सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"कल्माषपाद का शाप से उद्धार और वसिष्ठ जी के द्वारा उन्हें अश्मक नामक पुत्री की प्राप्ति"
गन्धर्व कहता है ;- अर्जुन! तदनन्तर मुनिवर वसिष्ठ आश्रम को अपने पुत्रों से सूना देख अत्यन्त पीड़ित हो गये और पुन: आश्रम छोड़कर चले गये। कुन्तीनन्दन! वर्षा का समय था; उन्होंने देखा, एक नदी नूतन जल से लबालब भरी है और तटवर्ती बहुत से वृक्षों को (अपने बल की धारा में) बहाये लिये जाती है। कौरवनन्दन! उसे देखकर दु:ख से युक्त वसिष्ठ जी के मन में फिर यह विचार आया कि मैं इसी नदी के जल में डूब जाऊं। तब अत्यन्त दुखी हुए महामुनि वसिष्ठ अपने शरीर को पाशों द्वारा अच्छी तरह बांधकर उस महानदी के जल में कूद पड़े। शत्रुसेना का संहार करने वाले अर्जुन! उस नदी ने वसिष्ठ जी के बन्धन काटकर उन्हें स्थल में पहुँचा दिया और उन्हें विपाश (बन्धनरहित) करके छोड़ दिया। तब पाशमुक्त हो महर्षि जल से निकल आये और उन्होंने उसी नदी का नाम विपाश (व्यास) रख दिया।
उस समय (पुत्रवधुओं के संतोष के लिये) उन्होंने शोकबुद्धि कर ली थी, इसलिये वे किसी एक स्थान में नहीं ठहरते थे, पर्वतों, नदियों और सरोवरों के तट पर चक्कर लगाते रहते थे। (इस तरह घूमते-घूमते महर्षि ने पुन: हिमालय पर्वत से निकली हुई एक भयंकर नदी को देखा, जिसमें बड़े प्रचण्ड ग्राह रहते थे। उन्होंने फिर उसी की प्रखर धारा में अपने-आपको डाल दिया। वह श्रेष्ठ नदी ब्रह्मर्षि वसिष्ठ को अग्नि के समान तेजस्वी जान सैकड़ों धाराओं में फूटकर इधर-उधर भाग चली। इसीलिये वह शतद्र नाम से विख्यात हुई। वहाँ भी अपने को स्वयं ही स्थल में पड़ा देख मैं मर नहीं सकता यों कहकर वे फिर अपने आश्रम पर ही चले गये। इस तरह नाना प्रकार के पर्वतों और बहुसंख्यक देशों में भ्रमण करके वे पुन: जब अपने आश्रम के समीप आये, उस समय उनकी पुत्रवधु अदृश्यन्ती उनके पीछे हो ली। मुनि को पीछे की ओर से संगतिपूर्वक छहों अंगो में अंलकृत तथा स्फूट अर्थों से युक्त वेदमन्त्रों के अध्ययन का शब्द सुन पड़ा। तब उन्होंने पूछा- मेरे पीछे पीछे कौन आ रहा है। उक्त पुत्रवधु ने उत्तर दिया, महाभाग! मैं तप में ही संलग्न रहने वाली महर्षि शक्ति की अनाथ पत्नी अदृश्यन्ती हूँ।
वसिष्ठ जी ने पूछा ;- बेटी! पहले शक्ति के मुंह से मैं अंगों सहित वेद का जैसा पाठ सुना करता था, ठीक उसी प्रकार यह किसके द्वारा किये हुए सांग वेद के अध्ययन की ध्वनि मेरे कानों में आ रही हैं?
अदृश्यन्ती बोले ;- भगवन्! वह मेरे उदर में उत्पन्न ही वेदाभ्यास करते बारह वर्ष हो गये हैं।
गन्धर्व कहता है ;- अर्जुन! अद्दश्यन्ती के यों कहने पर भगवान पुरुषोत्तम का भजन करने वाले महर्षि वसिष्ठ बड़े प्रसन्न हुए और मेरी वंश परम्परा का लोप नहीं हुआ है, यों कहकर मन के संकल्प से विरत हो गये। अनघ! तब वे अपनी पुत्रवधु के साथ आश्रम की ओर लौटने लगे। इतने में ही मुनि ने निर्जन वन में बैठै हुए राजा कल्माषपाद को देखा। भारत! भयानक राक्षस ने आविष्ट हुए राजा कल्माषपाद मुनि को देखते ही क्रोध में भरकर उठे और उसी समय उन्हें खा जाने को इच्छा करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट् सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)
उस क्रूरकर्मा राक्षस को सामने देख अदृश्यन्ती ने भयाकुल वाणी में वसिष्ठ जी से यह कहा,,
अदृश्यन्ती बोले ;- 'भगवन्! वह भयंकर राक्षस एक बहुत बड़ा काठ लेकर इधर ही आ रहा है, मानो साक्षात यमराज भयानक दण्ड लिये आ रहे हों। महाभाग! आप सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। (इस समय) इस भूतल पर आपके सिवा दूसरा कोई नहीं हैं, जो उस राक्षस का वेग रोक सके। भगवन्! देखने में अत्यन्त भयंकर इस पापी से मेरी रक्षा कीजिये। निश्चय ही यह राक्षस यहाँ हम दोनों का खा जाने की घात में लगा है।'
वसिष्ठ जी ने कहा ;- बेटी! भयभीत न हो। इस राक्षस से तो किसी प्रकार न डरो। जिससे तुम्हें भय उपस्थित दिखायी देता है, वह वास्तव में राक्षस नहीं है। ये भूमण्डल में विख्यात पराक्रमी राजा कल्माषपाद हैं। ये ही वन में अत्यन्त भीषण रुप धारण करके रहते हैं।
गन्धर्व कहते हैं ;- भारत! उस राक्षस को आते देख तेजस्वी भगवान वसिष्ठ मुनि ने हुंकारमात्र से ही रोक दिया। और मन्त्रपूत जल से उसके छींटे देकर अपने योग के प्रभाव से राजा को उस शाप से मुक्त कर दिया। जैसे पूर्वकाल में सूर्य राहु द्वारा ग्रस्त हो जाता है, उसी प्रकार राजा कल्माषपाद बारह वर्षों तक वसिष्ठ जी के पुत्र शक्ति के ही तेज (शाप के प्रभाव) से ग्रस्त रहे। उस (मन्त्रपूत जल के प्रभाव से) राक्षस ने भी राजा को छोड़ दिया। फिर तो भगवान भास्कर जैसे संन्ध्याकालीन बादलों को अपनी (अरुण) किरणों से रंग देते हैं; उसी प्रकार राजा ने अपने (सहज) तेज से उस महान् वन को अनुरञ्जित कर दिया। तदनन्तर सचेत होने पर राजा कल्माषपाद ने तत्काल ही मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा- महाभाग मुनिश्रेष्ठ! मैं आपका यजमान् सौदास हूँ। इस समय आपकी जो अभिलाषा हो, कहिये- मैं आपकी क्या सेवा करुं?
वसिष्ठ जी ने कहा ;- नरेन्द्र! मेरी जो अभिलाषा थी, वह समयानुसार सिद्ध हो गयी। अब जाओ, अपना राज्य संभालों। (आज से फिर) कभी ब्राह्मणों का अपमान न करना। राजा बोले-महाभाग! मैं कभी ब्राह्मणों का अपमान नहीं करुंगा। आपकी आज्ञा के पालन में संलग्न हो (सदा) ब्राह्मणों की भलीभाँति पूजा करुंगा। समस्त वेदवेत्ताओं में अग्रगण्य द्विजश्रेष्ठ! मैं आपसे एक पुत्र प्राप्त करना चाहता हूं, जिसके द्वारा मैं अपने इक्ष्वाकुवंशी पितरों के ऋण से उऋण हो सकूं। साधु शिरोमणे! इक्ष्वाकुवंश की वृद्धि के लिये आप मुझे ऐसी अभीष्ट संतान दीजिये, जो अक्षम स्वभाव, सुन्दर रुप और श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हो।
गन्धर्व कहता हैं ;- कुन्तीनन्दन! तब सत्यप्रतिज्ञ विप्रवर वसिष्ठ ने महान् धनुर्धर राजा कल्माषपाद से उत्तर में कहा- मैं तुम्हें वैसा ही पुत्र दूंगा। मनुजेश्वर! तदनन्तर यथासमय राजा के साथ वसिष्ठ जी उनकी राजधानी में गये, जो लोकों में अयोध्यापुरी के नाम से प्रसिद्ध है। अपने पापरहित महात्मा नरेश का आगमन सुनकर अयोध्या की सारी प्रजा अत्यन्त प्रसन्न हो उनकी अगवानी के लिये ठीक उसी तरह बाहर निकल आयी, जैसे देवता लोग अपने स्वामी इन्द्र का स्वागत करते हैं। बहुत वर्षों के बाद राजा ने उस पुण्यमयी नगरी में प्रसिद्ध महर्षि वसिष्ठ के साथ प्रवेश किया। अयोध्यावासी लोगों ने पुरोहित के साथ आये राजा कल्माषपाद का उसी प्रकार दर्शन किया, जैसे (प्रात:काल) प्रजा उदित हुए भगवान सूर्य का दर्शन करती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट् सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 40-47 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे शीतल किरणों वाले चन्द्रमा शरत्काल में उदित हो आकाश को अपनी ज्योत्सना से जगमग कर देते हैं, उसी प्रकार लक्ष्मीवानों में श्रेष्ठ नरेश ने उस अयोध्यापुरी को शोभा से परिपूर्ण कर दिया। नगर की सड़कों को झाड़-फुहारकर उन पर छिड़काव किया गया था। सब ओर लगी हुई ध्वजा पताकाएं उस पुरी की शोभा बढ़ा रही थी। इस प्रकार राजा की वह उत्तम नगरी दर्शकों के मन को उत्तम आहार प्रदान कर रही थी। कुरुनन्दन! जैसे इन्द्र से अमरावती की शोभा होती है, उसी प्रकार संतुष्ट एवं पुष्ट मनुष्यों से भरी हुई अयोध्यापुरी उस समय महाराज कल्माषाद उपस्थिति से बड़ी शोभा पा रही थी। राजर्षि कल्माषपाद के उस उत्तम नगरी में प्रवेश करने के पश्चात उक्त महाराज की आज्ञा के अनुसार (महारानी मदयन्ती) महर्षि वसिष्ठ के समीप गयी।
तत्पश्चात् भगवन् भक्त महर्षि वसिष्ठ ने ॠतुकाल में शास्त्र की अलौकिक विधि के अनुसार महारानी के साथ नियोग किया। तदनन्तर रानी की कुक्षि में गर्भ स्थापित हो जाने पर उक्त राजा से वन्दित हो (उनसे विदा लेकर) मुनिवर वसिष्ठ अपने आश्रम को लौट गये। जब बहुत समय बीतने के बाद (भी) वह गर्भ बाहर न निकला, तब यशस्विनी रानी (मदयन्ती) ने अश्म (पत्थर) से अपने गर्भाश्य पर प्रहार किया। तदनन्तर बाहरवें वर्ष में बालक का जन्म हुआ। वही पुरुषश्रेष्ठ राजर्षि अश्मक नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिन्होंने पौदन्य नाम का नगर बसाया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तगर्त चैत्ररथ पर्व में वसिष्ठ चरित के प्रसंग में सौदास को पुत्र-प्राप्तिविषयक एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"शक्ति पुत्र पराशर का जन्म और पिता की मृत्यु का हाल सुनकर कुपित हुए पराशर को शान्त करने के लिये वसिष्ठ जी का उन्हें और्वोपाख्यान सुनाना"
गन्धर्व कहता है ;- अर्जुन! तदनन्तर (वसिष्ठ जी के) आश्रम में रहती हुई अदृश्यन्ती ने शक्ति के वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र को जन्म दिया, मानो उस बालक के रुप में दूसरे शक्ति मुनि ही हो। भरतश्रेष्ठ! मुनिवर भगवान वसिष्ठ ने स्वयं अपने पौत्र के जातकर्म आदि संस्कार किये। उस बालक ने गर्भ में आकर परासु (मरने की इच्छा वाले) वसिष्ठ मुनि को पुन: जीवित रहने के लिये उत्साहित किया था; इसलिये वह लोक में पराशर के नाम से विख्यात हुआ। धर्मात्मा पराशर मुनि वसिष्ठ को ही अपना पिता मानते थे और जन्म से ही उनके प्रति पितृभाव रखते थे। परंतप कुन्तीकुमार! एक दिन ब्रह्मर्षि पराशर ने अपनी माता अद्दश्यन्ती के सामने ही वसिष्ठ जी को तात कहकर पुकारा। बेटे के मुख से परिपूर्ण अर्थ का बोधक तात यह मधुर वचन सुनकर अद्दश्यन्ती के नेत्रों में आंसू भर आये और वह उससे बोली- बेटा! ये तुम्हारे पिता के भी पिता हैं। तुम इन्हें तात तात! कहकर न पुकारो। वत्स! तुम्हारे पिता को तो वन के भीतर राक्षस खा गया। अनघ! तुम जिन्हें तात मानते हो, ये तुम्हारे तात नहीं हैं। ये तो तुम्हारे यशस्वी पिता के पूजनीय पिता हैं। माता के यों कहने पर सत्यवादी मुनिश्रेष्ठ महामना पराशर दु:ख से आतुर हो उठे। उन्होंने उसी समय सब लोकों को नष्ट कर डालने का विचार किया। उनके मन का ऐसा निश्चय जान ब्रह्मवेत्ताओं मे श्रेष्ठ महातपस्वी, महात्मा एवं तात्विक बुद्धि वाले मित्रावरुणनन्दन वसिष्ठ जी ने पराशर को ऐसा करने से रोक दिया। जिस हेतु और युक्ति से वे उन्हें रोकने में सफल हुए, वह (बताता हूं) सुनिये।
वसिष्ठजी ने (पराशर से) कहा ;- वत्स! इस पृथ्वी पर कृतवीर्य नाम से प्रसिद्ध एक राजा थे। ये नृपश्रेष्ठ वेदज्ञ भृगुवंशी ब्राह्मणों के यजमान थे। तात! उन महाराज ने सोमयज्ञ करके उसके अन्त में उन अग्रभोजी भार्गवों को विपुल धन और धान्य देकर उसके द्वारा पूर्ण संतुष्ट किया। राजाओं में श्रेष्ठ कृतवीर्य के स्वर्गवासी हो जाने पर उनके वंशजों को किसी तरह द्रव्य की आवश्यकता आ पड़ी। भृगुवंशी ब्राह्मणों के यहाँ धन है, यह जानकर वे सभी राजपुत्र उन श्रेष्ठ भार्गवों के पास याचक बनकर गये। उस समय कुछ भार्गवों ने अपनी अक्षय धनराशि को धरती में गाड़ दिया। कुल ने क्षत्रियों के भय समझकर अपना धन ब्राह्मणों को दे दिया और कुछ भृगुवंशियों ने उन क्षत्रियों को यथेष्ट धन दे भी दिया। तात! कुछ दूसरे-दूसरे कारणों का विचार करके उस समय जिन्होंने क्षत्रियों को वन प्रदान किया था। वत्स! तदनन्तर किसी क्षत्रिय से अकस्मात् धरती खोदते-खोदते किसी भृगुवंशी के घर में गड़ा हुआ धन पा लिया। तब सभी श्रेष्ठ क्षत्रियों ने एकत्र होकर उस धन को देखा। फिर तो उन्होंने क्रोध में भरकर शरण में आये हुए भृगुवंशियों का भी अपमान किया। उन महान् धनुर्धर वीरों-ने (वहाँ आये हुए) समस्त भार्गवों को तीखे बाणों से मारकर यमलोक पहुँचा दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर भृगुवंशियों के गर्भश्थ बालकों की भी हत्या करते हुए वे क्रोधान्ध क्षत्रिय सारी पृथ्वी पर विचरने लगे। इस प्रकार भृगुवंश का उच्छेद आरम्भ होने पर भृगुवशियों की पत्नियां उस समय भय के मारे हिमालय की दुर्गम कन्दरा में जा छिपीं। उनमें से एक स्त्री ने अपने महान् तेजस्वी गर्भ को भय के मारे एक ओर की जांघ को चीरकर उसमें रख लिया। उस वामोरु ने अपने पति के वंश की वृद्धि के लिये ऐसा साहस किया था। उस गर्भ का समाचार जानकर कोई ब्राह्मणी बहुत डर गयी और उसने शीघ्र ही अकेली जाकर क्षत्रियों को समीप उसकी खबर पहुँचा दी। फिर तो वे क्षत्रिय लोग उसे गर्भ की हत्या करने के लिये उद्यत हो वहाँ गये। उन्होंने देखा, वह ब्राह्मणी अपने तेज से प्रकाशित हो रही हैं। उसी समय उस ब्राह्मणी का वह गर्भस्थ शिशु उसकी जांघ फाड़कर बाहर निकल आया। बाहर निकलते ही दोपहर के प्रचण्ड सूर्य की भाँति उस तेजस्वी शिशु ने (अपने वेग से) उन क्षत्रियों की आंखों की ज्योति छीन ली।
तब वे अंधे होकर उस पर्वत के बीहढ़ स्थानों में भटकने लगे। फिर मोह के वशीभूत हो अपनी बुद्धि हो अपनी दृष्टि को खो देने वाले क्षत्रियों ने पुन: दृष्टि प्राप्त करने के लिये उसी सती-साध्वी ब्राह्मणी की शरण ली। वे क्षत्रिय उस समय आंख की ज्योति से वज्रित हो बुझी हुई लपटों वाली आग के समान अत्यन्त दु:ख से आतुर एवं अचेत हो रहे थे। अत: वे उस महान् सौभाग्यशालिनी देवी से इस प्रकार बोले- देवि! यदि आपकी कृपा हो तो नेत्र पाकर यह क्षत्रियों का दल अब लौट जायगा, थोड़ी देर विश्राम करके हम सभी पापाचारी यहाँ से साथ ही चले जायेंगे। शोभने! तुम अपने पुत्र के साथ हम सब पर प्रसन्न हो जाओ और पुन: नूतन द्दष्टि देकर हम सभी राजपुत्रों की रक्षा करो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तगर्त चैत्ररथ पर्व में और्वोपाख्यानविषयक एक सौ सतहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ उनासीवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
"पुलस्त्य आदि महर्षियों के समझाने से पराशर के द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति"
गन्धर्व कहता हैं ;- अर्जुन! महात्मा वसिष्ठ के यों कहने पर उन ब्रह्मर्षि पराशर ने अपने क्रोध को समस्त लोकों के पराभव से रोक लिया। तब सम्पूर्ण वेदवेक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी शक्तिनन्दन पराशर ने राक्षससत्र का अनुष्ठान किया। उस विस्तृत यज्ञ में अपने पिता शक्त्िा के वध को बार-बार चिन्तन करते हुए महामुनि पराशर ने राक्षस जाति के बूढ़ों तथा बालकों को भी जलाना आरम्भ किया। उस समय महर्षि वसिष्ठ ने यह सोचकर कि इसकी दूसरी प्रतिज्ञा को न तोडूं, उन्हें राक्षसों के वध से नहीं रोका। उस सत्र में तीन प्रज्वलित अग्रियों के समक्ष महामुनि पराशर चौथे अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। (पापी राक्षसों का संहार करने के कारण) वह यज्ञ अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध समझा जाता था। शक्तिनन्दन पराशर द्वारा उसमें यज्ञ-सामग्री का हवन आरम्भ होते ही (वह इतना प्रज्वलित हो उठा कि) उसके तेज से सम्पूर्ण आकाश ठीक उसी तरह उद्भासित होने लगा, जैसे वर्षा बीतने द्वारा सूर्य की प्रभा से उद्दीप्त हो उठता है। उस समय वसिष्ठ आदि सभी मुनियों की वहाँ तेज से प्रकाशमान महर्षि पराशर दूसरे सूर्य के समान जान पड़ते थे। तदनन्तर दूसरों के लिये उस यज्ञ को समाप्त कराने की इच्छा से पराशर के पास आये। शत्रुओं की नाश करने वाले अर्जुन! उसी प्रकार पुलस्त्य, पुलहा क्रतु और महाक्रतु ने भी राक्षसों के जीवन की रक्षा के लिये वहाँ पदार्पण किया।
भरतकुलभूषण कुन्तीकुमार! उन राक्षसों का विनाश ऐसा होता देख महर्षि पुलस्त्य ने शत्रुसूदन पराशर को यह बात कही,,
महर्षि पुलस्त्य बोले ;- 'तात! तुम्हारे इस यज्ञ में कोई विघ्न तो नहीं पड़ा? बेटा! तुम्हारे पिता की हत्या के विषय में कुछ भी न जानने वाले इन सभी निर्दोष राक्षसों का वध करके क्या तुम्हें प्रसन्नता होती है? वत्स! मेरी संतति का तुम्हें इस प्रकार उच्छेद नहीं करना चाहिये। तात! यह हिसा तपस्वी ब्राह्मणों का धर्म सभी नहीं मानी गयी। पराशर! शान्त रहना ही (ब्राह्मणों का) श्रेष्ठ धर्म हैं, अत: उसी का आचरण करो। तुम श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी यह पापकर्म करते हो? तुम्हारे पिता शक्ति धर्म के ज्ञाता थे, तुम्हें (इस अधर्म-कृत्य द्वारा) उनकी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। फिर मेरी संतानों का विनाश करना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है। वसिष्टकुलभूषण! शक्त्िा के शाप से ही उस समय वैसी दुर्घटना हो गयी थी। वे अपने ही अपराध के इस लोक को छोड़कर स्वर्गवासी हुए हैं (इसमें राक्षसों का कोई दोष नहीं है)। मुने! कोई भी राक्षस उन्हें खा नहीं सकता था। अपने ही शाप से (राजा को नरभक्षी राक्षस बना दने के कारण) उन्हें उस समय अपनी मृत्यु देखती पड़ी।
पराशर! विश्वामित्र तथा राजा कल्माषपाद भी इसमें निमितपात्र ही थे (तुम्हारे पूर्वजों की मृत्यु में तो प्रारब्ध ही प्रधान है)। इस समय तुम्हारे पिता शक्ती स्वर्ग में जाकर आनन्द भोगते हैं। महामुने! वसिष्ठ जी के शक्ति से छोटे जो पुत्र थे, वे सभी देवताओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक सुख भोग रहे हैं। महर्षे! तुम्हारे पितामह वसिष्ठ जी को ये सब बातें विदित हैं। तात शक्तिनन्दन! तेजस्वी राक्षसों के विनाश के लिये आयोजित इस यज्ञ में तुम भी निमितमात्र ही बने हो (वास्तव में यह सब उन्हीं के पूर्व कर्मों का फल है)। अत: अब इस यज्ञ को छोड़ दो। तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे इन सत्र की समाप्ति हो जानी चाहिये।
गन्धर्व कहता है ;- अर्जुन! पुलस्त्य जी तथा परम बुद्धिमान् वसिष्ठ जी के यों कहने पर महामुनि शक्ति पुत्र पराशर ने उसी समय यज्ञ को समाप्त कर दिया। सम्पूर्ण राक्षसों के विनाश के उद्देश्य से किये जाने वाले उस सत्र के लिये जो अग्नि संचित की गयी थी, उसे उन्होंने उत्तर दिशा में हिमालय के आस-पास के विशाल वन में छोड़ दिया। वह अग्नि आज भी वहाँ सदा प्रत्येक पर्व के अवसर पर राक्षसों, वृक्षों और पत्थरों को जलाती हुई देखी जाती है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तगर्त चैत्ररथ पर्व में और्वोपाख्यान-विषयक एक सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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