सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)
दौ सौ छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"देवताओं आदि के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वर्षा करते हुए इन्द्र की उस जलधारा को अर्जुन ने अपने उत्तम अस्त्र का प्रदर्शन करते हुए बाणों की बौछार से रोक दिया। अमित आत्मबल से सम्पन्न पाण्डव अर्जुन ने बहुत से बाणों की वर्षा करके सारे खाण्डववन को ढँक दिया, जैसे कुहरा चन्द्रमा को ढक देता हैं। सव्यसाची अर्जुन के चलाये हुए बाणों से सारा आकाश छा गया था; इसलिये कोई भी प्राणी उस वन से निकल नहीं पाता था। जब खाण्डववन जलाया जा रहा था, उस समय महाबली नागराज तक्षक वहाँ नहीं था, कुरुक्षेत्र चला गया था। परंतु तक्षक का बलवान् पुत्र अश्वसेन वहीं रह गया था। उसने उस आग से अपने को छुड़ाने के लिये बड़ा भारी प्रयत्न किया। किंतु अर्जुन के बाणों से रुँध जाने के कारण वह बाहर निकल न सका। उसकी माता सर्पिणी ने उसे निगलकर उसे आग से बचाया। उसने पहले उसका मस्तक निगल लिया। फिर धीरे-धीरे पूँछ तक का भाग निगल गयी। निगलते-निगलते ही उस नागिन ने पुत्र को बचाने के लिये आकाश में उड़कर निकल भागने की चेष्टा की। परंतु पाण्डुकुमार अर्जुन ने मोटी धार वाले तीखे बाणों से उस भागती हुई सर्पिणी का मस्तक काट दिया। शचीपति इन्द्र ने उसकी यह अवस्था अपनी आँखों देखी। तब उसे छुड़ाने की इच्छा से वज्रधारी इन्द्र ने आँधी और वर्षा चलाकर पाण्डुकुमार अर्जुन को उस समय मोहित कर दिया।
इतने में ही तक्षक का पुत्र अश्वसेन उस संकट से मुक्त हो गया। तब उस भयानक माया को देखकर नाग से ठगे गये पाण्डुपुत्र अर्जुन ने आकाश में उड़ने वाले प्राणियों के दो-दो, तीन-तीन टुकडे़ कर डाले। फिर क्रोध में भरे हुए अर्जुन टेढ़ी चाल से चलने वाले उस नाग को शाप दिया- ‘अरे! तु आश्रयहीन हो जायगा।’ अग्नि और श्रीकृष्ण ने भी उसका अनुमोदन किया। तदनन्तर अपने साथ हुई वंचना को बार-बार स्मरण करके क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने शीघ्रगामी बाणों द्वारा आकाश को आच्छादित करके इन्द्र के साथ युद्ध छेड़ दिया। देवराज ने भी अर्जुन को युद्ध में कुपित देख सम्पूर्ण आकाश को आच्छादित करते हुए अपने दुस्सह अस्त्र (ऐन्द्रास्त्र) को प्रकट किया। फिर तो बड़ी भारी आवाज के साथ प्रचण्ड वायु चलने लगी। उसने समस्त समुद्रों को क्षुब्ध करते हुए आकाश में स्थित हो मुसलाधार पानी बरसाने वाले मेघों को उत्पन्न किया। वे भयंकर मेघ बिजली की कड़कड़ाहट के साथ धरती पर वज्र गिराने लगे। उस अस्त्र के प्रतीकार की विद्या मे कुशल अर्जुन ने उन मेघों को नष्ट करने के लिये अभिमन्त्रित करके वायव्य नामक उत्तम अस्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र ने इन्द्र के छोडे़ हुए वज्र और मेघों का ओज एवं बल नष्ट कर दिया। जल की वे सारी धाराएँ सूख गयीं और बिजलियाँ भी नष्ट हो गयीं। क्षणभर में आकाश धूल और अन्धकार से रहित हो गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)
सुखदायिनी शीतल हवा चलने लगी। सूर्यमण्डल स्वाभाविक स्थिती में दिखायी देने लगा। अग्निदेव प्रतीकार शून्य होने के कारण बहुत प्रसन्न हुए और अनेक रूपों में प्रकट हो प्राणियों के शरीर से निकली हुई वसा के समूह से अभिषिक्त होकर बड़ी-बड़ी लपटों के साथ प्रज्वलित हो उठे। उस समय अपनी आवाज से वे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रहे थे। महाराज! उस खाण्डववन को श्रीकृष्ण और अर्जुन से सुरक्षित देख अहंकार से युक्त सुन्दर पंख आदि अंगों वाले पक्षी आकाश में उड़ने लगे। एक गरुड़जातीय पक्षी वज्र के समान पाँख, चोंच और पंजों से प्रहार करने की इच्छा रखकर आकाश से श्रीकृष्ण और अर्जुन की ओर झपटा। इसी समय प्रज्वलित मुख वाले नागों के समुदाय भी पाण्डव अर्जुन के समीप भयानक जहर उगलते हुए उनकी ओर टूट पड़े। यह देख अर्जुन ने रोषग्निप्रेरित बाणों द्वारा उन सबके टुकडे़-टुकडे़ कर डाले और वे सभी अपने शरीर को भस्म करने के लिये उस जलती हुई आग में समा गये।
तत्पश्चात् असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग युद्ध के लिये उत्सुक हो अनुपम गर्जना करते हुए वहाँ दौडे़ आये। किन्हीं के हाथ में लोहे की गोली छोड़ने वाले यन्त्र (तोप, बंदूक आदि) थे और कुछ लोगों ने हाथों में चक्र, पत्थर एवं भुशुण्डी उठा रखी थी। क्रोणाग्नि से बढ़े हुए तेज वाले वे सब के सब श्रीकृष्ण और अर्जुन को मार डालना चाहते थे। वे लोग बड़ी बड़ी डींग हाँकते हुए अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। उस समय अर्जुन ने अपने तीखे बाणों से उन सबके सिर उड़ा दिये। शत्रुविनाशन महातेजस्वी श्रीकृष्ण ने भी चक्र द्वारा दैत्यों और दानवों के समुदाय का महान् संहार कर दिया। फिर दूसरे-दूसरे अमित तेजस्वी दैत्य दानव बाणों से घायल और चक्र वेग से कम्पित हो तट पर आकर रुक जाने वाली समुद्र की लहरों के समान एक सीमा तक ही ठहर गये- आगे न बढ़ सके।
तब देवताओं के महाराज इन्द्र श्वेत ऐरावत पर आरूढ़ हो अत्यन्त क्रोधपूर्वक उन दोनों की ओर दौडे़। असुरसूदन इन्द्र ने बड़े वेग से अशनि रूप अपना वज्रास्त्र उठाकर चला दिया और देवताओं से कहा- ‘लो ये दोनों मारे गये’। देवराज इन्द्र को वह महान् वज्र उठाते देख देवताओं ने भी अपने-अपने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र ले लिये। राजन्! यमराज ने कालदण्ड, कुबेर ने गदा तथा वरुण ने प्लश और विचित्र वज्र हाथ में ले लिये। देवताओं के सेनापति स्कन्द शक्ति हाथ में लेकर मेरु पर्वत की भाँति अवचल भाव से खडे़ हो गये। दोनों अश्विनीकुमारों ने भी चमकीली औषधियाँ उठा ली। घाता ने धनुष लिया और जय ने मूसल, क्रोध में भरे हुए महाबली त्वष्टा ने पर्वत उठा लिया। अंश ने शक्ति हाथ में ले ली और मृत्युदेव ने फरसा। अर्यमा भी भयानक परिघ लेकर युद्ध के लिये विचरने लगे। मित्र देवता जिसके किनारों पर छुरे लगे हुए थे, वह चक्र लेकर खडे़ हो गये। महाराज! पूषा, भग और क्रोध में भरे हुए सविता धनुष और तलवार लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुन पर टूट पड़े।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 37-52 का हिन्दी अनुवाद)
रुद्र, वसु, महाबली मरुद्गण, विश्वेदेव तथ अपने तेज से प्रकाशित होने वाले सांध्यगण- ये और दूसरे बहुत से देवता नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर उन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण और अर्जुन को मार डालने की इच्छा से उनकी ओर बढे़। उस महासंग्राम में पलयकाल के समान रूप् वाले तथा प्राणियों को मोह में डाल देने वाले अद्भुत अपशकुन दिखायी देने लगे। देवताओं सहित इन्द्र को रोष में भरा देखकर अपनी महिमा से च्युत न होने वाले निर्भय तथा दुर्धर्ष वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन धनुष तानकर युद्ध के लिये खडे़ हो गये। तदनन्तर वे दोनों युद्धकुशल वीर कुपित हो अपने वज्रोपम बाणों द्वारा वहाँ आते हुए देवताओं को घायल करने लगे। बहुत से देवता बार-बार प्रयत्न करने पर भी कभी सफल मनोरथ न हो सके। उनकी आशा टूट गयी और वे भय के मारे युद्ध छोड़कर इन्द्र की ही शरण में चले गये। श्रीकृष्ण और अर्जुन के द्वारा देवताओं की गति कुण्ठित हुई देख आकाश में खडे़ हुए महर्षिगण बड़े आश्चर्य में पड़ गये। इन्द्र भी उस युद्ध में बार-बार उन दोनों वीरों का पराक्रम देख बड़े प्रसन्न हुए और पुनः उन दोनों के साथ युद्ध करने लगे।
तदनन्तर इन्द्र ने सव्यसाची अर्जुन के पराक्रम की परीक्षा लेने के लिये पुनः उन पर पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा प्रारम्भ की। अर्जुन ने अत्यन्त अमर्ष में भरकर अपने बाणों द्वारा वह सारी वर्षा नष्ट कर दी। सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले पाकशासन इन्द्र ने उस पत्थरों की वर्षा को विफल हुई देख पुनः पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा की। यह देख इन्द्रकुमार अर्जुन ने अपने पिता का हर्ष बढ़ाते हुए महान् वेगशाली बाणों द्वारा पत्थरों की उस वृष्टि को फिर विलिन कर दिया। इसके बाद इन्द्र ने पाण्डुनन्दन अर्जुन को मारने के लिये अपने दोनों हाथों से एक पर्वत का महान् शिखर वृक्षों सहित उखाड़ लिया और उसे उनके ऊपर चलाया। यह देख अर्जुन ने प्रज्वलित नोक वाले वेगवान् एवं सीधे जाने वाले बाणों द्वारा उस पर्वत शिखर को हजारों टुकडे़ करके गिरा दिया। छिन्न-भिन्न होकर गिरता हुआ वह पर्वत शिखर ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्य चन्द्रमा आदि ग्रह आकाश से टूटकर गिर रहे हों। वहाँ गिरे हुए उस महान पर्वत शिखर के द्वारा खाण्डववन में निवास करने वाले बहुत से प्राणी मारे गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाह पर्व में देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन के युद्ध से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)
दौ सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"देवताओं की पराजय, खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार पर्वत शिखर के गिरने से खाण्डववन में रहने वाले दानव, राक्षस, नाग, चीते तथा रीछ आदि वनचर प्राणी भयभीत हो उठे। मद की धारा बहाने वाले हाथी, शार्दूल, केसरी, सिंह, मृग, भैंस, सैंकड़ों पक्षी तथा दूसरी-दूसरी जाति के प्राणी अत्यन्त उदिग्न हो इधर-उधर भागने लगे। उन्होंने उस जलते हुए वन को और मारने के लिये अस्त्र उठाये श्रीकृष्ण और अर्जुन को देखा। उत्पात और आर्तनाद के शब्द से उस वन में खडे़ हुए वे सभी प्राणी संत्रस्त से हो उठे थे। उस वन को अनेक प्रकार से दग्ध होते देख और अस्त्र उठाये हुए श्रीकृष्ण पर दृष्टि डाल भयानक आर्तनाद करने लगे। उस भयंकर आर्तनाद और अग्निदेव की गर्जना से वहाँ का सम्पूर्ण आकाश मानो उत्पातकालिक मेघों की गर्जना से गूँज रहा था। तब महाबाहु श्रीकृष्ण ने अपने तेज से प्रकाशित होने वाले उस अत्यन्त भयंकर महान् चक्र को उन दैत्य आदि प्राणियों के विनाश के लिये छोड़ा। उस चक्र के प्रहार से पीड़ित हो दानव, निशाचर आदि समस्त क्षुद्र प्राणी सौ-सौ टुकडे़ होकर क्षणभर में आग में गिर गये। श्रीकृष्ण के चक्र से विदीर्ण हुए दैत्य मेदा तथा श्रक्त में सनकर संध्याकाल के मेघों की भाँति दिखायी देने लगे।
भारत! भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ सहस्रों पिशाचों, पक्षियों, नागों तथा पशुओं का वध करते हुए काल के समान विचर रहे थे। शत्रुघाती श्रीकृष्ण के द्वारा बार-बार चलाया हुआ वह चक्र अनेक प्राणियों का संहार करके पुनः उनके हाथ में चला आता था। इस प्रकार पिशाच, नाग तथा राक्षसों का संहार करने वाले सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीकृष्ण का स्वरूप उस समय बड़ा भयंकर जान पड़ता था। वहाँ सब ओर से सम्पूर्ण दानव एकत्र हो गये थे, तथापि उनमें से एक भी ऐसा नहीं निकला, जो युद्ध में श्रीकृष्ण और अर्जुन को जीत सके। जब देवता लोग उन दोनों के बल से खाण्डववन की रक्षा करने और उस आग को बुझाने में सफल न हो सके, तब पीठ दिखाकर चल दिये। राजन्! शतक्रतु इन्द्र देवताओं के विमुख हुआ देख श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए बड़े प्रसन्न हुए। देवताओं के लौट आने पर इन्द्र को सम्बोधित करके बड़े गम्भीर स्वर से,,
आकाशवाणी हुई ;- ‘वासव! तुम्हारे सखा नागप्रवर तक्षक इस समय यहाँ नहीं हैं। वे खाण्डवदाह के समय कुरुक्षेत्र चले गये थे। भगवान् वासुदेव तथा अर्जुन को किसी प्रकार युद्ध से जीता नहीं जा सकता। मेरे कहने से तुम इस बात को समझ लो। वे दोनों पहले के देवता नर और नारायण हैं। देवलोक में भी इनकी ख्याति है। इनका बल और पराक्रम कैसा है, यह तुम भी जानते हो। ये अपराजित और दुर्घर्ष वीर हैं। सम्पूर्ण लोकों में किसी के द्वारा भी वे युद्ध में जीते नहीं जा सकते।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)
ये दोनों पुरातन ऋषिदेव नर-नारायण सम्पूर्ण देवताओं, असुरों, यक्षों, राक्षसों, गन्धर्वों, मनुष्यों, किन्नरों तथा नागों के लिये भी परम पूजनीय हैं। अतः इन्द्र! तुम्हें देवताओं के साथ यहाँ से चले जाना ही उचित है। खाण्डववन के इस विनाश को तुम प्रारब्ध का ही कार्य समझो।’ यह आकाशवाणी सुनकर देवराज इन्द्र ने इसे ही सत्य माना और क्रोध तथा अमर्ष छोड़कर वे उसी समय स्वर्ग लोक को लौट गये। राजन्! महात्मा इन्द्र को वहाँ से प्रस्थान करते देख समस्त स्वर्गवासी देवता सेनासहित उनके पीछे-पीछे चले गये। उस समय देवताओं सहित देवराज इन्द्र को जाते देख वीरवर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने सिंहनाद किया। राजन्! देवराज के चले जाने पर वीरवर केशव और अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न हो उस समय बेखटके खाण्डववन का दाह कराने लगे। जैसे प्रबल वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती हैं, उसी प्रकार अर्जुन ने देवताओं को भगाकर अपने बाणों के समुदाय से खाण्डववासी प्राणियों को मारना आरम्भ किया। सव्यसाची अर्जुन के बाण चलाते समय उनके बाणों से कट जाने के कारण कोई भी जीव वहाँ से बाहर न निकल सका। अमोघ अस्त्रधारी अर्जुन को उस समय बड़े से बड़े प्राणी देख भी न सके, फिर रणभूमि में युद्ध तो कर ही कैसे सकते थे। वे कभी एक ही बाण से सैंकड़ों को बींध डालते थे और कभी एक ही को सौ बाणों से घायल कर देते थे।
वे सभी प्राणी प्राणशून्य होकर साक्षात् काल से मारे हुए की भाँति आग में गिर पड़ते थे। वे वन के किनारे ही या दुर्गम स्थानों में हों, कहीं भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। पितरों और देवताओं के लोक में भी खाण्डववन के दाह की गर्मी पहुँचने लगी। बहुतेरे प्राणियों के समुदाय कातर ही जोर-जोर से चीत्कार करने लगे हाथी, मृग और चीते भी रोदन करते थे। उनके आर्तनाद ने गंगा तथा समुद्र के भीतर रहने वाले मत्स्य भी थर्रा उठे। उस वन में रहने वाले जो विद्याधर जाति के लोग थे, उनकी भी वही दशा थी। महाबाहो! उस समय कोई श्रीकृष्ण और अर्जुन की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता था; फिर युद्ध करने की तो बात ही क्या है। जो कोई राक्षस, दानव और नाग वहाँ एक साथ संघ बनाकर निकलते थे, उन सबको भगवान् श्रीहरि चक्र द्वारा मार देते थे। वे तथा दूसरे विशालकाय प्राणी चक्र के वेग से शरीर और मस्तक छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण निर्जीव ही प्रज्वलित आग में गिर पड़ते थे। इस प्रकार वन जन्तुओं के मांस, रूधिर और मेदे के समूह से अत्यन्त तृृप्त हो अग्निदेव ऊपर आकाशचारी होकर धूमरहित हो गये। उनकी आँखे चमक उठीं, जिह्वा में दीप्ति आ गयी और उनका विशाल मुख भी अत्यन्त तेज से प्रकाशित होने लगा। उनके चमकीले केश ऊपर की ओर उठे हुए थे, आँखे पिंगलवर्ण की थी और वे प्राणियों के मेदे का रस पी रहे थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन का दिया हुआ वह इच्छानुसार भोजन पाकर अग्निदेव बड़े प्रसन्न और पूर्ण तृप्त हो गये। उन्हें बड़ी शान्ति मिली।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 39-47 का हिन्दी अनुवाद)
इसी समय तक्षक के निवास स्थान से निकलकर सहसा भागते हुए मयासुर पर मधुसूदन की दृष्टि पड़ी। वातसारथि अग्निदेव मूर्तिमान् हो सिर पर जटा धारण किये मेघ के समान गर्जना करने लगे और उस असुर को जला डालने की इच्छा से माँगने लगे। मय दानवेन्द्रों के शिल्पियों में श्रेष्ठ था, उसे पहचानकर भगवान् वासुदेव उसका वध करने के लिये चक्र लेकर खडे़ हो गये। मय ने देखा एक ओर मुझे मारने के लिये चक्र उठा है, दूसरी और अग्निदेव मुझे भस्म कर डालना चाहते है; तब वह अर्जुन की शरण में गया और बोला,,
मय बोला ;- ‘अर्जुन! दौड़ो मुझे बचाओ, बचाओ।’भारत्! उसका भययुक्त स्वर सुनकर कुन्तीकुमार धनंजय ने उसे जीवनदान देते हुए कहा,,
अर्जुन बोले ;- ‘डरो मत’। अर्जुन के मन में दया आ गयी, अतः उन्होंने मयासुर से फिर कहा- ‘तुम्हें डरना नहीं चाहिये’।
अर्जुन के अभय-दान देने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने नमुचि के भ्राता मयासुर को मारने की इच्छा त्याग दी और अग्निदेव ने भी उसे नहीं जलाया।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- परमबुद्धिमान् अग्निदेव ने श्रीकृष्ण और अर्जुन के द्वारा इन्द्र के आक्रमण से सुरक्षित रहकर खाण्डववन को पंद्रह दिनों तक जलाया। उस वन के जलाये जाते समय अश्वसेन नाग, मयासुर तथा चार शांर्गक नाम वाले पक्षियों को अग्नि ने नहीं जलाया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत मयदर्शन पर्व में मय दानव की रक्षा विषयक दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)
दौ सौ अठ्ठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"शांर्गकोपाख्यान-मन्दपाल मुनि के द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति और उन्हें बचाने के लिये मुनि का अग्निदेव की स्तुति करना"
जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! इस प्रकार सारे वन के जलाये जाने पर भी अग्निदेव ने उन चारों शांर्गकों को क्यों दग्ध नहीं किया? यह मुझे बताइये। विप्रवर! आपने अश्वसेन नाग तथा मय दानव के न जलने का कारण तो बताया है; परंतु शांर्गकों के दग्ध न होने का कारण नहीं कहा है। ब्रहान्! उस भयानक अग्निकाण्ड में उन शांर्गकों का सकुशल बच जाना, यह बड़े आश्चर्य की बात है। कृपया बताइये, उनका नाश कैसे नहीं हुआ?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- शत्रुदमन जनमेजय! वैसे भयंकर अग्निकाण्ड में भी अग्निदेव ने जिस कारण से शांर्गकों को दग्ध नहीं किया और जिस प्रकार वह घटित हुई, वह सब मैं तुम्हें बताता हूँ, सुनो। मन्दपाल नाम से विख्यात एक विद्वान महर्षि थे। वे धर्मज्ञों में श्रेष्ठ और कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। राजन्! वे ऊर्ध्वरेता मुनियों के मार्ग (ब्रह्मचर्य) का आश्रय लेकर सदा वेदों के स्वाध्याय में संलग्न और धर्मपालन में तत्पर रहते थे। उन्होंने सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में कर लिया था और वे सदा तपस्या में ही लगे रहते थे। भारत! वे अपनी तपस्या को पूरी करके शरीर का त्याग करने पर पितृलोक में गये; किंतु वहाँ उन्हें अपने तप एवं सत्कर्मों का फल नहीं मिला। उन्होंने तपस्या द्वारा वश में किये हुए लोकों को भी निष्फल देखकर धर्मराज के पास बैठे हुए देवताओं से पूछा।
मन्दपाल बोले ;- देवताओं! मेरी तपस्या के द्वारा प्राप्त हुए ये लोक बंद क्यों हैं? (उपभोग के साधनों से शून्य क्यों हैं?) मैने वहाँ कौन सा सत्कर्म नहीं किया है, जिसका फल मुझे इस रूप में मिला है। जिसके लिये इस तपस्या का फल ढका हुआ है, मैं उस लोक में जाकर वह कर्म करूँगा। आप लोग मुझसे उसको बताइये।
देवताओं ने कहा ;- ब्रह्मन्! मनुष्य जिस ऋण से ऋणी होकर जन्म लेते हैं, उसे सुनिये। यज्ञकर्म, ब्रह्मचर्य पालन और प्रजा की उत्पत्ति- इन तीनों के लिये सभी मनुष्यों पर ऋण रहता है, इसमें संशय नहीं है। यज्ञ, तपस्या और वेदाध्ययन के द्वारा वह सारा ऋण दूर किया जाता है। आप तपस्वी और यज्ञकर्ता तो हैं ही, आप के कोई संतान नहीं है। अतः संतान के लिये ही आपके ये लोक ढके हुए हैं। इसलिये पहले संतान उत्पन्न कीजिये, फिर अपने प्रचुर पुण्यलोकों का फल भोगियेगा। श्रुति का कथन है कि पुत्र ‘पुत्’ नामक नरक से पिता का उद्धार करता है। अतः विप्रवर! आप अपनी वंश परम्परा की अविच्छिन्न बनाने का प्रयत्न कीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! देवताओं का वह वचन सुनकर मन्दपाल ने बहुत सोचा-विचारा कि कहाँ जाने से मुझे शीघ्र संतान होगी। यह सोचते हुए वे अधिक बच्चे देने वाले पक्षियों के यहाँ गये और शांर्गिक होकर जरिता नाम वाली शांर्गिका से सम्बन्ध स्थापित किया। जरिता के गर्भ से चार ब्रह्मवादी पुत्रों को मुनि ने जन्म दिया। अंडे में पड़े हुए उन बच्चों को माता सहित वहीं छोड़कर वे मुनि वन में लपिता के पास चले गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
भारत! महाभाग मन्दपाल मुनि के लपिता के पास चले जाने पर संतान के प्रति स्नेहयुक्त जरिता को बड़ी चिन्ता हुई। अंडे में स्थित उन मुनियों को यद्यपि मन्दपाल ने त्याग दिया था, तो भी वे त्याग के योग्य नहीं थे। अतः पुत्र शोक से पीड़ित हुई जरिता ने खाण्डववन में अपने पुत्रों को नहीं छोड़ा। वह स्नेह से विह्वल होकर अपनी वृत्ति द्वारा उन नवजात शिशुओं का भरण-पोषण करती रही। उधर वन में लपिता के साथ विचरते हुए मन्दपाल मुनि ने अग्निदेव को खाण्डववन का दाह करने के लिये आते देखा। अग्निदेव के संकल्प को जानकर और पुत्रों की बाल्यावस्था का विचार करके ब्रह्मर्षि मन्दपाल भयभीत होकर महातेजस्वी लोकपाल अग्नि से अपने पुत्रों की रक्षा के लिये निवेदन करते हुए (ईश्वर की भाँति) उनकी स्तुति करने लगे।
मन्दपाल ने कहा ;- अग्निदेव! आप सब लोकों के मुख हैं, आप ही देवताओं को हविष्य पहुँचाते हैं। पावक! आप समस्त प्राणियों के अन्तस्तल में गूढ़ रूप से विचरते हैं। विद्वान् पुरुष आपको एक (अद्वितिय ब्रह्मरूप) बताते हैं। फिर दिव्य, भौम और जठरानल रूप से आपके विविध स्वरूप् का प्रतिपादन करते हैं। आपको ही पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा और यजमान- इन आठ मूर्तियों में विभक्त करके ज्ञानी पुरुषों ने आपको यज्ञवाहन बनाया है। महर्षि कहते हैं कि इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि आपने ही की है। हुताशन! आपके बिना सम्पूर्ण जगत् तत्काल नष्ट हो जायेगा। ब्रह्मण लोग आपको नमस्कार करके अपनी पत्नियों और पुत्रों के साथ कर्मानुसार प्राप्त की हुई सनातन गति को प्राप्त होते हैं। अग्ने! आकाश में विद्युत् के साथ मेघों की जो घटा घिर आती है, उसे भी आपका ही स्वरूप कहते हैं। प्रलयकाल में आपसे ही भयंकर ज्वालाऐं निकलकर सम्पूर्ण प्राणियों को भस्म कर डालती हैं। महान् तेजस्वी जातवेदा! आपसे ही यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ है। तथा आपके ही द्वारा कर्मों का विधान किया गया है और सम्पूर्ण चराचर प्राणियों की उत्पत्ति भी आपसे ही हुई है। आपसे ही पूर्वकाल में जल की सृष्टि हुई है और आप में ही सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। आप ही में हव्य और कव्य यथावत् प्रतिष्ठित हैं। देव! आप ही दग्ध करने वाले अग्नि, धारण-पोषण करने वाले धाता और बुद्धि के स्वामी बृहस्पति हैं। आप ही युगल अश्विनीकुमार, मित्र (सूर्य), चन्द्रमा और वायु हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! मन्दपाल मुनि के इस प्रकार स्तुति करने पर अग्निदेव उन अमित तेजस्वी महर्षि पर प्रसन्न हुए और प्रसन्नचित्त होकर उनसे बोले,,
अग्निदेव बोले ;- ‘मैं आपके किस अभीष्ट कार्य की सिद्धि करूँ?’ तब मन्दपाल ने हाथ जोड़कर हव्यवाहन अग्नि से कह,,
मन्दपाल बोले ;- ‘भगवान! आप खाण्डववन का दाह करते समय मेरे पुत्रों को बचा दें’। ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान् हव्यवाहन ने वैसा करने की प्रतिज्ञा की और उस समय खाण्डववन को जलाने के लिये वे प्रज्वलित हो उठे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिप र्व के अन्तर्गत मयदर्शन पर्व में शांर्गकोपाख्यान विषयक दो सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)
दौ सौ उन्नतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"जरिता का अपने बच्चों की रक्षा के लिये चिन्तित होकर विलाप करना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर जब आग प्रज्वलित हुई, तब वे शांर्गक शिशु बहुत दुखी, व्यथित और अत्यन्त उद्विग्न हो गये। उस समय उन्हें अपना कोई रक्षक नहीं जान पड़ता था। उन बच्चों को छोटे जानकर उनकी तपस्विनी माता शोक और दुःख से आतुर हुई जरिता बहुत दुखी होकर विलाप करने लगी।
जरिता बोली ;- यह भयानक आग इस वन को जलाती हुई इधर ही बढ़ रही है। जान पड़ता है, यह सम्पूर्ण जगत् को भस्म कर डालेगी। इसका स्वरूप भयंकर और मेरे दुःख को बढ़ाने वाला है। ये सांसारिक शान से शून्य चित्त वाले शिशु मुझे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इन्हें पाँखें नहीं निकली और अभी तक ये पैरों से भी हीन हैं, हमारे पितरों के ये ही आधार हैं। सबको त्रास देत और वृक्षों को चाटती हुई वह आग की लपट इधर ही चली आ रही है।
हाय! मेरे बच्चे बिना पंख के हैं, मेरे साथ उड़ नहीं सकते। मैं स्वयं भी इन्हें लेकर इस आग से पार नहीं हो सकूँगी। इन्हें छोड़ भी नहीं सकती। मेरे हृदय में इनके लिये बड़ी व्यथा हो रही है। मैं किस बच्चे को छोड़ दूँ और किसे लेकर साथ लेकर जाऊँ? क्या करने से कृतकृत्य हो सकती हूँ? मेरे बच्चों! तुम लोगों की क्या राय है? मैं तुम लोगों के छुटकारे का उपाय सोचती हूँ; किंतु कुछ भी समझ में नहीं आता। अच्छा; अपने अंगों से तुम लोगों को ढँक लूँगी और तुम्हारे साथ ही मैं भी मर जाऊँगी। पुत्रो! तुम्हारे निर्दयी पिता पहले ही यह कहकर चल दिये कि ‘जरितारि ज्येष्ठ है’ अतः इस कुल की रक्षा का भार इसी पर होगा। दूसरा पुत्र सारिसृक्क अपने पितरों के कुल की वृद्धि करने वाला होगा। स्तम्बमित्र तपस्या करेगा और द्रोण ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो। हाय! मुझ पर बड़ी भारी कष्टदायिनी आपत्ति आ पड़ी। इन चारों बच्चों में से किसको लेकर मैं इस आग को पार कर सकूँगी। क्या करने से मेरा कार्य सिद्ध हो सकता है? इस प्रकार विचार करते-करते जरिता अत्यन्त विह्वल हो गयी; परंतु अपने पुत्रों को उस आग से बचाने का कोई उपाय उस समय उसके ध्यान में नहीं आया।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार बिलखती हुई अपनी माता से वे शांर्ग पक्षी क बच्चे बोले,,
बच्चे बोले ;- ‘माँ तुम स्नेह छोड़कर जहाँ आग न हो, उधर उड़ जाओ। माँ! यदि हम यहाँ नष्ट हो जायँ तो भी तुम्हारे दूसरे बच्चे हो सकते हैं; परंतु तुम्हारे नष्ट हो जाने पर तो हमारे इस कुल की परम्परा ही लुप्त हो जायेगी। माँ! इन दोनों बातों पर विचार करके जिस प्रकार हमारे कुल का कल्याण हो, वही करने को तुम्हारे लिये यह उत्तम अवसर है। तुम हम सब पुत्रों पर ऐसा स्नेह न करो, जिससे सब का विनाश हो जाय। उत्तम लोक की इच्छा रखने वाले मेरे पिता का यह कर्म व्यर्थ न हो जाय।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 16-22 का हिन्दी अनुवाद)
जरिता बोली ;- मेरे बच्चों! इस वृक्ष के पास भूमि में यह चूहे का बिल है। तुम लोग जल्दी से जल्दी इसके भीतर घुस जाओ। इसके भीतर तुम्हें आग से भय नहीं है। तुम लोगों के घुस जाने पर मैं इस बिल का छेद धूल से बंद कर दूँगी। बच्चों मेरा विश्वास है, ऐसा करने से इस जलती आग से तुम्हारा बचाव हो सकेगा। फिर आग बुझ जाने पर मैं धूल हटाने के लिये यहाँ आ जाऊँगी। आग से बचने के लिये मेरी यह बात तुम लोगों को पसंद आनी चाहिये।
शांर्गक बोले ;- अभी हम बिना पंखों के बच्चे हैं, हमारा शरीर मांस का लोथड़ा मात्र है। चूहा मांसभक्षी जीव है, वह हमें नष्ट कर देगा। इस भय को देखते हुए हम इस बिल में प्रवेश नहीं कर सकते। हम तो यह सोचते हैं कि क्या उपाय हो, जिससे अग्नि हमें न जलावे, चूहा हमें न मारे एवं हमारे पिता का संतानोत्पादन विषयक प्रयत्न निष्फल न हो और हमारी माता भी जीवित रहे? बिल में चूहे से हमारा विनाश हो जायगा और आकाश में उड़ने पर अग्नि से। इन दोनों परिणामों पर विचार करने से हमें आग से जल जाना श्रेष्ठ जान पड़ता है, चूहे का भोजन बनना नहीं। यदि हम लोगों को बिल में चूहे ने खा लिया तो वह हमारी निन्दित मृत्यु होगी। आग से जलकर शरीर का परित्याग करने के लिये शिष्ट पुरुषों की आज्ञा है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत मयदर्शन पर्व में जरिताविलाप विषयक दो सौ उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)
दौ सौ तीसवाँ अध्याय
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