सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
एक सौ छियानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षण्णवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"व्यास जी का द्रुपद को पाण्डवों तथा द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा सुनाकर दिव्य दृष्टि देना और द्रुपद का उनके दिव्य रुपों की झांकी करना"
व्यास जी ने कहा ;- पाञ्चालनरेश! पूर्व काल की बात है, नैमिषारण्य क्षेत्र में देवता लोग एक यज्ञ कर रहे थे। उस समय वहाँ सूर्यपुत्र यम शामित्र (यज्ञ) कार्य करते थे। राजन्! उस यज्ञ की दीक्षा लेने के कारण यमराज ने मानव प्रजा की मृत्यु का काम बंद कर रखा था। इस प्रकार मृत्यु का नियम समय बीत जाने से सारी प्रजा अमर होकर दिनों-दिन बढ़ने लगे। धीरे-धीरे उसकी संख्या बहुत बढ़ गयी। चन्द्रमा, इन्द्र, वरुण, कुबेर, साध्यगण, रुद्रगण, वसुगण, दोनों अश्विनीकुमार तथा अन्य सब देवता मिलकर जहाँ सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रह्मा जी रहते थे, वहाँ गये। वहाँ जाकर वे सब देवता लोकगुरु ब्रह्मा जी से बोले,,
देवता बोले ;- ‘भगवन्! मनुष्यों की संख्या बहुत बढ़ रही है। इससे हमें बड़ा भय लगता है। उस भय से हम सब लोग व्याकुल हो उठे हैं और सुख पाने की इच्छा से आपकी शरण में आये हैं।’
ब्रह्मा जी ने कहा ;- तुम्हें मनुष्यों से क्यों भय लगता है? जबकि तुम सभी लोग अमर हो, तब तुम्हें मरणधर्मा मनुष्यों से कभी भयभीत नहीं होना चाहिये।
देवता बोले ;- जो मरणशील थे, वे अमर हो गये। अब हममें और उनमें कोई अन्तर नहीं रह गया। यह अन्तर मिट जाने से ही हमें अधिक घबराहट हो रही है। हमारी विशेषता बनी रहे, इसीलिये हम यहाँ आये हैं।
भगवान् ब्रह्मा जी ने कहा ;- सूर्यपुत्र यमराज यज्ञ के कार्य में लगे हैं, इसीलिये वे मनुष्य मर नहीं रह हैं। जब वे यज्ञ का सारा काम पूरा करके इधर ध्यान देंगे, तब इन मनुष्यों का अन्तकाल उपस्थित होगा। तुम लोगों के बल के प्रभाव से जब सूर्यनन्दन यमराज का शरीर यज्ञकार्य से अलग होकर अपने कार्य में प्रयुक्त होगा, तब वहीं अन्तकाल आने पर मनुष्यों की मृत्यु का कारण बनेगा। उस समय मनुष्यों में इतनी शक्ति नहीं होगी कि वे मृत्यु से अपने को बचा सकें।
व्यास जी कहते हैं ;- राजन्! तब वे अपने पूर्वज देवता ब्रह्मा जी का वचन सुनकर फिर वहीं चले गये, जहाँ सब देवता यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे सभी महाबली देवगण गंगा जी में स्नान करने के लिये गये और वहाँ तट पर बैठे। उसी समय उन्हें भागीरथी के जल में बहता हुआ एक कमल दिखायी दिया। उसे देखकर वे सब देवता चकित हो गये। उनमें सबसे प्रधान और शूरवीर इन्द्र उस कमल का पता लगाने के लिये गंगा जी के मूल स्थान की ओर गये। गंगोत्तरी के पास, जहाँ गंगा देवी का जल सदा अविच्छिन्नरुप से झरता रहता है, पहुँचकर इन्द्र ने एक अग्नि के समान तेजस्विनी युवती देखी। वह युवती वहाँ जल के लिये आयी थी और भगवती गंगा की धारा में प्रवेश करके रोती हुई खड़ी थी। उसके आंसुओं का एक-एक बिन्दु, जो जल में गिरता था, वहाँ सुवर्णमय कमल बन जाता था। यह अद्भुत दृश्य देखकर वज्रधारी इन्द्र ने उस समय उस युवती के निकट जाकर पूछा,,
इन्द्र बोले ;- ‘भद्रे! तुम कौन हो और किस लिये रोती हो? बताओ, मैं तुमसे सच्ची बात जानना चाहता हूं।’
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षण्णवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)
युवती बोली ;- देवराज इन्द्र! मैं एक भाग्यहीन अबला हूं; कौन हूँ और किसलिये रो रही हूं, यह सब तुम्हें ज्ञात हो जायगा। तुम मेरे पीछे-पीछे आओ, मैं आगे-आगे चल रही हूँ। वहाँ चलकर स्वयं ही देख लोगे कि मैं किसलिये रोती हूँ।
व्यास जी कहते हैं ;- राजन्! यों कहकर आगे-आगे जाती हुई उस स्त्री के पीछे-पीछे उस समय इन्द्र भी गये। गिरिराज हिमालय के शिखर पर पहुँचकर उन्होंने देखा- पास ही एक परमसुन्दर तरुण पुरुष सिद्धासन से बैठे हैं, उनके साथ एक युवती भी है। इन्द्र ने उस युवती के साथ उन्हें क्रीड़ा- विनोद करते देखा। वे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों से क्रीड़ा में अत्यन्त तन्मय हो रहे थे, अत: इधर-उधर उनका ध्यान नहीं जाता था। उन्हें इस प्रकार असावधान देख देवराज इन्द्र ने कुपित होकर कहा,,
इंद्र बोले ;- ‘महानुभाव! यह सारा जगत् मेरे अधिकार में है, मेरी आज्ञा के अधीन है; मैं इस जगत् का ईस्वर हूं।’ इन्द्र को क्रोध में भरा देख वे देव पुरुष हंस पड़े। उन्होंने धीरे से आंख उठाकर उनकी ओर देखा। उनकी दृष्टि पड़ते ही देवराज इन्द्र का शरीर स्तम्भित हो गया (अकड़ गया)। वे ठूंठे काठ की भाँति निश्चेष्ट हो गये। तब उनकी वह क्रीड़ा समाप्त हुई, तब वे उस रोती हुई देवी से बोले,,
देवपुरुष बोले ;- ‘इस इन्द्र को जहाँ मैं हूं, यहीं-मेरे समीप ले आओ, जिससे फिर इसके भीतर अभिमान का प्रवेश न हो।’
तदनन्तर उस स्त्री ने ज्यों ही इन्द्र का स्पर्श किया, उनके सारे अंग शिथिल हो गये और वे धरती पर गिर पड़े।
तब उग्रतेजस्वी भगवान् रुद्र ने उनसे कहा ;- ‘इन्द्र! फिर किसी प्रकार भी ऐसा घमंड न करना। तुममें अनन्त बल और पराक्रम है, अत: इस गुफा के दरवाजे पर लगे हुए इस महान् पर्वतराज को हटा दो और इसी गुफा के भीतर घुस जाओ, जहाँ सूर्य के समान तेजस्वी तुम्हारे- जैसे और भी इन्द्र रहते हैं।’ उन्होंने उस महान् पर्वत की कन्दरा का द्वार खोलकर उसमें अपने ही समान तेजस्वी अन्य चार इन्द्रों को भी देखा। उन्हें देखकर वे बहुत दुखी हुए और सोचने लगे- ‘कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मैं भी इन्हीं के समान दुर्दशा में पड़ जाऊं। तब पर्वत पर शयन करने वाले महादेव जी ने आंखें तरेरकर कुपित हो वज्रधारी इन्द्र से कहा,,
महादेव बोले ;- ‘शतक्रतो! तुमने मूर्खतावश पहले मेरा अपमान किया है, इसलिये अब इस कन्दरा में प्रवेश करो।’
उस पर्वत-शिखर पर भगवान् रुद्र के यों कहने पर देवराज इन्द्र पराभव की आंशका से अत्यन्त दुखी हो गये, उनके सारे अंग शिथिल पड़ गये और हवा से हिलने वाले पीपल के पत्ते की तरह वे थर-थर कांपने लगे। वृषभवाहन भगवान् शंकर के द्वारा इस प्रकार सहसा गुहा-प्रवेश की आज्ञा मिलने पर कांपते हुए इन्द्र ने हाथ जोड़कर उन अनेक रुपधारी उग्रस्वरुप रुद्रदेव से कहा,,
इन्द्र बोले ;- ‘जगद्योने! आप ही समस्त जगत् की उत्पत्ति करने वाले आदिपुरुष हैं।’
तब भयंकर तेज वाले रुद्र ने हंसकर कहा ;- ‘तुम्हारे जैसे शील-स्वभाव वाले लोगों को यहाँ प्रसाद की प्राप्ति नहीं होती। ये लोग भी पहले तुम्हारे ही जैसे थे, अत: तुम भी इस कन्दरा में घुसकर शयन करो।
(संम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षण्णवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ भविष्य में निश्चय ही तुम लोग ऐसे ही होने वाले हो- तुम सबको मनुष्य योनि में प्रवेश करना पड़ेगा। उस जन्म में तुम अनेक दु:सह कर्म करके बहुतों को मौत के घाट उतारकर पुन: अपने शुभ कर्मों द्वारा पहले से ही उपार्जित पुण्यात्माओं के निवास योग्य इन्द्र लोक में आ जाओगे। मैंने जो कुछ कहा है, वह सब कुछ तुम्हें करना होगा। इसके सिवा और भी नाना प्रकार के प्रयोजनों से युक्त कार्य तुम्हारे द्वारा सम्पन्न होंगे।’
पहले के चारों इन्द्र बोले ;- भगवन्! हम आपकी आज्ञा के अनुसार देव लोक से मनुष्य लोक में जायंगे, जहाँ दुर्लभ मोक्ष का साधन भी सुलभ होता है। परंतु वहाँ हमें धर्म, वायु, इन्द्र और दोनों अश्विनीकुमार -ये ही देवता माता के गर्भ में स्थापित करें। तदनन्तर हम दिव्यास्त्रों द्वारा मानव-वीरों से युद्ध करके पुन: इन्द्रलोक में चले आयेंगे।
व्यास जी कहते हैं ;- राजन्! पूर्ववर्ती इन्द्रों का यह वचन सुनकर वज्रधारी इन्द्र ने पुन: देवश्रेष्ठ महादेव जी से इस प्रकार कहा,,
इन्द्र बोले ;- ‘भगवन्! मैं अपने वीर्य से अपने ही अंशभूत पुरुष को देवताओं के कार्य के लिये समर्पित करुंगा, जो इन चारों के साथ पांचवां होगा। उसे मैं स्वयं ही उत्पन्न करुंगा। विश्वभुक, भूतधामा, प्रतापी इन्द्र शिवि, चौथे शान्ति और पांचवें तेजस्वी- ये ही उन पांचों के नाम हैं। उग्र धनुष धारण करने वाले भगवान् रुद्र ने उन सबको उनकी अभीष्ट कामना पूर्ण होने का वरदान दिया, जिसे वे अपने साधु स्वभाव के कारण भगवान् के सामने प्रकट कर चुके थे। साथ ही उस लोककमनीया युवती स्त्री को, जो स्वर्ग लोक की लक्ष्मी थी, मनुष्य लोक में उनकी पत्नी निश्चित की। तदनन्तर उन्हीं के साथ महादेव जी अनन्त, अप्रमेय, अव्यक्त, अजन्मा, पुराणपुरुष, सनातन, विश्वरुप एवं अनन्त मूर्ति भगवान् नारायण के पास गये। उन्होंने भी उन्हीं सब बातों के लिये आज्ञा दी। तत्पश्चात् वे सब लोग पृथ्वी पर प्रकट हुए।
उस समय भगवान् नारायण ने अपने मस्तक से दो केश निकाले, जिनमें एक श्वेत था और दूसरा श्याम। वे दोनों केश यदुवंश की दो स्त्रियों देवकी तथा रोहिणी के भीतर प्रविष्ट हुए। उनमें से रोहिणी के बलदेव प्रकट हुए, जो भगवान् नारायण का श्वेत केश थे; दूसरा केश, जिसे श्याम वर्ण का बताया गया है, वही देवकी के गर्भ से भगवान् श्रीकृष्ण के रुप में प्रकट हुआ उत्तरवर्ती हिमालय की कन्दरा में पहले जो इन्द्र स्वरुप पुरुष बंदी बनाकर रखे गये थे, वे ही ये चारों पराक्रमी पाण्डव यहाँ विद्यमान हैं और साक्षात् इन्द्र का अंशभूत जो पांचवां पुरुष प्रकट होने वाला था, वही पाण्डुकुमार सव्यसाची अर्जुन है। राजन्! इस प्रकार ये पाण्डव प्रकट हुए हैं, जो पहले इन्द्र रह चुके हैं। यह दिव्यरुपा द्रौपदी वही स्वर्गलोक की लक्ष्मी है, जो पहले से ही इनकी पत्नी नियत हो चुकी है। महाराज! यदि इस कार्य में देवताओं का सहयोग न होता तो तुम्हारे इस यज्ञ कर्म द्वारा यज्ञवेदी की भूमि से ऐसी दिव्य नारी कैसे प्रकट हो सकती थी, जिसका रुप सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाश बिखेर रहा है और जिसकी सुगन्ध एक कोस तक फैलती रहती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षण्णवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद)
नरेन्द्र! मैं तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक एक और अद्भुत वर के रुप में यह दिव्य दृष्टि देता हूं; इससे सम्पन्न होकर तुम कुन्ती के पुत्रों को उनके पूर्वकालिक पुण्यमय दिव्य शरीरों से सम्पन्न देखो।।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर परम उदार कर्म वाले ब्रह्मर्षि व्यास जी ने अपनी तपस्या के प्रभाव से राजा द्रुपद को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे उन्होंने समस्त पाण्डवों को पूर्व शरीरों से सम्पन्न वास्तविक रुप में देखा। वे दिव्य शरीर से सुशोभित थे। उनके मस्तक पर सुवर्णमय किरीट और गले में सुन्दर सोने की माला शोभा पा रही थी। उनकी छवि इन्द्र के ही समान थी। वे अग्नि और सूर्य के समान कान्तिमान् थे। उन्होंने अपने अंगों में सब तरह के दिव्य अलंकार धारण कर रखे थे। उनकी युवावस्था थी तथा रुप अत्यन्त मनोहर था। उन सबकी छाती चौड़ी थी और वे ताल वृक्ष के समान लंबे थे। इस रुप में राजा द्रुपद ने उनका दर्शन किया। वे दिव्य निर्मल वस्त्रों, उत्तम गन्धों और सुन्दर मालाओं से अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे और साक्षात् त्रिनेत्र महादेव, वसुगण, रुद्रगण अथवा आदित्यगणों के समान तेजस्वी एवं सर्वगुण सम्पन्न दिखायी देते थे। चारों पाण्डवों को परम सुन्दर पूर्वकालिक इन्द्रों के रुप में तथा इन्द्र पुत्र अर्जुन को भी इन्द्र के ही स्वरुप में देखकर उस अप्रमेय दिव्य माया पर दृष्टिपात करके राजा द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न एवं आश्चर्यचकित हो उठे। उन राजराजेश्वर ने अपनी पुत्री को भी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी, अत्यन्त रुपवती और साक्षात् चन्द्रमा तथा अग्नि के समान प्रकाशित होने वाली दिव्य नारी के रुप में देखा। साथ ही यह मान लिया कि द्रौपदी रुप, तेज और यश की दृष्टि से अवश्य उन पाण्डवों की पत्नी होने योग्य है। इससे उन्हें महान् हर्ष हुआ।
यह महान् आश्चर्य देखकर द्रुपद ने सत्यवतीनन्दन व्यासजी के चरण पकड़ लिये और प्रसन्नचित्त होकर उनसे कहा,,
द्रुपद बोले ;- ‘महर्षे! आपमें ऐसी अद्भुत शक्ति का होना आश्चर्य की बात नहीं है।’ तब व्यास जी प्रसन्नचित्त हो द्रुपद से बोले।
व्यास जी ने कहा ;- राजन्! (अपनी पुत्री के एक और जन्म का वृतान्त सुनो) एक तपोवन में किसी महात्मा मुनि की कोई कन्या रहती थी। सती-साध्वी एवं रुपवती होने पर, भी उसे योग्य पति की प्राप्ति नहीं हुई। उसने कठोर तपस्या द्वारा भगवान् शंकर को संतुष्ट किया; महादेव जी प्रसन्न होकर साक्षात् प्रकट होकर उस मुनि-कन्या से बोले,,
भगवान शंकर बोले ;- ‘तुम मनोवाच्छित वर मांगो।’ उनके यों कहने पर उस मुनि-कन्या ने वरदायक महेश्वर से बार-बार कहा,,
मुनि कन्या बोली ;- ‘मैं सर्वगुण सम्पन्न पति चाहती हूं।’ देवेश्वर भगवान शंकर प्रसन्नचित्त होकर उसे वर देते हुए बोले,,
भगवान शंकर बोले ;- ‘भद्रे! तुम्हारे पांच पति होंगे।’ यह सुनकर उसने महादेव जी को प्रसन्न करते हुए पुन: यह बात कही,,
मुनि कन्या बोली ;- ‘शंकर जी! मैं तो आपसे एक ही गुणवान् पति प्राप्त करना चाहती हूं।’ तब देवाधिदेव महादेव जी ने मन-ही-मन अन्यन्त संतुष्ट होकर उससे यह शुभ वचन कहा,,
भगवान शंकर बोले ;- ‘भद्रे! तुमने ‘पति दीजिये’ इस वाक्य को पांच बार दुहराया है; इसलिये मैंने जो पहले कहा है, वैसा ही होगा, तुम्हारा कल्याण हो। किंतु तुम्हें दूसरे शरीर में प्रवेश करने पर यह सब होगा।’ द्रुपद! वही मुनि कन्या तुम्हारी इस दिव्यरुपिणी पुत्री के रुप में फिर उत्पन्न हुई है। अत: यह पृषत-वंश की सती कन्या कृष्णा पहले से ही पांच पतियों की पत्नी नियत की गयी है। यह स्वर्गलोक की लक्ष्मी है, जो पाण्डवों के लिये तुम्हारे महायज्ञ में प्रकट हुई है। इसने अत्यन्त घोर तपस्या करके इस जन्म में तुम्हारी पुत्री होने का सौभाग्य प्राप्त किया है। महाराज द्रुपद! वही यह देवसेवित सुन्दरी देवी अपने इस कर्म से पांच पुरुषों की एक ही पत्नी नियत की गयी है। स्वयं ब्रह्मा जी इसे देव स्वरुप पाण्डवों की पत्नी होने के लिये रचा है। यह सब सुनकर तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत वैवाहिक पर्व में इन्द्रों के उपाख्यान का वर्णन करने वाला एक सौ छानबेवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तनवत्यधिकशतत अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रौपदी का पांचों पाण्डवों के साथ विवाह"
द्रुपद बोले ;- ‘ब्रह्मर्षे! आपके इस वचन को न सुनने के कारण ही पहले मैंने वैसा करने (कृष्णा को एक ही योग्य पति से ब्याह ने) का प्रयत्न किया था; परंतु विधाता ने जो रच रखा है, उसे टाल देना असम्भव है; अत: उसी पूर्व निश्चित विधान का पालन करना उचित है। भाग्य में जो लिख दिया है, उसे कोई भी बदल नहीं सकता। अपने प्रयत्न से यहाँ कुछ नहीं हो सकता। एक वर की प्राप्ति के लिये जो साधन (तप) किया गया, वही पांच पतियों की प्राप्ति का कारण बन गया; अत: दैव के द्वारा पूर्वनिश्चित विधान का पालन करना उचित है। पूर्वजन्म में कृष्णा ने अनेक बार भगवान् शंकर से कहा- ‘प्रभो! मुझे पति दें।’ जैसा उसने कहा, वैसा ही वर उन्होंने भी उसे दे दिया।
अत: इसमें कौन-सा उत्तम रहस्य छिपा है, उसे वे भगवान् ही जानते हैं। यदि साक्षात् शंकर ने ऐसा विधान किया है तो वह धर्म हो या अधर्म, इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। वे पाण्डव लोग विधिपूर्वक प्रसन्नता से इसका पाणिग्रहण करें; विधाता ने ही कृष्णा को इन पाण्डवों की पत्नी बनाया है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर भगवान् व्यास ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा,,
व्यास जी बोले ;- ‘पाण्डुनन्दन! आज ही तुम लोगों के लिये पुण्य-दिवस है। आज चन्द्रमा भरण-पोषणकारक पुष्य नक्षत्र पर जा रहे हैं; इसलिये आज पहले तुम्हीं कृष्णा का पाणिग्रहण करो।’ व्यास जी का आदेश सुनकर पुत्रों सहित राजा द्रुपद ने वर-वधू के लिये कथित समस्त उत्तम वस्तुओं को मंगवाया और अपनी पुत्री कृष्णा को स्नान कराकर बहुत-से रत्नमय आभूषणों- द्वारा विभूषित किया। तत्पश्चात् राजा के सभी सुह्रद-सम्बन्धी, मन्त्री, ब्राह्मण और पुरवासी अत्यन्त प्रसन्न हो विवाह देखने के लिये आये और बड़ों को आगे करके बैठे।
तदनन्तर राजा द्रुपद का वह भवन श्रेष्ठ पुरुषों से सुशोभित होने लगा। उसके आंगन को विस्तृत कमल और उत्पल आदि से सजाया गया था। वहाँ एक ओर सेनाएं खड़ी थीं और दूसरी ओर रत्नों का ढेर लगा था। इससे वह राजभवन निर्मल तारकाओं से संयुक्त आकाश की भाँति विचित्र शोभा धारण कर रहा था। इधर युवावस्था से सम्पन्न कौरव-राजकुमार पाण्डव वस्त्राभूषणों से विभूषित और कुण्डलों से अलंकृत हो अभिषेक और मंगलाचार करके बहूमुल्य कपड़ों एवं केसर, चन्दन से सुशोभित हुए। तब अग्नि के समान तेजस्वी अपने पुरोहित धौम्य जी के साथ विधिपूर्वक बड़े-छोटे के क्रम से वे सभी प्रसन्नतापूर्वक विवाह मण्डप में गये-ठीक उसी तरह, जैसे बड़े-बड़े सांड गोशाला में प्रवेश करें।
तत्पश्चात् वेद के पारंगत विद्वान मन्त्रज्ञ पुरोहित धौम्य ने (वेदी पर) प्रज्वलित अग्नि की स्थापना करके उसमें मन्त्रों द्वारा आहुती दी और युधिष्ठिर को बुलाकर कृष्णा के साथ उनका गंठबन्धन कर दिया। वेदों के परिपूर्ण विद्वान पुरोहित ने उन दोनों दम्पति का पाणिग्रहण कराकर उनसे अग्नि की परिक्रमा करवायी, फिर (अन्य शास्त्रोक्त विधियों का अनुष्ठान करके) उनका विवाह कार्य सम्पन्न कर दिया। इसके बाद संग्राम में शोभा पाने वाले युधिष्ठिर को छुट्टी देकर पुरोहित जी भी उस राजभवन से बाहर चले गयें। इसी क्रम से कौरव-कुल की वृद्धि करने वाले, उत्तम शोभा धारण करने वाले महारथी राजकुमार पाण्डवों ने एक-एक दिन परम सुन्दरी द्रौपदी का पाणिग्रहण किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तनवत्यधिकशतत अध्याय के श्लोक 14-18 का हिन्दी अनुवाद)
देवर्षि ने वहाँ घटित हुई इस अद्भुत, उत्तम एवं अलौकिक घटना का वर्णन किया है कि सुन्दर कटिप्रदेश वाली महानुभावा द्रौपदी प्रतिवार विवाह के दूसरे दिन कन्याभाव को ही प्राप्त हो जाती थी। विवाह-कार्य सम्पन्न हो आने पर द्रुपद ने महारथी पाण्डवों को दहेज में बहुत-सा धन और नाना प्रकार की उत्तम वस्तुएं समर्पित कीं। सुन्दर सुवर्ण की मालाओं और सुवर्ण-जटित जुओं से सुशोभित सौ रथ प्रदान किये, जिनमें चार-चार घोड़े जुते हुए थे। पद्य आदि उत्तम लक्षणों से युक्त सौ हाथी तथा पर्वतों के समान ऊंचे और सुनहरे हौदों से सुशोभित सौ हाथी और (साथ ही) बहुमूल्य श्रृंगार-सामग्री, वस्त्राभूषण एवं हार धारण करने वाली एक सौ नवयौवना दासियां भेंट की सोमकवंश में उत्पन्न महानुभाव राजा द्रुपद ने इस प्रकार अग्नि को साक्षी मानकर प्रत्येक सुन्दर दृष्टि वाले पाण्डवों के लिये अलग-अलग प्रचुर धन तथा प्रभुत्व-सूचक बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण अर्पित किये।
विवाह के पश्चात इन्द्र के समान महाबली पाण्डव प्रचुर रत्नराशि के साथ लक्ष्मी स्वरुपा द्रौपदी को पाकर पाञ्चालराज द्रुपद के ही नगर में सुखपूर्वक विहार करने लगे। राजन्! सभी पाण्डव द्रौपदी की सुशीलता, एकाग्रता और सद्व्यवहार से बहुत संतुष्ट थे (और द्रौपदी को भी संतुष्ट रखने का प्रयत्न करते थे)। इसी प्रकार द्रुपदकुमारी कृष्णा भी उस समय अपने उत्तम नियमों द्वारा पाण्डवों का आनन्द बढ़ाती थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत वैवाहिक पर्व में द्रौपदीविषयक एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
एक सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"कुन्ती का द्रौपदी का उपदेश और आशीर्वाद तथा भगवान् श्रीकृष्ण का पाण्डवों के लिये उपहार भेजना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पाण्डवों से सम्बन्ध हो जाने पर राजा द्रुपद को देवताओं से भी किसी प्रकार का कुछ भी भय नहीं रहा, फिर मनुष्यों से तो हो ही कैसे सकता था। महात्मा द्रुपद के कुटुम्ब को स्त्रियां कुन्ती के पास आकर अपने नाम ले-लेकर उनके चरणों में मस्तक नवाकर प्रणाम करने लगीं। कृष्णा भी रेशमी साड़ी पहने मांगलिक कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् सास के चरणों में प्रणाम करके उनके सामने हाथ जोड़ विनीत भाव से खड़ी हुई। सुन्दर रुप तथा उत्तम लक्षणों से सम्पन्न, शील और सदाचार से सुशोभित अपनी बहू द्रौपदी को सामने देख कुन्ती देवी उसे प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देती हुई बोली,,
कुन्ती बोली ;- ‘बेटी! जैसे इन्द्राणी, इन्द्र में, स्वाहा अग्नि में, रोहिणी चन्द्रमा में, दमयन्ती नल में, भद्रा कुबेर में, अरुन्धती वसिष्ठ में तथा लक्ष्मी भगवान् नारायण में भक्तिभाव एवं प्रेम रखती हैं, उसी प्रकार तुम भी अपने पतियों में अनुरक्त रहो। भद्रे! तुम अनन्त सौख्य में सम्पन्न होकर दीर्घजीवी तथा वीर पुत्रों को जननी बनो।
सौभाग्यशालिनी, भोग सामग्री से सम्पन्न, पति के साथ यज्ञ में बैठने वाली तथा पतिव्रता होओ। अपने घर पर आये हुए अतिथियों, साधु पुरुषों, बड़े-बूढ़ों, बालकों तथा गुरुजनों का यथायोग्य सत्कार करने में ही तुम्हारा प्रत्येक वर्ष बीते। तुम्हारे पति कुरु-जांगल देश के प्रधान-प्रधान राष्ट्रों तथा नगरों के राजा हों और उनके साथ ही रानी के पद पर तुम्हारा अभिषेक हो। धर्म के प्रति तुम्हारे हृदय में स्वाभाविक स्नेह हो। तुम्हारे महाबली पतियों द्वारा पराक्रम से जीती हुई इस समूची पृथ्वी को तुम अश्वमेध नामक महायज्ञ में ब्राह्मणों के हवाले कर दो। कल्यामणमयी गुणवती बहू! पृथ्वी पर जितने गुणवान् रत्न हैं, वे सब तुम्हें प्राप्त हों और तुम सौ वर्ष तक सुखी रहो। बहू! आज तुम्हें वैवाहिक रेशमी वस्त्रों से सुशोभित देखकर जिस प्रकार मैं तुम्हारा अभिनन्दन करती हूं, उसी प्रकार जब तुम पुत्रवती होओगी, उस समय भी अभिनन्दन करुंगी; तुम सद्गुणसम्पन्न हो’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर विवाह हो जाने पर पाण्डवों के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने वैदूर्य-मणि-जनित सोने के बहुत-से आभूषण, बहुमूल्य वस्त्र, अनेक देशों के बने हुए कोमल स्पर्श वाले कम्बल, मृगचर्म, सुन्दर रत्न, शय्याएं, आसन,भाँति-भाँति के बड़े-बड़े वाहन तथा वैदूर्य और वज्रमणि (हीरे) से खचित सैकड़ों बर्तन भेंट के तौर पर भेजे। रुप-यौवन और चातुर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा वस्त्राभूषणों से अलंकृत अनेक देशों की सजी-धजी बहुत-सी सुन्दरी सेविकाएं भी समर्पित की। इसके सिवा अमेयात्मा मधुसूदन ने सुशिक्षित और वश में रहने वाले अच्छी जाति के हाथी, गहनों से सजे हुए उत्तम घोड़े, चमकते हुए सोने के पत्रों से सुशोभित और सधे हुए घोड़ों से युक्त बहुत-से सुन्दर रथ, करोड़ों स्वर्ण मुद्राएं तथा पंक्ति में रखी हुई सुवर्ण की ढेरियां उनके लिये भेजीं। धर्मराज युधिष्ठिर ने अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये वह सारा उपहार ग्रहण कर लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत वैवाहिक पर्व में एक सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)
एक सौ निन्यानवेंवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन आदि की चिन्ता, धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा और दुर्योधन की कुमन्त्रणा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर सब राजाओं को अपने विश्वनीय गुप्तचरों द्वारा यह यथार्थ समाचार मिल गया कि शुभलक्षणा द्रौपदी का विवाह पांचों पाण्डवों के साथ हुआ है। जिन महात्मा पुरुष ने वह धनुष लेकर लक्ष्य को वेधा था, वे विजयी वीरों में श्रेष्ठ तथा महान् धनुष-बाण धारण करने वाले स्वयं अर्जुन थे। जिस बलवान् वीर ने अत्यन्त कुपित हो मद्रराज शल्य को उठाकर पृथ्वी पर पटक दिया था और हाथ में वृक्ष ले रणभूमि में समस्त योद्धाओं को भयभीत कर डाला था तथा जिस महातेजस्वी शूरवीर को उस समय तनिक भी घबराहट नहीं हुई थी, वह शत्रुसेना के हाथी, घोड़े आदि अंगों की मार गिराने वाला तथा स्पर्शमात्र से भय उत्पन्न करने वाला महाबली भीमसेन था। ब्राह्मण का रुप धारण करके प्रशान्त भाव से बैठे हुए वे वीर पुरुष कुन्तीपुत्र पाण्डव ही थे, यह सुनकर वहाँ आये हुए राजाओं को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पहले सुन रखा था कि कुन्ती अपने पुत्रोंसहित लाक्षागृह में जल गयी। अब उन्हें जीवित सुनकर वे राजा लोग यह मानने लगे कि इन पाण्डवों का फिर नया जन्म सा हुआ है। पुरोचन के किये हुए अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म का स्मरण हो आने से उस समय सभी नरेश कुरुवंशी धृतराष्ट्र तथा भीष्म को धिक्कारने लगे।
देखो न; धर्मात्मा, सदाचारी तथा माता के प्रिय एवं हित में तत्पर रहने वाले कुन्तीकुमारों को भी यह धृतराष्ट्र नष्ट करना चाहता है (भला, इससे बढ़कर निन्दनीय कौन होगा)।’ जनमेजय उधर स्वंयवर समाप्त होने पर धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, जिन्हें कर्ण और शकुनि ने बिगाड़ रखा था, इस प्रकार सलाह करने लगे।
शकुनि बोला ;- संसार में कोई शत्रु तो ऐसा होता है, जिसे सब प्रकार से दुर्बल कर देना उचित है; दूसरा ऐसा होता है जिसे सदा पीड़ा दी जाय। परंतु कुन्ती के वे सभी पुत्र तो समस्त क्षत्रियों के लिये समूल नष्ट कर देने योग्य हैं। इनके विषय में मेरा यही मत है। यदि इस प्रकार पराजित होकर आप सब लोग इन (पाण्डवों के विनाश की) युक्ति निश्चित किये बिना ही चले जायंगे, तो अवश्य ही यह भूल आप लोगों को सदा संतृप्त करती रहेगी। पाण्डवों को जड़ मूल सहित विनष्ट करने के लिये हमारे सामने यही उपयुक्त देश और काल उपस्थित है। यदि आप लोग ऐसा नहीं करेंगे तो संसार में उपहास के पात्र होंगे। ये पाण्डव जिस राजा के आश्रय में रहने की इच्छा रखते हैं, उस द्रुपद का बल और पराक्रम मेरी राय में बहुत थोड़ा है। जब तक वृष्णिवंश के श्रेष्ठ वीर यह नहीं जानते कि पाण्डव जीवित हैं, पुरुषसिंह चेदिराज प्रतापी शिशुपाल भी जब तक इस बात से अनभिज्ञ है, तभी तक पाण्डवों को मार डालना चाहिये।
राजन्! जब ये महात्मा राजा द्रुपद के साथ मिलकर एक हो जायंगें, तब इन्हें परास्त करना अत्यन्त कठिन हो जायगा, इसमें संशय नहीं है। जब तक राजा ढीले पड़े हैं, तभी तक हमें पाण्डवों के वध के लिये पूरा प्रयत्न कर लेना चाहिये। विषधर सर्प के मुख-सदृश भयंकर लाक्षागृह से तो वे बच ही गये हैं। यदि फिर हमारे हाथ से छूट जाते हैं तो उनसे हम लोगों को महान् भय प्राप्त हो सकता है। यदि वे वृष्णिवंशी और चेदिवंशी वीर यहाँ आ जायँ और यहाँ के नागरिक भी अस्त्र-शस्त्र लेकर खड़े हो जायं तो इनके बीच मे खड़ा होना उतना कठिन होगा, जितना आपस में लड़ते हुए दो विशाल मेढ़ों के बीच में ठहरना। जब तक हल धारण करने वाले बलराम जी के द्वारा संचालित बलवान् योद्धाओं की सेनाएं स्वयं ही आकर कौरव-सेनारुपी खेती पर टिड्डियों की भाँति टूट न पड़े, तब तक हम सब लोग एक साथ आक्रमण करके इस नगर को नष्ट कर दें। नरश्रेष्ठ वीरों! मैं इस अवसर पर यही सर्वोत्तम कर्तव्य मानता हूं!
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- दुर्बुद्धि शकुनि का यह प्रस्ताव सुनकर सोमदत्त कुमार भूरिश्रवा ने यह उत्तम बात कही।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 8 का हिन्दी अनुवाद)
भूरिश्रवा बोले ;- अपने पक्ष की और शत्रु पक्ष की भी सातों प्रकृतियों को ठीक-ठीक जानकर देश और काल का ज्ञान रखते हुए छ: प्रकार के गुणों का यथावसर प्रयोग करना चाहिये। स्थान, वृद्धि, क्षय, भूमि, मित्र और पराक्रम- इन सबकी ओर दृष्टि रखते हुए यदि शत्रु संकट से पीड़ित हो तभी उस पर आक्रमण करना चाहिये। इस दृष्टि से देखने पर मैं पाण्डवों को मित्र और खजाना दोनों से सम्पन्न मानता हूँ। वे बलवान् तो है हीं, पराक्रमी भी हैं और अपने सत्कर्मों द्वारा समस्त प्रजा के प्रिय हो रहे हैं। अर्जुन अपने शरीर की गठन से (सभी) मनुष्यों के नेत्रों तथा हृदय को आनन्द प्रदान करते हैं और मीठी-मीठी वाणी द्वारा सबके कानों को सुख पहुँचाते हैं। केवल प्रारब्ध से ही प्रजा उनकी सेवा नहीं करती। प्रजा के मन को जो प्रिय लगता हैं, उसकी पूर्ति अर्जुन अपने प्रयत्नों द्वारा करते रहते हैं। मनोहर वचन बोलने वाले अर्जुन की वाणी कभी ऐसा वचन नहीं बोलती, जो अयुक्त, आसक्तिपूर्ण, मिथ्या तथा अप्रिय हो। समस्त पाण्डव राजोचित लक्षणों से सम्पन्न तथा उपर्युक्त गुणों से विभूषित हैं। मैं ऐसे किन्हीं वीरों को नहीं देखता, जो अपने बल से पाण्डवों का वास्तव में उच्छेद कर सकें। उनकी प्रभावशक्ति विपुल है, मन्त्र शक्ति भी प्रचुर है तथा उत्साहशक्ति भी पाण्डवों में सबसे अधिक है।
युधिष्ठिर इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि कब स्वाभाविक बल का प्रयोग करना चाहिये तथा कब मित्र और सैन्य बल का। राजा युधिष्ठिर साम, दान, भेद और दण्ड-नीती के द्वारा ही यथासमय शत्रु को जीतने का प्रयत्न करते हैं, क्रोध के द्वारा नहीं-ऐसा मेरा विश्वास है। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर प्रचुर धन देकर शत्रुओं को, मित्रों-को तथा सेनाओं को खरीद लेते हैं और अपनी नींव को सुदृढ़ करके शत्रुओं का नाश करते हैं। मैं ऐसा मानता हूँ कि इन्द्र आदि देवता भी उन पाण्डवों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, जिनकी सहायता के लिये कृष्ण और बलराम दोनों सदा कमर कसे रहते हैं। यदि आप लोग मेरी बात को हितकर मानते हों, यदि मेरे मत के अनुकूल ही आप लोग का मत हो, तो हम लोग पाण्डवों से मेल करके जैसे आये हैं, वैसे ही लौट चलें। यह श्रेष्ठ नगर गोपुरों, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं तथा सैकड़ों उपतल्पों से सुरक्षित है। इसके चारों और जल से भरी खाई है। घास-चारा, अनाज, ईंधन, रस, यन्त्र, आयुध तथा औषध आदि की यहाँ बहुतायत है। बहुत-से कपाट, द्रव्यागार और भूसा आदि से भी यह नगर भरपूर है। यहाँ बड़ें भयंकर और ऊंचे विशाल चक्र हैं। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं की पंक्ति इस नगर को घेरे हुए है। इसकी चहारदीवारी और छज्जे सुद्दढ़ हैं।
शतघ्नी (तोप) नामक अस्त्रों के समुदाय से यह नगरी घिरी हुई है। इसकी रक्षा के लिये तीन प्रकार का घेरा बना है- एक तो ईटों का, दूसरा काठ का और तीसरा मानव-सैनिकों का। चहारदिवारी बनाने वाले वीरों ने यहाँ नरगर्भ की पूजा की है। इस प्रकार यह नगर श्वेत नरगर्भ से शोभित है। अनेक ताड़ के बराबर ऊंचे शाल वृक्षों की पंक्तियों द्वारा यह श्रेष्ठ नगरी सब ओर से घिरी हुई है। महामना राजा द्रुपद की सभी प्रजा और प्रकृतियों (मन्त्री आदि) उनमें अनुराग रखती है। बाहर और भीतर के सभी कर्मचारियों का दान और मान-द्वारा सत्कार किया जाता है। भयानक पराक्रमी राजाओं द्वारा पाण्डवों को सब ओर से घिरा हुआ जानकर समस्त यदुवंशी वीर प्रचण्ड अस्त्र-शस्त्र लिये यहाँ उपस्थित हो जायंगे। अत: हम धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन की पाण्डवों के साथ संधि कराकर अपने राज्य में ही लौट चलें। यदि आप लोगों को मेरी बात पर विश्वास हो और मेरा यह मत सबको ठीक जंचता हो तो आप सब लोग इसे काम मे लायें। हमारा यही सर्वोत्तम कर्तव्य है और मैं इसी को राजाओं के लिये कल्याणकारी मानता हूँ। स्वयंवर समाप्त हो जाने पर जब यह ज्ञात हुआ कि द्रौपदी ने पाण्डवों का वरण किया है, तब वे सभी राजा जैसे आये थे, वैसे ही (अपने अपने) देश को लौट गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 9-22 का हिन्दी अनुवाद)
द्रुपदकुमारी कृष्णा ने श्वेतवाहन अर्जुन को (जयमाला पहनाकर उनका) वरण किया है, यह अपनी आंखों देखकर राजा दुर्योधन के मन में बड़ा दु:ख हुआ। वह अश्वत्थामा, मामा शकुनि, कर्ण, कृपाचार्य तथा अपने भाइयों के साथ (द्रुपद की राजधानी से) हस्तिनापुर के लिये लौट पड़ा। मार्ग में दु:शासन ने लज्जित होकर दुर्योधन से धीरे-धीरे (इस प्रकार) कहा,,
दुःशासन बोला ;- ‘भाई जी! यदि अर्जुन ब्राह्मण के वेश में न होता तो वह कदापि द्रौपदी को न पा सकता था। राजन्! वास्तव में किसी को यह पता ही नहीं चला कि वह अर्जुन है। मैं तो भाग्य को ही प्रबल मानता हूं, पुरुष का प्रयत्न निरर्थक है। तात! हमारे पुरुषार्थ को धिक्कार है, जबकि पाण्डव अभी तक जी रहे हैं।’ इस प्रकार परस्पर बातें करते और पुरोचन को कोसते हुए वे सब कौरव दुखी होकर हस्तिनापुर में पहुँचे। (पाण्डवों की) सफलता देखकर, उनका चित्त ठिकाने न रहा। महातेजस्वी कुन्तीकुमार लाक्षागृह की आग से जीवित बचकर राजा द्रुपद के सम्बन्धी हो गये, यह अपनी आंखों देखकर और धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा द्रुपद के अन्य पुत्र युद्ध की सम्पूर्ण कलाओं में दक्ष हैं, इस बात का विचार करके कौरव बहुत डर गये। उनकी आशा निराशा में परिणत हो गयी।
विदुर जी ने जब यह सुना कि पाण्डवों ने द्रौपदी को प्राप्त किया है और धृतराष्ट्र के पुत्र अपना अभिमान चूर्ण हो जाने से लज्जित होकर लौट आये हैं, तब वे मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। राजन्! तब वे धृतराष्ट्र के पास जाकर विस्मयसूचक वाणी में बोले,,
विदुर बोले ;- ‘महाराज! हमारा अहोभाग्य है, जो कौरव वंश की वृद्धि हो रही है। भारत! विचित्रवीर्यनन्दन राजा धृतराष्टर विदुर की यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हो सहसा बोल उठे- ‘अहोभाग्य, अहोभाग्य।’ उस अंधे नरेश ने अज्ञानवश यह समझ लिया कि ‘द्रुपद कन्या ने मेरे ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन का वरण किया है।’ इसलिये उन्होंने आज्ञा दी- ‘द्रौपदी के लिये बहुत-से आभूषण मंगाओ और मेरे पुत्र दुर्योधन तथा द्रौपदी को बड़ी धूमधाम से नगर में ले आओ।’ तब पीछे से विदूर ने उन्हें बताया कि- द्रौपदी ने पाण्डवों का वरण किया है। वे सभी वीर राजा द्रुपद के द्वारा पूजित होकर वहाँ कुशलतापूर्वक रह रहे हैं। उसी स्वंयवर में उनके बहुत-से अन्य सम्बन्धी भी, जो भारी सैनिक शक्ति से सम्पन्न हैं, पाण्डवों से प्रेमपूर्वक मिल हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक23-31 का हिन्दी अनुवाद)
विदुर का यह कथन सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने अपनी बदली हुई आकृति को छिपाने के लिये कहा,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘अहोभाग्य! अहोभाग्य!’
धृतराष्ट्र (फिर) बोले ;- विदुर! यदि ऐसी बात है, यदि (वास्तव में) पाण्डव जीवित हैं, तो बड़े आनन्द की बात है, तुम्हारा कल्याण हो। अवश्य ही कुन्ती बड़ी साध्वी हैं। द्रुपद के साथ जो सम्बन्ध हुआ है, वह हमारे लिये अत्यन्त स्पृहणीय है। विदुर! राजा द्रुपद वसु के श्रेष्ठ और सम्मानिय कुल में उत्पन्न हुए है। व्रत, विद्या और तप-तीनों में बड़े-चढ़े हैं। राजाओं में तो वे अग्रगण्य हैं ही। उनके सभी पुत्र और पौत्र भी उत्तम व्रत का पालन करने वाले हैं। द्रुपद के अन्य बहुत-से सम्बन्धी भी अत्यन्त बलवान् हैं। विदुर! युधिष्ठिर आदि जैसे पाण्डु के पुत्र हैं, वैसी ही या उससे भी अधिक मेरे हैं। उनके प्रति मेरे मन में अधिक अपनापन का भाव क्यों है? यह बताता हूं, सुनो। वे वीर पाण्डव कुशलपूर्वक जीवित बच गये हैं और उन्हें मित्रों का सहयोग भी प्राप्त हो गया है। इतना ही नहीं, और भी बहुत-से महाबली नरेश उनके सम्बन्धी होते जा रहे हैं। विदुर! कौन ऐसा राजा है, जिनकी सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर बन्धु-बान्धवों सहित द्रुपद को मित्र के रुप में पाकर जीना नहीं चाहेगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसी बातें कहने वाले राजा धृतराष्ट्र से,,
विदुर (इस प्रकार) बोले ;- ‘महाराज! सौ वर्षों तक आपकी बुद्धि ऐसी ही बनी रहे।’ राजन्! इतना कहकर विदुर जी अपने घर चले गये। जनमेजय! तदनन्तर दुर्योधन और कर्ण ने धृतराष्ट्र के पास आकर यह बात कही,,
दुर्योधन बोला ;- ‘महाराज! विदुर के समीप हम आपसे आपका कोई दोष नहीं बता सकते। इस समय एकान्त है, इसलिये कहते हैं। आप यह क्या करना चाहते हैं? पूज्य पिता जी! आप तो शत्रुओं की उन्नती को ही अपनी उन्नति मानने लगे हैं और विदुर जी के निकट हमारे बैरियों की ही भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। निष्पाप नरेश! हमें करना तो कुछ और चाहिये, किंतु आप करते कुछ और (ही) हैं। तात! हमारे लिये तो यही उचित है कि हम सदा पाण्डवों की शक्ति का विनाश करते रहें। इस समय जैसा अवसर उपस्थित है, इसमें हमें क्या करना चाहिये- यही सोच विचारकर निश्चय करना है, जिससे वे पाण्डव पुत्र बान्धव तथा सेना सहित हमारा सर्वनाश न कर बैठे।’
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व में दुर्योधनविषयक एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व)
दौ सौ वाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"धृतराष्ट्र और दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय"
धृतराष्ट्र ने कहा ;- बेटा! मैं भी तो वही करना चाहता हूं, जैसा तुम दोनों चाहते हो; परंतु मैं अपनी आकृति से भी विदुर पर अपने मन का भाव प्रकट होने देना नहीं चाहता। इसीलिये विदुर के सामने विशेषत: पाण्डवों के गुणों का ही बखान करता हूं, जिससे वह इशारे से भी मेरे मनोभाव को न ताड़ सके। दुर्योधन और कर्ण! तुम दोनों समय के अनुसार जो कार्य करना आवश्यक समझते हो वह शीघ्र मुझे बताओ।
दुर्योधन बोला ;- पिताजी! आज अत्यन्त गुप्त रुप से कुछ ऐसे चतुर ब्राह्मणों को नियुक्त करना चाहिये, जिनके कार्यों पर हमारा पूर्ण विश्वास हो। हमें उनके द्वारा पाण्डवों में से कुन्ती और माद्री के पुत्रों में फूट डालने की चेष्टा करनी चाहिये। अथवा धन की बहुत बड़ी राशि देकर राजा द्रुपद, उनके पुत्र तथा मन्त्रियों को सर्वथा प्रलोभन में डालना चाहिये, जिससे पाञ्चालनरेश कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को त्याग दें- उन्हें अपने घर और नगर से निकाल दें। अथवा वे ब्राह्मण लोग पाण्डवों के मन में वहीं रहने की रुचि उत्पन्न करें। वे अलग-अलग इन सभी पाण्डवों से कहें कि हस्तिनापुर का निवास आप लोगों के लिये अत्यन्त हानिकारक होगा। इस प्रकार ब्राह्मणों द्वारा बुद्धि भेद उत्पन्न कर देने पर सम्भव है, पाण्डव लोग अपने मन में वहीं (पाञ्चाल देश में ही) रहने का निश्चय कर लें। अथवा कुछ ऐसे मनुष्य भेजे जायं, तो उपाय ढूंढ़ निकालने में चतुर तथा कार्यकुशल हों और प्रेमपूर्वक बातें करके कुन्तीपुत्रों में परस्पर फूट डाल दें। अथवा कृष्णा को ही इस प्रकार बहका दें कि वह अपने पतियों का परित्याग कर दे। अनेक पति होने के कारण (उसका किसी में भी सुदृढ़ अनुराग नहीं हो सकता; अत:) उनका परित्याग कराना सरल है।
अथवा वे लोग पाण्डवों को ही द्रौपदी की ओर से विलग कर दें और ऐसा होने पर द्रौपदी को उनकी ओर से विरक्त बना दें। अथवा राजन्! उपाय कुशल मनुष्य छिपे रहकर भीमसेन का ही वध कर डालें; क्योंकि वही पाण्डवों में सबसे अधिक बलवान् है। उसी का आश्रय लेकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर पहले से हमें कुछ नहीं समझते। वह बड़े तीखे स्वभाव का और शूरवीर है। वही पाण्डवों का सबसे बड़ा सहारा है। राजन्! उसके मारे जाने पर पाण्डवों का बल और उत्साह नष्ट हो जायगा। फिर वे राज्य लेने का प्रयत्न नहीं करेंगे। भीमसेन ही उनका सबसे बड़ा आश्रय है। भीमसेन को पृष्ठ रक्षक पाकर ही अर्जुन युद्ध में अजेय बने हुए हैं। यदि भीम न हों तो वे रणभूमि में कर्ण की एक चौथाई के बराबर भी नहीं हो सकेंगे। भीमसेन के बिना अपनी बहुत बड़ी दुर्लभता का अनुभव करके वे दुर्बल पाण्डव हमें अपने से बलवान जानकर राज्य लेने का प्रयत्न नहीं करेंगे। राजन्! अथवा यदि वे यहाँ आकर हमारी आज्ञा के अधीन होकर रहेंगे, तब हम नीतिशास्त्र के अनुसार उनके विनाश के कार्य में लग जायंगे। अथवा देखने में सुन्दर युवती स्त्रियों द्वारा एक-एक पाण्डव को लुभाया जाय और इस प्रकार कृष्णा का मन उनकी ओर से फेर दिया जाय।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 17-20 का हिन्दी अनुवाद)
अथवा पाण्डवों को यहाँ बुला लाने के लिये राधानन्दन कर्ण को भेजा जाय और यहाँ आकर विश्वसनीय कार्यकर्ताओं द्वारा विभिन्न उपायों से उन सबको मार गिराया जाय। पिताजी! इन उपायों में से जो भी आपको निर्दोष जान उसी से पहले काम लीजिये; क्योंकि समय बीता जा रहा है जब तक राजाओं में श्रेष्ठ द्रुपद पर उनका पूरा विश्वास नहीं बन जाता, तभी तक उन्हें मारा जा सकता है। पूरा विश्वास जम जाने पर तो उन्हें मारना असम्भव हो जायगा। पिता जी! शत्रुओं को वश में करने के लिये ये ही उपाय मेरी बुद्धि में आते हैं; मेरा यह विचार भला है या बुरा, यह आप जानें। अथवा कर्ण! तुम्हारी क्या राय है?
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व में दुर्योधनवाक्य विषयक दो सौवां अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें