सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के दौ सौ सोलहवें अध्याय से दो सौ बीसवें अध्याय तक (from the 216 chapter to the 220 chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)

दौ सौ सोलहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षोडशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"वर्गा की प्रार्थना से अर्जुन का शेष चारों अप्सराओं को भी शापमुक्त करके मणिपुर जाना और चित्रांगदा से मिलकर गोकर्ण तीर्थ को प्रस्थान करना"

वर्गा बोली ;- भरतवंश के महापुरुष! उन ब्राह्मण का शाप सुनकर हमें बड़ा दुःख हुआ। तब हम सब की सब अपने धर्म से च्युत न होने वाले उन तपस्वी विप्र की शरण में गयीं। (और इस प्रकार बोलीं-) 'ब्राह्मण! हम रूप, यौवन और काम से उन्मत्त हो गयी थीं। इसीलिये यह अनुचित कार्य कर बैठी। आप कृपापूर्वक हमारा अपराध क्षमा करें। तपोधन! हमारा तो पूर्णरूप से यही मरण हो गया कि हम आप जैसे शुद्धात्मा मुनि को लुभाने के लिये यहाँ आयीं। धर्मात्म पुरुष ऐसा मानते हैं कि स्त्रियाँ अवध्य बनायी गयी हैं। अतः आप अपने धर्माचरण द्वारा निरन्तर उन्नति कीजिये। आपको इस अवलाओं की हत्या नहीं करनी चाहिये। धर्मज्ञ! ब्राह्मण समस्त प्राणियों पर मैत्रीभाव रखने वाला कहा जाता है। भद्रपुरुष! मनीषी पुरुषों का यह कथन सत्य होना चाहिये। श्रेष्ठ महात्मा शरणागतों की रक्षा करते हैं। हम भी आप की शरण में आयी हैं; अतः आप हमारे अपराध क्षमा करें।’

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- वीरवर! उनके ऐसा कहने पर सूर्य और चन्द्रमा के समान तेजस्वी तथा शुभ कर्म करने वाले उन धर्मात्मा ब्राह्मण ने उन सब पर कृपा की। 

ब्राह्मण बोले ;- ‘शत’ और ‘शतसहस्र’ शब्द ये सभी अनन्त संख्या के वाचक हैं, परंतु यहाँ जो मैंने ‘शतं समाः’ (तुम लोगों को सौ वर्षों तक ग्राह होने के लिये) कहा है, उसमें शत शब्द् सौ वर्ष के परिमाण का ही वाचक है। अनन्त काल का वाचक नहीं है। जब जल में ग्राह बनकर लोगों को पकड़ने वाली तुम सब अप्सराओं को कोई श्रेष्ठ पुरुष जल से बाहर स्थल पर खींच लायेगा, उस समय तुम सब लोग फिर अपना दिव्य रूप प्राप्त कर लोगी। मैंने पहले कभी हँसी में भी झूठ नहीं कहा है। तुम लोगों का उद्धार हो जाने के बाद वे सभी तीर्थ इस जगत् में नारीतीर्थ के नाम से विष्यात होंगे और मनीषी पुरुषों को भी पवित्र करने वाले पुण्य तीर्थ बन जायँगे।

वर्गा बोली ;- भारत! तदनन्तर उन ब्राह्मण को प्रणाम और उनकी प्रदक्षिणा करके अत्यन्त दुःखी हो हम सब उस स्थान से अन्यत्र चली आयीं और इस चिन्ता में पड़ गयी कि कहाँ जाकर हम सब लोग रहें, जिससे थोड़े ही समय में हमें वह मनुष्य मिल जाय, जो हमें पुनः हमारे पूर्व स्वरूप की प्राप्ति करायेगा। भरतश्रेष्ठ! हम लोग दो घड़ी से इस प्रकार सोच-विचार कर ही रही थीं कि हमको महाभाग देवर्षि नारद जी का दर्शन प्राप्त हुआ। कुन्तीनन्दन! उन अमित तेजस्वी देवर्षि को देखकर हमें बड़ा हर्ष हुआ और उन्हें प्रणाम करके हम लज्जावश सिर झुकाकर वहाँ खड़ी हो गयीं। फिर उन्होंने हमारे दुःख का कारण पूछा और हमने उनसे सब कुछ बता दिया। सारा हाल सुनकर वे इस प्रकार बोले,,

देवर्षि नारद बोले ;- ‘दक्षिण समुद्र के तट के समीप पाँच तीर्थ हैं, जो परमपुण्यजनक तथा अत्यन्त रमणीय है। तुम सब उन्हीं में चली जाओ, देर न करो।’

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षोडशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

'वहाँ पुरुषों में श्रेष्ठ शुद्धात्मा पाण्डुकुमार धनंजय शीघ्र ही पहुँचकर तुम्हें इस दुःख से छुड़ायेंगे, इसमें संशय नहीं है।’ वीर अर्जुन! नारद जी का वचन सुनकर हम सब सखियाँ यहीं चली आयी। अनघ! आज सचमुच ही आपने मुझे इस शाप से मुक्त कर दिया। ये मेरी चार सखियाँ और हैं, जो अभी जल में पड़ी हैं। वीरवर! आप यह पुण्य कर्म कीजिये; इन सबको शाप से छुड़ा दीजिये।

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तय उद्धार-हृदय पराक्रमी पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन ने उन सभी अप्सराओं को उस शाप से मुक्त कर दिया। राजन्! उस जल से ऊपर निकलकर फिर अपना पूर्वस्वरूप् प्राप्त कर लेने पर वे अप्सराएँ उस समय पहले की भाँति दिखायी देने लगी। इस प्रकार उन तीर्थों का शोधन करके उन अप्सराओं को जाने की आज्ञा दे शक्तिशाली अर्जुन चित्रांगदा से मिलने के लिये पुनः मणिपुर गये। वहाँ उन्होंने चित्रांगदा के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न किया था, उसका नाम वभ्रुवाहन रखा गया था। राजन्! अपने उस पुत्र को देखकर पाण्डुपत्र अर्जुन ने राजा चित्रवाहन से कहा,,

अर्जुन बोले ;- ‘महाराज! इस वभ्रुवाहन को आप चित्रांगदा के शुल्करूप में ग्रहण कीजिये, इससे मैं आपके ऋण से मुक्त हो जाऊँगा।’

तत्पश्चात् पाण्डुकुमार ने पुनः चित्रांगदा से कहा,,

अर्जुन फिर बोले ;- प्रिये! तुम्हारा कल्याण हो। तुम यहीं रहो और वभ्रुवाहन का पालन-पोषण करो। फिर यथासमय हमारे निवासस्थान इन्द्रप्रस्थ में आकर तुम बड़े सुख से रहोगी। वहाँ आने पर माता कुन्ती, युधिष्ठिर, भीमसेन, मेरे छोटे भाई नकुल-सहदेव तथा अन्य बन्धु-बान्धवों को देखने का तुम्हें अवसर मिलेगा। अनिन्दिते! इन्द्रप्रस्थ में मेरे समस्त बन्धु-बान्धवों से मिलकर तुम प्रसन्न होओगी। सदा धर्म पर स्थित रहने वाले सत्यवादी कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर सारी पृथ्वी को जीतकर राजसूय यज्ञ करेंगे। उस समय वहाँ भूमण्डल के नरेश नामधारी सभी राजा आयेंगे। तुम्हारे पिता भी बहुत से रत्नों की भेंट लेकर उस समय उपस्थित होंगे।

चित्रवाहन की सेवा के निमित्त उन्हीं के साथ राजसूय यज्ञ में तुम भी चली आना। मैं वहीं तुमसे मिलूँगा। इस समय पुत्र का पालन करो और शोक छोड़ दो। वभ्रुवाहन के नाम से मेरा प्राण ही इस भूतल पर विद्यमान है, अतः तुम इस पुत्र का भरण-पोषण करो। यह इस वंश को बढ़ाने वाला पुरुषरत्न है। यह धर्मतः चित्रवाहन का पुत्र है; किंतु शरीर से पूरूवंश को आनन्दित करने वाला है। अतः पाण्डवों के इस प्रिय पुत्र का तुम सदा पालन करो। सती-साध्वी प्रिये! मेरे वियोग से तुम संतप्त न होना।’ चित्रांगदा से ऐसा कहकर अर्जुन गोकर्णतीर्थ की ओर चल दिये। वह भगवान् शंकर का आदिस्थान है और दर्शन मात्र से मोक्ष देने वाला है। पापी मनुष्य भी वहाँ जाकर निर्भय पद प्राप्त कर लेता है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत अर्जुन वनवास पर्व में अर्जुन की तीर्थ यात्रा से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ सोहलवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)

दौ सौ सत्तरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तदशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना और उन्हीं के साथ उनका रैवतक पर्वत एवं द्वारकापुरी में जाना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर अमित पराक्रमी अर्जुन क्रमशः अपरान्त (पश्चिम समुद्र तटवर्ती) देश के समस्त पुण्य तीर्थों और मन्दिरों में गये। पश्चिम समुद्र के तट पर जितने तीर्थ और देवालय थे, उन सबकी यात्रा करके वे प्रभास क्षेत्र में जा पहुँचे। भगवान् श्रीकृष्ण ने गुप्तचरों द्वारा यह सुना कि किसी से परास्त न होने वाले अर्जुन परमपवित्र एवं रमणीय प्रभास क्षेत्र में आ गये हैं, तब वे अपने सखा कुन्तीनन्दन से मिलने के लिये वहाँ गये। उस समय प्रभास में श्रीकृष्ण और अर्जुन ने एक-दूसरे को देखा। दोनों ही दोनों को हृदय से लगाकर कुशल प्रश्न पूछने के पश्चात् वे परस्पर प्रिय मित्र साक्षात् नर-नारायण ऋषि वन में एक स्थान पर बैठ गये। तब भगवान् वासुदेव ने अर्जुन से उनकी जीवनचर्या के सम्बन्ध में पूछा,,

श्रीकृष्ण बोले ;- ‘पाण्डव! तुम किसलिये तीर्थों में विचर रहे हो?’ यह सुनकर अर्जुन ने उन्हें सारा वृत्तान्त ज्यों का त्यों सुना दिया। सब कुछ सुनकर,,

 भगवान् श्रीकृष्ण बोले ;- ‘यह बात ऐसी ही है।’ तदनन्तर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों प्रभास क्षेत्र में इच्छानुसार घूम फिरकर रैवतक पर्वत पर चले गये। उन्हें रात को वहीं ठहरना था। भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से उनके सेवकों ने पहले से ही आकर उस पर्वत को सजा रखा था और वहाँ भोजन भी तैयार करके रख लिया था। पाण्डुकुमार अर्जुन से भगवान् वासुदेव के साथ प्रस्तुत किये हुए सम्पूर्ण भोज्य पदार्थों को यथारुचि खाकर नटों और नर्तकों के नृत्य देखे। तत्पश्चात् उन सबको उपहार आदि से सम्मानित करके जाने की आज्ञा दे महाबुद्धिमान् पाण्डुकुमार अर्जुन सत्कारपूर्वक बिछी हुई दिव्य शय्या पर सोने के लिये गये।

   वहाँ सुन्दर शय्या पर सोये हुए महाबाहु धनंजय ने भगवान् श्रीकृष्ण से अनेक तीर्थों, कुण्डों, पर्वतों, नदियों तथा वनों के दर्शन सम्बन्धी अनुभव की विचित्र बातें कहीं। जनमेजय! इस प्रकार बात करते-करते अर्जुन उस स्वर्गसदृश्य सुखदायिनी शय्या पर सो गये। तदनन्तर प्रातःकाल मधुर गीत, बीणा की मीठी ध्वनि, स्तुति और मंगलपाठ के शब्दों द्वारा जगाये जाने पर उनकी नींद खुली। तत्पश्चात् आवश्यक कार्य करके श्रीकृष्ण के द्वारा अभिनन्दित हो उनके साथ सुवर्णमय रथ पर बैठकर वे द्वारकापुरी को गये। जनमेजय! उस समय कुन्तीकुमार के स्वगात के लिये समूची द्वारकापुरी सजायी गयी थी तथा वहाँ के घरों के बगीचे तक सजाये गये थे। कुन्तीनन्दन अर्जुन को देखने के लिये द्वारकावासी मनुष्य लाखों की संख्या में मुख्य सड़क पर चले आये थे। जहाँ से अर्जुन का दर्शन हो सके, ऐसे स्थानों पर सैकड़ों हजारों स्त्रियाँ आँख लगाये खड़ी थी तथा भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के पुरुषों की बहुत बड़ी भीड़ एकत्र हो गयी थी। भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के सब लोगों द्वारा इस प्रकार आदर सत्कार पाकर अर्जुन ने वन्दनीय पुरुषों को प्रणाम किया और उन सबने उनका स्वागत किया। यदुकुल के समस्त कुमारों ने भी वीरवर अर्जुन का बड़ा सत्कार किया। अर्जुन अपने समान अवस्था वाले सब लोगों से उन्हें बारंबार हृदय से लगाकर मिले। इसके बाद नाना प्रकार के रत्न तथा भाँति-भाँति के भोज्य पदार्थों से भरपूर श्रीकृष्ण के रमणीय भवन में उन्होंने श्रीकृष्ण के साथ ही अनेक रात्रियों तक निवास किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत अर्जुन वनवास पर्व में अर्जुन का द्वारकागमन विषयक दो सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सुभद्राहरण पर्व)

दौ सौ अठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टादशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"रैवतक पर्वत के उत्सव में अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना और श्रीकृष्ण तथा युधिष्ठिर की अनुमति से उसे हर ले जाने का निश्चय करना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर कुछ दिन बीतने के बाद रैवतक पर्वत पर वृष्णि और अन्धकवंश के लोगों का बड़ा भारी उत्सव हुआ। पर्वत पर होने वाले उत्सव में भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के वीरों ने सहस्र ब्राह्मणों को दान दिया। राजन्! उस पर्वत के चारों ओर रत्नजनित विचित्र राजभवन और कल्पवृक्ष थे, जिनसे उस स्थान की बड़ी शोभा हो रही थी। वहाँ बाजे बजाने में कुशल मनुष्य अनेक प्रकार के बाजे बजाते, नाचने वाले नाचते और गायकगण गीत गाते थे। महान् तेजस्वी वृष्णिवंशियों के बालक वस्त्राभूषणों से विभूषित हो सुवर्णचित्रित सवारियों पर बैठकर देदीप्यमान होते हुए चारों ओर घूम रहे थे। द्वारकापुरी के निवासी सैकड़ों हजारों मनुष्य अपनी स्त्रियों और सेवकों के साथ पैदल चलकर अथवा छोटी-बड़ी सवारियों के द्वारा आकर उस उत्सव में सम्मिलित हुए थे। भारत! भगवान् बलराम हर्षोन्मत्त होकर वहाँ रेवती के साथ विचर रहे थे। उनके पीछे-पीछे गन्धर्व (गायक) चल रहे थे। वृष्णिवंश के प्रतापी राजा उग्रसेन भी वहाँ आमोद-प्रमोद कर रहे थे। उनके पास बहुत से गन्धर्व गा रहे थे और सहस्रों स्त्रियाँ उनकी सेवा कर रहीं थी।

युद्ध में दुर्मद वीरवर प्रद्युम्न और साम्ब दिव्य मालाएँ तथा दिव्य वस्त्र धारण करके आनन्द से उन्मत्त हो देवताओं की भाँति विहार करते थे। अक्रूर, सारण, मद, बभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारूदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, भंगकार, महारव, हृदिकपुत्र कृतवर्मा, उद्धव और जिसका नाम यहाँ नहीं लिया गया है, ऐसे अन्य यदुवंशी भी सब के सब अलग-अलग स्त्रियों और गन्धर्वों से घिरे हुए रैवतक पर्वत के उस उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे। उस अत्यन्त अद्भुत विचित्र कौतूहलपूर्ण उत्सव में भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन एक साथ घूम रहे थे। इसी समय वहाँ वसुदेव जी की सुन्दरी पुत्री सुभद्रा श्रृंगार से सुसज्जित हो स्त्रियों से घिरी हुई उधर आ निकली। वहाँ टहलते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उसे देखा। उसे देखते ही अर्जुन के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी। उनका चित्त उसी के चिन्तन में एकाग्र हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन की इस मनोदशा को भाँप लिया। फिर वे पुरुषोत्तम हँसते हुए से बोले,,

श्रीकृष्ण बोले ;- ‘भारत! यह क्या, वनवासी का मन भी इस तरह काम से उन्मथित हो रहा है? कुन्तीनन्दन! यह मेरी और सारण की सगी बहिन है, तुम्हारा कल्याण हो, इसका नाम सुभद्रा है। यह मेरे पिता की बड़ी लाड़िली कन्या है। यदि तुम्हारा विचार इससे ब्याह करने का हो तो मैं पिता से स्वयं कहूँगा।’

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टादशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 19-26 का हिन्दी अनुवाद)

अर्जुन ने कहा ;- यह वसुदेव जी की पुत्री, साक्षात् आप वासुदेव की बहिन और अनुपम रूप से सम्पन्न हैं, फिर यह किसका मन न मोह लेगी। सखे! यदि यह वृष्णिकुल की कुमारी और आपकी बहिन सुभद्रा मेरी रानी हो सके तो निश्चय ही मेरा समस्त कल्याणमय मनोरथ पूर्ण हो जाय। जनार्दन! बताइये, इसे प्राप्त करने का क्या उपाय हो सकता है? यदि मनुष्य के द्वारा कर सकने योग्य होगा तो वह सारा प्रयत्न मैं अवश्य करूँगा।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले ;- नरश्रेष्ठ पार्थ! क्षत्रियों के विवाह का स्वयंवर एक प्रकार है, परंतु उसका परिणाम संदिग्ध होता है; क्योंकि स्त्रियों का स्वभाव अनिश्चित हुआ करता है (पता नहीं, वे स्वयं किसका वरण करें)। बलपूर्वक कन्या का हरण भी शूरवीर क्षत्रियों के लिये विवाह का उत्तम हेतु कहा गया है; ऐसा धर्मज्ञ पुरुषों का मत है। अतः अर्जुन! मेरी राय तो यही है कि तुम मेरी कल्याणमयी बहिन को बलपूर्वक हर ले जाओ। कौन जानता है, स्वयंवर में उसकी क्या चेष्टा होगी- वह किसे वरण करना चाहेगी?

तब अर्जुन और श्रीकृष्ण ने कर्तव्य का निश्चय करके कुछ दूसरे शीघ्रगामी पुरुषों को इन्द्रप्रस्थ में धर्मराज युधिष्ठिर के पास भेजा और सब बातें उन्हें सूचित करके उनकी सम्मति जानने की इच्छा प्रकट की। महाबाहु युधिष्ठिर ने यह सुनते ही अपनी ओर से आज्ञा दे दी। भीमसेन यह समाचार सुनकर अपने को कृतकृत्य मानने लगे और दूसरे लोगों के साथ ये बातें करके उनको बड़ी प्रसन्नता हुई।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत सुभद्राहरण पर्व में युधिष्ठिर की आज्ञा सम्बन्धी दो सौ अठाहरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सुभद्राहरण पर्व)

दौ सौ उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकनोविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"यादवों की युद्ध के लिये तैयारी और अर्जुन के प्रति बलराम जी के क्रोधपूर्ण उद्गार"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर उस विवाह सम्बन्धी संदेश पर युधिष्ठिर की आज्ञा मिल जाने के पश्चात् धनंजय को जब यह मालूम हुआ कि सुभद्रा रैवतक पर्वत पर गयी हुई है, तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से सलाह ली। श्रीकृष्ण ने उन्हें आगे क्या करना है, यह बताकर सुभद्रा से विवाह करने तथा उसे हर ले जाने की अनुमति दे दी। श्रीकृष्ण की सम्मति पाकर भरतश्रेष्ठ अर्जुन अपने विश्राम स्थान पर चले गये। (भगवान की आज्ञा से दारुक ने) उनके सुवर्णमय रथ को विधिपूर्वक सजाकर तैयार किया था। उसमें स्थान-स्थान पर छोटी-छोटी घंटिकाएँ तथा झालरें लगा दी थीं और शैव्य, सुग्रीव आदि अश्व भी उसमें जोत दिये थे। उस रथ के भीतर सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र मौजूद थे। उसकी घर्घराहट से मेघ की गर्जना के समान आवाज होती थी। वह प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी जान पड़ता था। उसे देखते ही शत्रुओं का हर्ष हवा हो जाता था। नरश्रेष्ठ धनंजय कवच और तलवार बाँधकर एवं हाथों में दस्ताने पहनकर उसी रथ के द्वारा शिकार खेलने के बहाने रैवतक पर्वत पर गये। उधर सुभद्रा गिरिराज रैवतक तथा सब देवताओं की पूजा करके ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर पर्वत की परिक्रमा पूरी करके द्वारका की ओर लौट रही थी। अर्जुन कामदेव के बाणों से अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। उन्होंने दौड़कर सर्वांग सुन्दरी सुभद्रा को बलपूर्वक रथ पर बिठा लिया। इसके बाद पुरुष सिंह धनंजय पवित्र मुस्कान वाली सुभद्रा को साथ ले उस सुवर्णमय रथ द्वारा अपने नगर की ओर चल दिये।

  सुभद्रा का अपहरण होता देख समस्त सैनिकगण हल्ला मचाते हुए द्वारकापुरी की ओर दौड़ गये। उन्होंने एक साथ सुधर्मा सभा में पहुँचकर सभापाल से अर्जुन के उस साहसपूर्ण पराक्रम का सारा हाल कर सुनाया। उनकी बातें सुनकर सभापाल ले सबको युद्ध के लिये तैयार होने की सूचना देने के उद्देश्य से सुवर्णखचित नगाड़ा बजाया, जिसकी आवाज बहुत ऊँची और दूर तक फैलने वाली थी। उसकी आवाज सुनकर भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के वीर क्षुब्ध हो उठे और खाना-पीना छोड़कर चारों ओर से दौड़े आये। उस सभा में सैकड़ों सिंहासन रखे गये थे, जिनमें सुवर्ण जड़ा गया था। उन सिंहासनों पर बहुमूल्य बिछौने पड़े थे। वे सभी आसन मणि और मूँगों से चित्रित होने के कारण प्रज्जवलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के पुरुषसिंह महारथी वीर उन्हीं सिंहासनों पर आकर बैठे, मानो यज्ञ की वेदियों पर प्रज्वलित अग्निदेव शोभा पा रहे हों। देव समूह की भाँति यहाँ बैठे हुए उन यदुवंशियों के समुदाय में सेवकों सहित समापाल ने अर्जुन की वह सारी करतूत कह सुनायी। यह सुनते ही युद्धोन्माद से लाल नेत्रों वाले वृष्णिवंशी वीर अर्जुन के प्रति अमर्ष से भर गये और गर्व से उछल पड़े।

 (वे बड़ी उतावली से कहने लगे-) ‘जल्दी रथ जोतो, फौरन प्रास ले आओ, धनुष तथा बहुमूल्य एवं विशाल कवच लाओ।' कोई सारथियों को पुकार कर कहने लगे- ‘अरे! जल्दी रथ जोतो।’ कुछ लोग स्वयं ही सोने के आभूषणों से विभूषित घोड़ों को रथों में जोतने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकनोविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद)

रथ, कवच और ध्वजाओं के लाये जाते समय चारों ओर उन नर-वीरों के कोलाहल से वहाँ बड़ी भारी तुमुल ध्वनि व्याप्त हो गयी। तदनन्तर कैलासशिखर के समान गौरवर्ण वाले नील वस्त्र और वनमाला धारण करने वाले बलराम जी उन यादवों से इस प्रकार बोले,,

बलराम जी बोले ;- ‘मूर्खो! श्रीकृष्ण तो चुपचाप बैठे हैं, तुम यह क्या कर रहे हो? इनका अभिप्राय जाने बिना ही तुम इतने कुपित हो उठे। तुम लोगों की यह गर्जना व्यर्थ ही है। पहले परम् बुद्धिमान् श्रीकृष्ण अपना अभिप्राय बतायें। तदनन्तर जो कर्तव्य इन्हें उचित जान पड़े, उसी का आलस्य छोड़कर पालन करो।' बलराम जी की यह मानने योग्य बात सुनकर सब यादव चुप हो गये और सब लोग उन्हें साधुवाद देने लगे। परम बुद्धिमान् बलराम जी के उस वचन को सुनने के साथ ही वे सभी वीर फिर उस सभा में मौन होकर बैठ गये।

तदनन्तर परंतप बलराम जी भगवान् श्रीकष्ण से बोले,,

बलराम जी बोले ;- ‘जनार्दन! यह सब कुछ देखते हुए भी तुम क्यों मौन होकर बैठे हो? अच्युत! तुम्हारे संतोष के लिये ही हम सब लोगों ने अर्जुन का इतना सत्कार किया; परंतु वह खोटी बुद्धि वाला कुलांगार उस सत्कार के योग्य कदापि न था। अपने को कुलीन मानने वाला कौन ऐसा मनुष्य है, जो जिस बर्तन में खाये, उसी में छेद करे। सम्बन्ध की इच्छा रहते हुए भी कौन ऐसा कल्याणकामी पुरुष होगा, जो पहले के उपकार को मानते हुए ऐसा दुःसाहसपूर्ण कार्य करे। उसने हम लोगों का अपमान और केशव का अनादर करके आज बलपूर्वक सुभद्रा का अपहरण किया है, जो उसके लिये अपनी मृत्यु के समान है। गोविन्द! जैसे सर्प पैर की ठोकर नहीं सह सकता, उसी प्रकार मैं उसने जो मेरे सिर पर पैर रख दिया है, उसे कैसे सह सकूँगा? अर्जुन का यह अन्याय मेरे लिये असहय है। आज मैं अकेला ही इस वसुन्धरा को कुरुवंशियों से विहीन कर दूँगा।’ मेघ और दुन्दुभि की गम्भीर ध्वनि के समान बलराम जी की वैसी गर्जना सुनकर उस समय भोज, वृष्णि और अन्धक वंश के समस्त वीरों ने उन्हीं का अनुसरण किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत सुभद्राहरण पर्व में बलदेव क्रोध विषयक दो सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (हरणाहरण पर्व)

दौ सौ बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"द्वारका में अर्जुन और सुभद्रा का विवाह, अर्जुन के इन्द्रप्रस्थ पहुँचने पर श्रीकृष्ण आदि का दहेज लेकर वहाँ जाना, द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म, संस्कार और शिक्षा"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय सभी वृष्णिवंशियों ने अपने-अपने पराक्रम के अनुसार अर्जुन से बदला लेने की बात बार-बार दुहरायी। तब भगवान वासुदेव यह धर्म और अर्थ से युक्त वचन बोले,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘निद्राविजयी अर्जुन ने इस कुल का अपमान नहीं किया है। अपितु ऐसा करके उन्होंने इस कुल के प्रति अधिक सम्मान का भाव ही प्रकट किया है, इसमें संशय नहीं है। पाण्डुपुत्र अर्जुन यह जानते हैं कि सात्वतवंश के लोग सदा से ही धन के लोभी नहीं हैं, अतः धन देकर कन्या नहीं ली जा सकती। साथ ही पाण्डुपुत्र अर्जुन को यह भी मालूम है कि स्वयंवर में कन्या के मिल जाने का पूर्ण निश्चय नहीं रहता, अतः वह भी अग्राह्य ही है। भला, कौन ऐसा वीर पुरुष होगा, जो पशु की तरह पराक्रम शून्य होकर कन्यादान की प्रतीक्षा में बैठा रहेगा एवं इस पृथ्वी पर कौन ऐसा अधम पुरुष होगा, जो धन लेकर अपनी संतान को बेचेगा। मेरा विश्वास है कि कुन्तीकुमार ने इन सभी दोषों की ओर दृष्टिपात किया है; इसीलिये उन्होंने क्षत्रिय धर्म के अनुसार बलपूर्वक कन्या का अपहरण किया है। मेरी समझ में यह सम्बन्ध बहुत उचित है। सुभद्रा यशस्विनी है और ये कुन्तीपुत्र अर्जुन भी ऐसी ही यशस्वी है; अतः इन्होंने सुभद्रा का बलपूर्वक हरण किया है। महाराज भरत तथा महायशस्वी शान्तनु के कुल में जिनका जन्म हुआ है, जो कुन्तीभोजकुमारी कुन्ती के पुत्र हैं, ऐसे वीरवर अर्जुन को कौन अपना सम्बन्धी बनाना न चाहेगा?

आर्य! इन्द्रलोक एवं रुद्रलोक सहित सम्पूर्ण लोकों में भगदेवता के नेत्रों का नाश करने वाले विकराल नेत्रों वाले भगवान रुद्र को छोड़कर दूसरे किसी को मैं ऐसा नहीं देखता, जो संग्राम में बलपूर्वक पार्थ को परास्त कर सके। इस समय अर्जुन के पास मेरा सुप्रसिद्ध रथ है, मेरे ही अद्भुत घोड़े हैं और स्वयं अर्जुन शीघ्रतापूर्वक अस्त्र-शस्त्र चलाने वाले योद्धा हैं। ऐसी दशा में अर्जुन की समानता कौन कर सकता है? आप लोग प्रसन्नता के साथ दौडे़ जाइये और बड़ी सान्त्वना से धनंजय को लौटा लाइये। मेरी तो यही परम सम्मति है। यदि अर्जुन आप लोगों को बलपूर्वक हराकर अपने नगर में चले गये, तब तो आप लोगों का सारा यश तत्काल ही नष्ट हो जायगा और सान्त्वनापूर्वक उन्हें ले आने में अपनी पराजय नहीं है।’ जनमेजय! वासुदेव का यह वचन सुनकर यादवों ने वैसा ही किया। शक्तिशली अर्जुन द्वारका में लौट आये। वहाँ उन्होंने सुभद्रा से विवाह किया और एक साल से कुछ अधिक दिन तक वे वहीं रहे। द्वारका में इच्छानुसार विहार करके वृष्णिवंशियों द्वारा पूजित होकर अर्जुन वहाँ से पुष्कर तीर्थ में चले गये और वनवास का शेष समय वहीं व्यतीत किया। बारहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर वे खाण्डवप्रस्थ में आये। उन्होंने धौम्य जी के पास जाकर उनको तथा माता कुन्ती को प्रणाम किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद)

इसके बाद राजा युधिष्ठिर और भीम के चरण छुये। तदनन्तर नकुल और सहदेव ने आकर अर्जुन को प्रणाम किया। अर्जुन ने भी हर्ष में भरकर उन दोनों को हृदय से लगा लिया और उनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव किया। फिर वहाँ राजा से मिलकर नियमपूर्वक एकाग्रचित्त हो उन्होंने ब्राह्मणों का पूजन किया। तत्पश्चात् वे द्रौपदी के समीप गये। द्रौपदी ने प्रणय कोपवश कुरुनन्दन अजुर्न से कहा,,

द्रौपदी बोली ;- ‘कुन्तीकुमार! यहाँ क्यों आये हो, वहीं जाओ, जहाँ वह सात्वतवंश की कन्या सुभद्रा है। सच है, बोझ को कितना ही कसकर बाँधा गया हो, जब उसे दूसरी बार बाँधते हैं, तब पहला बन्धन ढीला पड़ जाता है (यही हालत मेरे प्रति तुम्हारे प्रेम बन्धन की है)। इस तरह नाना प्रकार की बातें कहकर कृष्णा विलाप करने लगी। तब धनंजय ने उसे पूर्ण सान्त्वना दी और अपने अपराध के लिये उससे बार-बार क्षमा माँगी। इसके बाद अर्जुन ने लाल रेशमी साड़ी पहनकर आयी हुई अनिन्द्य सुन्दरी सुभद्रा का ग्वालिन का सा वेश बनाकर उसे बड़ी उतावली के साथ महल में भेजा। वीरपत्नी, वरांगना एवं यशस्विनी सुभद्रा उस वेश में और अधिक शोभा पाने लगी। उसकी आँखें विशाल और कुछ-कुछ लाल थी। उस यशस्विनी ने सुन्दर राजभवन के भीतर जाकर राजमाता कुन्ती के चरणों में प्रणाम किया। कुन्ती उस सर्वांगसुन्दरी पुत्रवधू को हृदय से लगाकर उसका मस्तक सूँघने लगी और उसने बड़ी प्रसन्नता के साथ उस अनुपम वधू को अनेक आशीर्वाद दिये। तदनन्तर पूर्ण चन्द्रमा के सदृश मनोहर मुख वाली सुभद्रा ने तुरंत जाकर महारानी द्रौपदी के चरण छूए और कहा,,

सुभद्रा बोली ;- ‘देवी! मैं आपकी दासी हूँ।’

उस समय द्रौपदी तुरंत उठकर खड़ी हो गयी और श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा को हृदय से लगाकर बड़ी प्रसन्नता से बोली,,

द्रौपदी बोली ;- ‘बहिन! तुम्हारे पति शत्रुरहित हों।’ सुभद्रा ने भी आनन्दमय होकर कहा,,

सुभद्रा बोली ;- ‘बहिन! ऐसा ही हो।’ जनमेजय! तत्पश्चात् महारथी पाण्डव मन ही मन हर्ष विभोर हो उठे और कुन्ती देवी भी बहुत प्रसन्न हुई। कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने जब यह सुना कि पाण्डव श्रेष्ठ अर्जुन अपने उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये हैं, तब वे शुद्धात्मा श्रीकृष्ण एवं बलराम तथा वृष्णि और अन्धकवंश के प्रधान-प्रधान वीर महारथियों के साथ वहाँ आये। शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीकृष्ण भाइयों, पुत्रों और बहुतेरे योद्धाओं के साथ घिरे हुए तथा विशाल सेना से सुरक्षित होकर इन्द्रप्रस्थ में पधारे। उस समय वहाँ वृष्णि वीरों के सेनापति शत्रुदमन महायशस्वी और परमबुद्धिमान् दानपति अक्रूर जी भी आये थे। इनके सिवा महातेजस्वी अनाधृष्टि तथा साक्षात् बृहस्पति के शिष्य परम बुद्धिमान् महामनस्वी एवं परमयशस्वी उद्धव भी आये थे। सत्यक, सात्यकि, सात्वतवंशी कृतवर्मा, प्रद्युम्न, साम्ब, निशठ, शंकु, पराक्रमी चारूदेष्ण, झिल्ली, विपृथु, महाबाहु सारण तथा विद्वानों में श्रेष्ठगद- ये तथा और दूसरे भी बहुत से वृष्णि, भोज और अन्धकवंश के लोग दहेज की बहुत सी सामग्री लेकर खाण्डवप्रस्थ में आये थे। महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण का आगमन सुनकर उन्हें आदरपूर्वक लिया लाने के लिये नकुल और सहदेव को भेजा। उन दोनों के द्वारा स्वगातपूर्वक लाये हुए वृष्णिवंशियों के उस परम समृद्धशाली समुदाय ने खाण्डवप्रस्थ में प्रवेश किया। उस समय ध्वजा-पताकाओं से सजाया हुआ वह नगर सुशोभित हो रहा था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 36-55 का हिन्दी अनुवाद)

नगर की सड़कें झाड़-बुहारकर साफ की गयीं थी। उनके ऊपर जल का छिड़काव किया गया था। स्थान-स्थान पर फूलों के गजरों से नगर की सजावट की गयी थी। शीतल चन्दन, रस तथा अन्य पवित्र सुगन्धित पदार्थों की सुवास सब ओर छा रही थी। जगह-जगह जलते हुए अंगूर की सुगन्ध फैल रही थी, सारा नगर हष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरा था। कितने ही व्यापारी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। महाबाहु पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने बलराम जी तथा वृष्णि, अन्धक एवं भोजवंशी वीरों के साथ नगर में प्रवेश किया। पुरवासी मनुष्यों तथा सहस्रों ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित हो उन्होंने राजभवन के भीतर प्रवेश किया। वह घर इन्द्रभवन की शोभा को भी तिरस्कृत कर रहा था। युधिष्ठिर जी बलराम जी के साथ विधिपूर्वक मिले और श्रीकृष्ण का मस्तक सूँघकर उन्हें दोनों भुजाओं में कस लिया।

भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर विनीत भाव से युधिष्ठिर का सम्मान किया। नरश्रेष्ठ भीमसेन का भी उन्होंने विधिवत् पूजन किया। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने वृष्णि और अन्धकवंश के श्रेष्ठ पुरुषों का विधिपूर्वक यथायोग्य स्वागत-सत्कार किया। कुछ लोगों का उन्होंने गुरु की भाँति पूजन किया, कितनों का समवयस्क मित्रों की भाँति गले से लगाया, कुछ लोगों से प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया और कुछ लोगों ने उन्हीं को प्रणाम किया। महायशस्वी भगवान् श्रीकृष्ण ने वधू तथा वरपक्ष के लोगों के लिये उत्तम धन अर्पित किया। घर के कुटुम्बीजनों को देने योग्य दहेज पहले नहीं दिया गया था, उसी की पूर्ति उन्होंने इस समय की।

किंकिणी और झालरों से सुशोभित सुवर्णस्वचित एक हजार रथ जिनमें से प्रत्येक में चार-चार घोडे़ जुते हुए थे और प्रत्येक में पूर्ण शिक्षित चतुर सारथि बैठा हुआ था, श्रीमान् कृष्ण ने समर्पित किये तथा मथुरामण्डल की पवित्र तेज वाली दस हजार दुधारू गौएँ दीं। चन्द्रमा के समान श्वेत कान्ति वाली विशुद्ध जाति की एक हजार सुवर्णभूषित घो‌ड़ियाँ भी जनार्दन ने प्रेमपूर्वक भेंट कीं। इसी प्रकार पाँच सौ काले अयाल वाली और पाँच सौ सफेद रंग वाली खच्चरियाँ समर्पित कीं, जो सभी वश में की हुई तथा वायु के समान वेगशाली थीं। स्नान, पान और उत्सव में जिनका उपयोग किया गया था, जो वयःप्राप्त थीं, जिनके वेष सुन्दर और कान्ति मनोहर थी, जिन्होंने सोने के सौ-सौ मणियों की कण्ठियाँ पहन रखी थीं, जिनके शरीर में रोमावलियाँ नहीं प्रकट हुई थीं, जो वस्त्राभूषणों से अलंकृत तथा सेवा के काम में पूर्ण दक्ष थीं, ऐसी एक हजार गौर वर्णा कन्याएँ भी कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने भेंट कीं।

जनार्दन ने उत्तम दहेज के रूप में बाह्लीक देश के एक लाख घोड़े दिये, जो पीठ पर सवारी ढ़ोने वाले थे। दशार्हवंश के रत्न भगवान् श्रीकृष्ण ने अग्नि के समान देदीप्यमान कृत्रिम सुवर्ण (मोहर) और अकृत्रिम विशुद्ध सुवर्ण के (डले) दस भार उपहार में दिये। जिन्हें साहस का काम प्रिय है और जो हाथ में हल धारण करते हैं, उन बलराम ने प्रसन्न होकर इस नूतन सम्बन्ध का आदर करते हुए अर्जुन को पाणिग्रहण के दहेज के रूप् में एक हजार मतवाले हाथी भेंट किये, जो तीन अंगों से मद् की धारा बहाने वाले थे। वे हाथी युद्ध में कभी पीछे नहीं हटते थे और देखने में पर्वतशिखर के समान जान पड़ते थे। उनके मस्तकों पर सुन्दर वेष रचना की गयी थी। उन सब के पार्श्वभाग में मजबूत घण्टे लटक रहे थे तथा गले में सोने के हार शोभा दे रहे थे। वे सभी हाथी बड़े सुन्दर लगते थे और उन सबके साथ महावत थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 56-73 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे नदियों के जल का महान् प्रवाह समुद्र में मिलता है, उसी प्रकार वह महान् धन और रत्नों का भारी प्रवाह, जिसमें वस्त्र और कम्बल फेन के समान जान पड़ते थे, बड़े-बड़े़ हाथी महान् ग्राहों का भ्रम उत्पन्न करते थे और जहाँ ध्वजा-पताकाएँ सेवार का काम कर रही थीं, पाण्डवरूपी महासागर में जा मिला। यद्यपि पाण्डव समुद्र पहले से ही परिपूर्ण था तथापि इस महान् धनप्रवाह ने उसे और भी पूर्णतर बना दिया। यही कारण था कि वह पाण्डव महासागर शत्रुओं के लिये शोकदायक प्रतीत होने लगा। धर्मराज युधिष्ठिर ने यह सारा धन ग्रहण किया और वृष्णि और अन्धक वंश के उन सभी महारथियों का भली-भाँति आदर सत्कार किया। जैसे पुण्यात्मा मनुष्य देवलोक में सुख भोगते हैं, उसी प्रकार कुरु, वृष्णि और अन्धक वंश के श्रेष्ठ महात्मा पुरुष एकत्र होकर इच्छानुसार विहार करने लगे। वे कौरव और वृष्णिवंश के वीर जहाँ-तहाँ वीणा की उत्तम ध्वनि के साथ गाते-बजाते और संगीत का आनन्द लेते हुए यथावसर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार विहार करने लगे। इस प्रकार के उत्तम पराक्रमी यदुवंशी बहुत दिनों तक इन्द्रप्रस्थ में विहार करते हुए कौरवों से सम्मानित हो फिर द्वारका चले गये।

  वृष्णि और अन्धक वंश के महारथी कुरुप्रवर पाण्डवों के दिये हुए उज्ज्वल रत्नों की भेंट ले बलराम जी को आगे करके चले गये। जनमेजय! परंतु भगवान् वासुदेव महात्मा अर्जुन के साथ रमणीय इन्द्रप्रस्थ में ही ठहर गये। महायशस्वी श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ शिकार खेलते और जंगली वराहों तथा हिंस्र पशुओं का वध करते हुए यमुना जी के तट पर विचरते थे। इस प्रकार वे किरीटधारी अर्जुन के साथ विहार करते थे। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् श्रीकृष्ण की प्यारी बहिन सुभद्रा ने यशस्वी सौभद्र को जन्म दिया; ठीक, वैसे ही, जैसे शची ने जयन्त को उत्पन्न किया था। सुभद्रा ने वीरवर नरश्रेष्ठ अभिमन्यु को उत्पन्न किया, जिसकी बड़ी-बड़ी बाँहें, विशाल वक्षःस्थल और बैलों के समान विशाल नेत्र थे। वह शत्रुओं का दमन करने वाला था। वह अभि (निर्भय) एवं मन्युमान् (क्रुद्ध होकर लड़ने वाला) था, इसीलिये पुरुषोत्तम अर्जुनकुमार को ‘अभिमन्यु’ कहते हैं।

जैसे यज्ञ में मन्थन करने पर शमी के गर्भ से उत्पन्न अश्वत्थामा से अग्नि प्रकट होती है, उसी प्रकार अर्जुन के द्वारा सुभद्रा के गर्भ से उस अतिरथी वीर का प्रादुर्भाव हुआ था। भारत! उसके जन्म लेने पर महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को दस हजार गौएँ तथा बहुत सी स्वर्ण मुद्राएँ दान में दीं। जैसे समस्त पितरों और प्रजाओं को चन्द्रमा प्रिय लगते हैं, उसी प्रकार अभिमन्यु बचपन से ही भगवान् श्रीकृष्ण का अत्यन्त प्रिय हो गया था। श्रीकृष्ण ने जन्म से ही उसके लालन-पालन की सुन्दर व्यवस्थाएँ की थीं। बालक अभिमन्यु शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिनों-दिन बढ़ने लगा। उस शत्रुदमन बालक ने वेदों का ज्ञान प्राप्त करके अपने पिता अर्जुन से चार पदों और दर्शविध अंगों से युक्त दिव्य एवं मानुष सब प्रकार के धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया। अस्त्रों के विज्ञान, सौष्ठव (प्रयोग पटुता) तथा सम्पूर्ण क्रियाओं में भी महाबली अर्जुन ने उसे विशेष शिक्षा दी थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 74-89 का हिन्दी अनुवाद)

धनंजय ने अभिमन्यु को (अस्त्र-शस्त्रों के) आगम और प्रयोग में अपने समान बना दिया था। वे सुभद्राकुमार को देखकर बहुत संतुष्ट रहते थे। वह दूसरों को तिरस्कृत करने वाले समस्त सद्गुणों से सम्पन्न, सभी उत्तम लक्षणों से सुशोभित एवं दुर्धर्ष था। उसके कंधे वृषभ के समान हृष्ट-पुष्ट थे तथा मुँह बाये हुए सर्पों की भाँति वह शत्रुओं को भयानक प्रतीत होता था। उसमें सिंह के समान गर्व था तथा मतवाले गजराज की भाँति पराक्रम था। वह महाधनुर्धर वीर अपने गम्भीर स्वर से मेघ और दुन्दुभि की ध्वनि को लजा देता था। उसका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मन में आह्लाद उत्पन्न करता था। वह शूरता, पराक्रम, रूप और आकृति- सभी बातों में श्रीकृष्ण के समान ही जान पड़ता था। अर्जुन अपने उस पुत्रों को वैसी ही प्रसन्नता से देखते थे, जैसे इन्द्र उन्हें देखा करते थे। शुभलक्षणा पांचाली ने भी अपने पाँचों पतियों से पाँच श्रेष्ठ पुत्रों को प्राप्त किया। वे सब के सब वीर और पर्वत के समान अविचल थे। युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकर्मा, नकुल से शतानीक और सहदेव से श्रुतसेन उत्पन्न हुए थे। इन पाँच वीर महारथी पुत्रों को पांचाली (द्रौपदी) ने उसी प्रकार जन्म दिया, जैसे अदिति ने बारह आदित्यों को। ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर से उसके पुत्र का नाम शास्त्र के अनुसार प्रतिविन्ध्य बताया। उनका उद्देश्य यह था कि यह प्रहारजनित वेदना के ज्ञान में विन्ध्य पर्वत के समान हो।

(इसे शत्रुओं के प्रहार से तनिक भी पीड़ा न हो)। भीमसेन सहस्र सोमयाग करने के पश्चात् द्रौपदी ने उनसे सोम और सूर्य के समान तेजस्वी महान् धनुर्धर पुत्र को उत्पन्न किया था, इसलिए उसका नाम सुतसोम रखा गया। किरीटधारी अर्जुन ने महान् एवं विख्यात कर्म करने के पश्चात् लौटकर द्रौपदी से पुत्र उत्पन्न किया था, इसलिये उनके पुत्र का नाम श्रुतकर्मा हुआ। कौरवकुल के महामना राजर्षि शतानीक के नाम पर नकुल ने अपने कीर्तिवर्धक पुत्र का नाम शतानीक रख दिया। तदनन्तर कृष्णा ने सहदेव से अग्निदेवता सम्बन्धी कृत्तिका नक्षत्र में एक पुत्र उत्पन्न किया, इसलिये उसका नाम श्रुतसेन रखा गया (श्रुतसेन अग्नि का ही नामान्तर है)। राजेन्द्र! ये यशस्वी द्रौपदीकुमार एक-एक वर्ष के अन्तर से उत्पन्न हुए थे और एक दूसरे का हित चाहने वाले थे। भरतश्रेष्ठ! पुरोहित धौम्य ने क्रमशः उन सभी बालकों के जातकर्म, चूड़ाकरण और उपनयन आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले उन बालकों ने धौम्य मुनि से वेदाध्ययन करने के पश्चात् अर्जुन से सम्पूर्ण दिव्य और मानुष धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया। राजेश्वर! देवपुत्रों के समान चौड़ी छाती वाले उन महारथी पुत्रों से संयुक्त हो पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत हरणाहरण पर्व में दो सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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