सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
एक सौ इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"धृष्टद्युम्न का गुप्त रुप से वहाँ का सब हाल देखकर राजा द्रुपद के पास आना तथा द्रौपदी के विषय में द्रुपद का प्रश्न"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब कुरुनन्दन भीमसेन और अर्जुन कुम्हार के घर पर जा रहे थे, उसी समय पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न गुप्तरुप से उनके पीछे लग गये। उन्होंने चारों ओर अपने सेवकों को बैठा दिया और स्वयं ही अज्ञातरुप से कुम्हार के घर के पास ही छिपे रहे। सायंकाल होने पर शत्रुओं का मानमर्दन करने वाले भीमसेन, अर्जुन और महानुभाव नकुल-सहदेव ने भिक्षा लाकर युधिष्ठिर को निवदेन की। इन सबका अन्त:करण उदार था। तब उदारहृदया कुन्ती ने उस समय द्रौपदी से कहा,,
कुन्ती बोली ;- ‘भद्रे! तुम भोजन का प्रथम भाग लेकर उससे देवताओं को बलि अर्पण करो तथा ब्राह्मण को भिक्षा दो। तथा अपने आस-पास जो दूसरे मनुष्य आश्रितभाव से रहते और भोजन चाहते हैं, उन्हें भी अन्न परोसो। तदनन्तर जो शेष बच जाय, उसके शीघ्र ही इस प्रकार विभाग करो। अन्न का आधा भाग एक के लिये रखो, फिर शेष के छ: भाग करके चार भाइयों के लिये चार भाग अलग-अलग रख दो, उसके बाद मेरे लिये और अपने लिये भी एक-एक भाग पृथक-पृथक परोस दो। कल्याणी! ये जो गजराज के समान शरीर वाले हृष्ट-पुष्ट गोरे युवक बैठे हैं, इनका नाम भीम है, इन्हें अन्न का आधा भाग दे दो। वीरवर भीम सदा से ही अधिक भोजन करने वाले हैं। सास की आज्ञा में अपना कल्याण मानती हुई साध्वी राजकुमारी द्रौपदी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कुन्ती देवी ने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही किया। सबने उस अन्न का भोजन किया।
तदनन्तर वेगवान् वीर माद्रीकुमार सहदेव ने धरती पर कुश की शय्या बिछा दी। फिर समस्त पाण्डव वीर अपने-अपने मृगचर्म बिछाकर भूमि पर हो सोये। उन कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों के सिर दक्षिण दिशा की ओर थे। कुन्ती उनके मस्तक की ओर और द्रौपदी पैरों की ओर पृथ्वी पर ही पाण्डवों के साथ सोयी, मानो उन कुशासनों पर वह उनके पैरों की तकिया बन गयी। वहाँ उस परिस्थिति में रहकर भी मन में तनिक भी दु:ख नहीं हुआ और उससे उन कुरुश्रेष्ठ वीरों का किंचिन्मात्र भी तिरस्कार नहीं किया। वे शूरवीर पाण्डव वहाँ सेनापतियों के योग्य अद्भुत कथाएं कहने लगे। उन्होंने नाना प्रकार के दिव्यास्त्रों, रथों, हाथियों, तलवारों, गदाओं तथा फरसों के विषय में भी चर्चाएं की। उनकी कही हुई वे सभी बातें उस समय पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने सुनीं और उन सभी लोगों ने वहाँ सोयी हुई द्रौपदी को देखा। तदनन्तर राजकुमार धृष्टद्युम्न रात में पाण्डवों का इतिहास तथा उनकी कही हुई सारी बातें राजा द्रुपद को पूर्ण रुप से सुनाने के लिये बड़ी उतावली के साथ राजभवन में गये। पांचालराज द्रुपद पाण्डवों का पता न पाने के कारण बहुत खिन्न थे। धृष्टद्युम्न के आने पर महात्मा द्रुपद ने उससे पूछा,,
द्रुपद बोले ;- 'बेटा! मेरी पुत्री कृष्णा कहाँ गयी? कौन उसे ले गया? कहीं किसी शूद्र ने अथवा नीच जाति के पुरुष द्वारा ऊंची जाति की स्त्री से उत्पन्न मनुष्य ने या कर देने वाले वैश्य ने तो मेरी पुत्री को प्राप्त नहीं कर लिया? और इस प्रकार उन्होंने मेरे सिर पर अपना कीचड़ से सना पांव तो नहीं रख दिया? माला के समान सुकुमारी और हृदय पर धारण करने योग्य मेरी लाड़ली पुत्री श्मशान के समान अपवित्र किसी पुरुष के हाथ में तो नहीं पड़ गयी?
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-18 का हिन्दी अनुवाद)
क्या द्रौपदी को पाने वाला पुरुष अपने समान वर्ण (क्षत्रियकुल) का ही कोई श्रेष्ठ पुरुष है? अथवा वह अपने से भी श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल का है? बेटा! मेरी कृष्णा का स्पर्श कर किसी निम्नवर्ण वाले मनुष्य ने आज मेरे मस्तक पर अपना बांया पैर तो नहीं रख दिया? क्या ऐसा सौभाग्य होगा कि मैं नरश्रेष्ठ अर्जुन से द्रौपदी का विवाह करके अत्यन्त प्रसन्न होऊं और कभी भी संतप्त न हो सकूं?
महानुभाव पुत्र! ठीक-ठीक बताओ, आज जिसने मेरी पुत्री को जीता है, वह पुरुष कौन है? क्या कुरुकुल के श्रेष्ठ वीर विचित्रवीर्यकुमार पाण्डु के शूरवीर पुत्र अभी जीवित हैं? क्या आज कुन्ती के सबसे छोटे पुत्र अर्जुन ने ही उस धनुष को उठाया और लक्ष्य को मार गिराया था?’
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत स्वयंवर पर्व में धृष्टद्युम्न प्रत्यागमन विषयक एक सौ इक्यानबेवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
एक सौ बानबेवाँ अध्याय
"धृष्टद्युम्न के द्वारा द्रौपदी तथा पाण्डवों का हाल सुनकर राजा द्रुपद का उनके पास पुरोहित को भेजना तथा पुरोहित और युधिष्ठिर की बातचीत"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा द्रुपद के यों कहने पर सोमकशिरोमणी राजकुमार धृष्टद्युम्न अत्यन्त हर्ष में भरकर वहाँ जो वृत्तान्त हुआ था एवं जो कृष्णा को ले गया, वह कौन था, वह सब समाचार कहने लगे।
धृष्टद्युम्न बोले ;- महाराज! जिन विशाल एवं लाल नेत्रों वाले, कृष्णमृगचर्मधारी तथा देवता के समान मनोहर रुप वाले तरुण वीर ने श्रेष्ठ धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और लक्ष्य को वेध कर पृथ्वी पर गिराया था, वे किसी का भी साथ न करके अकेले ही बड़े वेग से आगे बढ़े। उस समय बहुत-से श्रेष्ठ ब्राह्मण उन्हें घेरे हुए थे और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। सम्पूर्ण देवताओं तथा ऋषियों से सेवित देवराज इन्द्र जैसे दैत्यों की सेना के भीतर नि:शंक होकर विचरते हैं, उसी प्रकार वे नवयुवक वीर निर्भीक होकर राजाओं के बीच से निकले। उस समय राजकुमारी कृष्णा अत्यन्त प्रसन्न हो उनका मृगचर्म थामकर ठीक उसी तरह उनके पीछे-पीछे जा रही थी, जैसे गजराज के पीछे हथिनी जा रही हो। यह देख लोग सहन न कर सके और क्रोध में भरकर युद्ध करने के लिये उस पर चारों ओर से टूट पड़े। तब एक दूसरा वीर बहुत बड़े वृक्ष को उखाड़कर राजाओं की उस मण्डली में कूद पड़ा और जैसे कोप में भरे यमराज समस्त प्राणियों का संहार करते हैं, उसी प्रकार वह उन नरेशों को मानो काल के गाल में भेजने लगा। नरेन्द्र! चन्द्रमा और सूर्य की भाँति प्रकाशित होने वाले वे दोनों नरश्रेष्ठ सब राजाओं के देखते-देखते द्रौपदी को साथ ले नगर से बाहर कुम्हार के घर में चले गये। उस घर में अग्निशिखा के समान तेजस्विनी एक स्त्री बैठी हुई थीं। मेरा अनुमान है कि उन वीरों की माता रही होगीं।
उनके आस-पास अग्नितुल्य तेजस्वी वैसे ही तीन श्रेष्ठ नरवीर और बैठे हुए थे। इन दोनों वीरों ने माता के चरणों में प्रणाम करके द्रौपदी से भी उन्हें प्रणाम करने के लिये कहा। प्रणाम करके वहीं खड़ी हुई कृष्णा को उन्होंने माता को सौंप दिया और स्वयं वे नरश्रेष्ठ वीर भिक्षा लाने के लिए चले गये। जब वे लौटे तब उनकी भिक्षा में मिले हुए अन्न को लेकर (उनकी माता के आज्ञानुसार) द्रौपदी ने देवताओं को बलि समर्पित की, ब्राह्मणों को दिया और उन वृद्धा स्त्री तथा उन प्रमुख नरवीरों को अलग-अलग भोजन परोसकर अन्त में स्वयं भी बचे हुए अन्न को खाया। राजन्! भोजन के बाद वे सब सो गये। कृष्णा उनके पैरों के समीप सोयी। धरती पर ही उनकी शय्या बिछी थी। नीचे कुश की चटाइयां थीं और ऊपर मृगचर्म बिछा हुआ था। सोते समय वे वर्षाकाल के मेघ के समान गम्भीर गर्जना करते हुए आपस में बड़ी विचित्र बातें करने लगे। वे पांचों वीर जो बातें कह रहे थे, वे वैश्यों, शुद्रों तथा ब्राह्मणों जैसी नहीं थीं। राजन्! जिस प्रकार वे युद्ध का वर्णन करते थे, उससे यह मान लेने में तनिक भी संदेह नहीं रह जाता कि वे लोग क्षत्रियशिरोमणी हैं। हमने सुना है; कुन्ती के पुत्र लाक्षागृह की आग में जलने से बच गये हैं। अत: हमारे मन में जो पाण्डवों से सम्बन्ध करने की अभिलाषा थी, अवश्य ही सफल हुई जान पड़ती है। जिस प्रकार उन्होंने धनुष पर बलपूर्वक प्रत्यञ्चा चढ़ायी, जिस तरह दुर्भेद्य लक्ष्य को बेध गिराया और जिस प्रकार वे सभी भाई आपस में बातें करते हैं, उससे यह निश्चय हो जाता है कि कुन्ती के पुत्र ही ब्राह्मणवेश में छिपे हुए विचर रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद)
जनमेजय! इस समाचार से राजा द्रुपद को बड़ी प्रसन्नता हुई, उन्होंने उसी समय अपने पुरोहित को भेजते हुए कहा,,
द्रुपद बोले ;- ‘आप उन लोगों से कहियेगा कि मैं आप लोगों का परिचय जानना चाहता हूँ। क्या आप लोग महात्मा पाण्डु के पुत्र हैं?’ राजा का अनुरोध मानकर पुरोहित जी गये और उन सबकी प्रशंसा करके राजा द्रुपद के वचनों को ठीक-ठीक एक के बाद एक करके क्रमश: कहने लगे।
पुरोहित बोले ;- ‘वरदान के योग्य वीर पुरुषों! वर देने में समर्थ पांचालदेश के राजा द्रुपद आप लोगों का परिचय जानना चाहते हैं। इन वीर पुरुष को लक्ष्यवेध करते देखकर उन्हें हर्ष की सीमा नहीं रह गयी है। आप लोग अपनी जाति और कुल आदि का यथावत् वर्णन करें, शत्रुओं के माथे पर पैर रखें और मेरे तथा अनुचरों-सहित पांचालराज के हृदय को आनन्द प्रदान करें। महाराज पाण्डु राजा द्रुपद के आत्मा के समान प्रिय मित्र थे। इसलिये उनकी यह अभिलाषा थी कि मैं अपनी इस पुत्री का विवाह पाण्डुकुमार से करुं। इसे राजा पाण्डु को पुत्र-वधू के रुप में समर्पित करुं। सर्वांग सुन्दर शूरवीरों! राजा द्रुपद के हृदय में नित्य निरन्तर यह कामना रही है कि मोटी एवं विशाल भुजाओं वाले अर्जुन मेरी इस पुत्री का धर्मपूर्वक पाणिग्रहण करें। उनका यह कहना है कि यदि मेरा यह मनोरथ पूर्ण हो जाय, तो मैं समझूंगा कि यह मेरे शुभ कर्मों का फल प्राप्त हुआ है। यही मेरे लिये यश, पुण्य और हित की यात होगी।’
जब विनयशील पुरोहित जी यह बात कह चुके, तब राजा युधिष्ठिर ने उनकी ओर देखकर पास बैठे हुए भीमसेन को यह आज्ञा दी कि इन्हें पाद्य और अर्ध्य समर्पित करो। ये महाराज द्रुपद के माननीय पुरोहित हैं। अत: इनका हमें विशेष आदर-सत्कार करना चाहिये’। जनमेजय! तब भीमसेन ने पाद्य, अर्ध्य निवदेन करके उनका विधिवत् पूजन किया। उनकी दी हुई पूजा को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करके पुरोहित जी जब बड़े सुख से आसन पर बैठ गये, तब राजा युधिष्ठिर ने उन ब्राह्मण देवता से इस प्रकार कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘ब्रह्मन्! पांचालराज द्रुपद ने यह कन्या अपनी इच्छा-से नहीं दी है, उन्होंने अपने धर्म के अनुसार लक्ष्यवेध की शर्त करके अपनी कन्या देने का निश्चय किया था। उस वीर पुरुष ने उसी शर्त को पूर्ण करके यह कन्या प्राप्त की है।
राजा ने वहाँ वर्ण, शील, कुल और गोत्र के विषय में कोई अभिप्राय नहीं व्यक्त किया था। धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर लक्ष्यवेध कर देने पर ही कन्यादान की घोषणा की थी। इस महात्मा वीर ने उसी घोषणा के अनुसार राजाओं की मण्डली में राजकुमारी कृष्णा पर विजय पायी है। ऐसी दशा में सोमकवंशी राजा द्रुपद अब सुख का अभाव करने वाला संताप नहीं करना चाहिये। ब्राह्मण! राजा द्रुपद की जो पहले की अभिलाषा है, वह भी पूरी होगी। इस राजकन्या को हम सर्वथा ग्रहण करने योग्य एवं उत्तम मानते हैं। कोई बलहीन पुरुष उस विशाल धनुष पर प्रत्यञ्चा नहीं चढ़ा सकता था। जिसने अस्त्रविद्या की पूर्ण शिक्षा न पायी हो, पुरुष के अथवा किसी नीच कुल के मनुष्य के लिये भी उस लक्ष्य को गिराना असम्भव था। अत: पांचालराज को अब अपनी पुत्री के लिये पश्चात्ताप करना उचित नहीं है। इस पृथ्वी पर उन वीर के सिवा ऐसा कोई मनुष्य नहीं हैं, जो उस लक्ष्य को वेध सके’। राजा युधिष्ठिर यों कह ही रहे थे कि पांचालराज द्रुपद के पास से एक दूसरा मनुष्य यह समाचार देने के लिये शीघ्रतापूर्वक आया कि ‘राजभवन में आप लोगों के लिये भोजन तैयार है।’
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत वैवाहिक पर्व में पुरोहित युधिष्ठिर संवाद विषयक एक सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद के घर में जाकर सम्मानित होना और राजा द्रुपद द्वारा पाण्डवों के शील स्वभाव की परीक्षा"
दूत बोला ;- महाराज द्रुपद ने विवाह के निमित्त बरातियों को जिमाने के लिये उत्तम भोजन सामग्री तैयार करायी है। अत: आप लोग सम्पूर्ण दैनिक कार्यों से निवृत हो उसे पायें। राजकुमारी कृष्णा को भी विवाह विधि से वहीं प्राप्त करें। इसमें विलम्ब नहीं करना चाहिये। ये सुवर्णमय कमलों से सुशोभित तथा राजाओं की सवारी के योग्य विचित्र रथ खड़े हैं, इनमें उत्तम घोड़े जुते हुए हैं, इन पर सवार हो आप सब लोग महाराज द्रुपद के महल में पधारें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वहाँ वे सभी कुरुश्रेष्ठ पाण्डव पुरोहित जी को विदा करके उन विशाल रथों पर आरुढ़ हो (राजभवन की ओर) चले। उस समय कुन्ती और कृष्णा एक साथ एक ही सवारी पर बैठी हुई थी। भारत! उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने जो बातें कही थीं, उन्हें पुरोहित मुख से सुनकर उन कुरुश्रेष्ठ वीरों के शीलस्वभाव की परीक्षा के लिये द्रुपद ने अनेक प्रकार की वस्तुओं का संग्रह किया। राजन्! (सब प्रकार के) फल, सुन्दर ढंग से बनायी हुई मालाएं, कवच, ढाल, आसन, गौएं, रस्सियां, बीज एवं खेती के अन्य सामान तथा अन्य कारीगरियों के सब सामान पूर्णरुप से वहाँ संगृहित किये गये थे। इसके सिवा, खेल के लिये जो आवश्यक वस्तुएं होती हैं, उन सबको राजा द्रुपद ने वहाँ जुटाकर रखा था। दूसरी ओर कवच, चमकती हुई ढालें, तलवारें, बड़े-बड़े विचित्र घोड़े तथा रथ, श्रेष्ठ धनुष, विचित्र बाण सुवर्ण-भूषित शक्तियां एवं ॠष्टियां, प्रास, भुशुण्डियां, फरसे तथा सब प्रकार की युद्धसामग्री, उत्तम वस्तुओं से युक्त शय्या-आसन और नाना प्रकार के वस्त्र भी वहाँ संग्रह करके रखे गये थे।
कुन्ती देवी सती साध्वी कृष्णा को साथ ले द्रुपद के रनिवास में गयीं। वहाँ की उदार हृदया स्त्रियों ने कौरवराज पाण्डु की धर्मपत्नी का (बड़ा) आदर-सत्कार किया। राजन्! पाण्डवों की चाल-ढाल सिंह के समान पराक्रमसूचक थी, उनकी आंखें सांड़ के समान बड़ी-बड़ी थीं, उन्होंने काले मृगचर्म के ही दुपट्टे ओढ़ रखे थे, उनकी हंसली की हड्डियां मांस से छिपी हुई थीं और भुजाएं नागराज के शरीर के समान मोटी एवं विशाल थीं। उन पुरुषसिंह पाण्डवों को देखकर राजा द्रुपद, उनके सभी पुत्र, मन्त्री, इष्ट मित्र और समस्त नौकर चाकर ये सब के सब वहाँ बड़े ही प्रसन्न हुए। वे नरश्रेष्ठ वीर पाण्डव वहाँ लगे हुए पादपों सहित बहुमूल्य श्रेष्ठ सिंहासनों पर बिना किसी हिचक या संकोच के मन में तनिक भी विस्मय न करते हुए बड़े-छोटे के क्रम से जा बैठे। तब स्वच्छ और सुन्दर पोशाक पहिने हुए दास-दासी तथा रसोइयों ने सोने-चांदी के बरतनों में राजाओं के भोजन करने योग्य अनेक प्रकार की सामान्य और विशेष भोजन सामग्री लाकर परोसी। मनुष्यों ने श्रेष्ठ पाण्डव वहाँ अपनी रुचि के अनुसार उन सब वस्तुओं को खाकर बहुत अधिक प्रसन्न हुए। राजन्! (तदनन्तर वहाँ संग्रह की हुई अन्य) सब वैभव भोग की सामग्रियों को छोड़कर वे वीर पहले उसी स्थान पर गये, जहाँ युद्ध की सामग्रियां रखी गयी थीं। जनमेजय! यह सब देखकर राजा द्रुपद, राजकुमार और सभी प्रधानमन्त्री बड़े प्रसन्न हुए और उनके पास जाकर उन्होंने अपने मन में यही निश्चय किया कि ये राजकुमार कुन्ती देवी के ही पुत्र हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत वैवाहिक पर्व में युधिष्ठिर आदि की परीक्षा विषयक एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
एक सौ चौरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्नवत्सधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रुपद और युधिष्ठिर की बातचीत तथा व्यास जी का आगमन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर महातेजस्वी, उदारचित्त पांचालराज द्रुपद ने अत्यन्त कान्तिमान कुन्तीपुत्र राजकुमार युधिष्ठिर को (अपने पास) बुलाकर ब्राह्मणोचित आतिथ्य-सत्कार के द्वारा उन्हें अपनाकर पूछा,,
द्रुपद बोले ;- ‘हमें कैसे ज्ञात हो कि आप लोग किस वर्ण के हैं? हम आपको क्षत्रिय, ब्राह्मण, गुणसम्पन्न वैश्य अथवा शुद्र क्या समझें? अथवा माया का आश्रय लेकर ब्राह्मणरुप से सब दिशाओं में विचरने वाले आप लोगों को हम कोई देवता मानें? जान पड़ता है, आप कृष्णा को पाने के लिये यहाँ दर्शक बनकर आये हुए देवता ही हैं। आप सच्ची बात हमें बता दें; क्योंकि आपके विषय में हमको बड़ा संदेह हो रहा है। परंतप! आपसे रहस्य की बात सुनकर क्या हमारे इस संशय का नाश और मन को संतोष होगा और क्या हमारा भाग्य उदय होगा? आप स्वेच्छा से ही सच्ची बात बतायें, राजाओं में इष्ट और पूर्त की अपेक्षा सत्य की ही अधिक महीमा है; अत: असत्य नहीं बोलना चाहिये। देवताओं के समान तेजस्वी शत्रुसूदन! मैं आपकी बात सुनकर निश्चय ही विधिपूर्वक विवाह की तैयारी करुंगा।
युधिष्ठिर बोले ;- पांचालराज! आप उदास न हों, आपको प्रसन्न होना चाहिये। आपके मन में जो अभीष्ट कामना थी, वह निश्चय ही आज पूरी हुई है, इसमें संशय नहीं है। राजन्! हम लोग क्षत्रिय ही हैं, महात्मा पाण्डु के पुत्र हैं। मुझे कुन्ती का पुत्र समझिये, वे दोनों भीमसेन और अर्जुन हैं। राजन्! इन्हीं दोनों ने समस्त राजाओं के समूह में आपकी पुत्री को जीता है। उधर वे दोनों नकुल और सहदेव हैं। माता कुन्ती वहाँ गयी हैं, जहाँ राजकुमारी कृष्णा है। नरश्रेष्ठ! अब आपकी मानसिक चिन्ता निकल जानी चाहिये। हम सब लोग क्षत्रिय ही हैं। आपकी यह पुत्री कृष्णा कमलिनी की भाँति एक सरोवर से दूसरे सरोवर को प्राप्त हुई है। महाराज! यह सब मैं आपसे सच्ची बात कह रहा हूँ। आप हमारे बड़े तथा परम आश्रय हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर की ये बातें सुनकर महाराज द्रुपद की आंखों में हर्ष के आंसू छलक आये। वे आनन्द मग्न हो गये और (गला भर आने के कारण) उन युधिष्ठिर को तत्काल (कुछ) उत्तर न दे सके। शुत्रुसूदन द्रुपद ने (बड़े) यत्न से अपने (हर्ष के आवेश) को रोका और युधिष्ठिर को उनके कथन के अनुरुप ही उत्तर दिया। फिर उन धर्मात्मा पांचाल नरेश ने यह पूछा कि ‘आप लोग वारणागत नगर से किस प्रकार निकले?’ पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर वे सारी बातें उन्हें क्रमश: कह सुनायी।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्नवत्सधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद)
कुन्तीकुमार के मुख से वह सारा समाचार सुनकर वक्ताओं में श्रेष्ठ महाराज द्रुपद ने उस समय राजा युधिष्ठिर को आश्वासन दिया। साथ ही उन्होंने यह प्रतिज्ञा भी कि ‘हम तुम्हें तुम्हारा राज्य दिलवाकर रहेंगे’। राजन्! तत्पश्चात् कुन्ती, कृष्णा, युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव राजा द्रुपद के द्वारा निर्दिष्ट किये हुए विशाल भवन में गये और यज्ञसेन (द्रुपद) से सम्मानित हो वहीं रहने लगे। इस प्रकार विश्वास जम जाने पर महाराज द्रुपद ने अपने पुत्रों के साथ जाकर युधिष्ठिर से कहा,,
द्रुपद बोले ;- ‘ये कुरुकुल को आनन्दित करने वाला महाबाहु अर्जुन आज के पुण्यमय दिवस में मेरी पुत्री का विधिपूर्वक पाणिग्रहण करें और (अपने कुलोचित) मंगलाचार का पालन प्रारम्भ कर दें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जब धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘राजन्! विवाह तो मेरा भी करना होगा’।
द्रुपद बोले ;- वीर! तब आप ही विधिपूर्वक मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करें अथवा आप अपने भाइयों में से जिसके साथ आप चाहें, उसी के साथ कृष्णा को विवाह की आज्ञा दे दें।
युधिष्ठिर ने कहा ;- राजन्! द्रौपदी तो हम सभी भाइयों की पटरानी होगी। मेरी माता ने पहले हम सब लोगों को ऐसी ही आज्ञा दे रखी है। मैं तथा पाण्डव भीमसेन भी अभी तक अविवाहित हैं और आपकी इस रत्नस्वरुपा कन्या को अर्जुन ने जीता है। महाराज! हम लोगों में यह शर्त हो चुकी है कि रत्न को हम सब लोग बांटकर एक साथ उपभोग करेंगे। नृपशिरोमणे! हम अपनी उस (पुरानी) शर्त को छोड़ना या तोड़ना (नहीं चाहते)। अत: कृष्णा धर्म के अनुसार हम सभी की महारानी होगी। इसलिये वह प्रज्वलित अग्नि के सामने क्रमश: हम सबका पाणिग्रहण करे।
द्रुपद बोले ;- ‘कुरुनन्दन! एक राजा की बहुत-सी रानियां (अथवा एक पुरुष की अनेक स्त्रियां) हों, ऐसा विधान तो वेदों में देखा गया है; परंतु एक स्त्री के अनेक पुरुष पति हों; ऐसा कहीं सुनने में नहीं आया है। तुम धर्म के ज्ञाता और पवित्र हो, अत: तुम्हें लोक और वेद के विरुद्ध यह अधर्म नहीं करना चाहिये। तुम कुन्ती के पुत्र हो; तुम्हारी बुद्धि ऐसी क्यों हो रही है?
युधिष्ठिर ने कहा ;- महाराज! धर्म का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, हम उसकी गति को नहीं जानते। पूर्वकाल के प्रचेता आदि जिस मार्ग से गये हैं, उसी का हम लोग क्रमश: अनुसरण करते हैं। मेरी वाणी कभी झूठ नहीं बोलती और मेरी बुद्धि भी कभी अधर्म में नहीं लगती। हमारी माता ने हमें ऐसा ही करने की आज्ञा दी है और मेरे मन में भी यही ठीक जंचा है। राजन्! यह अटल धर्म है। आप बिना किसी सोच विचार के इसका पालन करें। पृथ्वीपते! आपको इस विषय में किसी प्रकार की आंशका नहीं होनी चाहिये।
द्रुपद बोले ;- कुन्तीनन्दन! तुम, कुन्ती देवी और मेरा पुत्र धृष्टद्युम्न –ये सब लोग मिलकर यह निश्चय करके बतायें कि क्या करना चाहिये? उसे ही कल ठीक समय पर हम लोग करेंगे।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! तदनन्तर वे सब लोग मिलकर इस विषय में सलाह करने लगे। राजन्! इसी समय भगवान् वेदव्यास वहाँ अकस्मात् आ पहुँचे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के वैवाहिक पर्व में वेदव्यास के आगमन से सम्बन्ध रखने वाला एक सौ चौरानबेवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
एक सौ पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"व्यास जी के सामने द्रौपदी का पांच पुरुषों से विवाह होने के विषय में द्रुपद, धृष्टद्युम्न और युधिष्ठिर का अपने-अपने विचार व्यक्त करना"
वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! तदनन्तर वे पाण्डव तथा महायशस्वी पांचालराज द्रुपद –सबने खड़े होकर महात्मा श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी को प्रणाम किया।। उनके द्वारा की हुई पूजा को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करके अन्त में सबसे कुशल-मंगल पूछकर महामना व्यास जी शुद्ध सुवर्णमय आसन पर विराजमान हुए। फिर अमित-तेजस्वी व्यास जी की आज्ञा पाकर वे सभी नरश्रेष्ठ बहुमुल्य आसनों पर बैठे। राजन्! तदनन्तर दो घड़ी के बाद राजा द्रुपद ने मीठी वाणी बोलकर महात्मा व्यास जी से द्रौपदी के विषय में पूछा,,
व्यास जी बोले ;- ‘भगवन्! एक ही स्त्री बहुत-से पुरुषों की धर्मपत्नी कैसे हो सकती है? जिससे संकरता का दोष न लगे, यह सब आप ठीक-ठीक बतावें।’
व्यास जी ने कहा ;- अत्यन्त गहन होने के कारण शास्त्रीय आवरण के द्वारा ढके हुए अतएव इस लोक वेद विरुद्ध धर्म के सम्बन्ध में तुममें से जिसका-जिसका जो-जो मत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ।
द्रुपद बोले ;- द्विजश्रेष्ठ! मेरी राय में तो यह अधर्म ही है; क्योंकि यह लोक और वेद दोनों के विरुद्ध है। बहुत-से पुरुषों की एक ही पत्नी हो, ऐसा व्यवहार कहीं भी नहीं है। पूर्ववर्ती महात्मा पुरुषों ने भी ऐसे धर्म का आचरण नहीं किया है; और विद्वान पुरुषों को किसी प्रकार भी अधर्म का आचरण नहीं करना चाहिये। इसलिये मैं इस धर्मविरोधी आचार को काम में नहीं लाना चाहता। मुझे तो इस कार्य के धर्मसंगत होने में सदा ही संदेह जान पड़ता है।
धृष्टद्युम्न बोले ;- द्विजश्रेष्ठ! आप ब्राह्मण हैं, तपोधन हैं, आप ही बताइये बड़ा भाई सदाचारी होते हुए भी अपने छोटे भाई की स्त्री के साथ समागम कैसे कर सकता है? धर्म का स्वरुप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण हम उसकी गति को सर्वथा नहीं जानते; अत: यह कार्य अधर्म है या धर्म, इसका निश्चय करना हम-जैसे लोगों के लिये असम्भव है, ब्रह्मन्! इसीलिये हम किसी तरह भी ऐसी सम्मति नहीं दे सकते कि राजकुमारी कृष्णा पांच पुरुषों की धर्मपत्नी हो।
युधिष्ठिर ने कहा ;- मेरी वाणी कभी झूठ नहीं बोलती और मेरी बुद्धि भी कभी अधर्म में नहीं लगती; परंतु इस विवाह में मेरे मन की प्रवृति हो रही है, इसलिये यह किसी प्रकार भी अधर्म नहीं है। पुराणों में भी सुना जाता है कि धर्मात्माओं में श्रेष्ठ जटिला नाम वाली गौतम गौत्र की कन्या ने सात ऋषियों के साथ विवाह किया था। इसी प्रकार कण्डु मुनि की पुत्री वाक्षी ने तपस्या से पवित्र अन्त:करण वाले दस प्रचेताओं के साथ, जिनका एक ही नाम था और जो आपस में भाई-भाई थे, विवाह सम्बन्ध स्थापित किया था। धर्मज्ञों में श्रेष्ठ व्यास जी! गुरुजनों की आज्ञा को धर्मसंगत बताया गया है और समस्त गुरुओं में माता परमगुरु मानी गयी है। हमारी माता ने भी यही बात कही है कि तुम सब लोग भिक्षा की भाँति इसका उपभोग करो; अत: द्विजश्रेष्ठ! हम पांचों भाइयों के साथ होने वाले इस विवाहसम्बन्ध को परमधर्म मानते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-23 का हिन्दी अनुवाद)
कुन्ती ने कहा ;- धर्म का आचरण करने वाले युधिष्ठिर ने जैसा कहा है, वह ठीक है। (अवश्य मैंने द्रौपदी के साथ पांचों भाइयों के विवाहसम्बन्ध की आज्ञा दे दी है।) मुझे झूठ से बहुत भय लगता है; बताइये, मैं झूठ के पाप से कैसे बच सकूंगी?
व्यास जी बोले ;- भद्रे! तुम झूठ से बच जाओगी। (पाण्डवों के लिये) यह सनातन धर्म है। (कुन्ती से यों कहकर वे द्रुपद से बोले) पांचालराज! (इस विवाह में एक रहस्य है, जिसे) मैं सबके सामने नहीं कहूंगा। तुम स्वयं एकान्त में चलकर मुझसे सुन लो। जिस प्रकार और जिस कारण से यह सनातन धर्म के अनुकूल कहा गया है और कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने जिस प्रकार इसकी धर्मानुकूलता का प्रतिपादन किया है, उस पर विचार करने से निस्संदेह यही सिद्ध होता है कि यह विवाह धर्मसम्मत है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर शक्तिशाली द्वैपायन भगवान् व्यास जी अपने आसन से उठे और राजा द्रुपद का हाथ पकड़कर राजभवन के भीतर चले गये। पांचों पाण्डव, कुन्ती देवी तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न –ये सब लोग वहाँ बैठे थे, वहीं उन दोनों (व्यास और द्रुपद) की प्रतीक्षा करने लगे। तदनन्तर व्यास जी ने उन महात्मा नरेश को वह कथा सुनायी, जिसके अनुसार वहाँ बहुत-से पुरुषों का एक ही पत्नी से विवाह करना धर्मसम्मत माना गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत वैवाहिक पर्व में व्यास-वाक्यविषयक एक सौ पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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