सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के दौ सौ इकत्तीसवें अध्याय से दो सौ तैतीसवें अध्याय तक (from the 231 chapter to the 233 chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

दौ सौ इकत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"शांर्गकों के स्तवन से प्रसन्न होकर अग्निदेव का उन्हें अभय देना"

जरितारि बोला ;- बुद्धिमान् पुरुष संकटकाल आने के पहले ही सजग हो जाता है, वह संकट का समय आ जाने पर कभी व्यथित नहीं होता। जो मूढ़चित्त जीव आने वाले संकट को नहीं जानता, वह संकट के समय व्यथित होने के कारण महान् कल्याण से वञ्चित रह जाता है।

सारिसृक्क ने कहा ;- भैया! तुम धीर और बुद्धिमान् हो और हमारे लिये यह प्राणसंकट का समय है (अतः इससे तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो); क्योंकि बहुतों में कोई एक ही बुद्धिमान् और शूरवीर होता है, इसमें संशय नहीं है।

स्तम्बमित्र बोला ;- बड़ा भाई पिता के तुल्य है, बड़ा भाई ही संकट से छुड़ाता है। यदि बड़ा भाई ही आने वाले भय और उससे बचने के उपाय को न जाने तो छोटा भाई क्या करेगा?

द्रोण ने कहा ;- यह जाज्वल्यमान अग्नि हमारे घोंसले की और तीव्र वेग से आ रहा है। इसके मुख में सात जिह्वाएँ हैं और यह क्रूर अग्नि समस्त वृक्षों को चाटता हुआ सब ओर फैल रहा है।

वैशम्पायन जी कहते है ;- राजन्! इस प्रकार आपस में बातें करते मन्दपाल के वे पुत्र एकाग्रचित्त हो अग्निदेव की स्तुति करने लगे; वह स्तुति सुनो।

जरितारि ने कहा ;- अग्निदेव! आप वायु के आत्मस्वरूप और वनस्पतियों के शरीर हैं। तृण लता आदि की योनि पृथ्वी और जल तुम्हारे वीर्य हैं, जल की योनि भी तुम्हीं हो। महावीर्य! आपकी ज्वालाएँ सूर्य की किरणों के समान ऊपर-नीचे, आगे-पीछे तथा अगल-बगल सब ओर फैल रही हैं।

सारिसृक्क बोला ;- धूममयी ध्वजा से सुशोभित अग्निदेव! हमारी माता चली गयी, पिता का भी हमें पता नहीं है और हमारे अभी पंख तक नहीं निकले हैं। हमारा आपके सिवा दूसरा कोई रक्षक नहीं है; अतः आप ही हम बालकों की रक्षा करें। अग्ने! आपका जो कल्याणमय स्वरूप है तथा आपकी जो सात ज्वालाएँ हैं उन सबके द्वारा आप शरण में आने की इच्छा वाले हम आर्त प्राणियों की रक्षा कीजिये। जातवेदा! एकमात्र आप ही सर्वत्र तपते हैं। देव! सूर्य की किरणों में तपने वाले पुरुष भी आपसे भिन्न नहीं है। हव्यवाहन! हम बालक ऋषि हैं; हमारी रक्षा कीजिये। हमसे दूर चले जाइये।

स्तम्बमित्र ने कहा ;- अग्ने! एकमात्र आप ही सब कुछ हैं, यह सम्पूर्ण जगत् आप में ही प्रतिष्ठित है। आप ही प्राणियों का पालन और जगत् को धारण करते हैं। आप ही अग्नि, आप ही हव्य का वहन करने वाले और आप ही उत्तम हविष्य हैं। मनीषी पुरुष आपको ही अनेक और एकरूप में स्थित जानते हैं। हव्यवाहन! आप इन तीनों लोकों की सृष्टि करके प्रलयकाल आने पर पुनः प्रज्वलित हो इन सबका संहार कर देते हैं। अतः अग्ने! आप सम्पूर्ण जगत् के उत्पत्ति स्थान हैं और आप ही इसके लयस्थान भी हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)

द्रोण बोला ;- जगत्पते! आप ही शरीर के भीतर रहकर प्राणियों द्वारा खाये हुए अन्न को सदा उद्दीप्त होकर पचाते हैं। सम्पूर्ण विश्व आप में ही प्रतिष्ठित है। शुक्लवर्ण वाले सर्वज्ञ अग्निदेव! आप ही सूर्य होकर अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी से जल को और सम्पूर्ण पार्थिव रसों को ग्रहण करते हैं तथा पुनः समय आने पर आवश्यकता देखकर वर्षा के द्वारा इस पृथ्वी पर जलरूप में उन सब रसों को प्रस्तुत कर देते हैं। उज्ज्वल वर्ण वाले अग्ने! फिर आपसे ही हरे-हरे पत्तों वाले वनस्पति उत्पन्न होते हैं और आपसे ही पोखरियाँ तथा कल्याणमय महासागर पूर्ण होते हैं। प्रचण्ड किरणों वाले अग्निदेव! हमारा यह शरीर रूप घर रसनेन्द्रियाधिपति वरुण देव का आलम्बन है। आप आज शीतल एवं कल्याणमय बनकर हमारे रक्षक होइये; हमें नष्ट न कीजिये। पिंगल नेत्र तथा लोहित ग्रीवा वाले हुताशन! आप कृष्णवर्त्मा हैं। समुद्र तटवर्ती गृहों की भाँति हमें भी छोड़ दीजिये। दूर से ही निकल जाइये।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ब्रह्मवादी द्रोण के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना की जाने पर प्रसन्नचित्त हुए अग्नि ने मन्दपाल से की हुई ‘प्रतिज्ञा का स्मरण करके द्रोण से कहा।

अग्नि बोले ;- जान पड़ता है, तुम द्रोण ऋषि हो; क्योंकि तुमने उस ब्रह्म का ही प्रतिपादन किया है। मैं तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करूँगा, तुम्हें कोई भय नहीं है। मन्दपाल मुनि ने पहले ही मुझसे तुम लोगों के विषय में निवेदन किया था कि ‘आप खाण्डववन का दाह करते समय मेरे पुत्रों को बचा दीजियेगा।' द्रोण! तुम्हारे पिता का वह वचन और तुमने यहाँ जो कुछ कहा है, वह भी मेरे लिये गौरव की वस्तु है। बोलो, तुम्हारी और कौन सी इच्छा पूर्ण करूँ? ब्रह्मन्! साधुशिरोमणे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे इस स्त्रोत से मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

द्रोण ने कहा ;- शुक्लस्वरूप अग्ने! ये बिलाव हमें प्रतिदिन उद्विग्न करते रहते हैं। हुताशन! आप इन्हें बन्धु-बान्धवों सहित भस्म कर डालिये।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शांर्गकों की अनुमति से अग्निदेव ने वैसा ही किया और प्रज्वलित होकर वे सम्पूर्ण खाण्डववन को जलाने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत मयदर्शन पर्व में शांर्गकोपाख्यान विषयक दो सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

दौ सौ बत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वात्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! मन्दपाल भी अपने पुत्रों की चिन्ता में पड़े थे। यद्यपि वे (उनकी रक्षा के लिये) अग्निदेव से प्रार्थना कर चुके थे, तो भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। पुत्रों के लिये संतप्त होते हुए वे लपिता से बोले,,

  मन्दपाल बोले ;- ‘लपिते! मेरे बच्चे अपने घोंसले में कैसे बच सकेंगे? जब अग्नि का वेग बढे़गा और हवा तीव्र गति से चलने लगेगी, उस समय मेरे बच्चे अपने को आग से बचाने में असमर्थ हो जायँगे। उनकी तपस्विनी माता स्वयं असमर्थ हे, वह बेचारी उनकी रक्षा कैसे करेगी? अपने बच्चों के बचने का कोई उपाय न देखकर वह शोक से आतुर हो जायेगी। मेरे बच्चे उड़ने और पंख फड़फड़ाने में असमर्थ हैं। उन्हें उस दशा में देखकर संतप्त हो बार-बार चीत्कार करती और दौड़ती हुई जरिता किस दशा में होगी? मेरा बेटा जरितारि कैसे होगा, सारिसृक्क की क्या अवस्था होगी, स्तम्बमित्र और द्रोण कैसे होंगे? तथा वह तपस्विनी जरिता किस हालत में होगी?’

   भारत! मन्दपाल मुनि जब इस प्रकार वन में (अपनी स्त्री एवं बच्चों के लिये) विलाप कर रहे थे, उस समय लपिता ने ईर्ष्यापूर्वक कहा,,

लपिता बोली ;- ‘तुम्हें पुत्रों को देखने की चिन्ता नहीं है। तुमने जिन ऋषियों के नाम लिये हैं, वे तेजस्वी और शक्तिशाली हैं, उन्हें अग्नि से तनिक भी भय नहीं है। मेरे पास ही तुमने अग्निदेव को स्वयं अपने पुत्र सौंपे थे और उन महात्मा अग्नि ने भी उनकी रक्षा के लिये प्रतिज्ञा की थी। वे लोकपाल हैं। जब बात दे चुके हैं, तब उसे झूठी नहीं करेंगे। अतः स्वस्थ पुरुष! तुम्हारा मन अपने बच्चों की रक्षारूप बन्धुजनोचित कर्तव्य के पालने के लिये उत्सुक नहीं है। तुम तो मेरी दुश्मनी उसी जरिता सौत के लिये चिन्ता करते हुए संतप्त हो रहे हो। पहले जरिता में तुम्हारा जैसा स्नेह था वैसा अवश्य ही मुझ पर नहीं है। जो सहायकों से सम्पन्न और शक्तिशाली हैं, वह मुझ जैसे अपने सुहृद व्यक्ति पर स्नेह नहीं रखे और अपने आत्मीय जन को पीड़ित देखकर उसकी उपेक्षा करे, यह किसी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। अतः अब तुम उस जरिता के पास ही जाओ, जिसके लिये तुम इतने संतप्त हो रहे हो। मैं भी दुष्ट पुरुष के आश्रय में पड़ी हुई स्त्री की भाँति अकेली ही विचरूँगी।’

   मन्दपाल ने कहा ;- अरी! तू जैसा समझती है, उस भाव से मैं इस संसार में नहीं विचरता हूँ। मेरा विचरना तो केवल संतान के लिये होता है। मेरी वह संतान संकट में पड़ी हुई है। जो पैदा हुए बच्चों का परित्याग कर भविष्य में होने वालों का भरोसा करता है, वह मूर्ख है; सब लोग उसका अनादर करते हैं; तेरी जैसी इच्छा हो, वैसा कर। यह प्रज्वलित आग सारे वृक्षों को अपनी लपटों में लपेटती हुई मेरे उद्विग्न हृदय में अमंगलसूचक संताप उत्पन्न कर रही है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वात्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्पायन जी कहते है ;- जब अग्निदेव] उस स्थान से हट गये, तब पुत्रों की लालसा रखने वाली जरिता पुनः शीघ्रतापूर्वक अपने बच्चों के पास गयी। उसने देखा, सभी बच्चे आग से बच गये हैं और सकुशल हैं। उन्हें कुछ भी कष्ट नहीं हुआ और वे वन में जोर जोर से चहक रहे हैं। उन्हें बार-बार देखकर वह नेत्रों से आँसू बहाने लगी और बारी-बारी से पुकारकर वह सभी बच्चों से मिली। भारत! इतने में ही मन्दपाल मुनि भी सहसा वहाँ आ पहुँचे; किंतु उन बच्चों में से किसी ने भी उस समय उनका अभिनन्दन नहीं किया। वे एक-एक बच्चे से बोलते और जरिता को भी बार-बार बुलाते, परंतु वे लोग उन मुनि से भला या बुरा कुछ भी नहीं बोले।

मन्दपाल ने पूछा ;- प्रिये! तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र कौन है, उससे छोटा कौन है, मझला कौन है और सबसे छोटा कौन है? मैं इस प्रकार दुःख से आतुर होकर तुमसे पूछ रहा हूँ, तुम मुझे उत्तर क्यों नहीं देती? यद्यपि मैंने तुम्हें त्याग दिया था, तो भी यहाँ से जाने पर मुझे शान्ति नहीं मिलती थी।

जरिता बोली ;- तुम्हें ज्येष्ठ पुत्र से क्या काम है, उसके बाद वाले से भी क्या लेना है, मझले अथवा छोटे पुत्र से भी तुम्हें क्या प्रयोजन है? पहले तुम मुझे सबसे हीन समझकर त्यागकर जिसके पास चले गये थे, उसी मनोहर मुसकान वाली तरुणी लपिता के पास जाओ।

मन्दपाल ने कहा ;- परलोक में स्त्रियों के लिये परपुरुष से सम्बन्ध और सौतियाडाह को छोड़कर दूसरा कोई दोष उनके परमार्थ का नाश करने वाला नहीं है। यह सौतियाडाह बैर की आग को भड़काने वाला और अत्यन्त उद्वेग में डालने वाला है। समस्त प्राणियों में विख्यात और उत्तम व्रत का पालन करने वाली कल्याणमयी अरून्धती ने उन महात्मा वसिष्ठ पर भी शंका की थी, जिनका हृदय अत्यन्त विशुद्ध है, जो सदा उनके प्रिय और हित में लगे रहते हैं और सप्तर्षि मण्डल के मध्य में विराजमान होते हैं। ऐसे धैर्यवान् मुनि का भी उन्होंने सौतियाडाह के कारण तिरस्कार किया था। इस अशुभ चिन्तन के कारण उनकी अंगकान्ति धूम और अरुण के समान (मंद) हो गयी। वे कभी लक्ष्य और कभी अलक्ष्य रहकर प्रच्छन्न वेष में मानो कोई निमित्त देखा करती हैं। मैं पुत्रों से मिलने के लिये आया हूँ, तो भी तुम मेरा तिरस्कार करती हो और इस प्रकार अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर जैसे तुम मेरे साथ संदेहयुक्त व्यवहार करती हो, वैसा ही लपिता भी करती है। यह मेरी भार्या है, ऐसा मानकर पुरुष को किसी प्रकार भी स्त्री पर विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि नारी पुत्रवती हो जाने पर पतिसेवा आदि अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देती।

वैशम्पायन जी कहते है ;- तदनन्तर वे सभी पुत्र यथोचित रूप से अपने पिता के पास आ बैठे और वे मुनि भी उन सब पुत्रों को आश्वासन देने के लिये उद्यत हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत मयदर्शन पर्व में शांर्गकोपाख्यान विषयक दो सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

दौ सौ तैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"इन्द्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान तथा श्रीकृष्ण, अर्जुन और मयासुर का अग्नि से विदा लेकर एक साथ यमुना तट पर बैठना"

मन्दपाल बोले ;- मैंने अग्निदेव से यह प्रार्थना की थी कि वे तुम लोगों को दाह से मुक्त कर दें। महात्मा अग्नि ने भी वैसा करने की प्रतिज्ञा कर ली थी। अग्नि के दिये हुए वचन को स्मरण करके, तुम्हारी माता की धर्मज्ञता को जानकर और तुम लोगों में भी महान् शक्ति है, इस बात को समझकर ही मैं पहले यहाँ नहीं आया था। बच्चों! तुम्हें मेरे प्रति अपने हृदय में संताप नहीं करना चाहिये। तुम लोग ऋषि हो, यह बात अग्निदेव भी जानते हैं। क्योंकि तुम्हें ब्रह्मतत्त्व का बोध हो चुका है।

वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! इस प्रकार आश्वस्त किये हुए अपने पुत्रों और पत्नी जरिता को साथ ले द्विज मन्दपाल उस देश से दूसरे देश में चले गये। उधर प्रज्वलित हुए प्रचण्ड ज्वालाओं वाले भगवान् हुताशन ने भी जगत् का हित करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन की सहायता से खाण्डववन को जला दिया। वहाँ मज्जा और मेद की कई नहरे बह चलीं और उन सबको पीकर अग्निदेव पूर्ण तृप्त हो गये।

तत्पश्चात् उन्होंने अर्जुन को दर्शन दिया। उसी समय भगवान् इन्द्र मरुद्गणों एवं अन्य देवताओं के साथ आकाश से उतरे और अर्जुन तथा श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोले,,

देवतागण बोले ;- ‘आप दोनों ने यह ऐसा कार्य किया है, जो देवताओं के लिये भी दुष्कर है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ। इस लोक में मनुष्यों के लिये जो दुर्लभ हो ऐसा कोई वर आप दोनो माँग लें।’ तब अर्जुन ने इन्द्र से सब प्रकार के दिव्यास्त्र माँगे। महातेजस्वी इन्द्र ने उन अस्त्रों को देने के लिये समय निश्चित कर दिया।

इन्द्र बोले ;- ‘पाण्डुनन्दन! जब तुम पर भगवान् महादेव प्रसन्न होंगे, तब मैं तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्रदान करूँगा। कुरूनन्दन! वह समय कब आने वाला है, इसे भी मैं जानता हूँ। तुम्हारे महान् तप से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें सम्पूर्ण आग्नेय तथा सब प्रकार के वायव्य अस्त्र प्रदान करूँगा। धनंजय! उसी समय तुम मेरे सम्पूर्ण अस्त्रों को ग्रहण करोगे।’ भगवान् श्रीकृष्ण ने भी यह वर माँगा कि अर्जुन के साथ मेरा प्रेम निरन्तर बढ़ता रहे। इन्द्र ने परम बुद्धिमान् श्रीकृष्ण को यह वर दे दिया। इस प्रकार दोनों को वर देकर अग्निदेव की आज्ञा ले देवताओं सहित देवराज भगवान् इन्द्र स्वर्गलोक को चले गये। अग्निदेव भी मृगों और पक्षियों सहित सम्पूर्ण वन को जलाकर पूर्ण तृप्त हो छः दिनों तक विश्राम करते रहे।

जीव-जन्तुओं के मांस खाकर उनके मेद और रक्त पीकर अत्यन्त प्रसन्न हो अग्नि ने श्रीकृष्ण और अर्जुन से कहा,,

अग्नि देव बोले ;- ‘वीरो! आप दोनों पुरुषरत्नों ने मुझे आनन्दपूर्वक तृप्त कर दिया। अब मैं आपको अनुमति देता हूँ, जहाँ आपकी इच्छा हो, जाइये।’ भरतश्रेष्ठ! महात्मा अग्निदेव के इस प्रकार आज्ञा देने पर अर्जुन, श्रीकृष्ण तथा मयासुर सबने उनकी परिक्रमा की। फिर तीनों ही यमुना नदी के रमणीय तट पर जाकर एक साथ बैठे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत में व्यासनिर्मित एक लाख श्लोकों की संहिता के अन्तर्गत आदि पर्व के मयदर्शन पर्व में इन्द्रवरदानविषयक दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

महाभारत आदि पर्व सम्पूर्ण

"महाभारत के पठन एवं श्रवण की महिमा"

भगवान् श्रीकृष्ण द्वैपायन के मुखारविन्द से निकला हुआ यह महाभारत अत्यन्त पुण्यजनक, पवित्र, पापहारी एवं कल्याण रूप है; इसकी महिमा अपार है। जो इस महाभारत की कथा को सुनकर उसे हृदयंम कर लेता है, उसे तीर्थराज पुष्कर के जल में गोता लगाने की क्या आवश्यकता है ? पुष्कर स्नान का जो फल शास्त्रों में कहा गया है, वह उसे इस कथा के श्रवण से ही मिल जाता है। एक ओर तो एक मनुष्य वेदज्ञ एवं अनेक शास्त्रों के जानने वाले ब्राह्मण को सोने से मढे़ हुए सींगोंवाली सौ गौएँ दान करता है और दूसरी ओर दूसरा मनुष्य नित्य महाभारत की पुण्यमयी कथा का श्रवण करता है, उन दोनों को समान फल मिलता है। (महाभारत के स्वर्गारोहण पर्व से)


अब ,,,-- सम्पूर्ण महाभारत का सभापर्व  (Sabha Parv - Mahabharat) प्रारंभ होता है !




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