सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के एक सौ छियासीवें अध्याय से एक सौ नब्बेवें अध्याय तक (from the 186 chapter to the 190 chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)

एक सौ छियासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"राजाओं का लक्ष्‍यवेध के लिये उद्योग और असफल होना"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ये सब नवयुवक राजा अनेक आभूषणों से विभूषित हो कानों में कुण्‍डल पहने और परस्‍पर लाग- डांट रखते हुए हाथों में अस्‍त्र-शस्‍त्र लिये अपने-अपने आसनों से उठने लगे। उन्‍हें अपने में ही सबसे अस्‍त्रविद्या और बल के होने का अभिमान था; सभी को अपने रुप, पराक्रम, कुल, शील, धन और जवानी का बड़ा घमंड था। वे सभी मस्‍तक से वेगपूर्वक मद की धारा बहाने वाले हिमाचल प्रदेश के गजराजों की भाँति उन्‍मत्‍त हो रहे थे। वे एक दूसरे को बड़ी स्‍पर्धा से देख रहे थे। उनके सभी अंगों के कामोन्‍माद व्‍याप्‍त हो रहा था। 'कृष्णा तो मेरी ही होने वाली है’ यह कहते हुए वे अपने राजोचित आसनों से सहसा उठकर खड़े हो गये। द्रुपदकुमारी को पाने की इच्‍छा से रंगमण्‍डप में एकत्र हुए वे क्षत्रियनरेश गिरिराजनन्दिनी उमा के विवाह में इकट्ठे हुए देवताओं की भाँति शोभा पा रहे थे। कामदेव के बाणों की चोट से उनके सभी अंगों में निरन्‍तर पीड़ा हो रही थी। उनका मन द्रौपदी में ही लगा हुआ था। द्रुपदकुमारी को पाने के लिये रंग भूमि में उतरे हुए वे सभी नरेश वहाँ अपने सुहद् राजाओं से भी ईर्ष्‍या करने लगे। इसी समय रुद्र, आदित्‍य, वसु, अश्विनीकुमार, समस्‍त साध्‍यगण तथा मरुद्गण यमराज और कुबेर को आगे करके अपने-अपने विमानों पर बैठकर वहाँ आये।

   दैत्‍य, सुपर्ण, नाग, देवर्षि, गुह्यक, चारण त‍था विश्वावसु, नारद और पर्वत आदि प्रधान-प्रधान गन्‍धर्व भी अप्‍सराओं को साथ लिये सहसा आ‍काश में उपस्थित हो गये। (अन्‍य राजा लोग द्रौपदी की प्राप्ति के लिये लक्ष्‍य बेधने के विचार में पड़े थे, किंतु) भगवान् श्रीकृष्‍ण की सम्‍मति के अनुसार चलने वाले महान् यदुश्रेष्ठ, जिनमें बलराम और श्रीकृष्‍ण आदि वृष्णि और अन्‍धक वंश के प्रमुख व्‍यक्ति वहाँ उपस्थित थे, चुपचाप अपनी जगह पर बैठे-बैठे देख रहे थे। यदुवंशी वीरों के प्रधान नेता श्रीकृष्‍ण ने लक्ष्‍मी के सम्‍मुख विराजमान गजराजों तथा राख में छिपी हुई आग के समान मतवाले हाथी-की-सी आकृति वाले पाण्‍डवों को, जो अपने सब अंगों में भस्‍म लपेटे हुए थे, देखकर (तुरंत) पहचान लिया। 

और बलरामजी से धीरे-धीरे कहा ;- 'भैया! वह देखिये, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और दोनों जुड़वे वीर नकुल-सहदेव उधर बैठे हैं।’ बलराम जी ने उन्‍हें देखकर अत्‍यन्‍त प्रसन्‍नचित्त हो भगवान् श्रीकृष्‍ण को ओर दृष्टिपात किया। दूसरे-दूसरे वीर राजा, राजकुमार एवं राजाओं के पौत्र अपने नेत्रों, मन और स्‍वभाव को द्रौपदी की ओर लगाकर उसी को देख रहे थे, अत: पाण्‍डवों की ओर उनकी दृष्टि नहीं गयी। वे जोश में आकर दांतों से ओठ चबा रहे थे और रोष से उनकी आंखें लाल हो रही थी।

इसी प्रकार वे महाबाहु कुन्‍तीपुत्र तथा दोनों महानुभाव वीर नकुल-सहदेव सब-के-सब द्रौपदी को देखकर तुरंत कामदेव के बाणों से घायल हो गये। राजन्! उस समय वहाँ का आकाश देवर्षियों तथा गन्‍धर्वों से खचाखच भरा था। सुपर्ण, नाग, असुर और सिद्धों का समुदाय वहाँ जुट गया था। सब और दिव्‍य सुगन्‍ध व्‍याप्‍त हो रही थी और दिव्‍य पुष्‍पों की वर्षा की जा रही थी। बृहत शब्‍द करने वाली दुन्‍दुभियों के नाद से सारा अन्‍तरिक्ष गूंज उठा था। चारों ओर का आकाश विमानों से ठसाठस भरा था और वहाँ बांसुरी, वीणा तथा ढोल की मधुर ध्‍वनि हो रही थी। तदनन्‍तर वे नृपतिगण द्रौपदी के लिये क्रमश: अपना पराक्रम प्रकट करने लगे। कर्ण, दुर्योधन, शाल्‍व, शल्‍य, अश्‍वत्‍थामा, क्राथ, मुनीथ, वक्र, कलिंगराज, वंगनरेश, पाण्‍ड्यनरेश, पौण्‍ड्र देश के अधिपति, विदेह के राजा, यवनदेश के अधिपति तथा अन्‍यान्‍य अनेक राष्ट्रों के स्‍वामी, बहुतेरे राजा, राजपुत्र तथा राजपौत्र, जिनके नेत्र प्रफुल्‍ल कमलपत्र के समान शोभा पा रहे थे, जिनके विभिन्‍न अंगों में किरीट, हार, अंगद (बाजूबंद) तथा कड़े आदि आभूषण शोभा दे रहे थे तथा जिनकी भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं, वे सब-के-सब पराक्रमी और धैर्य से युक्‍त हो अपने बल और शक्ति पर गर्जते हुए क्रमश: उस धनुष पर अपना बल दिखाने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद)

परंतु वे उस सुदृढ़ धनुष पर हाथ से कौन कहे, मन से भी प्रत्‍यञ्चा न चढ़ा सके। अपने बल, शिक्षा और गुण के अनुसार उस पर जोर लगाते समय वे सभी नरेन्‍द्र उस सुदृढ़ एवं चमचमाते हुए धनुष के झटके से दूर फेंक दिये जाते और लड़खड़ाकर धरती पर जा गिरते थे। फिर तो उनका उत्‍साह समाप्‍त हो जाता, किरीट और हार खिसककर गिर जाते और वे लंबी सांसें खींचते हुए शान्‍त होकर बैठ जाते थे। उस सुदृढ़ धनुष के झटके से जिनके हार, बाजूबंद और कड़े आदि आभूषण दूर जा गिरे थे, वे नरेश उस समय द्रौपदी को पाने की आशा छोड़कर अत्‍यन्‍त व्‍यथित हो हाहाकार कर उठे। उन सब राजाओं की यह अवस्‍था देख धनुर्धारियों में श्रेष्‍ठ कर्ण उस धनुष के पास गया और तुरंत ही उसे उठाकर उस पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ा दी और शीघ्र ही उस धनुष पर वे पांचों बाण जोड़ दिये। अग्रि, चन्‍द्रमा और सूर्य से भी अधिक तेजस्‍वी सूर्य-पुत्र कर्ण द्रौपदी के प्रति आसक्‍त होने के कारण जब लक्ष्‍य भेदने की प्रति‍ज्ञा करके उठा, तब उसे देखकर महाधनुर्धर पाण्‍डवों ने यह विश्‍वास कर लिया कि अब यह इस उत्‍तम लक्ष्‍य को भेदकर पृथ्‍वी पर गिरा देगा। कर्ण को देखकर द्रौपदी ने उच्‍च स्‍वर से यह बात कही,

   द्रोपदी बोली ;- ‘मैं सूत जाति के पुरुष का वरण नहीं करुंगी।’ यह सुनकर कर्ण ने अमर्षयुक्‍त हंसी के साथ सूर्य की ओर देखा और उस प्रकाशमान धनुष को डाल दिया। इस प्रकार जब वे सभी क्षत्रिय सब ओर से हट गये, तब यमराज के समान बलवान्, धीर, वीर, चेदिराज दमघोषपुत्र महाबुद्धिमान् शिशुपाल धनुष उठाने के लिये चला। परंतु उस पर हाथ लगाते ही वह घुटनों के बल पृथ्‍वी-पर गिर पड़ा। तदनन्‍तर महापराक्रमी एवं महाबली राजा जरासंध धनुष-के निकट आकर पर्वत की भाँति अवि‍चलभाव से खड़ा हो गया। परंतु उठाते समय धनुष का झटका खाकर वह भी घुटने के बल गिर पड़ा। तब वहाँ से उठकर राजा जरासंध अपने राज्‍य को चला गया। तत्‍पश्‍चात् महावीर एवं महाबली मद्रराज शल्‍य आये। पर उन्‍होंने भी उस धनुष को चढ़ाते समय धरती पर घुटने टेक दिये।

  तदनन्‍तर शत्रुओं का संताप देने वाले धृतराष्‍ट्र पुत्र महाबली राजा दुर्योधन सहसा अपने भाइयों के बीच से उठकर खड़ा हो गया। उनके अस्‍त्र-शस्‍त्र बड़े मजबूत थे। वह स्‍वाभिमानी होने के साथ ही समस्‍त राजोचित लक्षणों से सम्‍पन्‍न था। द्रौपदी को देखकर उसका हृदय हर्ष से खिल उठा और वह शीघ्रतापूर्वक धनुष के पास आया। उस धनुष को हाथ में लेकर वह चापधारी इन्‍द्र के समान शोभा पाने लगा। राजा दुर्योधन उस मजबूत धनुष पर जब प्रत्‍यञ्चा चढ़ाने लगा, उस समय उसके अंगुलियों के बीच में झटके से ऐसी चोट लगी कि वह चित्‍त लोट गया। धनुष की चोट खाकर दुर्योधन अत्‍यन्‍त लज्जित होता हुआ-सा अपने स्‍थान पर लौट गया। (जब इस प्रकार बड़े-बड़े़ प्रभावशाली राजा लक्ष्‍यवेध न कर सके, तब) सारा समाज सम्‍भ्रम (घबराहट) में पड़ गया और लक्ष्‍यवेध की बातचीत तक बंद हो गयी, उसी समय प्रमुख वीर कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन ने उस धनुष पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ाकर उस पर बाण-संधान करने की अभिलाषा की। यह देख देवता और दानवों के आदरणीय, वृष्णिवंश के प्रमुख वीर उदारबुद्धि भगवान् श्रीकृष्‍ण बलराम जी के साथ उनका हाथ दबाते हुए बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍हें यह विश्‍वास हो गया कि द्रौपदी अब पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के हाथ में आ गयी। पाण्‍डवों ने अपना रुप छिपा रखा था, अत: दूसरे कोई राजा या प्रमुख वीर उन्‍हें पहचान न सके।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत स्‍वयंवर पर्व में सम्‍पूर्ण राजाओं के विमुख होने से सम्‍बन्‍ध रखने वाला एक सौ छियासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)

एक सौ सतासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्‍ताशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन का लक्ष्‍य वेध करके द्रौपदी को प्राप्‍त करना"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब सब राजाओं ने उस धनुष पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ाने के कार्य से मुंह मोड़ लिया, तब उदारबुद्धि अर्जुन ब्राह्मणमण्‍डली के बीच से उठकर खड़े हुए। इन्‍द्र की ध्‍वजा के समान (लम्‍बे) अर्जुन को उठकर धनुष की ओर जाते देख बड़े-बड़े ब्राह्मण अपने-अपने मृग-चर्म हिलाते हुए जोर-जोर से कोलाहल करने लगे। कुछ ब्राह्मण उदास हो गये और कुछ प्रसन्‍नता के मारे फूल उठे और कुछ चतुर एवं बुद्धिजीवी ब्राह्मण आपस में इस प्रकार कहने लगे- ‘ब्राह्मणों! कर्ण और शल्‍य आदि बलवान्, धनुर्वेद परायण तथा लोक विख्‍यात क्षत्रिय जिसे झुका (तक) न सके, उसी धनुष पर अस्‍त्र ज्ञान से शून्‍य और शारीरिक बल की दृष्टि से अत्‍यन्‍त दुर्बल यह निरा ब्राह्मण-बालक कैसे प्रत्‍यञ्चा चढ़ा सकेगा। इसने बालोचित चपलता के कारण इस कार्य की कठिनाई पर विचार नहीं किया है। यदि‍ इसमें यह सफल न हुआ तो समस्‍त राजाओं में ब्राह्मणों की बड़ी हंसी होगी। यदि वह अभिमान, हर्ष अ‍थवा ब्राह्मणसुलभ चंचलता के कारण धनुष पर डोरी चढ़ाने के लिये आगे बढ़ा है तो इसे रोक देना चाहिये; अच्‍छा तो यही होगा कि यह जाय ही नहीं।’ 

ब्राह्मण बोले ;- (भाइयों!) हमारी हंसी नहीं होगी। न हमें किसी के सामने छोटा ही बनना पड़ेगा और लोक में हम लोग राजाओं के द्वेषपात्र भी नहीं होगे। (अत: इन बातों की चिन्‍ता छोड़ दो)।

कुछ ब्राह्मणों ने कहा ;- ‘यह सुन्‍दर युवक नागराज ऐरावत के शुण्‍ड-दण्‍ड के समान हृष्‍ट-पुष्‍ट दिखायी देता है। इसके कंधे सुपुष्‍ट और भुजाएं बड़ी-बड़ी हैं। यह धैर्य में हिमालय के समान जान पड़ता है। इसकी सिंह के समान मस्‍तानी चाल है। यह शोभाशाली तरुण मतवाले गजराज के समान पराक्रमी प्रतीत होता है। इस वीर के लिये यह कार्य करना सम्‍भव है। इसका उत्‍साह देखकर भी ऐसा ही अनुमान होता है। इसमें शक्ति और महान् उत्‍साह है। यदि वह असमर्थ होता तो स्‍वयं ही धनुष के पास जाने का साहस नहीं करता। सम्‍पूर्ण लोकों में देवता, असुर आदि के रुप में विचरने वाले पुरुषों का ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो ब्राह्मणों के लिये असाध्‍य हो। ब्राह्मण लोग जल पीकर, हवा खाकर अथवा फलाहार करके (भी) द्दढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हैं। अत: वे शरीर से दुबले होने पर भी अपने तेज के कारण अत्‍यन्‍त बलवान् होते हैं। ब्राह्मण भला-बुरा, सुखद-दु:खद और छोटा-बड़ा –जो भी कर्म प्राप्‍त होता है, कर लेता है; अत: किसी भी कर्म को करते समय उस ब्राह्मण का अपमान नहीं करना चाहिये। मैं भूमण्‍डल में ऐसे किसी पुरुष को नहीं देखता जो धनुर्वेद, वेद तथा नाना प्रकार के योगों में ब्राह्मण से बढ़-चढ़कर हो। श्रेष्‍ठ ब्राह्मण मन्‍त्र-बल, योग-बल अथवा महान् आत्‍मबल से इस सम्‍पूर्ण जगत् को स्‍तब्‍ध कर सकते हैं। (अत: उसके प्रति तुच्‍छ बुद्धि नहीं रखनी चाहिये।) देखो, जमदग्निनन्‍दन परशुराम जी ने अकेले ही (सम्‍पूर्ण) क्षत्रियों को युद्ध में जीत लिया था। महर्षि अगस्‍त्‍य ने अपने ब्राह्मतेज के प्रभाव से अगाध समुद्र को पी डाला। इसलिये आप सब लोग यहाँ आशीर्वाद दें कि यह महान् ब्रह्मचारी शीघ्र ही इस धनुष को चढ़ा दे (और लक्ष्‍य-वेध करने में सफल हो)।’ यह सुनकर वे श्रेष्‍ठ ब्राह्मण उसी प्रकार आशीर्वाद की वर्षा करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्‍ताशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार जब ब्राह्मण लोग भाँति-भाँति की बातें कर रहे थे, उसी समय अर्जुन धनुष के पास जाकर पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हो गये। फिर उन्‍होंने धनुष के चारों ओर घूमकर उसकी परिक्रमा की। इसके बाद वरदायक भगवान शंकर को मस्‍तक झुकाकर प्रणाम किया और मन-ही-मन भगवान् श्रीकृष्‍ण का चिन्‍तन करके अर्जुन ने वह धनुष उठा लिया। रुक्‍म, सुनीथ, वक्र, कर्ण, दुर्योधन, शल्‍य तथा शाल्‍व आदि धनुर्वेद के पारंगत विद्वान पुरुषसिंह राजा लोग महान प्रयत्‍न करके भी जिस धनुष पर डोरी न चढ़ा सके, उसी धनुष पर विष्णु के समान प्रभावशाली एवं पराक्रमी वीरों में श्रेष्ठता का अभिमान रखने वाले इन्‍द्रकुमार अर्जुन ने पलक मारते-मारते प्रत्‍यञ्चा चढ़ा दी। इसके बाद उन्‍होंने वे पांच बाण भी अपने हाथ में ले लिये। और उन्‍हें चलाकर बात-की-बात में (लक्ष्‍य) वेध दिया। वह बिंधा हुआ लक्ष्‍य अत्‍यन्‍त छिन्‍न-भिन्‍न हो यन्‍त्र के छेद से सहसा पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। उस समय आकाश में बड़े जोर का हर्षनाद हुआ और सभामण्‍डप में तो उससे भी महान् आनन्‍द-कोलाहल छा गया। देवता लोग शत्रुहन्‍ता अर्जुन के मस्‍तक पर दिव्‍य फूलों की वर्षा करने लगे। सहस्रों ब्राह्मण (हर्ष में भरकर) वहाँ अपने दुपट्टे हिलाने लगे (मानो अर्जुन की विजय-ध्‍वजा फहरा रहे हों), फिर तो (जो लोग लक्ष्‍यवेध करने में असमर्थ हो हार मान चुके थे) वे राजा लोग सब ओर से हाहाकार करने लगे। उस रणभूमि में आकाश से सब ओर फूलों की वर्षा हो रही थी। बाजा बजाने वाले लोग सैकड़ों अंगों वाली तुरही आदि बजाने लगे। सूत और मागधगण वहाँ मीठे स्‍वर से यशोगान करने लगे।

अर्जुन को देखकर शत्रुसूदन द्रुपद के हर्ष की सीमा न रही। उन्‍होंने अपनी सेना के साथ उनकी सहायता करने का निश्‍चय किया। उस समय जब महान् कोलाहल बढ़ने लगा, धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर पुरुषोत्‍तम नकुल और सहदेव को साथ लेकर डेरे पर ही चले गये। लक्ष्‍य को बींधकर धरती पर गिरा देख इन्‍द्र के तुल्‍य पराक्रमी अर्जुन पर दृष्टि डालकर हाथ में सुन्‍दर श्‍वेत फूलों की जयमाला लिये द्रौपदी मन्‍द-मन्‍द मुस्कराती हुई कुन्‍तीकुमार के समीप गयी। उसका रुप जिन्‍होंने बार-बार देखा था, उनके लिये भी वह नित्‍य नयी-सी जान पड़ती थी। वह द्रुपदकुमारी बिना हंसी के भी हंसती-सी प्रतीत होती थी। मद सेवन के बिना भी (आन्‍तरिक अनुराग-सूचक) भावों के द्वारा लड़खड़ाती-सी चलती थी और बिना बोले भी केवल दृष्टि से ही बातचीत करती-सी जान पड़ती थी। निकट जाकर राजकुमारी द्रौपदी ने वहाँ जुटे हुए समस्‍त राजाओं के समक्ष उन सबकी उपेक्षा करके सहसा वह माला अर्जुन के गले में डाल दी और विनयपूर्वक खड़ी हो गयी। जैसे शची ने देवराज इन्‍द्र का, स्‍वाहा ने अग्निदेव का, लक्ष्‍मी ने भगवान् विष्‍णु का, उषा ने सूर्यदेव का, रति ने कामदेव का, गिरिराजकुमारी उमा ने महेश्‍वर का, विेदेहराजनन्दिनी सीता ने श्रीराम का तथा भीमकुमारी दमयन्‍ती ने नृपश्रेष्‍ठ नल का वरण किया था, उसी प्रकार द्रौपदी ने पाण्‍डुपुत्र अर्जुन का वरण कर लिया। अद्भुत कर्म करने वाले अर्जुन इस प्रकार उस स्‍वंयवर सभा में (स्त्रीरत्‍न द्रौपदी को जीतकर) उसे अपने साथ ले रंगभूमि से बाहर निकले)। पत्‍नी द्रौपदी उनके पीछे-पीछे चल रही थी। उस समय उपस्थित ब्राह्मणों ने उनका बड़ा सत्‍कार किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत स्‍वयंवर पर्व में लक्ष्‍यछेदन विषयक एक सौ सतासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)

एक सौ अट्ठासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्‍टाशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"द्रुपद को मारने के लिये उद्यत हुए राजाओं का सामना करने के लिये भीम और अर्जुन का उद्यत होना और उनके विषय में भगवान् श्रीकृष्‍ण का बलराम जी से वार्तालाप"

वैशम्‍पायन जी कहते है ;- जनमेजय! राजा द्रुपद उस ब्राह्मण को कन्‍या देना चाहते हैं, यह जानकर उस समय राजाओं को बड़ा क्रोध हुआ और वे एक दूसरे को देखकर तथा समीप आकर,,
 इस प्रकार कहने लगे ;- ‘(अहो! देखो तो सही,) यह राजा द्रुपद (यहां) एकत्र हुए हम लोगों को तिनके की तरह तुच्‍छ समझकर और हमारा उल्‍लंघन करके युवतियों में श्रेष्‍ठ अपनी कन्‍या का विवाह एक ब्राह्मण के साथ करना चाहता है। यह वृक्ष लगाकर अब फल लगने के समय उसे काटकर गिरा रहा है। अत: हम लोग इस दुरात्‍मा को मार डालें; क्‍योंकि यह हमें कुछ नहीं समझ रहा है। यह राजा द्रुपद गुणों के कारण हमसे वृद्धोचित सम्‍मान पाने का अधिकारी भी नहीं है, राजाओं से द्वेष करने वाले इस दुराचारी को पुत्रसहित मार डालें। पहले तो इसने हम सब राजाओं को बुलाकर सत्‍कार किया, उत्‍तम गुणयुक्‍त भोजन कराया और ऐसा करने के बाद यह हमारा अपमान कर रहा है। देवताओं के समूह की भाँति उत्‍तम नीति से सुशोभि‍त राजाओं के इस समुदाय में क्‍या इसने किसी भी नरेश को अपनी पुत्री के योग्‍य नहीं देखा है? स्‍वयंवर में कन्‍या द्वारा वरण प्राप्‍त करने का अधिकार ही ब्राह्मणों को नहीं है। (लोगों में) यह बात प्रसिद्ध है कि स्‍वयंवर क्षत्रियों का ही होता है। अथवा राजाओं! यदि यह कन्‍या हम लोगों में से किसी को अपना पति बनाना न चाहे तो हम इसे जलती हुई आग में झोंककर अपने-अपने राज्‍य को चल दें।

   यद्यपि इस ब्राह्मण ने चपलता के कारण अथवा राजकन्‍या के प्रति लोभ होने से हम राजाओं का अप्रिय किया है, तथापि ब्राह्मण होने के कारण हमें किसी प्रकार इसका वध नहीं करना चाहिये। क्‍योंकि हमारा राज्‍य, जीवन, रत्‍न, पुत्र-पौत्र तथा और भी जो धन-वैभव है, वह सब ब्राह्मणों के लिये ही है। (ब्राह्मणों के लिये हम इन सब चीजों का त्‍याग कर सकते हैं)। द्रुपद को तो हम इसलिये दण्‍ड देना चाहते हैं कि (हमारा) अपमान न हो, हमारे धर्म की रक्षा हो और दूसरे स्‍वयंवरों की भी ऐसी दुर्गती न हो।’ यों कहकर परिघ-जैसी मोटी बांहों वाले वे श्रेष्‍ठ भूपाल हर्ष (और उत्‍साह) में भरकर हाथों में अस्‍त्र-शस्‍त्र लिये द्रुपद को मारने की इच्‍छा से उनकी ओर वेग से दौड़े। उन बहुत से राजाओं को क्रोध में भरकर धनुष लिये आते देख द्रुपद अत्‍यन्‍त भयभीत हो ब्राह्मणों की शरण में गये। मद की धारा बहाने वाले मन्‍दोन्‍मत्‍त गजराजों की भाँति उन नरेशों को वेग से आते देख शत्रुदमन महाधनुर्धर पाण्‍डु-नन्‍दन भीम और अर्जुन उनका सामना करने के लिये आ गये। तब हाथों में गोह के चमड़े के दस्‍ताने पहने और आयुधों को ऊपर उठाये अमर्ष में भरे हुए वे (सभी) नरेश कुरुराजकुमार अर्जुन और भीमसेन को मारने के लिये उन पर टूट पड़े। तब तो वज्र के समान शक्तिशाली तथा अद्भुत एवं भयानक कर्म करने वाले अद्वितीय वीर महाबली भीमसेन ने गजराज की भाँति अपने दोनों हाथों से एक वृक्ष को उखाड़ लिया और उसके पत्ते झाड़ दिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्‍टाशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 17-24 का हिन्दी अनुवाद)

फिर मोटी और विशाल भुजाओं वाले शत्रुनाशन कुन्‍तीकुमार भीमसेन उसी वृक्ष को हाथ में लेकर भयंकर दण्‍ड उठाये हुए दण्‍डधारी यमराज की भाँति पुरुषोत्‍तम अर्जुन के समीप खड़े हो गये। असाधारण बुद्धि वाले तथा देवराज इन्‍द्र के समान महापराक्रमी, अचिन्‍त्‍यकर्मा अर्जुन अपने भाई भीमसेन के उस (अद्भुत) कार्य को देखकर चकित हो उठे और भय छोड़कर धनुष हाथ में लिये हुए युद्ध के लिये डट गये। जिनकी बुद्धि लोकोत्‍तर और कर्म अचिन्‍त्‍य हैं, उन भगवान् श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन तथा उनके भाई भीमसेन का वह (साहसपूर्ण) कार्य देखकर भंयकर पराक्रमी एवं हल को ही आयुध के रुप में धारण करने वाले अपने भ्राता बलराम जी से यह बात कही,,
कृष्ण बोले ;- ‘भैया संकर्षण! ये जो श्रेष्‍ठ सिंह के समान चाल से लीलापूर्वक चल रहे हैं, और ताल के बराबर विशाल धनुष को खींच रहे हैं, ये अर्जुन ही हैं; इसमें विचार करने की कोई बात नहीं है। यदि मैं वासुदेव हूँ तो मेरी यह बात झूठी नहीं है। और ये जो बड़े वेग से वृक्ष उखाड़कर सहसा समस्‍त राजाओं का सामना करने के लिये उद्यत हुए हैं, भीमसेन हैं; क्‍योंकि इस समय पृथ्‍वी पर भीमसेन के सिवा दूसरा कोई ऐसा वीर नहीं हैं, जो युद्ध-भूमि में यह अद्भुत पराक्रम कर सकें। अच्‍युत! जो विकसित कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाले, दुबले-पतले, विनयशील, गोरे, महान् सिंह की सी चाल से चलने वाले तथा लंबी, सुन्‍दर एवं मनोहर नाक वाले पुरुष(अभी यहाँ से) निकले हैं, वे धर्मपुत्र युधिष्ठिर हैं। 
उनके साथ युगल कार्तिकेय जैसे जो दो कुमार थे, वे अश्विनी कुमारों के पुत्र नकुल और सहदेव रहे हैं- ऐसा मेरा अनुमान है, क्‍योंकि मैंने सुन रखा है कि उस लाक्षागृह के दाह से पाण्‍डव और कुन्‍ती देवी –सभी बचकर निकल गये थे’। राजालोग रण-भूमि में पाण्‍ड-पुत्र अर्जुन के प्रति अपना क्रोध जैसे प्रकट कर रहे थे, उसे सुनकर अर्जुन के बल को जानते हुए चक्रधारी पुरुषोत्‍तम भगवान् श्रीकृष्‍ण ने बलरामजी से कहा,,
कृष्ण बोले ;- ‘ भैया! आपको घबराना नहीं चाहिये। यदि बहुत से देवता और असुर एकत्र हो जायं, तो भी भीम के छोटे भाई कुन्‍तीकुमार अर्जुन उन सबके हाथ अकेले ही युद्ध करने में समर्थ हैं। फिर इन मानव-भूपालों पर विजय पाना कौन बड़ी बात है। यदि सव्‍यसाची अर्जुन हमारी सहायता लेना चाहेंगे तो हम इसके लिये प्रयत्‍न करेंगे। वीरवर! मेरा विश्‍वास है कि पाण्‍डुपुत्र अर्जुन की पराजय नहीं हो सकती’। जलहीन मेघ के समान गौरवर्ण वाले हलधर (बलराम जी) ने अपने छोटे भाई श्रीकृष्‍ण की बात पर विश्‍वास करके उनसे कहा,,
बलराम बोले ;-‘भैया! कुरुकुल के श्रेष्‍ठ वीर पाण्‍डवों सहित अपनी बुआ कुन्‍ती को लाक्षागृह से बची हुई देखकर मुझे बड़ी प्रसन्‍नता हुई’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत स्‍वयंवर पर्व में श्रीकृष्‍णवाक्‍यविषयक एक सौ अट्ठासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)

एक सौ नवासीवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोननवत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन और भीमसेन के द्वारा कर्ण तथा शल्‍य की पराजय और द्रौपदी सहित भीमसेन अर्जुन का अपने डेरे पर जाना"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय अपने मृगचर्म और कमण्‍डलुओं को हिलाते और उछालते हुए वे श्रेष्ठ ब्राह्मण अर्जुन से कहने लगे,,
ब्राह्मण बोले ;- ‘तुम डरना नहीं, हम (सब) लोग (तुम्‍हारी ओर से) शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे।' इस प्रकार की बातें करने वाले उन ब्राह्मणों से अर्जुन ने हंसते हुए से कहा,,
अर्जुन बोले ;- ‘आप लोग दर्शक होकर बगल में चुपचाप खड़े रहें। मैं (अकेला ही) सीधी नोक वाले सैकड़ों बाणों की वर्षा करके क्रोध में भरे हुए इन शत्रुओं को उसी प्रकार रोक दूंगा, जैसे मन्‍त्रज्ञ लोग अपने मन्‍त्रों (के बल) से विषैले सर्पों को कुण्ठित कर देते हैं।’ यों कहकर महाबली अर्जुन ने उसी स्‍वयंवर में लक्ष्‍यवेध के लिये प्राप्‍त हुए धनुष को झुकाकर (उस पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ा दी और उसे हाथ में लेकर) भाई भीमसेन के साथ वे पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हो गये।

तदनन्‍तर कर्ण आदि रणोन्‍मत्‍त क्षत्रियों को आते देख वे दोनों भाई निर्भय हो उन पर उसी तरह टूट पड़े, जैसे दो (मतवाले) हाथी अपने विपक्षी हाथियों की ओर बढ़े जा रहे हों। 
तब युद्ध के लिये उत्‍सुक उन राजाओं ने कठोर स्‍वर में ये बातें कही,,
राजा बोले ;- ‘युद्ध की इच्‍छा वाले ब्राह्मण का भी रणभूमि में वध शास्‍त्रानुकूल देखा गया है।’ यों कहकर वे राजा लोग सहसा ब्राह्मणों की ओर दौड़े। महातेजस्‍वी कर्ण अर्जुन की ओर युद्ध के लिये बढ़ा। ठीक उसी तरह, जैसे हथिनी के लिये लड़ने की इच्‍छा रखकर एक हाथी अपने प्रतिद्वन्‍द्वी दूसरे हाथी से भि‍ड़ने के लिये जा रहा हो, महाबली मद्रराज शल्‍य भीमसेन से जा भीड़े। दुर्योधन आदि सभी (भूपाल) एक साथ अन्‍यान्‍य ब्राह्मणों के साथ उस युद्ध भूमि में बिना किसी प्रयास के (खेल-सा करते हुए) कोमलतापूर्वक (शीत) युद्ध करने लगे। तब तेजस्‍वी अर्जुन ने अपने धनुष को जोर से खींचकर अपनी ओर वेग से आते हुए सूर्यपुत्र कर्ण को कई तीक्ष्‍ण बाण मारे। उन दु:सह तेज वाले तीखे बाणों के वेगपूर्वक आघात से राधानन्‍दन कर्ण को मूर्च्‍छा आने लगी। वह बड़ी कठिनाई से अर्जुन की बढ़ा।

विजयी वीरों में श्रेष्‍ठ वे दोनों योद्धा हाथों की फुर्ती दिखाने में बेजोड़ थे। उनमें कौन बड़ा है और कौन छोटा- यह बताना असम्‍भव था। दोनों ही एक दूसरे को जीतने की इच्‍छा रखकर बड़े क्रोध से लड़ रहे थे। 'देखो, तुमने जिस अस्‍त्र का प्रयोग किया था, उसे रोकने के लिये मैंने यह अस्‍त्र चलाया है। देख लो, मेरी भुजाओं का बल!’ इस प्रकार शौर्यसूचक वचनों द्वारा वे आपस में बातें भी करते जाते थे। तदनन्‍तर अर्जुन के बाहुबल की इस पृथ्‍वी पर कहीं समता नहीं है, यह जानकर सूर्यपुत्र कर्ण अत्‍यन्‍त क्रोधपूर्वक जमकर युद्ध करने लगा। उस समय अर्जुन द्वारा चलाये हुए उन सभी वेगशाली बाणों को काटकर कर्ण बड़े जोर से सिंहनाद करने लगा। समस्‍त सैनिकों ने उसके इस अद्भुत कार्य की सराहना की। 
कर्ण बोला ;- विप्रवर! युद्ध में आपके बाहुबल से मैं (बहुत) संतुष्ट हूँ। आपमें थकावट या विषाद का कोई चिह्न नहीं दिखायी देता और आपने सभी अस्त्र-शस्त्रों को जीतकर मानो अपने काबू में कर लिया है। (आपकी यह सफलता देखकर मुझे बड़ी प्रसन्‍नता हुई है)।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोननवत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)

विप्रशिरोमणे! आप मूर्तिमान् धनुर्वेद हैं? या परशुराम! अथवा आप स्‍वयं इन्‍द्र या अपनी महिमा से कभी च्‍युत न होने वाले साक्षात् भगवान् विष्णु हैं? मैं समझता हूं, आप इन्‍हीं में से कोई हैं और अपने स्‍वरुप को छिपाने के लिये यह ब्राह्मणवेष धारण करके बाहुबल का आश्रय ले मेरे साथ युद्ध कर रहे हैं। क्‍योंकि युद्ध में मेरे कुपित होने पर साक्षात् शचीपति इन्‍द्र अथवा किरीटधारी पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के अतिरिक्‍त दूसरा कोई मेरा सामना नहीं कर सकता। कर्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उसे इस प्रकार उत्‍तर दिया,,
अर्जुन बोले ;- ‘कर्ण! न तो मैं धनुर्वेद हूँ और न प्रतापी परशुराम। मैं तो सम्‍पूर्ण शस्‍त्रधारियों में उत्‍तम और योद्धाओं में श्रेष्‍ठ एक ब्राह्मण हूँ। गुरु का उपदेश पाकर ब्रह्मास्‍त्र तथा इन्‍द्रास्‍त्र दोनों में पारंगत हो गया हूँ। वीर! आज मैं तुम्‍हें युद्ध में जीतने के लिये खड़ा हूं, तुम भी स्थिरतापूर्वक खड़े रहो।’

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन की यह बात सुनकर महारथी कर्ण ब्राह्मतेज को अजेय मानते हुआ उस समय युद्ध छोड़कर हट गया। इसी समय दूसरे स्‍थान को अपना रणक्षेत्र बनाकर वहीं बलवान् वीर शल्‍य और भीमसेन एक दूसरे को ललकारते हुए दो मतवाले गजराजों की भाँति युद्ध कर रहे थे। दोनों ही विद्या, बल और युद्ध की कला से सम्‍पन्‍न थे। वे घूंसों और घुटनों से एक दूसरे को मारने लगे। दोनों एक दूसरे को दूर तक ठेल ले जाते, नीचे गिराने का प्रयत्‍न करते, कभी अपनी ओर खीचतें और कभी अगल-बगल से पैंतरे देकर गिराने की चेष्‍टा करते थे। इस प्रकार वे एक दूसरे को खींचते और मुक्‍कों से मारते थे। उस समय घूंसों की मार से दोनों के शरीरों पर अत्‍यन्‍त भयंकर ‘चट-चट’ शब्‍द हो रहा था। वे परस्‍पर इस प्रकार प्रहार कर रहे थे, मानो पत्‍थर टकरा रहे हों। लगभग दो घड़ी तक दोनों उस युद्ध में एक दूसरे को खींचते और ठेलते रहे।

तदनन्‍तर कुरुश्रेष्‍ठ भीमसेन ने दोनों हाथों से शल्‍य को ऊपर उठाकर उस युद्ध भूमि में पटक दिया। यह देख ब्राह्मण लोग हंसने लगे। कुरुश्रेष्‍ठ बलवान् भीमसेन ने एक आश्‍चर्य की बात यह की कि महाबली शल्‍य को पृथ्‍वी पर पटककर भी मार नहीं डाला। भीमसेन के द्वारा शल्‍य को पछाड़ दिये जाने और अर्जुन से कर्ण के डर जाने पर सभी राजा (युद्ध का विचार छोड़) शंकित हो भीमसेन को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये।
 और एक साथ ही बोल उठे ;- ‘अहो! ये दोनों श्रेष्‍ठ ब्राह्मण धन्‍य हैं। पता तो लगाओ, इनकी जन्‍मभूमि कहाँ है तथा ये रहने वाले कहाँ के हैं? परशुराम, द्रोण अथवा पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के सिवा दूसरा ऐसा कौन है, जो युद्ध में राधानन्‍दन कर्ण का सामना कर सके। (इसी प्रकार) देवकीनन्‍दन श्रीकृष्‍ण अथवा शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य के सिवा दूसरा कौन है, जो समरभूमि में दुर्योधन के साथ लोहा ले सके। बलवानों में श्रेष्‍ठ मद्रराज शल्‍य को भी वीरवर बलदेव, पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन अथवा वीर दुर्योधन को छोड़कर दूसरा कौन रणभूमि में गिरा सकता है। अत: ब्राह्मणों से घिरे हुए इस युद्धक्षेत्र से हम लोगों को हट जाना चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोननवत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 36-47 का हिन्दी अनुवाद)

क्‍योंकि ब्राह्मण अपराधी हों, तो भी सदा ही उनकी रक्षा करनी चाहिये। पहले इनका ठीक-ठीक परिचय ले लें, फिर (ये चाहें तो) हम इनके साथ प्रसन्‍न्‍तापूर्वक युद्ध करेंगे’। उन सब राजाओं तथा अन्‍य लोगों को ऐसी बातें करते देख और युद्ध में वह महान् पराक्रम दिखाकर भीमसेन और अर्जुन बड़े प्रसन्‍न थे।

वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! भीमसेन का वह अद्भुत कार्य देख भगवान् श्रीकृष्‍ण ने यह सोचते हुए कि ये दोनों भाई कुन्‍तीकुमार भीमसेन और अर्जुन ही हैं, उन सब राजाओं को यह समझाकर कि ‘इन्‍होंने धर्मपूर्वक द्रौपदी को प्राप्‍त किया है’ अनुनयपूर्वक युद्ध से रोका। इस प्रकार श्रीकृष्‍ण के समझाने से वे सभी युद्धकुशल श्रेष्‍ठ नरेश युद्ध से निवृत हो गये और विस्मित होकर अपने-अपने डेरों को चले गये। वहाँ जो दर्शक एकत्र हुए थे, वे ‘इस रंग मण्‍डप के उत्‍सव से ब्राह्मणों की श्रेष्‍ठता सिद्ध हुई; पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदी को ब्राह्मणों ने प्राप्‍त किया', यों कहते हुए (अपने-अपने निवास स्‍थान को) चले गये। रुरुमृग के चर्म को वस्‍त्र के रुप में धारण करने वाले ब्राह्मणों से घिरे होने के कारण भीमसेन और अर्जुन बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ पाते थे। जनता की भीड़ से बाहर निकलने पर शत्रुओं ने उन्‍हें अच्‍छी तरह देखा।

आगे-आगे वे दोनों नरवीर थे और उनके पीछे-पीछे द्रौपदी चली जा रही थी। द्रौपदी के साथ वहाँ उन दोनों की बड़ी शोभा हो रही थी। वे ऐसे लगते थे, जैसे पूर्णमासी तिथि को मेघों की घटा से निकलकर चन्‍द्रमा और सूर्य प्रकाशित हो रहे हों। इधर भिक्षा का समय बीत जाने पर भी जब पुत्र नहीं लौटे, तब उनकी माता कुन्‍ती देवी स्‍नेहवश अनेक प्रकार की चिन्‍ताओं में डूबकर उनके विनाश की आशंका करने लगीं- ‘कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने कुरुश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों को पहिचान कर उनकी हत्‍या कर डाली हो? अथवा दृढ़तापूर्वक वैरभाव को मन में रखने वाले महाभयंकर मायावी राक्षसों ने तो मेरे बच्‍चों को नहीं मार डाला? क्‍या महात्‍मा व्‍यास के भी निश्चित मत के विपरीत कोई बात हो गयी?’ इस प्रकार पुत्र स्‍नेह में पड़ी कुन्‍ती देवी जब चिन्‍ता में मग्न हो रही थीं, आकाश में मेघों की भारी घटा घिर आने के कारण जब दुर्दिन-सा हो रहा था और जनता सब काम छोड़कर सोये हुए-की भां‍ति अपने-अपने घरों पर निश्‍चेष्‍ट होकर बैठी थी, उसी समय दिन के तीसरे पहर में बादलों से घिरे हुए सूर्य के समान ब्राह्मणमण्‍डली से घिरे हुए अर्जुन ने वहाँ उस कुम्‍हार के घर में प्रवेश किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत स्‍वयंवर पर्व में पाण्‍डवप्रत्‍यागमन विषयक एक सौ नवासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)

एक सौ नब्बेवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"कुन्‍ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत, पांचों पाण्‍डवों का द्रौपदी के साथ विवाह का विचार तथा बलराम और श्रीकृष्‍ण की पाण्‍डवों से भेंट"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! मनुष्‍यों में श्रेष्ठ महानुभाव कुन्‍तीपुत्र भीमसेन और अर्जुन कुम्‍हार के घर में प्रवेश करके अत्‍यन्‍त प्रसन्न हो माता को द्रौपदी की प्राप्ति सूचित करते हुए,,
 बोले ;- ‘मां! हम लोग भिक्षा लाये हैं।’ उस समय कुन्‍ती देवी कुटिया के भीतर थीं। उन्‍होंने अपने पुत्रों को देखे बिना ही उत्‍तर दे दिया,,
कुन्ती बोली ;- ‘(भिक्षा लाये हो तो) तुम सभी भाई मिलकर उसे पाओ।’ तत्‍पश्‍चात् द्रौपदी को देखकर कुन्‍ती ने चिन्तित होकर कहा,,
कुन्ती बोली ;- ‘हाय! मेरे मुंह से बड़ी अनुचित बात निकल गयी।’ कुन्‍ती देवी अधर्म के भय से बड़ी चिन्‍ता में पड़ गयीं; (परंतु मनोनुकूल पति की प्राप्ति से) द्रौपदी के मन में बड़ी प्रसन्‍नता थी। कुन्‍ती देवी द्रौपदी का हाथ पकड़कर युधिष्ठिर के पास गयीं और उनसे उन्‍होंने यह बात कही।
कुन्‍ती ने कहा ;- बेटा! यह राजा द्रुपद की कन्‍या द्रौपदी है। तुम्‍हारे छोटे भाई भीमसेन और अर्जुन ने इसे भिक्षा कहकर मुझे समर्पित किया और मैंने भी (इसे देखे बिना ही) भूल से (भिक्षा ही समझकर) अनुरुप उत्‍तर दे दिया- ‘तुम सब लोग इसे पाओ।’ कुरुश्रेष्‍ठ! बताओ, अब कैसे मेरी बात झूठी न हो? और क्‍या किया जाय, जिससे इस पांचालकुमारी कृष्‍णा को न तो पाप लगे और न नीच योनियों में ही भटकना पड़े।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! कुरुश्रेष्‍ठ नरवीर राजा युधिष्ठिर बड़े बुद्धिमान् थे। उन्‍होंने माता की यह बात सुनकर दो घड़ी तक (मन-ही-मन) कुछ विचार किया। फिर कुन्‍ती देवी को भली-भाँति आश्‍वासन देकर उन्‍होंने धनंजय से यह बात कही,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘अर्जुन, तुमने द्रौपदी को जीता है, तुम्‍हारे ही साथ इस राजकुमारी की शोभा होगी। शत्रुओं का सामना करने वाले वीर! तुम अग्नि प्रज्‍वलित करो और (अग्निदेव के साक्ष्‍य में) विधिपूर्वक इस राजकन्‍या का पाणिग्रहण करो।’

अर्जुन बोले ;- नरेन्‍द्र! आप मुझे अधर्म का भागी न बनाइये। (बड़े भाई के अविवाहित रहते छोटे भाई का विवाह हो जाय,) यह धर्म नहीं है; ऐसा व्‍यवहार तो अनाथों में देखा गया है। पहले आपका विवाह होना चाहिये; तत्‍पश्‍चात् अचिन्‍त्‍यकर्मा महाबाहु भीमसेन का और फिर मेरा। तत्‍पश्‍चात् नकुल फिर वेगवान् सहदेव विवाह कर सकते हैं। राजन्! भैया भीमसेन, मैं, नकुल-सहदेव तथा यह राजकन्‍या- सभी आपकी आज्ञा के अधीन हैं। ऐसी दशा में आप यहाँ अपनी बुद्धि से विचार करके जो धर्म और यश के अनुकूल तथा पांचालराज के लिये भी हितकर कार्य हो, वह कीजिये और उसके लिये हमें आज्ञा दीजिये। हम सब लोग आपके अधीन हैं।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- अर्जुन के ये भक्तिभाव तथा स्‍नेह से भरे वचन सुनने के बाद समस्‍त पाण्‍डवों ने पांचाल राजकुमारी द्रौपदी की ओर देखा। यशस्विनी कृष्‍णा भी उन सबको देख रही थी। वहाँ बैठे हुए पाण्‍डवों ने द्रौपदी को देखकर आपस में भी एक-दूसरे पर दृष्टिपात किया और सबने अपने हृदय में द्रुपदराजकुमारी को बसा लिया। द्रुपदकुमारी पर द्दष्टि पड़ते ही उन सभी अमित तेजस्‍वी पाण्‍डुपुत्रों की सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को मथकर मन्‍मथ प्रकट हो गया। विधाता ने पांचाली का कामनीय रुप स्‍वयं ही रचा और संवारा था। वह संसार की अन्‍य स्त्रियों से बहुत अधिक आकर्षक और समस्‍त प्राणियों के मन को मोह लेने वाला था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)

मनुष्‍यों में श्रेष्‍ठ कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर ने उनकी आकृति देखकर ही मन का भाव समझ लिया। फिर उन्‍हें द्वैपायन वेदव्यास जी के सारे वचनों का स्‍मरण हो आया। द्रौपदी को लेकर हम सब भाइयों में फुट न पड़ जाय, इस भय से राजा ने अपने सभी बन्‍धुओं से कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘कल्‍याणमयी द्रौपदी हम सब लोगों की पत्‍नी होगी।’

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय अपने बड़े भाई का यह वचन सुनकर उदार हृदय वाले समस्‍त पाण्‍डव मन-ही-मन उसी का चिन्‍तन करते हुए चुपचाप बैठे रह गये। इस वृष्णिवंशियों में श्रेष्‍ठ भगवान् श्रीकृष्‍ण रोहिणीनन्‍दन बलराम जी के साथ कुरुकुल के प्रमुख वीर पाण्‍डवों को पहिचान-कर कुम्‍हार के घर में, जहाँ वे नरश्रेष्‍ठ निवास करते थे, मिलने के लिये गये। वहाँ बलराम सहित श्रीकृष्‍ण ने मोटी और विशाल भुजाओं से सुशोभि‍त अजातशत्रु युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे हुए अग्नि के समान तेजस्‍वी अन्‍य चारों भाइयों को देखा। वहाँ जाकर वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण ने धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर से ‘मैं श्रीकृष्‍ण हूं’ यों कहकर अजमीढ़वंशी राजा युधिष्ठिर के दोनों चरणों का स्‍पर्श किया। उन्‍हीं के साथ बलराम जी ने भी (अपना नाम बताकर) उनके चरण छूए। पाण्‍डव भी उन दोनों को देखकर बड़े प्रसन्‍न हुए।

जनमेजय! फिर उन यदुवीरों ने अपनी बुआ कुन्ती के चरणों का स्‍पर्श किया। कुरुकुल के श्रेष्‍ठ वीर अजातशत्रु युधिष्ठिर ने श्रीकृष्‍ण को देखकर कुशल-समाचार पूछा और कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘वसुदेवनन्‍दन! हम तो यहाँ छिपकर रहते हैं, फिर आपने हम सब लोगों को कैसे पहचान लिया?’ तब भगवान् वासुदेव ने हंसकर उत्तर दिया,,
कृष्ण बोले ;- ‘राजन्! आग कितनी ही छिपी क्‍यों न हो, वह पहचान में आ ही जाती है। भला, पाण्‍डवों को छोड़कर मनुष्‍यों में कौन ऐसा है, जो वैसा अद्भुत कर्म कर दिखाता। बड़े सौभाग्‍य की बात है कि शत्रुओं का सामना करने की शक्ति रखने वाले आप सभी पाण्‍डव उस भयंकर अग्निकाण्‍ड से जीवित बच गये। पापी धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन अपने मन्त्रियों सहित इस षड्यन्‍त्र में सफल न हो सका, यह भी सौभाग्‍य की ही बात है। हमारे अन्‍त:करण में जो कल्‍याण की भावना निहित है, वह आपको प्राप्‍त हो। आप लोग सदा प्रज्‍वलित अग्नि की भाँति बढ़ते रहें। अभी आप लोगों को कोई भी राजा पहचान न सकें, इसलिये हम लोग भी अपने शिविर को लौट जायंगे।’ यों कहकर युधिष्ठिर की आज्ञा ले अक्षय शोभा से सम्‍पन्‍न भगवान् श्रीकृष्‍ण बलदेव जी के साथ शीघ्र वहाँ से चल दिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत स्‍वयंवर पर्व में बलराम और श्रीकृष्‍ण का आगमन विषयक एक सौ नब्‍बेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)


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