सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के एक सौ इकहत्तरवें अध्याय से एक सौ पचहत्तरवें अध्याय तक (from the 171 chapter to the 175 chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकससत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"तपती और संवरण की बातचीत"

गन्धर्व कहता है ;- अर्जुन! तब तपती अद्दश्‍य हो गयी, तब काममोहित राजा संवरण, जो शत्रुसमुदाय को मार गिराने-वाले थे, स्‍वयं ही बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े। जब वे इस प्रकार मूर्च्छित होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े, तब स्‍थूल एवं विशाल श्रोणीप्रदेश वाली तपती ने मन्‍द-मन्‍द मुस्कराते हुए अपने राजा संवरण के सामने प्रकट कर दिया। कुरुवंश का विस्‍तार करने वाले राजा संवरण कामाग्नि से पीड़ित हो अचेत हो गये थे। उस समय जैसे कोई हंसकर मधुर वचन बोलता हो, उसी प्रकार कल्‍याणी तपती मीठी वाणी में उन नरेश से बोली,,

तपती बोली ;- ‘शत्रुदमन! उठिये, उठिये, उठिये; आपका कल्‍याण हो। राजसिंह! आप इस भूतल के विख्‍यात सम्राट हैं। आपको इस प्रकार मोह के वशीभूत नहीं होना चाहिये।' तपती ने जब मधुर वाणी में इस प्रकार कहा, तब राजा संवरण ने आंखें खोलकर देखा। वही विशाल नितम्‍बों वाली सुन्‍दरी सामने खड़ी थी। राजा के अन्‍त:करण में कामजनित आग जल रही थी। वे उस कजरारे नेत्रों वाली सुन्‍दरी से लड़खड़ाती वाणी में बोले,,

संवरण बोले ;- ‘श्‍यामलोचने! तुम आ गयीं, अच्‍छा हुआ। यौवन के मद से सुशोभि‍त होने वाली सुन्‍दरी! मैं काम से पीड़ित तुम्‍हारा सेवक हूँ। तुम मुझे स्‍वीकार करो, अन्‍यथा मेरे प्राण मुझे छोड़कर चले जायंगे।

विशालाक्षि! कमल के भीतरी भाग की-सी कान्ति वाली सुन्‍दरि! तुम्‍हारे लिये कामदेव मुझे अपने तीखे बाणों द्वारा बार-बार घायल कर रहा है। यह (एक क्षण के लिये भी) शान्‍त नहीं होता। भद्रे! ऐसे समय में जब मेरा कोई भी रक्षक नहीं है, मुझे कामरुपी महासर्प ने डस लिया है। स्‍थूल एवं विशाल नितम्‍बों वाली वरानने! मेरे समीप आओ। किन्‍नरों की-सी मीठी बोली बोलने वाली! मेरे प्राण तुम्‍हारे ही अधीन हैं। भीरु! तुम्‍हारे सभी अंग मनोहर तथा अनिन्‍द्य सौन्‍दर्य से सुशोभि‍त हैं। तुम्‍हारा मुखकमल और चन्‍द्रमा के समान सुशोभि‍त होता है। मैं तुम्‍हारे बिना जीवित नहीं रह सकूंगा। कमलदल के समान सुन्‍दर नेत्रों वाली सुन्‍दरि! यह कामदेव मुझे (अपने बाणों से) घायल कर रहा हैं। विशाललोचने! इसलिये तुम मुझ पर दया करो। कजरारे नेत्रों वाली भामिनी! मैं तुम्‍हारा भक्‍त हूँ। तुम मेरा परित्‍याग न करो। तुम्‍हें तो प्रेमपूर्वक मेरी रक्षा करनी चाहिये। मेरा मन तुम्‍हारे दर्शन के साथ ही तुमसे अनुरक्‍त हो गया है। इसलिये वह अत्‍यन्‍त चञ्चल हो उठा है।

कल्‍याणि! तुम्‍हें देख लेने के बाद फिर दूसरी स्‍त्री की ओर देखने की रुचि मुझे नहीं रह गयी है। मैं सर्वथा तुम्‍हारे अधीन हूं, मुझ पर प्रसन्‍न हो जाओ। महानुभावे! मुझ भक्‍त को अंगीकार करो। वरारोहे! विशाल नेत्रों वाली अंगने! जब से मैंने तुम्‍हें देखा हैं, तभी से कामदेव मेरे अन्‍त:करण को अपने बाणों द्वारा घायल कर रहा है। कमललोचने! तुम प्रेमपूर्वक समागम के जल से मेरे कामाग्निजनित दाह को बुझाकर मुझे आह्लाद प्रदान करो। कल्‍याणि! तुम्‍हारे दर्शन से उत्‍पन्‍न हुआ कामदेव फूलों के आयुध लेकर भी अत्‍यन्‍त दुर्धर्ष हो रहा है। उसके धनुष और बाण दोनों ही बड़े प्रचण्‍ड हैं। वह अपने दुस्‍सह बाणों से मुझे बींध रहा है। महानुभावे! तुम आत्‍मदान देकर मेरे उस काम को शान्‍त करो। वरागने! गान्‍धर्व विवाह द्वारा तुम मुझे प्राप्‍त होओ। सब विवाहों में गान्‍धर्व विवाह ही श्रेष्ठ बतलाया जाता है।’

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकससत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 20-25 का हिन्दी अनुवाद)

  तपती ने कहा ;- राजन्! मैं ऐसी कन्‍या हूं, जिसके पिता विद्यमान हैं; अत: अपने इस शरीर पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। यदि आपका मुझ पर प्रेम है तो मेरे पिता जी से मुझे मांग लीजिये। नरेश्‍वर! जैसे आपके प्राण मेरे अधीन हैं, उसी प्रकार आपने भी दर्शनमात्र से ही मेरे प्राणों को हर लिया है। नृपश्रेष्‍ठ! मैं अपने शरीर की स्‍वामिनी नहीं हूं, इसलिये आपके समीप नहीं आ सकती; कारण कि स्त्रियां कभी स्‍वतन्‍त्र नहीं होतीं।

  आपका कुल सम्‍पूर्ण लोकों में विख्‍यात है। आप जैसे भक्‍तवत्‍सल नरेश को कौन कन्‍या अपना पति बनाने की इच्‍छा नहीं करेगी? ऐसी दशा में आप यथा समय नमस्‍कार, तपस्‍या और नियम के द्वारा मेरे पिता भगवान् सूर्य को प्रसन्‍न करके उनसे मुझे मांग लीजिये। शत्रुदमननरेश! यदि वे मुझे आपकी सेवा में देना चाहेंगे तो मैं आज से सदा आपकी आज्ञा के अधीन रहूंगी। क्षत्रियशिरोमणे! मैं इन्‍हीं अखिलभुवनभास्‍कर भगवान् सविता की पुत्री और सावित्री की छोटी बहिन हूँ। मेरा नाम तपती है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत चैत्ररथ पर्व में तपती-उपाख्‍यान विषयक एक सौ इकहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"वसिष्ठ जी की सहायता से राजा संवरण को तपती की प्राप्ति"

गन्धर्व कहता है ;- अर्जुन! यों कहकर वह अनित्‍द्य सुन्‍दरी तपती तत्‍काल ऊपर (आकाश में) चली गयी और वे राजा संवरण फिर वहीं (मूर्च्छित हो) पृथ्‍वी पर गिर पड़े। इधर उनके मन्‍त्री सेना और अनुचरों को साथ लिये उन श्रेष्‍ठ नरेश को खोजते हुए आ रहे थे। उस महान् वन में पहुँच-कर मन्‍त्री ने राजा को देखा। वे समय पाकर गिरे हुए ऊंचे इन्‍द्रध्‍वज की भाँति पृथ्‍वी पर पड़े थे। तपती से विमुक्‍त उन महान् धनुर्धर महाराज को इस प्रकार पृथ्‍वी पर पड़ा देख राजमन्‍त्री ऐसे व्‍याकुल हो उठे मानो उनके शरीर में आग लग गयी हो। वे तुरंत उनके पास जा पहुँचे। स्‍नेहवश उनके हृदय में घबराहट पैदा हो गयी थी। राजमन्‍त्री अवस्‍था में तो बड़े-बूढ़े थे ही, बुद्धि, कीर्ति और नीति में बढ़े-चढ़े थे। उन्‍होंने जैसे‍ पिता अपने गिरे हुए पुत्र को धरती से उठा ले, उसी प्रकार कामवेदना से मूर्च्छित हुए भूमिपालों के भी स्‍वामी महाराज संवरण को शीघ्रतापूर्वक पृथ्‍वी पर से उठा लिया। राजा को उठाकर और उन्‍हें जीवित पाकर उनकी चिन्‍ता दूर हो गयी। वे उठकर बैठे हुए महाराज से कल्‍याणमयी मधुर वाणी में बोले,,

राजमन्‍त्री बोले ;- 'नरश्रेष्‍ठ! आप डरें नहीं। अनघ! आपका कल्‍याण हो।'

   युद्ध में शत्रुदल को पृथ्‍वी पर गिरा देने वाले नरेश को भूमि पर गिरा देख मन्‍त्री ने यह अनुमान लगाया कि ये भूख-प्‍यास से पीड़ित एवं थके-मांदे हैं। गिरने पर राजा का मुकुट छिन्‍न-भि‍न्‍न नहीं हुआ था। (इससे अनुमान होता था कि राजा युद्ध में घायल नहीं हुए हैं)। मन्‍त्री ने राजा के मस्‍तक को कमल की सुगन्‍ध से युक्‍त ठंडे जल से सींचा। उससे राजा को चेत हो आया। बलवान् नरेश ने एकमात्र अपने मन्‍त्री के सिवा सारी सेना को लौटा दिया। महाराज की आज्ञा से तुरंत वह विशाल सेना राजधानी की ओर चल दी; परंतु वे राजा संवरण फिर उसी पर्वत शिखर पर जा बैठे। तदनन्‍तर उस श्रेष्ठ पर्वत पर स्‍नानादि से पवित्र हो भगवान सूर्य की आराधना करने के लिये हाथ जोड़ ऊपर की ओर मुंह किये वे भूमि पर खड़े हो गये। उस समय शत्रुओं का नाश करने वाले राजा संवरण ने अपने पुरोहित मुनिवर वसिष्ठ का मन-ही-मन स्‍मरण किया। वे रात-दिन एक ही जगह खड़े होकर तपस्‍या में लगे रहे। तब बारहवें दिन महर्षि‍ वसिष्ठ का (वहां) शुभागमन हुआ। विशुद्ध अन्‍त:करण वाले महर्षि‍ वसिष्‍ठ दिव्‍यज्ञान से पहले बात जान गये कि सूर्य कन्‍या तपती ने राजा का चित्त चुरा लिया है। इस प्रकार मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर तपस्‍या में लगे हुए उक्‍त नरेश से धर्मात्‍मा मुनिवर वसिष्‍ठ ने उन्‍हीं की कार्य-सिद्धि के लिये कुछ बातचीत की।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)

उक्‍त महाराज के देखते-देखते सूर्य के समान तेजस्‍वी भगवान वसिष्ठ मुनि सूर्यदेव से मिलने के लिये ऊपर को गये। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ दोनों हाथ जोड़कर सहस्रों किरणों से सुशोभि‍त भगवान् सूर्यदेव के समीप गये और 'मैं वसिष्ठ हूं' यों कहकर उन्‍होंने बड़ी प्रसन्‍नता से अपना समाचार निवेदित किया। 

फिर वसिष्ठ जी बोले ;- जो अजन्‍मा, तीनों लोकों को पवित्र करने वाले, समस्‍त प्राणियों के अन्‍तर्यामी, किरणों के अधिपति, धर्मस्‍वरुप, सृष्ठि और प्रलय के अधि‍ष्ठान तथा परम दयालु देवताओं में सर्वश्रेष्‍ठ हैं, उन भगवान सूर्य को नमस्‍कार है। जो ज्ञानियों के अन्‍तरात्‍मा, जगत् को प्रकाशित करने वाले, संसार के हितैषी, स्‍वयम्‍भू तथा सहस्रों उद्दीप्‍त नेत्रों से सुशोभि‍त हैं, उन अमित तेजस्‍वी सुरश्रेष्ठ भगवान् सूर्य को नमस्‍कार है। जो जगत् के एकमात्र नेत्र हैं, संसार की सृष्टि, पालन ओर संहार के हेतु हैं, तीनों वेद जिनके स्‍वरुप हैं, जो त्रिगुणात्‍मक स्‍वरुप धारण करके ब्रह्म, विष्णु और शिव नाम से प्रसिद्ध हैं, उन भगवान् सविता को नमस्‍कार है। 

तब महातेजस्‍वी भगवान् सूर्य ने मुनिवर वसिष्ठ से कहा ;- 'महर्षे! तुम्‍हारा स्‍वागत है! तुम्‍हारी जो अभिलाषा हो, उसे कहो। वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ महाभाग! तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, तुम्‍हारी वह अभीष्ट वस्‍तु कितनी हो दुर्लभ क्‍यों न हो, तुम्‍हें अवश्‍य दूंगा। उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! तुमने जो मेरा स्‍तवन किया है, इसके लिये मैं वर देने का उद्यत हूं, कोई वर मांगो। तुम्‍हारे द्वारा कही हुई वह स्‍तुति भक्‍तों के लिये निरन्‍तर जप करने योग्‍य है। मैं तुम्‍हें वर देना चाहता हूँ। उनके यों कहने पर महातपस्‍वी मुनिवर वसिष्ठ मरीचिमाली भगवान् भास्‍कर को प्रणाम करके इस प्रकार बोले।

वसिष्ठ जी ने कहा ;- विभावसो! यह जो आपकी तपती नाम की पुत्री एवं सावित्री की छोटी बहिन है, इसे मैं आपसे राजा संवरण के लिये मांगता हूँ। उस राजा की कीर्ति बहुत दूर तक फैली हुई है। वे धर्म और अर्थ के ज्ञाता तथा उदार बुद्धि वाले हैं; अत: आकाशचारी सूर्यदेव! महाराज संवरण आपकी पुत्री के लिये सुयोग्‍य पति होंगे। वसिष्ठ जी यों कहने पर अपनी कन्‍या देने का निश्‍चय करके भगवान सूर्य ने ब्रह्मर्षि का अभिनन्‍दन किया और इस प्रकार कहा,,

सूर्य बोले ;- मुने! संवरण राजाओं में श्रेष्ठ हैं, आप महर्षियों में उत्‍तम हैं और तपती युवतियों में सर्वश्रेष्‍ठ है; अत: उसके दान से श्रेष्‍ठ और क्‍या हो सकता है। तदनन्‍तर साक्षात् भगवान सूर्य ने अनिन्‍द्य सुन्‍दरी तपती को राजा संवरण की पत्‍नी होने के लिये महात्‍मा वसिष्ठ को अर्पित कर दिया। ब्रहर्षि‍ वसिष्ठ ने उस कन्‍या को ग्रहण किया और वहाँ से विदा होकर वे तपती के साथ पुन: उस स्‍थान पर आये, जहाँ विख्‍यातकीर्ति, कुरुवंशियों में श्रेष्ठ राजा संवरण काम के वशीभूत हो मन-ही-मन तपती का चिन्‍तन करते हुए बैठे थे।

  मनोहर मुस्‍कान वाली देव कन्‍या तपती को वसिष्ठ जी के साथ आती देख राजा संवरण अत्‍यन्‍त हर्षोल्‍लास से युक्‍त हो अधिक शोभा पाने लगे। सुन्‍दर भौंहों वाली तपती आकाश से पृथ्‍वी पर आते समय गिरी हुई बिजली के समान सम्‍पूर्ण दिशाओं को अपनी प्रभा से प्रकाशित करती हुई अधिक सुशोभित हो रही थी। राजा ने क्‍लेश सहन करते हुए बारह रात तक एकाग्रचित्‍त होकर ध्‍यान लगाया था। तब विशुद्ध अन्‍त:करण वाले भगवान वसिष्ठ मुनि राजा के पास आये थे। सबके अधीश्‍वर वरदायक देवशिरोमणी भगवान सूर्य को तपस्‍या द्वारा प्रसन्‍न करके महाराज संवरण ने वसिष्ठ जी के ही तेज से तपती को पत्‍नी रुप में प्राप्‍त किया। तदनन्‍तर उन नरश्रेष्ठ ने देवताओं और गन्‍धर्वों से सेवित उस उत्‍तम पर्वत पर विधि‍पूर्वक तपती का पाणिग्रहण किया। उसके बाद वसिष्ठ जी की आज्ञा लेकर राजर्षि संवरण ने उसी पर्वत पर अपने पत्‍नी के साथ विहार करने की इच्‍छा की।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 35-50 का हिन्दी अनुवाद)

उन दिनों भूपाल ने नगर, राष्‍ट्र, वन तथा उपवनों की देख-भाल एवं रक्षा के लिये मन्‍त्री को ही आदेश देकर विदा किया। वसिष्ठ जी भी राजा से विदा ले अपने स्‍थान को चले गये। तदनन्‍तर राजा संवरण उस पर्वत पर देवता की भाँति विहार करने लगे। वे उसी पर्वत के वनों और काननों में अपनी पत्‍नी के साथ उसी प्रकार बाहर वर्षों तक रमण करते रहे। अर्जुन! उन दिनों महाराज संवरण के राज्‍य और नगर में इन्‍द्र ने बाहर वर्षों तक वर्षा नहीं की। शत्रुसूदन! उन अनावृष्टि के समय प्राय: स्‍थावर एवं जगम सभी प्रकार की प्रजा का क्षय होने लगा। ऐसे भयंकर समय में पृथ्‍वी पर ओस की एक बूंद तक न गिरी। परिणाम यह हुआ कि खेती उगती ही नहीं थी। तब सभी लोगों का चित्‍त व्‍याकुल हो उठा। मनुष्‍य भूख के भय से पीड़ित हो घरों को छोड़कर दिशा-विदिशाओं में मारे-मारे फिरने लगे। फिर तो उस नगर और राष्‍ट्र के लोग क्षुधा से पीड़ित हो सनातन मर्यादा को छोड़कर स्‍त्री, पुत्र एवं परिवार आदि का त्‍याग करके परस्‍पर एक दूसरे को मारने और लूटने-खंसोट ने लगे। राजा का नगर ऐसे लोगों से भर गया, जो भूख से आतुर हो उपवास करते-करते मुर्दों के समान हो रहे थे। उन नर-कंकालों से परिपूर्ण वह नगर प्रेतों से घिरे हुए यमराज के निवास-स्‍थान सा जान पड़ता था। प्रजा की ऐसी दुरवस्‍था देख धर्मात्‍मा मुनिश्रेष्‍ठ भगवान वसिष्‍ठ ने ही (अपने तपोबल से) उस राज्‍य में वर्षा की। साथ ही वे नृपश्रेष्‍ठ संवरण को, जो बहुत वर्षों से प्रवासी हो रहे थे, तपती के साथ नगर में लग लाये।

उन के आने पर दैत्‍यहन्‍ता देवराज इन्‍द्र वहाँ पूर्ववत् वर्षा करने लगे। उन श्रेष्‍ठ राजा के नगर में प्रवेश करने पर भगवान इन्‍द्र ने वहाँ अन्‍न का उत्‍पादन बढ़ाने के लिये पुन: अच्‍छी वर्षा की। तब से शुद्ध अन्‍तकरण वाले नृपश्रेष्‍ठ संवरण के द्वारा पालित सब लोग प्रसन्‍न रहने लगे। उस राज्‍य और नगर में बड़ा आनन्‍द छा गया। तदनन्‍तर तपती के सहित महाराज संवरण ने शची के साथ इन्‍द्र के समान सुशोभित होते हुए बारह वर्षों तक यज्ञ किया। 

गन्‍धर्व कहता है ;- कुन्‍तीनन्‍दन! इस प्रकार भगवान सूर्य की पुत्री महाभागा तपती आपके पूर्वपुरुष संवरण की पत्‍नी हुई थी, जिससे मैंने आपको तपतीनन्‍दन माना है। तपस्‍वीजनों में श्रेष्ठ अर्जुन! महाराज संवरण ने तपती के गर्भ से कुरु को उत्‍पन्‍न किया था; अत: उसी वंश में जन्‍म लेने के कारण आप लोग तापत्‍य हुए। भरतश्रेष्‍ठ! उन्‍हीं कुरु से उत्‍पन्‍न होने के कारण आप सब लोग कौरव तथा कुरुवंशी कहलाते हैं। इसी प्रकार पूरु से उत्‍पन्‍न होने के कारण पौरव, अजमीढ़ कुल में जन्‍म लेने से आजमीढ़ तथा भरतकुल में उत्‍पन्‍न होने से भारत कहलाते हैं। इस प्रकार आप लोगों की वंश जननी तपती का सारा पुरातन वृत्‍तान्‍त मैंने बता दिया। अब आप लोग पुरोहित को आगे रखकर इस पृथ्‍वी का पालन एवं उपभोग करें।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तगर्त चैत्ररथ पर्व में तपती-उपाख्‍यान की समाप्ति से सम्‍बन्‍ध रखने वाला एक सौ बहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"गन्‍धर्व का वसिष्ठ जी की महत्ता बताते हुए किसी श्रेष्‍ठ ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिये आग्रह करना"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ जनमेजय! गन्‍धर्व का यह कथन सुनकर अर्जुन अत्‍यन्‍त भक्ति-भाव के कारण पूर्ण चन्‍द्रमा के समान शोभा पाने लगे। फिर महाधनुर्धर कुरुश्रेष्‍ठ अर्जुन ने गन्‍धर्व से कहा,,

अर्जुन बोले ;- सखे! वसिष्ठ के तपोबल की बात सुनकर मेरे हृदय में बड़ी उत्‍कण्‍ठा पैदा हो गयी है। तुमने उन महर्षि का नाम वसिष्ठ बताया था। उनका यह नाम क्‍यों पड़ा? इसे मैं सुनना चाहता हूँ। तुम यथार्थ रुप से मुझे बताओ। गन्‍धर्वराज! ये जो हमारे पूर्वजों के पुरोहित थे, वे भगवान वसिष्ठ मुनि कौन हैं? यह मुझसे कहो।

गन्धर्व ने कहा ;- वसिष्ठ जी ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं। उनकी पत्‍नी का नाम अरुन्धती है। जिन्‍हें देवता भी कभी जीत नहीं सके, वे काम और क्रोध नामक दोनों शत्रु वसिष्ठ जी की तपस्‍या से सदा के लिये पराभूत होकर उनके चरण दबाते रहे हैं। इन्द्रियों को वश में करने के कारण वे वशिष्ठ कहलाते हैं। विश्वामित्र के अपराध से मन में पवित्र क्रोध धारण करते हुए भी उन उदाबुद्धि महर्षि ने कुशिकवंश का समूलोच्‍छेद नहीं किया। विश्वामित्र द्वारा अपने सौ पुत्रों के मारे जाने से वे संतप्‍त थे, उनमें बदला लेने की शक्ति भी थी, तो भी उन्‍होंने असमर्थ की भाँति सब कुछ सह लिया एवं विश्वामित्र का विनाश करने के लिये कोई दारुण कर्म नहीं किया। वे अपने मरे हुए पुत्रों को यमलोक से वापस ला सकते थे; परंतु जैसे महासागर अपने तट का उल्‍लघंन नहीं करता, उसी प्रकार वे यमराज को मर्यादा को लांघने के लिये उद्यत नहीं हुए।

उन्‍हीं जितात्‍मा महात्‍मा वसिष्ठ मुनि को (पुरोहित रुप में) पाकर इक्ष्‍वाकुवंशी भूपालों ने (दीर्घकाल तक) इस (समूची) पृथ्‍वी पर अधिकार प्राप्‍त किया था। कुरुनन्‍दन! इन्‍हीं मुनिश्रेष्‍ठ वसिष्ठ को पुरोहित रुप में पाकर उन नरपतियों ने बहुत-से यज्ञ भी किये थे। पाण्‍डवश्रेष्‍ठ! जैसे बृहस्‍पति जी सम्‍पूर्ण देवताओं का यज्ञ कराते हैं, उसी प्रकार ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने उन सम्‍पूर्ण श्रेष्‍ठ राजाओं का यज्ञ कराया था। इसलिये जिसके मन में धर्म की प्रधानता हो, जो वेदोक्‍त धर्म का ज्ञाता और मन के अनुकूल हो; ऐसे किसी गुणवान् ब्राह्मण को आप लोग भी पुरोहित बनाने का निश्‍चय करें। पार्थ! पृथ्‍वी को जीतने की इच्‍छा रखने वाले कुलीन क्षत्रिय को अपने राज्‍य की वृद्धि के लिये पहले (किसी श्रेष्‍ठ ब्राह्मण को) पुरोहित नियुक्‍त कर लेना चाहिये। पृथ्‍वी को जीतने की इच्‍छा वाले राजा को उचित है कि वह ब्राह्मण को अपने आगे रखे, अत: कोई गुणवान्, जितेन्‍द्रीय, वेदाभ्‍यासी, विद्वान तथा धर्म, काम और अर्थ का तत्त्वज्ञ ब्राह्मण आपका पुरोहित हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तगर्त चैत्ररथ पर्व में पुरोहित बनाने के लिये कथन सम्‍बन्‍धी एक सौ तिहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"वसिष्ठ जी के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव"

 अर्जुन ने पूछा ;- गन्‍धर्वराज! विश्वामित्र और वसिष्ठ मुनि तो अपने-अपने दिव्‍य आश्रम में निवास करते हैं, फिर उनमें वैर किस कारण हुआ? ये सब बातें मुझसे कहो।

 गन्धर्व ने कहा ;- पार्थ! वसिष्ठ जी के इस उपाख्‍यान को सब लोकों में बहुत पुराना बतलाते हैं। उसे यर्थाथरुपी से कहता हूं, सुनिये। भरतवंश शिरोमणे! कान्‍यकुब्‍ज देश में एक बहुत बड़े राजा थे, जो इस लोक में गाधि के नाम से विख्‍यात थे। वे कुशिक के औरस पुत्र बताये जाते हैं। उन्‍हीं धर्मात्‍मा नरेश के पुत्र विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हैं, जो सेना और वाहनों से सम्पन्न होकर शत्रुओं का मान मर्दन किया करते थे। एक दिन वे अपने मन्त्रियों के साथ गहन वन में आखेट के लिये गये। मरुप्रदेश के सुरम्‍य वनों में उन्‍होंने वराहों और हिंसक पशुओं को मारते हुए एक हिंसक पशु को पकड़ने के लिये उसका पीछा किया। अधिक परिश्रम के कारण उन्‍हें बड़ा कष्ट सहना पड़ा।

    नरश्रेष्ठ! वे प्‍यास से पीड़ि‍त हो महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में आये। मनुष्‍यों में श्रेष्‍ठ महाराज विश्वामित्र को आया देख पूजनीय पुरुषों की पूजा करने वाले महर्षि वसिष्ठ ने उनका सत्‍कार करते हुए आतिथ्य ग्रहण करने के लिये आमन्त्रित किया। भारत! पाद्य, आचमनीय, स्‍वागत-भाषण तथा वन्‍य हविष्‍य आदि से उन्‍होंने विश्वामित्र जी का सत्‍कार किया। महात्‍मा वसिष्ठ जी के यहाँ एक कामधेनु थी, जो अमुक अमुक मनोरथों को पूर्ण करो यह कहने पर सदा उन-उन कामनाओं को पूर्ण कर दिया करती थी। ग्रामीण और जंगली अस्त्र, फल-फूल, दूध, षडरस भोजन, अमृत के समान मधुर परम उत्तम रसायन, स्‍वाने, पीने और चबाने योग्‍य भाँति-भाँति के पदार्थ, अमृत समान स्‍वादिष्ट चटनी आदि तथा चूसने योग्‍य ईख आदि वस्‍तुएं तथा भाँति-भाँति के बहुमुल्‍य रत्‍न एवं वस्‍त्र आदि सब सामग्रियों को उस कामधेनु ने प्रस्‍तुत कर दिया। सब प्रकार से उन सम्‍पूर्ण मनोवाञ्छित वस्‍तुओं के द्वारा हे अर्जुन! राजा विश्वामित्र भली-भाँति पूजित हुए।

    उस समय वे अपनी सेना और मन्त्रियों के साथ बहुत संतुष्‍ट हुए। महर्षि की धेनु का मस्‍तक, ग्रीवा, जाघें, गलकम्‍बल, पूंछ और थन- ये छ: अंग बड़े एवं विस्‍तृत थे। उसके पार्श्वभाग तथा उरु बड़े सुन्‍दर थे। वह पांच पृथुल अंगों से सुशोभि‍त थी। उसकी आंखें मेढ़क-जैसी थीं। आकृति बड़ी सुन्‍दर थी चारों थन मोटे और फैले हुए थे। वह सर्वथा प्रशंसा के योग्‍य थी। सुन्‍दर पूंछ, नुकीले कान और मनोहर सींगों के कारण वह बड़ी मनोरम जान पड़ती थी। उसके सिर और गर्दन विस्‍तृत एवं पुष्ट थे। उसका नाम नन्दिनी था। उसे देखकर विस्मित हुए गाधिनन्‍दन विश्वामित्र ने उसका अभिनंदन किया। और अत्‍यन्‍त सन्‍तुष्ट होकर राजा विश्वामित्र ने उस समय उन महर्षि से कहा,,

राजा विश्वामित्र बोले ;- ब्रह्मन्! आप दस करोड़ गायें अथवा मेरा सारा राज्‍य लेकर इस नन्दिनी को मुझे दे दें। महामुने! इसे देकर आप राज्‍य भोग करें। 

वसिष्ठ जी ने कहा ;- अनघ! देवता, अतिथि और पितरों की पूजा एवं यज्ञ के हविष्‍य आदि के लिये यह दुधारु गाय नन्दिनी अपने यहाँ रहती है, इसे तुम्‍हारा राज्‍य लेकर भी नहीं दिया जा सकता।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)

विश्वामित्र जी बोले ;- मैं क्षत्रिय राजा हूँ और आप तपस्‍या तथा स्‍वाध्‍याय साधन करने वाले ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण अत्‍यधिक शान्‍त और जितात्‍मा होते हैं। उनमें बल और पराक्रम कहाँ से आ सकता है; फिर क्‍या बात है जो आप मेरी अभीष्ट वस्‍तु को एक अर्बुद गाय लेकर भी नहीं दे रहे हैं। मैं अपना धर्म नहीं छोडूंगा, इस गाय को बलपूर्वक ले जाऊंगा। मैं क्षत्रिय हूं, ब्राह्मण नहीं हूँ। मुझे धर्मत: अपना बाहुबल प्रकट करने का अधिकार है; अत: बाहुबल से ही आपके देखते-देखते इस गाय को हर ले जाऊंगा।

 वसिष्ठ जी ने कहा ;- तुम सेना के साथ हो, राजा हो और अपने बाहुबल का भरोसा रखने वाले क्षत्रिय हो। जैसी तुम्‍हारी इच्‍छा हो वैसा शीघ्र कर डालो, विचार न करो।

  गन्‍धर्व कहता है ;- अर्जुन! वसिष्‍ठ जी के यों कहने पर विश्वामित्र ने मानो बलपूर्वक ही हंस और चन्‍द्रमा के समान श्‍वेत रंग वाली उस नंदिनी गाय का अपहरण कर लिया। उसे कोड़ों और डंडों से मार-मारकर इधर-उधर हांका जा रहा था। अर्जुन! उस समय कल्‍याणमयी नंदिनी डकराती हुई महर्षि वसिष्‍ठ के सामने आकर खड़ी हो गयी और उन्‍हीं की ओर मुंह करके देखने लगी। उसके ऊपर जोर-जोर से मार पड़ रही थी, तो भी वह आश्रम से अन्‍यत्र नहीं गयी।

वसिष्‍ठ जी बोले ;- भद्रे! तुम बार-बार क्रन्‍दन कर रही हो। मैं तुम्‍हारा आर्तनाद सुनता हूं, परंतु क्‍या करुं? कल्‍याणमयीनंदिनी! विश्वामित्र तुम्‍हें बलपूर्वक हर ले जा रहे हैं। इसमें मैं क्‍या कर सकता हूँ। मैं एक क्षमाशील ब्राह्मण हूँ। 

गन्‍धर्व कहता है ;- भरतवंशशिरोमणे! नंदिनी विश्वामित्र के भय से उद्विग्‍न हो उठी थी। वह उनके सैनिकों के भय से मुनिवर वसिष्‍ठ की शरण में गयी। 

गौ ने कहा ;- भगवन्! विश्वामित्र के निर्दय सैनिक मुझे कोड़ों और डंडों से पीट रहे हैं। मैं अनाथ की भाँति क्रन्‍दन कर रही हूँ। आप क्‍यों मेरी उपेक्षा कर रहे हैं?

गन्‍धर्व कहता है ;- अर्जुन! नंदिनी इस प्रकार अपमानित होकर करुणक्रन्‍दन कर रही थी, तो भी दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले महामुनि वसिष्‍ठ न तो क्षुब्‍ध हुए और न धैर्य से ही विचलित हुए। वसिष्ठ जी बोले ;- भद्रे! क्षत्रियों का बल उनका तेज है और ब्राह्मणों का बल उनकी क्षमा है। चूंकि मुझे क्षमा अपनाये हुए है, अत: तुम्‍हारी रुचि हो, तो जा सकती हो। 

नंदिनी ने कहा ;- भगवन्! क्‍या आपने मुझे त्‍याग दिया, जो ऐसी बात कहते हैं? ब्रह्मन्! आपने त्‍याग न दिया हो, तो कोई मुझे बलपूर्वक नहीं ले जा सकता।

 वसिष्‍ठ जी बोले ;- कल्‍याणि! मैं तुम्‍हारा त्‍याग नहीं करता। तुम यदि रह सको तो यहीं रहो। यह तुम्‍हारा बछड़ा मजबूत रस्‍सी से बांधकर बलपूर्वक ले जाया जा रहा है।

गन्‍धर्व कहता है ;- अर्जुन! यहीं रहो वसिष्‍ठ जी का यह वचन सुनकर नंदिनी ने अपने सिर और गर्दन को ऊपर की ओर उठाया। उस समय वह देखने में बड़ी भयानक जान पड़ती थी। क्रोध से उनकी आंखें लाल हो गयी थीं। उसके डकराने की आवाज जोर-जोर से सुनायी देने लगी। उसने विश्वामित्र की उस सेना को चारों ओर खदेड़ना शुरु किया। कोड़ों के अग्रभाग और डंडों से मार मारकर इधर-उधर हांके जाने के कारण उसके नेत्र पहले से ही क्रोध के कारण रक्‍तधारा हो गये थे। फिर उसने और भी क्रोध धारण किया। क्रोध के कारण उसके शरीर से अपूर्व दीप्‍ती प्रकट हो रही थी। वह दोपहर के सूर्य की भाँति उद्भासित हो उठी। उसने अपनी पूंछ से बांरबार अंगार की भारी वर्षा करते हुए पूंछ से ही पह्लवों की सृष्टि की, थनों से द्रविडों और शकों को उत्‍पन्‍न किया, योनिदेश से यवनों और गोबर से बहुतेरे शबरों को जन्‍म दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 37-45 का हिन्दी अनुवाद)

कितने ही शबर उसके मूत्र से प्रकट हुए। उसके पार्श्‍वभाग से पौण्‍ड्र, किरात, यवन, सिंहल, बर्बर और खसों की सृष्टि की। इसी प्रकार उस गौ ने फेन से चिबुक, पुलिन्‍द, चीन, हूण, केरल आदि बहुत प्रकार के ग्‍लेच्‍छों की सृष्टि की। उसके द्वारा रचे गये नाना प्रकार के म्लेच्‍छों की सृष्टि की। उसके द्वारा रचे गये नाना प्रकार के म्लेच्‍छगणों की वे विशाल सेनाएं जो अनेक प्रकार के कवच आदि से आच्‍छादित थीं। सबने भाँति-भाँति के आयुध धारण कर रखे थे और सभी सैनिक क्रोध में भरे हुए थे। उन्‍होंने विश्वामित्र के देखते-देखते उसकी सेना को तितर-बितर कर दिया। विश्वामित्र के एक-एक सैनिक को म्लेच्‍छ सेना के पांच-पांच, सात-सात योद्धाओं ने घेर रखा था। उस समय अस्‍त्र-शस्‍त्रों की भारी वर्षा से घायल होकर विश्वामित्र की सेना के पांव उखड़ गये और उनके सामने ही वे सभी योद्धा भयभीत हो सब ओर भाग चले। भरतश्रेष्ठ! क्रोध में भरे हुए होने पर वसिष्ठ सेना के सैनिक विश्वामित्र के किसी भी योद्धा का प्राण नहीं लेते थे।

  इस प्रकार नंदिनी गाय ने उनको सारी सेना को दूर भगा दिया। विश्वामित्र की वह सेना तीन योजन तक खदेड़ी गयी वह सेना भय से व्‍याकुल होकर चीखती-चिल्‍लाती रही; किंतु कोई भी संरक्षक उसे नहीं मिला। यह देखकर विश्वामित्र क्रोध से व्‍याप्‍त हो मुनिश्रेष्‍ठ वसिष्ठ को लक्षित करके पृथि‍वी और आकाश में बाणों की वर्षा करने लगे; परंतु महामुनि वसिष्ठ ने विश्वामित्र के चलाये हुए भयंकर नाराच, क्षुर और भल्‍ल नामक बाणों का केवल बांस की छड़ी से निवारण कर दिया। युद्ध में वसिष्ठ मुनि का वह कार्य-कौशल देखकर शत्रुओं को मार गिराने वाले विश्वामित्र भी पुन: कुपित हो महर्षि वसिष्ठ पर रोषपूर्वक दिव्‍यास्‍त्रों की वर्षा करने लगे। उन्‍होंने ब्रह्मा जी के पुत्र महाभाग वसिष्ठ पर आग्‍नेयास्‍त्र, वारुणास्‍त्र, ऐन्‍द्रास्‍त्र, याम्‍यास्‍त्र और वायव्‍यास्‍त्र का प्रयोग किया। वे सब अस्‍त्र प्रलयकाल के सूर्य की प्रचण्‍ड किरणों के समान सब ओर से आग की लपटें छोड़ते हुए महर्षि पर टूट पड़े; परंतु महातेजस्‍वी वसिष्ठ ने मुसकराते हुए ब्राह्मबल से प्रेरित हुई छड़ी के द्वारा इन सब अस्‍त्रों को पीछे लौटा दिया। फिर तो वे सभी अस्‍त्र भस्‍मीभूत होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े।

   इस प्रकार उन दिव्‍यास्‍त्रों का निवारण करके वसिष्ठ जी ने विश्वामित्र से यह बात कही। 

वसिष्ठ जी बोले ;- महाराज दुरात्‍मा गाधिनन्‍दन! अब तू परास्‍त हो चुका है। यदि तुझमें और भी उत्तम पराक्रम है तो मेरे ऊपर दिखा। मैं तेरे सामने डटकर खड़ा हूँ।

 गन्‍धर्व कहता है ;- राजन्! विश्वामित्र की वह विशाल सेना खदेड़ी जा चुकी थी। वसिष्ठ के द्वारा पूर्वोक्‍त रुप से ललकारे जाने पर वे लज्जित होकर कुछ भी उत्तर न दे सके। ब्रह्मतेज का यह अत्‍यन्‍त आश्चर्यजनक चमत्‍कार देखकर,,

 विश्वामित्र क्षत्रि‍यत्व से खिन्‍न एवं उदासीन हो यह बात बोले ;- क्षत्रिय-बल तो नाममात्र का ही बल है, उसे धिक्कार है। ब्रह्मतेजजनित बल ही वास्‍तविक बल है। इस प्रकार बलाबल का विचार करके उन्‍होंने तपस्‍या को ही सर्वोत्तम बल निश्चित किया और अपने समृद्धिशाली राज्‍य तथा देदीप्‍यमान राज्‍यलक्ष्‍मी को छोड़कर, भोगों को पीछे करके तपस्‍या में ही मन लगाया। इस तपस्‍या से सिद्धि को प्राप्‍त हो उद्दीस तेज वाले विश्वामित्र ने अपने प्रभाव से सम्‍पूर्ण लोकों को स्‍तब्‍ध एवं संतप्‍त कर दिया और (अन्‍ततोगत्‍वा) ब्राह्मणत्‍व प्राप्‍त कर लिया; फिर वे इन्‍द्र के साथ सोमपान करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तगर्त चैत्ररथपर्व में वसिष्ठ जी के प्रसंग में विश्वामित्रविषयक एक सौ चौहत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"शक्ति के शाप से कल्‍माषवाद का राक्षस होना, विश्वामित्र की प्ररेणा से राक्षस द्वारा वसिष्ठ के पुत्रों का भक्षण और वसष्ठि का शोक"

गन्‍धर्व कहता है ;- अर्जुन! इक्ष्‍वाकुवंश में एक राजा हुए, जो लोक में कल्‍माषपाद के नाम से प्रसिद्ध थे। इस पृथ्‍वी पर वे एक असाधारण तेजस्‍वी राजा था। एक दिन वे नगर से निकलकर वन में हिंसक पशुओं को मारने के लिये गये। वहाँ वे रिपुमर्दन नरेश वराहों और अन्‍य हिंसक पशुओं को मारते हुए इधर-उधर विचरने लगे। उस महाभयानक वन में उन्‍होंने बहुत-से गैंड़े भी मारे। बहुत देर तक हिंस्र पशुओं को मारकर जब राजा थक गये, तब वहाँ से नगर की ओर लौटे। प्रतापी विश्वामित्र उन्‍हें अपना यजमान बनाना चाहते थे। राजा कल्‍माषपाद युद्ध में कभी पराजित नहीं होते थे। उस दिन वे भूख-प्‍यास से पीड़ित थे और ऐसे तंग रास्‍ते पर आ पहुँचे थे, जहाँ एक ही आदमी आ-जा सकता था। वहाँ आने पर उन्‍होंने देखा, सामने की ओर से मुनिश्रेष्‍ठ महामना वसिष्ठकुमार आ रहे हैं। वे वसिष्ठ जी के वंश की वृद्धि करने वाले महाभाग शक्ति‍ थे। महात्‍मा वसिष्ठ जी के सौ पुत्रों में सबसे बड़े वे ही थे।

उन्‍हें देखकर राजा ने कहा ;- हमारे रास्‍ते से हट जाओ। तब शक्ति मुनि ने मधुर वाणी में उन्‍हें समझाते हए कहा- महाराज! मार्ग तो मुझे ही मिलना चाहिये। यही सनातन धर्म है। सभी धर्मों में राजा के लिये वही उचित है कि वह ब्राह्मण को मार्ग दे। इस प्रकार वे दोनों आपस में रास्‍ते के लिये वाग्‍युद्ध करने लगे। एक कहता, तुम हटो तो दूसरा कहता, नहीं, तुम हटो। इस प्रकार वे उत्‍तर-प्रत्‍युत्‍तर करने लगे। ऋषि तो धर्म के मार्ग में स्थित थे, अत: वे रास्‍ता छोड़कर नहीं हटे। उधर राजा भी मान और क्रोध के वशीभूत हो मुनि के मार्ग से इधर-उधर नहीं हट सके। राजाओं में श्रेष्‍ठ कल्‍माषपाद ने मार्ग न छोड़ने वाले शक्ति मुनि के ऊपर मोहवश राक्षस की भाँति कोड़े से आघात किया। कोड़े की चोट खाकर मुनिश्रेष्ठ शक्ति ने क्रोध से मूर्च्छित हो उन उत्‍तम नरेश को शाप दे दिया।

तपस्‍या की प्रबल शक्ति से सम्‍पन्‍न शक्ति मुनि ने कहा ;- राजाओं में नीच कल्‍माषपाद! तू एक तपस्‍वी ब्राह्मण को राक्षस की भाँति मार रहा है, इसलिये आज से नरभक्षी राक्षस हो जायगा तथा अब से तू मनुष्‍यों के मांस में आसक्‍त होकर इस पृथ्‍वी पर विचरता रहेगा। नृपाधम! जा यहाँ से। उन्‍हीं दिनों यजमान के लिये विश्वामित्र और वसिष्ठ में वैर चल रहा था। उस समय विश्वामित्र राजा कल्‍माषपाद के पास आये। अर्जुन! जब राजा तथा ऋषिपुत्र दोनों इस प्रकार विवाद कर रहे थे, उग्रतपस्‍वी प्रतापी विश्वामित्र मुनि उनके निकट चले गये। तदनन्‍तर नृपश्रेष्ठ कल्‍माषपाद ने वसिष्ठ के समान तेजस्‍वी वसिष्ठ मुनि के पुत्र उन महर्षि शक्ति को पहचाना। भारत! तब विश्वामित्र ने भी अपने को अदृश्‍य करके अपना प्रिय करने की इच्‍छा से राजा और शक्ति दोनों को चकमा दिया। जब शक्ति ने शाप दे दिया, तब नृपशिरोमणि कल्‍माषपाद उनकी स्‍तुति करते हुए उन्‍हें प्रसन्‍न करने के लिये उनके शरण होने चले।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)

कुरुश्रेष्ठ! राजा के मनोभाव को समझकर उक्‍त विश्वामित्र जी ने एक राक्षस को राजा के भीतर प्रवेश करने के लिये आज्ञा दी। ब्रह्मर्षि शक्ति के शाप तथा विश्वामित्र जी की आज्ञा से किकर नामक राक्षस ने तब राजा के भीतर प्रवेश किया। शत्रुसूदन! राक्षस ने राजा को आविष्‍ट कर लिया है, यह जानकर मुनिवर विश्वामित्र जी भी उस स्‍थान से चले गये। कुन्‍तीनन्‍दन! भीतर घुसे हुए राक्षस से अत्‍यन्‍त पीड़ित हो उन नरेश को किसी भी बात की सुध-बुध न रही। एक दिन किसी ब्राह्मण ने (राक्षस से आविष्‍ट) राजा को वन की ओर जाते देखा और भूख से अत्‍यन्‍त पीड़ित होने के कारण उनसे मांससहित भोजन मांगा। 

तब राजर्षि मित्रसह (कल्‍माषपाद) ने उस द्विज से कहा ;- ब्रह्न्! आप यहीं बैठिये और दो घड़ी तक प्रतीक्षा कीजिये। मैं वन से लौटने पर आपको यथेष्‍ट भोजन दूंगा। यह कहकर राजा चले गये और वह ब्राह्मण (वहां) ठहर गया। पार्थ! तत्‍पश्‍चात् महामना राजा मित्रसह इच्‍छानुसार मौज से घूम-फिरकर जब लौटे, तब अन्‍त:पुर में चले गये। वहाँ आधी रात के समय उन्‍हें ब्राह्मण को भोजन देने की प्रतिज्ञा का स्‍मरण हुआ। फिर तो वे उठ बैठे और तुरंत रसोइये को बुलाकर,,

राजा बोले ;- आओ, वन के अमुक प्रदेश में एक ब्राह्मण भोजन के लिये मेरी प्र‍तीक्षा करता है। उसे तुम मांसयुक्‍त भोजन से तृप्‍त करो।

गन्‍धर्व कहता है ;- उनके यों कहने पर रसोइये ने मांस के लिये खोज की, परंतु जब कहीं भी मांस नहीं मिला, तब उसने दुखी होकर राजा को इस बात की सूचना दी। राजा पर राक्षस का आवेश था, अत: उन्‍होंने रसोइये से निश्चित होकर कहा,,

राजा बोला ;- उस ब्राह्मण को मनुष्‍य का मांस ही खिला दो यह बात उन्‍होंने बार-बार दुहरायी। तब रसोइया तथास्‍तु कहकर वध्‍यभूमि में जल्‍लादों के घर गया और उनसे निर्भय होकर तुरंत ही मनुष्‍य का मांस ले आया। फिर उसी को तुरंत विधिपूर्वक रांधकर अन्‍न के साथ उसे उस तपस्‍वी एवं भूखे ब्राह्मण को दे दिया। तब उस श्रेष्‍ठ ब्राह्मण ने तप:सिद्ध दृष्टि से उस अन्‍न को देखा और यह खाने योग्‍य नहीं है यो समझकर क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखते हुए कहा। 

ब्राह्मण ने कहा ;- वह नीच राजा मुझे न खाने योग्‍य अन्‍न दे रहा है, अत: उसी मूर्ख की जिह्वा ऐसे अन्‍न के लिये लालायित रहेगी। जैसा कि शक्ति मुनि ने कहा है, वह मनुष्‍यों के मांस मे आसक्‍त हो समस्‍त प्राणियों का उद्वेगपात्र बनकर इस पृथ्‍वी पर विचरेगा। दो बार इस तरह की बात कही जाने के कारण राजा का शाप प्रबल हो गया। उसके साथ उनमें राक्षस के बल का समाहित हो जाने के कारण राजा की विवेकशक्ति सर्वथा लुप्‍त हो गयी। भारत! राक्षस ने राजा के मन और इन्द्रियों को काबू में कर लिया था, अत: उन नृपश्रेष्ठ ने कुछ ही दिनों बाद उस शक्ति मुनि को अपने सामने देखकर कहा,,

राजा बोला ;- चूंकि तुमने मुझे यह सर्वथा अयोग्‍य शाप दिया है, अत: अब मैं तुम्‍हीं से मनुष्‍यों का भक्षण आरम्‍भ करुंगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद)

यों कहकर राजा ने तत्‍काल ही शक्ति के प्राण ले लिये और जैसे बाघ अपनी रुचि के अनुकूल पशु को चबा जाता है, उसी प्रकार वे भी शक्ति को खा गये। शक्ति को मारा गया देख विश्वामित्र बार-बार वसिष्ठ के पुत्रों पर ही आक्रमण करने के लिये उस राक्षस को प्रेरित करते थे। जैसे क्रोध में भरा हुआ सिंह छोटे मृगों को खा जाता है, उसी प्रकार उस (राक्षसभावापन्‍न) नरेश ने महात्‍मा वसिष्ठ के उन सब पुत्रों को भी, जो शक्ति से छोटे थे, (मारकर) खा लिया। वसिष्ठ ने यह सुनकर भी कि विश्वामित्र ने मेरे पुत्रों को मरवा डाला है, अपने शोक के वेग को उसी प्रकार धारण कर लिया जैसे महान् पर्वत सुमेरु इस पृथ्‍वी को। उस समय अपनी पुत्रवधुओं के दु:ख से दु:खित हो, वसिष्‍ठ ने अपने शरीर को त्‍याग देने का विचार कर लिया, परंतु विश्वामित्र का मूलोच्‍छेद करने की बात बुद्धिमानों में श्रेष्ठ मुनिवर वसिष्‍ठ के मन में ही नहीं आयी।

महर्षि भगवान वसिष्‍ठ ने मेरुपर्वत के शिखर से अपने आपको उसी पर्वत की शिला पर गिराया; परंतु उन्‍हें ऐसा जान पड़ा मानो वे रुई के ढेर पर गिरे हो। पाण्‍डुनन्‍दन! जब (इस प्रकार) गिरने से भी वे नहीं मरे, तब वे भगवान वसिष्‍ठ महान् वन के भीतर धधकते हुए दावानल में घुस गये। यद्यपि उस समय अग्नि प्रचण्‍ड वेग से प्रज्‍वलित हो रही थी, तो भी उन्‍हें जला न सकी। शत्रुसूदन अर्जुन! उनके प्रभाव से वह दहकती हुई आग भी उनके लिये शीतल हो गयी। तब शोक के आवेश से युक्‍त महामुनि वसिष्‍ठ ने सामने समुद्र देखकर अपने कण्‍ठ में बड़ी भारी शिला बांध ली और तत्‍काल जल में कूद पड़े। परंतु समुद्र की लहरों में वेग ने उन महामुनि को किनारे लाकर डाल दिया। कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्रह्मर्षि वसिष्‍ठ जब किसी प्रकार न मर सके, तब खिन्‍न होकर अपने आश्रम पर ही लौट पड़े।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तगर्त चैत्ररथ पर्व में वसिष्‍ठ चरित्र के प्रसंग में वसिष्‍ठशोकविषयक एक सौ पचहत्‍तरवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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