सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) के इकत्तीसवें अध्याय से पैतीसवें अध्याय तक (From the 31 chapter to the 35 chapter of the entire Mahabharata (Sabha Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

इकत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय"

 वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! सहदेव भी धर्मराज युधिष्ठिर से सम्मानित हो दक्षिण दिशा पर विजय पाने के लिये विशाल सेना के साथ प्रस्थित हुए। शक्तिशाली सहदेव ने सबसे पहले समस्त शूरसेन निवासियों को पूर्णरूप से जी लिया, फिर मत्स्यराज विराट को अपने अधीन बनाया। राजाओं के अधिपति महाबली दन्तवक्र को भी परास्त किया और उसे कर देने वाला बनाकर फिर उसी राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया। इसके बाद राजा सुकुमार तथा सुमित्र को वश में किया। इसी प्रकार अपर मत्स्यों और लुटेरों पर भी विजय प्राप्त की। तदनन्तर निषाद देश तथा पर्वत प्रवर गोश्रृंग को जीतकर बुद्धिमान सहदेव ने राजा श्रेणिमान् को वेगपूर्वक परास्त किया। फिर नरराष्ट्र को जीतकर राजा कुन्तिभोज पर धावा किया। परंतु कुन्तिभोज ने प्रसन्नता के साथ ही उसका शासन स्वीकार कर लिया। इसके बाद चर्मण्वती के तट पर सहदेव ने जम्भक के पुत्र को देखा, जिसे पूर्ववैरी वासुदेव ने जीवित छोड़ दिया था। भारत! उस जम्भपुत्र ने सहदेव के साथ घोर संग्राम किया, पंरतु सहदेव उसे युद्ध में जीतकर दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गये। वहाँ महाबली माद्रीकुमार ने सेक और अपरसेक देशों पर विजय पायी और उन सबसे नाना प्रकार के रत्न भेंट में लिये।

  तत्पश्चात सेकाधिपति को साथ ले उन्होंने नर्मदा की और प्रस्थान किया। अश्विनीकुमार के पुत्र प्रतापी सहदेव ने वहाँ युद्ध में विशाल सेना से घिरे हुए अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द को परास्त किया। वहाँ से रत्नों की भेंट लेकर वे भोजकट नगर में गये। अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले राजन! वहाँ दो दिनों तक युद्ध होता रहा। माद्रीनन्दन ने उस संग्राम में दुर्धर्ष वीर भीष्म को परास्त करके कोसलाधिपति, वेधानदी के राजाओं को भी समर में पराजित किया। तत्पश्चात नाटकेयों और हेरम्बकों को भी युद्ध में हाराया। महाबली पाण्डुनन्दन सहदेव ने मारुध तथा रम्याग्राम को बलपूर्वक परास्त करके नाचीन, अर्बुक तथा समस्त वनेचर राजाओं को जीत लिया। तदनन्तर महाबली माद्रीकुमार ने राजा वाताधिप को वश में किया। फिर पुलिन्दों को संग्राम में हराकर नकुल के छोटे भाई सहदेव दक्षिण दिशा में और आगे बढ़ गये।

   तत्पश्चात उन्होंने पाण्ड्य नरेश के साथ एक दिन युद्ध किया। उन्हें जीतकर महाबाहु सहदेव दक्षिणापथ की ओर गये और लोक विख्यात किष्किन्धा नामक गुफा में जा पहुँचे। वहाँ वानरराज मैन्द और द्विविद के साथ उन्होंने सात दिनों तक युद्ध किया, किंतु उन दोनों का कुछ बिगाड़ न हो सका। तब वे दोनों महात्मा वानर अत्यन्त प्रसन्न हो सहदेव से प्रेमपर्वूक बोले,,

मैन्द और द्विविद बोले ;- ‘पाण्डवप्रवर! तुम सब प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर जाओ। परम बुद्धिमान धर्मराज के कार्य में कोई विघ्न नहीं पड़ना चाहिये’। तदनन्तर वे नरश्रेष्ठ वहाँ से रत्नों की भेंंट लेकर माहिष्मती पुरी को गये और वहाँ राजा नील के साथ घोर युद्ध किया। शत्रुवीरों का नाश करने वाले पाण्डुपुत्र सहदेव बड़ेे प्रतापी थे। उनसे राजा नील का जो महान युद्ध हुआ, वह कायरों को भयभीत करने वाला, सेनाओं का विनाशक और प्राणों को संशय में डालने वाला था। भगवान अग्निदेव राजा नील की सहायता कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 24-42 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय सहदेव की सेना में रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य औ कवच सभी आग से जलते दिखायी देने लगे। जनमेजय! इससे कुरुनन्दन सहदेव के मन में बड़ी घबराहट हुई। वे इसका प्रतीकार करने में असमर्थ हो गये।

  जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! सहदेव तो यज्ञ के लिये ही चेष्टा कर रहे थे, फिर भगवान अग्नि देव उस युद्ध में उनके विरोधी कैसे हो गये?

  वैशम्पायन जी ने कहा ;- जनमेजय! सुनने में आया है कि महिष्मती नगरी में निवास करने वाले भगवान अग्निदेव किसी समय उस नील राजा की कन्या सुदर्शना के प्रति आसक्त हो गये। राजा नील के एक कन्या थी, जो अनुपम सुन्दरी थी। वह सदा अपने पिता के अग्निहोत्रगृह में अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये उपस्थित हुआ करती थी। पंखे से हवा करने पर भी अग्निदेव तब तक प्रज्वलित नहीं होते थे, जब तक कि वह सुन्दरी अपने मनोहर ओष्ठसम्पुट से फूँक मारकर हवा न देती थी। तत्पश्चात भगवान अग्नि उस सुदर्शना नाम की राजकन्या को चाहने लगे। इस बात को राजा नील और सभी नागरिक जान गये। तदनन्तर एक दिन ब्राह्मण का रूप धारण करके इच्छानुसार घूमते हुए अग्निदेव उस सर्वांगसुन्दरी कमलनयनी कन्या के पास आये और उसके प्रति कामभाव प्रकट करने लगे। धर्मात्मा राजा नील ने शास्त्र के अनुसार उस ब्राह्मण पर शासन किया। तब क्रोध से भगवान अग्निदेव अपने रूप में प्रज्वलित हो उठे। उन्हें इस रूप में देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पृथ्वी पर मस्तक रखकर अग्निदेव को प्रणाम किया।

  तत्पश्चात विवाह के योग्य समय आने पर राजा ने उस कन्या को ब्राह्मणरूपधारी अग्निदेव की सेवा में अर्पित कर दिया और उनके चरणों में सिर रखकर नमस्कार किया। राजा नील की सुन्दरी कन्या को पत्नी रूप में ग्रहण करके भगवान अग्नि ने राजा पर अपना कृपाप्रसाद प्रकट किया। वे उनकी अभीष्ट सिद्धि में सर्वोत्तम सहायक हो राजा से वर माँगने का अनुरोध करने लगे। राजा ने अपनी सेना के प्रति अभयदान माँगा। राजन्! तभी से जो कोई नरेश अज्ञानवश उस पुरी को बलपूर्वक जीतना चाहते, उन्हें अग्निदेव जला देते थे। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! उस समय माहिष्मतीपुरी में युवती स्त्रियाँ इच्छानुसार ग्रहण करने के योग्य नहीं रह गयी थीं (क्योंकि वे स्वतन्त्रता से ही वर का वरण किया करती थीं)। अग्निदेव ने स्त्रियों के लिये यह वर दे दिया था कि अपने प्रतिकूल होने के कारण ही कोई स्त्रियों को वर का स्वयं ही वरण करने से रोक नहीं सकता। इससे वहाँ की स्त्रियाँ स्वेच्छापूर्वक वर का वरण करने के लिये विचरण किया करती थीं। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! तभी से सब राजा (जो इस रहस्य से परिचित थे) अग्नि के भय के कारण माहिष्मतीपुरी पर चढ़ाई नहीं करते थे।

  राजन्! धर्मात्मा सहदेव अग्नि से व्याप्त हुई अपनी सेना को भय से पीड़ित देख पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़े रहे, भय से कम्पित नहीं हुए। उन्होंने आचमन करके पवित्र हो अग्निदेव से इस प्रकार कहा। सहदेव बोले- कृष्णवर्त्मन! हमारा यह आयोजन तो आप ही के लिये है, आपको नमस्कार है। पावक! आप देवताओं के मुख हैं, यज्ञस्वरूप हैं। आप सबको पवित्र करने के कारण पावक हैं और हव्य (हवनीय पदार्थ) को वहन करने के कारण हव्यवाहन कहलाते हैं। वेद आपके लिये ही जात अर्थात प्रकट हुए हैं, इसीलिये आप जातवेदा हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 43-70 का हिन्दी अनुवाद)

  विभावसो! आप ही चित्रभानु, सुरेश और अनल कहलाते हैं। आप सदा स्वर्गद्वार का स्पर्श करते हैं। आप आहुति दिये हुए पदार्थों को खाते हैं, इसलिये हुताशन हैं। प्रज्वलित होने से ज्वलन और शिखा (लपट) धारण करने से शिखी हैं। आप ही वैश्वानर, पिंगेश, प्लवंग और भूरितेजस नाम धारण करते हैं। आपने ही कुमार कार्तिकेय को जन्म दिया है, आप ही ऐश्वर्यसम्पन्न होने के कारण भगवान हैं। श्रीरुद्र वीर्य धारण करने से आप रुद्रर्गी कहलाते हैं। सुवर्ण के उत्पादक होने से आपका नाम हिरण्यकृत है। आप अग्नि मुझे तेज दें, वायुदेव प्राणशक्ति प्रदान करें, पृथ्वी मुझमें बल का आधान करें और जल मुझे कल्याण प्रदान करें। जल को प्रकट करने वाले महान् शक्ति सम्पन्न जातवेदा सुरेश्वर अग्निदेव! आप देवताओं के मुख है, अपने सत्य के प्रभाव से आप मुझे पवित्र कीजिये। ऋषि, ब्राह्मण, देवता तथा असुर भी सदा यज्ञ करते समय आप में आहुति डालते हैं, अपने सत्य के प्रभाव से आप मुझे पवित्र करें। देव! धूम आपका ध्वज है, आप शिखा धारण करने वाले हैं, वायु से आपका प्राकट्य हुआ है। आप समस्त पापों के नाशक हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर आप सदा विराजमान हैं। अपने सत्य के प्रभाव से आप मुझे पवित्र कीजिये। भगवन्! मैंने पवित्र होकर प्रेमभाव से आपका इस प्रकार स्तवन किया है। अग्निदेव! आप मुरपा तुष्टि, पुष्टि, श्रवण-शक्ति एवं शास्त्रज्ञान और प्रीति प्रदान करें।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जो द्विज इस प्रकार इन श्लोक रूप आग्नेय मंत्रों का पाठ करते हुए (अन्त में स्वाहा बोलकर) भगवान अग्निदेव को आहुति समर्पित करता है, वह सदा समृद्धिशाली और जितेन्द्रिय होकर सब पापों से मुक्त हो जाता है।

 सहदेव बोले ;- हव्यवाहन! आपको यज्ञ में यह विघ्न नहीं डालना चाहिये। भारत! ऐसा कहकर नरश्रेष्ठ माद्रीकुमार सहदेव धरती पर कुश बिछाकर अपनी भयभीत और उद्विग्न सेना के अग्रभाग में विधिपूर्वक अग्नि के सम्मुख धरना देकर बैठ गये। जैसे महासागर अपनी तटभूमि का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार अग्निदेेव सहदेव को लाँघकर उनकी सेना में नहीं गये। वे कुरुकुल को आनन्दित करने वाले नरदेव सहदेव के पास धीरे-धीरे आकर उन्हें सान्त्वना देते हुए यह वचन बोले,,

अग्निदेव बोले ;- ‘कौरव्य! उठो, उठो, मैंने यह तुम्हारी परीक्षा की है। तुम्हारे और धर्मपुत्र युधिष्ठिर के सम्पूर्ण अभिप्राय को मैं जानता हूँ।

   परंतु भरतसत्तम! राजा नील के कुल में जब तक उनकी वंशपरम्परा चलती रहेगी, तब तक मुझे इस माहिष्मतीपुरी की रक्षा करनी होगी। पाण्डुकुमार! साथ ही मैं तुम्हारा मनोरथ भी पूर्ण करूँगा’। भरतश्रेष्ठ! जनमेजय! यह सुनकर माद्रीकुमार सहदेव प्रसन्नचित हो वहाँ से उठे और हाथ जोड़कर एवं सिर झुकाकर उन्होंने अग्निदेव का पूजन किया। अग्नि के लौट जाने पर उन्हीं की आज्ञा से राजा नील उस समय वहाँ आये और उन्होंने योद्धाओं के अधिपति पुरुसिंह सहदेव का सत्कारपूर्वक पूजन किया। राजा नील की वह पूजा ग्रहण कर और उन पर कर लगाकर विजयी माद्रीकुमार सहदेव दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गये। फिर त्रिपुरी के राजा अमितौजा को वश में करके महाबाहु सहदेव ने पौरवेश्वर को वेगपूर्वक बंदी बना लिया। तदनन्तर बड़े भारी प्रयत्न के द्वारा विशाल भुजाओं वाले माद्रीकुमार ने सुराष्ट्रदेश के अधिपति कौशिकाचार्य आकृति को वश में किया।

   महाराज! सुराष्ट्र में ही ठहरकर धर्मात्मा सहदेव ने भोजकट निवासी रुक्मी तथा विशाल राज्य के अधिपति परम बुद्धिमान साक्षात इन्द्रसखा भीष्मक के पास दूत भेजा। पुत्र सहित भीष्मक ने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की ओर दृष्टि रखकर प्रेमपूर्वक ही सहदेव का शासन स्वीकार कर लिया। तदनन्तर योद्धाओं के अधिपति सहदेव वहाँ से रत्नों की भेंट लेकर पुन: आगे बढ़ गये। महाबलशाली महातेजस्वी माद्रीकुमार ने शूर्पारक और तालाकट नामक देशों को जीतते हुए दण्डकारण्य को अपने अधीन कर लिया। तत्पश्चात समुद्र के द्वीपों में निवास करने वाले म्लेच्छजातीय राजाओं, निषादों तथा राक्षसों, कर्णप्रावरणों को भी परास्त किया। कालमुख नाम से प्रसिद्ध जो मनुष्य और राक्षस दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए योद्धा थे, उन पर भी विजय प्राप्त की। समूचे कोलगिरि, सुरभीपत्तन, ताम्रद्वीप, रामकपर्वत तथा तिमिंगिल नरेश को भी अपने वश में करके परम बुद्धिमान सहदेव ने एक पैर के पुरुषों, केरलों, वनवासियों, संजयन्ती नगरी तथा पाखण्ड और करहाटक देशों का दूतों द्वारा संदेश देकर ही अपने अधीन कर लिया और उन सबसे कर वूसल किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 71-73 का हिन्दी अनुवाद)

  पाण्ड्य, द्रविड, उण्ड्र, केरल, आन्ध्र, तालवन, कलिंग, उष्ट्रकर्णिक, रमणीय आटवीपुरी तथा यवनों के नगर- इन सबको उन्होंने दूतों द्वारा ही वश में कर लिया और सबको कर देने के लिये विवश किया। वहाँ से समुद्र तट पर पहुँचकर पाण्डुनन्दन सहदेव ने सेना का पड़ाव डाला। भारत! तदनन्तर महाबाहु सहदेव ने अत्यन्त बुद्धिमान मन्त्रणा देने में कुशल सचिवों के साथ बैठकर बहुत देर तक विचारविमार्श किया। राजेन्द्र जनमेजय! उन सबकी सम्मति को आदर देते हुए माद्रीकुमार ने अपने भतीजे राक्षसराज घटोत्कच का तुरंत चिन्तन किया। उनके चिन्तर करते ही वह बड़े डील-डौल वाला विशाल काय राक्षस दिखायी दिया। उसने सब प्रकार के आभूषण धारण कर रखे थे। उसके शरीर का रंग मेघों की काली घटा के समान था। उसके कानों में तपाये हुए सुवर्ण के कुण्डल झिलमिला रहे थे। उसके गले मेें हार और भुजाओं मे केयूर की विचित्र शोभा हो रही थी। कटिभाग में वह किंकिणी की मणियों से विभूषित था। उसके कण्ठ में सुवर्ण की माला, मस्तक पर किरीट और कमर में करधनी की शोभा हो रही थी। उसके दाढ़े बहुत बड़ी थीं, सिर के बाल ताँबे के समान लाल थे, मूँछ दाढ़ी- जो अपने कानों से ही शरीर को ढक लें उनहें ‘कर्णप्रावरण’ कहते हैं।

  प्राचीन काल में ऐसी जाति के लोग थे, जिनके कान पैरों तक लटकते थे। के बाल हरे दिखायी देते थे एवं आँखें बड़ी भयंकर थीं। उसकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद चमक रहे थे। उसने अपने सब अंगों में लाल चन्दन लगा रखा था। उसके पकड़े बहुत महीन थे। वह बलावान् राक्षस अपने वेग से समूची पृथ्वी को हिलाता हुआ सा वहाँ पहुँचा। राजन्! उस पर्वताकार घटोत्कच को आता देख वहाँ के सब लोग भय के मारे भाग खड़े हुए, मानो किसी सिंह के भय से जंगल के मृग आदि क्षुद्र पशु भाग रहे हों। घटोत्कच माद्रीनन्दन सहदेव के पास आया, मानो रावण ने महर्षि पुलस्त्य के पास पदार्पण किया हो। महाराज! तदनन्तर घटोत्कच सहदेव को प्रणाम करके उनके सामने विनीतभाव से हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है?’ घटोत्कच मेरुपर्वत के शिखर जैसा जान पड़ता था। उसको आया देख पाण्डुनन्दन सहदेव ने दोनों भुजाओं में भरकर उसे हृदय से लगा लिया और बार-बार उसका मस्तक सूँघा। तत्पश्चात उसका स्वागत सत्कार करके मन्त्रियों सहित सहदेव बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले।

   सहदेव ने कहा ;- वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिये लंकापुरी में जाओ और वहाँ राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिलकर राजसूय यज्ञ के लिए भाँति-भाँति के बहुत से रत्न प्राप्त करो। महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट से मिली हुई सब वस्तुएँ लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ। बेटा यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय देते हुए इस प्रकार कहना,,- ‘कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूय यज्ञ आरम्भ किया है। आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें। आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊँगा।’ इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना। 

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज जनमेजय! पाण्डुकुमार सहदेव के ऐसा कहने पर घटोत्कच बहुत प्रसन्न हुआ और ‘तथास्तु’ कहकर सहदेव की परिक्रमा करके दक्षिण दिशा की ओर चल दिया। इस प्रकार समुद्र के तट पर पहुँचकर बुद्धिमान शत्रुदमन धर्मात्मा माद्रवतीकुमार ने महात्मा पुलस्त्यनन्दन विभीषण के पास प्रेमपूर्वक घटोत्कच को अपना दूत बनाकर भेजा।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 74/1 का हिन्दी अनुवाद)

   राजन! लंका की ओर जाते हुए घटोत्कच ने समुद्र को देखा। वह कछुओं, मगरों, नाकों तथा मत्स्य आदि जल जन्तुओं से भरा हुआ था। उसमें ढेर के ढेर शंख सीपियाँ छा रही थीं। भगवान श्रीराम के द्वारा बनवाये हुए पुल को देखकर घटोत्कच को भगवान के पराक्रम का चिन्तन हो आया और उस सेतुतीर्थ को प्रणाम करके उसने समुद्र के दक्षिणतट की ओर दृष्टिपात किया। राजेन्द्र! तत्पश्चात दक्षिणतट पर पहुँचकर घटोत्कच ने लंकापुरी देखी, जो स्वर्ग के समान सुन्दर थी। उसके चारों ओर चहारदीवारी बनी थी। सुन्दर फाटक उस रमणीय पुरी की शोभा बढ़ाते थे। सफेद और लाल रंग के हजारों महलों से वह लंकापुरी भरी हुई थी। वहाँ के गवाक्ष (जंगले) सोने के बने हुए थे और उनके भीतर मोतियों की जाली लगी हुई थी। कितने ही गवाक्ष सोने, चाँदी तथा हाथी दाँत की जालियों से सुशोभित थे। कितनी ही अठ्ठालिकाएँ तथा गोपुर उस नगरी की शोभा बढ़ाते थे। स्थान-स्थान पर सोने के फाटक लगे हुए थे। वहाँ दिव्य दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि गूँजती रहती थी। बहुत से उद्यान और वन उस नगरी की श्रीवृद्धि कर रहे थे। उसमें चारों ओर फूलों की सुगन्ध छा रही थी। वहाँ की लंबी-चौड़ी सड़कें बहुत सन्दर थीं। भाँति-भाँति के रत्नों से भरी पुरी लंका इन्द्र की अमरावतीपुरी को भी लज्जित कर रही थी। घटोत्कच ने राक्षसों से सेवित उस लंकापुरी में प्रवेश किया और देखा, झुंड के झुंड राक्षस त्रिशूल और भाले लिये विचर रहे हैं। वे सभी युद्ध में कुशल है और नाना प्रकार के वेष धारण करते हैं।

  घटोत्कच ने वहाँ की नारियों को भी देखा। वे सब की सब बड़ी सुन्दर थीं। उनके अंगों में दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा दिव्य हार शोभा दे रहे थे। उनके नेत्रों के किनारे मदिरा के नशे से कुछ लाल हो रहे थे। उनके नितम्ब और उरोज उभरे हुए तथा मांसल थे। भीमसेनपुत्र घटोत्कच को वहाँ आया देख लंकानिवासी राक्षसों को बड़ा हर्ष और विस्मय हुआ। इधर घटोत्कच इन्द्रभवन में समान मनोहर राजमहल के द्वार पर जा पहुँचा और द्वारपाल से इस प्रकार बोला।

  घटोत्कच ने कहा ;- कुरुकुल में एक श्रेष्ठ राजा हो गये हैं। वे महाबली नरेश ‘पाण्डु’ के नाम से विख्यात थे। उनके सबसे छोटे पुत्र का नाम ‘सहदेव’ है। वे अपने बड़े भाई युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये कटिबद्ध हैं। धर्मराज युधिष्ठिर के सहायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। सहदेव ने कुरुराज युधिष्ठिर के लिये कर लेने के निमित्त मुझे दूत बनाकर यहाँ भेजा है। मैं पुलस्त्यनन्दन महाराज विभीषण से मिलना चाहता हूँ। तुम शीघ्र जाकर उन्हें मेरे आगमन की सूचना दो।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! घटोत्कच का वह वचन सुनकर वह द्वारपाल ‘बहुत अच्छा’ कहकर सूचना देने के लिये राजभवन के भीतर गया। वहाँ उसने हाथ जोड़कर दूत की कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। द्वारपाल की बात सुनकर धर्मात्मा राक्षसराज विभीषण ने उससे कहा,,

विभीषण बोले ;- ‘दूत को मेरे समीप ले आओ’। राजेन्द्र! धर्मज्ञ महात्मा विभीषण की ऐसी आज्ञा होने पर द्वारपाल बड़ी उतावली के साथ बाहर निकला और घटोत्कच से बोला,,

द्वारपाल बोला ;- ‘दूत! आओ। महाराज से मिलने के लिये राजभवन में शीघ्र प्रवेश करो।’ द्वारपाल का कथन सुनकर घटोत्कच ने राजभवन में प्रवेश किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 74/2 का हिन्दी अनुवाद)

   तदनन्तर उसमें प्रवेश करके उसने राक्षसराज विभीषण का महल देखा, जो अपनी उज्ज्वल आभा से कैलाश के समान जान पड़ता था। उसका फाटक तपकर शुद्ध किये हुए सोने से तैयार किया गया था। चहारदीवारी से घिरा हुआ वह राजमन्दिर अने गोपुरों से सुशोभित हो रहा था। उसमें बहुत सी अठ्ठालिकाएँ तथा महल बने हुए थे। भाँति-भाँति के रत्न उस राजभवन की शोभा बढ़ाते थे।। तपाये हुए सुवण, रजत (चाँदी) तथा स्फटिकमणि के बने हुए खम्भे नेत्र और मन को बरबस अपनी ओर खींच लेते थे। उन खम्भों में हीरे और वैदूर्य जड़े हुए थे। सुनहरे रंग की विविध ध्वजा पताकाओं से उस भवय भवन की विचित्र शोभा हो रही थी। विचित्र मालाओं से अलंकृत तथा विशुद्ध स्वर्णमय वेदिकाओं से विभूषित वह राजभवन बड़ा रमणीय दिखायी दे रहा था। उस महल की इन सारी मनोरम विशेषताओं को देखकर घटोत्कच ने ज्यो ही भीतर प्रवेश किया, त्यों ही उसके कानों में मृदंग की मधुर ध्वनि सुनायी पड़ी। वहाँ वीणा के तार झंकृत हो रहे थे और उसके लय पर गीत गाया जा रहा था, जिसका एक-एक अक्षर समताल के अनुसार उच्चारित हो रहा था। सैकड़ों वाद्यों के साथ दिव्य दुन्दुभियों का मधुर घोष गूँज रहा था।

  भरतश्रेष्ठ! वह मधुर शब्द सुनकर घटोत्कच के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अनेक मनोरम कक्षाओं को पार करके द्वारपाल के साथ जा सुन्दर स्वर्णसिंहासन पर बैठे हुए महात्मा विभीषण का दर्शन किया। उनका सिंहासन सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था और उसमें मोती तथा मणि आदि रतन जड़े हुए थे। दिव्य आभूषणों से राक्षसराज विभीषण अंगों की विचित्र शोभा हो रही थी। उनका रूप दिव्य था। वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके दिव्य गन्ध से अभिषिक्त हो बड़े सुन्दर दिखायी दे रहे थे। उनकी अंगकान्ति सूर्य तथा अग्नि के समान उद्भासित हो रही थी। जैसे इन्द्र के पास बहुत से देवता बैठते हैं, उसी प्रकार विभीषण के समीप उनके सचिव बैठे थे। बहुत से दिव्य सुन्दर महारथी यक्ष अपनी स्त्रियों के साथ मंगलयुक्त वाणी द्वारा विभीषण का विधिपूर्वक पूजन कर रहे थे। दो सुन्दरी नारियाँ सुवणर्मय दण्ड से विभूषित बहुमूल्य चँवर तथा व्यजन लेकर उनके मस्मक पर डुला रही थीं। राक्षसराज विभीषण कुबेर और वरुण के समान राज लक्ष्मी से सम्पन्न एवं अद्भुत दिखायी देते थे। उनके अंगों से दिव्य प्रभा छिटक रही थी। वे सदा धर्म में स्थित रहते थे। वे मन ही मन इक्ष्वाकुवंशशिरोमणी श्रीरामचन्द्र जी का स्मरण करते थे।

  राजन! उन राक्षसराज विभीषण को देख घटोत्कच ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। और जैसे महापराक्रमी चित्ररथ इन्द्र के सामने नम्र रहते हैं, उसी प्रकार महाबली घटोत्कच भी विनीत भाव से उनके सम्मुख खड़ा हो गया। राक्षसराज विभीषण ने उस दूत को आया हुआ देख उसका यथायोग्य सम्मान करके सान्त्वनापूर्ण वचनों में कहा।

विभीषण ने पूछा ;- दूत! जो महाराज मुझसे कर लेना चाहते हैं, वे किसके कुल में उत्पन्न हुए हैं। उनके समस्त भाइयों तथा ग्राम और देश का परिचय दो। मैं तुम्हारे विषय में भी जानना चाहता हूँ तथा तुम जिस कार्य के लिये कर लेने आये हो, उस समस्त कार्य के विषय में भी मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ। तुम मेरी पूछी हुई इन सब बातों को विस्तारपूर्वक पृथक-पृथक बताओ।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 74/3 का हिन्दी अनुवाद)

 घटोत्कच बोला ;- महाराज! चन्द्रवंश में पाण्डु नाम से प्रसिद्ध एक महाबली राजा हो गये हैं। उनके पांच पुत्र हैं, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हैं। उन पाँचों में जो बड़े हैं, वे धर्मपुत्र के नाम से विख्यात है। उनके मन में किसी के प्रति शत्रुता नहीं है, इसलिये लोग उन्हें अजातशत्रु कहते हैं। उनका मन सदा धर्म में ही लगा रहता है। वे धर्म के मूर्तिमान् स्वरूप जान पड़त हैं। गंगा के दक्षिणतट पर हस्तिनापुर नाम का एक नगर है। राजा युधिष्ठिर वहीं अपना पैतृक राज्य प्राप्त करके उसकी रक्षा करते थे। राक्षसराज! कुछ काल के पश्चात उन्होंने हस्तिनापुर का राज्य धृतराष्ट्र को सौंप दिया और स्वयं वे भाइयों सहित इन्द्रप्रस्थ चले गये। इन दिनों वे वहीं आनन्दपूर्वक रहते हैं। वे दोनों श्रेष्ठ नगर गंगा-यमुना के बीच में बसे हुए हैं। नित्य धर्मपरायण राजा युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ में ही रहकर शासन करते हैं।। उनके छोटे भाई पाण्डुकुमार महाबाहु भीमसेन भी बड़े बलवान् हैं। वे सिंह के समान महापराक्रमी और अत्यन्त तेजस्वी हैं। उनमें दस हजार हाथियों का बल है। उन से छोटे भाई का नाम अर्जुन हैं, जो महान बल पराक्रम से सम्पन्न, सुकुमार तथा अत्यन्त धैर्यवान् हैं। उनका पराक्रम विश्व में विख्यात हैं। वे कुन्तीनन्दन अर्जुन कार्तवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी, सगरपुत्रों के समान बलवान्, परशुराम जी के समान अस्त्रविद्या के ज्ञाता, श्रीरामचन्द्र जी के समान समरविजयी, इन्द्र के समान रूपवान् तथा भगवान सूर्य के समान तेजस्वी हैं।

  देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य ये सब मिलकर भी युद्ध में अर्जुन को परास्त नहीं कर सकते। उन्होंने खाण्डव वन को जलाकर अग्निदेव को तृप्त किया है। देवताओं सहित इन्द्र को वेगपूर्वक पराजित करके उन्होंने अग्निदेव को संतुष्ट किया और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त किय हैं। महाराज! उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा को पत्नीरूप में प्राप्त किया है, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ थी। राजन्! अर्जुन के छोटे भाई नकुल नाम से विख्यात हैं, जो इस जगत में मूर्तिमान कामदेव के समान दर्शनीय हैं। नकुल के छोटे भाई महातेजस्वी सहदेव के नाम से विख्यात हैं। माननीय महाराज! उन्हीं सहदेव ने मुझे यहाँ भेजा है। मेरा नाम घटोत्कच है। मैं भीमसेन का बलावान् पुत्र हूँ। मेरी सौभाग्यशालिनी माता का नाम हिडिम्बा है। वे राक्षस कुल की कन्या हैं। मैं कुन्तीपुत्रों का उपकार करने के लिये ही इस पृथ्वी पर विचरता हूँ। महाराज युधिष्ठिर सम्पूर्ण भूमण्डल के शासक हो गया हैं। उन्होंने क्रतुश्रेष्ठ राजसूय का अनुष्ठान करने की तैयारी की है। उन्हीं महाराज ने अपने सब भाईयों को कर वसूल करने के लिये सब दिशाओं में भेजा है। वृष्णिवीर भगवान श्रीकृष्ण के साथ धर्मराज ने जब अपने भाइयों को दिग्विजय के लिये आदेश दिया, तब महाबली अर्जुन कर वसूल करने के लिय तुरंत उत्तर दिशा की ओर चल दिये।

  उन्होंने लाख योजन की यात्रा करके सम्पूर्ण राजाओं को युद्ध में हराया है और सामना करने के लिये आये हुए विपक्षियों को वेगपूर्वक मारा है। जितेन्द्रिय अर्जुन ने स्वर्ग के द्वार तक जाकर प्रचुर रत्न राशि प्राप्त की है। नाना प्रकार के दिव्य अश्व उन्हें भेंट में मिले हैं। इस प्रकार भाँति-भाँति के धन लाकर उन्होंने धर्मपुत्र युधिष्ठिर की सेवा में समर्पित किये हैं। राजेन्द्र! युधिष्ठिर के दूसरे भाई भीमसेन ने पूर्व दिशा में जाकर उसे बलपूर्वक जीता है और वहाँ के राजाओं को अपने वश में करके पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को बहुत धन अर्पित किया है।। नकुल कर लेने के लिये पश्चिम दिशा की ओर गये हैं और सहदेव सम्पूर्ण राजाओं को जीतते हुए दक्षिण दिशा में बढ़ते चले आये हैं। राजेन्द्र! उन्होंने बड़े सत्कारपूर्वक मुझे आपके यहाँ राजकीय कर देने के लिये संदेश भेजा है। महाराज! पाण्डवों का यह चरित्र मैंने अत्यन्त संक्षेप में आपके समक्ष रखा है। आप धर्मराज युधिष्ठिर की ओर देखिए, पवित्र करने वाले राजसूय यज्ञ तथा जगदीश्वर भगवान श्रीहरि की ओर भी ध्यान दीजिये। धर्मज्ञ नरेश! इन सबकी ओर दृष्टि रखते हुए आपको मुझे कर देना चाहिये।

 वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! घटोत्कच की वह बात सुनकर धर्मात्मा राक्षसराज विभीषण अपने मन्त्रियों के साथ बड़े प्रसन्न हुए। विभीषण ने प्रेमपर्वूक ही उनका शासन स्वीकार कर लिया। शक्तिशाली एवं बुद्धिमान विभीषण ने उसे काल का ही विधान समझा।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 75-78 का हिन्दी अनुवाद)

उन्होंने सहदेव के लिये हाथी के पीठ पर बिछाने योग्य विचित्र कम्बल (कालीन) तथा हाथी दाँत और सुवर्ण के बने हुए पलंग दिये, जिनमें सोने तथा रत्न जड़े हुए थे। इसके सिवा बहुत से विचित्र और बहुमूल्य आभूषण भी भेंट किये। सुन्दर मूँगे, भाँति-भाँति के मणिरत्न, सोने के बर्तन, कलश, घड़े, विचित्र कड़ाहे और हजारों जलपात्र समर्पित किये। इनके सिवा चाँदी के भी बहुत से ऐसे बर्तन दिये, जिनमें चित्रकारी की गयी थीं। कुछ ऐसे शस्त्र भेंट किये, जिनमें सुवर्ण, मणि और मोती जड़े हुए थे। यज्ञ के फाटक पर लगाने योग्य चौदह ताड़ प्रदान किये। सुवर्णमय कमलपुष्प और मणिजटित शिविकाएँ भी दीं। बहुमूल्य मुकुट, सुनहले कुण्डल, सोने के बने हुए अनेकानेक पुष्प, सोने के ही हार तथा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल एवं विचित्र शतावर्त शंख भेंट किये। श्रेष्ठ चन्दन, अनेेक प्रकार के सुवर्ण तथा रत्न, महँगे वस्त्र, बहुत से कम्बल, अनेक जाति के रत्न तथा और भी भाँति-भाँति के बहुमूल्य पदार्थ राजा विभीषण ने सहदेव को भेंट किये। तथा उन्होंने नाना प्रकार के रत्न, चन्दन, अगुरु के काष्ठ, दिव्य आभूषण, बहुमूल्य वस्त्र और विशेष मूल्यवान मणिरत्न भी उसके साथ भिजवाये। तदनन्तर घटोत्कच ने हाथ जोड़कर राजा विभीषण को प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके वहाँ से प्रस्थान किया। राजन! घटोत्कच के साथ अट्ठासी निशाचर उन सब रत्नों को पहुँचाने के लिये प्रसन्नतापूर्वक आये।

  इस प्रकार उन सब रत्नों को साथ ले घटोत्कच ने राक्षसों के साथ लंका से सहदेव के पड़ाव की ओर प्रस्थान किया और समुद्र लाँघकर वे सब के सब पाण्डुनन्दन सहदेव के निकट आ पहुँचे। राजन्! सहदेव ने रत्न लेकर आये हुए भयंकर निशाचरों तथा घटोत्कच को भी देखा। उस समय उन राक्षसों को देखकर द्राविड़ सैनिक भयभीत हो सब और भागने लगे। इतने में ही भीमसेनकुमार घटोत्कच माद्रीनन्दन सहदेव के पास आ हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। पाण्डुकुमार सहदेव वह रत्न राशि देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने घटोत्कच को दोनों हाथों से पकड़कर गले लगाया और दूसरे राक्षसों की ओर देखकर भी बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। इसके बाद समस्त द्राविड़ सैनिकों को विदा करके सहदेव वहाँ से लौटने की तैयारी करने लगे। तैयारी पूरी हो जाने पर प्रतापी और बुद्धिमान सहदेव इन्द्रपस्थ की ओर चल दिये।

   इस प्रकार बलपूर्वक जीतकर तथा सामनीति से समझा बुझाकर सब राजाओं को अपने अधीन करके उन्हें करद बनाकर शत्रुदमन माद्रीनन्दन इन्द्रप्रस्थ में वापस आ गये। रत्नों का भारी भार साथ लिये निशाचरों के साथ सहदेव ने इन्द्रप्रस्थ नगर में प्रवेश किया। उस समय वे पैरों की धमक से सारी पृथ्वी को कम्पित करते हुए से चल रहे थे। राजन्! युधिष्ठिर को देखते ही सहदेव हाथ जोड़ नम्रतापूर्वक उनके चरणों में पड़ गये। फिर विनीत भाव से उनके समीप खड़े हो गये। उस समय युधिष्ठिर ने भी उनका बहुत सम्मान किया। लंका से प्राप्त हुई अत्यन्त दुर्लभ एवं प्रचुर धनराशियों को देखकर राजा युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न और विस्मित हुए। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! उस धनराशि में सहस्र कोटि से भी अधिक सुवर्ण था। विचित्र मणि एवं रत्न थे। गाय, भैंस, भेड़ और बकरियों की संख्या भी अधिक थी। राजन्! इन सबको महात्मा धर्मराज की सेवा में समर्पित करके कृतकृत्य हो सहदेव सुखपूर्वक राजधानी में रहने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व में सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय से सम्बन्ध रखने वाला इक्कतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

बत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"नकुल के द्वारा पश्चिम दिशा की विजय"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अब मैं नकुल के पराक्रम और विजय का वर्णन करूँगा। शक्तिशाली नकुल ने जिस प्रकार भगवान वासुदेव द्वारा अधिकृत पश्चिम दिशा पर विजय पायी थी, वह सुनो। बुद्धिमान माद्रीकुमार ने विशाल सेना के साथ खाण्डवप्रस्थ से निकलकर पश्चिम दिशा में जाने के लिये प्रस्थान किया। वे अपने सैनिकों के महान सिंहनाद, गर्जना तथा रथ के पहियों की घर्घर की तुमुल ध्वनि से इस पृथ्वी को कम्पित करते हुए जा रहे थे। जाते-जाते वे बहुत धन धान्य से सम्पन्न गौओं की बहुलता से युक्त तथा स्वामी कार्तिकेय के अत्यन्त प्रिय रमणीय रोहतक पर्वत एवं उसके समीपवर्ती देश में जा पहुँचे। वहाँ उनका मत्तमयूर नाम वाले शूरवीर क्षत्रियों के साथ घोर संग्राम हुआ। उस पर अधिकार करने के पश्चात महान तेजस्वी नकुल ने समूची मरूभूमि (मारवाड़), प्रचु धन धान्यपूर्प शैरीषक और महोत्य नामक देशों पर अधिकार प्राप्त कर लिया। महोदय देश के अधिपति राजर्षि आक्रोश को भी जीत लिया। आक्रोश के साथ उनका बड़ा भारी युद्ध हुआ था। तत्पश्चात दशार्णदेश पर विजय प्राप्त करके पाण्डुनन्दन नकुल ने शिवि, त्रिगर्त, अम्बष्ठ, मालव, पंचकर्वट एवं माध्यमिक देशों को प्रस्थान किया और उन सबको जीतकर वाटधानदेशीय क्षत्रियों को भी हराया। पुन: उधर से लौटकर नरश्रेष्ठ नकुल ने पुष्करारण्य निवासी उत्सव संकेत नामक गणों को परास्त किया। समुद्र के तट पर रहने वाले जो महाबली ग्रामणीय (ग्राम शासक के वंशज) क्षत्रिय थे, सरस्वती नदी के किनारे निवास करने वाले जो शूद्र आमीरगण थे, मछलियों से जीविका चलाने वाले जो घीवर जाति के लोग थे तथा जो पर्वतों पर वास करने वाले दूसरे-दूसरे मनुष्य थे, उन सबको नकुल ने जीतकर अपने वश में कर लिया।

  फिर सम्पूर्ण पंचनद देश (पंजाब), अमरपर्वत, उत्तर जयोतिष, दिव्यकट नगर और दारपालपुर को अत्यन्त क्रान्तिमान नकुल ने शीघ्र ही अपने अधिकार में कर लिया। रामठ, हार, हूण तथा अन्य जो पश्चिमी नरेश थे, उन सबको पाण्डुकुमार नकुल ने आज्ञा मात्र से ही अपने अधीन कर लिया। भारत! वहीं रहकर उन्होंने वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के पास दूत भेजा। राजन्! उन्होंने केवल प्रेम के कारण नकुल का शासन स्वीकार कर लिया। इसके बाद शाकल देश को जीतकर बलावान् नकुल ने मद्रदेश की राजधानी में प्रवेश किया और वहाँ के शासक अपने मामा शल्य को प्रेम से ही वश में कर लिया। राजन्! राजा शल्य ने सत्कार के योग्य नकुल का यथावत् सत्कार किया। शल्य से भेट में बहुत से रत्न लेकर योद्धाओं के अधिपति माद्रीकुमार आगे बढ़ गये। तदनन्तर समुद्री टापुओं में रहने वाले अत्यन्त भयंकर म्लेच्छ, पह्लव, बर्बर, किरात, यवन और शकों को जीतकर उनसे रत्नों की भेंट ले विजय के विचित्र उपायों के जानने वाले कुरुश्रेष्ठ नकुल इन्द्रप्रस्थ की और लौटे। महाराज! उस महामना नकुल के बहुमूल्य खजाने का बोझ दस हजार हाथी बड़ी कठिनाई से ढो रहे थे। तदनन्तर श्रीमान माद्रीकुमार ने इन्द्रप्रस्थ में विराजमान वीरवर राजा युधिष्ठिर से मिलकर वह सारा धन उन्हें समर्पित कर दिया। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार भगवान वासुदेव के द्वारा अपने अधिकार में की हुई, वरुणपालित पश्चिम दिशा पर विजय पाकर नकुल इन्द्रप्रस्थ लौट आये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत दिग्विजयपर्व में नकुल के द्वारा पश्चिम दिशा की विजय से सम्बन्ध रखने वाला बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (राजसूय पर्व)

तैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर के शासन की विशेषता, श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना तथा राजाओं, ब्राह्मणों एवं सगे सम्बन्धियों को बुलाने के लिये निमन्त्रण भेजना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- कुरुनन्दन! इस प्रकार सारी पृथ्वी को जीतकर अपने धर्म के अनुसार बर्ताव करते हुए पाँचों भाई पाण्डव इस भूमण्डल का शासन करने लगे। भीमसेन आदि चारों भाईयों के साथ राजा युधिष्ठिर सम्पूर्ण प्रजा पर अनुग्रह करते हुए सब वर्ण के लोगों को संतुष्ट रखते थे। युधिष्ठिर किसी का भी विशेष न करके सबके हित साधन में लगे रहते थे। ‘सबको तृप्त एवं प्रसन्न किया जाय, खजाना खोलकर सबको खुले हाथ दान दिया जाय, किसी पर बल प्रयोग न किया जाय, धर्म! तुम धन्य हो।’ इत्यादि बातों के सिवा युधिष्ठिर के मुख से और कुछ नहीं सुनाई पड़ता था। उनके ऐसे बर्ताव के कारण सारा जगत उनके प्रति वैसा ही अनुराग रखने लगा, जैसे पुत्र पिता के प्रति अनुरक्त होता है। राजा युधिष्ठिर से द्वेष रखने वाला कोई नही था, इसीलिये वे ‘अज्ञातशत्रु’ कहलाते थे। धर्मराज युधिष्ठिर प्रजा की रक्षा, सत्य का पालन और शत्रुओं का संहार करते थे। उनके इन कार्यों से निश्चिन्त एवं उत्साहित होकर प्रजावर्ग के सब लोग अपने अपने वर्णाश्रमोचित कर्मों के पालन में संलग्न रहते थे। न्यायपूर्वक कर लेने और धर्मपूर्वक शासन करने से उनके राज्य में मेघ इच्छानुसार वर्षा करते थे। इस प्रकार युधिष्ठिर का सम्पूर्ण जनपद धन धान्य से सम्पन्न हो गया था। गोरक्षा, खेती और व्यापार आदि सभी कार्य अच्छे ढंग से होने लगे।

  विशेषत: राजा की सुव्यवस्था से ही यह सब कुछ उत्तमरूप से सम्पन्न होता था। राजन्! औरों की तो बात कही क्या है, चोरों, ठगों, राजा अथवा राजा के विश्वासपात्र व्यक्तियों के मुख से भी वहाँ कोई झूठी बात नहीं सुनी जाती थी। केवल प्रजा के साथ ही नहीं, आपस में भी वे लोग झूठ कपट का बर्ताव नहीं करते थे। धर्मपरायण युधिष्ठिर के शासनकाल में अनावृष्टि, अतिवृष्टि, रोग व्याधि तथा आग लगने आदि उपद्रवों का नाम भी नहीं था। राजा लोग उनके यहाँ स्वाभाविक भेंट देने अथवा उनका कोई प्रिय कार्य करने के लिए ही आते थे, युद्ध आदि दूसरे किसी काम से नहीं। धर्मपूर्वक प्राप्त होने वाले धन की आय से उनका महान धन भंडार इतना बढ़ गया था कि सैकड़ों वर्षों तक खुले हाथ लुटाने पर भी उसे समाप्त नहीं किया जा सकता था। कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने अपने अन्न वस्त्र के भंडार तथा खजाने का परिणाम जानकर यज्ञ करने का ही निश्चिय किया। उनके जितने हितैषी सुहृद थे, वे सभी अलग-अलग और एक साथ यही कहने लगे- ‘प्रभो! यह आपके यज्ञ करने का उपयुक्त समय आया है, अत: अब उसका आरम्भ कीजिये’। वे सुहृद इस तरह की बातें कर ही रहे थे कि उसी समय भगवान श्रीहरि आ पहुँचे। वे पुराण पुरुष, नारायण ऋषि, वेदात्मा एवं विज्ञानीजानों के लिए भी अगम्य परमेश्वर हैं। वे ही स्थावर जंगम प्राणियों के उत्तम उत्पत्ति स्थान और लय के अधिष्ठान हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों कालों के नियन्ता हैं। वे ही केशी दैत्य को मारने वाले केशव हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 12-29 का हिन्दी अनुवाद)

  वे सम्पूर्ण वृष्णिवंशियों के परकोटे की भाँति संरक्षक, आपत्ति में अभय देने वाले तथा उनके शत्रुओं का संहार करने वाले हैं। पुरुषसिंह माधव अपने पिता वसुदेव जी को द्वारका की सेना के आधिपत्य पर स्थापित करके धर्मराज के लिये नाना प्रकार के धन रत्नों की भेंट से विशाल सेना के साथ वहाँ आये थे। अक्षय महासागर हो। उसे लेकर रथों की आवाज से समूची दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए वे उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थ में प्रविष्ठ हुए। पाण्डवों का धन भण्डार तो यों ही भरा पूरा था, भगवान ने (उन्हें अक्षय धन की भेंट देकर) उसे और भी पूर्ण कर दिया। उनका शुभागमन पाण्डवों के शत्रुओं का शोक बढ़ाने वाला था। बिना सूर्य का अन्धकारपूर्ण जगत सूर्योदय होने से जिस प्रकार प्रकाश से भर जाता है, बिना वायु के स्थान में वायु के चलने से जैसे नूतन प्राण शक्ति का संचार हो उठता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के पदार्पण करने पर समस्त इन्द्रप्रस्थ में हर्षोल्लास छा गया।

   नरश्रेष्ठ जनमेजय! राजा युधिष्ठिर बड़ेे प्रसन्न होकर उनसे मिले। उनका विधिपूर्वक स्वागत सत्कार करके कुशल मंगल पूछा और जब वे सूखपूर्वक बैठ गये, तब धौम्य, द्वैपायन आदि ऋत्विजों तथा भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव- चारों भाइयों के साथ निकट जाकर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा।

  युधिष्ठिर ने कहा ;- श्रीकृष्ण! आपकी दया से आपकी सेवा के लिये सारी पृथ्वी इस समय मेरे अधीन हो गयी है। वार्ष्णेय! मुझे धन भी बहुत प्राप्त हो गया है। देवकीनन्दन माधव वह सारा धन मैं विधिपूर्वक श्रेष्ठ ब्राह्मणों तथा हव्यवाहन अग्नि के उपयोग में लाना चाहता हूँ। महाबाहु दाशार्ह! अब मैं आप तथा अपने छोटे भाइयों के साथ यज्ञ करना चाहता हूँ। इसके लिये आप मुझे आज्ञा दें। विशाल भुजाओं वाले गोविन्द! आप स्वयं यज्ञ की दीक्षा ग्रहण कीजिये। दाशार्ह! आपके यज्ञ करने पर मैं पापरहित हो जाऊँगा। प्रभो! अथवा मुझे अपने इन छोटे भाइयों के साथ दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दीजिये। श्रीकृष्ण! आपकी अनुज्ञा मिलने पर ही मैं उस उत्तम यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करूँगा।

 वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब भगवान श्रीकृष्ण ने राजसूय यज्ञ के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन करके उनसे इस प्रकार कहा,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘राजसिंह! आप सम्राट होने योग्य हैं, अत: आप ही इस महान् यज्ञ की दीक्षा ग्रहण कीजिये। आपके दीक्षा लेेने पर हम सब लोग कृतकृत्य हो जायँगे। आप अपने इस अभीष्ठ यज्ञ को प्रारम्भ कीजिये। मैं आपका कल्याण करने के लिये सदा उद्यत हूँ। मुझे आवश्यक कार्य में लगाइये, मैं आपकी सब आज्ञाओं का पालन करूँगा’। 

युधिष्ठिर बोले ;- श्रीकृष्ण मेरा संकल्प सफल हो गया, मेरी सिद्धि सुनिश्चित है, क्योंकि हृषिकेश! आप मेरी इच्छा के अनुसार स्वयं ही यहाँ उपस्थित हो गये हैं।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण से आज्ञा लेकर भाइयों सहित पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ करने के लिये साधन जुटाना आरम्भ किया। उस समय शत्रुओं का संहार करने वाले पाण्डुकुमार ने योद्धाओं में श्रेष्ठ सहदेव तथा सम्पूर्ण मन्त्रियों को आज्ञा दी। ‘इस यज्ञ के लिये ब्राह्मणों के बताये अनुसार यज्ञ के अंगभूत सामान, आवश्यक उपकरण, सब प्रकार की मांगलिक वस्तुएँ तथा धौम्य जी की तबायी हुई यज्ञोपयोगी सामग्री इन सभी वस्तुओं को क्रमश: जैसे मिलें, वैसे शीघ्र ही अपने सेवक जाकर ले आवें।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 30-48 का हिन्दी अनुवाद)

  ‘इन्द्रसेन, विशोक और अर्जुन का सारथि पूरु, ये मेरा प्रिय करने की इच्छा से अन्न आदि के संग्रह के काम पर जुट जायँ। कुरुश्रेष्ठ! जिनको खाने की प्राय: सभी इच्छा करते हैं, वे रस और गन्ध से युक्त भाँति-भाँति के मिष्ठान आदि तैयार कराये जायँ, जो ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार प्रीति प्रदान करने वाले हों'। धर्मराज युधिष्ठिर की यह बात समाप्त होते ही योद्धाओं में श्रेष्ठ सहदेव ने उनसे निवेदन किया, ‘यह सब व्यवस्था हो चुकी है’। राजन्! तदनन्तर द्वैपायन व्यास जी बहुत से ऋत्विजों को ले आये। वे महाभाग ब्राह्मण मानो साक्षात् मूर्तिमान वेद ही थे। स्वयं सत्यवतीनन्दन व्यास ने उस यज्ञ में ब्रह्मा का काम सँभाला। धनंजय गोत्रीय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ सुसामा सामगान करने वाले हुए। और ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य उस यज्ञ के श्रेष्ठतम अध्वर्यु थे। वसुपुत्र पैल धौम्य मुनि के साथ होता बने थे। भरतश्रेष्ठ! इनके पुत्र और शिष्यवर्ग के लोग, जो सब के सब वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान थे, ‘होत्रग’ (सप्त होता) हुए। उन सबने पण्याहवाचन कराकर उस विधि का ऊहन (अर्थात् राजसूयेन यक्ष्ये, स्वाराज्यमवाघ्नवानि- मैं स्वाराज्य प्राप्त करूँ, इस उद्देश्य से राजसूय यज्ञ करूँगा, इत्यादि रूप से संकल्प) कराकर शास्त्रोक्त विधि से उस महान् यज्ञस्थान का पूजन कराया। उस स्थान पर राजा की आज्ञा से शिल्पियों ने देव मन्दिरों के समान विशाल एवं सुगन्धित भवन बनाये।

  तदनन्तर राजशिरोमणि नरश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरंत ही मंत्री सहदेव को आज्ञा दी, ‘सब राजाओं तथा ब्राह्मणों को आमन्त्रित करने के लिये तुरंत ही शीघ्रागामी दूस भेजो।’ राजा की यह बात सुनकर सहदेव ने दूतों को भेजा और कहा,,

सहदेव बोले ;- ‘तुम लोग सभी राज्यों में घूम-घूमकर वहाँ के राजाओं, ब्राह्मणों, वैश्यों तथा सब माननीय शूद्रों को निमन्त्रित कर दो और बुला ले आओ।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर के आदेश से सहदेव की आज्ञा पाकर सब शीघ्रगामी दूत गये और उन्होंने ब्राह्मण आदि सब वर्णों के लोगों को निमन्त्रित किया तथा बहुतों को वे अपने साथ ही शीघ्र बुला लाये। वे अपने से सम्बन्ध रखने वाले अन्य व्यक्तियों को भी साथ लाना न भूले। भारत! तदनन्तर वहाँ आये हुए सब ब्राह्मणों ने ठीक समय पर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ की दीक्षा दी। यज्ञ की दीक्षा लेकर धर्मात्मा धर्मराज युधिष्ठिर सहस्रों ब्राह्मणों से घिरे हुए यज्ञ मण्डप में गये। उस समय उनके सगे भाई, जाति बन्धु, सुहृय, सहायक अनेक देशों से आये हुए क्षत्रिय नरेश तथा मन्त्रिगण भी थे। नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर मूर्तिमान धर्म ही जान पड़ते थे। तत्पश्चात वहाँ भिन्न-भिन्न देशों से ब्राह्मण लोग आये, जो सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात तथा वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान थे।

   धर्मराज की आज्ञा से हजारों शिल्पियों ने आत्मीयजनों के साथ आये हुए उन ब्राह्मणों के ठहरने के लिये पृथक-पृथक घर बनाये थे, जो बहुत से अन्न और वस्त्रों से परिपूर्ण थे और जिनमें सभी ऋतुओं में सुखपूर्वक रहने की सुविधाएँ थी। राजन! उन गृहों में वे ब्राह्मण लोग राजा से सत्कार पाकर निवास करने लगे। वहाँ वे नाना प्रकार की कथाएँ कहते और नट नर्तकों के खेल देखते थे। वहाँ भोजन करते और बोलते हुए आनन्दमग्न महात्मा ब्राह्मणों का निरन्तर महान कौलाहल सुनायी पड़ता था। ‘इनको दीजिये, इन्हें परोसिये, भोजन कीजिये, भोजन कीजिये’ इसी प्रकार के शब्द वहाँ प्रतिदिन कानों में पड़ते थे। भारत! धर्मराज युधिष्ठिर ने एख लाख गौएँ, उतनी ही शय्याएँ, एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तथा उतनी ही अविवाहित युवतियाँ पृथक-पृथक ब्राह्मणों दान की। इस प्रकार स्वर्ग में इन्द्र की भाँति भूमण्डल में अद्वितीय वीर महात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर का यह यज्ञ प्रारम्भ हुआ। तदनन्तर पुरुषोत्तम राजा युधिष्ठिर ने भीष्म, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, विदुर, कृपाचार्य तथा दुर्योधन आदि सब भाइयों एवं अपने में अनुराग रखने वाले अन्य जो लोग वहाँ रहते थे, उन सबको बुलाने के लिये पाण्डुपुत्र नकुल को हस्तिनापुर भेजा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयपर्व में राजसूयदीक्षा विषयक तैंतीसवा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (राजसूय पर्व)

चौतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर के यज्ञ में देश के राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन और उन सबके भोजन-विश्राम आदि की सुव्यवस्था"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युद्धविजयी पाण्डुकुमार नकुल ने हस्तिनापुर में जाकर भीष्म और धृतराष्ट्र को निमन्त्रित किया। तत्पश्चात उन्होंने बड़े सत्कार के साथ आचार्य आदि को भी न्यौता दिया। वे सब लोग बड़े प्रसन्न मन से ब्राह्मणों को आगे करके उस यज्ञ में गये। भरतकुलभूषण! यज्ञवेत्ता धर्मराज का यज्ञ सुनकर अन्य सैकड़ों मनुष्य भी संतुष्ट हृदय से वहाँ गये। भारत! धर्मराज युधिष्ठिर और उनकी सभा को देखने के लिये सम्पूर्ण दिशाओं सभी क्षत्रिय वहाँ नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्नों की भेंट लेकर आये। धृतराष्ट्र, भीष्म, महाबुद्धिमान विदुर, दुर्योधन आदि सभी भाई, गान्धारराज सुबल, महाबली शकुनि, अचल, वृषक, रथियों में श्रेष्ठ कर्ण, बलवान् राजा शल्य, महाबली वाह्लीक, सोमदत्त, कुरुनन्दन भूरि, भूरिश्रवा, शल, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, सिन्धुराज जयद्रथ, पुत्रों सहित द्रुपद, राजा शल्व, प्राग्ज्योतिषपुर के नरेश महारथी भगदत्त, जिनके साथ समुद्र के टापुओं में रहने वाले सब जातियों के म्लेच्छ भी थे, पर्वतीय नृपतिगण, राजा बृहद्बल, पौण्ड्रक वासुदेव, वंगदेश के राजा, कलिंग नरेश, आकर्ष, कुन्तल, मालव, आन्ध्र, द्राविड़ और सिंहल देश के नरेशगण, काश्मीर नरेश, महातेजस्वी [[कुन्तिभोज]], राजा गौरवाहन, बाह्लीक, दूसरे शूर नृपतिगण, अपने दोनों पुत्रों के साथ विराट, महाबली मावेल्ल तथा नाना जनपदों के शासक राजा एवं राजकुमार उस यज्ञ में पधारे थे।

   भारत! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के उस यज्ञ में रणदुर्मद महापराक्रमी राजा शिशुपाल भी अपने पुत्र के साथ आया था। इसके सिवा बलराम, अनिरुद्ध, कंक, सारण, गद्द, प्रद्युम्न, साम्ब, पराक्रमी चारुदेष्ण, उल्मुक, निशठ, वीर अंगावह तथा अन्य सभी वृष्णिवंशी महारथी उस यज्ञ में आये थे। ये तथा दूसरे भी बहुत से मध्यदेशीय नरेश पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के राजसूय महायज्ञ में सम्मिलित हुए थे। धर्मराज की आज्ञा से प्रबन्धकों ने उनके ठहरने के लिये उत्तम भवन दिये, जो बहुत अधिक भोजन सामग्री से सम्पन्न थे। राजन्! उन घरों के भीतर स्नान के लिये बावलियाँ बनी थीं और वे भाँति-भाँति के वृक्षों से भी सुशोभित थे। धर्मपुत्र युधिष्ठिर उन सभी महात्मा नरेशों का स्वागत सत्कार करते थे। उनसे सम्मानित हो उन्हीं के बताये हुए विभिन्न भवनों में जाकर राजा लोग ठहरते थे। वे सभी भवन कैलासशिखर के समान ऊँचे और भव्य थे।

   नाना प्रकार के द्रव्यों से विभूषित एवं मनोहर थे। वे भव्य भवन सब ओर से सुन्दर, सफेद और ऊँचे परकोटों द्वारा घिरे हुए थे। उनमें सोने की झालरें लगी थीं। उनके आँगन के फर्श में मणि एवं रत्न जड़े हुए थे। उनमें सूखपूर्वक ऊपर चढ़ने के लिये सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। उन महलों के भीतर बहुमूल्य एवं बड़े-बड़े आसन तथा अन्य आवश्यक सामान थे। उन घरों को मालाओं से सजाया गया था। उनमें उत्तम अगुरु की सुगन्ध व्याप्त हो रही थी। वे सभी अतिथि भवन हंस और चन्द्रमा के समान सफेद थे। एक योजन दूर से ही वे अच्छी तरह दिखायी देने लगते थे। उनमें स्थान की संकीर्णता या तंगी नहीं थी। सबके दरवाजे बराबर थे। वे सभी गृह विभिन्न गुणों (सुख सुविधाओं) से युक्त थे। उनकी दीवारों अनेक प्रकार की धातुओं से वित्रित थीं तथा वे हिमालय के शिखरों की भाँति सुशोभित हो रहे थे। वहाँ विश्राम करने के अनन्तर वे भूमिपाल बहुत दक्षिणा देने वाले एवं बहुतेरे सदस्यों से घिरे हुए धर्मराज युधिष्ठिर से मिले। जनमेजय! उस समय राजाओं, ब्राह्मणों तथा महर्षियों से भरा हुआ वह यज्ञमण्डल देवताओं से भरे पूरे स्वर्गलोक के समान शोभा पा रहा था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयज्ञ पर्व में निमन्त्रित राजाओं का आगमन विषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (राजसूय पर्व)

पैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"राजसूय यज्ञ का वर्णन"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोणाचार्य आदि की अगवानी करके युधिष्ठिर ने उनके चरणों में प्रणाम किया और भीष्म, द्रोण, कृप, अश्वत्थामा, दुर्योधन और विविंशति से कहा,,

  युधिष्ठिर बोले ;- ‘इस यज्ञ में आप लोग सब प्रकार से मुझ पर अनुग्रह करें’। यहाँ मेरा जो यह महान् धन है, उसे आप लोग मेरी प्रार्थना मानकर इच्छानुसार सत्कर्मों में लगाइये। यज्ञदीक्षित युधिष्ठिर ने ऐसा कहकर उन सबको यथायोग्य अधिकारों में लगाया। भक्ष्य-भोज्य आदि सामग्री की देख रेख तथा उसके बाँटने परोसने की व्यवस्था का अधिकार दु:शासन को दिया। ब्राह्मणों के स्वागत सत्कार का भार उन्होंने अश्वत्थामा को सौंप दिया। राजाओं की सेवा और सत्कार के लिये धर्मराज ने संजय को नियुक्त किया। कौन काम हुआ और कौन नहीं हुआ, इसकी देख रेख का काम महाबुद्धिमान भीष्म और द्रोणाचार्य को मिला।

  उत्तम वर्ण के स्वर्ण तथा रत्नों को परखने, रखने और दक्षिणा देने के कार्य में राजा ने कृपाचार्य की नियुक्ति की। इसी प्रकार दूसरे-दूसरे श्रेष्ठ पुरुषों को यथायोग्य भिन्न-भिन्न कार्यों में लगाया। नकुल के द्वारा सम्मानपूर्वक बुलाकर लाये हुए बाह्लीक, धृतराष्ट्र, सोमदत्त और जयद्रय वहाँ घर के मालिक की तरह सुखपूर्वक रहने और इच्छानुसार विचरने लगे। सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता विदुर जी धन को व्यय करने के कार्य में नियुक्त किये गये थे तथा राजा दुर्योधन कर देने वाले राजाओं से सब प्रकार की भेंट स्वीकार करने और व्यवस्थापूर्वक रखने का काम सँभाल रहे थे। सब लोगों से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण सबको संतुष्ट करने की इच्छा से स्वयं ही ब्राह्मणों चरण पखारने में लगे थे, जिससे उत्तम फल की प्राप्ति होती है। धर्मराज युधिष्ठिर और उनकी सभा को देखने की इच्छा से आये हुए राजाओं में से कोई भी ऐसा नहीं था, जो एक हजार स्वर्ण मुद्राओं से कम भेंट लाया हो। प्रत्येक राजा बहुसंख्यक रत्नों की भेंट देकर धर्मराज युधिष्ठिर के धन की वृद्धि करने लगा। सभी राजा यह होड़ लगाकर धन दे रहे थे कि कुरुनन्दन युधिष्ठिर किसी प्रकार मेरे ही दिये हुए रत्नों के दान से अपना यज्ञ सम्पूर्ण करें।

   राजन्! जिनके शिखर यज्ञ देखने के लिये आये हुए देवताओं के विमानों का स्पर्श कर रहे थे, जो जलाशयों से परिपूर्ण और सेनाओं से घिरे हुए थे, उन सुन्दर भवनों, इन्द्रादि लोकपालों के विमानों, ब्राह्मणों के निवासस्थानों तथा परम समृद्धि से सम्पन्न रत्नों से परिपूर्ण वित्र एवं विमान के तुल्य बने हुए दिव्य गृहों से समागत राजाओं से तथा असीम श्री समृद्धियों से महात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की वह सभा बड़ी शोमा पा रही थी। महाराज युधिष्ठिर अपनी अनुपम समृद्धि द्वारा वरुणदेवता की बराबरी कर रहे थे। उन्होंने यज्ञ में छ: अग्नियों की स्थापना करके पर्याप्त दक्षिणा देकर उस यज्ञ के द्वारा भगवान का यजन किया। राजा ने उस यज्ञ में आये हुए सब लोगों को उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण करे संतुष्ट किया। वह यज्ञसमारोह अन्न से भरापूरा था, उसमें खाने पीने की सब सामग्रियाँ पर्याप्त मात्रा में सदा प्रस्तुत रहती थीं। वह यज्ञ खा पीकर तृप्त हुए लोगों से ही पूर्ण था। वहाँ कोई भूखा नहीं रहने पाता था तथा उव उत्सव समारोह में सब और रत्नों का ही उपहार दिया जाता था। मंत्रशिक्षा में निपुण महर्षियों द्वारा विस्तारपूर्वक किये जाने वाले उस यज्ञ में इडा (मंत्र पाठ एवं स्तुति), घृतहोम तथा लित आदि शाककल्य पदार्थों की आहुतियों से देवतालोग तृप्त हो गये। जिस प्रकार देवता तृप्त हुए उसी प्रकार दक्षिणा में अन्न और महान धन पाकर ब्राह्मण भी तृप्त हो गये। अधिक क्या कहा जाय, उस यज्ञ में सभी वर्ण के लोग बड़े प्रसन्न थे, सबको पूर्ण तृप्ति मिली थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयपर्व में यज्ञ करणविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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