सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) के छब्बीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the 26 chapter to the 30 chapter of the entire Mahabharata (Sabha Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

छब्बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन के द्वारा अनेक देशों, राजाओं तथा भगदत्त की पराजय"

जनमेजय बोले ;- ब्रह्मन्! दिग्विजय का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। अपने पूर्वजों के इस महान् चरित्र को सुनते सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। 

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! यद्यपि कुन्ती के चारों पुत्रों ने एक ही समय इन चारों दिशाओं की पृथ्वी पर विजय प्राप्त की थी, तो भी पहले तुम्हें अर्जुन का दिग्विजय वृत्तान्त सुनाऊँगा। महाबाहु धनंजय ने अत्यन्त दु:सह पराक्रम प्रकट किये बिना ही पहले पुलिन्द देश के भूमिपालों को अपने वश में किया। कुलिन्दों के साथ-साथ कालकूट और आनर्त देश के राजाओं को जीतकर सेना सहित राजा सुमण्डल को भी जीत लिया। राजन्! तदनन्तर शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची अर्जुन ने सुमण्डल को साथी बना लिया और उनके साथ जाकर शाकलद्वीप तथा राजा प्रतिविन्ध्य पर विजय प्राप्त की। शाकलद्वीप तथा अन्य द्वीपों में जो राजा रहते थे, उनके साथ अर्जुन के सैनिकों का घमासान युद्ध हुआ। भरत कुलभूषण जनमेजय! अर्जुन ने उन महान् धनुर्धरों को भी जीत लिया और उन सबको साथ लेकर प्राग्ज्योतिषपुर पर धावा किया।

  महाराज! प्राग्ज्योतिषपुर के प्रधान राजा भगदत्त थे। उनके साथ महात्मा अर्जुन का बड़ा भारी युद्ध हुआ। प्राग्ज्योतिषपुर के नरेश किरात, चीन तथा समुद्र के टापुओं में रहने वाले अन्य बहुतेरे योद्धाओं से घिरे हुए थे। राजा भगदत्त ने अर्जुन के साथ आठ दिनों तक युद्ध किया, तो भी उन्हें युद्ध से थकते न देख वे हँसते हुए बोले,,

राजा भगदत्त बोले ;- ‘महाबाहु कौरवनन्दन! तुम इन्द्र के पुत्र और संग्राम में शोभ पाने वाले शूरवीर हो। तुममें ऐसा बल और पराक्रम उचित ही है। मैं देवराज इन्द्र का मित्र हूँ और युद्ध में उनसे तनिक भी कम नहीं हूँ, बेटा! तो भी मैं संग्राम में तुम्हारे सामने खड़ा नहीं हो सकूँगा। पाण्डुनन्दन! तुम्हारी इच्छा क्या है, बताओ? मैं तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ? वत्स! महाबाहो! तुम जो कहोगे, वही करूँगा'।

 अर्जुन बोले ;- महाराज! धर्मज्ञ सत्यप्रतिज्ञ कुरुकुलरत्न धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर बहुत दक्षिणा देकर राजसूय यज्ञ करने वाले हैं। मैं चाहता हूँ वे चक्रवर्ती सम्राट हों। आप उन्‍हें कर दीजिये। आप मेरे पिता के मित्र हैं और मुझसे भी प्रेम रखते हैं, अत: मैं आपको आज्ञा नहीं दे सकता। आप प्रेमभाव से ही उन्हें भेंट दीजिये।

 भगदत्त ने कहा ;- कुन्तीकुमार! मेरे लिये जैसे तुम हो वैसे राजा युधिष्ठिर हैं, मैं यह सब कुछ करूँगा। बोलो, तुम्हारे लिये और क्या करूँ?

(इस प्रकार महाभारत सभापर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व में अर्जुनदिग्विजय प्रसंग में भगदत्त-पराजय सम्बन्धी छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

सत्ताईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पान"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उनके ऐसा कहने पर धनंजय ने भगदत्त से कहा,,

धनजंय बोले ;- ‘राजन! आपने जो कर देना स्वीकार कर लिया, इतने से ही मेरा सब सत्कार हो जायगा, अब आज्ञा दीजिये, मैं जाता हूँ’। भगदत्त को जीतकर महाबाहु कुन्तीपुत्र अर्जुन वहाँ से कुबेर द्वारा सुरक्षित उत्तर दिशा में गये। कुरुश्रेष्ठ धनंजय ने क्रमश: अन्तगिरि, बहिगिरि और उपगिरि नामक प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। फिर समस्त पर्वतों और वहाँ निवास करने वाले राजाओं को अपने अधीन करके उन्होंने सबसे धन वसूल किये। तत्पश्चात उन नरेशों को प्रसन्न करके उन सबके साथ उलूकवासी राजा बृहन्त पर आक्रमण किया। जुझाऊ बाजे श्रेष्ठ मृदंग आदि की ध्वनि, रथ के पहियों की घर्घराहट और हाथियों की गर्जना से वे इस पृथ्वी को कँपाते हुए आगे बढ़ रहे थे। तब राजा बृहन्त तुरंत ही चतुरंगिणी सेना के साथ नगर से बाहर निकले और अर्जुन से युद्ध करने लगे। उस समय अर्जुन और बृहन्त में बड़े जोर की मार काट शुरु हुई, परंतु बृहन्त पाण्डुपुत्र अर्जुन के पराक्रम को न सह सके। कुन्तीकुमार को असह्य मानकर दुर्धर्ष वीर पर्वतराज बृहन्त युद्ध से हट गये और सब प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर उनकी सेवा में उपस्थित हुए।

  जनमेजय! अर्जुन ने बृहन्त का राज्य पुन: उन्हीं के हाथ में सौंपकर उलूकराज के साथ सेनाबिन्दु पर आक्रमण किया और उन्हें शीघ्र ही राज्यच्युत कर दिया। तदनन्तर मोदापुर, वामदेव, सुदामा, सुसंकुल तथा उत्तर उलूक देशों और वहाँ के राजाओं को अपने अधीन किया। राजन्! धर्मराज की आज्ञा से किरीटधारी अर्जुन ने वहीं रहकर अपने सेवकों द्वारा पंचगण नामक देशों को जीत लिया। वहाँ से सेनाबिन्दु की राजधानी देवप्रस्थ में आकर चतुरंगिणी सेना के साथ शक्तिशाली अर्जुन ने वहीं पड़ाव डाला। नरश्रेष्ठ! उन सभी पराजित राजाओं से घिरे हुए महातेजस्वी अर्जुन ने पौरव राजा विश्वगश्व पर आक्रमण किया। वहाँ संग्राम में शूरवीर पर्वतीय महारथियों को परास्त करके पौरव द्वारा सुरक्षित उनकी राजधानी को भी सेना द्वारा जीत लिया। पौरव को युद्ध में जीतकर पर्वत निवासी लुटेरों के सात दलों पर, जो ‘उत्सवसंकेत’ कहलाते थे, पाण्डुकुमार अर्जुन ने विजय प्राप्त की।

    इसके बाद क्षत्रिय शिरोमणि धनंजय ने काश्मीर के क्षत्रियवीरों को तथा दस मण्डलों के साथ राजा लोहित को भी जीत लिया। तदनन्तर त्रिगर्त, दार्व और कोकनद आदि बहुत से क्षत्रिय नरेशगण सब ओर से कुन्तीनन्दन अर्जुन की शरण में आये। इसके बाद कुरुनन्दन धनंजय ने रमणीय अभिसारी नगरीय पर विजय पायी और उरगावासी राजा रोचमान को भी युद्ध में परास्त किया। तदनन्तर इन्द्रकुमार अर्जुन ने राजा चित्रायुध के द्वारा सुरक्षित सुरम्य नगर सिंहपुर पर सेना लेकर आक्रमण किया और उसे युद्ध में जीत लिया। इसके बाद पाण्डव प्रवर कुरुकुलनन्दन किरीटी ने अपनी सारी सेना के साथ धावा करके सुह्म तथा चोल देश की सेनाओं को मथ डाला। तत्पश्चात परम पराक्रमी इन्द्रकुमार ने बड़ी भारी मार काट मचाकर दुर्धर्ष वीर बाह्लीकों को वश में किया। पाण्डुनन्दन अर्जुन ने अपने साथ शक्तिशाली सेना लेकर काम्बोजों के साथ दरदों को भी जीत लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचविश अध्याय के श्लोक 24-29 का हिन्दी अनुवाद)

  ईशान कोण का आश्रय ले जो लुटेरे या डाकू वन में निवास करते थे, उन सबको शक्तिशाली धनंजय ने जीतकर वश में कर लिया। महाराज! लोह, परमकाम्बोज, ऋषिक तथा उत्तर देशों को भी अर्जुन ने एक साथ जीत लिया। ऋषिक देश में भी ऋषिकराज और अर्जुन में तारकामय संग्राम के समान बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। राजन्! युद्ध के मुहाने पर ऋषिकों को हराकर अर्जुन ने तोते के उदर के समान हरे रंग वाले आठ घोड़े उनसे भेंट लिये। इनके सिवा, मोर के समान रंग वाले उत्तम, गतिशील और शीघ्रगामी दूसरे भी बहुत से घोड़े वे करके रूप में वसूल कर लाये। इसके बाद पुरुषोत्तम अर्जुन संग्राम में हिमवान् और निष्कुट प्रदेश के अधिपतियों को जीतकर धवलगिरि पर आये और वहीं सेना का पड़ाव डाला।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत दिग्विजयपर्व में अर्जुनदिग्विजय के प्रसंग में अनेक देशों पर विजयसम्बन्धी सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

अठाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टाविंश अध्याय के भाग 1 का हिन्दी अनुवाद)

"किम्पुरुष, हाटक तथा उत्तरकुुरु पर विजय प्राप्त करके अर्जुन का इन्द्रप्रस्थ लौटन"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर पराक्रमी वीर पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन धवलगिरि को लाँघकर द्रुमपुत्र के द्वारा सुरक्षित किम्पुरुष देश में गये, जहाँ किन्नरों का निवास था। वहाँ क्षत्रियों का विनाश करने वाले भारी संग्राम के द्वारा उन्होंने उस देश को जीत लिया और कर देते रहने की शर्त पर उस राजा को पुन: उसी राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया। किन्नर देश को जीतकर शान्तचित्त इन्द्रकुमार ने सेना के साथ गुह्यकों द्वारा सुरक्षित हाटक देश पर हमला किया। और उन गुह्यकों को सामनीति से समझा बुझाकर ही वश में कर लेने के पश्चात वे परम उत्तम मानसरोवर पर गये। वहाँ कुरुनन्दन अर्जुन ने समस्त ऋशि कुल्याओं (ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध जल स्त्रोतों) का दर्शन किया। मानसरोवर पर पहुँचकर शक्तिशाली पाण्डुकुमार ने हाटक देश के निकटवर्ती गन्धर्वों द्वारा सुरक्षित प्रदेश पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया। वहाँ गन्धर्व नगर से उन्होंने उस समय करके रूप में तित्तिरि, कल्माष और मण्डूक नाम वाले बहुत से उत्तम घोड़े प्राप्त किये। तत्पश्चात् अर्जुन ने हेमकूट पर्वत पर जाकर पड़ाव डाला। राजेन्द्र! फिर हेमकूटकों भी लाँघकर वे पाण्डुनन्दन पार्थ अपनी विशाल सेना के साथ हरिवर्ष में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने बहुत से मनोरम नगर, सुन्दर वन तथा निर्मल जल से भरी हुई नदियाँ देखी। वहाँ के पुरुष देवताओं के समान तेजस्वी थे। स्त्रियाँ भी परम सुन्दरी थीं। उन सबका अवलोकन करके अर्जुन को वहाँ बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने हरिवर्ष को अपने अधीन कर लिया और वहाँ से बहुतेरे रत्न प्राप्त किये।

  इसके बाद निषध पर्वत पर जाकर शक्तिशाली अर्जुन ने वहाँ के निवासियों को पराजित किया। तदनन्तर विशल निषध पर्वत को लाँघकर वे दिव्य इलावृत वर्ष में पहँचे, जो जम्बूद्वीप का मध्यवर्ती भू भाग है। वहाँ अर्जुन ने देवताओं जैसे दिखायी देने वाले देवोपम शक्तिशाली दिव्य पुरुष देखे। वे सब के सब अत्यन्त सौभाग्शाली और अद्भुत थे। उससे पहले अर्जुन ने कभी वैसे दिव्य पुरुष नहीं देखे थे। वहाँ के भवन अत्यन्त उज्ज्वल और भव्य थे तथा नारियाँ अप्सराओं के समान प्रतीत होती थीं। अर्जुन ने वहाँ के रमणीय स्त्री पुरुषों को देखा। इन पर भी वहाँ के लोगों की दृष्टि पड़ी। तत्पश्चात उसे देश के निवासियों को अर्जुन ने युद्ध में जीत लिया, जीतकर उन पर कर लगाया और फिर उन्हीं बड़भागियों को वहाँ के राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया। फिर वस्त्रों और आभूषणों के साथ दिव्य रत्नों की भेंट लेकर अर्जुन बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ से उत्तर दिशा की ओर बढ़ गये। आगे जाकर उन्हें पर्वतों के स्वामी गिरिप्रवर महामेरु का दर्शन हुआ, जो दिव्य तथा सुवर्णमय है। उसमें चार प्रकार के रंग दिखायी पड़ते है। उसकी लम्बाई एक लाख योजन है। वह परम उत्तम मेरुपर्वत महान् तेज के पुंज सा जगमगाता रहता है और अपने सुवर्णमय कान्तिमान् शिखरों द्वारा सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करता है। वह सुवर्णभूषित दिव्य पर्वत देवताओं तथा गन्धर्वों से सेवित है। सिद्ध और चारण भी वहाँ नित्य निवास करते हैं। उस पर्वत पर सदा फल और फूलों की बहुतायत रहती है। उसकी ऊँचाई का कोई माप नहीं है। अधर्मपरायण मनुष्य उस पर्वत का स्पर्श नहीं कर सकते। बड़े भयंकर सर्प वहाँ विचरण करते हैं। दिव्य ओषधियाँ उस पर्वत को प्रकाशित करती रहती हैं। महागिरि मेरु ऊँचाई द्वारा स्वर्ग लोक को भी घेरकर खड़ा है।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टाविंश अध्याय  के भाग 2 का हिन्दी अनुवाद)

  दूसरे मनुश्य मन से भी वहाँ नहीं पहुँच सकते। कितनी ही नदियाँ और वृक्ष उस शैल शिखर की शोभा बढ़ाते हैं। भाँति-भाँति के मनोहर पक्षी वहाँ कलरव करते रहते हैं। ऐसे मनोहर मेरु गिरि को देखकर उस समय अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। मेरु के चारों ओर मण्डलाकार इलावृतवर्ष बसा हुआ है। मेरु के दक्षिण पार्श्व में जम्बू नाम का एक वृक्ष है, जो सदा फल और फूलों से भरा रहता है। सिद्ध और चारण उस वृक्ष का सेवन करते हैं। राजन्! उक्त जम्बू वृक्ष की शाखा ऊँचाई में स्वर्ग लोक तक फैली हुई हैं। उसी के नाम पर इस द्वीप को जम्बूद्वीप कहते हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची अर्जुन ने उस जम्बू वृक्ष को देखा। जम्बू और मेरुगिरि दोनों ही इस जगत में अनुपम हैं। उन्हें देखकर अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई।

  राजन! वहाँ सब ओर दृष्टिपात करते हुए अर्जुन सिद्धों और दिव्य चारणों से कई सहस्र रत्न, वस्त्र, आभूषण तथा अन्य बहुत सी बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त कीं। तदनन्तर उन सबसे विदा ले बड़े भाई के यज्ञ के उद्देश्य से बहुत से रत्नों का संग्रह करके वे वहाँ से जाने को उद्यत हुए। पर्वतश्रेष्ठ मेरु को अपने दाहिने करके अर्जुन जम्बूनदी के तट पर गये। वे उस श्रेष्ठ सरिता की शोभा देखना चाहते थे। वह मनोरम दिव्य नदी जल के रूप में जम्बूवृक्ष के फलों का स्वादिष्ट रस बहाती थी। सुनहरे पंखों वाले पक्षी उसका सेवन करते थे। वह नदी सुवर्णमय कमलों से भरी हुई थी। उनकी कीचड़ भी स्वर्णमय थी। उसके जल से भी सुवर्णमयी आभा छिटक रही थी। उस मंगलमयी नदी की बालुका भी सुवर्ण के चूर्ण सी शोभा पाती थी। कहीं-कहीं सुवर्णमय कमलों तथा स्वर्णमय पुष्पों से वह व्याप्त थी। कहीं सुन्दर खिले हुए सुवर्णमय कुमुद और उत्पल छाये हुए थे। कहीं उसे नदी के तट पर सुन्दर फूलों से भरे हुए स्वर्णमय वृक्ष सब ओर फैले हुए थे। उस सुन्दर सरिता के घाटों पर सब और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। निर्मल मणियों के समूह उसकी शोभा बढ़ाते थे। नृत्य और गीत के मधुर शब्द उस प्रदेश को मुखरित कर रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टाविंश अध्याय के भाग 3 का हिन्दी अनुवाद)

   उसके दोनों तटों पर सुनहरे और चमकीले चँदोवे तने थे, जिनके कारण जम्बू नदी की बड़ी शोभा हो रही थी। राजेन्द्र! ऐसी अदृष्टपूर्व नदी का दर्शन करके अर्जुन ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और वे मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। उस नदी के तट पर बहुत से देवोपम अपनी स्त्रियों के साथ विचर रहे थे। उनके सौन्दर्य देखने ही योग्य था। वे सबके मन को मोह लेते थे। जम्बू नदी का जल ही उनका आहार था। वे सदा सुख और आनन्द में निमग्न रहने वाले तथा सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित थे। उस समय अर्जुन ने उनसे भी नाना प्रकार के रत्न प्राप्त किये। दिव्य जाम्बूनद नामक सुवर्ण और भाँति-भाँति के आभूषण आदि दुर्लभ वस्तुएँ पाकर अर्जुन वहाँ से पश्चिम दिशा की ओर चल दिये। उधर जाकर अर्जुन ने नागों द्वारा सुरक्षित प्रदेश पर विजय पायी। महाराज! वहाँ से और पश्चिम जाकर शक्तिशाली अर्जुन गन्धमादन पर्वत पर पहुँच गये और वहाँ के रहने वालों को जीतकर अपने अधीन बना लिया। राजन! इस प्रकार गन्धमादन पर्वत को लाँघकर अर्जुन रत्नों से सम्मपन्न केतुमालवर्ष में गये, जो देवोपम पुरुषों और सुन्दरी स्त्रियों की निवासभूमि है।

  राजन! उस वर्ष को जीतकर अर्जुन ने उसे कर देने वाला बना दिया और वहाँ से दुर्लभ रत्न लेकर वे पुन: मध्यवर्ती इलावृतवर्ष में लौट आये। तदनन्तर शत्रुदमन सव्यसाची अर्जुन ने पूर्व दिशा में प्रस्थान किया। मेरु और मन्दराचल के बीच शैलोदा नदी के दोनों तटों पर जो लोग कीचक और वेणु नामक बाँसों की रमणीय छाया का आश्रय लेकर रहते हैं, उन खश, झष, नद्योत, प्रघस, दीर्घवेणिक, पशुष, कुलिन्द, तंगण तथा परतंगण आदि जातियों को हराकर उन सबसे रत्नों की भेंट ले अर्जुन माल्यवान् पर्वत पर गये। तत्पश्चात गिरिराज माल्यवान् को भी लाँघकर उन पाण्डुकुमार ने भद्राश्ववर्ष में प्रवेश किया जो स्वर्ग के समान सुन्दर है। उस देश में देवताओं के समान सुन्दर और सुखी पुरुष निवास करते थे। अर्जुन ने उन सबको जीतकर अपने अधीन कर लिया और उस पर कर लगा दिया। इस प्रकार इधर-उधर से असंख्य रत्नों का संग्रह करके शक्तिशली अर्जुन ने नीलगिरी की यात्रा की और वहाँ के निवासियों को पराजित किया। तदनन्तर विशाल नीलगिरि को भी लाँघकर सुन्दर नरनारियों से भरे हुए रम्यक वर्ष में उन्होंने प्रवेश किया। उस देश को भी जीतकर अर्जुन ने वहाँ के निवासियों पर कर लगा दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टाविंश अध्याय के भाग 4 का हिन्दी अनुवाद)

   तत्पश्चात गुह्यकों द्वारा सुरक्षित प्रदेश को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। राजेन्द्र! वहाँ उन्हें सोने के मृग और पक्षी उपलब्ध हुए, जो देखने में बड़े ही रमणीय और मनोरम थे। उन्होंने यज्ञ वैभव की समृद्धि के लिये उन मृगों और पक्षियों को ग्रहण कर लिया। तदनन्तर महाबली पाण्डुनन्दन अन्य बहुत से रत्न लेकर गन्धर्वों द्वारा सुरक्षित प्रदेश में गये और गन्धर्वगणों सहित उस देश पर अधिकार जमा लिया। राजन्! वहाँ भी अर्जुन को बहुत से दिव्य रत्न प्राप्त हुए। तदनन्तर उन्होंने श्वेत पर्वत पर जाकर वहाँ के निवासियों को जीता। फिर उस पर्वत को लाँघकर पाण्डुकुमार अर्जुन ने हिरण्यक वर्ष में प्रवेश किया। महाराज! वहाँ पहुँचकर वे उस देश के रमणीय प्रदेशों में विचरने लगे। बड़े-बड़े महलों की पंक्तियों में भ्रमण करते हुए श्वेताश्व अर्जुन नक्षत्रों के बीच चन्द्रमा के समान सुशोभित होते थे। राजेन्द्र! जब अर्जुन उत्तम बल और शोभा से सम्पन्न हो हिरण्यकवर्ष की विशाल सड़कों पर चलते थे, उस समय प्रासादशिखरों पर खड़ी हुई वहाँ की सुन्दरी स्त्रियाँ उनका दर्शन करती थीं।

  कुन्तीनन्दन अर्जुन अपने यश को बढ़ाने वाले थे। उन्होंने आभूषण धारण कर रखा था। वे शूरवीर, रथयुक्त, सेवकों से सम्पन्न और शक्तिशाली थे। उनके अंगों में कवच और मस्तक पर सुन्दर किरीट शोभा दे रहा था। वे कमर कसकर युद्ध के लिये तैयार थे और सब प्रकार की आवश्यक सामग्री उनके साथ थी। वे सुकुमार, अत्यन्त धैर्यवान्, तेज के पुंज, परम उत्तम, इन्द्रतुल्य पराक्रमी, शत्रुहन्ता तथा शत्रुओं के गजराजों की गति को रोक देने वाले थे। उन्हें देखकर वहाँ की स्त्रियों ने यही अनुमान लगाया कि इस वीर पुरुष के रूप में साक्षात शक्तिधारी कार्तिकेय पधारे हैं। वे आपस में इस प्रकार बातें करने लगीं- ‘सखियो! ये जो पुरुषसिंह दिखायी दे रहे हैं, संग्राम में इनका पराक्रम अद्भुत है। इनके बाहुबल का आक्रमण होने पर शत्रुओं के समुदाय अपना अस्तित्व खो बैठते हैं।’ इस प्रकार की बातें करती हुई स्त्रियाँ बड़े प्रेम से अर्जुन की ओर देखकर उनके गुण गाती और उनके मस्तक पर फूलों की वर्षा करती थीं। वहाँ के सभी निवासी बड़ी प्रसन्नता के साथ कौतूहलवश उन्हें देखते और उनके निकट रत्नों तथा आभूषणों की वर्षा करते थे। उन सबको जीतकर तथा उनके ऊपर कर लगाकर वहाँ से मणि, सुवर्ण, मूँगे, रत्न तथा आभूषण ले अर्जुन श्रृंगवान पर्वत पर चले गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) अष्टाविंश अध्याय के भाग 5 का हिन्दी अनुवाद)

  हाँ से आगे बढ़कर पाकशासनपुत्र पाण्डव अर्जुन ने उत्तर कुरुवर्ष में पहुँचकर उस देश को जीतने का विचार किया। इतने ही में महापराक्रमी अर्जुन के पास बहुत से विशालकाय महाबली द्वारपाल आ पहुँचे और प्रसन्नतापूर्वक बोले,,

द्वारपाल बोले ;- ‘पार्थ! इस नगर को तुम किसी तरह जीत नहीं सकते। कल्याणस्वरूप अर्जुन! यहाँ से लौट जाओ। अच्युत! तुम यहाँ तक आ गये, यही बहुत हुआ। जो मनुष्य इस नगर में प्रवेश करता है, निश्चय ही उसकी मृत्यु हो जाती है। वीर! हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। यहाँ तक आ पहुँचना ही तुम्हारी बहुत बड़ी विजय है। अर्जुन! यहाँ कोई जीतने योग्य वस्तु नहीं दिखायी देती। यह उत्तर कुरुदेश है। यहाँ युद्ध नहीं होता है। कुन्तीकुमार! इसके भीतर प्रवेश करके भी तुम यहाँ कुछ देख नहीं सकोगे, क्योंकि मानव शरीर से यहाँ की कोई वस्तु देखी नहीं जा सकती। भरत कुलभूषण! यदि यहाँ तुम युद्ध के सिवा और कोई काम करना चाहते हो तो बताओ, तुम्हारे कहने से हम स्वयं ही उस कार्य को पूर्ण कर देंगे’।

राजन्! तब अर्जुन ने उनसे हँसते हुए कहा,,

  अर्जुन बोले ;- ‘मैं अपने भाई बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर को समस्त भूमण्डल का एक मात्र चक्रवर्मी सम्राट बनाना चाहता हूँ। आप लोगों का देश यदि मनुष्यों के विपरीत पड़ता है तो मैं इसमें प्रवेश नहीं करूँगा। महाराज युधिष्ठिर के लिये कर के रूप में कुछ धन दीजिये’। तब उन द्वारपालों ने अर्जुन को कर के रूप में बहुत से दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा दिव्य रेशमी वस्त्र एवं मृगचर्म दिये। इस प्रकार पुरुषसिंह अर्जुन ने क्षत्रिय राजाओं तथा लुटेरों के साथ बहुत सी लड़ाईयाँ लड़ीं और उत्तर दिशा पर विजय प्राप्त की। राजाओं को जीतकर उनसे कर लेते और उन्हें फिर अपने राज्य पर ही स्थापित कर देते थे। राजन! वे वीर अर्जुन सबसे धन और भाँति-भाँति के रत्न लेकर तथा भेंट में मिले हुए वायु के समान वगे वाले तित्तिरि? कल्माष, सुग्गापंखी एवं मोर सदृश सभी घोड़ों को सा लिये और विशाल चतुरंगिणी सेना से घिरे हुए फिर अपने उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थ में लौट आये? तीतर के समान चितकबरे रंग वाले। पार्थ ने घोड़ों सहित वह सारा धन धर्मराज को सौंप दिया और उनकी आज्ञा लेकर, वे महल में चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत दिग्विजयपर्व में अर्जुन की उत्तर दिशा पर विजय विषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

उन्नतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"भीमसेन का पूर्व दिशा को जीतने के लिये प्रस्थान और विभिन्न देशों पर विजय पान"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इसी समय शत्रुओं का शोक बढ़ाने वाले भरतवंश शिरोमणि महाप्रतापी एवं पराक्रमी भीमसेन भी धर्मराज की आज्ञा ले, शत्रु के राज्य को कुचल देने वाली और हाथी, घोड़े एवं रथ से भरी हुई, कवच आदि से सुसज्जित विशाल सेना के साथ पूर्व दिशा को जीतने के लिये चले। नरश्रेष्ठ भीमसेन ने पहले पांचालों की महानगरी अहिच्छत्रा में जाकर भाँति-भाँति के उपायों से पांचाल वीरों को समझा बुझाकर वेश में किया। वहाँ से आगे जाकर उन भरतवंश शिरोमणि शूरवीर भीम ने गण्डक (गण्डकी नदी के तटवर्ती) और विदेह (मिथिला) देशों को थोड़े ही समय में जीतकर दशार्ण देश को भी अपने अधिकार में कर लिया। वहाँ दशार्णनरेश सुधर्मा ने भीमसेन के साथ बिना अस्त्र शस्त्र के ही महान युद्ध किया। उन दोनों का वह कल्लयुद्ध रोंगटे खड़े कर देने वाला था। भीमसेन ने उस महामना राजा का यह अद्भुत पराक्रम देखकर महाबली सुधर्मा को अपना प्रधान सेनापति बना दिया।

  राजन! इसके बाद भयानक पराक्रमी भीमसेन पुन: विशाल सेना के साथ पृथ्वी को कँपाते हुए पूर्व दिशा की ओर बढ़े। जनमेजय! बलवानों में श्रेष्ठ वीरवर भीम ने अश्वमेध देश के राजा रोचमान को उनके सेवकों सहित बलपूर्वक जी लिया। उन्हें हराकर महापराक्रमी कुरुनन्दन कुन्तीकुमार भीम ने कोमल बर्तीव के द्वारा ही पूर्व देश पर विजय प्राप्त कर ली। तदनन्तर दक्षिण आकर पुलिन्दों के महान नगर सुकुमार और वहाँ के राजा सुमित्र को अपने अधीन कर लिया।

  जनमेजय! तत्पश्चात! भरतश्रेष्ठ भीम धर्मराज की आज्ञा से महापराक्रमी शिशुपाल के यहाँ गये। परंतप! चेदिराज शिशुपाल ने भी पाण्डुकुमार भीम का अभिप्राय जानकर नगर से बाहर आ स्वागत सत्कार के साथ उन्हें अपनाया। महाराज! कुरुकुल और चेदिकुल के वे श्रेष्ठ पुरुष परस्पर मिलकर दोनों ने दोनों कुलों के कुशल प्रश्न पूछे। राजन्! तदनन्तर चेदिराज ने अपना राष्ट्र भीमसेन को सौंपकर हँसते हुए पूछा,,

चेदिराज बोले ;- ‘अनघ! यह क्या करते हो?’ तब भीम ने उससे धर्मराज जो कुछ करना चाहते थे, वह सब कह सुनाया। तदनन्तर राजा शिशुपाल ने उनकी बात मानकर कर देना स्वीकार कर लिया। राजन! उसके बाद शिशुपाल से सम्मानित हो भीमसेन अपनी सेना और सवारियों के साथ तेरह दिन वहाँ रह गये। तत्पश्चात वहाँ से विदा हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व में भीमदिग्विजय विषयक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"भीम का पूर्व दिशा के अनेक देशों तथा राजाओं को जीतकर भारी धन सम्पत्ति के साथ इन्द्रप्रस्थ में लौटना"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले भीमसेन ने कुमार देश के राजा श्रेणिमान तथा कोसलराज बृहद्बल को परास्त किया। इसके बाद अयोध्या के धर्मज्ञ नरेश महाबली दीर्घयज्ञ को पाण्डव श्रेष्ठ भीम ने कोमलतापूर्ण बर्ताव से वश में कर लिया। तत्पश्चात शक्तिशाली पाण्डुकुमार ने गोपालकक्ष और उत्तर कोसल देश को जीतकर मल्लराष्ट्र के अधिपति पार्थिव को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद हिमालय के पास जाकर बलवान भीम ने सारे जलोद्भव देश पर थोड़े ही समय में अधिकार प्राप्त कर लिया। इस प्रकार भरतवंशभूषण भीमसेन ने अनेक देश जीते और भल्लाट के समीपवर्ती देशों तथा शुक्तिमान पर्वत पर भी विजय प्राप्त की। बलवानों में श्रेष्ठ महापराक्रमी तथा भयंकर पुरुषार्थ प्रकट करने वाले पाण्डुकुमार महाबाहु भीमसेन ने समर में पीठ न दिखाने वाले काशिराज सुबाहु को बलपूर्वक हराया। इसके बाद पाण्डपुपुत्र भीम ने सुपार्श्व के निकट राजराजेश्वर क्रथ को, जो युद्ध में बलपूर्वक उनका सामना कर रहे थे, हरा दिया।

   तत्पश्चात महातेजस्वी कुन्तीकुमार ने मत्स्य, महाबली मलद, अनघ और अभय नामक देशों को जीकर पशुभूमि (पशुपतिनाथ के निकटवर्ती स्थान नेपाल) को भी सब ओर से जी लिया। वहाँ से लौटकर महाबाहु भीम ने मदधार पर्वत और सोमधेय निवासियों को परास्त किया। इसके बाद बलवान् भीम ने उत्तराभिमुख यात्रा की और वत्सभूमि पर बलपूर्वक अधिकार जमा लिया। फिर क्रमश: भोगों के स्वामी, निषादों के अधिपति तथा मणिमान आदि बहुत से भूपालों को अपने अधिकार में कर लिया। तदनन्तर दक्षिण मल्लदेश तथा भोगवान पर्वत को भीमसेन ने अधिक प्रयास किये बिना ही वेगपूर्वक जीत लिया। शर्मक और वर्मकों को उन्होंने समझा बुझाकर ही जीत लिया। विदेह देश के राजा जनक को भी पुरुषसिंह भीम ने अधिक उग्र प्रयास किये बिना ही परास्त किया। फिर शकों और बर्बरों पर छल से विजय प्राप्त कर ली। विदेह देश में ही ठहरकर कुन्तीकुमार भीम ने इन्द्रपर्व तके निकटवर्ती सात किरात राजाओं को जीत लिया। इसके बाद सुह्य और प्रसुह्य देश के राजाओं को, जिनके पक्ष में बहुत लोग थे, अत्यन्त पराक्रमी और बलवान् कुन्तीकुमार भीम युद्ध में परास्त करके मगध देश को चल दिये। मार्ग में दण्ड-दण्डधार तथा अन्य राजाओं को जीतकर उन सबके साथ वे गिरिव्रज नगर में आये। वहाँ जरासंधकुमार सहदेव को सान्त्वना देकर उसे कर देने की शर्त पर उसी राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया और उन सबके साथ बलवान भीम ने कर्ण पर चढ़ाई की।

  पाण्डवश्रेष्ठ भीम ने पृथ्वी को कम्पित सी करते हुए चतुरंगिणी सेना साथ ले शत्रुघाती कर्ण के साथ युद्ध छेड़ दिया। भारत! उस युद्ध में कर्ण को परास्त करके अपने वश में कर लेने के पश्चात बलवान भम ने पर्वतीय राजाओं पर विजय प्रात की। तदनन्तर पाण्डुनन्दन भीमसेन ने मोदागिरि के अत्यन्त बलिष्ठ राजा को अपनी भुजाओं के बले से महासमर में मार गिराया। महाराज! तत्पश्चात भीमसेन पुण्डक देश के अधिपति महाबली वीर राजा वासुदेव के साथ, जो कोसी नदी के कछार में रहने वाले तथा महान् तेजस्वी थे, जो भिड़े। वे दोनों ही बलवान एवं दु:सह पराक्रम वाले वीर थे। भीम ने विपक्षी वासुदेव (पौण्ड्रक) को युद्ध में हराकर वंगदेश के राजा पर आक्रमण किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 24-30 का हिन्दी अनुवाद)

  तदनन्तर भरतश्रेष्ठ भीमसेन ने समुद्रसेन, भूपाल चन्द्रसेन, राजा ताम्रलिप्त, कर्वटाधिपति तथा सुह्म नरेश को जीतकर समुद्र के तट पर निवास करने वाले समस्त म्लेच्छों को भी अपने अधीन कर लिया।

  इस प्रकार पवनपुत्र बलावान् भीम ने बहुत से देशों पर अधिकार प्राप्त करके उन सबसे धन लेकर लौहित्य देश की यात्रा की। वहाँ उन्होंने समुद्र के टापुओं में रहने वाले बहुत से म्लेच्छ राजाओं को जीतकर उनसे कर के रूप में भाँति-भाँति के रत्न वसूल किये। इतना ही नहीं, उन राजाओं ने भीमसेन को चन्दन, अगर, वस्त्र, मणि, मोती, कम्बल, सोना, चाँदी और बहुमूल्य मूँगे भेंट किये।

   कुन्ती और पाण्डु के पुत्र महात्मा भीमसेन के पास उन्होंने करोड़ों की संख्या में धन रत्नों की वर्षा की (कर के रूप में धन रत्न प्रदान किये)। तदनन्तर भयानक पराक्रमी भीम ने इन्द्रप्रस्थ में आकर वह सारा धन धर्मराज को सौंप दिया।

"इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत दिग्विजयपर्व में भीम के द्वारा पूर्व दिशा की विजय से सम्बन्ध रखने वाला तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ"

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