सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)
सोलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"जरासंध को जीतने के विषय में युधिष्ठिर के उत्साहहीन होने पर अर्जुन का उत्साहपूर्ण उद्गार"
युधिष्ठिर बोले ;- श्रीकृष्ण! मैं सम्राट के गुणों को प्राप्त करने की इच्छा रखकर स्वार्थ साधना में तत्पर हो केवल साहस के भरोसे आप लोगों को जरासंध के पास कैसे भेज दूँ? भीमसेन और अर्जुन मेरे दोनों नेत्र हैं और जनार्दन आपको मैं अपना मन मानता हूँ। अपने मन और नेत्रों को खो देने पर मेरा यह जीवन कैसा हो जायगा? जरासंध की सेना का पार पाना कठिन है। उसका पराक्रम भयानक है। युद्ध में उस सेना का सामना करके यमराज भी विजयी नहीं हो सकते, फिर वहाँ आप लोगों का प्रयत्न क्या कर सकता है? आप लोग किस प्रकार उसे जीतकर फिर हमारे पास लौट सकेंगे? यह कार्य हमारे लिये इष्ट फल के विपरीत फल देने वाला जान पड़ता है। इसमें लगे हुए मनुष्य को निश्चय ही अनर्थ की प्राप्ति होती है। इसलिये अब तक हम जिसे करना चाहते थे, उस राजसूय यज्ञ की ओर ध्यान देना उचित नहीं जान पड़ता। जनार्दन! इस विषय में मैं अकेले जैसा सोचता हूँ, मेरे उस विचार को आप सुनें। मुझे तो इस कार्य को छोड़ देना ही अच्छा लगता है। राजसूय का अनुष्ठान बहुत कठिन है। अब यह मेरे मन को निरूत्साह कर रहा है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुन्तीनन्दन अर्जुन उत्तम गाण्डीव धनुष, दो अक्षय तूणीर, दिव्य रथ, ध्वजा और सभा प्राप्त कर चुके थे; इससे उत्साहित होकर वे युधिष्ठिर से बोले।
अर्जुन ने कहा ;- राजन्! धनुष, शस्त्र, बाण, पराक्रम, श्रेष्ठ सहायक, भूमि, यश और बल की प्राप्ति बड़ी कठिनाई से होती है; किंतु ये सभी दुर्लभ वस्तुएँ मुझे अपनी इच्छा के अनुकूल प्राप्त हुई हैं। अनुभवी विद्वान् उत्तम कुल में जन्म की बड़ी प्रशंसा करते हैं; परंतु बल के समान वह भी नहीं है। मुझे तो बल-पराक्रम ही श्रेष्ठ जान पड़ता है। महापराक्रमी राजा कृतवीर्य के कुल में उत्पन्न होकर भी जो स्वयं निर्बल है, वह क्या करेगा? निर्बल कुल में जन्म लेकर भी जो बलवान् और पराक्रमी है, वही श्रेष्ठ है। महाराज! शत्रुओं को जीतने में जिसकी प्रवृत्ति हो, वह सब प्रकार से श्रेष्ठ क्षत्रिय है। बलवान् पुरुष सब गुणों से हीन हो, तो भी वह शत्रुओें के संकट से पार हो सकता है। जो निर्बल है, वह सर्वगुण सम्पन्न होकर भी क्या करेगा? पराक्रम में सभी गुण उसके अंग बनकर रहते हैं। महाराज! सिद्धि (मनोयोग) और प्रारब्ध के अनुकूल पुरुषार्थ ही विजय का हेतु है। कोई बल से संयुक्त होने पर भी प्रमाद करे- कर्तव्य में मन न लगावे, तो वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता।
प्रमाद रूप छिद्र के कारण बलवान् शत्रु भी अपने शत्रुओं द्वारा मारा जाता है। बलवान् पुरुष में जैसे दीनता का होना बड़ा भारी दोष है, वैसे ही बलिष्ठ पुरुष में मोह का होना भी महान् दुर्गुण है। दीनता और मोह दोनों विनाश के कारण हैं; अतः विजय चाहने वाले राजा के लिये वे दोनों ही त्याज्य हैं। यदि हम राजसूय यज्ञ की सिद्धि के लिये जरासंध का विनाश तथा कैद में पड़े हुए राजाओं की रक्षा कर सकें तो इस से उत्तम और क्या हो सकता है? यदि हम यज्ञ का आरम्भ नहीं करते हैं तो निश्चय ही हमारी अयोग्यता एवं दुर्बलता प्रकट होती है; अतः राजन्! सुनिश्चित गुण की उपेक्षा करके आप निर्गुणता का कलंक क्यों स्वीकार कर रहे हैं? ऐसा करने पर तो शान्ति की इच्छा रखने वाले संन्यासियों का गेरूआ वस्त्र ही हमें सुलभ होगा, परंतु हम लोग साम्राज्य को प्राप्त करने में समर्थ हैं; अतः हम लोग शत्रुओं से अवश्य युद्ध करेगें।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयारम्भ पर्व में जरासंध वध के लिये मन्त्रणा विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)
सत्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन तथा युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना"
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा ;- राजन्! भरतवंश में उत्पन्न पुरुष और कुन्ती -जैसी माता के पुत्र की जैसी बुद्धि होनी चाहिये, अर्जुन ने यहाँ उसी का परिचय दिया है। महाराज! हम लोग यह नहीं जानते कि मौत कब आयेगी? रात में आयेगी या दिन में? (क्योंकि उसके नियत समय का ज्ञान किसी को नहीं है।) हमने यह भी नहीं सुना है कि युद्ध न करने के कारण कोई अमर हो गया हो। अतः वीर पुरुषों का इतना ही कर्तव्य है कि वे अपने हृदय के संतोष लिये नीतिशास्त्र में बतायी हुई नीति के अनुसार शत्रुओं पर आक्रमण करें। दैव आदि की प्रतिकूलता से रहित अच्छी नीति एवं सलाह प्राप्त होने पर आरम्भ किया हुआ कार्य पूर्ण रूप से सफल होता है। शत्रु के साथ भिड़ने पर ही दोनों पक्षों का अन्तर ज्ञात होता है। दोनों दल सभी बातों में समान ही हों, ऐसा सम्भव नहीं। जिसने अच्छी नीति नहीं अपनायी है और उत्तम उपाय से काम नहीं लिया है, उसका युद्ध में सर्वथा विनाश होता है। यदि दोनों पक्षों में समानता हो, तो संशय ही रहता है तथा दोनों में से किसी की भी जय अथवा पराजय नहीं होती।
जब हम लोग नीति का आश्रय लेकर शत्रु के शरीर के निकट तक पहुँच जायँगे, तब जैसे नदी का वेग किनारे के वृक्ष को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार हम शत्रु का अन्त क्यों न कर डालेंगे? हम अपने छिद्रों को छिपाये रखकर शत्रु के छिद्र को देखेंगे और अवसर मिलते ही उस पर बलपूर्वक आक्रमण कर देंगे। जिनकी सेनाएँ मोर्चा बाँधकर खड़ी हों और जो अत्यन्त बलवान् हों, ऐसे शत्रुओं के साथ (सम्मुख होकर) युद्ध नहीं करना चाहिये; यह बुद्धिमानों की नीति है। यही नीति यहाँ मुझे भी अच्छी लगती है। यदि हम छिपे-छिपे शत्रु के घर तक पहुँच जायँ तो यह हमारे लिये कोई निन्दा की बात नहीं होगी। फिर हम शत्रु के शरीर पर आक्रमण करके अपना काम बना लेंगे। यह पुरुषों में श्रेष्ठ जरासंध प्राणियों के भीतर स्थित आत्मा की भाँति सदा अकेला ही साम्राज्य लक्ष्मी का उपभोग करता है; अतः उसका और किसी उपाय से नाश होता नहीं दिखायी देता (उसके विनाश के लिये हमें स्वयं प्रयन्न करना होगा)। अथवा यदि जरासंध को युद्ध में मारकर उसके पक्ष में रहने वाले शेष सैनिकों द्वारा हम भी मारे गये, तो भी हमें कोई हानि नहीं है। अपने जाति भाइयों की रक्षा में संलग्न होने के कारण हमें स्वर्ग की ही प्राप्ति होगी।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- श्रीकृष्ण! यह जरासंध कौन है? उसका बल और पराक्रम कैसा है? जो प्रज्वलित अग्नि के समान आपका स्पर्श करके भी पतंग के समान जलकर भस्म नहीं हो गया? श्रीकृष्ण ने कहा- राजन्! जरासंध का बल और पराक्रम कैसा है तथा अनेक बार हमारा अप्रिय करने पर भी हम लोगों ने क्यों उसकी उपेक्षा कर दी, यह सब बता रहा हूँ , सुनिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद)
मगध देश में बृहद्रथ नाम से प्रसिद्ध एक बलवान् राजा राज्य करते थे। वे तीन अक्षौहिणी सेनाओं के स्वामी और युद्ध में बड़े अभिमान के साथ लड़ने वाले थे। राजा बृहद्रथ बड़े ही रूपवान्, बलवान्, धनवान् और अनुपम पराक्रमी थे। उनका शरीर दूसरे इन्द्र की भाँति सदा यज्ञ की दीक्षा के चिह्नों से ही सुशोभित होता रहता था। वे तेज में सूर्य, क्षमा में पृथ्वी, क्रोध में यमराज और धन सम्पत्ति में कुबेर के समान थे। भरतश्रेष्ठ! जैसे सूर्य की किरणों से यह सारी पृथ्वी आच्छादित हो जाती है, उसी प्रकार उनके उत्तम कुलोचित सद्गुणों से समस्त भूमण्डल व्याप्त हो रहा था- सर्वत्र उनके गुणों की चर्चा एवं प्रशंसा होती रहती थी। भरतकुलभूषण! महापराक्रमी राजा बृहद्रथ ने काशिराज की दो जुड़वीं कन्याओं के साथ, जो अपनी रूप सम्पत्ति से अपूर्व शोभा पा रही थीं, विवाह किया और उन नरश्रेष्ठ ने एकान्त में अपनी दोनों पत्नियों के समीप यह प्रतिज्ञा की कि मैं तुम दोनों के साथ कभी विषय व्यवहार नहीं करूँगा (अर्थात् दोनों के प्रति समान रूप से मेरा प्रेम भाव बना रहेगा)। जैसे दो हथिनियों के साथ गजराज सुशोभित होता है, उसी प्रकार वे महाराज बृहद्रथ अपने मन के अनुरूप दोनों प्रिय पत्नियों के साथ शोभा पाने लगे। जब वे दोनों पत्नियों के बीच में विराजमान होते, उस समय ऐसा जान पड़ता, मानो गंगा और यमुना के बीच में मूर्तिमान् समुद्र सुशोभित हो रहा हो। विषयों में डूबे राजा की सारी जवानी बीत गयी, परंतु उन्हें कोई वंश चलाने वाला पुत्र नहीं प्राप्त हुआ।
उन श्रेष्ठ नरेश ने बहुत-से मांगलिक कृत्य, होम और पुत्रेष्टि यज्ञ कराये, तो भी उन्हें वंश की वृद्धि करने वाले पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन उन्होंने सुना कि गौतम गौत्रीय महात्मा काक्षीवान् के पुत्र परम उदार चण्डकौशिक मुनि तपस्या से उपरत होकर अकस्मात् इधर आ गये हैं और एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। यह समाचार पाकर राजा बृहद्रथ अपनी दोनों पत्नियों (एवं पुरवासियों) के साथ उनके पास गये तथा सब प्रकार के रत्नों (मुनिजनोचित उत्कृष्ट वस्तृओं) की भेंट देकर उन्हें संतुष्ट किया। महर्षि ने भी यथोचित बर्ताव द्वारा बृहद्रथ को प्रसन्न किया। उन महात्मा की आज्ञा पाकर राजा उनके निकट बैठे।
उस समय ब्रह्मर्षि चण्डकौशिक ने उन से पूछा ;- ‘राजन्! अपनी दोनों पत्नियों और पुरवासियों के साथ यहाँ तुम्हारा आगमन किस उद्देश्य से हुआ है?’
तब राजा ने मुनि से कहा ;- ‘भगवान्! मेरे कोई पुत्र नहीं है। मुनि श्रेष्ठ! लोग कहते हैं कि पुत्रहीन मनुष्य का जन्म व्यर्थ है। इस बुढ़ापे में पुत्र हीन रहकर मुझे राज्य से क्या प्रयोजन है? इसलिये अब मैं दोनों पत्नियों के साथ तपोवन रहकर तपस्या करूँगा। मुने! संतानहीन मनुष्य को न तो इस लोक में कीर्ति प्राप्त होती है और न परलोक में अक्षय स्वर्ग ही प्राप्त होती है।’ राजा के ऐसा कहने पर महर्षि को दया आ गयी। तब धैर्य से सम्पन्न और सत्यवादी मुनिवर चण्डकौशिक ने राजा बृहद्रथ से कहा,,
महर्षि चण्डकौशिक बोले ;- ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजेन्द्र! मैं तुम पर संतुष्ट हूँ। तुम इच्छानुसार वर माँगो।’ यह सुनकर राजा बृहद्रथ अपनी दोनों रानियों के साथ मुनि के चरणों में पड़ गये और पुत्र दर्शन से निराश होने के कारण नेत्रों से आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी में बोले।
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 26-39 का हिन्दी अनुवाद)
राजा ने कहा ;- भगवान्! मैं तो अब राज्य छोड़कर तपोवन की ओर चल पड़ा हूँ। मुझ अभागे और संतानहीन को वर अथवा राज्य की क्या आवश्यकता?
श्रीकृष्ण कहते हैं ;- राजा का यह कातर वचन सुनकर मुनि की इन्द्रियाँ क्षुब्ध हो गयीं (उनका हृदय पिघल गया)। तब वे ध्यानस्थ हो गये और उसी आम्रवृक्ष की छाया में बैठे रहे। उसी समय वहाँ बैठे हुए मुनि की गोद में एक आम का फल गिरा। वह न हवा के चलने से गिरा था, न किसी तोते ने ही उस फल में अपनी चोंच गड़ायी थी। मुनि श्रेष्ठ चण्डकौशिक ने उस अनुपम फल को हाथ में ले लिया और उसे मन-ही-मन अभिमन्त्रित करके पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये राजा को दे दिया। तत्पश्चात् उन महाज्ञानी महामुनि ने राजा से कहा,,
महर्षि चण्डकौशिक बोले ;- ‘राजन्! तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो गया। नरेश्वर! अब तुम अपनी राजधानी को लौट जाओ। महाराज! यह फल तुम्हें पुत्र प्राप्ति करायेगा, अब तुम वन में जाकर तपस्या न करो; धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करो। यही राजाओं का धर्म है। नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करो और देवराज इन्द्र को सोमरस से तृप्त करो। फिर पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाकर वानप्रस्थाश्रम में आ जाना। भूपाल! मैं तुम्हारे पुत्र के लिये आठ वर देता हूँ- वह ब्राह्मण भक्त होगा, युद्ध में अजेय होगा, उसकी युद्ध विषयक रुचि कभी कम न होगी। वह अतिथियों का प्रेमी होगा, दीन-दुखियों पर उसकी सदा कृपा-दृष्टि बनी रहेगी, उसका बल महान् होगा, लोक में उसकी अक्षय कीर्ति का विस्तार होगा और प्रजाजनों पर उसका सदा स्नेह बना रहेगा।’
इस प्रकार चण्डकौशिक मुनि ने उसके लिये ये आठ वर दिये। मुनि का यह वचन सुनकर उन परम बुद्धिमान् राजा बृहद्रथ ने उनके दोनों चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और अपने घर को लौट गये। भरतश्रेष्ठ! उन उत्तम नरेश ने उचित काल का विचार करके दोनों पत्नियों के लिये वह एक फल दे दिया। उन दोनों शुभस्वरूपा रानियों ने उस आम के दो टुकड़े करके एक-एक टुकड़ा खा लिया। होने वाली बात होकर ही रहती है, इसलिये तथा मुनि की सत्यवादिता के प्रभाव से वह फल खाने के कारण दोनों रानियों के गर्भ रह गये। उन्हें गर्भवती हुई देखकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। महाप्राज्ञ युधिष्ठिर! प्रसवकाल पूर्ण होने पर उन दोनों रानियों ने यथासमय अपने गर्भ से शरीर का एक-एक टुकड़ा पैदा किया। प्रत्येक टुकड़े में एक आँख, एक हाथ, एक पैर, आधा पेट, आधा मुँह और कटि के नीचे का आधा भाग था। एक शरीर के उन टुकड़ों को देखकर वे दोनों भय के मारे थर-थर काँपने लगीं। उनका हृदय उद्विग्न हो उठा; अबला ही तो थीं। उन दोनों बहिनों ने अत्यन्त दुखी होकर परस्पर सलाह करके उन दोनों टुकड़ों को, जिनमें जीव तथा प्राण विद्यमान थे, त्याग दिया। उन दोनों की धायें गर्भ के उन टुकड़ों को कपड़े से ढककर अन्तःपुर के दरवाजे से बाहर निकलीं और चौराहे पर फेंक कर चलीं गयीं। पुरुषसिंह! चौराहे पर फेंके हुए उन टुकड़ों को रक्त और मांस खाने वाले जरा नाम की एक राक्षसी ने उठा लिया
(सम्पूर्ण महाभारत (सभा पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद)
विधाता के विधान से प्रेरित होकर उस राक्षसी ने उन दोनों टुकड़ों को सुविधापूर्वक ले जाने योग्य बनाने की इच्छा से उस समय जोड़ दिया। नरश्रेष्ठ! उन टुकड़ों का परस्पर संयोग होते ही एक शरीरधारी वीर कुमार बन गया। राजन्! यह देखकर राक्षसी के नेत्र आश्चर्य से खिल उठे। उसे वह शिशु वज्र के सारतत्त्व का बना जान पड़ा। राक्षसी उसे उठाकर ले जाने में असमर्थ हो गयी। उस बालक ने अपने लाल हथेली वाले हाथों की मुट्ठी बाँधकर मुँह में डाल ली और अत्यन्त क्रुद्ध होकर जल से भरे मेघ की भाँति गम्भीर स्वर से रोना शुरू कर दिया। परंतप नरव्याघ्र! बालक के उस रोने-चिल्लाने के शब्द से रनिवास की सब स्त्रियाँ घबरा उठीं तथा राजा के साथ सहसा बाहर निकलीं। दूध से भरे हुए स्तनों वाली वे दोनों अबला रानियाँ भी, जो पुत्र प्राप्ति की आशा छोड़ चुकी थीं, मलिन मुख हो सहसा बाहर निकल आयीं। उन दोनों रानियों को उस प्रकार उदास, राजा को संतान पाने के लिये उत्सुक तथा उस बालक को अत्यन्त बलवान् देखकर राक्षसी ने सोचा, ‘मैं इस राजा के राज्य में रहती हूँ। यह पुत्र की इच्छा रखता है; अतः इस धर्मात्मा तथा महात्मा नरेश के बालक पुत्र की हत्या करना मेरे लिये उचित नहीं है’। ऐसा विचार कर उस राक्षसी ने मानवी का रूप धारण किया और जैसे मेघमाला सूर्य को धारण करे, उसी प्रकार वह उस बालक को गोद में उठाकर भूपाल से बोली।
राक्षसी ने कहा ;- 'बृहद्रथ! यह तुम्हारा पुत्र है, जिसे मैंने तुम्हें दिया है। तुम इसे ग्रहण करो। ब्रह्मर्षि के वरदान एवं आशीर्वाद से तुम्हारी दोनों पत्नियों के गर्भ से इसका जन्म हुआ है। धायों ने इसे घर के बाहर लाकर डाल दिया था; किंतु मैंने इसकी रक्षा की है।
श्रीकृष्ण कहते हैं ;- भरतकुलभूषण! तब काशिराज की उन दोनों शुभलक्षणा कन्याओं उस बालक को तुरंत गोद में लेकर उसे स्तनों के दूध से सींच दिया। यह सब देख-सुनकर राजा के हर्ष की सीमा न रही। उन्होंने सुवर्ण की-सी कान्ति वाली उस रक्षासी से, जो स्वरूप से राक्षसी नहीं जान पड़ती थी, इस प्रकार पूछा।
राजा ने कहा ;- कमल के भीतरी भाग के समान मनोहर कान्ति वाली कल्याणी! मुझे पुत्र प्रदान करने वाली तुम कौन हो? बताओ। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम इच्छानुसार विचरने वाली कोई देवी हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयारम्भपर्व में जरासंध की उत्पत्ति-विषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)
अठारहवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)
उन्नीसवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)
बीसवाँ अध्याय
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