सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)
दौ सौ ग्यारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकादशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"तिलोत्तमा पर मोहित होकर सुन्द-उपसुन्द का आपस में लड़ना और मारा जाना एवं तिलोत्तमा को ब्रह्मा जी द्वारा वर प्राप्ति तथा पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण"
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! वे दोनों दैत्य सुन्द और उपसुन्द सारी पृथ्वी को जीतकर शत्रुओं से रहित एवं व्यथा रहित हो तीनों लोकों को पूर्णत: अपने वश में करके कृतकृत्य हो गये। देवता, गन्धर्व, यक्ष, नाग, मनुष्य तथा राक्षसों के सभी रत्नों को छीनकर उन दोनों दैत्यों को बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ। तब त्रिलोकी में उनका सामना करने वाले कोई नहीं रह गये, तब वे देवताओं के सामन अकर्मण्य होकर भोग-विलास में लग गये। सुन्दरी स्त्रियों, मनोहर मालाओं, भाँति-भाँति के सुगन्ध द्रव्यों, पर्याप्त भोजन-सामग्रीयों तथा मन को प्रिय लगने वाले अनेक प्रकार के पेय रसों का सेवन करके वे बड़े आनन्द से दिन बिताने लगे। अन्त:पुर के उपवन और उद्यान में, पर्वतों पर, वनों में तथा अन्य मनोवाच्छित प्रदेशों में भी वे देवताओं की भाँति विहार करने लगे।
तदनन्तर एक दिन विन्ध्यपर्वत के शिखर पर जहाँ की शिलामयी भूमि समतल थी और जहाँ ऊंचे शाल वृक्षों की शाखाएं फूलों से भरी हुई थीं, वहाँ वे दोनों दैत्य विहार करने के लिये गये। वहाँ उनके लिये सम्पूर्ण दिव्य भोग प्रस्तुत किये गये, तदनन्तर वे दोनों भाई श्रेष्ठ आसनों पर सुन्दरी स्त्रियों के साथ आनन्दमय होकर बैठे। तदनन्तर बहुत-सी स्त्रियां उनके पास आयी और वाद्य, नृत्य, गीत एवं स्तुति-प्रशंसा आदि के द्वारा उन दोनों का मनोरंजन करने लगीं। इसी समय तिलोत्तमा वहाँ वन में फूल-चुनती हुई आयी। उसके शरीर पर एक ही लाल रंग की महीन साड़ी थी। उसने ऐसा वेश धारण कर रखा था, जो किसी भी पुरुष को उन्मत्त बना सकता था। नदी के किनारे उगे हुए कनेर के फूलों का संग्रह करती हुई वह धीरे-धीरे उसी स्थान को ओर गयी, जहाँ वे दोनों महादैत्य बैठे थे।
उन दोनों ने बहुत अच्छा मादक रस पी लिया था, जिससे उनके नेत्र नशे के कारण कुछ लाल हो गये थे। उस सुन्दर अंगों वाली तिलोत्तमा को देखते ही वे दोनों दैत्य कामवेदना से व्यथित हो उठे। और अपना आसन छोड़कर खड़े हो उसी स्थान पर गये, जहाँ वह खड़ी थी। दोनों ही काम से उन्मत्त हो रहे थे, इसलिये दोनों ही उसे अपनी स्त्री बनाने के लिये उससे प्रेम की याचना करने लगे। सुन्द ने सुन्दर भौहों वाली तिलोत्तमा का दाहिना हाथ पकड़ा और उपसुन्द ने उसका बायां हाथ पकड़ लिया। एक तो वे दुर्लभ वरदान के मद से उन्मत्त थे, दूसरे उन पर स्वाभाविक बल का नशा सवार था। इसके सिवा धनमद, रत्नमद और सुरापान के मद से भी वे उन्मत्त हो रहे थे। इन सभी मदों से उन्मत्त होने के कारण आपस में ही एक दूसरे पर उनकी भौंहे तन गयीं।
तिलोत्तमा कटाक्ष द्वारा उन दोनों दैत्य राजों को बार-बार अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। उस कामिनी ने अपने दाहिने कटाक्ष से सुन्द को आकृष्ट कर लिया और बायें कटाक्ष से वह उपसुन्द को वश में करने की चेष्टा करने लगी। उसकी दिव्य सुगन्ध, आभूषण राशि तथा रुप सम्पत्ति वे दोनों दैत्य तत्काल मोहित हो गये। उनमें मद और काम का आवेश हो गया। अत: वे एक-दूसरे से इस प्रकार बोले।
सुन्द ने कहा ;- ‘अरे! यह मेरी पत्नी है, तुम्हारे लिये माता के समान है।’
यह सुनकर ,,,
उपसुन्द बोल उठा ;- ‘नहीं-नहीं, यह मेरी भार्या है, तुम्हारे लिये तो पुत्रवधु के समान है’। ‘यह तुम्हारी नहीं है, मेरी है’, यही कहते-कहते उन दोनों को क्रोध चढ़ गया। तिलोत्तमा के रुप से मतवाले होकर वे दोनों स्नेह और सौहार्द से शून्य हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकादशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)
उस सुन्दरी को पाने के लिये दोनों भाइयों ने उस समय हाथ में भयंकर गदाएं ले लीं। दोनों ही उसके प्रति काम से मोहित हो रहे थे। ‘पहले मैं इसे प्राप्त करुँगा’, नहीं, पहले मैं’; ऐसा कहते हुए दोनों एक-दूसरे को मारने लगे। इस प्रकार गदाओं की चोट खाकर वे दोनों भयानक दैत्य धरती पर गिर पड़े। उनके सारे अंग खून से लथ-पथ हो रहे थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाश से दो सूर्य पृथ्वी पर गिर गयें हो। उनके मारे जाने पर वे सब स्त्रियां वहाँ से भाग गयीं और दैत्यों का सारा समुदाय विषाद और भय से कम्पित होकर पाताल में चला गया। तत्पश्चात् विशुद्ध अन्त:करण वाले भगवान् ब्रह्मा जी देवताओं और महर्षियों के साथ तिलोत्तमा की प्रशंसा करते हुए वहाँ आये और भगवान् पितामह ने उसे वर के द्वारा प्रसन्न किया। वर देने के लिये उत्सुक हुए ब्रह्माजी स्वयं ही प्रसन्नतापूर्वक बोले,,
ब्रह्माजी बोले ;- ‘भामिनी! जहाँ तक सूर्य की गति है, उन सभी लोकों में तू इच्छानुसार विचर सकेगी। तुझमें इतना तेज होगा कि कोई आंख भरकर तुझे अच्छी तरह देख भी न सकेगा।’ इस प्रकार सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा जी तिलोत्तमा को वरदान देकर तथा त्रिलोकी की रक्षा का भार इन्द्र को सौंपकर पुन: ब्रह्मलोक को चले गये।
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इस प्रकार सुन्द और उपसुन्द ने परस्पर संगठित और सभी बातों में एकमत रहकर भी तिलोत्तमा के लिये कुपित हो एक-दूसरे को मार डाला। अत: भरतवंशशिरोमणियों! मैं तुम सब लोगों से स्नेहवश कहता हूँ कि यदि मेरा प्रिय चाहते हो, तो ऐसा कुछ नियम बना लो, जिससे द्रौपदी के लिये तुम सब लोगों में फूट न होने पावे। तुम्हारा कल्याण हो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! देवर्षि नारद के ऐसा कहने पर एक दूसरे के अधीन रहने वाले उन अमित तेजस्वी महात्मा पाण्डवों ने देवर्षि के सामने ही यह नियम बनाया। 'हममें से प्रत्येक घर में पापरहित द्रौपदी एक-एक वर्ष निवास करें। द्रौपदी के साथ एकान्त में बैठे हुए हमसें से एक भाई को यदि दूसरा देख ले, तो वह बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्यपूर्वक वन में निवास करे। धर्म का आचरण करने वाले पाण्डवों द्वारा यह नियम स्वीकार कर लिये जाने पर महामुनि नारद जी प्रसन्न हो अभीष्ट स्थान को चले गये। भारत! इस प्रकार नारद जी की प्रेरणा से पाण्डवों ने पहले ही नियम बना लिया था। इसीलिये वे सब आपस में कभी एक दूसरे के विरोधी नहीं हुए। नरेश्वर जनमेजय! उस समय जो बातें जिस प्रकार घटित हुई थीं, वे सब मैंने तुम्हें विस्तारपूर्वक बतायी हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत विदुरागमन-विषयक पर्व में सुन्दोपसुन्दोपाख्यान विषयक दौ सौ ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)
दौ सौ बारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"अर्जुन के द्वारा ब्राह्मण के गोधन की रक्षा के लिये नियम भंग और वन की ओर प्रस्थान"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार नियम बनाकर पाण्डव लोग वहाँ रहने लगे। वे अपने अस्त्र-शस्त्रों के प्रताप से दूसरे राजाओं को अधीन करते रहते थे। कृष्णा मनुष्यों में सिंह के समान वीर और अमित तेजस्वी उन पांचों पाण्डवों की आज्ञा के अधीन रहती थी। पाण्डव द्रौपदी के साथ और द्रौपदी उन पांचों वीर पतियों के साथ ठीक उसी तरह अत्यन्त प्रसन्न रहती थी जैसे नागों के रहने से भोगवती पुरी परमशोभायुक्त होती है। महात्मा पाण्डवों के धर्मानुसार बर्ताव करने पर समस्त कुरुवंशी निर्दोष एवं सुखी रहकर निरन्तर उन्नति करने लगे। महाराज! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् एक दिन कुछ चोरों ने किसी ब्राह्मण की गौएं चुरा लीं। अपने गो धन का अपहरण होता देख ब्राह्मण अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और खाण्डवप्रस्थ में आकर उसने उच्चस्वर से पाण्डवों को पुकारा। ‘पाण्डवों! हमारे गांव से कुछ नीच, क्रूर और पापात्मा चोर जबरदस्ती गो धन चुराकर लिये जा रहे हैं। उसकी रक्षा के लिये दौड़ो। आज एक शान्तस्वभाव ब्राह्मण का हविष्य कौए लौटकर खा रहे हैं। नीच सियार सिंह की सूनी गुफा को रौंद रहा है। जो राजा प्रजा की आय का छटा भाग कर के रुप में वसूल करता हैं, किंतु प्रजा की रक्षा की कोई व्यवस्था नहीं करता, उसे सम्पूर्ण लोकों में पूर्ण पापाचारी कहा गया है। मुझ ब्राह्मण का धन चोर लिये जा रहे हैं, मेरे गौ के न रहने पर दुग्ध आदि हविष्य के अभाव से धर्म और अर्थ का लोप हो रहा है तथा मैं वहाँ आकर रो रहा हूँ। पाण्डवो! (चोरों को दण्ड देने के लिये) अस्त्र धारण करो।’
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वह ब्राह्मण निकट आकर बहुत रो रहा था। पाण्डुपुत्र कुन्तीनन्दन धनंजय ने उसकी कही हुई सारी बातें सुनी और सुनकर उन महाबाहु ने उस ब्राह्मण से कहा,,
महाबाहु बोला ;- ‘डरो मत’। महात्मा पाण्डवों के अस्त्र-शस्त्र जहाँ रखे गये थे, वहाँ धर्मराज युधिष्ठिर कृष्णा के साथ एकान्त में बैठे थे। अत: पाण्डुपुत्र अर्जुन न तो घर के भीतर प्रवेश कर सकते थे। और न खाली हाथ चोरों का पीछा कर सकते थे। इधर उस आर्त ब्राह्मण की बातें उन्हें बार-बार शस्त्र ले आने को प्रेरित कर रही थीं। जब वह अधिक रोने-चिल्लाने लगा, तब अर्जुन ने दुखी होकर सोचा- ‘इस तपस्वी ब्राह्मण के गो धन का अपहरण हो रहा है; अत: ऐसे समय में इसके आंसू पोंछना मेरा कर्तव्य है। यही मेरा निश्चय है। यदि मैं राजद्वार पर रोते हुए इस ब्राह्मण की रक्षा आज नहीं करुंगा, तो महाराज युधिष्ठिर को उपेक्षाजनित महान् अधर्म का भागी होना पड़ेगा। इसके सिवा लोक में यह बात फैल जायगी कि हम सब लोग किसी आर्त की रक्षा रुप धर्म के पालन में श्रद्धा नहीं रखते। साथ ही हमें अधर्म भी प्राप्त होगा। यदि राजा का अनादर करके मैं घर के भीतर चला जाउं, तो महाराज अजातशत्रु के प्रति मेरी प्रतिज्ञा मिथ्या होगी।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)
राजा की उपस्थिति में घर के भीतर प्रवेश करने पर मुझको वन में निवास करना होगा। इसमें महाराज के तिरस्कार के सिवा और सारी बातें तुच्छ होने के कारण उपेक्षणीय हैं। चाहे राजा के तिरस्कार से मुझे नियम भंग का महान् दोष प्राप्त हो अथवा वन में ही मेरी मृत्यु हो जाय तथापि शरीर को नष्ट करके भी गौ-ब्राह्मण-रक्षा रुप धर्म का पालन ही श्रेष्ठ है’। जनमेजय! ऐसा निश्चय करके कुन्तीकुमार धनंजय से राजा से पूछकर घर के भीतर प्रवेश करके धनुष ले लिया और (बाहर आकर) प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मण से कहा,,
जनमेजय बोले ;- ‘विप्रवर! शीघ्र आइये। जब तक दूसरों के धन हड़पने की इच्छा वाले वे क्षुद्र चोर दूर नहीं चले जाते, तभी तक हम दोनों एक साथ वहाँ पहुँच जायं। मैं अभी आपका गो धन चोरों के हाथ से छीनकर आपको लौटा देता हूं।’ ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुन ने धनुष और कवच धारण करके ध्वजायुक्त रथ पर आरूढ़ हो उन वीरों का पीछा किया और बाणों से चोरों का विनाश करके सारा गो धन जीत लिया। फिर ब्राह्मण को वह सारा गो धन देकर प्रसन्न करके अनुपम यश के भागी हो पाण्डुपुत्र सव्यसाची वीर धनंजय पुन: अपने नगर में लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने समस्त गुरुजनों को प्रणाम किया और उन सभी गुरुजनों ने उनकी बड़ी प्रशंसा एवं अभिनन्दन किया।
इसके बाद अर्जुन ने धर्मराज से कहा ;- ‘प्रभो! मैंने आपको द्रौपदी के साथ देखकर पहले के निश्चित नियम को भंग किया है; अत: आप इसके लिये मुझे प्रायश्चित करने की आज्ञा दिजिये। मैं वनवास के लिये जाऊंगा; क्योंकि हम लोगों में वह शर्त हो चुकी है।’ अर्जुन के मुख से सहसा यह अप्रिय वचन सुनकर धर्मराज शोकातुर होकर लड़खड़ाती हुई वाणी में बोले,,
धर्मराज बोले ;- ‘ऐसा क्यों करते हो?’ इसके बाद राजा युधिष्ठिर धर्म मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले अपने भाई गुडाकेश धनंजय से फिर दान होकर बोले,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘अनघ! यदि तुम मुझको प्रमाण मानते हो, तो मेरी यह बात सुनो- ‘वीरवर! तुमने घर के भीतर प्रवेश करके तो मेरा प्रिय कार्य किया है, अत: उसके लिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं; क्योंकि मेरे हृदय में यह अप्रिय नहीं है। यदि बड़ा भाई घर में स्त्री के साथ बैठा हो, तो छोटे भाई का वहाँ जाना दोष की बात नहीं है; परंतु छोटे भाई घर में हो, तो बड़े भाई का वहाँ जाना उसके धर्म का नाश करने वाला है। अत: महाबाहो! मेरी बात मानो; वनवास का विचार छोड़ दो। न तो तुम्हारे धर्म का लोप हुआ है और न तुम्हारे द्वारा मेरा तिरस्कार ही किया गया है।’
अर्जुन बोले ;- प्रभो! मैने आपके ही मुख से सुना है कि धर्माचरण मे कभी बहानेबाजी नहीं करनी चाहिये। अत: मैं सत्य की शपथ खाकर और शस्त्र छूकर कहता हूँ कि सत्य से विचलित नहीं होऊँगा। यशोवर्धन! मुझे आप वनवास के लिये आज्ञा दें, मेरा यह निश्चय है कि मैं आपकी आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करुंगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा की आज्ञा लेकर अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वन में बारह वर्षों तक रहने के लिये वहाँ से चल पड़े।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत अर्जुन वनवास पर्व में अर्जुन तीर्थ यात्राविषयक दो सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)
दौ सौ तैरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"अर्जुन का गंगा द्वार में ठहरना और वहाँ उनका उलूपी के साथ मिलन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कौरव वंश का यश बढ़ाने वाले महाबाहु अर्जुन जब जाने लगे, उस समय बहुत-से वेदज्ञ महात्मा ब्राह्मण उनके साथ हो लिये। वेद-वेदांगों के विद्वान, अध्यात्म चिन्तन करने वाले, भिक्षाजीवी ब्रह्मचारी, भगवद्भक्त, पुराणों के ज्ञाता सूत, अन्य कथा वाचक, सन्यासी, वानप्रस्थ तथा जो ब्राह्मण मधुर स्वर से दिव्य कथाओं का पाठ करते हैं, वे सब अर्जुन के साथ गये। जैसे इन्द्र देवताओं के साथ चलते हैं, उसी प्रकार पाण्डुनन्दन अर्जुन पूर्वोक्त पुरुषों तथा अन्य बहुत-से मधुर भावी सहायकों के साथ यात्रा कर रहे थे। भारत! नरश्रेष्ठ अर्जुन ने मार्ग में अनेक रमणीय एवं विचित्र वन, सरोवर, नदी, सागर, देश और पुण्यतीर्थ देखे। धीरे-धीरे गंगाद्वार (हरद्वार) में पहुँचकर शक्तिशाली पार्थ ने वहीं डेरा डाल दिया। जनमेजय! गंगा द्वार में अर्जुन का एक अद्भुत कार्य सुनो, जो पाण्डवों में श्रेष्ठ विशुद्ध चित्त धनंजय ने किया था। भारत! जब कुन्तीकुमार और उनके साथ ब्राह्मण लोग गंगा द्वार में ठहर गये, तब उन ब्राह्मणों ने अनेक स्थानों पर अग्निहोत्र के लिये अग्नि प्रकट की। गंगा के तट पर जब अलग-अलग अग्रियां प्रज्वलित हो गयी और सन्मार्ग से स्थित एवं मन-इन्द्रियों को वश में रखने वाले विद्वान बाह्मण लोग स्नान करके फूलों के उपहार चढ़ाकर जब पूर्वोक्त अग्नियों में आहुति दे चुके, तब उन महात्माओं के द्वारा उस गंगाद्वार नामक तीर्थ की शोभा बहुत बढ़ गयी। इस प्रकार विद्वान एवं महात्मा ब्राह्मणों से जब उनका आश्रम भरा-पूरा हो गया, उस समय कुन्तीनन्दन अर्जुन स्नान करने के लिये गंगा में उतरे।
राजन्! वहाँ स्नान करके पितरों का तर्पण करने के पश्चात् अग्निहोत्र करने के लिये वे जल से निकलना ही चाहते थे कि नागराज की पुत्री उलूपी ने उनके प्रति आसक्त हो पानी के भीतर से ही महाबाहु अर्जुन को खींच लिया। नागराज कौरव्य के परम सुन्दर भवन में पहुँचकर पाण्डुनन्दन अर्जुन ने एकाग्रचित्त होकर देखा, तो वहाँ अग्नि प्रज्वलित हो रही थी। उस समय कुन्तीपुत्र धनंजय ने निर्भीक होकर उसी अग्नि में अपना अग्निहोत्र कार्य सम्पन्न किया। इससे अग्नि देव बहुत संतुष्ट हुए। अग्निहोत्र का कार्य कर लेने के पश्चात् अर्जुन ने नागराज कन्या से हंसते हुए यह बात कही,,
अर्जुन बोले ;- ‘भीरु! तुमने ऐसा साहस क्यों किया है? भाविनी! यह कौन सा देश है? सुभगे! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो?’
उलूपी ने कहा ;- राजन्! ऐरावत नाग के कुल में कौरव्य नामक नाग उत्पन्न हुए हैं, मैं उन्हीं की पुत्री नागिन हूँ। मेरा नाम उलूपी है। नरश्रेष्ठ! जब आप स्नान करने के लिये समुद्रगामिनी नदी गंगा में उतरे थे, उस समय आपको देखते ही मैं काम वेदना से मूर्च्छित हो गयी थी। निष्पाप कुरुनन्दन! मैं आपके ही लिये कामदेव के ताप से जली जा रही हूँ। मैंने आपके सिवा दूसरे को अपना हृदय अर्पण नहीं किया है। अत: मुझे आत्मदान देकर आनन्दित कीजिये।
अर्जुन बोले ;- भद्रे! यह मेरे बारह वर्षों तक चालू रहने वाले ब्रह्मचर्य व्रत का समय है। धर्मराज युधिष्ठिर ने मुझे इस व्रत के पालन की आज्ञा दी है। अत: मैं अपने वश में नहीं हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद)
जलचारिणी! मैं तुम्हारा भी प्रिय करना चाहता हूँ। मैंने पहले कभी कोई असत्य बात नहीं कही है। नागकन्ये! तुम ऐसा कोई उपाय करो, जिससे मुझे झूठ का दोष न लगे, तुम्हारा भी प्रिय हो और मेरे धर्म को भी हानि न पहुँचे।
उलूपी ने कहा ;- पाण्डुनन्दन! आप जिस उद्देश्य से पृथ्वी पर विचर रहे हैं और आपके बड़े भाई ने जिस प्रकार आपको ब्रह्मचर्य पालन का आदेश दिया है, वह सब मैं जानती हूँ। आप लोगों ने आपस में यह शर्त रखी है कि हम लोगों में से कोई भी यदि द्रौपदी के पास रहे, उस दशा में यदि दूसरा मोहवश उस घर में प्रवेश करें, तो वह बारह वर्षों तक वन में रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें।
अत: आपके बड़े भाई ने वहाँ धर्म की रक्षा के लिये केवल द्रौपदी को निमित्त बनाकर यह एक-दूसरे के प्रवास का नियम बनाया है। यहाँ आपका धर्म दूषित नहीं होता। विशाल नेत्रों वाले अर्जुन! आपको आर्त प्राणियों की रक्षा करनी चाहिये। मेरी रक्षा करने से आपके धर्म का लोप नहीं होगा। यदि आपके इस धर्म का थोड़ा-सा व्यतिक्रम हो भी जाय तो भी मुझे प्राणदान देने से तो आपको महान् धर्म होगा ही। अत: मेरे स्वामी कुन्तीकुमार अर्जुन! मैं आपकी भक्त हूं, अत: स्वीकार कीजिये; यह आर्तरक्षण सत्पुरुषों का मत है। महाबाहो! यदि आप मेरी प्रार्थना पूर्ण नहीं करेंगे तो निश्चय जानिये, मैं मर जाऊंगी। अत: मुझे प्राणदान देकर अत्यन्त उत्तम धर्म का अनुष्ठान कीजिये।
पुरुषोत्तम! आज मैं आपकी शरण में आयी हूँ। कुन्तीकुमार! आप प्रतिदिन न जाने कितने दीनों और अनाथों की रक्षा करते हैं। मैं भी यह आशा लेकर शरण में आयी हूँ और बार-बार दुखी होकर रोती-गिड़गिड़ाती हूँ। मैं आपके प्रति अनुरक्त हूँ और आपसे समागम की याचना करती हूँ। अत: मेरा प्रिय मनोरथ पूर्ण कीजिये। मुझे आत्मदान देकर मेरी कामना सफल कीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! नागराज की कन्या उलूपी के ऐसा कहने पर कुन्तीकुमार अर्जुन ने धर्म को ही सामने रखकर वह सब कार्य पूर्ण किया। प्रतापी अर्जुन ने नागराज के घर में ही वह रात्रि व्यतीत की। फिर सुर्योदय होने पर कौरव्य के भवन से ऊपर को उठे। उलूपी के साथ अर्जुन फिर गंगाद्वार में आ पहुँचे। साध्वी उलूपी उन्हें वहाँ छोड़कर पुन: अपने घर को लौट गयी। भारत! जाते समय उसने अर्जुन को यह वर दिया कि आप जल में सर्वत्र अजेय होंगे और सभी जलचर आपके वश में रहेंगें, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार अर्जुन ने उलूपी के गर्भ से अत्यन्त मनोहर तथा महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न इरावान नामक महाभाग पुत्र उत्पन्न किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत अर्जुनवनवास पर्व में उलूपी-समागम विषयक दो सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)
दौ सौ चौदहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्दशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"अर्जुन का पूर्व दिशा के तीर्थों में भ्रमण करते हुए मणिपुर में जाकर चित्रागंदा का पाणिग्रहण करके उसके गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न करना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! रात की वह सारी घटना ब्राह्मणों से कहकर इन्द्रपुत्र अर्जुन हिमालय के पास चले गये। अगस्त्यवट, वसिष्ठ पर्वत तथा भृगुतुंग पर जाकर उन्होंने शौच-स्नान आदि किये। भारत! कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने उन तीर्थों में ब्राह्मणों को कई हजार गौएं दान कीं और द्विजातियों के रहने के लिये घर एवं आश्रम बनवा दिये। हिरण्यबिंदु तीर्थ में स्नान करके पाण्डव श्रेष्ठ पुरुषोत्तम अर्जुन ने अनेक पवित्र स्थानों का दर्शन किया। जनमेजय! तत्पश्चात् हिमालय से नीचे उतरकर भरतकुलभूषण नरश्रेष्ठ अर्जुन पूर्व दिशा की ओर चल दिये। भारत! फिर उस यात्रा में कुरुश्रेष्ठ धनंजय ने क्रमश: अनेक तीर्थों का तथा नैमिषारण्य तीर्थ में बहने वाली रमणीय उत्पलिनी नदी, नन्दा, अपरनन्दा, यशस्विनी कौशिकी (कोसी), महानदी, गयातीर्थ और गंगा जी का भी दर्शन किया। इस प्रकार उन्होंने सब तीर्थों और आश्रमों को देखते हुए स्नान आदि से अपने को पवित्र करके ब्राह्मणों के लिये बहुत-सी गौएं दान कीं। तदनन्तर अंग, बंग और कलिंग देशों में जो कोई भी पवित्र तीर्थ और मन्दिर थे, उन सबमें वे गये। और उन तीर्थों का दर्शन करके उन्होंने विधिपूर्वक वहाँ धन-दान किया। कलिंग राष्ट्र के द्वार पर पहुँचकर अर्जुन के साथ चलने वाले ब्राह्मण उनकी अनुमती लेकर वहाँ से लौट गये। परंतु कुन्तीपुत्र शूरवीर धनंजय उन ब्राह्मणों की आज्ञा ले थोड़े-से सहायकों के साथ उस स्थान की ओर गये, जहाँ समुद्र लहराता था।
कलिंग देश को लांघकर शक्तिशाली अर्जुन अनेक देशों, मन्दिरों तथा रमणीय अट्टालिकाओं का दर्शन करते हुए आगे बढ़े। इस प्रकार वे तपस्वी मुनियों से सुशोभित महेन्द्र पर्वत का दर्शन कर समुद्र के किनारे-किनारे यात्रा करते हुए धीरे-धीरे मणिपुर पहुँच गये। वहाँ के सम्पूर्ण तीर्थों और पवित्र मन्दिरों में जाने के बाद महाबाहु अर्जुन मणिपुरनरेश के पास गये। राजन्! मणिपुर के स्वामी धर्मज्ञ चित्रवाहन थे। उनके चित्रागंदा नाम वाली एक परम सुन्दरी कन्या थी। उस नगर में विचरण करते हुई उस सुन्दर अंगों वाली चित्रवाहन कुमारी को अकस्मात् देखकर अर्जुन के मन में उसे प्राप्त करने की अभिलाषा हुई। अत: राजा से मिलकर उन्होंने अपना अभिप्राय इस प्रकार बताया,,
अर्जुन बोले ;- ‘महाराज! मुझ महामनस्वी क्षत्रिय को आप अपनी यह पुत्री प्रदान कर दीजिये।’ यह सुनकर राजा ने पूछा,,
राजा बोले ;- ‘आप किनके पुत्र हैं और आपका क्या नाम है?’ अर्जुन ने उत्तर दिया,
अर्जुन बोले ;- ‘मैं महाराज पाण्डु तथा कुन्ती देवी का पुत्र हूँ। मुझे लोग धनंजय कहते हैं।’ तब राजा ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा,,
राजा बोले ;- ‘इस कुल में पहले प्रभञ्जन नाम से एक प्रसिद्ध राजा हो गये हैं। उनके कोई पुत्र नहीं था, अत: उन्होंने पुत्र की इच्छा से उत्तम तपस्या प्रारम्भ की। पार्थ! उन्होंने उस समय उग्र तपस्या से पिनाकधारी देवाधिदेव महेश्वर को संतुष्ट कर दिया। तब देवदेवेश्वर भगवान् उमापति उन्हें वरदान देते हुए बोले, तुम्हारे कुल में एक-एक संतान होती जायगी।’
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्दशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 22-27 का हिन्दी अनुवाद)
इस कारण हमारे इस कुल में सदा से एक-एक संतान ही होती चली आ रही है। मेरे अन्य सभी पूर्वजों के तो पुत्र होते आये हैं, परंतु मेरे यह कन्या ही हुई है। यही इस कुल की परम्परा को चलाने वाली है। अत: भरतश्रेष्ठ! इसके प्रति मेरी यही भावना रहती है कि ‘यह मेरा पुत्र है’। यद्यपि यह पुत्री है, तो भी हेतुविधि से (अर्थात् इससे जो प्रथम पुत्र होगा, वह मेरा ही पुत्र माना जायगा, इस हेतु से) मैंने इसे पुत्र की संज्ञा दे रखी है। भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे द्वारा इसके गर्भ से जो एक पुत्र उत्पन्न हो, वह यहीं रहकर उस कुल परम्परा का प्रवर्तक हो; इस कन्या के विवाह का यही शुल्क आपको देना होगा।
पाण्डुनन्दन! इसी शर्त के अनुसार आप इसे ग्रहण करें।’ ‘तथास्तु’ कहकर अर्जुन ने वैसा ही करने की प्रतिज्ञा की और उस कन्या का पाणिग्रहण करके उन्होंने तीन वर्षों तक उसके साथ उस नगर में निवास किया। उसके गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो जाने पर उस सुन्दरी को हृदय से लगाकर अर्जुन ने विदा ली तथा राजा चित्रवाहन से पूछकर वे पुन: तीर्थों में भ्रमण करने के लिये चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत अर्जुनवनवास पर्व में चित्रागंदासमागम विषयक दो सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)
दौ सौ पन्द्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचदशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
"अर्जुन के द्वारा वर्गा अप्सरा का ग्राहयोनि से उद्धार तथा वर्गा की आत्मकथा का आरम्भ"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर अर्जुन दक्षिण समुद्र के तट पर तपस्वीजनों से सुशोभित परमपुण्यमय तीर्थों में गये। वहाँ उन दिनों तपस्वी लोग पांच तीर्थों को छोड़ देते थे। ये वे ही तीर्थ थे, जहाँ पूर्वकाल में बहुतेरे तपस्वी महात्मा भरे रहते थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- अगस्त्यतीर्थ, सौभद्रतीर्थ, परम पावन पौलोतीर्थ, अश्वमेघ का फल देने वाला स्वच्छ कारन्धमतीर्थ तथा पापनाशक महान् भारद्वाज तीर्थ! कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने इन पांचों तीर्थों का दर्शन किया। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने देखा, ये सभी तीर्थ बड़े एकान्त में हैं, तो भी एकमात्र धर्म में बुद्धि को लगाये रखने वाले मुनि भी उन तीर्थ को दूर से ही छोड़ दे रहे है। तब कुरुनन्दन धनंजय ने दोनों हाथ जोड़कर तपस्वी मुनियों से पूछा,,
धनंजय (अर्जुन) बोले ;- ‘वेदवक्ता ऋषिगण इन तीर्थों का परित्याग किसलिये कर रहे हैं?
तपस्वी बोले ;- कुरुनन्दन! उन तीर्थों में पांच घड़ियाल रहते हैं, जो नहाने वाले तपोधन ऋषियों को जल के भीतर खींच ले जाते हैं; इसीलिये ये तीर्थ मुनियों द्वारा त्याग दिये गये हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- उनकी बातें सुनकर कुरुश्रेष्ठ महाबाहु अर्जुन उन तपोधनों के मना करने पर भी उन तीर्थों का दर्शन करने के लिये गये। तदनन्तर परंतप शूरवीर अर्जुन महर्षि सुभद्र के उत्तम सौभद्रती तीर्थ में सहसा उतरकर स्नान करने लगे। इतने में ही जल के भीतर विचरने वाले एक महान् ग्राह ने नरश्रेष्ठ कुन्तीकुमार धनंजय का एक पैर पकड़ लिया। परंतु बलवानों में श्रेष्ठ महाबाहु कुन्तीकुमार बहुत उछल कूद मचाते हुए उस जलचर जीव को लिये दिये पानी से बाहर निकल आये। यशस्वी अर्जुन द्वारा पानी के ऊपर खिंच आने पर वह ग्राह समस्त आभूषणों से विभूषित एक परम सुन्दरी नारी के रुप में परिणत हो गया। राजन्! वह दिव्यरुपिणी मनोरमा रमणी अपनी अद्भुत कान्ति से प्रकाशित हो रही थी। वह महान् आश्चर्य की बात देखकर कुन्तीनन्दन धनंजय बड़े प्रसन्न हुए और उस स्त्री से इस प्रकार बोले,,
धनंजय (अर्जुन) बोले ;- ‘कल्याणी! तुम कौन हो और कैसे जलचर योनि को प्राप्त हुई थी? तुमने पूर्वकाल में ऐसा महान् पाप किसलिये किया? जिससे तुम्हारी दुर्गती हुई?
वर्गा बोली ;- महाबाहो! मैं नन्दन वन में विहार करने वाली एक अप्सरा हूँ। महाबली! मेरा नाम वर्गा है। मैं कुबेर की नित्यप्रेयसी रही हूँ। मेरी चार दूसरी सखियां भी हैं। वे सब इच्छानुसार गमन करने वाली और सुन्दरी हैं। उन सबके साथ एक दिन मैं लोकपाल कुबेर के घर पर जा रही थी। मार्ग में हम सबने उत्तम व्रत का पालन करने वाले एक ब्राह्मण को देखा। वे बड़े रुपवान् थे और अकेले एकान्त में रहकर वेदों का स्वाध्याय करते थे। राजन्! उन्हीं की तपस्या से वह सारा वन प्रान्त तेजोमय हो रहा था। वे सूर्य की भाँति उस सम्पूर्ण प्रदेश को प्रकाशित कर रहे थे। उनकी वैसी तपस्या और वह अद्भुत एवं उत्तम रुप देखकर हम सभी अप्सराएं उनके तप में डालने की इच्छा से उस स्थान में उतर पड़ी। भारत मैं, सौरभेयी, समीची, बुद्बुदा और लता पाँचों एक ही साथ उन ब्राह्मण के समीप गयीं और उन्हें लुभाती हुई हँसने तथा गाने लगीं। परंतु वीरवर उन्होंने किसी प्रकार भी अपने मन को हमारी ओर नहीं खिंचने दिया। वे महातेजस्वी ब्राह्मण निर्मल तपस्या में सलग्न थे। वे उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। क्षत्रियोशिरोमणी हमारी उद्द्ण्डता कुपित होकर उन ब्राह्मण ने हमें शाप दे दिया- 'तुम लोग सौ वर्षों तक जल में ग्राह बनकर रहोगी।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत अर्जुनवनवास पर्व में तीर्थग्राहविमोचनविषयक दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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