सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के दौ सौ इक्कीसवें अध्याय से दो सौ पच्चीसवें अध्याय तक (from the 221 chapter to the 225 chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

दौ सौ इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता, कृष्ण और अर्जुन का खाण्डव वन में जाना तथा उन दोनों के पास ब्राह्मणवेशधारी अग्निदेव का आगमन"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र तथा शान्तनुनन्दन भीष्म की आज्ञा से इन्द्रप्रस्थ में रहते हुए पाण्डवों ने अन्य बहुत से राजाओं को, जो उनके शत्रु थे, मार दिया। धर्मराज युधिष्ठिर का आसरा लेकर सब लोग सुख से रहने लगे, जैसे जीवात्मा पुण्यकर्मों के फलस्वरूप् अपने उत्तम शरीर को पाकर सुख से रहता है। भरतश्रेष्ठ! महाराज युधिष्ठिर नीतिज्ञ पुरुष की भाँति धर्म, अर्थ और काम इन तीनों को आत्मा के समान प्रिय बन्धु मानते हुए न्याय और समतापूर्वक इनका सेवन करते थे। इस प्रकार तुल्यरूप से बँटे हुए धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थ भूतल पर मानो मूर्तिमान होकर हो रहे थे और राजा युधिष्ठिर चौथे पुरुषार्थ मोक्ष की भाँति सुशोभित होते थे। प्रजा ने महाराज युधिष्ठिर के रूप में ऐसा राजा पाया था, जो परमब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करने वाला, बड़े बडे़ यज्ञों में वेदों का उपयोग करने वाला और शुभ लोकों के संरक्षण में तत्पर रहने वाला था। राजा युधिष्ठिर के द्वारा दूसरे राजाओं की चंचल लक्ष्मी भी स्थिर हो गयी, बुद्धि उत्तम निष्ठा वाली हो गयी और सम्पूर्ण धर्म की दिनों दिन वृद्धि होने लगी। जैसे यथावसर उपयोग में लाये जाने वाले चारों वेदों के द्वारा विस्तारपूर्वक आरम्भ किया हुआ महायज्ञ शोभा पाता है, उसी प्रकार अपनी आज्ञा के अधीन रहने वाले चारों भाईयों के साथ राजा युधिष्ठिर अत्यन्त सुशोभित होते थे।

जैसे बृहस्पतिवार- सदृश मुख्य-मुख्य देवता प्रजापति की सेवा में उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार धौम्य आदि ब्राह्मण राजा युधिष्ठिर को सब ओर से घेरकर बैठते थे। निर्मल एवं पूर्ण चन्द्रमा के समान आनन्दप्रद राजा युधिष्ठिर के प्रति अत्यन्त प्रीति होने के कारण उन्हें देखकर प्रजा के नेत्र और मन एक साथ प्रफुल्लित हो उठते थे। प्रजा केवल उनके पालनरूप् राजोचित कर्म से ही संतुष्ट नहीं थी, वह उनके प्रति श्रद्धा और भक्तिभाव रखने के कारण भी सदा आनन्दित रहती थीे। राजा के प्रति प्रजा की भक्ति इसलिये थी कि प्रजा के मन को जो प्रिय लगता था, राजा युधिष्ठिर उसी को क्रिया द्वारा पूर्ण करते थे। सदा मीठी बातें करने वाले बुद्धिमान, कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर के मुख से कभी कोई अनुचित, असत्य, असह्य और अप्रिय बात नहीं निकलती थी। भरतश्रेष्ठ! महातेजस्वी राजा युधिष्ठिर सब लोगों का और अपना भी हित करने की चेष्टा में लगे रहकर सदा प्रसन्नतापूर्वक समय बिताते थे। इस प्रकार सभी पाण्डव अपने तेज से दूसरे नरेशों को संतप्त करते हुए निश्चिन्त तथा आनन्दमग्न होकर वहाँ निवास करते थे। तदनन्तर कुछ दिनों के बाद अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा,,

अर्जुन बेले ;- ‘कृष्ण! बड़ी गरमी पड़ रही है। चलिये, यमुना जी में स्नान के लिये चलें। मधुसूदन! मित्रों के साथ वहाँ जलविहार करके हमलोग शाम तक लौट आयेंगे। जनार्दन! यदि आपकी रुचि हो तो चलें।' 

वासुदेव बोले ;- कुन्तीनन्दन! मेरी भी ऐसी ही इच्छा हो रही है कि हम लोग सुहृदों के साथ वहाँ चलकर सुखपूर्वक जलविहार करें।'

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्पायन जी कहते है ;- भारत! यह सलाह करके युधिष्ठिर की आज्ञा से अर्जुन और श्रीकृष्ण सुहृदों के साथ वहाँ गये। यमुना के तट पर जहाँ विहारस्थान था, वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण और अर्जुन के रनिवास की स्त्रियाँ नाना प्रकार के सुन्दर रत्नों के साथ क्रीड़ाभवन के भीतर चली गयीं। वह उत्तम विहार भूमि नाना प्रकार के वृक्षों से सुशोभित थी। वहाँ बने हुए अनेक छोटे-बडे़ भवनों के कारण वह स्थान इन्द्रपुरी के समान सुशोभित होता था। अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ अनेक प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, बहुमूल्य सरस पेय, भाँति-भाँति के पुष्पहार और सुगन्धित द्रव्य भी थे। भारत! वहाँ जाकर सब लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार जलक्रीड़ा करने लगे। विशाल नितम्बों और मनोहर पीन उरोजों वाली वामलोचना वनिताएँ भी यौवन के मद के कारण डगमगाती चाल से चलकर इच्छानुसार क्रीड़ाएँ करने लगीं। वे स्त्रियाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन की रुचि के अनुसार कुछ वन में, कुछ जल में और कुछ घरों में यथोचित रूप से क्रीड़ा करने लगीं। महाराज! उस समय यौवनमद से युक्त द्रौपदी और सुभद्रा ने बहुत से वस्त्र और आभूषण बाँटे। वहाँ कुछ श्रेष्ठ स्त्रियाँ हर्षोल्लास में भरकर नृत्य करने लगीं! कुछ जोर-जोर से कोलाहल करने लगीं।

अन्य बहुत सी स्त्रियाँ ठठाकर हँसने लगीं तथा कुछ सुन्दरी स्त्रियाँ गीत गाने लगीं। कुछ एक दूसरे को पकड़कर रोकने और मृदु प्रहार करने लगीं तथा कुछ दूसरी स्त्रियाँ एकान्त में बैठकर आपस में कुछ गुप्त बातें करने लगीं। वहाँ का राजभवन और महान् समृद्धिशाली वन वीणा, वेणु और मृदंग आदि मनोहर वाद्यों की सुमधुर ध्वनि से सब ओर गूँजने लगा। इस प्रकार जब वहाँ क्रीड़ा विहार का आनन्दमय उत्सव चल रहा था, उसी समय श्रीकृष्ण और अर्जुन पास के ही किसी अत्यन्त मनोहर प्रदेश में गये। राजन्! वहाँ जाकर शत्रुओं की राजधानी को जीतने वाले वे दोनों महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन दो बहुमूल्य सिंहासनों पर बैठे और पहले किये हुए पराक्रमों तथा अन्य बहुत सी बातों की चर्चा करके आमोद-प्रमोद करने लगे। वहाँ प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए धनंजय और वासुदेव स्वर्गलोक में स्थित अश्विनीकुमारों की भाँति सुशोभित हो रहे थे। उसी समय उन दोनों के पास एक ब्राह्मण देवता आये। वे विशाल शालवृक्ष के समान ऊँचे थे। उनकी कान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान थी। उनके सारे अंग नीले और पीले रंग के थे, दाढ़ी-मूँछें अग्निज्वाला के समान पीत वर्ण की थी तथा ऊँचाई के अनुसार ही उनकी मोटाई थी। वे प्रातःकालिक सूर्य के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। वे चीर वस्त्र पहने और मस्तक पर जटा धारण किये हुए थे। उनका मुख कमलदल के समान शोभा पा रहा था। उनकी प्रभा पिंगलवर्ण की थी और वे अपने तेज से मानो प्रज्वलित हो रहे थे। वे तेजस्वी द्विजश्रेष्ठ जब निकट आ गये, तब अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण तुरंत ही आसन से उठकर खड़े हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाह पर्व में ब्राह्मणरूपी अग्निदेव के आगमन से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

दौ सौ बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"अग्निदेव का खाण्डववन को जलाने के लिये श्रीकृष्ण और अर्जुन से सहायता की याचना करना, अग्निदेव उस वन को क्यों जलाना चाहते थे, इसे बताने के प्रसंग में राजा श्वेतकि की कथा"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उन ब्राह्मण देवता ने अर्जुन और सात्वतवंशी भगवान् वासुदेव से, जो विश्वविख्यात वीर थे और खाण्डववन के समीप खड़े हुए थे,

ब्राह्मण ने कहा ;- ‘मैं अधिक भोजन करने वाला एक ब्राह्मण हूँ और सदा अपरिमित अन्न भोजन करता हूँ। वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन! आज मैं आप दोनों से भिक्षा माँगता हूँ। आप लोग एक बार पूर्ण भोजन कराकर मुझे तृप्ति प्रदान कीजिये।’ उनके ऐसा कहने पर,,

 श्रीकृष्ण और अर्जुन बोले ;- ‘ब्रह्मन्! बताइये, आप किस अन्न से तृप्त होंगे? हम दोनों उसी के लिये प्रयत्न करेंगे।’ जब वे दोनों वीर ‘आपके लिये किस अन्न की व्यवस्था की जाय?’ इसी बात को बार-बार दुहराने लगे, तब उनके ऐसा कहने पर भगवान् अग्निदेव उन दोनों से इस प्रकार बोले।

ब्राह्मण देवता ने कहा ;- वीरो! मुझे अन्न की भूख नहीं है, आप लोग मुझे अग्नि समझें। जो अन्न मेरे अनुरूप हो, वही आप दोनों मुझे दें। इन्द्र सदा इस खाण्डववन की रक्षा करते हैं। उन महामना से सुरक्षित होने के कारण मैं इसे जला नहीं पाता। इस वन में इन्द्र का सखा तक्षक नाग अपने परिवार सहित सदा निवास करता है। उसी के लिये वज्रधारी इन्द्र सदा इसकी रक्षा करते हैं। उस तक्षक नाग के प्रसंग से ही यहाँ रहने वाले और भी अनेक जीवों की वे रक्षा करते हैं, इसलिये इन्द्र के प्रभाव से मैं इस वन को जला नहीं पाता। परंतु मैं सदा ही इसे जलाने की इच्छा रखता हूँ। मुझे प्रज्वलित देखकर वे मेघों द्वारा जल की वर्षा करने लगते हैं, यही कारण है कि जलाने की इच्छा रखते हुए भी मैं इस खाण्डववन को दग्ध करने में सफल नहीं हो पाता। आप दोनों अस्त्रविद्या के पूरे जानकार हैं, अतः मैं इसी उद्देश्य से आपके पास आया हूँ कि आप दोनों की सहायता से इस खाण्डववन को जला सकूँ। मैं इसी अन्न की भिक्षा माँगता हूँ। आप दोनों उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता हैं, अतः जब मैं इस वन को जलाने लगूँ, उस समय आप लोग ऊपर से बरसती हुई जल की धाराओं तथा इस वन से निकलकर चारों ओर भागने वाले प्राणियों को रोकियेगा।

जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! भगवान् अग्निदेव देवराज इन्द्र के द्वारा सुरक्षित और अनेक प्रकार के जीव जन्तुओं से भरे हुए खाण्डववन को किसलिये जलाना चाहते थे? विप्रवर! मुझे इसका कोई साधारण कारण नहीं जान पड़ता, जिसके लिये कुपित होकर हव्यवाहन अग्नि ने समूचे खाण्डववन को भस्म कर दिया। ब्रह्मन्! मुने! पूर्वकाल में खाण्डववन का दाह जिस प्रकार हुआ, वह सब विस्तार के साथ में ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ।

वैशम्पायन जी ने कहा ;- महाराज जनमेजय! अग्निदेव ने जिस कारण खाण्डववन को जलाया, वह सब वृत्तान्त मैं यथावत् बतलाता हूँ, सुनो। नरश्रेष्ठ! खाण्डववन के विनाश से सम्बन्ध रखने वाली वह प्राचीन कथा महर्षियों द्वारा प्रस्तुत की गयी हैं। उसी को मैं तुमसे कहूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! सुना जाता है, प्राचीनकाल में इन्द्र के समान बल और पराक्रम से सम्पन्न श्वेतकि नाम के राजा थे। उस समय उनके जैसा यज्ञ करने वाला, दाता और बुद्धिमान् दूसरा कोई नहीं था। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणा वाले अनेक बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया था। राजन्! प्रतिदिन उनके मन में यज्ञ और दान के सिवा दूसरा कोई विचार ही नहीं उठता था। वे यज्ञकर्मों के आरम्भ और नाना प्रकार के दानों में ही लगे रहते थे। इस प्रकार वे बुद्धिमान् नरेश ऋत्विजों के साथ यज्ञ किया करते थे। यज्ञ करते-करते उनके ऋत्विजों की आँखे धूएँ से व्याकुल हो उठी। दीर्घकाल तक आहुति देते-देते वे सभी खिन्न हो गये थे। इसलिये राजा को छोड़कर चले गये। तब राजा ने उन ऋत्विजों को पुनः यज्ञ के लिये प्रेरित किया। परंतु जिनके नेत्र दुखने लगे थे, वे ऋत्विज उनके यज्ञ में नहीं आये। तब राजा ने उनकी अनुमति लेकर दूसरे ब्राह्मणों को ऋत्विज बनाया और उन्हीं के साथ अपने चालू किये हुए यज्ञ को पूरा किया। इस प्रकार यशपरायण राजा के मन में किसी समय यह संकल्प उठा कि मैं सौ वर्षों तक चालू रहने वाला एक सत्र प्रारम्भ करूँ; परंतु उन महामना को वह यज्ञ आरम्भ करने के लिये ऋत्विज ही नहीं मिले। उन महायशस्वी नरेश ने अपने सुहृदों को साथ लेकर इस कार्य के लिये बहुत बड़ा प्रयत्न किया। पैरों पर पड़कर, सान्त्वनापूर्ण वचन कहकर और इच्छानुसार दान देकर बार-बार निरालस्यभाव से ऋत्विजों को मनाया, उनसे यज्ञ कराने के लिये अनुनय-विनय की; परंतु उन्होंने अमित तेजस्वी नरेश के मनोरथ को सफल नहीं किया।

तब उन राजर्षि ने कुछ कुपित होकर आश्रमवासी महर्षियों से कहा,,

राजर्षि श्वेतकि बोले ;- ‘ब्राह्मणों! यदि मैं पतित होऊँ और आप लोगों की शुश्रूषा से मुँह मोड़ता होऊँ तो निन्दित होने के कारण आप सभी ब्राह्मणों के द्वारा शीघ्र की त्याग देने योग्य हूँ, अन्यथा नहीं; अतः यज्ञ कराने के लिये मेरी इस बढ़ी हुई श्रद्धा में आप लोगों को बाधा नहीं डालनी चाहिये। विप्रवरो! इस प्रकार बिना किसी अपराध के मेरा परित्याग करना आप लोगों के लिये कदापि उचित नहीं है। मैं आपकी शरण में हूँ। आप लोग कृपापूर्वक मुझ पर प्रसन्न होइये। श्रेष्ठ द्विजगण! मैं कार्यार्थी होने के कारण सान्त्वना देकर दान आदि देने की बात कहकर यथार्थ वचनों द्वारा आप लोगों को प्रसन्न करके आपकी सेवा में अपना कार्य निवेदन कर रह हूँ। द्विजोत्तमो! यदि आप लोगों ने द्वेषवश मुझे त्याग दिया तो मैं यह यज्ञ कराने के लिये दूसरे ऋत्विजों के पास जाऊँगा।’ इतना कहकर राजा चुप हो गये। परंतप जनमेजय! जब वे ऋत्विज राजा का यज्ञ कराने के लिये उद्यत न हो सके, 

तब वे रुष्ट होकर उन नृपश्रेष्ठ से बोले,,

ऋत्विज बोले ;- ‘भूपालशिरोमणे! आपके यज्ञकर्म तो निरन्तर चलते रहते हैं। अतः सदा कर्म में लगे रहने के कारण हम लोग थक गये हैं, पहले के परिश्रम से हमारा कष्ट बढ़ गया है। ऐसी दशा में बुद्धिमोहित होने के कारण उतावले होकर आप चाहें तो हमारा त्याग कर सकते है। निष्पाप नरेश! आप तो भगवान रुद्र के समीप जाइये। अब वे ही आपका यज्ञ करायेंगे।’

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 36-58 का हिन्दी अनुवाद)

ब्राह्मणों का यह आक्षेपयुक्त वचन सुनकर राजा श्वेतकि को बड़ा क्रोध हुआ। वे कैलास पर्वत पर जाकर उग्र तपस्या में लग गये। राजन्! तीक्ष्ण व्रत का पालन करने वाले राजा श्वेतकि मन-इन्द्रियों के संयमपूर्वक महादेव जी की आराधना करते हुए बहुत दिनों तक निराहार खडे़ रहे। वे कभी बारहवें दिन और कभी सोहलवें दिन फल-मूल का आहार कर लेते थे। दोनों बाँहे ऊपर उठाकर एक-टक देखते हुए राजा श्वेतकि एकाग्रचित्त हो छः महीनों तक ठूँठ की तरह अविचल भाव से खड़े रहे। भारत! उन नृपश्रेष्ठ को इस प्रकार भारी तपस्या करते देख भगवान् शंकर ने अत्यन्त् प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिया। और स्नेहपूर्वक गम्भीर वाणी में भगवान् ने उनसे कहा,,

भगवान शंकर बोले ;- ‘परंतप! नरश्रेष्ठ! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। भूपाल! तुम्हारा कल्याण हो। तुम जैसा चाहते हो, वैसा वर माँग लो।’ अमित तेजस्वी रुद्र का यह वचन सुनकर राजर्षि श्वेतकि ने परमात्मा शिव के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार कहा,,

राजर्षि श्वेतकि बोले ;- ‘देवदेवश! सुरेश्वर! यदि मेरे ऊपर आप सर्वलोकवन्दित भगवान् प्रसन्न हुए हैं तो स्वयं चलकर मेरा यज्ञ करायें।’ राजा की कही हुई यह बात सुनकर भगवान् शिव प्रसन्न होकर मुस्कराते हुए बोले,,

भगवान शिव बोले ;- ‘राजन्! यज्ञ कराना हमारा काम नहीं हैं; परंतु तुमने वही वर माँगने के लिये भारी तपस्या की है, अतः परंतप नरेश! मैं एक शर्त पर तुम्हारा यज्ञ कराऊँगा।’

रुद्र बोले ;- राजेन्द्र! यदि तुम एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बारह वर्षों तक घृत की निरन्तर अविच्छिन्न धारा द्वारा अग्निदेव को तृप्त करो तो मुझसे जिस कामना के लिये प्रार्थना कर रहे हो, उसे पाओगे। 

    भगवान रुद्र के ऐसा कहने पर राजा श्वेतकि ने शूलपाणि शिव की आज्ञा के अनुसार सारा कार्य सम्पन्न किया। बारहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर भगवान् महेश्वर पुनः आये। सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति करने वाले भगवान् शंकर नृपश्रेष्ठ श्वेतकि को देखते ही अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले,,

भगवान शंकर बोले ;- ‘भूपाल शिरोमणे! तुमने इस वेदविहित कर्म के द्वारा मुझे पूर्ण संतुष्ट किया है, परंतु परंतप! शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ कराने का अधिकार ब्राह्मणों को ही है। अतः परंतप! मैं स्वयं तुम्हारा यज्ञ नहीं कराऊँगा। पृथ्वी पर मेरे ही अंशभूत एक महाभाग श्रेष्ठ द्विज हैं। वे दुर्वासा नाम से विख्यात हैं। महातेजस्वी दुर्वासा मेरी आज्ञा से तुम्हारा यज्ञ करायेंगे। तुम सामग्री जुटाओ।’ भगवान रुद्र का कहा हुआ यह वचन सुनकर राजा पुनः अपने नगर में आये और यज्ञ सामग्री जुटाने लगे। तदनन्तर सामग्री जुटाकर वे पुनः भगवान् रुद्र के पास गये और बोले,,

राजर्षि श्वेतकि बोले ;- ‘महादेव! आपकी कृपा से मेरी यज्ञ सामग्री तथा अन्य सभी आवश्यक उपकरण जुट गये। अब कल मुझे यज्ञ की दीक्षा मिल जानी चाहिये।’ महामना राजा का यह कथन सुनकर भगवान् रुद्र ने दुर्वासा को बुलाया और कहा,,

भगवान शंकर बोले ;- ‘द्विजश्रेष्ठ! ये महाभाग राजा श्वेतकि हैं। विप्रेन्द्र! मेरी आज्ञा से तुम इन भूमिपाल का यज्ञ कराओ।’ यह सुनकर महर्षि ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 59-80 का हिन्दी अनुवाद)

तदनन्तर यथासमय विधिपूर्वक उन महामना नरेश का यज्ञ आरम्भ हुआ। शास्त्र में जैसा बताया गया है, उसी ढंग से सब कार्य हुआ। उस यज्ञ में बहुत सी दक्षिणा दी गयी। उन महामना नरेश का वह यज्ञ पूरा होने पर उसमें जो महातेजस्वी सदस्य और ऋत्विज दीक्षित हुए थे, वे सब दुर्वासा जी की आज्ञा ले अपने-अपने स्थान को चले गये। राजन्! वे महान् सौभाग्यशाली नरेश भी वेदों के पारंगत महाभाग ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित हो उस समय अपनी राजधानी में गये। उस समय बन्दीजनों ने उनका यश गाया और पुरवासियों ने अभिनन्दन किया। नृपश्रेष्ठ राजर्षि श्वेतकि का आचार-व्यवहार ऐसा ही था। वे दीर्घकाल के पश्चात् अपने यज्ञ के सम्पूर्ण सदस्यों तथा ऋत्विजों सहित देवताओं से प्रशंसित हो स्वर्गलोक में गये। उनके यज्ञ में अग्नि ने लगातार बारह वर्षों तक घृतपान किया था। उस अद्वितिय यज्ञ में निरन्तर घी की अविच्छिन्न धाराओं से अग्निदेव को बड़ी तृप्ति प्राप्त हुई। अब उन्हें फिर दूसरे किसी का हविष्य ग्रहण करने की इच्छा नहीं रही। उनका रंग सफेद हो गया, कान्ति फीकी पड़ गयी तथा वे पहले की भाँति प्रकाशित नहीं होते थे।

तब भगवान् अग्निदेव के उदर में विकार हो गया। वे तेज से हीन हो ग्लानि को प्राप्त होने लगे। अपने को तेज से हीन देख अग्निदेव ब्रह्मा जी के लोकपूजित पुण्यधाम में गये। वहाँ बैठे हुए ब्रह्मा जी से वे यह वचन बोले,,

अग्निदेव बोले ;- ‘भगवन्! राजा श्वेतकि ने अपने यज्ञ में मुझे परम संतुष्ट कर दिया। परंतु मुझे अत्यन्त अरुचि हो गयी है, जिस मैं किसी प्रकार दूर नहीं कर पाता। जगत्पते! उस अरुचि के कारण मैं तेज और बल से हीन होता जा रह हूँ। अतः मैं चाहता हूँ कि आपकी कृपा से मैं स्वस्थ हो जाऊँ; मेरी स्वाभाविक स्थिति सुदृढ़ बनी रहे।’ अग्निदेव की यह बात सुनकर सम्पूर्ण जगत् के स्रष्टा भगवान् ब्रह्माजी हव्यवाहन अग्नि से हँसते हुए से इस प्रकार बोले,,

ब्रम्हा जी बोले ;- ‘महाभाग! तुमने बारह वर्षों तक वसुधारा की आहुति के रूप में प्राप्त हुई घृतधारा का उपभोग किया है। इसीलिये तुम्हें ग्लानि प्राप्त हुई है। हव्यवाहन! तेज से हीन होने के कारण तुम्हें सहसा अपने मन में ग्लानि नहीं आने देनी चाहिये। वह्ने! तुम फिर पूर्ववत् स्वरूप हो जाआगे। मैं समय पाकर तुम्हारी अरुचि नष्ट कर दूँगा।

  पूर्वकाल में देवताओं के आदेश से तुमने दैत्यों के जिस अत्यन्त घोर निवास स्थान खाण्डववन को जलाया था, वहाँ इस समय सब प्रकार के जीव-जन्तु आकर निवास करते हैं। विभावसो! उन्हीं के मेद से तृप्त होकर तुम स्वस्थ हो सकोगे। उस वन को जलाने के लिये तुम शीघ्र ही जाओ। तभी इस ग्लानि से छुटकारा पा सकोगे।’ परमेष्ठी ब्रह्मा जी के मुख से निकली हुई यह बात सुनकर अग्निदेव बड़े वेग से वहाँ दौडे़ गये। खाण्डववन में पहुँचकर उत्तम बल का आश्रय ले वायु का सहारा पाकर कुपित अग्निदेव सहजा प्रज्वलित हो उठे। खाण्डववन को जलते देख वहाँ रहने वाले प्राणियों ने उस आग को बुझाने के लिये बड़ा यत्न किया। सैंकड़ों और हजारों की संख्या में हाथी अपनी सूँडों में जल लेकर शीघ्रतापूर्वक दौडे़ आते और क्रोधपूर्वक उतावली के साथ आग पर उस जल को उडे़ल दिया करते थे। अनेक सिर वाले नाग भी क्रोध से मूर्च्छित हो अपने मस्तकों द्वारा अग्नि के समीप शीघ्रतापूर्वक जल की धारा बरसाने लगे। भरतश्रेष्ठ! इसी प्रकार दूसरे-दूसरे जीवों ने भी अनेक प्रकार के प्रहारों (धूल झोंकने आदि) तथा उद्यमों (जल छिड़कने आदि) के द्वारा शीघ्रतापूर्वक उस आग को बुझा दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाह पर्व में अग्निपराभव विषयक दो सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

दौ सौ तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन का अग्नि से प्रार्थना स्वीकार करके उनसे दिव्य धनुष एवं रथ आदि माँगना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अपनी असफलता से अग्निदेव को बड़ी निराशा हुई। वे सदा ग्लानि में डूबे रहने लगे और कुपित हो पितामह ब्रह्मा जी के पास गये। वहाँ उन्होंने ब्रह्मा जी से सब बातें यथोचित रीति से कह सुनायीं। तब भगवान ब्रह्मा जी दो घड़ी तक विचार करके उनसे बोले,,

ब्रह्मा जी बोले ;- ‘अनघ! तुम जिस प्रकार खाण्डववन को जलाओगे, वह उपाय तो मुझे सूझ गया है; किंतु उसके लिये तुम्हें कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अनल! इसके बाद तुम खाण्डववन को जला सकोगे। हव्यवाहन! उस समय नर और नारायण तुम्हारे सहायक होंगे। उन दोनों के साथ रहकर तुम उस वन को जला सकोगे।’

तब अग्नि ने ब्रह्मा जी से कहा ;- ‘अच्छा, ऐसा ही सही।’ तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात नर-नारायण ऋषियों के अवतीर्ण होने की बात जानकर अग्निदेव को ब्रह्मा जी की बात का स्मरण हुआ। राजन! तब वे पुनः ब्रह्मा जी के पास गये।

उस समय ब्रह्मा जी ने कहा ;- ‘अनल! अब जिस प्रकार तुम इन्द्र के देखते-देखते अभी खाण्डववन जला सकोगे, वह उपाय सुनो। विभावसो! आदिदेव नर और नारायण मुनि इस समय देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए मनुष्यलोक में अवतीर्ण हुए हैं। वहाँ के लोग उन्हें अर्जुन और वासुदेव के नाम से जानते हैं। वे दोनों इस समय खाण्डववन के पास ही एक साथ बैठे हैं। उन दोनों से तुम खाण्डववन जलाने के कार्य में सहायता की याचना करो। तब तुम इन्द्रादि देवताओं से रक्षित होने पर भी उस वन को जला सकोगे। वे दोनों वीर एक साथ होने पर यत्नपूर्वक वन के सारे जीवों को भी रोकेंगे और देवराज इन्द्र का भी सामना करेंगे, मुझे इसमें कोई संशय नहीं है।’ नृपश्रेष्ठ! यह सुनकर हव्यवाहन ने तुरंत श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास आकर जो कार्य निवेदन किया, वह मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ। जनमेजय! अग्नि का वह कथन सुनकर अर्जुन ने इन्द्र की इच्छा के विरुद्ध खाण्डववन को जलाने की अभिलाषा रखने वाले जातवेदा अग्नि से उस समय के अनुकूल यह बात कही।

  अर्जुन बोले ;- भगवन! मेरे पास बहुत से दिव्य एवं उत्तम अस्त्र तो हैं, जिनके द्वारा मैं एक क्या, अनेक वज्रधारियों से युद्ध कर सकता हूँ। परंतु मेरे पास मेरे बाहुबल के अनुरूप धनुष नहीं है, जो समरभूमि में युद्ध के लिये प्रयत्न करते समय मेरा वेग सह सके। इसके सिवा शीघ्रतापूर्वक बाण चलाते रहने के लिये मुझे इतने अधिक बाणों की आवश्यकता होगी, जो कभी समाप्त न हों तथा मेरी इच्छा के अनुरूप बाणों को ढोने के लिये शक्तिशाली रथ भी मेरे पास नहीं है। मैं वायु के समान वेगवान श्वेत वर्ण के दिव्य अश्व तथा मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाला एवं सूर्य के समान तेजस्वी रथ चाहता हूँ। इसी प्रकार इन भगवान श्रीकृष्ण के बल पराक्रम के अनुसार कोई आयुध इनके पास भी नहीं है, जिससे ये नागों और पिशाचों को युद्ध में मार सकें। भगवन! इस कार्य की सिद्धि के लिये जो उपाय सम्भव हो, वह मुझे बताइये, जिससे मैं इस महान वन में जल बरसाते हुए इन्द्र को रोक सकूँ। भगवन अग्निदेव! पुरुषार्थ से जो कार्य हो सकता है, उसे हम लोग करने के लिये तैयार हैं; किंतु इसके लिये सुदृढ़ साधन जुटा देने की कृपा आपको करनी चाहिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाह पर्व में अर्जुन-अग्निसंवाद विषयक दो सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

दौ सौ चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"अग्निदेव का अर्जुन और श्रीकृष्ण को दिव्य धनुष, अक्षय तरकस, दिव्य रथ और चक्र आदि प्रदान करना तथा उन दोनों की सहायता से खाण्डववन को जलाना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन के ऐसा कहने पर धूमरूपी ध्वजा से सुशोभित होने वाले भगवान् हुताशन ने दर्शन की इच्छा से लोकपाल वरुण का चिन्तन किया। अदिति के पुत्र, जल के स्वामी और सदा जल में निवास करने वाले उन वरुणदेव ने, अग्निदेव ने मेरा चिन्तन किया है, यह जानकर तत्काल उन्हें दर्शन दिया। चौथे लोकपाल सनातन देवदेव जलेश्वर वरुण का स्वागत सत्कार करके धूमकेतु अग्नि ने उनसे कहा,,

अग्निदेव बोले ;- ‘वरुणदेव! राजा सोम ने आपको जो दिव्य धनुष और अक्षय तरकस दिये हैं, वे दोनों मुझे शीघ्र दीजिये। साथ ही कपियुक्त ध्वजा से सुशोभित रथ भी प्रदान कीजिये। आज कुन्तीपुत्र अर्जुन गाण्डीव धनुष के द्वारा और भगवान् वासुदेव चक्र के द्वारा मेरा महान् कार्य सिद्ध करेंगे; अतः वह सब आज मुझे दे दीजिये’।

  तब वरुण ने अग्निदेव से ‘अभी देता हूँ’ ऐसा कहकर वह धनुषों में रत्न के समान गाण्डीव तथा बाणों से भरे हुए दो अक्षय एवं बड़े तरकस भी दिये। वह धनुष अद्भुत था। उसमें बड़ी शक्ति थी और वह यश एवं कीर्ति को बढ़ाने वाला था। किसी भी अस्त्र-शस्त्र से वह टूट नहीं सकता था और दूसरे सब शस्त्रों को नष्ट कर डालने की शक्ति उसमें मौजूद थी। उसका आकार सभी आयुधों से बढ़कर था। शत्रुओं की सेना को विदीर्ण करने वाला वह एक ही धनुष दूसरे लाख धनुषों के बराबर था। वह अपने धारण करने वाले के राष्ट्र को बढ़ाने वाला एवं विचित्र था। अनेक प्रकार के रंगों से उसकी शोभा होती थी। वह चिकना और छिद्र से रहित था। देवताओं, दानवों और गन्धर्वों ने अनन्त वर्षों तक उसकी पूजा की थी। इसके सिवा वरुण ने दिव्य घोड़ों से जुता हुआ एक रथ भी प्रस्तुत किया, जिसकी ध्वजा पर श्रेष्ठ कपि विराजमान था। उसमें जुते हुए अश्वों का रंग चाँदी के समान सफेद था। वे सभी घोड़े गन्धर्वदेश में उत्पन्न तथा सोने की मालाओं से विभूषित थे।

   उनकी कान्ति सफेद बादलों की सी जान पड़ती थी। वे वेग में मन और वायु की समानता करते थे। वह रथ सम्पूर्ण आवश्यक वस्तुओं से युक्त तथा देवताओं और दानवों के लिये भी अजेय था। उसमें तेजोमयी किरणें छिटकती थीं। उसके चलने पर सब ओर बड़े जोर की आवाज गूँज उठती थी। वह रथ सब प्रकार के रत्नों से जटित होने के कारण बड़ा मनोरम जान पड़ता था। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी प्रजापति विश्वकर्मा ने बड़ी भारी तपस्या के द्वारा उस रथ का निर्माण किया था। उस सूर्य के समान तेजस्वी रथ का ‘इदमित्थम्’ रूप से वर्ण नहीं हो सकता था। पूर्वकाल में शक्तिशाली सोम (चन्द्रमा) ने उसी रथ पर आरूढ़ हो दानवों पर विजयी पायी थी। वह रथ नूतन मेघ के समान प्रतीत होता था और अपनी दिव्य शोभा से प्रज्वलित हो रहा था। इन्द्रधनुष के समान कान्ति वाले श्रीकृष्ण और अर्जुन उस श्रेष्ठ रथ के समीप गये। उस रथ का ध्वजदण्ड बड़ा सुन्दर और सुवर्णमय था। उसके ऊपर सिंह और व्याघ्र के समान भयंकर आकृति वाला दिव्य वानर बैठा था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 16-37 का हिन्दी अनुवाद)

उस रथ के शिखर पर बैठा हुआ वह वानर ऐसा जान पड़ता था, मानो शत्रुओं को भस्म कर डालना चाहता हो। उस ध्वज में और भी नाना प्रकार के बड़े भयंकर प्राणी रहते थे, जिनकी आवाज सुनकर शत्रु सैनिकों के होश उड़ जाते थे। वह श्रेष्ठ रथ भाँति-भाँति की पताकाओं से सुशोभित हो रहा था। अर्जुन ने कमर कस ली, कवच और तलवार बाँध ली, दस्ताने पहन लिये तथा रथ की परिक्रमा और देवताओं को प्रणाम करके वे उस पर आरूढ़ हुए, ठीक वैसे ही, जैसे कोई पुण्यात्मा विमान पर बैठता है। तदनन्तर पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने जिसका निर्माण किया था, उस दिव्य एवं श्रेष्ठ गाण्डीव धनुष को हाथ में लेकर अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए। पराक्रमी धनंजय ने अग्निदेव को सामने रखकर उस धनुष को हाथ में उठाया और बल लगाकर उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। महाबली पाण्डुकुमार ने उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाते समय जिन लोगों ने उसकी टंकार सुनी, उसका हृदय व्यथित हो उठा। वह रथ, धनुष तथा अक्षय तरकस पाकर कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न हो अग्नि की सहायता करने में समर्थ हो गये। तदनन्तर पावक ने भगवान् श्रीकृष्ण को एक चक्र दिया, जिसका मध्यभाग वज्र के समान था। उस अग्निप्रदत्त प्रिय अस्त्र चक्र को पाकर भगवान् श्रीकृष्ण भी उस समय सहायता के लिये समर्थ हो गये।

उनसे अग्निदेव ने कहा ;- ‘मधुसूदन! इस चक्र के द्वारा आप युद्ध में अमानव प्राणियों को भी जीत लेंगे, इसमें संशय नहीं है। इसके होने से आप युद्ध में मनुष्यों, देवताओं, राक्षसों, पिशाचों, दैत्यों और नागों से भी अधिक शक्तिशाली होंगे तथा इन सबका संहार करने में भी निःसंदेह सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होंगे। माधव! युद्ध में आप जब-जब इसे शत्रुओं पर चलायेंगे, तब-तब यह उन्हें मारकर और स्वयं किसी अस्त्र से प्रतिहत न होकर पुनः आपके हाथ में आ जाएगा।’ तत्पश्चात् भगवान् वरुण ने भी बिजली के समान कड़कड़ाहट पैदा करने वाली कौमोदकी नामक गदा भगवान् को भेंट की, जो दैत्यों का विनाश करने वाली और भयंकर थी। इसके बाद अस्त्रविद्या के ज्ञाता एवं शस्त्र सम्पन्न अर्जुन और श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर अग्निदेव से कहा,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘भगवन्! अब हम दोनों रथ और ध्वजा से युक्त हो सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों से भी युद्ध करने में समर्थ हो गये हैं; फिर तक्षक नाग के लिये युद्ध की इच्छा रखने वाले अकेले वज्रधारी इन्द्र से युद्ध करना क्या बड़ी बात है?’

अर्जुन बोले ;- अग्निदेव! सबकी इन्द्रियों के प्रेरक ये महापराक्रमी जनार्दन जब हाथ में चक्र लेकर युद्ध में विचरेंगे, उस समय त्रिलोकी में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसे ये चक्र के प्रहार से भस्म न कर सकें। पावक! मैं भी यह गाण्डीव धनुष और ये दोनों बड़े-बड़े़ अखय तरकस लेकर सम्पूर्ण लोकों को युद्ध में जीत लेने का उत्साह रखता हूँ। महाप्रभो! अब आप इस सम्पूर्ण वन को चारों ओर से घेरकर आज ही इच्छानुसार जलाइये। हम आपकी सहायता के लिये तैयार हैं।

 वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! श्रीकृष्ण और अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान् अग्नि ने तेजोमय रूप धारण करके खाण्डववन को सब ओर से जलाना आरम्भ कर दिया। सात ज्वालामयी जिह्वाओं वाले अग्निदेव खाण्डववन को सब ओर से घेरकर महाप्रलय का सा दृश्य उपस्थित करते हुए जलाने लगे। भरतश्रेष्ठ! उस वन को चारों ओर से अपनी लपटों में लपेटकर और उसके भीतरी भाग में भी व्याप्त होकर अग्निदेव मेघ की गर्जना के समान गम्भीर घोष करते हुए समस्त प्राणियों को कँपाने लगे। भारत! उस जलते हुए खाण्डववन का स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो सूर्य की किरणों से व्याप्त पर्वतराज मेरु का सम्पूर्ण कलेवर उद्दीत हो उठा हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाह पर्व में गाण्डीवादि दान विषयक दो सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

दौ सौ पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा और इन्द्र के द्वारा जल बरसाकर आग बुझाने की चेष्टा"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वे दोनों रथियों में श्रेष्ठ वीर दो रथों पर बैठकर खाण्डववन के दोनों ओर खडे़ हो गये और सब दिशाओं में घूम-घूमकर प्राणियों का महान् संहार करने लगे। खाण्डववन में रहने वाले प्राणी जहाँ-जहाँ भागते दिखायी देते, वहीं-वहीं वे दोनों प्रमुख वीर उनका पीछा करते। (खाण्डववन के प्राणियों को) शीघ्रतापूर्वक सब ओर दौड़ने वाले उन दोनों महारथियों का छिद्र नहीं दिखायी देता था, जिससे वे भाग सकें। रथियों में श्रेष्ठ वे दोनों रथारूढ़ वीर अलातचक्र की भाँति सब ओर घूमते हुए ही दीख पड़ते थे। जब खाण्डववन में आग फैल गयी और वह अच्छी तरह जलने लगा, उस समय लाखों प्राणी भयानक चीत्कार करते हुए चारों ओर उछलने-कूदने लगे। बहुत से प्राणियों के शरीर का हिस्सा जल गया था, बहुतेरे आँच में झुलस गये थे, कितनों की आँखे फूट गयी थीं और कितनों के शरीर फट गये थे। ऐसी अवस्था में भी सब भाग रहे थे। कोई अपने पुत्रों को छाती से चिपकाये हुए थे, कुछ प्राणी अपने पिता और भाइयों से सटे हुए थे। वे स्नेहवश एक दूसरे को छोड़ न सके और वहीं काल के गाल में समा गये। कुछ जानवर दाँत कटकटाते, बार-बार उछलते कूदते और अत्यन्त चक्कर काटते हुए फिर आग में ही पड़ जाते थे।

कितने ही पक्षी पाँख, आँख और पञ्जों के जल जाने से धरती पर गिरकर छटपटा रहे थे। स्थान-स्थान पर मरणोन्मुख जीव-जन्तु दृष्टिगोचर हो रहे थे। जलाशय आग से तपकर काढ़े की भाँति खौल रहे थे। उनमें रहने वाले कछुए और मछली आदि जीव सब ओर निर्जीव दिखायी देते थे। प्राणियों के संहारस्थल बने हुए उस वन में कितने ही प्राणी अपने जलते हुए अंगों से मूर्तिमान् अग्नि के समान दीख पड़ते थे। अर्जुन ने कितने ही उड़ते हुए पक्षियों को अपने बाणों से टुकडे़-टुकडे़ करके प्रज्वलित आग में झोंक दिया। पहले तो पक्षी बड़े वेग से ऊपर को उड़ते, परंतु बाणों से सारा अंग छिद जाने पर जोर-जोर से आर्तनाद करते हुए पुनः खाण्डववन में ही गिर पड़ते थे। बाणों से घायल हुए झुंड के झुंड वनवासी जीवों का भयानक चीत्कार समुद्र मन्थन के समय होने वाले जल-जन्तुओं के करुणक्रन्दन के समान जान पड़ता था। प्रज्वलित अग्नि की बड़ी-बड़ी लपटें आकाश में ऊपर की ओर उठने और देवताओं के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न करने लगीं। उस लपट से संतप्त हुए देवता और महर्षि आदि सभी देवलोकवासी महात्मा असुरों का नाश करने वाले देवेश्वर सहस्राक्ष इन्द्र के पास गये। 

देवता बोले ;- अमरेश्वर! अग्निदेव इन सब मनुष्यों को क्यों जला रहे हैं? कहीं संसार का प्रलय तो नहीं आ गया है?

वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! देवताओं से यह सुनकर वृत्रासुर का नाश करने वाले इन्द्र स्वयं वह घटना देखकर खाण्डववन को आग के भय से छुड़ाने के लिये चले। उन्होंने अपने साथ अनेक प्रकार के विशाल रथ ले लिये और आकाश में स्थित हो देवताओं के स्वामी वे इन्द्र जल की वर्षा करने लगे। देवराज इन्द्र से प्रेरित होकर मेघ रथ के घुरे के समान मोटी-मोटी असंख्य धाराएँ खाण्डववन में गिराने लगे। परंतु अग्नि के तेज से वे धाराएँ वहाँ पहुँचने से पहले आकाश में ही सूख जाती थी। अग्नि तक कोई धारा पहुँची ही नहीं। तब नमुचिनाशक इन्द्रदेव अग्नि पर अत्यन्त कुपित हो पुनः बड़े-बड़े मेघों द्वारा बहुत जल की वर्षा कराने लगे। आग की लपटों और जल की धाराओं से संयुक्त होने पर उस वन में धुआँ उठने लगा। सब ओर बिजली चमकने लगी और चारों ओर मेघों की गड़गड़ाहट का शब्द गूँज उठा। इस प्रकार खाण्डववन की दशा बड़ी भयंकर हो गयी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाह पर्व में इन्द्रकोप विषयक दो सौ पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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