सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) के इक्कीसवें अध्याय से पाक्कि पच्चीसवें अध्याय तक (From the 21 chapter to the 25 chapter of the entire Mahabharata (Sabha Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा, चैत्यक पर्वत शिखर और नगाड़ों को तोड़-फोड़कर तीनों का नगर एवं राजभवन में प्रवेश तथा श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद"

श्रीकृष्ण बोले ;- कुन्तीनन्दन! देखो, वह मगध देश की सुन्दर एवं विशाल राजधानी कैसी शोभा पा रही है। वहाँ पशुओं की अधिकता है। जल की भी सदा पूर्ण सुविधा रहती है। यहाँ भरा-पूरा यह नगर बड़ा मनोहर प्रतीत होता है। तात! यहाँ विहारोपयोगी विपुल, वराह, वृषभ (ऋषभ), ऋषिगिरि (मातंग) तथा पाँचवाँ चैत्यक नाम पर्वत है। बड़े बडे़ शिखर वाले ये पाँचों सुन्दर पर्वत शीतल छाया वाले वृक्षों से सुशोभित हैं और एक साथ मिलकर एक-दूसरे के शरीर का स्पर्श करते हुए मानो गिरिव्रज नगर की रक्षा कर रहे हैं। वहाँ लोध नामक वृक्षों के कई मनोहर वन हैं, जिनसे वे पाँचों पर्वत ढके हुए से जान पड़ते हैं। उनकी शाखाओं के अग्रभाग में फूल ही फूल दिखायी देते है। लोधों के ये सुगन्धित वन कामीजनों को बहुत प्रिय हैं। यहीं अत्यन्त कठोर व्रत का पालन करने वाले महामना गौतम ने उशीनर देश की शूद्रजातीय कन्या के गर्भ से काक्षीवान् आदि पुत्रों को उत्पन्न किया था। इसी कारण वह गौतम मुनि राजाओं के प्रेम से वहाँ आश्रम में रहता तथा मगधदेशीय राजवंश की सेवा करता है। अर्जुन! पूर्वकाल में अंग-वंग आदि महाबली राजा भी गौतम के घर में आकर आनन्दपूर्वक रहते थे।

   पार्थ! गौतम के आश्रम के निकट लहलहाती हुई पीपल और लोधों की इन सुन्दर एवं मनोरम वनपंक्तियों को तो देखा। यहाँ अर्बुद और शक्रवापी नाम वाले दो नाग रहते हैं, जो अपने शत्रुओं को संतप्त करने वाले हैं। यहीं स्वस्तिक नाग और मणि नाग के भी उत्तम भवन हैं। मनु ने मगध देश के निवासियों को मेघों के लिये अपरिहार्य (अनुग्राह्य) कर दिया है; (अतः वहाँ सदा ही बादल समय पर यथेष्ट वर्षा करते हैं)। चण्डकौशिक मुनि और मणिमान नाग भी मगध देश पर अनुग्रह कर चुके हैं। श्वेतवर्ण के वृषभ, विपुल, वाराह, गिरिश्रेष्ठ चैत्यक तथा मातंग गिरि- इन सभी श्रेष्ठ पर्वतों पर सम्पूर्ण सिद्धों के विशाल भवन हैं तथा यतियों, मुनियों और महात्माओं के बहुत से आश्रम हैं। वृषभ, महापराक्रमी तमाल, गन्धर्वों, राक्षसों तथा नागों के भी निवास स्थान उन पर्वतों की शोभा बढ़ाते हैं। इस प्रकार चारों ओर से दुर्धर्ष उस रमणीय नगर को पाकर जरासंध को यह अभिमान बना रहता है कि मुझे अनुपम अर्थसिद्धि प्राप्त होगी। आज हम लोग उसके घर पर ही चलकर उसका सारा घमंड हर लेंगे।

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसी बातें करते हुए वे सभी महातेजस्वी भाई श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन मगध की राजधानी में प्रवेश करने के लिये चल पड़े। वह नगर चारों वर्णों के लोगों से भरा-पूरा था। उसमें रहने वाले सभी लोग हष्ट-पुष्ट दिखायी देते थे। वहाँ अधिकाधिक उत्सव होते रहते थे। कोई भी उसको जीत नहीं सकता था। ऐसे गिरिव्रज के निकट वे तीनों जा पहुँचे। वे मुख्य फाटक पर न जाकर नगर के चैत्यक नामक ऊँचे पर्वत पर चले गये। उस नगर में निवास करने वाले मनुष्य तथा बृहद्रथ परिवार के लोग उस पर्वत की पूजा किया करते थे। मगध देश की प्रजा को यह चैत्यक पर्वत बहुत ही प्रिय था।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

  उस स्थान पर राजा बृहद्रथ ने (वृषभरूपधारी) ऋषभ नामक एक मांसभक्षी राक्षस से युद्ध किया और उसे मारकर उसकी खाल से तीन बड़े-बड़े नगाडे़ तैयार कराये, जिन पर चोट करने से महीने भर तक आवाज होती रहती थी। राजा ने उन नगाड़ों को उस राक्षस के ही चमडे़ से मढ़ाकर अपने नगर में रखवा दिया। जहाँ वे नगाड़े बजते थे, वहाँ दिव्य फूलों की वर्षा होने लगती थी। इन तीनों वीरों ने उपर्युक्त तीनों नगाड़ों को फोड़कर चैत्यक पर्वत के परकोटे पर आक्रमण किया। उन सबने अनेक प्रकार के आयुध लेकर द्वार के सामने मगध निवासियों के परम प्रिय उस चैत्यक पर्वत पर धावा किया था। जरासंध को मारने की इच्छा रखकर मानो वे उसके मस्तक पर आघात कर रहे थे। उस चैत्यक का विशाल शिखर बहुत पुराना, किंतु सुदृढ़ था। मगध देश में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। गन्ध और पुष्प की मालाओं से उसकी सदा पूजा की जाती थी। श्रीकृष्ण आदि तीनों वीरों ने अपनी विशाल भुजाओं से टक्कर मारकर उस चैत्यक पर्वत के शिखर को गिरा दिया।

   तदनन्तर वे अत्यन्त प्रसन्न होकर मगध की राजधानी गिरिव्रज के भीतर घुसे। इसी समय वेदों के पारगामी विद्वान् ब्राह्मणों ने अनेक अपशकुन देखकर राजा जरासंध को उनके विषय में सूचित किया। पुरोहितों ने राजा को हाथी पर बिठाकर उसके चारों ओर प्रज्वलित आग घुमायी। प्रतापी राजा जरासंध ने अनिष्ट की शान्ति के लिये व्रत की दीक्षा के नियमों का पालन करते हुए उपवास किया। भारत! इधर भगवान् श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन स्नातक व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों के वेष में अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग करके अपनी भुजाओं से ही आयुधों का काम लेते हुए जरासंध के साथ युद्ध करने की इच्छा रखकर नगर में प्रविष्ट हुए। उन्होंने खाने-पीने की वस्तुओं, फूल-मालाओं तथा अन्य आवश्यक पदार्थों की दुकानों से सजे हुए हाट-बाट की अपूर्व शोभा और सम्पदा देखी। नगर का वह वैभव बहुत बढ़ा-चढ़ा, सर्वगुण सम्पन्न तथा समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाला था।

   उस गली की अद्भुत समृद्धि को देखकर वे महाबली नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन एक माली से बलपूर्वक बहुत सी मालाएँ लेकर नगर की प्रधान सड़क से चलने लगे। उन सबके वस्त्र अनेक रंग के थे। उन्होंने गले में हार और कानों में चमकीले कुण्डल पहन रखे थे। वे क्रमशः बुद्धिमान् राजा जरासंध के महल के समीप जा पहुँचे। जैसे हिमालय की गुफाओं में रहने वाले सिंह गौओं का स्थान ढूँढते हुए आगे बढ़ते हों, उसी प्रकार वे तीनों वीर राजभवन की तलाश करते हुए वहाँ पहुँचे थे। महाराज! युद्ध में विशेष शोभा पाने वाले उन तीनों वीरों की भुजाएँ साखू के लट्ठे जैसी सुशोभित हो रहीं थी। उन पर चन्दन और अंगुरु का लेप किया गया था।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 29-46 का हिन्दी अनुवाद)

शाल वृक्ष के तने के समान ऊँचे डील और चौड़ी छाती वाले गजराज सदृश उन बलवान् वीरों को देखकर मगध निवासियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे नरश्रेष्ठ लोगों से भरी हुई तीन ड्योढ़ियों को पार करके निर्भय एवं निश्चिन्त हो बड़े अभिमान के साथ राजा जरासंध के निकट गये। वे पाद्य, मधुपर्क और गोदान पीने के योग्य थे। उनका सर्वत्र सत्कार होता था। उन्हें आया देख जरासंध उठकर खड़ा हो गया और उसने विधिपूर्वक उनका आतिथ्य सत्कार किया। तदनन्तर शक्तिशाली राजा ने इन तीनों अतिथियों से कहा,,

राजा बोले ;- ‘आप लोगों का स्वागत है।’ जनमेजय! उस समय अर्जुन और भीमसेन तो मौन थे। उनमें से महाबुद्धिमान् श्रीकृष्ण ने यह बात कही,,

श्रीकृष्ण बोले ;- ‘राजेन्द्र! ये दोनों एक नियम ले चुके हैं; अतः आधी रात से पहले नहीं बोलते। आधी रात के बाद ये दोनों आपसे बात करेंगे’। तब राजा उन्हें यज्ञशाला में ठहराकर स्वयं राजभवन में चला गया। फिर आधी रात होने पर जहाँ वे ब्राह्मण ठहरे थे, वहाँ वह गया। राजन्! उसका यह नियम भूमण्डल में विख्यात था। भारत! युद्धविजयी राजा जरासंध स्नातक ब्राह्मणों का आगमन सुनकर आधी रात के समय भी उनकी आवभगत के लिये उनके पास चला जाता था। उन तीनों को अपूर्व वेष में देखकर नृपश्रेष्ठ जरासंध को बड़ा विस्मय हुआ। वह उनके पास गया। भरतवंश शिरामणे! शत्रुओं का नाश करने वाले वे सभी नरश्रेष्ठ राजा जरासंध को देखते ही इस प्रकार बोले,,

राजा बोले ;- ‘महाराज! आपका कल्याण हो।’

  जनमेजय! ऐसा कहकर वे तीनों खडे़ हो गये तथा कभी राजा जरासंध को और कभी आपस में एक दूसरे को देखने लगे। राजेन्द्र! ब्राह्मणों के छद्मवेष में छिपे हुए उन पाण्डव तथा यादव वीरों को लक्ष्य करके जरासंध ने कहा,,

जरासंध बोला ;- ‘आप लोग बैठ जायँ’। फिर वे सभी बैठ गये। वे तीनों पुरुष सिंह महान् यज्ञ में प्रज्वलित तीन अग्नियों की भाँति अपनी अपूर्व शोभा से उद्भासित हो रहे थे। कुरुनन्दन! उस समय सत्यप्रतिज्ञ राजा जरासंध ने वेषग्रहण के विपरीत आचरण वाले उन तीनों की निन्दा करते हुए कहा,,

  जरासंध फिर बोला ;- ‘ब्राह्मणों! इस मानव जगत् में सर्वत्र प्रसिद्ध है कि स्नातक व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण समावर्तन आदि विशेष निमित्त के बिना माला और चन्दन नहीं धारण करते। मुझे भी अच्छी तरह मालूम है। आप लोग कौन है? आप के गले में फूलों की माला है और भुजाओं में धनुष की प्रत्यञ्चा की रगड़ का चिह्न स्पष्ट दिखायी देता है। आप लोग क्षत्रियोचित तेज धारण करते हैं, परंतु ब्राह्मण होने का परिचय दे रहें है। इस प्रकार भाँति-भाँति के रंगीन कपड़े पहने और अकारण माला तथा चन्दन लगाये हुए आप कौन हैं? सच बताइये। राजाओं में सत्य की ही शोभा होती है। चैत्यक पर्वत के शिखर को तोड़कर राजा का अपराध करके भी उससे भयभीत न हो छद्मवेष धारण किये द्वार के बिना ही इस नगर में जो आप लोग घुस आये हैं, इसका क्या कारण हैं? बताइये, ब्राह्मण के तो प्रायः वचन में ही वीरता होती है, उसकी क्रिया में नहीं। आप लोगों ने जो यह पर्वतशिखर तोड़ने का काम किया है, वह आपके वर्ण तथा वेष के सर्वथा विपरीत है, बताइये आपने आज क्या सोच रखा है?

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 47-54 का हिन्दी अनुवाद)

  ‘इस प्रकार मेरे यहाँ उपस्थित हो मेरे द्वारा विधिर्पूवक अर्पित की हुई इस पूजा को आप लोग ग्रहण क्यों नहीं करते हैं? फिर मेरे यहाँ आने का प्रयोजन ही क्या है?’ जरासंध के ऐसा कहने पर बोलने में चतुर महामना श्रीकृष्ण स्निग्ध एवं गम्भीर वाणी में इस प्रकार बोले,,

 श्रीकृष्ण ने कहा ;- 'राजन्! तुम हमें (वेष के अनुसार) स्नातक ब्राह्मण समझ सकते हो। वैसे तो स्नातक व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों के लोग होते हैं। इन स्नातकों में कुछ विशेष नियम का पालन करने वाले होते हैं और कुछ साधारण। विशेष नियम का पालन करने वाला क्षत्रिय सदा लक्ष्मी को प्राप्त करता है। जो पुष्प् धारण करने वाले हैं, उनमें लक्ष्मी का निवास ध्रुव है, इसीलिये हम लोग पुष्प मालाधारी हैं। क्षत्रिय का बल और पराक्रम उसकी भुजाओं में होता है, वह बोलने में वैसा वीर नहीं होता।

  बृहद्रथनन्दन! इसीलिये क्षत्रिय का वचन धृष्टतारहित (विनययुक्त) बताया गया है। विधाता ने क्षत्रियों का अपना बल उनकी भुजाओं में ही भर दिया है। राजन्! यदि आज उसे देखना चाहते हो, तो निश्चय ही देख लोगे। धीर मनुष्य शत्रु के घर में बिना दरवाजे के और मित्र के घर में दरवाजे से जाते हैं। शत्रु और मित्र के लिये ये धर्मतः द्वार बतलाये गये हैं। हम अपने कार्य से तुम्हारे घर आये हैं; अतः शत्रु से पूजा नहीं ग्रहण कर सकते। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। यह हमारा सनातन व्रत है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत जरासंध पर्व में श्रीकृष्ण जरासंध-संवाद-विषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"जरासंध और श्रीकृष्ण का संवाद तथा जरासंध की युद्ध के लिये तैयारी एवं जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर होने के कारण का वर्णन"

जरासंध बोला ;- ब्राह्मणो! मुझे याद नहीं आता कि कब मैंने आप लोगों के साथ वैर किया है? बहुत सोचने पर भी मुझे आपके प्रति अपने द्वारा किया हुआ अपराध नहीं दिखायी देता। विप्रगण! जब मुझ से अपराध ही नहीं हुआ है, तब मुझ निरपराध को आप लोग शत्रु कैसे मान रहे हैं? यह बताइये। क्या यही साधु पुरुषों का बर्ताव है? किसी के धर्म (और अर्थ) में बाधा डालने से अवश्य ही मन को बड़ा संताप होता है। जो धर्मज्ञ महारथी क्षत्रिय लोक में धर्म के विपरीत आचरण करता हुआ किसी निरपराध व्यक्ति पर दूसरों के धन और धर्म के नाश का दोष लगाता है, वह कष्टमयी गति को प्राप्त होता है और अपने को कल्याण से भी वंचित कर लेता है; इस में संशय नहीं है। सत्कर्म करने वाले क्षत्रियों के लिये तीनों लोकों में क्षत्रिय धर्म ही श्रेष्ठ है। धर्मज्ञ पुरुष क्षत्रिय के लिये अन्य धर्म की प्रशंसा नहीं करते। मैं अपने मन को वश में रखकर सदा स्वधर्म (क्षत्रिय धर्म) में स्थित रहता हूँ। प्रजाओं का भी कोई अपराध नहीं करता, ऐसी दशा में भी आप लोग प्रमाद से ही मुझे शत्रु या अपराधी बता रहे हैं।

श्रीकृष्ण ने कहा ;- महाबाहो! समूचे कुल में कोई एक ही पुरुष कुल का भार सँभालता है। उस कुल के सभी लोगों की रक्षा आदि का कार्य सम्पन्न करता है। जो वैसे महापुरुष हैं, उन्हीं की आज्ञा से हम लोग आज तुम्हें दण्ड देने को उद्यत हुए हैं। राजन्! तुम ने भूलोक निवासी क्षत्रियों को कैद कर लिया है। ऐसे क्रूर अपराध का आयोजन करके भी तुम अपने को निरपराध कैसे मानते हो? नृपश्रेष्ठ! एक राजा दूसरे श्रेष्ठ राजाओें की हत्या कैसे कर सकता है? तुम राजाओं को कैद करके उन्हें रुद्र देवता की भेंट चढ़ाना चाहते हो? बृहद्रथकुमार! तुम्हारे द्वारा किया हुआ यह पाप हम सब लोगों पर लागू होगा; क्योंकि हम धर्म की रक्षा करने में समर्थ और धर्म का पालन करने वाले हैं। किसी देवता की पूजा के लिये मनुष्यों का बध कभी नहीं देखा गया। फिर तुम कल्याणकारी देवता भगवान् शिव की पूजा मनुष्यों की हिंसा द्वारा कैसे करना चाहते हो? जरासंध! तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है, तुम भी उसी वर्ण के हो, जिस वर्ण के वे राजा लोग हैं। क्या तुम अपने ही वर्ण के लोगों को पशुनाम देकर उनकी हत्या करोगे? तुम्हारे जैसा क्रूर दूसरा कौन है? जो जिस-जिस अवस्था में जो-जो कर्म करता है, वह उसी-उसी अवस्था में उसके फल को प्राप्त करता है। तुम अपने ही जाति-भाइयों के हत्यारे हो और हम लोग संकट में पड़े हुए दीन-दुखियों की रक्षा करने वाले हैं; अतः सजातीय बन्धुओं की वृद्धि के उद्देश्य से हम तुम्हारा वध करने के लिये यहाँ आये हैं। राजन्! तुम जो यह मान बैठे हो कि इस जगत् के क्षत्रियों में मेरे समान दूसरा कोई नहीं है, यह तुम्हारी बुद्धि का बहुत बड़ा भ्रम है।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)

नरेश्वर! कौन ऐसा स्वाभिवानी क्षत्रिय होगा जो अपने अभिजन को (जातीय बन्धुओं की रक्षा परम धर्म है, इस बात को) जानते हुए भी युद्ध करके अनुपम एवं अक्षय स्वर्ग लोक में जाना नहीं चाहेगा? नरश्रेष्ठ! स्वर्ग प्राप्ति का ही उद्देश्य रखकर रणयज्ञ की दीक्षा लेने वाले क्षत्रिय अपने अभीष्ट लोकों पर विजय पाते हैं, यह बात तुम्हें भलीभाँति जाननी चाहिये। वेदाध्ययन स्वर्ग प्राप्ति का कारण है, परोपकार रूप महान् यश भी स्वर्ग का हेतु है, तपस्या को भी स्वर्ग लोक इन तीनों की अपेक्षा युद्ध में मृत्यु का वरण करना ही स्वर्ग प्राप्ति का अमोघ साधन है। क्षत्रिय का यह युद्ध में मरण इन्द्र का वैजयन्त नामक प्रासाद (राजमहल) है। यह सदा सभी गुणों से परिपूर्ण है। इसी युद्ध के द्वारा शतक्रतु इन्द्र असुरों को परास्त करके सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करते हैं। हमारे साथ जो तुम्हारा युद्ध होने वाला है, वह तुम्हारे लिये जैसा स्वर्ग लोक की प्राप्ति का साधक हो सकता है, वैसा युद्ध और किस को सुलभ है? मेरे पास बहुत बड़ी सेना एवं शक्ति है, इस घमंड में आकर मगधदेश की अगणित सेनाओं द्वारा तुम दूसरों का अपमान न करो।

राजन्! प्रत्येक मनुष्य में बल एवं पराक्रम होता है। महाराज! किसी में तुम्हारे समान तेज है तो किसी में तुमसे अधिक भी है। भूपाल! जब तक इस बात को नहीं जानते थे, तभी तक तुम्हारा घमंड बढ़ रहा था। अब तुम्हारा यह अभिमान हम लोगों के लिये असह्य हो उठा है, इसलिये मैं तुम्हें यह सलाह देता हूँ। मगधराज! तुम अपने समान वीरों के साथ अभिमान और घमंड करना छोड़ दो। इस घमंड को रखकर अपने पुत्र, मन्त्री और सेना के साथ यमलोक में जाने की तैयारी न करो। दम्भोद्भव, कार्तवीर्य अर्जुन, उत्तर तथा बृहद्रथ - ये सभी नरेश अपने से बड़ो का अपमान करके अपनी सेनासहित नष्ट हो गये। तुम से युद्ध की इच्छा रखने वाले हम लोग अवश्य ही ब्राह्मण नहीं हैं। मैं वसुदेवपुत्र हृषीकेश हूँ और ये दोनों पाण्डुपुत्र वीरवर भीमसेन और अर्जुन हैं। मैं इन दोनों के मामा का पुत्र और तुम्हारा प्रसिद्ध शत्रु श्रीकृष्ण हूँ। मुझे अच्छी तरह पहचान लो। मगधनरेश! हम तुम्हें युद्ध के लिये ललकारते हैं। तुम डटकर युद्ध करो। तुम या तो समस्त राजाओं को छोड़ दो अथवा यमलोक की राह लो।

जरासंध ने कहा ;- श्रीकृष्ण! मैं युद्ध में जीते बिना किन्हीं राजाओं को कैद करके यहाँ नहीं लाता हूँ। यहाँ कौन ऐसा शत्रु राजा है, जो दूसरों से अजेय होने पर भी मेरे द्वारा जीत न लिया गया हो? श्रीकृष्ण! क्षत्रिय के लिये तो यह धर्मानुकूल जीविका बतायी गयी है कि वह पराक्रम करके शत्रु को अपने वश में लाकर फिर उसके साथ मनमाना बर्ताव करे। श्रीकृष्ण! मैं क्षत्रिय के व्रत को सदा याद रखता हुआ देवता को बलि देने के लिये उपहार के रूप में लाये हुए इन राजाओं को आज तुम्हारे भय से कैसे छोड़ सकता हूँ?

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्वाविंश अध्याय के भाग-3 का हिन्दी अनुवाद)

  तुम्हारी सेना मेरी व्यूहरचनायुक्त सेना के साथ लड़ ले अथवा तुम में से कोई एक मुझ अकेले के साथ युद्ध करे अथवा मैं अकेला ही तुम में से दो या तीनों के साथ बारी-बारी से या एक ही साथ युद्ध कर सकता हूँ।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर भयानक कर्म करने वाले उन तीनों वीरों के साथ युद्ध की इच्छा रखकर राजा जरासंध ने अपने पुत्र सहदेव के राज्याभिषेक की आज्ञा दे दी। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर मगधनरेश ने वह युद्ध उपस्थित होने पर अपने सेनापति कौशिक और चित्रसेन का स्मरण किया (जो उस समय जीवित नहीं थे)। राजन्! ये वे ही थे, जिनके नाम पहले तुम से हंस और डिम्भक बताये हैं। मनुष्य लोक के सभी पुरुष उनके प्रति बड़े आदर भाव रखते थे। जनमेजय! मनस्वी पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी, वसुदेव पुत्र एवं बलराम के छोटे भाई भगवान् मधुसूदन ने दिव्य दृष्टि से स्मरण करके यह जान लिया था कि सिंह के पराक्रमी, बलवानों में श्रेष्ठ और भयानक पुरुषार्थ प्रकट करने वाला यह राजा जरासंध युद्ध में दूसरे वीर का भाग (वध्य) नियत किया गया है। यदुवंशियों में से किसी के हाथ से उसकी मृत्यु नहीं हो सकती, अतः ब्रह्मा जी के आदेश की रक्षा करने के लिये उन्होंने स्वयं उसे मारने की इच्छा नहीं की।

  जनमेजय ने पूछा ;- मुने! भगवान् श्रीकृष्ण और मगधराज जरासंध दोनों एक दूसरे के शत्रु क्‍यों हो गये थे? तथा यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण को युद्ध में कैसे परास्त किया? कंस मगधराज जरासंध का कौन था, जिसके लिये उसने भगवान् से वैर ठान लिया। वैशम्पायन जी! ये सब बातें मुझे यथार्थ रूप से बताइये।

वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन्! यदुकुल में परम बुद्धिमान् वसुदेव उत्पन्न हुए, जो वृष्णिवंश के राजकुमार तथा राजा उग्रसेन के विश्वसनीय मन्त्री थे। उग्रसेन का पुत्र बलवान् कंस हुआ, जो उनके अनेक पुत्रों में सबसे बड़ा था। कुरुनन्दन! कंस ने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की विद्या में निपुणता प्राप्त की थी। जरासंध की पुत्री उसकी सुप्रसिद्ध पत्नी थी, जिसे बुद्धिमान् जरासंध ने इस शर्त के साथ दिया था कि इसके पति को तत्काल राजा के पद पर अभिषिक्त किया जाय। इस शुक्ल की पूर्ति के लिये उग्रसेन के उस दुःसह पराक्रमी पुत्र को मन्त्रियों ने मथुरा के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। तब ऐश्वर्य के बल से उन्मत्त और शारीरिक शक्ति से मोहित हो कंस अपने पिता को कैद करके मन्त्रियों के साथ उनका राज्य भोगने लगा। मन्दबुद्धि कंस वसुदेव के कर्तव्य-विषयक उपदेश को नहीं सुनता था, तो भी उसके साथ रहकर वसुदेव जी मथुरा के राज्य का धर्मपूर्वक पालन करने लगे। दैत्यराज कंस ने अत्यन्त प्रसन्न होकर वसुदेव जी के साथ देवकी का ब्याह कर दिया, जो उग्रसेन के भाई देवक की पुत्री थी।

   जनमेजय! जब रथ पर बैठकर देवकी विदा होने लगी, तब राजा कंस भी उसे पहुँचाने के लिये वृष्णिवंशविभूषण वसुदेव के पास उस रथ पर जा बैठा। इसी समय आकाश में किसी देवदूत की वाणी स्पष्ट सुनायी देने लगी। वसुदेव जी ने तो उसे सुना ही, राजा कंस ने भी सुना।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्वाविंश अध्याय के भाग-4 का हिन्दी अनुवाद)

देवदूत कह रहा था ;- ‘कंस! आज तू जिस देवकी को रथ पर बिठाकर लिये जा रहा है, उसका आठवाँ गर्भ तेरी मृत्यु का कारण होगा’। यह आकाशवाणी सुनते ही अत्यन्त खोटी बुद्धि वाले राजा कंस ने म्यान से चमचमाती हुई तलवार खींच ली और देवकी का सिर काट लेने का विचार किया। राजन् उस समय परम बुद्धिमान् वसुदेव जी हँसते हुए क्रोध के वशीभूत हुए कंस को सान्त्वना दे उसकी अनुनय विनय करने लगे- ‘पृथ्वीपते! प्रायः सभी धर्मों में नारी को अवध्य बताया गया है। क्या तुम इस निर्बल एवं निरपराध नारी को सहसा मार डालोगे? राजन्! इससे जो तुम्हें भय प्राप्त होने वाला है, उसका तो तुम निवाराण कर सकते हो। तुम्हें इसकी रक्षा करनी चाहिये औैर मुझे इसकी प्राणरक्षा के लिये जो शर्त निश्चत हो, उसका पालन करना चाहिये। राजन् इसके आठवें गर्भ को तुम पैदा होते ही नष्ट कर देना। इस प्रकार तुम पर आयी हुई विपत्ति टल सकती है’।

   भरतनन्दन! वसुदेव जी के ऐसा कहने पर शूरसेन देश के राजा कंस ने उनकी बात मान ली। तदनन्तर देवकी के गर्भ से सूर्य के समान तेजस्वी अनेक कुमार क्रमशः उत्पन्न हुए। मथुरा नरेश कंस ने जन्म लेते ही उन सब को मार डालता था। तदनन्तर देवकी के उदर में सातवें गर्भ के रूप में बलदेव का आगमन हुआ। राजन्! यमराज ने यमसम्बन्धिनी माया के द्वारा उस अनुपम गर्भ को देवकी के उदर से निकालकर रोहिणी की कुक्षि में स्थापित कर दिया। आकर्षण होने के कारण उस बालक का नाम संकर्षण हुआ। बल में प्रधान होने से उसका नाम बलदेव हुआ। तत्पश्चात् देवकी के उदर में आठवें गर्भ के रूप में साक्षात् भगवान् मधुसूदन का आविर्भाव हुआ। राजा कंस ने बड़े यत्न से उस गर्भ की रक्षा की।

  तदनन्तर प्रसवकाल आने पर सात्वतवंशी वसुदेव पर कड़ी नजर रखने के लिये कंस ने उग्र स्वभाव वाले अपने क्रूरकर्मा मन्त्री को नियुक्त किया। परंतु बालस्वरूप श्रीकृष्ण के प्रभाव से रक्षकों के निद्रा से मोहित हो जाने पर वहाँ से उठकर महातेजरूवी वसुदेव जी बालक के साथ ब्रज में चले गये। नवजात वासुदेव को मथुरा से हटाकर पिता वसुदेव ने उसके बदले किसी गोप की पुत्री को लाकर कंस को भेंट कर दिया। देवदूत के कहे हुए पूर्वोक्त शब्द का स्मरण करके उसके भय से छूटने की इच्छा रखने वाले कंस ने उस कन्या को भी पृथ्वी पर दे मारा। परंतु वह कन्या उसके हाथ से छूटकर हँसती और आर्य शब्द उच्चारण करती हुई वहाँ से चली गयी। इसीलिये उसका नाम ‘आर्या’ हुआ। परम बुद्धिमान् वसुदेव ने इस प्रकार राजा कंस को चकमा देकर गोकुल में अपने महात्मा पुत्र वासुदेव का पालन कराया। वासुदेव भी पानी में कमल की भाँति गोपों में रहकर बड़े हुए। काठ में छिपी हुई अग्नि की भाँति वे अज्ञात भाव से वहाँ रहने लगे। कंस को उनका पता न चला। मथुरा नरेश कंस उन सब गोपों को बहुत सताया करता था। इधर महाबाहु श्रीकृष्ण बड़े होकर तेज और बल से सम्पन्न हो गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) द्वाविंश अध्याय के भाग-5 का हिन्दी अनुवाद)

  राजा के सताये हुए गोपगण भय तथा कामना से झुंड-के-झुंड एकत्र हो कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण को घेरकर संगठित होने लगे। राजन्! इस प्रकार बल का संग्रह करके महाबली वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने उग्रसेन की सम्मति के अनुसार समस्त भाइयों सहित भोजराज कंस को मारकर पुनः उग्रसेन को ही मथुरा के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। राजन्! जरासंध ने जब यह सुना कि श्रीकृष्ण ने कंस को युद्ध में मार डाला है, तब उसने कंस के पुत्र को शूरसेन का राजा बनाया।

   जनमेजय! उसने बड़ी भारी सेना लेकर आक्रमण किया और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को हराकर अपनी पुत्री के पुत्र को वहाँ राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। जनमेजय! प्रतापी जरासंध महान् बल और सैनिक शक्ति से सम्पन्न था। वह उग्रसेन तथा वृष्णिवंश को सदा क्लेश पहुँचाया करता था। कुरुनन्दन! जरासंध और श्रीकृष्ण के वैर का यही वृत्तान्त है। राजेन्द्र! समृद्धिशाली जरासंध कृत्तिवासा और त्र्यम्बक नामों से प्रसिद्ध देवश्रेष्ठ महादेव जी को भूमण्डल के राजाओं की बलि देकर उनका यजन करना चाहता था और इसी मनोवांछित प्रयोजन की सिद्धि के लिये उसने अपने जीते हुए समस्त राजाओं को कैद में डाल रखा था। भरतश्रेष्ठ! यह सब वृत्तान्त तुम्हें यथावत् बताया गया। अब जिस प्रकार भीमसेन ने राजा जरासंध का वध किया वह प्रसंग सुनो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत जरासंधवध पर्व में जरासंध का युद्ध के लिये उद्योगविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

तैईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"जरासंध का भीमसेन के साथ युद्ध का निश्चय, भीम और जरासंध का भयानक युद्ध और जरासंध की थकावट"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा जरासंध ने अपने मन में युद्ध का निश्चय कर लिया है, यह देख बोलने में कुशल यदुनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने उससे कहा। 

श्रीकृष्ण ने पूछा ;- राजन्! हम तीनों में से किस एक व्यक्ति के साथ युद्ध करने के लिये तुम्हारे मन में उत्साह हो रहा है? हममें से कौन तुम्हारे साथ युद्ध के लिये तैयार है? उनके इस प्रकार पूछने पर महातेजस्वी मगधनरेश राजा जरासंध ने भीमसेन के साथ युद्ध करना स्वीकार किया। जरासंध को युद्ध करने के लिये उत्सुक देख उसके पुरोहित गोरोचन, माला, अन्यान्य मांगलिक वस्तुएँ तथा उत्तम-उत्तम ओषधियाँ, जो पीड़ा के समय भी सुख देने वाली और मूर्च्छाकाल में भी होश बनाये रखने वाली थी, लेकर उसके पास आये। यशस्वी ब्राह्मण के द्वारा स्वस्तिवाचन सम्पन्न हो जाने पर जरासंध क्षत्रिय धर्म का स्मरण करके युद्ध के लिये कमर कसकर तैयार हो गया। जरासंध ने किरीट उतारकर केशों को कसकर बाँध लिया। तत्पश्चात वह युद्ध के लिये उठकर खड़ा हो गया, मानो महासागर अपनी मर्यादा- तटवर्तिनी भूमि को लाँघ जाने को उद्यत हो गया हो।

उस समय भयानक पराक्रम करने वाले बुद्धिमान राजा जरासंध ने भीमसेन से कहा,,

जरासंध बोला ;- 'भीम! आओ, मैं तुमसे युद्ध करूँगा, क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष से लड़कर हारना भी अच्छा है'। ऐसा कहकर महातेजस्वी शत्रुदमन जरासंध भीमसेन की ओर बढ़ा, मानो बल नामक असुर इन्द्र से भिड़ने के लिये बढ़ा जा रहा हो। तदनन्तर बलवान् भीमसेन भी श्रीकृष्ण से सलाह लेकर स्वस्तिवाचन के अनन्तर युद्ध की इच्छा से जरासंध के पास आ धमके। फिर तो मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष और उत्साह में भरकर एक दूसरे को जीतने की इच्छा से अपनी भुजाओं से ही आयुध का काम लेते हुए परस्पर भिड़ गये। पहले उन दोनों ने हाथ मिलाये। फिर एक दूसरे के चरणों का अभिवन्दन किया। तत्पश्चात् भुजाओं के मूलभाग के संचालन से वहाँ बंधे हुए वाजूबंद की डोर को हिलाते हुए वे दोनों वीर वहीं ताल ठोंकने लगे।

  राजन्! फिर वे दोनों हाथों से एक दूसरे के कंधे पर बार-बार चोट करते हुए अंग-अंग से भिड़कर आपस में गुँथ गये तथा एक दूसरे को बार-बार रगड़ने लगे। वे कभी हाथों को बड़े वेग से सिकोड़ लेते, कभी फैला देते, कभी ऊपर नीचे चलाते और कभी मुठ्ठी बाँध लेते। इस प्रकार चित्रहस्त आदि दाँव दिखाकर उन दोनों ने कक्षा-बन्ध का प्रयोग किया अर्थात एक-दूसरे की काख या कमर में दोनों हाथ डालकर प्रतिद्वन्द्वी को बाँध लेने की चेष्टा की। फिर गले में और गाल में ऐसे-ऐसे हाथ मारने लगे कि आग की चिनगारी सी निकलने लगी और वज्रपात का सा शब्द होने लगा। तत्पश्चात वे ‘बाहुपाश’ और ‘चरणपाश’ आदि दाँव पेंचों से काम लेते हुए एक दूसरे पर पैरों से ऐसा भीषण प्रहार करने लगे कि शरीर की नस नाड़ियाँ तक पीड़ित हो उठीं। तदनन्दर दोनों ने दोनों पर ‘पूर्णकुम्भ’ नाम दाँव लगाया (दोनों हाथों की अंगलियों को परस्पर गूँथकर उन हाथों की हथेलियों से शत्रु के सिर को दबाया) इसके बाद ‘उरोहस्त’ का प्रयोग किया (छाती पर थप्पड़ मारना शुरु कर दिया)।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

फिर एक दूसरे के हाथ दबाकर वे दोनों दो गजराजों की भाँति गर्जने लगे। दोनों ही भुजाओं से प्रहार करते हुए मेघ के समान गम्भीर स्वर में सिंहनाद करने लगे। थप्पड़ों की मार खाकर वे परस्पर घूर-घूरकर देखते और अत्यन्त क्रोध में भरे हुए दो सिंहों के समान एक दूसरे को खींच-खाँचकर लड़ने लगे। उस समय दोनों अपने अंगों और भुजाओं से प्रतिद्वन्द्वी के शरीर को दबाकर शत्रु की पीठ में अपने गले की हँसली भिड़ाकर उसके पेट को दोनों बाँहों से कर लेते और उठाकर दूसर फैंकते थे। इसी प्रकार कमर में और बगल में भी हाथ लगाकर दोनों प्रतिद्वन्द्वी को पछाड़ने की चेष्टा करते थे। अपने शरीर को सिकोड़कर शत्रु की पकड़ से छूट जाने की कला दोनों जानते थे। दोनों ही मल्लयुद्ध की शिक्षा में प्रवीध थे। वे उदर के नीचे हाथ लगाकर दोनों हाथों से पेट को लपेट लेते और विपक्षी को कण्ठ एवं छाती तक ऊँचे उठाकर धरती पर मारते थे। फिर वे सारी मर्यादाओं से ऊँचे उठे हुए ‘पृष्ठ भंग’ नामक दाँव पेंच से कमा लेने लगे (अर्थात् एक दूसरे की पीठ को धरती से लगा देने की चेष्टा में लग गये)। दोनों भुजाओं से सम्पूर्ण मूर्च्छा (उदर आदि में आघात करके मूर्च्छित करने का प्रयत्न) तथा पूर्वोक्त पूर्ण कुम्भ का प्रयोग करने लगे। तदनन्तर वे अपनी इच्छा के अनुसार ‘तृणपीड’ (रस्सी बनाने के लिये बटे जाने वाले तिनकों की भाँति हाथ पैर आदि को ऐंठना) तथा मुष्टि का घात सहित पूर्णयोग (मुक्के को एक अंग में मारने की चेष्टा दिखाकर दूसरे अंग में आघात करना) आदि युद्ध के दाँव पेंचों का प्रयोग एक दूसरे पर करने लगे।

  जनमेजय! उस समय उनका मल्लयुद्ध देखने के लिये हजारों पुरवासी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ एवं वृद्ध इकठ्ठे हो गये। मनुष्यों की अपार भीड़ से वह स्थान ठसाठस भर गया। उन दोनों की भुजाओं के आघात से तथा एक दूसरे के निग्रह-प्रग्रह से ऐसा भयंकर चटचट शब्द होता था, मानों वज्र और पर्वत परस्पर टकरा रहे हों। बलवानों में श्रेष्ठ वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष एवं उत्साह में भरे हुए थे और एक दूसरे की दुर्बलता या असावधानी पर दृष्टि रखते हुए परस्पर बलपूर्वक विजय पाने की इच्छा रखते थे। राजन्! उस समरभूमि में, जहाँ वृत्रासुर और इन्द्र की भाँति उन दोनों बलवान् वीरों में संघर्ष छिड़ा था, ऐसा भयंकर युद्ध हुआ कि दर्शक लोग दूर भाग खड़े हुए। वे एक-दूसरे को पीछे ढकेलते और आगे खींचते थे। बार बार खींचतान और छीना-झपटी करते थे। दोनों ने अपने प्रहार से एक दूरे के शरीर में खरौंच एवं घाव पैदा कर दिये और दोनों दोनों को पटकर कर घुटनों से मारने तथा रगड़ने लगे। फिर बड़े भारी गर्जन-तर्जन के द्वारा आपस में डाँट बताते हुए एक दूसरे पर ऐसे प्रहार करने लगे मानों पत्थरों की वर्षा कर रहे हों। दोनों की छाती चौड़ी और भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं। दोनों ही मल्लयुद्ध में कुशल थे और लोहे की परिघ जैसी मोटी भुजाओं को भिड़ाकर आपस में गुँथ जाते थे। कार्तिक मास के पहले दिन उन दोनों का युद्ध प्रारम्भ हुआ और दिन रात बिना खाये-पिये अविराम गति से चलता रहा।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 30-35 का हिन्दी अनुवाद)

   उन महात्माओं का वह युद्ध इसी रूप में त्रयोदशी तक होता रहा। चतुर्दशी की रात में मगधनरेश जरासंध क्लेश से थककर युद्ध से निवृत्त सा होने लगा। राजन्! उसे इस प्रकार थका देख भगवान श्रीकृष्ण भयानक कर्म करने वाले भीमसेन को समझाते हुए से बोले,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘कुन्तीनन्दन! शत्रु थक गया हो तो युद्ध में उसे अधिक पीड़ा देना उचित नहीं है। यदि उसे पूर्णत: पीड़ा दी जाये तो वह अपने प्राण त्याग देगा। अत: पार्थ! तम्हें राजा जरासंध को अधिक पीड़ा नहीं देनी चाहिये। भरतश्रेष्ठ! तुम अपनी भुजाओं द्वारा इनके साथ समभाव से ही युद्ध करो’।

  भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का नाश करने वाले पाण्डुकुमार भीमसेन ने जरासंध को थका हुआ जानकर उसके वध का विचार किया। तदनन्तर कुरुकुल को आनन्दित करने वाले बलवानों में श्रेष्ठ वृकोदर ने उस अपराजित शत्रु जरासंध को जीतने के लिये भारी क्रोध धारण किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत जरासंधवध पर्व में जरासंध की थकावट से सम्बन्ध रखने वाला तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"भीम के द्वारा जरासंध का वध, बंदी राजाओं की मुक्ति, श्रीकृष्ण आदि का भेंट लेकर इन्द्रप्रस्थ में आना और वहाँ से श्रीकृष्ण का द्वारका जाना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर भीमसेन ने विशाल बुद्धि का सहारा ले जरासंध के वध की इच्छा से यदुनन्दन श्रीकृष्ण को सम्बोधित करके कहा,,

भीमसेन बोले ;- ‘यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण! जरासंध ने लंगोट से अपनी कमर खूब कस ली है। यह पाली प्राण रहते मेरे वश में आने वाला नहीं जाना पड़ता’। उनके ऐसा कहने पर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने जरासंध के वध के लिये भमसेन को उत्तेजित करते हुए कहा,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘भीम! तुम्हारा जो सर्वोत्कृष्ट देवी स्वरूप है और तुम्हें वायुदेवता से जो दिव्य बल प्राप्त हुआ है, उसे आज हमारे सामने जरासंध पर शीघ्रतापर्वूक दिखाओ। यह खोटी बुद्धि वाला महारथी जरासंध तुम्हारे हाथों से ही मारा जा सकता है। यह बात आकाश में मुझे उसे समय सुनायी पड़ी थी जबकि बलराम जी के द्वारा जरासंध के प्राण लेने की चेष्टा की जा रही थी। इसीलिये गिरिश्रेष्ठ गोमन्त पर भैया बलराम ने इसे जीवित छोड़ दिया था, अन्यथा बलदेव जी के काबू में आ जाने पर इस जरासंध के सिवा दूसरा कौन जीवित बच सकता था? महाबली भीम! तुम्हारे सिवा और किसी के द्वारा इसकी मृत्यु नहीं होने वाली है। महाबाहो! तुम वायुदेव का चिन्तन करके इस मगधराज को मार डालो।' उनके इस तरह संकेत करने पर शत्रुओं का दमन करने वाले महाबली भीम ने उस समय बलवान् जरासंध को उठाकर आकाश में वेग से घुमाना आरम्भ किया। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने जरासंध का वध कराने की इच्छा से भीमसेन की ओर देखकर एक नरकट हाथ में लिया और उसे (दातुन की भाँति) दो टुकड़ों में चीर डाला (तथा उसे फेंक दिया)। यह जरासंध को मारने के लिये एक संकेत था।

  भरतश्रेष्ठ जनमेजय! (भीम ने उनके संकेत को समझ लिया और) उन्होंने सौ बार घुमाकर उसे धरती पर पटक दिया और उसकी पीठ को धनुष की तरह मोड़कर दोनों घुटनों की चोट से उसकी रीढ़ तोड़ डाली, फिर अपने शरीर की रगड़ से पीसते हुए भीम ने बड़े जोर से सिंहनाद किया। इसके बाद अपने एक हाथ से उसका एक पैर पकड़कर और दूसरे पैर पर अपना पैर रखकर महाबली भीम ने उसे दो खण्डों में चीर डाला। तब वे दोनों टुकड़े फिर से जुड़ गये और प्रतापी जरासंध भीम से भिड़कर बाहुयुद्ध करने लगा। उन दोनों वीरों का वह युद्ध अत्यन्त भयंकर ओर रोमांचकारी था। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो सम्पूर्ण जगत का संहार हो जायगा। वह इन्द्रयुद्ध सम्पूर्ण प्राणियों के भय को बढ़ाने वाला था। उसे समय भगवान श्रीकृष्ण ने पुन: एक नरकट लेकर पहले की ही भाँति चीरकर उसके दो टुकड़े कर दिये और उन दोनों टुकड़ों को अलग-अलग विपरीत दिशा में फेंक दिया। जरासंध के वध के लिये यह दूसरा संकेत था।

   भीमसेन ने उसे समझकर पुन: मगधराज को दो टुकड़ों में चीर डाला और पैर से ही उन दोनों टुकड़ों को विपरीत दिशाओं में करके फेंक दिया। इसके बाद वे विकट गर्जना करने लगे। राजन्! उस समय जरासंध का शरीर शवरूप होकर मांस के लोंदे सा जान पड़ने लगा। उसके शरीर के मांस, हड्डियाँ, मेदा और चमड़ा सभी सूख गये थे। मस्तिष्क और शरीर दो भागों में विदीर्ण हो गये थे। जब जरासंध रगड़ा जा रहा था और पाण्डुकुमार गर्ज गर्ज कर उसे पीसे डालते थे, उस समय भीमसेन की गर्जना और जरासंध की चीत्कार से जो तुमुल नाद प्रकट हुआ, वह समस्त प्राणियों को भयभीत करने वाला था। उसे सुनकर सभी मगधनिवासी भय से थर्रा उठे। स्त्रियों के तो गर्भ तक गिर गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 10-24 का हिन्दी अनुवाद)

  भीमसेन की गर्जना सुनकर मगध के लोग भयभीत होकर सोचने लगे कि ‘कहीं हिमालय पहाड़ तो नहीं फट पड़ा? कहीं पृथ्वी तो विदीर्ण नहीं हो रही है?’ तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले वे तीनों वीर रात में राजा जरासंध के प्राणहीन शरीर को सोते हुए के समान राजभवन के द्वार पर छोड़कर वहाँ से चल दिये। श्रीकृष्ण ने जरासंध के ध्वजा पताकामण्डित दिव्य रथ को जोत लिया और उस पर दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन को बिठाकर पहाड़ी खोह के पास जा वहाँ कैद में पड़े हुए अपने बान्धव स्वरूप समस्त राजाओं को छुड़ाया। उस महान् भय से छूटे हुए रत्नभोगी नरेशों ने भगवान श्रीकृष्ण से मिलकर उन्हें विविध रत्नों से युक्त कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण क्षतरहित और अस्त्र शस्त्रों से सम्पन्न थे। वे शत्रु पर विजय पा चुके थे, उस अवस्था में वे उस दिव्य रथ पर आरूढ़ हो कैद से छूटे हुए राजाओं के साथ गिरिव्रज नगर से बाहर निकले। उस रथ का नाम था सोदर्यवान्, उसमें दो महारथी योद्धा एक साथ बैठकर युद्ध कर सकते थे, इस समय भगवान श्रीकृष्ण उसके सारथि थे। उस रथ में बार-बार शत्रुओं पर आघात करने की सुविधा थी तथा वह दर्शनीय होने के साथ ही समस्त राजाओं के लिये दुर्जय था। भीम और अर्जुन- ये दो योद्धा उस रथ पर बैठे थे, श्रीकृष्ण सारथि का काम सँभाल रहे थे, सम्पूर्ण धनुर्धर वीरों के लिये भी उसे जीतना कठिन था।

  इन दोनों रथियों के द्वारा उस श्रेष्ठ रथ की ऐसी शोभा हो रही थी मानो इन्द्र और विष्णु एक साथ बैठकर तारकामय संग्राम में विचर रहे हों। वह रथ तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्तिमान् था। उसमें क्षुद्र घंटिकाओं से युक्त झालरें लगी थीं। उसकी घर्घराहट मेघ की गम्भीर गर्जना के समान जान पड़ती थी। वह शत्रुओं का विघातक और विजय प्रदान करने वाला था। उसी रथ पर सवार हो उसके द्वारा श्रीकृष्ण ने उस समय यात्रा की। यह वही रथ था, जिसके द्वारा इन्द्र ने निन्यानवे दानवों का वध किया था। उस रथ को पाकर वे तीनों नरश्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुए। तदनन्तर दोनों फुफेरे भाइयों के साथ रथ पर बैठे हुए महाबाहु श्रीकृष्ण को देखकर मगध के निवासी बड़े विस्मित हुए। वह रथ वायु के समान वेगशाली था, उसमें दिव्य घोड़े जुते हुए थे। भारत! श्रीकृष्ण के बैठ जाने से उस दिव्य रथ की बड़ी शोभा हो रही थी। उस उत्तम रथ पर देवनिर्मित ध्वज फहराता रहता था, जो रथ से अछूता था (रथ के साथ उसका लगाव नहीं था, वह बिना आधार के ही उसके ऊपर लहराया करता था)। इन्द्रधनुष के समान प्रकाशमान बहुरंगी एवं शोभाशाली वह ध्वज एक योजन दूर से ही दीखने लगता था। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने गरुड़ जी का स्मरण किया। गरुड़ जी उसी क्षण वहाँ आ गये। उस रथ की ध्वजा में बहुत से भूत मुँह बोय हुए विकट गर्जना करते रहते थे। उन्हीं के साथ सर्पभोजी गरुड़ जी भी उस श्रेष्ठ रथ पर स्थित हो गये। उनके द्वारा वह ध्वज ऊँचे उठे हुए चैत्य वृक्ष के समान सुशोभित हो गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 25-41 का हिन्दी अनुवाद)

  अब वह उत्तम ध्वज सहस्रों किरणों से आवृत मध्याह्न काल के सूर्य की भाँति अपने तेज से अधिक प्रकाशित होने लगा। प्राणियों के लिये उसकी ओर देखना कठिन हो गया। वह वृक्षोंं में कहीं अटकता नहीं था, अस्त्र-शस्त्रों द्वारा कटता नहीं था। राजन्! वह दिव्य और श्रेष्ठ ध्वज इस लोक के मनुष्यों को दृष्टिगोचर मात्र होता था। मेघ के समान गम्भीर घर्घर ध्वनि से परिपूर्ण उसी दिव्य रथ पर भीमसेन और अर्जुन के साथ बैठे हुए पुरुष सिंह भगवान् श्रीकृष्ण नगर से बाहर निकले। राजन्! इन्द्र से उस रथ को राजा वसु ने प्राप्त किया था। फिर क्रमश: वसु से बृहद्रथ को और बृहद्रथ से जरासंध को वह रथ मिला था। महायशस्वी कमलनयन महाबाहु श्रीकृष्ण गिरिव्रज से बाहर आ समतल भूमि पर खड़े हुए। जनमेजय! वहाँ ब्राह्मण आदि सभी नागरिकों ने शास्त्रीय विधि से उनका सत्कार एवं पूजन किया। कैद से छूटे हुए राजाओं ने भी मधुसूदन की पूजा की और उनकी स्तुति करते हुए इस प्रकार कहा- ‘महाबाहो! आप देवकी देवी को आनन्दित करने वाले साक्षात् भगवान् हैं, भीमसेन और अर्जुन का बल भी आपके साथ है। आपके द्वारा जो धर्म की रक्षा हो रही है, वह आप सरीखे धर्मावतार के लिये आश्चर्य की बात नहीं है।

  प्रभो! हम सब राजा दु:खरूपी पंक से युक्त जरासंध रूपी भयानक कुण्ड में डूब रहे थे, आपने जो आज हमारा यह उद्धार किया है, वह आपके योग्य ही है। विष्णो! अत्यन्त भयंकर पहाड़ी किले में कैद हो हम बड़े दु:ख से दिन काट रहे थे। यदुनन्दन! आपने हमें इस संकट से मुक्त करके अत्यन्त उज्ज्वल यश प्राप्त किया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। पुरुषसिंह! हम आपके चरणों में पड़े हैं। आप हमें आज्ञा दीजिये, हम क्या सेवा करें? कोई दुष्कर कार्य हो तो भी आपको यह समझना चाहिये मानो हम सब राजाओं ने मिलकर उसे पूर्ण कर ही दिया’। तब महामाना भगवान् हृषीकेश ने उन सबको आश्वासन देकर कहा- ‘राजाओ! धर्मराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं। धर्म में तत्पर रहते हुए ही उन्हें सम्राट् पद प्राप्त करने की इच्छा हुई है। इस कार्य में तुम सब लोग उनकी सहायता करो’। नृपश्रेष्ठ जनमेजय! तब उन सभी राजाओं ने प्रसन्नचित्त हो ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् की वह आशा शिरोधार्य कर ली। इतना ही नहीं, उन भूपालों ने दशार्हकुलभूषण भगवान को रत्न भेंट किये। भगवान् गोविन्द ने बड़ी कठिनाई से, उन सब पर कृपा करने के लिये ही, वह भेंट स्वीकार की। तदनन्तर जरासंध का पुत्र महामना सहदेव पुरोहित को आगे करके सेवकों और मन्त्रियों के साथ नगर से बाहर निकला। उसके आगे रत्नों का बहुत बड़ा भण्डार आ रहा था। सहदेव अत्यन्त विनीतभाव से चरणों में पड़कर नरदेव भगवान वासुदेव की शरण में आया था।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 42-50 का हिन्दी अनुवाद)

सहदेव बोला ;- पुरुषसिंह जनार्दन! महाबाहु पुरुषोत्तम! मेरे पिता ने जो अपराध किया है, उसे आप अपने हृदय से निकाल दें। गोविन्द! मैं आपकी शरण में आया हूँ। प्रभो! आप मुझ पर कृपा कीजिये। देवकीनन्दन! मैं अपने पिता का दाहसंस्कार करना चाहता हूँ। आपसे, भीमसेन से तथा अर्जुन से आज्ञा लेकर वह कार्य करूँगा और आपकी कृपा से निर्भय हो इच्छानुसार सुखपूर्वक विचरूँगा।

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! सहदेव के इस प्रकार निवेदन करने पर देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण तथा महारथी भीमसेन और अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए। उन सबने एक स्वर से कहा,,

श्री कृष्ण ,भीम व अर्जुन बोले ;- ‘राजन्! तुम अपने पिता का अन्त्येष्टि संस्कार करो।’ भगवान् श्रीकृष्ण तथा दोनों कुन्तीकुमारों का यह आदेश सुनकर मगधराजकुमार ने मंत्रियों के साथ शीघ्र ही नगर में प्रवेश किया। फिर चन्दन की लकड़ी तथा केशर, देवदारु और काला अगुरु आदि सुगन्धित काष्ठों से चिता बनाकर उस पर मगधराज का शव रखा गया। तत्पश्चात जलती चिता में दग्ध होते हुए मगधराज के शरीर पर नाना प्रकार के चन्दनादि सुगन्धित तैल और घी की धाराएँ गिरायी गयीं। सब ओर से अक्षत और फूलों की वर्षा की गयी। शवदाह के पश्चात सहदेव ने अपने छोटे भाई के साथ पिता के लिये जलाजंलि दी। इस प्रकार पिता का पारलौकिक कार्य करके राजकुमार सहदेव नगर से निकलकर उस स्थान में गया, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण तथा महाभाग पाण्डुपुत्र भीमसेन और अर्जुन विद्यमान थे। उसने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण से कहा।

सहदेव ने कहा ;- प्रभो! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत से रत्न, हथी-घोड़े और नाना प्रकार के वस्त्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिर को दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझ सवा के लिये आदेश दीजिये। वह भय से पीड़ित हो रहा था, पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने उसे अभयदान देकर उसके लाये हुए बहुमूल्य रत्नों की भेंट स्वीकार कर ली। तत्पश्चात जरासंधकुमार को प्रसन्नतापूर्वक वहीं पिता के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। श्रीकृष्ण ने सहदेव को अपना अभिन्न सुहृद् बना लिया, इसलिये भीमसेन और अर्जुन ने भी उसका बड़ा सत्कार किया।

   राजन्! उन महात्माओं द्वारा अभिषिक्त हो महाबाहु जरासंधपुत्र तेजस्वी राजा सहदेव अपने पिता के नगर में लौट गया। और पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने सर्वाेत्तम शोभा से सम्पन्न हो प्रचुर रत्नों की भेंट ले दोनों कुन्तीकुमारों के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। भीमसेन और अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ में आकर भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर से मिले और अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘नृपश्रेष्ठ! सौभाग्य की बात है कि महाबली भीमसेन ने जरासंध को मार गिराया और समस्त राजाओं को उसकी कैद से छुड़ा दिया। भारत! भाग्य से ही ये दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन अपने नगर में पुन: सकुशल लौट आये और इन्हें कोई क्षति नहीं पहुँची’। तब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण का यथायोग्य सत्कार करके भीमसेन और अर्जुन को भी प्रसन्नतापूर्वक गले लगाया। तदनन्तर जरासंध के नष्ट होने पर अपने दोनों भाईयों द्वारा की हुई विजय को पाकर अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर भाईयों सहित आनन्दमग्न हो गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 51-60 का हिन्दी अनुवाद)

फिर धर्मराज ने हर्ष में भरकर भगवान् श्रीकृष्ण से कहा,,

 युधिष्ठिर बोले ;- पुरुषसिंह जनार्दन! आपका सहारा पाकर ही भीमसेन ने बल के अभिमान से उन्मत्त रहने वाले प्रतापी मगधराज जरासंध को मार गिराया है। अब मैं निश्चिन्त होकर यज्ञों में श्रेष्ठ राजसूय का शुभ अवसर प्राप्त करूँगा। प्रभो! आपके बुद्धि बल का सहारा पाकर मैं यज्ञ करने योग्य हो गया। पुरुषोत्तम! इस युद्ध से भूमण्डल में आपके यश का विस्तार हुआ। जरासंध के वध से ही आपको प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त हुई है।

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर कुंतीनन्दन युधिष्ठिर ने भगवान को श्रेष्ठ रथ प्रदान किया। जरासंध के उस रथ को पाकर गोविन्द बड़े प्रसन्न हुए और अर्जुन के साथ उसमें बैठकर बड़े हर्ष का अनुभव करने लगे। धर्मराज युधिष्ठिर के उस भेंट को अंगीकार करके उन्हें बड़ा संतोष हुआ। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर भाईयों के साथ जाकर समस्त राजाओं से उनकी अवस्था के अनुसार क्रमश: मिले, फिर उन सबका यथायोग्य सत्कार एवं पूजन करके उन्होंने सभी नरपतियों को विदा कर दिया। राजा युधिष्ठिर की आज्ञा ले वे सब नरेश मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न हो अनेक प्रकार की सवारियों द्वारा शीघ्रतापूर्वक अपने अपने देश को चले गये।

   जनमेजय! इस प्रकार महाबुद्धिमान पुरुषसिंह जनार्दन ने उस समय पाण्डवों द्वारा अपने शत्रु जरासंध का वध करवाया। भारत! जरासंध को बुद्धिपूर्वक मरवाकर शत्रुदमन श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर, कुन्ती तथा द्रौपदी से आज्ञा ले, सुभद्रा, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा धौम्य जी से भी पूछकर धर्मराज के दिये हुए उसी मन के समान वेगशाली दिव्य एवं उत्तम रथ के द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजाते हुए अपनी द्वारकापुरी को चले गये। भरतश्रेष्ठ! जाते समय युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवों ने अनायास ही सब कार्य करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण की परिक्रमा की। भारत! महान् विजय को प्राप्त करके और जरासंध के द्वारा कैद किये हुए उन रजाओं को अभयदान देकर देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के चले जाने पर उक्त कर्म के द्वारा पाण्डवों के यश का बहुत विस्तार हुआ और वे पाण्डव द्रौपदी की भी प्रीति को बढ़ाने लगे। उस समय धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि के लिये जो उचित कर्तव्य था, उनका राजा युधिष्ठिर ने धर्मपूर्वक पालन किया। वे प्राजाओं की रक्षा करने के साथ ही उन्हें धर्म का उपदेश भी देते रहते थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत जरासंधवध पर्व में जरासंधवध-विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) पंचविश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन आदि चारों भाइयों की दिग्विजय के लिये यात्र"

वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! अर्जुन श्रेष्ठ धनुष, दो विशाल एवं अक्षय तूणीर, दिव्य रथ, ध्वज और अद्भुत सभाभवन पहले ही प्राप्त कर चुके थे, अब वे युधिष्ठिर से बोले। 

अर्जुन ने कहा ;- राजन्! मुझे धनुष, अस्त्र, बाण, पराक्रम, श्रीकृष्ण जैसे सहायक, भूमि (राज्य एवं इन्द्रप्रस्थ का दुर्ग), यश और बल- ये सभी दुर्लभ एवं मनोवान्छित वस्तुएँ प्राप्त हो चुकी हैं। नृपश्रेष्ठ! अब मैं अपने कोष को बढ़ाना ही आवश्यक कार्य समझता हूँ। मेरी इच्छा है कि समस्त राजाओं को जीतकर उनसे कर वसूल करूँ। आपकी आज्ञा हो तो उत्तम तिथि, मुहूर्त और नक्षत्र में कुबेर द्वारा पालित उत्तम दिशा को जीतने के लिये प्रस्थान करूँ।' यह सुनकर भाइयों सहित कुरुश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर को बड़ी प्रसन्नता हुई। साथ ही मन्त्रियों तथा व्यास, धौम्य आदि महर्षियों को बड़ा हर्ष हुआ। तत्पश्चात परम बुद्धिमान व्यास जी ने अर्जुन से कहा।

व्यास जी बोले ;- कुन्तीनन्दन! मैं तुम्हें बारंबार साधुवाद देता हूँ। सौभाग्य से तुम्हारी बुद्धि में ऐसा संकल्प हुआ है। तुम सारी पृथ्वी को अकेले ही जीतने के लिये उत्साहित हो रहे हो। राजा पाण्डु धन्य थे, जिनके पुत्र तुम ऐसे पराक्रमी निकले। तुम्हारे पराक्रम से धर्मपुत्र धर्मात्मा महाराज युधिष्ठिर सब कुछ पा लेंगे। सार्वभौम सम्राट के पद पर प्रतिष्ठित होंगे। तुम्हारे बाहुबल का सहारा पाकर ये राजसूय यज्ञ पूर्ण कर लेंगे। भगवान श्रीकृष्ण की उत्तम नीति, भीम और अर्जुन के बल तथा नकुल और सहदेव के पराक्रम से धर्मराज युधिष्ठिर को सब कुछ प्राप्त हो जायगा। इसलिये अर्जुन! तुम तो देवताओं द्वारा सुरक्षित उत्तर दिशा की यात्रा करो, क्योंकि देवताओं को जीतकर वहाँ से बलपूर्वक रत्न ले आने में तुम्हीं समर्थ हो। अपने बल द्वारा दूसरों से होड़ लेने वाले भरतकुलभूषण भीमसेन पूर्व दिशा की यात्रा करें। महारथी सहदेव दक्षिण दिशा की और प्रस्थान करें और नकुल वरुणपालि पश्चिम दिशा पर आक्रमण करें। भरतश्रेष्ठ पाण्डवो! मेरी बुद्धि का ऐसा ही निश्चय है। तुम लोग इसका पालन करो।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! व्यास जी की यह बात सुनकर पाण्डवों ने बड़े हर्ष के साथ कहा। 

पाण्डव बोले ;- मुनिश्रेष्ठ! आप जैसी आज्ञा देते हैं वैसा ही हो।

 वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन की पूर्वोक्त बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर स्नेहयुक्त गम्भीर वाणी में उनसे इस प्रकार बोले,,

युधिष्ठिर बोले ;- ‘भरतकुलभूषण! पूजनीय ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर यात्रा करो। तुम्हारी यह यात्रा शत्रुओं का शोक और सुहृदों का आनन्द बढ़ाने वाली हो। पार्थ! तुम्हारी विजय सुनिश्चित है, तुम अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त करोगे’। उनके इस प्रकार आदेश देने पर कुन्तीपुत्र अर्जुन विशाल सेना के साथ अग्नि के दिये हुए अद्भुतकर्मा दिव्य रथ द्वारा वहाँ से प्रस्थित हुए। इसी प्रकार भीमसेन तथा नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव इन सभी भाइयों ने धर्मराज से सम्मानित हो सेनाओं के साथ दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया। राजन्! इन्द्रकुमार अर्जुन ने कुबेर की प्रिय उत्तर दिशा पर विजय पायी। भीमसेन ने पूर्व दिशा, सहदेव ने दक्षिण दिशा तथा अस्त्रवेत्ता नकुल ने पश्चिम दिशा को जीता। केवल धर्मराज युधिष्ठिर सुहृदों से घिरे हुए अपनी उत्तम राजलक्ष्मी के साथ खाण्डवप्रस्थ में रह गये थे।

(इस प्रकार श्री महाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व में दिग्विजय का संक्षिप्त वर्णन-विषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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