनी कुमार, विश्वेदेव, साध्य तथा मन के समान वेगशाली पितर भी उस सभा में उपस्थित होते हैं। नरश्रेष्ठ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि पितरों के सात ही गण होते हैं, जिन में चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्त। भारत! सम्पूर्ण लोकों में विख्यात स्वर्गलोक में विचरने वाले महाभाग वैराज, अग्निष्वात्त, सोमपा, गार्हपत्य (ये चार मूर्त हैं), एक श्रृंग, चतुर्वेद तथा कला (ये तीन अमूर्त हैं)। ये सातों पितर क्रमशः चारों वर्णों में पूजित होते हैं। राजन्! पहले इन पितरों के तृप्त होने से फिर सोम देवता भी तृप्त हो जाते हैं। ये सभी पितर उक्त सभा में उपस्थित हो प्रसन्नतापूर्वक अमित तेजस्वी प्रजापति ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 49-62 का हिन्दी अनुवाद)
इसी प्रकार राक्षस, पिशाच, दानव, गुह्यक, नाग, सुपर्ण तथा श्रेष्ठ पशु भी वहाँ पितामह ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं। स्थावर और जंगम महाभूत, देवराज इन्द्र, वरुण, कुबेर, यम तथा पार्वती सहित महादेव जी- ये सब सदा उस सभा में पधारते हैं। राजेन्द्र! स्वामी कार्तिकेय भी वहाँ उपस्थित होकर सदा ब्रह्मा जी की सेवा करते हैं। भगवान् नारायण, देवर्षिगण, बालखिल्य ऋषि तथा दूसरे अयोनिज और योनिज ऋषि उस सभा में ब्रह्मा जी की आराधना करते हैं। नरेश्वर! संक्षेप में यह समझ लो कि तीनों लोकों में स्थावर-जंगम भूतों के रूप में जो कुछ भी दिखायी देता है, वह सब मैंने उस सभा में देखा था। पाण्डुनन्दन! अट्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता ऋषि और पचाप्स संतानवान् महर्षि उस सभा में उपस्थित होते हैं। वे सब महर्षि तथा सम्पूर्ण देवता वहाँ इच्छानुसार ब्रह्मा जी का दर्शन करके उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करते और आज्ञा लेकर जैसे आये होते हैं, वैसे ही चले जाते हैं।
अगाध बुद्धि वाले दयालु लोक पितामह ब्रह्मा जी अपने यहाँ आये हुए सभी महाभाग अतिथियों- देवता, दैत्य, नाग, पक्षी, यक्ष, सुपर्ण, कालेय, गन्धर्व तथा अप्सराओं एवं सम्पूर्ण भूतों से यथा योग्य मिलते हैं और उन्हें अनुगृहीत करते हैं। मनुजेश्वर! अमित तेजस्वी विश्वत्मा स्वयम्भू उन सब अतिथियों को अपना कर उन्हें सान्त्वना देते, उनका सम्मान करते, उनके प्रयोजन की पूर्ति करके उन सब को आवश्यकता तथा रुचि के अनुसार भोग सामग्री प्रदान करते हैं। तात भारत! इस प्रकार वहाँ आने-जाने वाले लोगों से भरी हुई वह सभा बड़ी सुखदायिनी जान पड़ती है।
नृपश्रेष्ठ! वह सभा सम्पूर्ण तेज से सम्पन्न, दिव्य तथा ब्रह्मर्षियों के समुदाय से सेवित और पापरहित एवं ब्राह्मी श्री से उद्भासित और सुशोभित होती रहती है। वैसी उस सभा का मैंने दर्शन किया है। जैसे मनुष्य लोक में तुम्हारी यह सभा दुर्लभ है, वैसे ही सम्पूर्ण लोकों में तुम्हारी यह सभा दुर्लभ है, वैसे ही सम्पूर्ण लोकों में ब्रह्मा जी की सभा परम दुर्लभ है। भारत! ये सभी सभाएँ मैंने पूर्व काल से देव लोक में देखी हैं! मनुष्य लोक में तो तुम्हारी यह सभा ही सर्वश्रेष्ठ है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत लोकपाल सभाख्यान पर्व में ब्रह्म सभा वर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)
बारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य तथा युधिष्ठिर के प्रति राजा पाण्डु का संदेश"
युधिष्ठिर बोले ;- वक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान्! जैसा आपने मुझसे वर्णन किया है, उसके अनुसार सूर्य पुत्र यम की सभा में ही अधिकांश राजा लोगों की स्थिति बतायी गयी है। प्रभो! वरुण की सभा में तो अधिकांश नाग, दैत्येन्द्र, सरिताएँ और समुद्र ही बताये गये हैं। इसी प्रकार धनाध्यक्ष कुबेर की सभा में यक्ष, गुह्यक, राक्षस, गन्धर्व, अप्सरा तथा भगवान् शंकर की उपस्थिति का वर्णन हुआ है। ब्रह्मा जी की सभा में आपने महर्षियों, सम्पूर्ण देवगणों तथा समस्त शास्त्रों की स्थिति बतायी है। परंतु मुने! इन्द्र की सभा में आपने अधिकांश देवताओं की ही उपस्थिति का वर्णन किया है और थोड़े से विभिन्न गन्धर्वों एवं महर्षियों की भी स्थिति बतायी है। महामुने! महात्मा देवराज इन्द्र की सभा में आपने राजर्षियों में से एक मात्र हरिश्चन्द्र का ही नाम लिया है। नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले महर्षे! उन्होंने कौन-सा कर्म अथवा कौन- सी तपस्या की है, जिससे वे महान् यशस्वी होकर देवराज इन्द्र से स्पर्धा कर रहे हैं। विप्रवर! आपने पितृलोक में जाकर मेरे पिता महाभाग पाण्डु को भी देखा था, किस प्रकार वे आप से मिले थे? भगवान्! उन्होंने आप से क्या कहा? यह मुझे बताइये। सुवत! आप से यह सब कुछ सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है।
नारद जी ने कहा ;- शक्तिशाली राजेन्द्र! तुमने जो राजर्षि हरिश्चन्द्र के विषय में मुझसे पूछा है, उस के उत्तर में मैं उन बुद्धिमान् नरेश का माहात्म्य बता रहा हूँ, सुनो। इक्ष्वाकुकुल में त्रिशंकु नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। वीर त्रिशंकु अयोध्या के स्वामी थे और वहाँ विश्वामित्र मुनि के साथ रहा करते थे। उनकी पत्नी का नाम सत्यवती था, वह केकय-कुल में उत्पन्न हुई थी। कुरुनन्दन! रानी सत्यवती के धर्मानुकुल गर्भ रहा। फिर समयानुसार जन्म मास प्राप्त होने पर महाभागा रानी ने एक निष्पाप पुत्र को जन्म दिया, उस का नाम हुआ हरिश्चन्द्र। वे त्रिशंकुकुमार ही लोक विख्यात राजा हरिश्चन्द्र कहे गये हैं। राजा हरिश्चन्द्र बड़े बलवान् और समस्त भूपालों के सम्राट थे। भूमण्डल सभी नरेश उनकी आज्ञा पालन करने के लिये सिर झुकाये खड़े रहते थे।
जनेश्वर! उन्होंने एक मात्र स्वर्ण विभूषित जैत्र नामक रथ पर चढ़कर अपने शस्त्रों के प्रताप से सातों द्वीपों पर विजय प्राप्त कर ली। महाराज! पर्वतों और वनों सहित इस सारी पृथ्वी को जीतकर राजा हरिश्चन्द्र ने राजसूय नामक महान् यज्ञ का अनुष्ठान किया। राजा की आज्ञा से समस्त भूपालों ने धन लाकर भेंट किये और उस यज्ञ में ब्राह्मणों को भोजन परोसन का कार्य किया। महाराज हरिश्चन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उस यज्ञ में याचकों को, जितना उन्होंने माँगा, उससे पाँच गुना अधिक धन दान किया। जब अग्निदेव के विसर्जन का अवसर आया, उस समय उन्होंने विभिन्न दिशाओं से आये हुए ब्राह्मणों को नाना प्रकार के धन एवं रत्न देकर तृप्त किया। नाना प्रकार के भक्ष्य-भोज्य पदार्थ, मनोवान्छित वस्तुओं का पुरस्कार तथा रत्न राशि का दान देकर तृप्त एवं संतुष्ट किये हुए ब्राह्मणों ने राजा हरिश्चंद्र को आशीर्वाद दिये। इसीलिये वे अन्य राजाओें की अपेक्षा अधिक तेजस्वी और यशस्वी हुए हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! भरतश्रेष्ठ! यही कारण है कि उन सहस्रों राजाओं की अपेक्षा महाराज हरिश्चन्द्र अधिक सम्मानपूर्वक इन्द्र सभा में विराजमान होते हैं- इस बात को तुम अच्छी तरह जान लो। नरेश्वर! प्रतापी हरिश्चन्द्र उस महायज्ञ को समाप्त करके जब सम्राट के पद पर अभिषिक्त हुए, उस समय उन की बड़ी शोभा हुई। भरतकुलभूषण! दूसरे भी जो भूपाल राजसूय नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वे देवराज इन्द्र के साथ रहकर आनन्द भोगते हैं। भरतर्षभ! जो लोग संग्राम में पीठ दिखाकर वहीं मृत्यु का वरण कर लेते हैं, वे भी देवराज इन्द्र की उस सभा में जाकर वहाँ आनन्द का उपभोग करते हैं। तथा जो लोग कठोर तपस्या के द्वारा यहाँ अपने शरीर का त्याग करते हैं, वे भी उस इन्द्र सभा में जाकर तेजस्वी रूप धारण करके सदा प्रकाशित होते रहते हैं। कौरवनन्दन कुन्तीकुमार! तुम्हारे पिता पाण्डु ने राजा हरिश्चन्द्र की सम्पत्ति देखकर अत्यन्त चकित हो तुम से कहने के लिये संदेश दिया है।
नरेश्वर! मुझे मनुष्य लोक में आता जान उन्होंने प्रणाम करके मुझ से कहा,,
पाण्डु ने कहा ;- ‘देवर्षे! आप युधिष्ठिर से यह कहियेगा- 'भारत! तुम्हारे भाई तुम्हारी आज्ञा के अधीन हैं, तुम सारी पृथ्वी को जीतने में समर्थ हो; अतः राजसूय नामक श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करो। तुम-जैसे पुत्र के द्वारा वह यज्ञ सम्पन्न होने पर मैं भी शीघ्र ही राजा हरिश्चन्द्र की भाँति बहुत वर्षों तक इन्द्र भवन में आनन्द भोगूँग’।
तब मैंने पाण्डु से कहा ;- ‘एवमस्तु, यदि मैं भूलोक में जाऊँगा तो आपके पुत्र राजा युधिष्ठिर से कह दूँगा’। पुरुषसिंह पाण्डुनन्दन! तुम अपने पिता के संकल्प को पूरा करो। ऐसा करने पर तुम पूर्वजों के साथ देवराज इन्द्र के लोक में जाओगे। राजन्! इस महान् यज्ञ में बहुत-से विघ्न आने की सम्भावना रहती है; क्योंकि यज्ञनाशक ब्रह्म राक्षस इस का छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं। तथा इसका अनुष्ठान होने पर कोई एक ऐसा निमित्त भी बन जाता है, जिससे पृथ्वी पर विनाशकारी युद्ध उपस्थित हो जाता है, जो क्षत्रियों के संहार और भूमण्डल के विनाश का कारण होता है।
राजेन्द्र! यह सब सोच-विचारकर तुम्हें जो हितकर जान पड़े, वह करो। चारों वर्णों की रक्षा के लिये सदा सावधान और उद्यत रहो। संसार में तुम्हारा अभ्युदय हो, तुम आनन्दित रहो और धन से ब्राह्मणों को तृप्त करो। तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने विस्तारपूर्वक बता दिया। अब मैं यहाँ से द्वारका जाऊँगा, इस के लिये तुम से अनुमति चाहता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुन्तीकुमारों से ऐसा कहकर नारद जी जिन ऋषियों के साथ आये थे, उन्हीं से घिरे हुए पुनः चले गये। नारद जी के चले जाने पर कुरुश्रेष्ठ कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ राजसूय नामक श्रेष्ठ यज्ञ के विषय में विचार करने लगे।
(इस प्रकार श्री महाभारत सभापर्व के अंतगर्त लोकपाल सभाख्यान पर्व में पाण्डु-संदेश-कथन विषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (राजसुयारम्भ पर्व)
तेरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर का राजसूय विषयक संकल्प और उसके विषय में भाइयों, मन्त्रियों, मुनियों तथा श्रीकृष्ण से सलाह लेना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! देवर्षि नारद का वह वचन सुनकर युधिष्ठिर ने लंबी साँस खींची। राजसूय यज्ञ के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए उन्हें शान्ति नहीं मिली। राजसूय यज्ञ करने वाले महात्मा राजर्षियों की वैसी महिमा सुनकर तथा पुण्य कर्मों द्वारा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती देखकर एवं यज्ञ करने वाले राजर्षि हरिश्वन्द्र का महान् तेज (तथा विशेष वैभव एवं आदर-सत्कार) सुनकर उन के मन में राजसूय यज्ञ करने की इच्छा हुई। तदनन्तर युधिष्ठिर ने अपने समस्त सभासदों का सत्कार किया और उन सब सदस्यों ने भी उनका बड़ा समान किया। अन्त में (सब की सम्मति से) उनका मन यज्ञ करने के ही संकल्प पर दृढ़ हो गया।
राजेन्द्र! कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उस समय बार-बार विचार करके राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान में ही मन लगाया। अद्भुत बल और पराक्रम वाले धर्मराज ने पुनः अपने धर्म का ही चिन्तन किया और सम्पूर्ण लोकों का हित कैसे हो, इसी ओर वे ध्यान देने लगे। युधिष्ठिर समस्त धर्मात्माओें में श्रेष्ठ थे। वे सारी प्रजा पर अनुग्रह करके सब का समान रूप से हितसाधन करने लगे। क्रोध और अभिमान से रहित होकर राजा युधिष्ठिर ने अपने सेवकों से कह दिया कि ‘देने योग्य वस्तुएँ सब को दी जाँय अथवा सारी जनता का पावना (ऋण) चुका दिया जाय।’ उनके राज्य में ‘धर्मराज आप धन्य हैं। धर्मस्वरूप युधिष्ठिर आप को साधुवाद!’ इस के सिवा और कोई बात नहीं सुनी जाती थी। उस का ऐसा व्यवहार देख सारी प्रजा उनके ऊपर पिता के समान भरोसा रखने लगी। उनके प्रति द्वेष रखने वाला कोई नहीं रहा। इसीलिये वे ‘अजात शत्रु’ नाम से प्रसिद्ध हुए।
महाराज युधिष्ठिर सब को आत्मीयजनों की भाँति अपनाते, भीमसेन सब की रखा करते, सव्यसाची अर्जुन शत्रुओं के संहार में लगे रहते, बुद्धिमान् सहदेव सब को धर्म का उपदेश दिया करते और नकुल स्वभाव से ही सब के साथ विनयपूर्ण बर्ताव करते थे। इससे उन के राज्य के सभी जनपद कलहशून्य, निर्भय, स्वधर्म परायण तथा उन्नतिशील थे। वहाँ उन की इच्छा के अनुसार समय पर वर्षा होती थी। उन दिनों राजा के सुप्रबन्ध से व्याज की आजीविका, यज्ञ की सामग्री, गोरक्षा, खेती और व्यापार- इन सब की विशेष उन्नति होने लगी।
निर्धन प्रजाजनों से पिछले वर्ष का बाकी कर नहीं लिया जाता था तथा चालू वर्ष का कर वसूल करने के लिये किसी को पीड़ा नहीं दी जाती थी। सदा धर्म में तत्पर रहने वाले युधिष्ठिर के शासन काल में रोग तथा अग्नि का प्रकोप आदि कोई भी उपद्रव नहीं था। लुटेरों, ठगों से, राजा से तथा राजा के प्रिय व्यक्तियों से प्रजा के प्रति अत्याचार या मिथ्या व्यवहार कभी नहीं सुना जाता था और आपस में भी सारी प्रजा एक दूसरे से मिथ्या व्यवहार नहीं करती थी। दूसरे राजा लोग विभिन्न देश के कुलीन वैश्यों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर प्रिय करने, उन्हें कर देने, अपने उपार्जित धन-रत्न आदि की भेंट देने तथा संधि-विग्रहादि छः कार्यों में राजा को सहयोग देने के लिये उन के पास आते थे। सदा धर्म में ही लगे रहने वाले राजा युधिष्ठिर के शासन-काल में राजस स्वभाव वाले तथा लोभी मनुष्यों द्वारा इच्छानुसार धन आदि का उपभोग किये जाने पर भी उन का देश दिनों दिन उन्नति करने लगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)
राजा युधिष्ठिर की ख्याति सर्वत्र फैल रही थी। सभी सद्गुण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। वे शीत एवं उष्ण आदि सभी द्वन्द्वों को सहने में समर्थ तथा अपने राजोचित गुणों से सर्वत्र सुशोभित होते थे। राजन्! दसों दिशाओं में प्रकाशित होने वाले वे महायशस्वी सम्राट जिस देश पर अधिकार जमाते, वहाँ ग्वालों से लेकर ब्राह्मणों तक सारी प्रजा उन के प्रति पिता-माता के समान भाव रखकर प्रेम करने लगती थी। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने उस समय अपने मन्त्रियों और भाइयों को बुलाकर उन से बार-बार पूछा- ‘राजसूय यज्ञ के सम्बन्ध में आप लोगों की क्या सम्मति है?’ इस प्रकार पूछे जाने पर उन सब मन्त्रियों ने एक साथ यज्ञ की इच्छा वाले परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर से उस समय यह अर्थयुक्त बात कही- ‘महाराज! राजसूय यज्ञ के द्वारा अभिषिक्त होने पर राजा वरुण के गुणों को प्राप्त कर लेता है; इसलिये प्रत्येक नरेश उस यज्ञ के द्वारा सम्राट के समस्त गुणों को पाने की अभिलाषा रखता है।
कुरुनन्दन! आप तो सम्राट के गुणों को पाने के सर्वथा योग्य हैं; अतः आप के हितैषी सुहृद आप के द्वारा राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान का यह उचित अवसर प्राप्त हुआ मानते हैं। उस यज्ञ का समय क्षत्रसम्पत्ति यानि सेना आदि के अधीन है। उसमें उत्तम व्रत का आचरण करने वाले ब्राह्मण सामवेद के मन्त्रों द्वारा अग्नि की स्थापना के लिये छः अग्नि वेदियों- का निर्माण करते हैं। जो उस यज्ञ का अनुष्ठान करता है, वह ‘दर्वीहोम’ (अग्निहोत्र आदि) से लेकर समस्त यज्ञों के फल को प्राप्त कर लेता है एवं यज्ञ के अन्त में जो अभिषेक होता है, उससे वह यज्ञकर्ता नरेश ‘सर्वजित् सम्राट्’ कहलाने लगता है। महाबाहो! आप उस यज्ञ के सम्पादन में समर्थ हैं। हम सब लोग आप की आज्ञा के अधीन हैं। महाराज! आप शीघ्र ही राजसूय यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे। अतः किसी प्रकार का सोच-विचार न करके आप राजसूय के अनुष्ठान में मन लगाइये।’
इस प्रकार उनके सभी सुहृदों ने अलग-अलग और सम्मिलित होकर अपनी यही सम्मति प्रकट की। प्रजानाथ! शत्रुसूदन पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने उनका यह साहसपूर्ण, प्रिय एवं श्रेष्ठ वचन सुनकर उसे मन-ही-मन ग्रहण किया। भारत! उन्होंने सुहृदों का वह सम्मतिसूचक वचन सुनकर तथा यह भी जानते हुए कि राजसूय यज्ञ अपने लिये साध्य है। उस के विषय में बारम्बार मन-ही-मन विचार किया। फिर मन्त्रणा का महत्त्व जानने वाले बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, महात्मा ऋत्विजों, मन्त्रियों तथा धौम्य एवं व्यास आदि महर्षियों के साथ इस विषय पर पुनः विचार करने लगे।
युधिष्ठिर ने कहा ;- महात्माओ! राजसूय नामक उत्तम यज्ञ किसी सम्राट् के ही योग्य है, तो भी मैं उस के प्रति श्रद्धा रखने लगा हूँ; अतः आप लोग बताइये, मेरे मन में जो यह राजसूय यज्ञ करने की अभिलाषा हुई है, कैसी है?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- कमलनयन जनमेजय! राजा के इस प्रकार पूछने पर वे,,
सब लोग उस समय धर्मराज युधिष्ठिर से यों बोले ;- ‘धर्मज्ञ! आप राजसूय महायज्ञ करने के सर्वथा योग्य हैं।’ ऋत्विजों तथा महर्षियों ने जब राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा, तब उनके मन्त्रियों और भाइयों ने उन महात्माओें के वचन का बड़ा आदर किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 33-47 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर मन को वश में रखने वाले महाबुद्धिमान् राजा युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से पुनः इस विषय पर मन-ही-मन विचार किया- ‘जो बुद्धिमान् अपनी शक्ति और साधनों को देखकर तथा देश, काल, आय और व्यय को बुद्धि के द्वारा भलीभाँति समझ करके कार्य आरम्भ करता है, वह कष्ट में नहीं पड़ता। केवल अपने ही निश्चय से यज्ञ का आरम्भ नहीं किया जाता।’ ऐसा समझकर यत्नपूर्वक कार्यभार वहन करने वाले युधिष्ठिर ने उस कार्य के विषय में पूर्ण निश्चय करने के लिये जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण को ही सब लोगों से उत्तम माना और वे मन-ही-मन उन अप्रमेय महाबाहु श्रीहरि की शरण में गये, जो अजन्मा होते हुए भी धर्म एवं साधु पुरुषों की रक्षा आदि की इच्छा से मनुष्य लोक में अवतीर्ण हुए थे। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के देवपूजित अलौकिक कर्मों द्वारा यह अनुमान किया कि श्रीकृष्ण के लिये कुछ भी अज्ञात नहीं है तथा कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जिसे वे कर न सकें। उनके लिये कुछ भी असह्य नहीं है।
इस तरह उन्होंने उन्हें सर्वशक्तिमान् एवं सर्वज्ञ माना। ऐसी निश्चयात्मक बुद्धि करके कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने गुरुजनों के शीघ्र ही एक दूत भेजा। वह दूत शीघ्रगामी रथ के द्वारा तुरंत यादवों के यहाँ पहुँचकर द्वारकावासी श्रीकृष्ण से द्वारका में मिला। उसने विनयपूर्वक हाथ जोड़ भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार निवेदन किया।
दूत ने कहा ;- 'महाबाहु हृषीकेश! धर्मराज युधिष्ठिर धौम्य एवं व्यास आदि महर्षियों, द्रुपद और विराट आदि नरेशों तथा अपने समस्त भाइयों के साथ आप का दर्शन करना चाहते हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- दूत इन्द्रसेन की यह बात सुनकर यदुवंश शिरोमणि महाबली भगवान् श्रीकृष्ण दर्शनाभिलाषी युधिष्ठिर के पास स्वयं भी उनके दर्शन की अभिलाषा से दूत इन्द्रसेन के साथ इन्द्रप्रस्थ नगर में आये। मार्ग में अनेक देशों को लाँघते हुए वे बड़ी उतावली के साथ आगे बढ़ रहे थे। उनके रथ के घोड़े बहुत तेज चलने वाले थे। भगवान् जनार्दन इन्द्रप्रस्थ में आकर राजा युधिष्ठिर से मिले। फुफेरे भाई धर्मराज युधिष्ठिर तथा भीमसेन ने अपने घर में श्रीकृष्ण का पिता की भाँति पूजन किया।तत्पश्चात् श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती से प्रसन्नतापूर्वक मिले। तदनन्तर प्रेमी सुहृद् अर्जुन से मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। फिर नकुल-सहदेव गुरु की भाँति उनकी सेवा पूजा की। इस के बाद उन्होंने एक उत्तम भवन में विश्राम किया। थोड़ी देर बाद जब वे मिलने के योग्य हुए और इस के लिये उन्होंने अवसर निकाल लिया, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने आकर उन से अपना सारा प्रयोजन बतलाया।
युधिष्ठिर बोले ;- श्रीकृष्ण! मैं राजसूय यज्ञ करना चाहता हूँ; परंतु वह केवल चाहने भर से ही पूरा नहीं हो सकता। जिस उपाय से उस यज्ञ की पूर्ति हो सकती है, वह सब आपको ही ज्ञात है। जिस में सब कुछ सम्भव है अर्थात् जो सब कुछ सम्भव है अर्थात् जो सब कुछ कर सकता है, जिसकी सर्वत्र पूजा होती है तथा जो सर्वेश्वर होता है, वही राजा राजसूय यज्ञ सम्पन्न कर सकता है। मेरे सब सुहृद एकत्र होकर मुझ से वही राजसूय यज्ञ करने के लिये कहते हैं; परंतु इसके विषय में अन्तिम निश्चय तो आपके कहने से ही होगा। कुछ लोग प्रेम-सम्बन्ध के नाते ही मेरे दोषों या त्रुटियों को नहीं बताते हैं। दूसरे लोग स्वार्थवश वही बात कहते हैं, जो मुझे प्रिय लगे। कुछ लोग जो अपने लिये हितकर है, उसी को मेरे लिये भी प्रिय एवं हितकर समझ बैठते हैं। इस प्रकार अपने-अपने प्रयोजन को लेकर प्रायः लोगों की भिन्न-भिन्न बातें देखी जाती हैं। परंतु आप उपर्युक्त सभी हेतुओं से एवं काम-क्रोध से रहित होकर (अपने स्वरूप में स्थित हैं। अतः) इस लोक में मेरे लिये जो उत्तम एवं करने योग्य हो, उस को ठीक बताने की कृपा करें।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयारम्भ पर्व में वासुदेवागमन विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (राजसुयारम्भ पर्व)
चौदहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ के लिये सम्मति"
श्रीकृष्ण ने कहा ;- महाराज! आप में सभी सद्गुण विद्यमान हैं, अतः आप राजसूय यज्ञ करने के लिये योग्य हैं। भारत! आप सब कुछ जानते हैं, तो भी आपके पूछने पर मैं इस विषय में कुछ निवेदन करता हूँ। जमदग्निनन्दन परशुराम ने पूर्वकाल में जब क्षत्रियों का संहार किया था, उस समय लुक-छिपकर जो क्षत्रिय शेष रह गये, वे पूर्ववर्ती क्षत्रियों की अपेक्षा निम्न कोटि के हैं। इस प्रकार इस समय संसार में नाममात्र के क्षत्रिय रह गये हैं। पृथ्वीपते! इन क्षत्रियों ने पूर्वजों के कथनानुसार सामूहिक रूप से यह नियम बना लिया है कि हममें से जो समस्त क्षत्रियों को जीत लेगा, वही सम्राट होगा। भरतश्रेष्ठ! यह बात आप को भी मालूम ही होगी। इस समय श्रेणिबद्ध (सब-के-सब ) राजा तथा भूमण्डल के दूसरे क्षत्रिय भी अपने को सम्राट पुरूरवा तथा इक्ष्वाकु की संतान कहते हैं।
भरतश्रेष्ठ राजन्! पुरूरवा तथा इक्ष्वाकु के वंश में जो नरेश आज कल हैं, उन के एक सौ कुल विद्यमान हैं; यह बात आप अच्छी तरह जान लें। महाराज! आज कल राजा ययाति के कुल में गुण की दृष्टि से भोजवंशियों का ही अधिक विस्तार हुआ है। भोजवंशी बढ़कर चारों दिशाओं में फैल गये हैं तथा आज के सभी क्षत्रिय उन्हीं की धन-सम्पत्ति का आश्रय ले रहें हैं। राजन्! अभी-अभी भूपाल जरासंध उन समस्त क्षत्रिय-कुलों की राजलक्ष्मी को लाँघकर राजाओं द्वारा सम्राट के पद पर अभिषिक्त हुआ है और वह अपने बल-पराक्रम से सब पर आक्रमण करके समस्त राजाओं का सिरमौर हो रहा है। जरासंध मध्यभूमि का उपभोग करते हुए समस्त राजाओं में परस्पर फूट डालने की नीती को पसंद करता है। इस समय वही सबसे प्रबल एवं उत्कृष्ट राजा है। यह सारा जगत् एकमात्र उसी के वश में है। महाराज! वह अपनी राजनीतिक युक्तियों से इस समय सम्राट बन बैठा है।
राजन्! कहते हैं, प्रतापी राजा शिशुपाल सब प्रकार से जरासंध का आश्रय लेकर ही उस का प्रधान सेनापति हो गया है। युधिष्ठिर! माया युद्ध करने वाला महाबली करूषराज दन्तवक्र भी जरासंध के सामने शिष्य की भाँति हाथ जोड़े खड़ा रहता है। विशालकाल अन्य दो महापराक्रमी योद्धा सुप्रसिद्ध हंस और डिम्भक भी महाबली जरासंध की शरण ले चुके थे। करुष देश का राजा दन्तवक्र, करभ और मेघवाहन- ये सभी सिर पर दिव्य मणिमय, मुकुट धारण करते हुए भी जरासंध को अपने मस्तक की अद्भुत मणि मानते हैं (अर्थात् उस के चरणों में सिर झुकाते रहते हैं)। महाराज! जो मुर और नरक नामक देश का शासन करते हैं, जिनकी सेना अनन्त है, जो वरुण के समान पश्चिम दिशा के अधिपति कहे जाते हैं, जिन की वृद्धावस्था हो चली है तथा जो आप के पिता के मित्र रहे हैं, वे यवनाधिपति राजा भगदत्त भी वाणी तथा क्रिया द्वारा भी जरासंध के सामने विशेष रूप से नतमस्तक रहते हैं; फिर भी वे मन-ही-मन तुम्हारे स्नेहपाश में बँधे हैं और जैसे पिता अपने पुत्र पर प्रेम रखता है, वैसे ही उनका तुम्हारे ऊपर वात्सल्य भाव बना हुआ है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद)
जो भारतभूमि के पश्चिम से लेकर दक्षिण तक के भाग पर शासन करते हैं, आप के मामा वे शत्रु संहारक शूरवीर कुन्तिभोज कुलवर्द्धक पुरूजित अकेले ही स्नेहवश आपके प्रति प्रेम और आदर का भाव रखते हैं। जिसे मैंने पहले मारा नहीं, उपेक्षावश छोड़ रक्खा है, जिस की बुद्धि बड़ी खोटी है, जो चेदि देश में पुरुषोत्तम समझा जाता है, इस जगत् में जो अपने-आप को पुरुषोत्तम ही कहकर बताया करता है और मोहवश सदा मेरे शंख-चक्र आदि चिह्नों को धारण करता है; वंग, पुण्ड्र तथा किरात देश का जो राजा है तथा लोक में वासुदेव के नाम से जिस की प्रसिद्धि हो रही है, वह बलवान् राजा पौण्ड्रक भी जरासंध से ही मिला हुआ है। राजन्! जो पृथ्वी के एक चौथाई भाग के स्वामी हैं, इन्द्र के सखा हैं, बलवान् हैं, जिन्होंने अस्त्र-विद्या के बल से पाण्डय, क्रथ और कैशिक देशों पर विजय पायी है, जिन का भाई आकृति जमदग्निनन्दन परशुराम के समान शौर्य सम्पन्न है, वे भोजवंशी शत्रुहन्ता राजा भीष्मक (मेरे श्वशुर होते हुए) भी मगधराज जरासंध के भक्त हैं। हम सदा उन का प्रिय करते रहते हैं, उनके प्रति नम्रता दिखाते हैं और उनके सगे-सम्बन्धी हैं; तो भी वे हम-जैसे अपने भक्तों तो नहीं अपनाते हैं और हमारे शत्रुओं से मिलते-जुलते हैं। राजन्! वे अपने बल और कुल की ओर भी ध्यान नहीं देते, केवल जरासंध के उज्ज्वल यश की ओर देखकर उस के आश्रित बन गये हैं।
प्रभो! इसी प्रकार उत्तर दिशा में निवास करने वाले भोजवंशियों के अठारह कुल जरासंध के ही भय से भागकर पश्चिम दिशा में रहने लगे हैं। शूरसेन, भद्रकार, बोध, शाल्व, पटच्चर, सुस्थल, सुकुट्ट, कुलिन्द, कुन्ति तथा शाल्वायन आदि राजा भी अपने भाइयों तथा सेवकों के साथ दक्षिण दिशा में भाग गये हैं। जो लोग दक्षिण पांचाल एवं पूर्वी कुन्ति प्रदेश में रहते थे, वे सभी क्षत्रिय तथा कोशल, मत्स्य, संन्यस्त पाद आदि राजपूत भी जरासंध भय से पीड़ित हो उत्तर दिशा को छोड़कर दक्षिण दिशा का ही आश्रय ले चुके हैं। उसी प्रकार समस्त पांचाल देशीय क्षत्रिय जरासंध के भय से दुखी हो अपना राज्य छोड़कर चारों दिशाओं में भाग गये हैं। कुछ समय पहले की बात है, व्यर्थ बुद्धि वाले कंस ने समस्त यादवों को कुचलकर जरासंध की दो पुत्रियों के साथ विवाह किया। उनके नाम थे अस्ति और प्राप्ति। वे दोनों अबलाएँ सहदेव की छोटी बहिनें थीं। निःसार बुद्धि वाला कंस जरासंध के ही बल से अपने जाति-भाइयों को अपमानित करके सब का प्रधान बन बैठा था। यह उसका बहुत बड़ा अत्याचार था। उस दुरात्मा से पीड़ित हो भोजराज वंश के बड़े-बूढ़े लोगों ने जाति-भाईयों की रक्षा के लिये हम से प्रार्थना की। तब मैंने आहुक की पुत्री सुतनु का विवाह अक्रुर से करा दिया और बलराम जी को साथी बनाकर जाति-भाइयों का कार्य सिद्ध किया। मैंने और बलराम जी ने कंस और सुनामा को मार डाला। इससे कंस का भय तो जाता रहा; परंतु जरासंध कुपित हो हम से बदला लेने को उद्यत हो गया। राजन्! उस समय भोजवंश के अठारह कुलों (मन्त्री-पुरोहित आदि) ने मिलकर इस प्रकार विचार-विमर्श किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 36-52 का हिन्दी अनुवाद)
‘यदि हम लोग शत्रुओं का अन्त करने वाले बड़े-बड़े अस्त्रों द्वारा निरन्तर आघात करते रहें, तो भी तीन सौ वर्षों में भी उस की सेना का नाश नहीं कर सकते। क्योंकि बलवानों में श्रेष्ठ हंस और डिम्भक उसके सहायक हैं, जो बल में देवताओं के समान हैं। उन दोनों को यह वरदान प्राप्त है कि वे किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारे जा सकते’। भैया युधिष्ठिर! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि एक साथ रहने वाले वे दोनों वीर हंस और डिम्भक तथा पराक्रमी जरासंध- ये तीनों मिलकर तीनों लोकों का सामना करने के लिये पर्याप्त थे। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ नरेश! यह केवल मेरा मत नहीं है, दूसरे भी जितने भूमिपाल हैं, उन सबका यही विचार रहा है। जरासंध के साथ जब सत्रहवीं बार युद्ध हो रहा था, उसमें हंस नाम से प्रसिद्ध कोई दूसरा राजा भी लड़ने आया था, वह उस युद्ध में बलराम जी के हाथ से मारा गया। भारत! यह देख किसी सैनिक ने चिल्लाकर कहा- ‘हंस मारा गया।’ राजन्! उसकी वह बात कान में पड़ते ही डिम्भक अपने भाई को मरा हुआ जान यमुना जी में कूद पड़ा। मैं हंस के बिना इस संसार में जीवित नहीं रह सकता।’ ऐसा निश्चय करके डिम्भक ने अपनी जान दे दी।
डिम्भक की इस प्रकार मृत्यु हुई सुनकर शत्रु नगरी को जीतने वाला हंस भी भाई के शोक से यमुना में ही कूद पड़ा और उसी में डूबकर मर गया। भरतश्रेष्ठ! उन दोनों की मृत्यु हुई सुनकर राजा जरासंध हताश हो गया और उत्साह शून्य हृदय से अपनी राजधानी को लौट गया। शत्रुसूदन! उस के इस प्रकार लौट जाने पर हम सब लोग पुनः मथुरा में आनन्दपूर्वक रहने लगे। शत्रुदमन राजेन्द्र! फिर जब पति के शोक से पीड़ित हुई कंस की कमललोचना भार्या अपने पिता मगध नरेश जरासंध के पास जाकर उसे बार-बार उकसाने लगी कि मेरे पति के घातक को मार डालो। तब हम लोग भी पहले की की हुई गुप्त मन्त्रणा को स्मरण करके उदास हो गये। महाराज! फिर तो हम मथुरा भाग खड़े हुए। राजन्! उस समय हम ने यही निश्चय किया कि ‘यहाँ की विशाल सम्पत्ति को पृथक-पृथक बाँटकर थोड़ी-थोड़ी करके पुत्र एवं भाई-बन्धुओं के साथ शत्रु के भय से भाग चलें।’ ऐसा विचार करके हम सब ने पश्चिम दिशा की शरण ली और राजन्! रैवतक पर्वत से सुशोभित रमणीय कुशस्थली पुरी में जाकर हम लोग निवास करने लगे। हमने कुशस्थली दुर्ग की ऐसी मरस्मत करायी कि देवताओं के लिये भी उस में प्रवेश करना कठिन हो गया। अब तो उस दुर्ग में रहकर स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकती हैं, फिर वृष्णिकुल के महारथियों की तो बात ही क्या है? शत्रुसूदन! हम लोग द्वारकापुरी में सब ओर से निर्भय होकर रहते हैं। कुरुश्रेष्ठ! गिरिराज रैवतक की दुर्गमता का विचार करके अपने को जरासंध के संकट से पार हुआ मानकर हम सभी मधुवंशियों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई है।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 53-70 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! हम जरासंध के अपराधी हैं, अतः शक्तिशाली होते हुए भी जिस स्थान से हमारा सम्बन्ध था, उसे छोड़कर गोमान् (रैवतक) पर्वत के आश्रम में आ गये हैं। रैवतक दुर्ग की लम्बाई तीन योजन की है। एक-एक योजन पर सेनाओं के तीन-तीन दलों की छावनी है। प्रत्येक योजन के अन्त में सौ-सौ द्वार हैं, जो सेनाओं से सुरक्षित हैं। वीरों का पराक्रम ही उस गढ़ का प्रधान फाटक है। युद्ध में उन्मत्त होकर पराक्रम दिखाने वाले अठारह यादववंशी क्षत्रियों से वह दुर्ग सुरक्षित है। हमारे कुल में अठाहर हजार भाई हैं। आहुक के सौ पुत्र हैं, जिन में से एक-एक देवताओं के समान पराक्रमी हैं। अपने भाई के साथ चारूदेष्ण, चक्रदेव, सात्यकि, मैं, बलराम जी, साम्ब और प्रद्युम्न- ये सात अतिरथी वीर हैं।
राजन्! अब मुझ से दूसरों का परिचय सुनिये। कृतवर्मा, अनाधृष्टि, समीक, समितिंजय, कंक, शंकु और कुन्ति ये सात महारथी हैं। अन्धक भोज के दो पुत्र और बूढ़े राजा उग्रसेन को भी गिन लेने पर उन महारथियों की संख्या दस हो जाती है। ये सभी वीर वज्र के समान सुदृढ़ शरीर वाले, पराक्रमी और महारथी हैं, जो मध्यदेश का स्मरण करते हुए वृष्णिकुल में निवास करते हैं। वितदु, झल्लि, बभ्रु, उद्धव, विदूरथ, वसुदेव तथा उग्रसेन- ये सात मुख्यमन्त्री हैं। प्रसेनजित् और सत्राजित् -ये दोनों जुड़वे बन्धु कुबेरेपम सद्गुणों से सुशोभित हैं। उन के पास जो ‘स्यमन्तक’ नामक मणि है, उस से प्रचुर मात्रा में सुवर्ण झरता रहता है। भरतवंशशिरोमणे! आप सदा ही सम्राट के गुणों से युक्त हैं। अतः भारत! आप को क्षत्रिय समाज में अपने को सम्राट बना लेना चाहिये। दुर्योधन, भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शिशुपाल, रुक्मी, धनुर्धर एकलव्य, द्रुम, श्वेत, शैब्य तथा शकुनि- इन सब वीरों को संग्राम में जीते बिना आप कैसे वह यज्ञ कर सकते हैं? परंतु ये नरश्रेष्ठ आप का गौरव मानकर युद्ध नहीं करेंगे। किंतु राजन्! मेरी सम्मति यह है कि जब तक महाबली जरासंध जीवित है, तब तक आप राजसूय यज्ञ पूर्ण नहीं कर सकते। उसने सब राजाओं को जीतकर गिरिव्रज में इस प्रकार कैद कर रखा है, मानो सिंह ने किसी महान् पर्वत की गुफा में बड़े-बड़े गजराजाओं को रोक रखा हो।
शत्रुदमन! राजा जरासंध ने उमावल्लभ महात्मा महादेव जी की उग्र तपस्या के द्वारा आराधना करके एक विशेष प्रकार की शक्ति प्राप्त कर ली है; इसीलिये वे सभी राजा उससे परास्त हो गये हैं। वह राजाओं की बलि देकर एक यज्ञ करना चाहता है। नृपश्रेष्ठ! वह अपनी प्रतिज्ञा प्रायः पूरी कर चुका है। क्योंकि उसने सेना के साथ आये हुए राजाओं को एक-एक करके जीता है और अपनी राजधानी में लाकर उन्हें कैद करके राजाओं का बहुत बड़ा समुदाय एकत्र कर लिया है। महाराज! उस समय हम भी जरासंध के भय से पीड़ित हो मथुरा को छोड़कर द्वारका पुरी में चले गये (और अब तक वहीं निवास करते हैं)। राजन्! यदि आप इस यज्ञ को पूर्ण रूप से सम्पन्न करना चाहतें हैं तो उन कैदी राजाओं को छुड़ाने और जरासंध को मारने का प्रयत्न कीजिये। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कुरुनन्दन! ऐसा किये बिना राजसूय यज्ञ का आयोजन पूर्णरूप से सफल न हो सकेगा। भरतश्रेष्ठ! आप जरासंध के वध का उपाय सोचिये। उसके जीत लिये जाने पर समस्त भूपालों की सेनाओं पर विजय प्राप्त हो जायगी। निष्पाप नरेश! मेरा मत तो यही है, फिर आप जैसा उचित समझें, करें। ऐसी दशा में स्वयं हेतु और युक्तियों द्वारा कुछ निश्चय करके मुझे बताइये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत राजसूयारम्भ पर्व में श्रीकृष्णवाक्य-विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (राजसुयारम्भ पर्व)
पन्द्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)
इसी प्रकार राजा मरूत्त अपनी समृद्धि के प्रभाव से सम्राट बने थे। अब तक उन पाँच सम्राटों का ही नाम हम सुनते आ रहे हैं। युधिष्ठिर! वे मान्धाता आदि एक-एक गुणों से ही सम्राट हो सके थे; परंतु आप तो सम्पूर्ण रूप से सम्राट पद प्राप्त करना चाहते हैं। साम्राज्य-प्राप्ति के जो पाँच गुण शत्रुविजय, प्रजापालन, तपः शक्ति, धन-समृद्धि और उत्तम नीति हैं, उन सबसे आप सम्पन्न हैं। परंतु भरतश्रेष्ठ! आपके मार्ग में बृहद्रथ का पुत्र जरासंध बाधक है, यह आपको जान लेना चाहिये। क्षत्रियों के जो एक सौ कुल हैं, वे कभी उसका अनुसरण नहीं करते, अतः वह बल से ही अपना साम्राज्य स्थापित कर रहा है। जो रत्नों के अधिपति हैं, ऐसे राजा लोग (धन देकर) जरासंध की उपासना करते हैं, परंतु वह उससे भी संतुष्ट नहीं होता। अपनी विवेकशून्यता के कारण अन्याय का आश्रय ले उन पर अत्याचार ही करता है। आजकल वह प्रधान पुरुष बनकर मूर्धाभिषिक्त राजा को बलपूर्वक बंदी बना लेता है। जिनका विधिपूर्वक राज्य पर अभिषेक हुआ है, ऐसे पुरुषों में से कहीं किसी एक को भी हम ने ऐसा नहीं देखा, जिसे उसने बलि का भाग न बना लिया हो- कैद में न डाल रखा हो।
इस प्रकार जरासंध ने लगभग सौ राजकुलों के राजाओं में से कुछ को छोड़कर सब को वश में कर लिया है। कुन्तीनन्दन! कोई अत्यन्त दुर्बल राजा उस से भिड़ने का साहस कैसे करेगा। भरतश्रेष्ठ! रुद्र देवता को बलि देने के लिये जल छिड़ककर एवं मार्जन करके शुद्ध किये हुए पशुओं की भाँति जो पशुपति के मन्दिर में कैद हैं, उन राजाओं को अब अपने जीवन में क्या प्रीति रह गयी है? क्षत्रिय जब युद्ध में अस्त्र-शस्त्रों द्वारा मारा जाता है, तब यह उसका सत्कार है; अतः हम लोग जरासंध को द्वन्द्व-युद्ध में मार डालें। राजन्! जरासंध ने सौ में से छियासी (प्रतिशत) राजाओं को तो कैद कर लिया है, केवल चौदह (प्रतिशत) बाकी हैं। उनको भी बंदी बनाने के पश्चात् वह क्रूर कर्म में प्रवृत्त होगा। जो उसके इस कर्म में विघ्न डालेगा, वह उज्ज्वल यश का भागी होगा तथा जो जरासंध को जीत लेगा, वह निश्चय ही सम्राट होगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयारम्भ पर्व में श्रीकृष्णवाक्य-विषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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