सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के दौ सौ एकवें अध्याय से दो सौ पांचवें अध्याय तक (from the 201 chapter to the 205 chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)

दौ सौ एकवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"पाण्‍डवों को पराक्रम से दबाने के लिये कर्ण की सम्‍मति"

कर्ण ने कहा ;- दुर्योधन! मेरे विचार से तुम्‍हारी यह सलाह ठीक नहीं है। कुरुवर्धन! ऐसे किसी भी उपाय से पाण्‍डवों की वश में नहीं किया जा सकता। वीर! पहले भी तुमने अनेक गुप्‍त उपायों द्वारा पाण्‍डवों को दबाने की चेष्‍टा की है, परंतु उन पर तुम्‍हारा वश नहीं चल सका। भूपाल! वे जब बच्‍चे थे और यहीं तुम्‍हारे पास रहते थे, उस समय उनके पक्ष में कोई नहीं था, तब भी तुम उन्‍हें बाधा पहुँचाने में सफल न हो सके। अब तो वे विदेश में हैं, उनके पक्ष में बहुत-से लोग हो गये हैं और सब प्रकार से उनकी बढ़ती हो गयी है। अत: अब वे कुन्‍तीकुमार तुम्‍हारे बताये हुए उपायों द्वारा वश में आने वाले नहीं हैं। पुरुषार्थ से कभी च्‍युत न होने वाले वीर! मेरा तो यही विचार है। अब वे संकट में नहीं डाले जा सकते। भाग्‍य ने उन्‍हें शक्तिशाली बना दिया है और उनमें अपने बाप-दादों के राज्‍य को प्राप्‍त करने की अभिलाषा जाग उठी है। उनमें आपस में भी फूट डालना सम्‍भव नहीं है। जो (एक राय होकर) एक ही पत्‍नी में अनुरक्‍त हैं, उनमें परस्‍पर विरोध नहीं हो सकता। कृष्‍णा को भी उनकी ओर से फूट डालकर विलग करना असम्‍भव है; क्‍योंकि जब पाण्‍डव लोग भिक्षाभोजी होने के कारण दीन-हीन थे, उस अवस्‍था में कृष्‍णा ने उनका वरण किया है; अब तो वे सम्‍पत्तिशाली होकर स्‍वच्‍छ एवं सुन्‍दर वेष में रहते हैं, अब वह क्‍यों उनकी ओर से विरक्‍त होगी?

  प्राय: स्त्रियों का यह अभीष्ट गुण है कि एक स्‍त्री में अनेक पुरुषों से सम्‍बन्‍ध स्‍थापित करने की रुचि हो। पाण्‍डवों के साथ रहने में कृष्‍णा को यह लाभ स्‍वत: प्राप्‍त है; अत: उसके मन में भेद नहीं उत्‍पन्‍न किया जा सकता। पाञ्चालराज द्रुपद श्रेष्‍ठ व्रत का पालन करने वाले हैं। वे धन के लोभी नहीं हैं। अत: तुम अपना सारा राज्‍य दे दो, तो भी यह निश्‍चय है कि वे कुन्‍तीपुत्रों का परित्‍याग नहीं करेंगे। इसी प्रकार उनका पुत्र धृष्टद्युम्न भी गुणवान् तथा पाण्‍डवों का प्रेमी है। अत: मैं उन्‍हें पूर्वोक्‍त उपायों से वश में करने योग्‍य कदापि नहीं मान सकता। राजन्! इस समय हमारे लिये एक ही उपाय काम में लाने योग्‍य है; वे पुरुष श्रेष्‍ठ पाण्‍डव जब तक अपनी जड़ नहीं जमा लेते, तभी तक उन पर प्रहार करना चाहिये। इसी से वे काबू में आ सकते है।’ तात! मैं समझता हूं, तुम्‍हें भी यह राय पसंद होगी। जब तक हमारा पक्ष, बढ़ा-चढ़ा है, और जब तक पाञ्चाल राज का बल हमसे कम है, तभी तक उन पर आक्रमण कर दिया जाय। इसमें दूसरा कुछ विचार न करो। राजन्! गान्‍धारीनन्‍दन! जब तक पाण्‍डवों के पास बहुत-से वाहन, मित्र और कुटुम्‍बी नहीं हो जाते, तभी तक तुम उनके ऊपर पराक्रम कर लो। पृथ्‍वीपते! जब तक पाञ्चाल नरेश अपने महापराक्रमी पुत्रों के साथ हमारे ऊपर चढ़ाई करने का विचार नहीं कर रहे हैं, तभी तक तुम अपना बल विक्रम प्रकट कर लो।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)

    इसके लिये तुम्‍हें तभी तक अवसर है, जब तक कि वृष्णिकुलनन्‍दन श्रीकृष्‍ण यदुवंशियों की सेना साथ लिये पाण्‍डवों को राज्‍य दिलाने के उद्देश्‍य से पाञ्चालराज के घर पर नहीं आ जाते। पाण्‍डवों के लिये श्रीकृष्‍ण की ओर से धन-रत्‍न, भाँति-भाँति के भोग तथा सारा राज्‍य- कुछ भी अदेय नहीं है। महात्‍मा भरत ने पराक्रम से ही यह पृथ्‍वी प्राप्‍त की। इन्‍द्र ने पराक्रम से ही तीनों लोकों पर विजय पायी। राजन्! क्षत्रिय के लिये पराक्रम की ही प्रशंसा की जाती है। नृपश्रेष्‍ठ! पराक्रम करना ही शूरवीरों का स्‍वधर्म है। राजन्! हम लोग विशाल चतुरंगिणी सेना के द्वारा राजा द्रुपद को कुचलकर शीघ्र ही यहाँ पाण्‍डवों को कैद कर लायें। न साम से, न दान से और न भेद की नीति से पाण्‍डवों को वश में किया जा सकता है। अत: उन्‍हें पराक्रम से ही नष्‍ट करो। पराक्रम से पाण्‍डवों को जीतकर इस सारी पृथ्‍वी का राज्‍य भोगो। नरेश्‍वर! इसके सिवा दूसरा कोई कार्यसिद्धि का उपाय मैं नहीं देखता।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कर्ण की बात सुनकर प्रतापी धृतराष्‍ट्र ने उनकी बड़ी सराहना की और तदनन्‍तर इस प्रकार कहा- ‘कर्ण! तुम परमबुद्धिमान्, अस्‍त्र-शस्‍त्रों के ज्ञाता और सूतकुल को आनन्दित करने वाले हो। ऐसा पराक्रम युक्‍त वचन तुम्‍हारे ही योग्‍य है। परंतु मेरा विचार है कि भीष्‍म, द्रोण, विदुर और तुम दोनों एक साथ बैठकर पुन: विचार कर लो तथा कोई ऐसी बात सोच निकालो, जो भविष्‍य में भी हमें सुख देने वाली हो।’ महाराज! तदनन्‍तर महायशस्‍वी धृतराष्‍ट्र ने भीष्‍म, द्रोण आदि सम्‍पूर्ण मन्त्रियों को बुलवाकर उनके साथ उस समय विचार आरम्‍भ किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भेपर्व में धृतराष्ट्रमन्‍त्रणा सम्‍बन्‍धी दो सौ एकवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)

दौ सौ दौवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"भीष्‍म की दुर्योधन से पाण्‍डवों को आधा राज्‍य देने की सलाह"

भीष्‍म जी बोले ;- मुझे पाण्‍डवों के साथ विरोध या युद्ध किसी प्रकार भी पसंद नहीं है। मेरे लिये जैसे धृतराष्ट्र हैं, वैसे ही पाण्डु- इसमें संशय नहीं है। धृतराष्‍ट्र! जैसे गान्धारी के पुत्र मेरे अपने हैं, उसी प्रकार कुन्‍ती के पुत्र भी हैं; इसीलिये जैसे मुझे पाण्‍डवों की रक्षा करनी चाहिये, वैसे तुम्‍हें भी। भूपाल! मेरे और तुम्‍हारे लिये जैसे पाण्‍डवों की रक्षा आवश्‍यक है, वैसे ही दुर्योधन तथा अन्‍य समस्‍त कौरवों को भी उनकी रक्षा करनी चाहिये। ऐसी दशा में पाण्‍डवों के साथ लड़ाई-झगड़ा पसंद नहीं करता। उन वीरों के साथ संधि करके उन्‍हें आधा राज्‍य दे दिया जाय। (दुर्योधन की ही भाँति) उन कुरुश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों के भी बाप-दादों का यह राज्‍य है। तात दुर्योधन! जैसे तुम इस राज्‍य को अपनी पैतृक सम्‍पत्ति के रुप में देखते हो, उसी प्रकार पाण्‍डव भी देखते हैं। यदि यशस्‍वी पाण्‍डव इस राज्‍य को नहीं पा सकते तो तुम्‍हें अथवा भरतवंशी के किसी अन्‍य पुरुष को भी वह कैसे प्राप्‍त हो सकता है?

भरतश्रेष्‍ठ! तुमने अधर्मपूर्वक इस राज्‍य को हथिया लिया है; परंतु मेरा विचार यह है कि तुमसे पहले ही वे भी इस राज्‍य को पा चुके थे। पुरुषसिंह! प्रेमपूर्वक ही उन्‍हें आधा राज्‍य दे दो। इसी में सब लोगों का हित है। यदि इस‍के विपरीत कुछ किया जायगा तो हमारी भलाई नहीं हो सकती और तुम्‍हें भी पूरा-पूरा अपयश मिलेगा- इसमें संशय नहीं है। अत: अपनी कीर्ति की रक्षा करो, कीर्ति ही श्रेष्‍ठ बल है; जिसकी कीर्ति‍ नष्‍ट हो जाती है, उस मनुष्‍य का जीवन निष्‍फल माना गया है। गान्‍धारीनन्‍दन! कुरुश्रेष्‍ठ! मनुष्‍य की कीर्ति जब तक नष्‍ट नहीं होती, तभी तक वह जीवित है; जिसकी कीर्ति नष्ट हो गयी, उसका तो जीवन ही नष्‍ट हो जाता है। महाबाहो! कुरुकुल के लिये उचित इस उत्‍तम धर्म का पालन करो। अपने पूर्वजों के अनुरुप कार्य करते रहो। सौभाग्‍य की बात है कि कुन्‍ती के पुत्र जीवित है; यह भी सौभाग्‍य की बात है कि कुन्‍ती भी मरी नहीं है और सबसे बड़े सौभाग्‍य का विषय यह है कि पापी पुरोचन अपने (बुरे) इरादे में सफल न होकर स्‍वयं नष्‍ट हो गया।

   गान्‍धारीकुमार! जब से मैंने सुना कि कुन्‍ती के पुत्र लाक्षागृह की आग में जल गये और कुन्‍ती भी उसी अवस्‍था को प्राप्‍त हुई, तभी से मैं (लज्‍जा के मारे) जगत् के किसी भी प्राणी की ओर आंख उठाकर देख नहीं सकता था। नरश्रेष्‍ठ! लोग इस कार्य के लिये पुरोचन को उतना दोषी नहीं मानते, जितना तुम्‍हें दोषी समझते हैं। अत: महाराज! पाण्‍डवों का यह जीवित रहना और उनका दर्शन होना वास्‍तव में तुम्‍हारे ऊपर लगे हुए कलंक का नाश करने वाला है, ऐसा मानना चाहिये। कुरुनन्‍दन! पाण्‍डव वीरों के जीते-जी उनका पैतृक अंश साक्षात् वज्रधारी इन्‍द्र भी नहीं ले सकते। वे सब धर्म में स्थित हैं; उन सबका एक चित्‍त- एक विचार है। इस राज्‍य पर तुम्‍हारा और उनका समान स्‍वत्‍व है, तो भी उनके साथ विशेष अधर्मपूर्ण बर्ताव करके उन्‍हें यहाँ से हटाया गया है। यदि तुम्‍हें धर्म के अनुकुल चलना है, यदि मेरा प्रिय करना है और यदि (संसार में) भलाई करनी है, तो उन्‍हें आधा राज्‍य दे दो।

"इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत विदुरागमन राज्‍यलम्‍भपर्व में भीष्‍मवाक्‍य-विषयक दो सौ दोवाँ अध्‍याय पूरा हुआ"

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)

दौ सौ तीनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्र्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"द्रोणाचार्य की पाण्‍डवों को उपहार भेजने और बुलाने की सम्‍मति तथा कर्ण के द्वारा उनकी सम्‍मति का विरोध करने पर द्रोणाचार्य की फटकार"

  द्रोणाचार्य ने कहा ;- राजा धृतराष्ट्र! सलाह लेने के लिये बुलाये हुए हितैषियों को उचित है कि वे ऐसी बातें कहें, जो धर्म, अर्थ और यश की प्राप्ति कराने वाली हो- यह हम परम्‍परा से सुनते आये हैं। तात! मेरी भी वही सम्‍मति है, जो महात्‍मा भीष्म की है। कुन्ती के पुत्रों को आधा राज्‍य बांट देना चाहिये, यही परम्‍परा से चला आने वाला धर्म है। भारत! द्रुपद के पास शीघ्र ही कोई प्रिय वचन बोलने वाला मनुष्‍य भेजा जाय और वह पाण्‍डवों के लिये बहुत-से रत्‍नों की भेंट लेकर जाय। राजा द्रुपद के पास बहू के लिये वर पक्ष की ओर से उसे धन और रत्‍न लेकर जाना चाहिये। भारत! उस पुरुष को राजा द्रुपद और धृष्टद्युम्न के सामने बार-बार यह कहना चाहिये कि आपके साथ सम्‍बन्‍ध हो जाने से राजा धृतराष्ट्र और दुर्योधन अपना बड़ा अभ्‍युदय मान रहे हैं और उन्‍हें इस वैवाहिक सम्‍बन्‍ध से बड़ी प्रसन्‍नता हुई है। इसी प्रकार वह कुन्‍ती और माद्री के पुत्रों को सात्‍वना देते हुए बार-बार इस सम्‍बन्‍ध के उचित और प्रिय होने की चर्चा करे। राजेन्‍द्र! वह आपकी आज्ञा से द्रौपदी के लिये बहुत से सुन्‍दर सुवर्णमय आभूषण अर्पित करे। भरतश्रेष्‍ठ! द्रुपद के सभी पुत्रों, समस्‍त पाण्‍डवों और कुन्‍ती के लिये भी जो उपर्युक्‍त आभूषण आदि हों, उन्‍हें भी वह अर्पित करे। इस प्रकार (उपहार देने के पश्‍चात) पाण्‍डवों सहित द्रुपद से सान्‍त्‍वनापूर्ण वचन कहकर अन्‍त में वह पाण्‍डवों के हस्तिनापुर में आने के विषय में प्रस्‍ताव करे।

   जब द्रुपद की ओर से पाण्‍डव वीरों को यहाँ आने की अनुमति मिल जाय, तब एक अच्‍छी-सी सेना साथ ले दु:शासन और विकर्ण पाण्‍डवों को यहाँ ले आने के लिये जायं। यहाँ आने के पश्‍चात् वे श्रेष्‍ठ पाण्‍डव आपके द्वारा सदा आदर-सत्‍कार प्राप्‍त करते हुए प्रजा की इच्‍छा के अनुसार वे अपने पैतृक राज्‍य पर प्रतिष्ठित होंगे। भरतवंशी महाराज! आपको अपने पुत्रों और पाण्‍डवों के प्रति उपर्युक्‍त व्‍यवहार ही करना चाहिये- भीष्म जी के साथ मैं भी यही उचित समझता हूँ। कर्ण बोला- महाराज! भीष्‍म जी और द्रोणाचार्य को आपकी ओर से सदा धन और सम्‍मान प्राप्‍त होता रहता है। इन्‍हें आप अपना अन्‍तरंग सुहृद् समझकर सभी कार्यों में इनकी सलाह लेते हैं। फिर भी य‍दि ये आपके भले की सलाह न दें तो इससे बढ़कर आश्‍चर्य की बात और क्‍या हो सकती है? जो अपने अन्‍त:करण के दुर्भाव को छिपाकर, दोषयुक्‍त हृदय से कोई सलाह देता है, वह अपने ऊपर विश्‍वास करने वाले साधु पुरुषों के अभीष्‍ट कल्‍याण को सिद्धि कैसे कर सकता है? मित्र भी अर्थसंकट के समय अथवा किसी काम की कठिनाई आ पड़ने पर न तो कल्‍याण कर सकते हैं और न अकल्‍याण ही। सभी के लिये दु:ख या सुख की प्राप्ति भाग्‍य के अनुसार ही होती है। मनुष्‍य बुद्धिमान हो या मुर्ख, बालक हो या वृद्ध तथा सहायकों के साथ हो या असहाय, वह दैवयोग से सर्वत्र सब कुछ पा लेता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्र्यधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 18-28 का हिन्दी अनुवाद)

  सुना है, पहले राजगृह में अम्‍बुबीच नाम से प्रसिद्ध एक राजा राज्‍य करते थे। वे मागध राजाओं में से एक थे। उनकी कोई भी इन्द्रिय कार्य करने में समर्थ नहीं थी, वे (श्‍वास के रोग से पीड़ित हो) एक स्‍थान पर पड़े पड़े लंबी सांसें खींचा करते थे; अत: प्रत्‍येक कार्य में उन्‍हें मन्‍त्री के ही अधीन रहना पड़ता था। उनके मन्‍त्री का नाम था महाकर्णि। उन दिनों वही वहाँ का एकमात्र राजा बन बैठा था। उसे सैनिक बल प्राप्‍त था, अत: अपने को सबल मानकर राजा की अवहेलना करता था। वह मूढ़ मन्‍त्री राजा के उपभोग में आने योग्‍य स्‍त्री, रत्‍न, धन तथा ऐश्‍वर्य को भी स्‍वयं ही भोगता था। वह सब पाकर उस लोभी का लोभ उत्‍तरोतर बढ़ता गया। इस प्रकार सारी चीजें लेकर वह उनके राज्‍य को भी हड़प लेने की इच्‍छा करने लगा। यद्यपि राजा सम्‍पूर्ण इन्द्रियों की शक्ति से रहित होने के कारण केवल ऊपर को सांस ही खींचा करता था, तथापि अत्‍यन्‍त प्रयत्‍न करने पर भी वह दुष्‍ट मन्‍त्री उनका राज्‍य न ले सका- यह बात हमने सुन रखी है।

राजा का राजत्‍व भाग्‍य से ही सुरक्षित था (उनके प्रयत्‍न से नहीं;) (अत:) भाग्‍य से बढ़कर दूसरा सहारा क्‍या हो सकता है? महाराज! यदि आपके भाग्‍य में राज्‍य सदा होगा तो सब लोगों के देखते-देखते वह निश्‍चय ही आपके पास रहेगा और यदि भाग्‍य में राज्‍य का विधान नहीं है, तो आप यत्‍न करके भी उसे नहीं पा सकेंगे। राजन्! आप समझदार हैं, अत: इसी प्रकार विचार करके अपने मन्त्रियों की साधुता और असाधुता को समझ लीजिये। किसने दूषित हृदय से सलाह दी है और किसने दोषशून्‍य हृदय से, इसे भी जान लेना चाहिये। द्रोणाचार्य ने कहा- ओ दुष्‍ट! तू क्‍यों ऐसी बात कहता है, यह हम जानते है। पाण्‍डवों के लिये तेरे हृदय में जो द्वेष संचित है, उसी से प्रेरित होकर तू मेरी बातों में दोष बता रहा है। कर्ण! मैं अपनी समझ में कुरुकुल की वृद्धि करने वाली परम हित की बात कहता हूँ। यदि तू इसे दोषयुक्‍त मानता है तो बता, क्‍या करने से कौरवों का परम हित होगा। मैं अत्‍यन्‍त हित की बात बता रहा हूँ। यदि उसके विपरीत कुछ किया जायगा तो कौरवों का शीघ्र ही नाश हो जायगा-ऐसा मेरा मत है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व में द्रोणवाक्‍यविषयक दो सौ तीनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)

दौ सौ चारवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुरधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"विदुर जी की सम्‍मति-द्रोण और भीष्‍म के वचनों का ही समर्थन"

  विदुर जी बोले ;- राजन्! आपके (हितैषी) बान्‍धवों का यह कर्तव्‍य है कि वे आपको संदेह रहित हित की बात बतायें। परन्‍तु आप सुनना नहीं चाहते, इसलिये आपके भीतर उनकी कही हुई बात भी ठहर नहीं पा रही है। राजन्! कुरुश्रेष्‍ठ शंतनुनन्‍दन भीष्म ने आपसे प्रिय और हित की बात कही है; परंतु आप उसे ग्रहण नहीं कर रहे हैं। इसी प्रकार आचार्य द्रोण ने अनेक प्रकार से आपके लिये उत्‍तम हित की बात बतायी है; किन्‍तु राधानन्‍दन कर्ण उसे आपके लिये हितकर नहीं मानते। महाराज! मैं बहुत सोचने-विचारने पर भी आपके किसी ऐसे परमसुहृद् व्‍यक्ति को नहीं देखता, जो इन दोनों वीर महापुरुषों से बुद्धि या विचार शक्ति में अधिक हो। राजेन्‍द्र! अवस्‍था, बुद्धि और शास्‍त्रज्ञान- सभी बातों में ये दोनों बढ़े-चढ़े हैं और आपमें तथा पाण्‍डवों में समान भाव रखते हैं। भरतवंशी नरेश! ये दोनों धर्म और सत्‍यवादिता में दशरथनन्‍दन श्रीराम तथा राजा गय से कम नहीं है। मेरा यह कथन सर्वथा संशयरहित है। उन्‍होंने आपके सामने भी (कभी) कोई ऐसी बात नहीं कही होगी, जो आपके लिये अनिष्‍टकारक सिद्ध हुई हो तथा इनके द्वारा आपका कुछ अपकार हुआ हो, ऐसा भी देखने में नहीं आता।

  महाराज! आपने भी इनका कोई अपराध नहीं किया है; फि‍र ये दोनों सत्‍यपराक्रमी पुरुषसिंह आपको हितकारक सलाह न दें, यह कैसे हो सकता है? नरेश्‍वर! ये दोनों इस लोक में नरश्रेष्‍ठ और बुद्धिमान् हैं, अत: आपके लिये ये कोई कुटिलतापूर्ण बात नहीं कहेंगे। कुरुनन्‍दन! इनके विषय में मेरा यह निश्चित विचार है कि ये दोनों धर्म के ज्ञाता महापुरुष हैं, अत: स्‍वार्थ के लिये किसी एक ही पक्ष को लाभ पहुँचाने वाली बात नहीं कहेंगे। भारत! इन्‍होंने जो सम्‍मति दी है, इसी को मैं आपके लिये परम कल्‍याणकारक मानता हूँ। महाराज! जैसे दुर्योधन आदि आपके पुत्र हैं, वैसे ही पाण्‍डव भी आपके पुत्र हैं- इसमें संशय नहीं है। इस बात को न जानने वाले कुछ मन्‍त्री यदि आपको पाण्‍डवों के अहित की सलाह दें तो यह कहना पड़ेगा कि वे मन्‍त्री लोग, आपका कल्‍याण किस बात में है, यह विशेष रुप में नही देख पा रहे हैं।

  राजन्! यदि आपके हृदय में अपने पुत्रों पर विशेष पक्षपात है तो आपके भीतर के छिपे भाव को बाहर सबके सामने प्रकट करने वाले लोग निश्‍चय ही आपका भला नहीं कर सकते। महाराज! इसीलिये ये दोनों महातेजस्‍वी महात्‍मा आपके सामने कुछ खोलकर नहीं कह सके हैं। इन्‍होंने आपको ठीक ही सलाह दी है; परंतु आप उसे निश्चितरुप से स्‍वीकार नहीं करते हैं। इन पुरुषशिरोमणियों ने जो पाण्‍डवों के अजेय होने की बात बतायी है, वह बिल्‍कुल ठीक है। पुरुषसिंह! आपका कल्‍याण हो। राजन्! दायें-बायें दोनों हाथों से बाण चलाने वाले श्रीमान् पाण्‍डुकुमार धनंजय को साक्षात् इन्‍द्र भी युद्ध में कैसे जीत सकते हैं? दस हजार हाथियों के समान महान् बलवान् महाबाहु भीमसेन को युद्ध में देवता भी कैसे जीत सकते हैं? इसी प्रकार जो जीवित रहना चाहता है, उसके द्वारा युद्ध में निपुण तथा यमराज के पुत्रों की भाँति भयंकर दोनों भाई नकुल-सहदेव कैसे जीते जा सकते है?

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुरधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद)

   जिन ज्‍येष्‍ठ पाण्‍डव युधिष्ठिर में धैर्य, दया, क्षमा, सत्‍य और पराक्रम आदि गुण नित्‍य निवास करते हैं, उन्‍हें रणभूमि में कैसे हराया जा सकता है? बलराम जी जिनके पक्षपाती हैं, भगवान् श्रीकृष्‍ण जिनके सलाहकार हैं तथा जिनके पक्ष में सात्‍यकि वीर हैं, वे पाण्‍डव युद्ध में किसे नहीं परास्‍त कर देंगे? द्रुपद जिनके श्वशुर हैं और उनके पुत्र पृषतवंशी धृष्टद्युम्न आदि वीर भ्राता जिनके साले हैं, भारत! ऐसे पाण्‍डवों को रणभूमि में जीतना असम्‍भव है। इस बात को जानकर तथा पहले उनके पिता का राज्‍य होने के कारण वे ही धर्मपूर्वक इस राज्‍य के उत्‍तराधिकारी हैं, इस बात की ओर ध्‍यान देकर उनके साथ उत्‍तम बर्ताव कीजिये। राजन्! पुरोचन के हाथों जो कुछ कराया गया, उससे आपका बहुत बड़ा अपयश सब ओर फैल गया है। अपने उस कलंक को आज आप पाण्‍डवों पर अनुग्रह करके धो डालिये। पाण्‍डवों पर किया हुआ यह अनुग्रह हमारे कुल के सभी लोगों के जीवन का रक्षक, परम हितकारक और सम्‍पूर्ण क्ष‍त्रिय जाति का अभ्‍युदय करने वाला होगा।

   राजन्! द्रुपद भी बहुत बड़े राजा हैं और पहले हमारे साथ उनका वैर भी हो चुका है। अत: मित्र के रुप में उनका संग्रह हमारे अपने पक्ष की वृद्धि का कारण होगा। पृथ्‍वीपते! यदुवंशियों की संख्‍या बहुत है और वे बलवान् भी हैं। जिस ओर श्रीकृष्‍ण रहेंगे, उधर ही वे सभी रहेंगे। इसलिये जिस पक्ष में श्रीकृष्‍ण होंगे, उस पक्ष की विजय अवश्‍य होगी। महाराज! जो कार्य शांतिपूर्वक समझाने-बुझाने से ही सिद्ध हो जा सकता है, उसी को कौन दैव का मारा हुआ मनुष्‍य युद्ध के द्वारा सिद्ध करेगा। कुन्‍ती के पुत्रों को जीवित सुनकर नगर और जनपद के सभी लोग उन्‍हें देखने के लिये अत्‍यन्‍त उत्‍सुक हो रहे हैं। राजन्! उन सबका प्रिय कीजिये। दुर्योधन, कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि- ये अधर्मपरायण, खोटी बुद्धि वाले और मुर्ख हैं; अत: इनका कहना न मानिये। भूपाल! आप गुणवान् है। आपसे तो मैंने पहले ही यह कह दिया कि दुर्योधन के अपराध से निश्‍चय ही यह समस्‍त प्रजा नष्‍ट हो जायगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भपर्व में विदुरवाक्‍यविषयक दो सौ चारवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)

दौ सौ पाचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"धृतराष्‍ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के यहाँ आना और पाण्‍डवों को हस्तिनापुर भेजने का प्रस्‍ताव करना"

धृतराष्ट्र बोले ;- विदुर! शंतनुनन्‍दन भीष्‍म ज्ञानी हैं और भगवान् द्रोणाचार्य तो ऋषि ही ठहरे। अत: इनका वचन परम हितकारक है। तुम भी मुझसे जो कुछ कहते हो, वह सत्‍य ही है। कुन्‍ती के वीर महारथी पुत्र जैसे पाण्‍डु के लड़के हैं, उसी प्रकार धर्म की दृष्टि से वे सब मेरे भी पुत्र हैं- इसमें संशय नहीं है। जैसे मेरे पुत्रों का यह राज्‍य कहा जाता है, उसी प्रकार पाण्‍डुपुत्रों का भी यह राज्‍य है- इसमें भी संशय नही है। भरतवंशी विदुर! अब तुम्‍हीं जाओ और उनकी माता कुन्‍ती तथा उस देवरुपिणी वधू कृष्णा के साथ इन पाण्‍डवों को सत्‍कारपूर्वक ले आओ। सौभाग्‍य की बात है कि कुन्‍तीपुत्र जीवित है। सौभाग्‍य से ही कुन्‍ती भी जीवित है और यह भी बड़े सौभाग्‍य की बात है कि उन महारथियों ने द्रुपदकन्‍या को प्राप्‍त कर लिया। महाद्युते! सौभाग्‍य से हम सबकी वृद्धि हो रही है। भाग्‍य की बात है कि पापी पुरोचन शान्‍त हो गया और सौभाग्‍य से ही मेरा महान् दु:ख मिट गया।

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर जी द्रौपदी, पाण्‍डव तथा महाराज यज्ञसेन के लिये नाना प्रकार के धन-रत्‍नों की भेंट लेकर राजा द्रुपद और पाण्‍डवों के समीप गये। राजन्! वहाँ पहुँचकर सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के विद्वान एवं धर्मज्ञ विदुर न्‍याय के अनुसार बड़े-छोटे के क्रम से द्रुपद और अन्‍य लोगों के साथ हृदय से लगाकर नमस्‍कार आदिपूर्वक मिले। राजा द्रुपद ने भी धर्म के अनुसार विदुर जी का आदर सत्‍कार किया। फिर वे दोनों यथोचित रीति से एक-दूसरे के कुशल-समाचार पूछने और कहने लगे। भारत! विदुर जी ने वहाँ पाण्‍डवों तथा वसुदेवनन्‍दन भगवान् श्रीकृष्‍ण को भी देखा और स्‍नेहपूर्वक उन्‍हें हृदय से लगाकर उन सबकी कुशल पूछी। उन्‍होंने भी अमित-बुद्धिमान् विदुर जी का क्रमश: आदर सत्‍कार किया।

  तदनन्‍तर विदुर जी ने राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा के अनुसार बारंबार स्‍नेहपूर्वक युधिष्ठिर आदि पाण्‍डुपुत्रों से कुशल मंगल एवं स्‍वास्‍थ्‍य विषयक प्रश्‍न किया। जनमेजय! फिर विदुर जी ने कौरवों की ओर से जैसे दिये गये थे, उसी के अनुसार पाण्‍डवों, कुन्‍ती, द्रौपदी तथा द्रुपद के पुत्रों के लिये नाना प्रकार के रत्‍न और धन भेंट किये। अगाध बुद्धि वाले विदुर जी पाण्‍डवों तथा भगवान् श्रीकृष्‍ण के समीप विनीतभाव से नम्रतापूर्वक बोले,,

  विदुर ने कहा ;- राजन्! आप अपने मन्त्रियों और पुत्रों के साथ मेरी बात सुनें। महाराज धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र, मन्‍त्री और बन्‍धुओं के साथ अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर बारंबार आपकी कुशल पूछी है। महाराज! आपके साथ यह जो सम्‍बन्‍ध हुआ है, इससे उनको बड़ी प्रसन्नता हुई है। इसी प्रकार शान्तनुनन्‍दन महाप्राज्ञ भीष्‍म जी भी समस्‍त कौरवों के साथ सब तरह से आपकी कुशल पूछते हैं। आपके प्रिय मित्र महाबुद्धिमान् भरद्वाजनन्‍दन द्रोणाचार्य भी (मन-ही-मन) आपको हृदय से लगाकर कुशल पूछ रहे हैं। पाञ्चालनरेश! राजा धृतराष्‍ट्र आपके सम्‍बन्‍धी होकर अपने आपको कृतार्थ मानते हैं। यही दशा समस्‍त कौरवों की है। यज्ञसेन! उन्‍हें राज्‍य की प्राप्ति भी उतनी प्रसन्‍नता देने वाली नहीं जान पड़ी, जितनी प्रसन्‍नता आपके साथ सम्‍बन्‍ध का सौभाग्‍य पाकर हुई है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद)

यह जानकर आप पाण्‍डवों को हस्तिनापुर भेज दें। समस्‍त कुरुवंशी पाण्‍डवों को देखने और मिलने के लिये अत्‍यन्‍त उताबले हो रहे हैं। दीर्घकाल से ये परदेश में रह रहे हैं, अत: नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डव तथा कुन्‍ती-सभी लोग अपना नगर देखने के लिये उत्‍सुक हो रहे होंगे। कौरवकुल की सभी श्रेष्ठ स्त्रियां, हमारे हस्तिनापुर नगर तथा राष्ट्र के सभी लोग पाञ्चाल राजकुमारी कृष्णा को देखने की इच्‍छा रखकर उसके शुभागमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

  अत: आप पत्‍नी सहित पाण्‍डवों को हस्तिनापुर चलने के लिये शीघ्र आज्ञा दीजिये। इस विषय में मेरी सम्‍मति यही है। राजन! जब आप महामना पाण्‍डवों को जाने की आज्ञा दे देंगे, तब मैं यहाँ से राजा धृतराष्ट्र के पास शीघ्रगामी दूत भेजूंगा और यह संदेश कहला दूंगा कि कुन्ती तथा कृष्‍णा के साथ समस्‍त पाण्‍डव, हस्तिनापुर में आयेंगे।

(इस प्रकार आदि पर्व के अन्‍तर्गत विदुरागमनराज्‍यलम्‍भ पर्व में विदुर-संवाद विषयक दो सौ पांचवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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