सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)
दौ सौ छःवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों का हस्तिनापुर में आना और आधा राज्य पाकर इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण करना एवं भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम जी का द्वारका के लिये प्रस्थान"
द्रुपद बोले ;- महाप्राज्ञ विदुर जी! आज आपने जो मुझसे कहा है, सब ठीक है। प्रभो! (कौरवों के साथ) यह सम्बन्ध हो जाने से मुझे भी महान् हर्ष हुआ है। महात्मा पाण्डवों का अपने नगर में जाना भी अत्यन्त उचित ही है। तथापि मेरे लिये अपने मुख से इन्हें जाने के लिये कहना उचित नहीं है। यदि कुन्तीकुमार वीरवर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन और नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव जाना उचित समझें तथा धर्मज्ञ बलराम और श्रीकृष्ण पाण्डवों को वहाँ जाना उचित समझते हों तो ये अवश्य वहाँ जायं; क्योंकि ये दोनों पुरुषसिंह सदा इनके प्रिय और हित में लगे रहते हैं।
युधिष्ठिर ने कहा ;- राजन्! हम सब लोग अपने सेवकों सहित सदा आपके अधीन हैं। आप स्वयं प्रसन्नतापूर्वक हमसे जैसा कहेंगे, वही हम करेंगे।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने कहा,,
श्री कृष्ण बोले ;- ‘मुझे तो इनका जाना ही ठीक जान पड़ता है। अथवा सब धर्मों के ज्ञाता महाराज द्रुपद जैसा उचित समझें, वैसा किया जाय।’
द्रुपद बोले ;- दशार्हकुल के रत्न वीरवर पुरुषोत्तम महाबाहु श्रीकृष्ण इस समय जो कर्तव्यउचित समझते हों, निश्चय ही मेरी भी वही सम्मति है। महाभाग कुन्तीपुत्र इस समय मेरे लिये जैसे अपने हैं, उसी प्रकार इन भगवान् वासुदेव के लिये भी समस्त पाण्डव उतने ही प्रिय एवं आत्मीय हैं- इसमें संशय नहीं है। पुरुषोत्तम केशव जिस प्रकार इन पाण्डवों के श्रेय (अत्यन्त हित) का ध्यान रखते हैं, उतना ध्यान कुन्तीनन्दन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर भी नहीं रखते।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उसी प्रकार महातेजस्वी विदुर कुन्ती के भवन में गये। वहाँ उन्होंने धरती पर माथा टेककर चरणों में प्रणाम किया। विदुर को आया देख कुन्ती बार-बार शोक करने लगी।
कुन्ती बोली ;- विदुर जी! आपके पुत्र पाण्डव किसी प्रकार आपके ही कृपा प्रसाद से जीवित हैं। लाक्षा गृह में आपने इन सबके प्राण बचाये हैं और अब यह पुन: आपके समीप जीते-जागते लौट आये हैं। कछुआ अपने पुत्रों का, वे कहीं भी क्यों न हो, मन से चिन्तन करता रहता है। इस चिन्ता से ही अपने पुत्रों का वह पालन पोषण एवं संवर्धन करता है। उसी के अनुसार जैसे वे सकुशल जीवित रहते हैं, वैसे ही आपके पुत्र पाण्डव (आपकी ही मंगल-कामना से) जी रहे हैं! भरतश्रेष्ठ! आप ही इनके रक्षक हैं।
तात! जैसे कोयल के पुत्रों का पालन पोषण सदा कौए की माता करती है, उसी प्रकार आपके पुत्रों की रक्षा मैंने ही की है। अब तक मैंने बहुत से प्राणान्तक कष्ट उठाये हैं; इसके बाद मेरा क्या कर्तव्य है, यह मैं नहीं जानती। यह सब आप ही जानें!
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- यों कहकर दु:ख से पीड़ित हुई कुन्ती अत्यन्त आतुर होकर शोक करने लगी। उस समय विदुर ने उन्हें प्रणाम करके कहा, तुम शोक न करो।
विदुर बोले ;- यदुकुलनन्दिनी! तुम्हारे महाबली पुत्र संसार में (दूसरों के सताने से) नष्ट नहीं हो सकते। अब वे थोड़े ही दिनों में समस्त बन्धुओं के साथ अपने राज्य पर अधिकार करने वाले हैं। अत: तुम शोक मत करो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर महात्मा द्रुपद की आज्ञा पाकर पाण्डव, श्रीकृष्ण और विदुर द्रुपदकुमारी कृष्णा और यशस्विनी कुन्ती को साथ ले आमोद-प्रमोद करते हुए हस्तिनापुर की ओर चले।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 12-19 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय राजा द्रुपद ने उन्हें एक हजार सुन्दर हाथी प्रदान किये, जिनकी पीठों पर सोने के हौदे कसे हुए थे और गले में सोने के आभूषण शोभा पा रहे थे। उनके अंकुश भी सोने के ही थे। जाम्बूनद नामक सुवर्ण से उन सबको सजाया गया था। उनके मण्डस्थल से मद की धारा बह रही थी। बड़े-बड़े महावत उन सबका संचालन करते थे। वे सभी गजराज सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न थे। राजा ने पांचों पाण्डवों के लिये चार घोड़ों से जुते हुए एक हजार रथ दिये, जो सुवर्ण और मणियों से विभूषित होने के कारण विचित्र शोभा धारण करते थे और सब ओर अपनी प्रभा बिखेर रहे थे। इतना ही नहीं, राजा ने अच्छी जाति के पचास हजार घोड़े भी दिये, जो सुनहरे साज-बाज से सुसज्जित और सुन्दर चंबर तथा मालाओं से अलंकृत थे। इनके सिवा सुन्दर आभूषणों से विभूषित दस हजार दासियां भी दीं। साथ ही उत्तम धनुष धारण करने वाले एक हजार दास पाण्डवों को भेंट किये। बहुत-सी शय्याएं, आसन और पात्र भी दिये जो सब-के-सब सुवर्ण के बने हुए थे। दूसरे-दूसरे द्रव्य और गोधन भी समर्पित किये। इन सबकी पृथक-पृथक संख्या एक-एक करोड़ थी।
इस प्रकार पाञ्चालराज द्रुपद ने बड़े हर्ष और उल्लास के साथ पाण्डवों को उपर्युक्त वस्तुएं अर्पित कीं। सौ पालकियां और उनको ढोने वाले पांच सौ कहार दिये। इस प्रकार पाञ्चालराज ने अपनी कन्या के लिये ये सभी वस्तुएं तथा बहुत-सा धन दहेज में दिया। जनमेजय! धृष्टधुम्न स्वयं अपनी बहिन का हाथ पकड़कर सवारी पर बैठाने के लिये ले गये। उस समय सहस्रों प्रकार के बाजे एक साथ बज उठे। राजा धृतराष्ट्र ने पाण्डव वीरों का आगमन सुनकर उनकी अगवानी के लिये कौरवों को भेजा। भारत! विकर्ण, महान् धनुर्धर चित्रसेन, विशाल धनुष वाले द्रोणाचार्य, गौतमवंशी कृपाचार्य आदि भेजे गये थे। इन सबसे से घिरे हुए शोभाशाली महाबली वीर पाण्डवों ने तब धीरे-धीरे हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। पाण्डवों का आगमन सुनकर नागरिकों ने कौतूहलवश हस्तिनापुर नगर को (अच्छी तरह से) सजा रखा था। सड़कों पर सब ओर फूल बिखेरे गये थे, जल का छिड़काव किया गया था, सारा नगर दिव्य धूप की सुगन्ध से महँ-महँ कर रहा था और भाँति-भाँति की प्रसाधन-सामग्रियों से सजाया गया था। पताकाएं फहराती थीं और ऊंचे गृहों में पुष्पहार सुशोभित होते थे।
शंख, भेरी तथा नाना प्रकार के वाद्यों की ध्वनि से वह अनुपम नगर बड़ी शोभा पा रहा था। उस समय कौतूहलवश सारा नगर देदीप्यमान सा हो उठा। पुरुषसिंह पाण्डव प्रजाजनों के शोक और दु:ख का निवारण करने वाले थे; अत: वहाँ उनका प्रिय करने की इच्छा वाले पुरवासियों द्वारा कही हुई भिन्न-भिन्न प्रकार की हृदय-स्पर्शिनी बातें सुनायी पड़ीं। (पुरवासी कह रहे थे-) ‘ये ही वे नरश्रेष्ठ धर्मज्ञ युधिष्ठिर पुन: यहाँ पधार रहे हैं, जो धर्मपूर्वक अपने पुत्रों की भाँति हम लोगों की रक्षा करते थे। इनके आने से नि:संदेह ऐसा जान पड़ता है, आज प्रजाजनों के प्रिय महाराज पाण्डु ही मानो हमारा प्रिय करने के लिये वन से चले आये हों। तात! कुन्ती के वीर पुत्र पुन: इस नगर में चले आये तो आज हम सब लोगों का कौन-सा परम प्रिय कार्य नहीं सम्पन्न हो गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 20-25 का हिन्दी अनुवाद)
यदि हमने दान और होम किया है, यदि हमारी तपस्या शेष है तो उन सबके पुण्य से ये पाण्डव सौ वर्ष तक इसी नगर में निवास करें।’ इतने में ही पाण्डवों ने धृतराष्ट्र, महात्मा भीष्म तथा अन्य वन्दनीय पुरुषों के पास जाकर उन सबके चरणों में प्रणाम किया। फिर समस्त नगरवासियों से कुशल प्रश्न करके वे राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से राजमहलों में गये। उस समय दुर्योधन की रानी ने, जो काशिराज की पुत्री थी, धृतराष्ट्र पुत्रों की अन्य बंधुओं के साथ आकर द्वितीय लक्ष्मी के समान सुन्दरी पाञ्चाल राजकुमारी द्रौपदी की अगवानी की। द्रौपदी सर्वथा पूजा के योग्य थी। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो साक्षात् शची देवी ने पर्दापण किया हो। दुर्योधन पत्नी ने उसका भली-भाँति सत्कार किया। वहाँ पहुँचकर कुन्ती ने अपनी बहूरानी द्रौपदी के साथ गान्धारी को प्रणाम किया। गान्धारी ने आशीर्वाद देकर द्रौपदी को हृदय से लगा लिया। कमल सदृश नेत्रों वाली कृष्णा को हृदय से लगाकर गान्धारी सोचने लगी कि यह पाञ्चाली तो मेरे पुत्रों की मृत्यु ही है। यह सोचकर सुबलपुत्री गान्धारी ने युक्ति से विदुर को बुलाकर कहा-
फिर गान्धारी ने कहा ;- विदुर! यदि तुम्हें जंचे तो राजकुमारी कुन्ती को पुत्रवधू सहित शीघ्र ही पाण्डु के महल में ले जाओ और वहीं इनका सारा सामान भी पहुँचा दो। उत्तम करण, मुहूर्त और नक्षत्र सहित शुभ तिथि को उस महल में इन्हें प्रवेश करना चाहिये, जिससे कुन्ती देवी अपने घर में पुत्रों के साथ सुखपूर्वक रह सकें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसी समय विदुर ने वैसी ही व्यवस्था की। सभी बन्धु-बान्धवों ने पाण्डवों का उसी समय अत्यन्त आदर-सत्कार किया। प्रमुख नागरिकों तथा सेठों ने भी पाण्डवों का पूजन किया। भीष्म, द्रोण, कर्ण तथा पुत्र सहित बाह्लीक ने धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों का आतिथ्य-सत्कार किया। इस प्रकार हस्तिनापुर में विहार करने वाले महात्मा पाण्डवों के सभी कार्यों में विदुर जी ही नेता थे। उन्हें इसके लिये राजा की ओर से आदेश प्राप्त हुआ था। कुछ काल तक विश्राम कर लेने पर उन महाबली महात्मा पाण्डवों को राजा धृतराष्ट्र तथा भीष्म जी ने बुलाया।
धृतराष्ट्र बोले ;- कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! मैं जो कुछ कह रहा हूं, उसे अपने भाइयों सहित ध्यान देकर सुनो। कुन्तीनन्दन! मेरी आज्ञा से पाण्डु ने इस राज्य को बढ़ाया और पाण्डु ने ही जगत् का पालन किया। मेरे भाई पाण्डु बड़े बलवान् थे। राजन्! वे मेरे कहने से सदा ही दुष्कर कार्य किया करते थे। कुन्तीकुमार! तुम भी यथासम्भव शीघ्र मेरी आज्ञा का पालन करो, विलम्ब न करो। मेरे दुरात्मा पुत्र दर्प और अंहकार से भरे हुए हैं। युधिष्ठिर! वे सदा मेरी आज्ञा का पालन नहीं करेंगे। अपने स्वार्थ साधन में लगे हुए उन बलाभिमानी दुरात्माओं के साथ तुम्हारा फिर कोई झगड़ा खड़ा न हो जाय, इसलिये तुम खाण्डवप्रस्थ में निवास करो। वहाँ रहते समय कोई तुम्हें बाधा नहीं दे सकता; क्योंकि जैसे वज्रधारी इन्द्र देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्तीनन्दन अर्जुन वहाँ तुम लोगों की भली-भाँति रक्षा करेंगे। तुम आधा राज्य लेकर खाण्डप्रस्थ में चलकर रहो।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 26-27 का हिन्दी अनुवाद)
(फिर) धृतराष्ट्र ने (विदुर से) कहा ;- विदुर! तुम राज्याभिषेक की सामग्री लाओ, इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये। मैं आज ही कुरुकुलनन्दन युधिष्ठिर का अभिषेक करुंगा। वेदवेत्ता विद्वानों ने श्रेष्ठ ब्राह्मण, नगर के सभी प्रमुख व्यापारी, प्रजावर्ग के लोग और विशेषत: बन्धु-बान्धव बुलाये जाय। तात! पुण्याहवाचन कराओ और ब्राह्मणों को दक्षिणा के साथ एक सहस्र गौएं तथा मुख्य-मुख्य ग्राम दो। विदुर! दो भुजबंद, एक सुन्दर मुकुट तथा हाथ के आभूषण मंगाओ। मोती की कई मालाएं, हार, पदक, कुण्डल, करधनी, कटिसूत्र तथा उदरबन्ध भी ले आओ। एक हजार आठ हाथी मंगाओ, जिन पर ब्राह्मण सवार हो। पुरोहितों के साथ जाकर वे हाथी शीघ्र गंगा जी का जल ले आयें। युधिष्ठिर अभिषेक के जल से भीगे हो, समस्त आभूषणों से उन्हें विभूषित किया गया हो, वे राजा की सवारी के योग्य गजराज पर बैठे हों, उन पर दिव्य चंवर ढुल रहे हों और उनके मस्तक के ऊपर सुवर्ण और मणियों से विचित्रशोभा धारण करने वाला श्वेत छत्र सुशोभित हो, ब्राह्मणों द्वारा को हुई जय-जयकार के साथ बहुत-से नरेश उनकी स्तुती करते हो। इस प्रकार कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र अजमीढ़कुलतिलक युधिष्ठिर का प्रसन्न मन से दर्शन करके प्रसन्न हुए पुरवासी जन इनकी भूरी-भूरी प्रशंसा करें। राजा पाण्डु ने मुझे ही अपना राज्य देकर जो उपकार किया था, उसका बदला इसी से पूर्ण होगा कि युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर दिया जाय; इसमें संशय नहीं है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सुनकर भीष्म, द्रोण, कृप तथा विदुर ने कहा,,
सभी बोले ;- ‘बहुत अच्छा! बहुत अच्छा! ’ (तब)
भगवान् श्रीकृष्ण बोले ;- महाराज! आपका यह विचार सर्वथा उत्तम तथा कौरवों का यश बढ़ाने वाला है। राजेन्द्र! आपने जैसा कहा है, उसे आज ही जितना शीघ्र सम्भव हो सके, पूर्ण कर डालिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें जल्दी करने की प्रेरणा दी। विदुर जी ने धृतराष्ट्र के कथनानुसार सब कार्य पूर्ण कर दिया। उसी समय राजन्, वहाँ महर्षि कृष्णद्वैपायन पधारे। समस्त कौरवों ने अपने सुहृदयों के साथ आकर उनकी पूजा की। सब वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों तथा मूर्धाभिषेक्त नरेशों के साथ मिलकर भगवान् श्रीकृष्ण की सम्मति के अनुसार व्यास जी ने विधिपूर्वक अभिषेक कार्य सम्पन्न किया। कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, भीष्म, धौम्य, व्यास, श्रीकृष्ण, बाह्लीक और सोमदत्त ने चारों वेद के विद्वानों को आगे रखकर भद्रपीठ पर संयमपूर्वक बैठे हुए युधिष्ठिर का उस समय अभिषेक किया और सबने यह आशीर्वाद दिया कि ‘राजन्! तुम सारी पृथ्वी को जीतकर सम्पूर्ण नरेशों को अपने अधीन करके प्रचुर दक्षिणा से युक्त राजसूर्य आदि यज्ञ याग पूर्ण करने के पश्चात अवभृथ स्नान करके बन्धु-बान्धवों के साथ सुखी रहो।’
जनमेजय! यों कहकर उन सबने अपने आशीर्वादों- द्वारा युधिष्ठिर का सम्मान किया। समस्त आभूषणों से विभूषित, मूर्धाभिषिक्त राजा युधिष्ठिर ने अक्षय धन का दान किया। उस समय सब लोगों ने जय-जयकारपूर्वक उनकी स्तुति की। समस्त मूर्धाभिषिक्त राजाओं ने भी कुरुनन्दन युधिष्ठिर का पूजन किया। फिर वे राजोचित गजराज पर आरुढ़ हो श्वेत छत्र से सुशोभित हुए। उनके पीछे-पीछे बहुत-से मनुष्य चल रहे थे। उस समय देवताओं से घिरे हुए इन्द्र की भाँति उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। समस्त हस्तिनापुर नगर की परिक्रमा करके राजा ने पुन: राजधानी में प्रवेश किया। उस समय नागरिकों ने उनका विशेष समादर किया। बन्धु-बान्धवों ने भी मूर्धाभिषिक्त राजा युधिष्ठिर का सादर अभिनन्दन किया। यह सब देखकर वे गान्धारी के दुर्योधन आदि सभी पुत्र अपने भाइयों के साथ शोकातुर हो रहे थे। अपने पुत्रों को शोक हुआ जानकर धृतराष्ट्र ने भगवान् श्रीकृष्ण तथा कौरवों के समक्ष राजा युधिष्ठिर से (इस प्रकार) कहा।
धृतराष्ट्र बोले ;- कुरुनन्दन! तुमने यह राज्याभिषेक प्राप्त किया है, जो अजितात्मा पुरुषों के लिये दुर्लभ है। राजन्! तुम राज्य पाकर कृतार्थ हो गये। अत: आज ही खाण्डवप्रस्थ चले जाओ। नृपश्रेष्ठ! पुरुरवा, आयु, नहुष तथा ययाति खाण्डवप्रस्थ में ही निवास करते थे। महाबाहो! वहीं समस्त पौरव नरेशों की राजधानी थी। आगे चलकर मुनियों ने बुधपुत्र के लोभ से खाण्डवप्रस्थ को नष्ट कर दिया था। इसलिये तुम खाण्डवप्रस्थ नगर को पुन: बसाओ और अपने राष्ट्र की वृद्धि करो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सबने तुम्हारे साथ वहाँ जाने का निश्चय किया है। तुममें भक्ति रखने के कारण दूसरे लोग भी उस सुन्दर नगर का आश्रय लेंगे। निष्पाप कुन्तीकुमार! वह नगर तथा राष्ट्र समृद्धिशाली और धन-धान्य से सम्पन्न है। अत: तुम भाइयों सहित वहीं जाओ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र की बात मानकर पाण्डवों ने उन्हें प्रणाम किया और आधा राज्य पाकर वे खाण्डवप्रस्थ की ओर चल दिये, जो भयंकर वन के रुप में था। धीरे-धीरे वे खाण्डवप्रस्थ में जा पहुँचे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 28-40 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले पाण्डवों ने श्रीकृष्ण सहित वहाँ जाकर उस स्थान को उत्तम स्वर्गलोक की भाँति शोभायमान कर दिया। फिर जगदीश्वर भगवान् वासुदेव ने देवराज इन्द्र का चिन्तन किया। राजन्! उनके चिन्तन करने पर इन्द्र देव ने (उनके मन की बात जानकर) विश्वकर्मा को इस प्रकार आज्ञा दी।
इन्द्र बोले ;- विश्वकर्मन्! महामते! (आप जाकर खाण्डवप्रस्थ नगर का निर्माण करें।) आज से वह दिव्य और रमणीय नगर इन्द्रप्रस्थ के नाम से विख्यात होगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! महेन्द्र की आज्ञा से विश्वकर्मा ने खाण्डवप्रस्थ में जाकर वन्दनीय भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम करके कहा,,
विश्वकर्मा बोले ;- मेरे लिये क्या आज्ञा है? उनकी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा।
श्रीकृष्ण बोले ;- विश्वकर्मन्! तुम कुरुराज युधिष्ठिर के लिये महेन्द्रपुरी के समान एक महानगर का निर्माण करो। इन्द्र के निश्चय किये हुए नाम के अनुसार वह इन्द्रप्रस्थ कहलायेगा। तत्पश्चात् पवित्र एवं कल्याणमय प्रदेश में शान्तिकर्म कराके महारथी पाण्डवों ने वेदव्यास जी को अगुआ बनाकर नगर बसाने के लिये जमीन का नाप करवाया। उसके चारों ओर समुद्र की भाँति विस्तृत एवं अगाध जल से भरी हुई खाइयां बनी थीं, जो उस नगर की शोभा बढ़ा रही थीं। श्वेत बादलों तथा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल चहारदीवारी शोभा दे रही थी, जो अपनी ऊँचाई से आकाश मण्डल को व्याप्त करके खड़ी थी। जैसे नागों से भोगवती सुशोभित होती है, उसी प्रकार उस चहारदीवारी से खाईसहित वह श्रेष्ठ नगर सुशोभित हो रहा था। उस नगर के दरवाजे ऐसे जान पड़ते थे मानो दो पांख फैलाये गरुड़ हो। ऐसे अनेक बड़े-बड़े फाटक और अट्टालिकाएं नगर की श्रीवृद्धि कर रही थीं।
मेघों की घटा के समान सुशोभित तथा मन्दराचल के समान ऊंचे गोपुरों द्वारा वह नगर सब ओर से सुरक्षित था। नाना प्रकार के अमेद्य तथा सब ओर से घिरे हुए शस्त्रागारों में शस्त्र संग्रह करके रखे गये थे। नगर के चारों ओर हाथ से चलायी जाने वाली लोहे की शक्तियां तैयार करके रखी गयी थीं, जो दो जीभों वाले सांपों के समान जान पड़ती थी। इन सबके द्वारा उस नगर की सुरक्षा की गयी थी। जिनमें अस्त्र-शस्त्रों का अभ्यास किया जाता था, ऐसी अनेक अट्टालिकाओं से युक्त और योद्धाओं से सुरक्षित उस नगर की शोभा देखते ही बनती थी। तीखे अकुंशों (बल्लों), शतघ्नियां (तोपों) और अन्यान्य युद्धसम्बन्धी यन्त्रों के जाल से वह नगर शोभा पा रहा था। लोहे के बने हुए महान् चक्रों द्वारा महान् चक्रों द्वारा उस उत्तम नगर की अवर्णनीय शोभा हो रही थी। वहाँ विभागपूर्वक विभिन्न स्थानों में जाने के लिये विशाल एवं चौड़ी सड़कें बनी हुई थीं। उस नगर में दैवी आपत्ति का नाम नहीं था।
अनेक प्रकार के श्रेष्ठ एवं शुभ सदनों से शोभित वह नगर स्वर्गलोक के समान प्रकाशित हो रहा था। उसका नाम था इन्द्रप्रस्थ। इन्द्रप्रस्थ के रमणीय एवं शुभ प्रदेश में कुरुराज युधिष्ठिर का सुन्दर राजभवन बना हुआ था, जो आकाश में विद्युत की प्रभा से व्याप्त मेघ मण्डल की भाँति देदीप्यमान था। अनन्त धनराशि से परिपूर्ण होने के कारण वह भवन धनाध्यक्ष कुबेर के निवास स्थान की समानता करता था। राजन्! सम्पूर्ण वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण उस नगर में निवास करने के लिये आये, जो सम्पूर्ण भाषाओं के जानकार थे। उन सबको वहाँ का रहना बहुत पसन्द आया। अनेक दिशाओं से धनोपार्जन की इच्छा वाले वणिक् भी उस नगर में आये। सब प्रकार की शिल्प कला के जानकार मनुष्य भी उन दिनों इन्द्रप्रस्थ में निवास करने के लिये आ गये थे। नगर के चारों ओर रमणीय उद्यान थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 41-50 का हिन्दी अनुवाद)
जो आम, आमड़ा, कदम्ब, अशोक, चम्पा, पुत्राग, नागपुष्प, लकुच, कटहल, साल, ताल, तमाल, मौलसिरी और केवड़ा आदि सुन्दर फूलों से भरे और फलों के भार से झुके हुए मनोहर वृक्षों से सुशोभित थे। प्राचीन आंवले, लोध्र, खिले हुए अंकोल, जामुन, पाटल, कुब्जक, अतिमुक्तक लता, करवीर, पारिजात तथा अन्य नाना प्रकार के वृक्ष, जिनमें सदा फल और फूल लगे रहते थे और जिनके ऊपर भाँति-भाँति के सहस्रों पक्षी कलरव करते थे, उन उद्यानों की शोभा बढ़ा रहे थे। मतवाले मयूरों के केकारव तथा सदा उन्मत्त रहने वाली कोकिलों कि काकली वहाँ गूंजती रहती थी। उन उद्यानों में दर्पण के समान स्वच्छ क्रीड़ा भवन तथा नाना प्रकार के लता मण्डप बनाये गये थे। मनोहर चित्रशालाओं तथा राजाओं की विहार यात्रा के लिये निर्मित हुए कृत्रिम पर्वतों से भी वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे थे। उत्तम जल से भरी हुई अनेक प्रकार की बावलियां तथा कमल और उत्पल की सुगन्ध से वासित अत्यन्त रमणीय सरोवर जहाँ हंस, कारण्डव तथा चक्रवाक आदि पक्षी निवास करते थे, उन उद्यानों की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ वन से घिरी हुई भाँति-भाँति की रमणीय पुष्करिणियां और सुरम्य एवं विशाल बहुसंख्यक तड़ाग बड़े सुन्दर जान पड़ते थे। वह नगर चारों वर्णों के लोगों से ठसाठस भरा था। माननीय शिल्पी वहाँ निवास करते थे। वह पुरी उपभोग में आने वाली समस्त सामग्रियों से सम्पन्न थी। वहाँ सदा श्रेष्ठ पुरुष रहा करते थे।
असंख्य नर-नारी उस नगर की शोभा बढ़ाते थे। वहाँ मतवाले हाथी, ऊंट, गायें, बैल, गदहे और बकरे आदि पशु भी सदा मौजूद रहते थे। विश्वकर्मा द्वारा बनायी हुई उस पुरी में सदा साधु-महात्माओं का समागम होता था। वह इन्द्रप्रस्थ नगर स्वर्ग के समान शोभा पाता था। राजन्, कौरवराज महातेजस्वी कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मणों द्वारा मंगल कृत्य कराकर द्वैपायन व्यास को आगे करके धौम्य मुनि की सम्मति के अनुसार भाइयों तथा भगवान् श्रीकृष्ण के साथ बत्तीस दरवाजों से युक्त तोरण द्वार के सामने आकर वर्धमान नामक नगर द्वार में प्रवेश किया। उस समय शंख और नगारों की आवाज बड़े जोर-जोर से सुनायी देती थी। सहस्रों ब्राह्मणों के मुख से निकले हुए जय घोष का श्रवण होता था। मुनि तथा सूत, मागध और बन्दीजन राजा की स्तुती कर रहे थे। राजा युधिष्ठिर हाथी पर बैठे हुए थे। उन्होंने राजमार्ग को पार करके एक उत्तम भवन में प्रवेश किया, जहाँ मांगलिक कृत्य सम्पन्न किया गया था। उस भवन में प्रवेश करके भाँति-भाँति के सत्कारों से सम्मानित हो राजा युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण के साथ क्रमश: सभी शेष ब्राह्मणों का पूजन किया। तदनन्तर अगणित नर-नारियों से सुशोभित वह राष्ट्र और नगर गोधन से सम्पन्न हो गया और दिनों दिन खेती की वृद्धि होने लगी। महाराज! पुण्यात्मा मनुष्यों ने भरे हुए उस महान् राष्ट्र में प्रवेश करने के बाद पाण्डवों की प्रसन्नता निरन्तर बढ़ती गयी। भीष्म तथा राजा धृतराष्ट्र द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर को आधा राज्य देकर वहाँ से विदा कर देने पर समस्त पाण्डव खाण्डवप्रस्थ के निवासी हो गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 51-52 का हिन्दी अनुवाद)
इन्द्र के समान शक्तिशाली और महान् धनुर्धर पाँचों पाण्डवों के द्वारा वह श्रेष्ठ इन्द्रप्रस्थ नगर नागों से युक्त भोगवती पुरी की भाँति सुशोभित होने लगा। तदनन्तर विश्वकर्मा का पूजन करके राजा ने उन्हें विदा कर दिया। फिर व्यास जी को सम्मानपूर्वक विदा देकर राजा युधिष्ठिर ने जाने के लिये उद्यत हुए भगवान् श्रीकृष्ण से कहा।
युधिष्ठिर बोले ;- निष्पाप वृष्णिनन्दन! आपकी ही कृपा से मैंने राज्य प्राप्त किया है। वीर! आपके ही प्रसाद से यह अत्यन्त दुर्गम एवं निर्जन प्रदेश आज धन धान्य से सम्पन्न राष्ट्र बन गया। महामते! आपकी ही दया से हम लोग राज्य सिंहासन पर आसीन हुए हैं। माधव! अन्तकाल में भी आप ही हम पाण्डवों की गति हैं। आप ही हमारे माता-पिता और इष्टदेव हैं। हम पाण्डु को नहीं जानते। अनघ! आप स्वयं समझकर जो करने के योग्य कार्य हो, वह हमसे करायें। पाण्डवों के लिये जो अभीष्ट हो, उसी कार्य को करने के लिये आप हमें अनुमति दें।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा ;- महाभाग! आपको अपने ही प्रभाव से ही धर्म के फलस्वरुप राज्य प्राप्त हुआ है। प्रभो! जो राज्य आपके बाप-दादों का ही है, वह आपको कैसे नहीं मिलता। धृतराष्ट्र के पुत्र दुराचारी हैं। वे पाण्डवों का क्या कर लेंगे? आप इच्छानुसार पृथ्वी का पालन कीजिए और सदा धर्म मर्यादा की धुरी धारण करिये। कुरुनन्दन! संक्षेप से आपके लिये धर्म का उपदेश इतना ही है कि ब्राह्मणों की सेवा करिये। आज ही बड़ी जल्दी में आपके यहाँ श्रीनारद जी पधारेंगे उनका आदर-सत्कार करके उनकी बाते सुनिये और उनकी आज्ञा का पालन कीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यों कहकर भगवान् श्रीकृष्ण कुन्ती देवी के पास गये और उन्हें प्रणाम करके मधुर वाणी में बोले,,
श्री कृष्ण बोले ;- ‘बुआ जी! नमस्कार! अब मै जाऊंगा (आज्ञा दीजिये)!’
कुन्ती बोली ;- केशव! लाक्षागृह में जाकर मैंने जो कष्ट भोगा है, उसे मेरे पूज्य पिता कुन्तिभोज भी नहीं जान सके हैं। गोविन्द! तुम्हारी सहायता से ही मैं इस महान् दु:ख-समुद्र से पार हुई हूँ। प्रभो! तुम अनाथों के, विशेषत: दीन दुखियों के नाथ (रक्षक) हो। तुम्हारे दर्शन से हमारे सारे दु:ख दूर हो जाते हैं। महामते! इन पाण्डवों को सदा याद रखना। ये तुम्हारे शुभ चिन्तन से ही जीवन धारण करते हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने कुन्ती से यह कहकर कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करुंगा; प्रणाम करके, विदा ले सेवकों सहित वहाँ से जाने का विचार किया। राजन्! इस प्रकार उस पुरी को बसाकर बलराम जी के साथ वीरवर श्रीकृष्ण पाण्डवों की अनुमति ले उस समय द्वारकापुरी को चले गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व में नगर निर्माणविषयक दौ सौ छ:वाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)
दौ सौ सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों के यहाँ नारद जी का आगमन और उनमें फूट न हो, इसके लिये कुछ नियम बनाने के लिये प्रेरणा करके सुन्द और उपसुन्द की कथा को प्रस्तावित करना"
जनमेजय ने पूछा ;- तपोधन! इस प्रकार इन्द्रप्रस्थ का राज्य प्राप्त कर लेने के पश्चात् महात्मा पाण्डवों ने कौन-सा कार्य किया? मेरे पूर्व पितामह सभी पाण्डव महान् सत्त्व (मनोबल) से सम्पन्न थे। उनकी धर्म पत्नी द्रौपदी ने किस प्रकार उन सबका अनुसरण किया? वे महान् सौभाग्यशाली नरेश जब एक ही कृष्णा के प्रति अनुरक्त थे, तब उनमें आपस में फूट कैसे नहीं हुई? तपोधन! द्रौपदी से सम्बन्ध रखने वाले उन- पाण्डवों का आपस में कैसा बर्ताव था, यह सब मैं विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ।
वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन्! धृतराष्ट्र की आज्ञा से राज्य पाकर परंतप पाण्डव द्रौपदी के साथ खाण्डवप्रस्थ में विहार करने लगे। सत्यप्रतिज्ञ महातेजस्वी राजा युधिष्ठिर उस राज्य को पाकर अपने भाइयों के साथ धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करने लगे। वे सभी शत्रुओं पर विजय पा चुके थे, सभी महाबुद्धिमान् थे। सबने सत्य धर्म का आश्रय ले रखा था। इस प्रकार वे पाण्डव वहाँ बड़े आनन्द के साथ रहते थे। नरश्रेष्ठ पाण्डव नगरवासियों के सम्पूर्ण कार्य करते हुए बहुमूल्य तथा राजोचित सिंहासनों पर बैठा करते थे। एक दिन जब वे सभी पाण्डव अपने सिंहासनों पर विराजमान थे, उसी समय देवर्षि नारद अकस्मात् वहाँ आ पहुँचे।
उनका आगमन आकाश मार्ग से हुआ, जिसका नक्षत्र सेवन करते हैं, जिस पर गरुड़ चलते हैं, जहाँ चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश फैलता है और जो महर्षियों से सेवित है। जो लोग तपस्वी नहीं हैं, उनके लिये व्योम मण्डल का वह दिव्य मार्ग दुर्लभ है।। सम्पूर्ण प्राणियों द्वारा पूजित महान् तपस्वी एवं तेजस्वी देवर्षि नारद बड़े-बड़े नगरों से विभूषित और सम्पूर्ण प्राणियों के आश्रयभूत राष्ट्रों का अवलोकन करते हुए वहाँ आये। विप्रवर नारद सम्पूर्ण वेदान्त शास्त्र के ज्ञाता तथा समस्त विद्याओं के पारंगत पण्डित हैं। वे परमतपस्वी तथा ब्रह्मतेज से सम्पन्न हैं; न्यायोचित बर्ताव तथा नीति में निरन्तर निरत रहने वाले सुविख्यात महामुनि हैं। उन्होंने धर्म-बल से परात्पर परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। वे शुद्धात्मा, रजोगुणरहित, शान्त, मृदु तथा सरल स्वभाव के ब्राह्मण हैं।
वे देवता, दानव और मनुष्य सब को धर्मत: प्राप्त होते हैं। उनका धर्म और सदाचार कभी खण्डित नहीं हुआ है। वे संसार भय से सर्वथा रहित हैं। उन्होंने सब प्रकार से विविध वैदिक धर्मों की मर्यादा स्थापित की है। वे ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद के विद्वान हैं। न्यायशास्त्र के पारंगत पण्डित हैं। वे सीधे और ऊंचे कद के तथा शुक्ल वर्ण के हैं। वे निष्पाप नारद अधिकांश समय यात्रा में व्यतीत करते हैं। उनके मस्तक पर सुन्दर शिखा शोभित है। वे उत्तम कान्ति से प्रकाशित होते हैं। वे देवराज इन्द्र के दिये हुए दो बहुमुल्य वस्त्र धारण करते हैं। उनके वे दोनों वस्त्र उज्ज्वल, महीन, दिव्य, सुन्दर और शुभ हैं। दूसरों के लिये दुर्लभ एवं उत्तम ब्रह्मतेज से युक्त वे बृहस्पति के समान बुद्धिमान् नारद जी राजा युधिष्ठिर के महल में उतरे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 10-11 का हिन्दी अनुवाद)
संहिता शास्त्र में सबके लिये स्थित और उपस्थित मानवधर्म तथा क्रमप्राप्त धर्म के वे पारगामी विद्वान हैं। वे गाथा और साममन्त्रों में कहे हुए आनुषंगिक धर्मों के भी ज्ञाता हैं तथा अत्यन्त मधुर सामगान के पण्डित हैं। मुक्ति की इच्छा रखने वाले सब लोगों के हित के लिये नारद जी स्वयं ही प्रयत्नशील रहते हैं। कब किसका क्या कर्तव्य है, इसका उन्हें पूर्ण ज्ञान है। वे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं और मन को नाना प्रकार के धर्म में लगाये रखते हैं। उन्हें जानने योग्य सभी अर्थों का ज्ञान है। वे सबमें समभाव रखने वाले हैं और वेद विषयक सम्पूर्ण संदेहों का निवारण करने वाले हैं। अर्थ की व्याख्या के समय सदा संशयों का उच्छेद करते हैं। उनके हृदय में संशय का लेश भी नहीं है। वे स्वभावत: धर्म निपुण तथा नाना धर्मों के विशेषज्ञ हैं। लोप, आगमधर्म तथा वृति संक्रमण के द्वारा प्रयोग में आये हुए एक शब्द के अनेक अर्थों को, पृथक-पृथक श्रवण गोचर होने वाले अनेक शब्दों के एक अर्थ को तथा विभिन्न शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थों को वे पूर्ण रुप से देखते और समझते हैं। सभी अधिकरणों और समस्त वर्णों के विकारों में निर्णय देने के निमित्त वे सब लोगों के लिये प्रमाणभूत हैं।
सदा सब लोग उनकी पूजा करते हैं। नाना प्रकार के स्वर, व्यञ्जन, भाँति-भाँति के छन्द, समान स्थान वाले सभी वर्ण, समाम्नाय तथा धातु- इन सबके उद्देश्यों की नारद जी बहुत अच्छी व्याख्या करते हैं। सम्पूर्ण आख्यात प्रकरण (धातुरुप तिड़न्त आदि) का प्रतिपादन कर सकते हैं। सब प्रकार की संधियों के सम्पूर्ण रहस्यों को जानते हैं। पदों और अंगों का निरन्तर स्मरण रखते हैं, काल धर्म से निर्दिष्ट यथार्थ तत्त्व का विचार करने वाले हैं तथा वे लोगों के छिपे हुए मनोभाव को- वे क्या करना चाहते हैं, इस बात को भी अच्छी तरह जानते हैं। विभाषित (वैकल्पिक), भाषित (निश्चयपूर्वक कथित) और हृदयगंम किये हुए समय का उन्हें यथार्थ ज्ञान है। वे अपने तथा दूसरे के लिये स्वरसंस्कार तथा योगसाधन में तत्पर रहते हैं। वे इन प्रत्यक्ष चलने वाले स्वरों को भी जानते हैं, वचन-स्वरों का भी ज्ञान रखते हैं, कही हुई बातों के मर्म को जानते और उनकी एकता तथा अनेकता को समझते हैं। उन्हें परमार्थ का यर्थाथ ज्ञान है। वे नाना प्रकार के व्यतिक्रमों (अपराधों) को भी जानते हैं। अभेद और भेद दृष्टि से भी बारंबार तत्त्वविचार करते रहते हैं; वे शास्त्रीय वाक्यों के विविध आदेशों की भी समीक्षा करने वाले तथा नाना प्रकार के अर्थज्ञान में कुशल हैं, तद्धित प्रत्ययों का उन्हें पूरा ज्ञान है।
वे स्वर, वर्ण और अर्थ तीनों से ही वाणी को विभूषित करते हैं। प्रत्येक धातु के प्रत्ययों का नियमपूर्वक प्रतिपादन करने वाले हैं। पांच प्रकार के जो अक्षरसमूह तथा स्वर हैं, उनको भी वे यथार्थ रुप से जानते हैं।। उन्हें आया देख राजा युधिष्ठिर ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया और अपना परम सुन्दर आसन उन्हें बैठने के लिये दिया। जब देवर्षि उस पर बैठ गये, तब परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर ने स्वयं ही विधिपूर्वक उन्हें अर्ध्य निवदेन किया और उसी के साथ-साथ उन्हें अपना सारा राज्य समर्पित कर दिया। उनकी यह पूजा ग्रहण करके देवर्षि उस समय मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए।
(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद)
फिर आशीर्वादसूचक वचनों द्वारा उनके अभ्युदेय की कामना करके बोले,,
देवर्षि नारद बोले ;- ‘तुम भी बैठो!’ नारद की आज्ञा पाकर राजा युधिष्ठिर बैठे और कृष्णा को कहला दिया कि स्वयं भगवान् नारद जी पधारे हैं। यह सुनकर द्रौपदी भी स्वयं भगवान् नारद जी पधारे हैं। यह सुनकर द्रौपदी भी पवित्र एवं एकाग्रचित्त हो उसी स्थान पर गयी, जहाँ पाण्डवों के साथ नारद जी विराजमान थे। धर्म का आचरण करने वाली कृष्णा देवर्षि के चरणों में प्रणाम करके अपने अंगों को ढके हुए हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। धर्मात्मा एवं सत्यवादी मुनि श्रेष्ठ भगवान् नारद ने राजकुमारी द्रौपदी को नाना प्रकार के आशीर्वाद देकर उस सती-साध्वी देवी से कहा, अब तुम भीतर जाओ।’ कृष्णा के चले जाने पर भगवान् देवर्षि ने एकान्त में युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवों से कहा।
नारद जी बोले ;- पाण्डवो! यशस्विनी पांचाली तुम सब-लोगों की एक ही धर्मपत्नी है, अत: तुम लोग ऐसी नीति बना लो, जिससे तुम लोगों में कभी परस्पर फूट न हो। पहले की बात है, सुन्द और उपसुन्द नामक दो असुर भाई-भाई थे। वे सदा साथ रहते थे एवं दूसरे के लिये अवध्य थे (केवल आपस में ही लड़कर वे मर सकते थे)। उनकी तीनों लोकों में बड़ी ख्याती थी। उनका एक राज्य था और एक ही घर। वे एक ही शय्या पर सोते, एक ही आसन पर बैठते और एक साथ ही भोजन करते थे। इस प्रकार आपस में अटूट प्रेम होने पर भी तिलोत्तमा अप्सरा के लिये लड़कर उन्होंने एक-दूसरे को मार डाला। युधिष्ठिर! इसलिये आपस की प्रीति को बढ़ाने वाले सौहार्द की रक्षा करो और ऐसा कोई नियम बनाओ, जिससे यहाँ तुम लोगों में वैर-विरोध न हो।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- महामुने! सुन्द और उपसुन्द नामक असुर किसके पुत्र थे? उनमें कैसे विरोध उत्पन्न हुआ और किस प्रकार उन्होंने एक-दूसरे को मार डाला? यह तिलोत्तमा अप्सरा थी? किसी देवता की कन्या थी? तथा वह किसके अधिकार में थी? जिसकी कामना से उन्मत्त होकर उन्होंने एक-दूसरे को मार डाला। तपोधन! यह सब वृत्तान्त जिस प्रकार घटित हुआ था, वह सब हम विस्तारपूर्वक सुनना चाहते हैं। ब्रह्मन्! उसे सुनने के लिये हमारे मन में बड़ी उत्कण्ठा है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व में युधिष्ठिर-नारद-संवाद विषयक दो सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)
दौ सौ आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"सुन्द-उपसुन्द की तपस्या, ब्रह्मा जी के द्वारा उन्हें वर प्राप्त होना और दैत्यों के यहाँ आनन्दोत्सव"
नारद जी ने कहा ;- कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! यह वृत्तान्त जिस प्रकार संघटित हुआ था, वह प्राचीन इतिहास तुम मुझसे भाइयों सहित विस्तारपूर्वक सुनो। प्राचीन काल में महान् दैत्य हिरण्यकशिपु के कुल में निकुम्भ नाम से प्रसिद्ध एक दैत्यराज हो गया है, जो अत्यन्त तेजस्वी और बलवान् था। उसके महाबली और भयानक पराक्रमी दो पुत्र हुए, जिनका नाम था सुन्द और उपसुन्द। वे दोनों दैत्यराज बड़े भयंकर और क्रुर हृदय के थे। उनका एक ही निश्चय होता था और एक ही कार्य के लिये वे सदा सहमत रहते थे। उनके सुख और दु:ख भी एक ही प्रकार के थे। वे दोनों सदा साथ रहते थे। उनमें से एक के बिना दूसरा न तो खाता-पीता और न किसी से कुछ बात-चीत ही करता था। वे दोनों एक-दूसरे का प्रिय करते और परस्पर मीठे वचन बोलते थे। उनके शील और आचरण एक-से थे, मानो एक ही जीवात्मा दो शरीरों में विभक्त कर दिया गया हो। वे महाबली पराक्रमी दैत्य साथ-साथ बढ़ने लगे। वे प्रत्येक कार्य में एक ही निश्चय पर पहुँचते थे। किसी समय वे तीनों लोकों पर विजय पाने की इच्छा से एक मत होकर गुरु से दीक्षा ले विन्ध्यपर्वत पर आये और वहाँ कठोर तपस्या करने लगे। भूख और प्यास का कष्ट सहते हुए शिर पर जटा तथा शरीर पर वल्कल धारण किये वे दोनों भाई दीर्घकाल तक भारी तपस्या में लगे रहे। उनके सम्पूर्ण अंगों में मैल जम गयी थी, वे हवा पीकर रहते थे और अपने ही शरीर के मांसखण्ड काट-काटकर अग्नि में आहुति देते थे।
तदनन्तर बहुत समय तक पैरों के अंगूठों के अग्रभाग के बल पर खडे़ हो दोनों भुजाएं ऊपर उठाये एकटक दृष्टि से देखते हुए वे दोनों व्रत धारण करके तपस्या में संलग्न रहे। उन दैत्यों की तपस्या के प्रभाव से दीर्घकाल तक संतप्त होने के कारण विन्ध्यपर्वत धुआं छोड़ने लगा, यह एक अद्भुत-सी बात हुई। उनकी उग्र तपस्या देखकर देवताओं को बड़ा भय हुआ। वे देवतागण उनके तप को भंग करने के लिये अनेक प्रकार के विघ्न डालने लगे। उन्होंने बार-बार रत्नों के ढेर तथा सुन्दरी स्त्रियों को भेज-भेजकर उन दोनों को प्रलोभन में डालने की चेष्टा की; किंतु उन महान् व्रतधारी दैत्यों ने अपने तप को भंग नहीं किया। तत्पश्चात देवताओं ने महान् आत्मबल से सम्पन्न उन दोनों दैत्यों के सामने पुन: माया का प्रयोग किया। उनकी माया निर्मित बहनें, माताएं, पत्नियां तथा अन्य आत्मीयजन वहाँ भागते हुए आते और उन्हें कोई शूलधारी राक्षस बार-बार खदेड़ता तथा पृथ्वी पर पटक देता था। उनके आभूषण गिर जाते, वस्त्र खिसक जाते और बालों की लटें खुल जाती थीं। वे सभी आत्मीयजन सुन्द-उपसुन्द को पुकारकर चिखते हुए कहते- बेटा! मुझे बचाओ, भैया! मेरी रक्षा करो।’ यह सब सुनकर भी वे दोनों महान् व्रतधारी तपस्वी अपनी तपस्या से नहीं डिगे; अपने व्रत को नहीं तोड़ सके। जब उन दोनों में से एक भी न तो इन घटनाओं से क्षुब्ध हुआ ओर न किसी के मन में कष्ट का अनुभव हुआ, तब वे मायामयी स्त्रियां और वह राक्षस सब-के-सब अदृश्य हो गये। तब सम्पूर्ण लोकों के हितैषी पितामह साक्षात् भगवान् ब्रह्मा ने, उन दोनों महादैत्यों के निकट आकर उन्हें इच्छानुसार वर मांगने को कहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर सुद्दढ़ पराक्रमी दोनों भाई सुन्द और उपसुन्द भगवान् ब्रह्मा को उपस्थित देख हाथ जोड़कर खड़े हो गये और एक साथ भगवान् ब्रह्मा से बोले,,
सुन्द और उपसुन्द बोले ;- ‘भगवन्! यदि आप हमारी तपस्या से प्रसन्न हैं तो हम दोनों सम्पूर्ण मायाओं के ज्ञाता, अस्त्र-शस्त्रों के विद्वान्, बलवान्, इच्छानुसार रुप धारण करने वाले और अमर हो जायं।’
ब्रह्मा जी ने कहा ;- अमरत्व के सिवा तुम्हारी मांगी हुई सारी वस्तुएं प्राप्त होंगी। तुम मृत्यु का कोई दूसरा ऐसा विधान मांगो लो, जो तुम्हें देवताओं के समान बनाये रख सके। हम तीनों लोकों के ईश्वर होंगे, ऐसा संकल्प करके जो तुम लोगों ने यह बड़ी भारी तपस्या प्रारम्भ की थी, इसीलिये तुम लोगों को अमर नहीं बनाया जाता; क्योंकि अमरत्व तुम्हारी तपस्या का उद्देश्य नहीं था। दैत्यपतियों! तुम दोनों ने त्रिलोक पर विजय पाने के लिये ही इस तपस्या का आश्रय लिया था, इसीलिये तुम्हारी अमरत्व विषय एक कामना की पूर्ति मैं नहीं कर रहा हूँ।
सुन्द और उपसुन्द बोले ;- पितामह! तब यह वर दीजिये कि हम दोनों में से एक-दूसरे को छोड़कर तीनों लोकों में जो कोई भी चर या अचर भूत हैं, उनसे हमें मृत्यु का भय न हो।
ब्रह्मा जी ने कहा ;- तुमने जैसी प्रार्थना की है, तुम्हारी वह मुंहमांगी वस्तु तुम्हें अवश्य दूंगा। तुम्हारी मृत्यु का विधान ठीक इसी प्रकार होगा।
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! उस समय उन दोनों दैत्यों को यह वरदान देकर और उन्हें तपस्या से निवृत करके ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक को चले गये। फिर वे दोनों भाई दैत्यराज सुन्द और उपसुन्द यह अभीष्ट वर पाकर सम्पूर्ण लोकों के लिये अवध्य हो पुन: अपने घर को ही लौट गये। वरदान पाकर पूर्ण काम होकर लौटे हुए उन दोनों मनस्वी वीरों को देखकर उनके सभी सगे-सम्बन्धी बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर उन्होंने जटाएं कटाकर मस्तक पर मुकुट धारण कर लिये और बहुमूल्य आभूषण तथा निर्मल वस्त्र धारण करके ऐसा प्रकाश फैलाया, मानो असमय में ही चांदनी छिटक गयी हो और सर्वदा दिन-रात एकरस रहने लगी हो। उनके सभी सगे-सम्बन्धी सदा आमोद-प्रमोद में डूबे रहते थे। प्रत्येक घर में सर्वदा ‘खाओ, भोग करो, लुटाओ, मौज करो, गाओ और पीओ’ का शब्द गूंजता रहता था। जहाँ-तहाँ जोर-जोर से तालियां पीटने की ऊंची आवाज से दैत्यों का वह सारा नगर हर्ष और आनन्द में मग्न जान पड़ता था। इच्छानुसार रुप धारण करने वाले वे दैत्य वर्षों तक भाँति-भाँति के खेल-कूद और आमोद-प्रमोद करने में लगे रहे; किंतु वह सारा समय उन्हें एक दिन के समान लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व में सुन्दोपाख्यान विषयक दौ सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)
दौ सौ नौवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"सुन्द और उपसुन्द द्वारा क्रूरतापूर्ण कर्मों से त्रिलोकी पर विजय प्राप्त करना"
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! उत्सव समाप्त हो जाने पर तीनों लोकों को अपने अधिकार में करने की इच्छा से आपस में सलाह करके उन दोनों दैत्यों ने सेना को कूच करने की आज्ञा दी। सुहृदयों तथा दैत्यजातीय बूढ़े मन्त्रियों की अनुमति लेकर उन्होंने रात के समय मघा नक्षत्र में प्रस्थान करके यात्रा प्रारम्भ की। उनके साथ गदा, पट्टिश, शूल, मुद्गर और कवच से सुसज्जित दैत्यों की विशाल सेना जा रही थी। वे दोनों सेना के साथ प्रस्थान कर रहे थे। चारण लोग विजयसूचक मंगल और स्तुती पाठ करते हुए उन दोनों के गुण गाते जाते थे। इस प्रकार उन दोनों दैत्यों ने बड़े आनन्द से यात्रा की। युद्ध के लिये उन्मत्त रहने वाले वे दोनों दैत्य इच्छानुसार सर्वत्र जाने की शक्ति रखते थे; अत: आकाश में उछलकर पहले देवताओं के ही घरों पर जा चढ़े। उनका आगमन सुनकर और ब्रह्मा जी से मिले हुए उनके वरदान का विचार करके देवता लोग स्वर्ग छोड़कर ब्रह्मलोक में चले गये।
इस प्रकार इन्द्र लोक पर विजय पाकर वे तीव्र पराक्रमी दैत्य यक्षों, राक्षसों तथा अन्यान्य आकाशचारी भूतों को मारने और पीड़ा देने लगे। उन दोनों महारथियों ने भूमि के अन्दर पाताल में रहने वाले नागों को जीतकर समुद्र के तट पर निवास करने वाली सम्पूर्ण म्लेच्छ जातियों को परास्त किया। तदनन्तर भयंकर शासन करने वाले वे दोनों दैत्य सारी पृथ्वी को जीतने के लिये उद्यत हो गये और अपने सैनिकों को बुलाकर अत्यन्त तीखे वचन बोले- ‘इस पृथ्वी पर बहुत से राजर्षि और ब्राह्मण रहते हैं, जो बड़े-बड़े यज्ञ करके हव्य-कव्यों द्वारा देवताओं के तेज, बल और लक्ष्मी की वृद्धि किया करते हैं। इस प्रकार यज्ञादि कर्मों में लगे हुए वे सभी लोग असुरों के द्रोही है। इसलिये हम सबको संगठित होकर उन सबका सब प्रकार से वध कर डालना चाहिये’।
समुद्र के पूर्व तट पर अपने समस्त सैनिकों को ऐसा आदेश देकर मन में क्रूर संकल्प लिये वे दोनों भाई सब ओर आक्रमण करने लगे। जो लोग यज्ञ करते तथा जो ब्राह्मण आचार्य बनकर यज्ञ कराते थे, उन सबका बलपूर्वक वध करके वे महाबली दैत्य आगे बढ़ जाते थे। उनके सैनिक शुद्धात्मा मुनियों के आश्रमों पर जाकर उनके अग्निहोत्र की सामग्री उठाकर बिना किसी डर-भय के पानी में फेंक देते थे। कुछ तपस्या के धनी महात्माओं ने क्रोध में भरकर उन्हें जो शाप दिये, उनके शाप भी उन दैत्यों के मिले हुए वरदान से प्रतिहत होकर उनका कुछ बिगाड़ नहीं सके। पत्थर पर चलाये हुए बाणों की भाँति जब शाप उन्हें पीड़ित न कर सके, तब ब्राह्मण लोग अपने सारे नियम छोड़कर वहाँ से भाग चले। जैसे सांप गरुड़ के डर से भाग जाते हैं, उसी प्रकार भूमण्डल के जितेन्द्रिय, शान्ति परायण एवं तप:सिद्ध महात्मा भी उन दोनों दैत्यों के भय से भाग जाते थे। सारे आश्रम मथकर उजाड़ डाले गये। कलश और स्रुव तोड़-फोड़कर फेंक दिये गये। उस समय सारा जगत् काल के द्वारा विनष्ट हुए की भाँति सूना हो गया। राजन्! तदनन्तर जब गुफाओं में छिपे हुए ऋषि दिखायी न दिये, तब उन दोनों ने एक राय करके उनके वध की इच्छा से अपने स्वरुप को अनेक जीव-जन्तुओं के रुप में बदल लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद)
कठिन-से-कठिन स्थान में छिपे हुए मुनि को भी वे मद बहाने वाले मतवाले हाथी का रुप धारण करके यमलोक पहुँचा देते थे। वे कभी सिंह होते, कभी बाघ बन जाते और कभी अदृश्य हो जाते थे। इस प्रकार वे क्रूर दैत्य विभिन्न उपायों द्वारा ऋषियों को ढूंढ-ढूंढ कर मारने लगे। उस समय पृथ्वी पर यज्ञ और स्वाध्याय बंद हो गये। राजर्षि और ब्राह्मण नष्ट हो गये और यात्रा, विवाह आदि उत्सवों तथा यज्ञों की सर्वथा समाप्ति हो गयी। सर्वत्र हाहाकार छा रहा था, भय का आर्तनाद सुनायी पड़ता था। बाजारों में खरीद-बिक्री का नाम नहीं था। देवकार्य बंद हो गये। पुण्य और विवाहादि कर्म छूट गये थे। कृषि और गोरक्षा का नाम नहीं था, नगर और आश्रम उजड़कर खण्डहर हो गये थे।
चारों ओर हड्डियां और कंकाल भरे पड़े थे। इस प्रकार पृथ्वी की ओर देखना भी भयानक प्रतीत होता था। श्राद्धकर्म लुप्त हो गया। वषट्कार और मंगल का कहीं नाम नहीं रह गया। सारा जगत् भयानक प्रतीत होता था। इसकी ओर देखना तक कठिन हो गया था। सुन्द और उपसुन्द का वह भयानक कर्म देखकर चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, तारे, नक्षत्र और देवता सभी अत्यन्त खिन्न हो उठे। इस प्रकार वे दोनों दैत्य अपने क्रूर कर्म द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को जीतकर शत्रुओं से रहित हो कुरुक्षेत्र में निवास करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत विदुरागमन राज्यलम्भपर्व में सुन्दोपसुन्दोपाख्यान विषयक दौ सौ नौवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)
दौ सौ दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) दशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
"तिलोत्तमा की उत्पति, उसके रुप का आकर्षण तथा सुन्दोपसुन्द को मोहित करने के लिये उसका प्रस्थान"
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर सम्पूर्ण देवर्षि और सिद्ध-महर्षि वह महान् हत्या काण्ड देखकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने अपने मन, इन्द्रिय समुदाय तथा क्रोध को जीत लिया था। फिर भी सम्पूर्ण जगत् पर दया करके वे ब्रह्मा जी के धाम में गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ब्रह्मा जी को देवताओं, सिद्धों और महषिर्यों से सब ओर घिरे हुए बैठे देखा। वहाँ भगवान महादेव, वायु सहित, अग्निदेव, चन्द्रमा, सूर्य, इन्द्र, ब्रह्मपुत्र महर्षि, वैखानस (वनवासी), बालखिल्य, वानप्रस्थ, मरीचि, अजन्मा, अविमूढ़ तथा तेजोगर्भ आदि नाना प्रकार के तपस्वी मुनि ब्रह्माजी के पास आये थे। उन सभी महर्षियों ने निकट जाकर दीनभाव से ब्रह्मा जी से सुन्द-उपसुन्द के सारे क्रुर कर्मों का वृत्तान्त कह सुनाया। दैत्यों ने जिस प्रकार लूट-पाट की, जैसे-जैसे और जिस क्रम से लोगों की हत्याएं कीं, वह सब समाचार पूर्ण रुप से ब्रह्मा जी को बताया। तब सम्पूर्ण देवताओं और महर्षियों ने भी इस बात को लेकर ब्रह्माजी को प्रेरणा की। ब्रह्मा जी ने उन सबकी बातें सुनकर दो घड़ी तक कुछ विचार किया। फिर उन दोनों के वध के लिये कर्तव्य का निश्चय करके विश्वकर्मा को बुलाया। उनको आया देखकर महातपस्वी ब्रह्मा जी ने यह आज्ञा दी कि तुम एक तरुणी स्त्री के शरीर की रचना करो, जो सबका मन लुभा लेने वाली हो। ब्रह्मा जी की आज्ञा को शिरोधार्य करके विश्वकर्मा ने उन्हें प्रणाम किया और खूब सोच-विचार कर एक दिव्य युवती का निर्माण किया।
तीनों लोकों में जो कुछ भी चर और अचर दर्शनीय पदार्थ था, सर्वज्ञ विश्वकर्मा ने उस सबके सारांश का उस सुन्दरी के शरीर में संग्रह किया। उन्होंने उस युवती के अंगों में करोड़ों रत्नों का समावेश किया और इस प्रकार रत्न राशिमयी उस देवरुपिणी रमणी का निर्माण किया। विश्वकर्मा द्वारा बड़े प्रयत्न से बनायी हुई वह दिव्य युवती अपने रुप सौन्दर्य के कारण तीनों लोकों की स्त्रियों में अनुपम थी। उसके शरीर में कहीं तिल भर भी ऐसी जगह नहीं थीं, जहाँ की रुप सम्पत्ति को देखने के लिये लगी हुई दर्शकों की दृष्टि जम न जाती हो। वह मूर्तिमान कामरुपिणी लक्ष्मी की भाँति समस्त प्राणियों के नेत्रों और मन को हर लेती थी। उत्तम रत्नों का तिल-तिलभर अंश लेकर उसके अंगों का निर्माण हुआ था, इसलिये ब्रह्मा जी ने उसका नाम ‘तिलोत्तमा’ रख दिया। तदनन्तर तिलोत्तमा ब्रह्मा जी को नमस्कार करके हाथ जोड़कर बोली,,
तिलोत्तमा बोली ;- ‘प्रजापते! मुझ पर किस कार्य का भार रखा गया है? जिसके लिये आज मेरे शरीर का निर्माण किया गया है।’
ब्रह्मा जी ने कहा ;- भद्रे तिलोत्तमे! तु सुन्द और उपसुन्द नामक असुरों के पास जा और अपने अत्यन्त कमनीय रुप के द्वारा उनको लुभा। तुझे देखते ही तेरे लिये-तेरी रुप सम्पत्ति के लिये उन दोनों दैत्यों में परस्पर विरोध हो जाय, ऐसा प्रयत्न कर।
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तब तिलोत्तमा ने वैसा ही करने की प्रतिज्ञा करके ब्रह्मा जी के चरणों में प्रणाम किया। फिर वह देवमण्डली की परिक्रमा करने लगी। ब्रह्मा जी के दक्षिण भाग में भगवान् महेश्वर पूर्वाभिमुख होकर बैठे थे तथा ऋषि मुनि ब्रह्मा जी के चारों ओर बैठे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) दशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 24-32 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ तिलोत्तमा ने जब देवमण्डली की प्रदक्षिणा आरम्भ की, तब इन्द्र और भगवान् शंकर दोनों धैर्यपूर्वक अपने स्थान पर ही बैठे रहे। जब वह दक्षिण पार्श्व की ओर गयी, तब उसे देखने की इच्छा से भगवान् शंकर के दक्षिण भाग में एक और मुख प्रकट हो गया, जो कमल सदृश नेत्रों से सुशोभित था। जब वह पीछे की ओर गयी, तब उनका पश्चिम मुख प्रकट हुआ और उत्तर पार्श्व की ओर उसके जाने पर भगवान् शिव के उत्तरवर्ती मुख का प्राकट्य हुआ। इसी प्रकार इन्द्र के भी आगे, पीछे और पार्श्वभाग में सब ओर लाल कोने वाले सहस्रों विशाल नेत्र प्रकट हो गये।
इस प्रकार पूर्वकाल में अविनाशी भगवान् महादेव जी के चार मुख प्रकट हुए और बलहन्ता इन्द्र के हजार नेत्र हुए। दूसरे-दूसरे देवताओं और महर्षियों के मुख भी जिस ओर तिलोत्तमा जाती थीं, उसी ओर घूम जाते थे। उस समय देवाधिदेव ब्रह्मा जी को छोड़कर शेष सभी महानुभावों की दृष्टि तिलोत्तमा के शरीर पर बार-बार पड़ने लगी। जब वह जाने लगी, तब सभी देवताओं और महर्षियों को उसकी रुप सम्पत्ति देखकर वह विश्वास हो गया कि अब वह सारा कार्य सिद्ध ही है। तिलोत्तमा के चले जाने पर लोकस्रष्टा ब्रह्मा जी ने उन सम्पूर्ण देवताओं और महषिर्यो को विदा किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व में सुन्दोपसुन्दोपाख्यान के प्रसंग में तिलोत्तमा प्रस्थान विषयक दो सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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