सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप"
अर्जुन ने पूछा ;- गन्धर्वराज! किस कारण को सामने रखकर राजा कल्माषपाद ने ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ गुरु वसिष्ठ जी के साथ अपनी पत्नी का नियोग कराया था? तथा उत्तम धर्म के ज्ञाता महात्मा महर्षि वसिष्ठ ने यह परस्त्रीगमन का पाप कैसे किया? सखे! पूर्वकाल में महर्षि वसिष्ठ ने जो यह अधर्म-कार्य किया, उसका क्या कारण है? यह मेरा संशय है, जिसे मैं पूछता हूँ। आप मेरे इन सारे संशयों का निवारण कीजिये।
गन्धर्व ने कहा ;- दुर्धर्ष वीर धनंजय! आप महर्षि वसिष्ठ तथा राजा मित्रसह के विषय में जो कुछ मुझसे पूछ रहे हैं, उनका समाधान सुनिये। भरतश्रेष्ठ! वसिष्ठपुत्र महात्मा शक्ति से राजा कल्माषपाद को जिस प्रकार शाप प्राप्त हुआ, वह सब प्रसंग मैं आपसे कह चुका हूँ। शत्रुओं को संताप देने वाले राजा कल्माषपाद शाप के परवश हो अपनी पत्नी के साथ नगर में बाहर निकल गये। उस समय उनकी आंखें क्रोध से व्याप्त हो रही थी। अपनी स्त्री के साथ निर्जनवन में जाकर वे चारों ओर चक्कर लगाने लगे। वह महान् वन भाँति-भाँति के मृगों से भरा हुआ था। उसमें नाना प्रकार के जीव-जन्तु निवास करते थे। अनेक प्रकार की लताओं तथा गुल्मों से आच्छादित और विविध प्रकार के वृक्षों से आवृत वह (गहन) वन भंयकर शब्दों से गूंजता रहता था।
शापग्रस्त राजा कल्माषपाद उसी में भ्रमण करने लगे। एक दिन भूख से व्याकुल हो वे अपने लिये भोजन की तलाश करने लगे। बहुत क्लेश उठाने के बाद उन्होंने देखा कि उन वन के किसी निर्जन प्रदेश में एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी मैथुन के लिये एकत्र हुए हैं। वे दोनों अभी अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर पाये थे, इतने ही में राक्षसाविष्ट कल्माषपाद को देखकर अत्यन्त भयभीत हो (वहाँ से) भाग चले। उन भागते हुए दम्पति में से ब्राह्मण को राजा ने बलपूर्वक पकड़ लिया। पति को राक्षस के हाथ में पड़ा देख,,
ब्राह्मणी बोली ;- राजन! मैं आपसे जो बात कहती हूं, उसे सुनिये! उत्तम व्रत का पालन करने वाले नरेश! आपका जन्म सूर्य-वंश में हुआ है। आप सम्पूर्ण जगत् में विख्यात हैं। आप सदा प्रभाशून्य होकर धर्म में स्थित रहने वाले हैं। गुरुजनों की सेवा में सदा संलग्न रहते हैं। दुर्धर्ष वीर! यद्यपि आप इस समय शाप से ग्रस्त हैं, तो भी आपको पापकर्म नहीं करना चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)
मेरा ॠतुकाल प्राप्त है, मैं पति के कष्ट में दु:ख पा रही हूँ। मैं संतान की इच्छा से पति के समीप आयी थी और उनसे मिलकर अभी अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर पाई हूँ। नृपश्रेष्ठ! ऐसी दशा में आप मुझ पर प्रसन्न होइये और मेरे इन पति देवता को छोड़ दीजिये। इस प्रकार ब्राह्मणी करुणविलाप करती हुई याचना कर रही थी, तो भी जैसे व्याघ्र मनचाहे मृग को मारकर खा जाता हैं, उसी प्रकार राजा ने अत्यन्त निर्दयी की भाँति ब्राह्मणी के पति को खा लिया। उस समय क्रोध से पीड़ित हुई ब्राह्मणी के नेत्रों से धरती पर आंसुओं की जो बूंदे गिरी, वे सब प्रज्वलित अग्नि बन गयीं। उस अग्नि ने उस स्थान को जलाकर भस्म कर दिया। तदनन्तर पति के वियोग से व्यथित एवं शोकसंतप्त ब्राह्मणी ने रोष में भरकर राजर्षि कल्माषपाद को शाप दिया,,
ब्राह्मणी बोली ;- 'ओ नीच! मेरी पतिविषयक कामना अभी पूर्ण नहीं हो पायी थी, तभी तूने अत्यन्त क्रूर की भाँति मेरे देखते-देखते आज मेरे महायशस्वी प्रियतम पति को अपना ग्रास बना लिया है; अत: दुर्बुद्धे! तू भी मेरे शाप से पीड़ित हआ ॠतुकाल में पत्नी के साथ समागम करते ही तत्काल प्राण त्याग देगा। जिन महर्षि वसिष्ठ के पुत्रों का तुमने संहार किया है, उन्हीं से समागम करके तेरी पत्नी पुत्र पैदा करेगी। नृपाधम! वही पुत्र तेरा वंश चलाने वाला होगा।'
इस प्रकार राजा को शाप देकर वह सती साध्वी अंगिरसी राजा कल्माषपाद के समीप ही प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गयी। शत्रुसुदन अर्जुन! महाभाग वसिष्ठ जी अपनी बड़ी भारी तपस्या तथा ज्ञानयोग के प्रभाव से ये सब बातें जानते थे। दीर्घकाल के पश्चात वे राजर्षि जब शाप से मुक्त हुए, तब ॠतुकाल में अपनी पत्नी के पास गये। परंतु उनकी रानी मदयन्ती ने उन्हें (उक्त शाप की याद दिलाकर) रोक दिया। राजा कल्माषपाद काम से मोहित हो रहे थे। इसलिये उन्हें शाप का स्मरण नहीं रहा। महारानी मदयन्ती की बात सुनकर वे नृपश्रेष्ठ बड़े सम्भ्रम (घबराहट) में पड़ गये। उस शाप की बार-बार याद करके उन्हें बड़ा संताप हुआ। नरश्रेष्ठ! इसी कारण शापदोष से मुक्त राजा कल्माषपाद ने महर्षि वसिष्ठ का अपनी पत्नी के साथ निवास कराया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तगर्त चैत्ररथपर्व में वसिष्ठोपाख्यान विषयक एक सौ इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों का धौम्य को अपना पुरोहित बनाना"
अर्जुन ने कहा ;- गन्धर्वराज! हमारे अनुरुप जो कोई वेदवेता पुरोहित हो, उनका नाम बताओ; क्योंकि तुम्हें सब कुछ ज्ञात हो। गन्धर्व बोला- कुन्तीनन्दन! इसी वन के उत्कोचक तीर्थ में देवल के छोटे भाई धौम्य मुनि तपस्या करते हैं। यदि आप लोग चाहें तो उन्हीं का पुरोहित के पद पर वरण करें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तब अर्जुन ने (बहुत) प्रसन्न होकर गन्धर्व को विधिपूर्वक आग्नेयास्त्र प्रदान किया और यह बात कही,,
अर्जुन बोले ;- 'गन्धर्वप्रवर! तुमने जो घोड़े दिये हैं, वे अभी तुम्हारे ही पास रहें। आवश्यकता के समय हम तुमसे ले लेंगे, तुम्हारा कल्याण हो।' अर्जुन की यह बात पूरी होने पर गन्धर्वराज और पाण्डवों ने एक-दूसरे का बड़ा सत्कार किया। फिर पाण्डवगण गंगा के रमणीय तट से अपनी इच्छा के अनुसार चल दिये।
जनमेजय! तदनन्तर उत्कोचक तीर्थ में धौम्य के आश्रम-पर जाकर पाण्डवों ने धौम्य का पुरोहित-कर्म के लिये वरण किया। सम्पूर्ण वेदों के विद्वानों में श्रेष्ठ धौम्य ने जंगली फल-मूल अर्पण करके तथा पुरोहित के लिये स्वीकृति देकर उन सबका सत्कार किया। पाण्डवों ने उन ब्राह्मण देवता को पुरोहित बनाकर यह भली-भाँति विश्वास कर लिया कि हमें अपना राज्य और धन अब मिले हुए के ही समान है। साथ ही उन्हें यह भी भरोसा हो गया कि स्वयंवर में द्रौपदी हमें मिल जायगी। उन गुरु एवं पुरोहित के साथ हों जाने से उस समय भरतवंशियों में श्रेष्ठ पाण्डवों ने अपने-आपको सनाथ-सा समझा।
उदारबुद्धि धौम्य वेदार्थ के तत्त्वज्ञ थे, वे पाण्डवों के गुरु हुए। उन धर्मज्ञ मुनि ने धर्मज्ञ कुन्तीकुमारों को अपना यजमान बना लिया। धौम्य को यह विश्वास हो गया कि ये बुद्धि, वीर्य, बल और उत्साह से युक्त देवोपम वीर संगठित होकर स्वधर्म के अनुसार अपना राज्य अवश्य प्राप्त कर लेंगे। धौम्य ने पाण्डवों के लिये स्वस्तिवाचन किया। तदनन्तर उन नरश्रेष्ठ पाण्डवों ने एक साथ द्रौपदी के स्वयंवर में जाने का निश्चय किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तगर्त चैत्ररथ पर्व में पुरोहित बनाने में सम्बन्ध रखने वाला एक सौ बयासीवाँ अध्याय पुरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
एक सौ तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्र्यशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों की पंचालयात्रा और मार्ग में ब्राह्मणों से बातचीत"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब वे नृपश्रेष्ठ पांचों भाई पाण्डव राजकुमारी द्रौपदी, उसके पांचालदेश और वहाँ के महान् उत्सव को देखने के लिये वहाँ से चल दिये। मनुष्यों में सिंह के समान वीर परंतप पाण्डव अपनी माता के साथ यात्रा कर रहे थे। उन्होंने मार्ग में देखा, बहुत से ब्राह्मण एक साथ जा रहे हैं। राजन्!
उन ब्रह्मचारी ब्राह्मणों ने पाण्डवों से पूछा ;- आप लोग कहाँ जायंगे और कहाँ से आ रहे हैं?
युधिष्ठिर बोले ;- विप्रवरो! आप लोगों को मालूम हो कि हम लोग एक साथ विचरने वाले सहोदर भाई हैं और अपनी माता के साथ एकचक्रा नगरी से आ रहे हैं।
ब्राह्मणों ने कहा ;- आज ही पाञ्चाल देश को चलिये। वहाँ राजा द्रुपद के दरबार में महान् धन-धान्य से सम्पन्न स्वयंवर का बहुत बड़ा उत्सव होने वाला है। हम सब लोग एक साथ चले हैं और वहीं जा रहे हैं। वहाँ अत्यन्त अद्भुत और बहुत बड़ा उत्सव होने वाला है। यज्ञसेन नाम वाले महाराज द्रुपद के एक पुत्री है, जो यज्ञ की वेदी से प्रकट हुई है। उसके नेत्र विकसित कमलदल के समान सुन्दर हैं। उसका एक-एक अंग निर्दोष हैं। वह मनस्विनी सुकुमारी द्रुपद कन्या देखने ही योग्य है। द्रोणाचार्य के शत्रु प्रतापी धृष्टद्युम्न की वह बहिन है। धृष्टद्युम्न वे ही हैं, जो कवच, धनुष, खड्ग और बाण के साथ उत्पन्न हुए हैं। महाबाहु धृष्टद्युम्न प्रज्वलित अग्नि से प्रकट होने के कारण अग्नि के समान ही तेजस्वी हैं। द्रौपदी निर्दोष अंगों तथा पतली कमर वाली है और उसके शरीर से नीलकमल के समान सुगन्ध निकलकर एक कोस तक फैलती रहती है। वह उन्हीं धृष्टद्युम्न की बहिन है।
यज्ञसेन की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर नियत हुआ है। अत: हम लोग उस राजकुमारी को तथा उस स्वयंवर के दिव्य महोत्सव को देखने के लिये वहाँ जा रहे हैं। (वहां) कितने ही प्रचुर दक्षिणा देने वाले, यज्ञ करने वाले, स्वाध्यायशील, पवित्र, नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले, महात्मा एवं तरुण अवस्था वाले दर्शनीय राजा और राजकुमार अनेक देशों से पधारेंगे। अस्त्रविद्या में निपुण महारथी भूमिपाल भी वहाँ आयेंगे। वे नरपतिगण अपनी-अपनी विजय के उद्देश्य से वहाँ नाना प्रकार के उपहार, धन, गौएं, भक्ष्य और भोज्य आदि सब प्रकार की वस्तुएं दान करेंगे। उनका वह सब दान ग्रहण कर, स्वयंवर को देखकर और उत्सव का आनन्द लेकर फिर हम लोग अपने अपने अभीष्ट स्थान को चले जायंगे। वहाँ अनेक देशों के नट, वैतालिक, नर्तक, सूत, मागध तथा अत्यन्त बलवान् मल्ल आयंगे। महात्माओ! इस प्रकार हमारे साथ खेल करके, तमाशा देखकर और नाना प्रकार के दान ग्रहण करके फिर आप लोग भी लौट आइयेगा। आप सब लोगों का रुप तो देवताओं के समान है, आप सभी दर्शनीय हैं, आप लोगों को (वहाँ उपस्थित) देखकर द्रौपदी देवयोग से आप में से ही किसी एक को अपना वर चुन सकती है। आप लोगों के ये भाई अर्जुन तो बड़े सुन्दर और दर्शनीय है। इनकी भुजाएं बहुत बड़ी है। इन्हें यदि विजय के कार्य में नियुक्त कर दिया जाय, तो ये दैवात् बहुत बड़ी धनराशी जीत लाकर निश्चय ही आप लोगों को प्रसन्नता बढ़ायेंगे।
युधिष्ठिर बोले ;- ब्राह्मणों! हम भी द्रुपद कन्या के उस श्रेष्ठ स्वयंवर-महोत्सव को देखने के लिये आप लोगों के साथ चलेंगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तगर्त स्वयंवर में पाण्डव विषयक एक सौ तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
एक सौ चौरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों का द्रुपद की राजधानी में जाकर कुम्हार के यहाँ रहना, स्वयं वर सभा का वर्णन तथा धृष्टद्युम्न की घोषणा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उन ब्राह्मणों के यों कहने पर पाण्डव लोग (उन्हों के साथ) राजा द्रुपद के द्वारा पालित दक्षिणपाञ्चाल देश की ओर चले। तदनन्तर उन पाण्डव पर्व को मार्ग में पाप रहित शुद्धचित्त एवं श्रेष्ठ महात्मा द्वैपायन मुनि को दर्शन हुआ। पाण्डवों ने उनका यथावत् सत्कार किया और उन्होंने पाण्डवों का। फिर उनमें आवश्यक बातचीत हुई। वार्तालाप समाप्त होने पर व्यास जी का आज्ञा ले पाण्डव पुन: द्रुपद की राजधानी की ओर चल दिये। महारथी पाण्डव मार्ग में अनेकानेक रमणीय वन और सरोवर देखते तथा उन-उन स्थानों मे डेरा डालते हुए धीर-धीरे आगे बढ़ते गये। (प्रतिदिन) स्वाध्याय में तत्पर रहने वाले, पवित्र, मधुर प्रकृति वाले तथा प्रियवादी पाण्डुकुमार इस तरह चलकर क्रमश: पाञ्चालदेश में जा पहुँचे। द्रुपद के नगर ओर उसकी चहारदीवारी को देखकर पाण्डवों ने उस समय एक कुम्हार के घर में अपने रहने की व्यवस्था की। वहाँ ब्राह्मणवृति का आश्रय ले वे भिक्षा मांगकर लाते (और उसी से निर्वाह करते) थे।
इस प्रकार वहाँ पहुँचे हुए पाण्डव वीरों को कहीं कोई भी मनुष्य पहचान न सके। राजा द्रुपद के मन में सदा यही इच्छा रहती थी कि मैं पाण्डुनन्दन अर्जुन के साथ द्रौपदी का ब्याह करुं। परंतु वे अपने इस मनोभाव को किसी पर प्रकट नहीं करते थे। भरतवंशी जनमेजय! पाञ्चाल नरेश ने कुन्तीकुमार अर्जुन को खोज निकालने की इच्छा से एक ऐसा दृढ़ धनुष बनवाया, जिसे दूसरा कोई झुका भी न सके। राजा ने एक कृत्रिम आकाश-यन्त्र भी बनवाया, (जो तीव्र वेग से आकाश में घूमता रहता था)। उस यन्त्र के छिद्र के ऊपर उन्होंने उसी के बराबर का लक्ष्य तैयार कराकर रखवा दिया। (इसके बाद उन्होंने यह घोषणा करा दी)।
द्रुपद ने घोषणा की ;- जो वीर इस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर इन प्रस्तुत बाणों द्वारा ही यन्त्र के छेद के भीतर से इसे लांघकर लक्ष्यवेध करेगा, वही मेरी पुत्री को प्राप्त कर सकेगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार राजा द्रुपद ने जब स्वयंवर की घोषणा करा दी, तब उसे सुनकर सब राजा वहाँ उनकी राजधानी में एकत्र होने लगे। बहुत से महात्मा ऋषि-मुनि भी स्वयंवर देखने के लिये आये। राजन्! दुर्योधन आदि कुरुवंशी भी कर्ण के साथ वहाँ आये थे। भिन्न–भिन्न देशों से कितने ही महाभाग ब्राह्मणों ने भी पदार्पण किया था। महामना राजा द्रुपद ने (वहाँ पधारे हुए) नरपतियों का भली-भाँति स्वागत सत्कार एंव सेवा-पूजा की। तत्पश्चात् वे सभी नरेश स्वयंवर देखने की इच्छा से वहाँ रखे हुए मंचों पर बैठे। उस नगर के समस्त निवासी भी यथास्थान आकर बैठ गये। उन सबका कोलाहल क्षुब्ध हुए समुद्र के भयंकर गर्जन के समान सुनायी पड़ता था। वहाँ की बैठक शिशुकुमार की आकृति ने सजायी गयी थी। शिशुकुमार के शिरोभाग में सब राजा अपने-अपने मंचों पर बैठे थे। नगर से ईशानकोण में सुन्दर एवं समतल भूमि पर स्वयंवर सभा का रंगमण्डप सजाया गया था, जो सब ओर से सुन्दर भवनों द्वारा घिरा होने के कारण बड़ी शोभा पा रहा था। उसके सब ओर चहारदीवारी और खाई बनी थीं। अनेक फाटक और दरवाजे उस मण्डप की शोभा बढ़ा रहे थे। विचित्र चंदोवे से उस सभा भवन को सब ओर से सजाया गया था।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ सैकड़ों प्रकार के बाजे बज रहे थे। बहुमूल्य अगुरु धूप की सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी। फर्श पर चन्दन के जल का छिड़ किया गया था। सब ओर फूलों की मालाएं और हार टंगे थे, जिसमें वहाँ की शोभा बहुत बढ़ गयी थी। उस रंगमण्डप के चारों ओर कैलास शिखर के समान ऊंचे और श्वेत रंग के गगनचुम्बी महल बने हुए थे। उन्हें भीतर से सोने के जालीदार पर्दों और झालरों से सजाया गया था। वहाँ चारों ओर दीवारों में मणि एवं रत्न जड़े गये थे। उत्तम सुखपूर्वक चढ़ने योग्य सीढ़ियां बनी थी। बड़े-बड़े आसन और बिछावन आदि बिछाये गये थे। अनेक प्रकार की मालाएं और हार उन भवनों की शोभा बढ़ा रहे थे। अगुरु की सुगन्ध छा रही थी। वे इस और चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत दिखायी देते थे। उनके भीतर से निकली हुई धूप की सुगन्ध चारों ओर एक योजन-तक फैल रही थी। उन महलों में सैकड़ों दरवाजे थे। उनके भीतर आने-जाने के लिये बिल्कुल रोक-टोक नहीं थी और वे भाँति-भाँति की शय्याओं तथा आसनों से सुशोभित थे। उनकी दीवारों को अनेक प्रकार की धातुओं के रंगों से रंगा गया था। अत: वे राजमहल हिमालय के बहुरंगे शिखरों के समान सुशोभित हो रहे थे। उन्हीं सतमहले मकानों या विमानों में, जो अनेक प्रकार के बने हुए थे, सब राजा लोग परस्पर एक दूसरे से होड़ रखते हुए सुन्दर-से-सुन्दर श्रृंगार धारण करके बैठे। नगर और जनपद के लोगों ने जब देखा कि उक्त विमानों में बहुमूल्य मंचों के ऊपर महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न परमसौभाग्यशाली, कालागुरु से विभूषित, महान् कृपाप्रसाद से युक्त, ब्राह्मणभक्त, अपने-अपने राष्ट्र के रक्षक और शुभ पुण्यकर्मों के प्रभाव से सम्पूर्ण जगत् के प्रिय श्रेष्ठ नरपतिगण आकर बैठे गये हैं, तब राजकुमारी द्रौपदी के दर्शन का लाभ लेने के लिये वे भी सब ओर सुख-पूर्वक जा बैठे। वे पाण्डव भी पाञ्चालनरेश की उस सर्वोत्तम समृद्धि का अवलोकन करते हुए ब्राह्मणों के साथ उन्हीं की पंक्ति में बैठे थे।
राजन्! नगर में बहुत दिनों से लोगों की भीड़ बह रही थी। राजसमाज के द्वारा प्रचुर धन रत्नों का दान किया जा रहा था। बहुतेरे नट और नर्तक अपनी कला दिखाकर उस समाज को शोभा बढ़ा रहे थे। सोलहवें दिन अत्यन्त मनोहर समाज जुटा। भरतश्रेष्ठ! उसी दिन स्नान करके सुन्दर वस्त्र और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हो हाथों में सोने की बनी हुई कामदार जयमाला लिये द्रुपदराजकुमारी उस रंगभूमि में उतरी। तब सोमकवंशी क्षत्रियों के पवित्र एवं मन्त्रज्ञ ब्राह्मण पुरोहित ने अग्निवेदी के चारों ओर कुशा बिछाकर वेदोक्त विधि के अनुसार प्रज्वलित अग्नि में घी की आहुति डाली। इस प्रकार अग्रिदेव को तृप्त करके ब्राह्मणों को स्वस्तिवाचन कराकर चारों ओर बजने वाले सब प्रकार के बाजे बंद करा दिये गये। महाराज! बाजों की आवाज बंद हो जाने पर जब स्वयंवर सभा में सन्नाटा छा गया, तब विधि के अनुसार धृष्टद्युम्न द्रौपदी को (साथ) लेकर रंगमण्डप के बीच में खड़ा हो मेघ और दुन्दुभि के समान स्वर तथा मेघगर्जन की सी गम्भीर वाणी में यह अर्थयुक्त उत्तम एवं मधुर वचन बोला,,
धृष्टद्युम्न बोला ;- यहाँ आये हुए भूपालगण! आप लोग (ध्यान देकर) मेरी बात सुनें। यह धनुष हैं, ये बाण हैं और यह निशाना है। आप लोग आकाश में छोड़े हुए पांच पैने बाणों द्वारा उस यन्त्र के छेद से लक्ष्य को बेधकर गिरा दें। मैं सच कहता हूँ , झूठ नहीं बोलता- जो उत्तम कुल, सुन्दर रुप और श्रेष्ठ बल से सम्पन्न वीर यह महान् कर्म कर दिखायेगा, आज यह मेरी बहिन कृष्णा उसी की धर्मपत्नी होगी। यों कहकर द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न ने वहाँ आये हुए राजाओं के नाम, गोत्र और पराक्रम का वर्णन करते हुए अपनी बहिन द्रौपदी से इस प्रकार कहा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत स्वयंवरपर्व में धृष्टधुम्न वाक्य विषयक एक सौ चौरासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
एक सौ पचासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
"धृष्टद्युम्न द्रौपदी के स्वयंवर में आये हुए राजाओं का परिचय देना"
धृष्टद्युम्न ने कहा ;- बहिन! यह देखो- दुर्योधन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुष्प्रधर्षण, विविंशति, विकर्ण, सह, दु:शासन, युयुत्सु, वायुवेग, भीमवेगरव, उग्रायुध, बलाकी, करकायु, विरोचन, कुण्डक, चित्रसेन, सुवर्चा, कनकध्वज, नन्दक, बाहुशाली, तुहुण्ड तथा विकट- ये और दूसरे भी बहुत-से महाबली धृतराष्ट्र जो सब-के-सब वीर हैं, तुम्हें प्राप्त करने के लिये कर्ण के साथ यहाँ पधारे हैं। इनके सिवा और भी असंख्य महामना क्षत्रियशिरोमणी भूमिपाल यहाँ आये हैं। उधर देखो, गान्धारराज सुबल के पुत्र शकुनि, वृषक और बृहद्बल बैठे हैं। गान्धारराज के ये सभी पुत्र यहाँ पधारे हैं।
अश्वत्थामा और भोज- ये दोनों महान् तेजस्वी और सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं।राजा बृहन्त, मणिमान्, दण्डधार, सहदेव, जयत्सेन, राजा मेघसंधि अपने दोनों पुत्रों शंख, और उत्तर के साथ राजा विराट, वृद्धक्षेम के पुत्र सुशर्मा, राजा सेनाबिन्दु, सुकेतु और उनके पुत्र सुवर्चा, सुचित्र, सुकुमार, वृक, सत्यधृति, सूर्यध्वज, रोचमान, नील, चित्रायुध, अंशुमान्, चेकितान, महाबली श्रेणिमान्, समुद्रसेन के प्रतापी पुत्र चन्द्रसेन, जलसंघ, विदण्ड और उनके पुत्र दण्ड, पौण्ड्रक वासुदेव, पराक्रमी भगदत्त, कलिंगनरेश, ताम्रलिप्त नरेश, पाटन के राजा, अपने दो पुत्रों वीर रुक्मागद तथा रुक्मरथ के साथ महारथी मद्रराज शल्य, कुरुवंशी सोमदत्त तथा उनके तीन महारथी शूरवीर पुत्र भूरि, भूरिश्रवा और शल, काम्बोजदेशीय सुदक्षिण, पूरुवंशी दृढ़धन्वा।
महाबली, सुषेण, उशीनरदेशीय शिबि तथा चोर-डाकुओं को मार डालने वाले कारुषाधिपति भी यहाँ आये हैं। इधर संकर्षण, वासुदेव, (भगवान् श्रीकृष्ण) रुक्मिणीनन्दन पराक्रमी प्रद्युम्न, साम्ब, चारुदेष्ण, प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध, श्रीकृष्ण के बड़े भाई गद, अक्रूर, सात्यकि, परमबुद्धिमान् उद्धव, ह्रदिकपुत्र कृतवर्मा, पृथू, विपृथु, विदूरथ, कंक, शंक, गवेषण, आशावह, अनिरुद्ध, शमीक, सारिमेजय, वीर, वातपति, झिल्लीपिण्डारक तथा पराक्रमी उशीनर- ये सब वृष्णिवंशी कहे गये हैं। भगीरथवंशी बृहत्क्षत्र, सिन्धुगज जयद्रथ, बृहद्रथ, वाह्लीक, महारथी श्रृतायु, उलूक, राजा कैतव, चित्रागद, शुमागद, बुद्धिमान् वत्सराज, कोसलनरेश, पराक्रमी शिशुपाल तथा जरासंध- ये तथा और भी अनेक जनपदों के शासक भूमण्डल में विख्यात बहुत-से क्षत्रिय वीर तुम्हारे लिये यहाँ पधारे हैं। भद्रे! ये पराक्रमी नरेश तुम्हें पाने के उद्देश्य से इस उत्तम लक्ष्य का भेदन करेंगे। शुभे! जो इस निशाने को वेध डाले, उसी का आज तुम वरण करना।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत स्वयंवर पर्व में राजाओं के नाम का परिचय विषयक एक सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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