सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ छाछठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्षष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी की उत्पत्ति"
आगन्तुक ब्राह्मण कहता है ;- राजा द्रुपद अमर्ष में भर गये थे, अत: उन्होंने कर्मसिद्ध श्रेष्ठ ब्राह्मणों को ढूढ़ने के लिये बहुत-से ब्रह्मर्षियों के आश्रमों में भ्रमण किया। वे अपने लिये एक श्रेष्ठ पुत्र चाहते थे। उनका चित्त शोक से व्याकुल रहता था। वे रात-दिन चिन्ता में पड़े रहते थे कि मेरे कोई श्रेष्ठ संतान नहीं है। जो पुत्र या भाई-बन्धु उत्पन्न हो चुके थे, उन्हें वे खेदवश धिक्कारते रहते थे। द्रोण से बदला लेने की इच्छा रखकर राजा द्रुपद सदा लंबी सांसें खींचा करते थे। जनमेजय! नृपश्रेष्ठ द्रुपद द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिये यत्न करने पर भी उनके प्रभाव, विनय, शिक्षा एवं चरित्र का चिन्तन करके क्षात्रबल के द्वारा उन्हें परास्त करने का कोई उपाय न जान सके। वे कृष्णवर्णा यमुना तथा गंगा दोनों के तटों पर घूमते हुए ब्राह्मणों की एक पवित्र बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उन महाभाग नरेश ने एक भी ऐसा ब्राह्मण नहीं देखा, जिसने विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करके वेद-वेदांग की शिक्षा प्राप्त न की हो।
इस प्रकार उन महाभाग ने वहाँ कठोर व्रत का पालन करने वाले दो ब्रह्मर्षियों को देखा, जिनके नाम ये याज और उपयाज। वे दोनों ही परमशान्त और परमेष्ठी ब्रह्मा के तुल्य प्रभावशाली थे। वे वैदिक संहिता के अध्ययन में सदा संलग्न रहते थे। उनका गोत्र काश्यप था। वे दोनों ब्राह्मण सूर्यदेव के भक्त, बड़े ही योग्य तथा श्रेष्ठ ऋषि थे। उन दोनों की शक्ति को समझकर आलस्यरहित राजा द्रुपद ने उन्हें सम्पूर्ण मनोवांछित भोग पदार्थ अर्पण करने का संकल्प लेकर निमन्त्रित किया। उन दोनों में से जो छोटे उपयाज थे, वे अत्यन्त उत्तम व्रत का पालन करने वाले थे। द्रुपद एकान्त में उनसे मिले और इच्छानुसार भोग्य वस्तुएं अर्पण करके उन्हें अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करने लगे। सम्पूर्ण मनोभिलषित पदार्थों को देने की प्रतिज्ञा करके प्रिय वचन बोलते हुए द्रुपदमुनि के चरणों की सेवा में लग गये और यथायोग्य पूजन करके उपयाज से बोले- ‘विप्रवर उपयाज! जिस कर्म से मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो द्रोणाचार्य को मार सके। उस कर्म के पूरा होने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गायें दूंगा।
द्विजश्रेष्ठ! इसके सिवा और भी जो आपके मन को अत्यन्त प्रिय लगने वाली वस्तु होगी, वह सब आपको अर्पित करुंगा, इसमें कोई संशय नहीं है’। द्रुपद के यों कहने पर ऋषि उपयाज ने उन्हें जवाब दे दिया, ‘मैं ऐसा कार्य नही करुंगा।’ परंतु द्रुपद उन्हें प्रसन्न करने का निश्चय करके पुन: उनकी सेवा में लगे रहे। तदनन्तर एक वर्ष बीतने पर द्विजश्रेष्ठ उपयाज ने उपयुक्त अवसर पर मधुर वाणी में द्रुपद से कहा- ‘राजन्! मेरे बड़े भाई याज एक समय घने वन में विचर रहे थे। उन्होंने एक ऐसी जमीन पर गिरे हुए फल को उठा लिया, जिसकी शुद्धि के सम्बन्ध में कुछ भी पता नहीं था। मैं भी भाई के पीछे-पीछे जा रहा था; अत: मैंने उनके इस अयोग्य कार्य को देख लिया और सोचा कि ये अपवित्र वस्तु को ग्रहण करने में कभी कोई विचार नहीं करते।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्षष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)
जिन्होंने देखकर भी फल के पापजनक दोषों की ओर द्दष्टिपात नहीं किया, जो किसी वस्तु को लेने में शुद्धि-अशुद्धि का विचार नहीं करते, वे दूसरे कार्यों में भी कैसा बर्ताव करेंगे, कहा नहीं जा सकता। गुरुकुल में रहकर संहिताभाग का अध्ययन करते हुए भी जो दूसरों की त्यागी हुई भिक्षा को जब-तब खा लिया करते थे ओर घृणाशून्य होकर बार-बार उस अन्न के गुणों का वर्णन करते रहते थे, उन अपने भाई को जब मैं तर्क की द्दष्टि से देखता हूँ तो वे मुझे फल के लोभी जान पड़ते हैं। राजन्! तुम उन्हीं के पास जाओ। वे तुम्हारा यज्ञ करा देंगे।’ राजा द्रुपद उपयाज की बात सुनकर याज के इस चरित्र की मन-ही-मन निन्दा करने लगे, तो भी अपने कार्य का विचार करके याज के आश्रम पर गये और पूज्यनीय याज मुनि का पूजन करके,,
तब उनसे राजा द्रुपद इस प्रकार बोले ;- ‘भगवन्! मैं आपको अस्सी हजार गौएं भेंट करता हूँ। आप मेरा यज्ञ करा दीजिये। मैं द्रोण के वैर से संतप्त हो रहा हूँ। आप मुझे प्रसन्नता प्रदान करें।
द्रोणाचार्य ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ और ब्रह्मास्त्र के प्रयोग में भी सर्वोत्तम हैं; इसलिये मित्र मानने-न-मानने के प्रश्न को लेकर होने वाले झगड़े में उन्होंने मुझे पराजित कर दिया है। परम बुद्धिमान् भरद्वाजनन्दन द्रोण इन दिनों कुरुवंशी राजकुमारों के प्रधान आचार्य हैं। इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसा क्षत्रिय नहीं है, जो अस्त्रविद्या में उनसे आगे बढ़ा हो। द्रोणाचार्य के बाणसमूह प्राणियों के शरीर का संहार करने वाले हैं। उनका छ: हाथ का लंबा धनुष बहुत बड़ा दिखायी देता है। इसमें संदेह नहीं कि महान् धनुर्धर महामना द्रोण ब्राह्मण-वेश में (अपने ब्राह्मतेज के द्वारा) क्षत्रिय तेज को प्रतिहत कर देते हैं। मानो जमदग्रिनन्दन परशुराम जी की भाँति क्षत्रियों का संहार करने के लिये उनकी सृष्टि हुई है। उनका अस्त्रबल बड़ा भंयकर है। पृथ्वी के सब मनुष्य मिलकर भी उसे दबा नहीं सकते। घी की आहुति से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान वे प्रचण्ड ब्राह्मतेज धारण करते हैं और युद्ध में क्षात्रधर्म को आगे रखकर विपक्षियों से भिड़त होने पर वे उन्हें भस्म कर डालते हैं।
यद्यपि द्रोणाचार्य में ब्राह्मतेज के साथ-साथ क्षात्रतेज भी विद्यमान है, तथापि आपका ब्राह्मतेज उनसे बढ़कर है। मैं केवल क्षात्रबल के कारण द्रोणाचार्य से हीन हूं; अत: मैंने आपके ब्राह्मतेज की शरण ली है। आप वेदवेत्ताओं में सबसे श्रेष्ठ होने के कारण द्रोणाचार्य से बहुत बढ़े-चढ़े हैं। मैं आपकी शरण लेकर एक ऐसा पुत्र पाना चाहता हूं, जो युद्ध में दुर्जय और द्रोणाचार्य का विनाशक हो। याज जी! मेरे इस मनोरथ को पूर्ण करने वाला यज्ञ कराइये। उसके लिये मैं आपको एक अर्बुद गौएं दक्षिणा में दूंगा।’ तब याज ने ‘तथास्तु’ कहकर यजमान की अभीष्ट सिद्धि के लिये आवश्यक यज्ञ और उसके साधनों का स्मरण किया। ‘यह बहुत बड़ा कार्य है’ ऐसा विचार करके याज ने इस कार्य के लिये किसी प्रकार की कामना न रखने वाले उपयाज को भी प्रेरित किया तथा याज ने द्रोण के विनाश के लिये वैसा पुत्र उत्पन्न करने की प्रतिज्ञा कर ली। इसके बाद महातपस्वी उपयाज ने राजा द्रुपद को अभीष्ट पुत्ररुपी फल की सिद्धि के लिये आवश्यक यज्ञकर्म का उपदेश किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्षष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद)
और याज ने कहा ;- ‘राजन्! इस यज्ञ से तुम जैसा पुत्र चाहते हो, वैसा ही तुम्हें होगा। तुम्हारा वह पुत्र महान् पराक्रमी, महातेजस्वी और महाबली होगा।’ तदनन्तर द्रोण के घातक पुत्र का संकल्प लेकर राजा द्रुपद ने कर्म की सिद्धि के लिये उपयाज के कथनानुसार सारी व्यवस्था की। हवन के अन्त में याज ने द्रुपद की रानी को आज्ञा दी- ‘पृषत की पुत्रवधु! महारानी! शीघ्र मेरे पास हविष्य ग्रहण करने के लिये आओ। तुम्हें एक पुत्र और एक कन्या की प्राप्ति होने वाली है, वे कुमार और कुमारी अपने पिता के कुल की वृद्धि करने वाले होंगे’।
रानी बोली ;- ब्रह्मन्! अभी मेरे मुख में ताम्बूल आदि का रंग लगा है। मैं अपने अंगों में दिव्य सुगन्धित अंगराग धारण कर रही हूं, अत: मुंह धोये और स्नान किये बिना पुत्रदायक हविष्य का स्पर्श करने के योग्य नहीं हूं, इसलिये याज जी! मेरे इस प्रिय कार्य के लिये थोड़ी देर ठहर जाइये।
याज ने कहा ;- इस हविष्य को स्वयं याज ने पकाकर तैयार किया है और उपयाज ने इसे अभिमन्त्रित किया है; अत: तुम आओ या वहीं खड़ी रहो, यह हविष्य यजमान की कामना को पूर्ण कैसे नहीं करेगा?
ब्राह्मण कहता हैं ;- यों कहकर याज ने उस संस्कार युक्त हविष्य की आहुति ज्यों ही अग्नि में डाली, त्यों ही उस अग्नि से देवता के समान तेजस्वी एक कुमार प्रकट हुआ। उसके अंगों की कान्ति अग्नि की ज्वाला के समान उद्भासित हो रही थी। उसका रुप भय उत्पन्न करने वाला था। उसके माथे पर किरीट सुशोभित था। उसने अंगों में उत्तम कवच धारण कर रखा था। हाथों में खड्ग, बाण और धनुष धारण किये वह बार-बार गर्जना कर रहा था। वह कुमार उसी समय एक श्रेष्ठ रथ पर जा चढ़ा, मानो उसके द्वारा युद्ध के लिये यात्रा कर रहा हो। यह देखकर पांचालों को बड़ा हर्ष हुआ और वे जोर-जोर से बोल उठे, ‘बहुत-अच्छा, बहुत अच्छा’। उस समय हर्षोल्लास से भरे हुए इन पांचालों का भार यह पृथ्वी नहीं सह सकी।
आकाश में कोई अदृश्य महाभूत इस प्रकार कहने लगा ;- ‘यह राजकुमार पांचालों के भय को दूर करके उनके यश की वृद्धि करने वाला होगा। यह राजा द्रुपद का शोक-दूर करने वाला है। द्रोणाचार्य के वध के लिये ही इसका जन्म हुआ है’।
तत्पश्चात् यज्ञ की वेदी में से एक कुमारी कन्या भी प्रकट हुई, जो पांचाली कहलायी। वह बड़ी सुन्दरी एवं सौभाग्यशालिनी थी। उसका एक-एक अंग देखने ही योग्य था। उसकी श्याम आंखें बड़ी-बड़ी थीं। उसके शरीर की कान्ति श्याम थी। नेत्र ऐसे जान पड़ते मानो खिले हुए कमल के दल हों। केश काले-काले और घुंघराले थे। नख उभरे हुए और लाल रंग के थे। भौंहें बड़ी सुन्दर थीं। दोनों उरोज स्थूल और मनोहर थे। वह ऐसी जान पड़ती मानो साक्षात् देवी दुर्गा ही मानव शरीर धारण करके प्रकट हुई हों। उसके अंगों से नील कमल की सी सुगन्ध प्रकट होकर एक कोस तक चारों ओर फैल रही थी। उसने परम सुन्दर रुप धारण कर रखा था। उस समय पृथ्वी पर उसके-जैसी सुन्दर स्त्री दूसरी नहीं थी। देवता, दानव और यक्ष भी उस देवोपम कन्या को पाने के लिये लालायति थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्षष्टयधिकशततम अध्याय के भाग-4 का हिन्दी अनुवाद)
सुन्दर कटिप्रदेश वाली उस कन्या के प्रकट होने पर भी आकाशवाणी हुई ;- ‘इस कन्या का नाम कृष्णा है। यह समस्त युवतियों में श्रेष्ठ और सुन्दरी है और क्षत्रियों का संहार करने के लिये प्रकट हुई है। यह सुमध्यमा समय पर देवताओं का कार्य सिद्ध करेगी। इसके कारण कौरवों को बहुत बड़ा भय प्राप्त होगा।’ वह आकाशवाणी सुनकर समस्त पांचाल सिंहों के समुदाय की भाँति गर्जना करने लगे। उस समय हर्ष में भरे हुए उन पांचालों का वेग पृथ्वी नहीं सह सकी। उन दोनों पुत्र और पुत्री को देखकर पुत्र की इच्छा रखने वाली राजा पृषत की पुत्रवधु महर्षि याज की शरण में गयी,,,
और बोली ;- ‘भगवन्! आप ऐसी कृपा करें, जिससे ये दोनों बच्चे मेरे सिवा और किसी को अपनी माता न समझें’।
तब राजा का प्रिय करने की इच्छा से याज ने कहा ;- ‘ऐसा ही होगा।’ उस समय सम्पूर्ण द्विजों ने सफल-मनोरथ होकर उन बालकों के नामकरण किये। यह द्रुपदकुमार धृष्ट, अमर्षशील तथा द्युम्न (तेजोमय कवच-कुण्डल एवं क्षात्रतेज) आदि के साथ उत्पन्न होने के कारण ‘धृष्टद्युम्न‘ नाम से प्रसिद्ध होगा।
तत्पश्चात् उन्होंने कुमारी का नाम कृष्णा रखा; क्योंकि वह शरीर में कृष्ण (श्याम) वर्ण की थी। इस प्रकार द्रुपद के महान् यज्ञ में वे जुड़वीं संतानें उत्पन्न हुई। परम बुद्धिमान् प्रतापी भरद्वाजनन्दन द्रोण यह सोचकर कि प्रारब्ध के भावी विधान को टालना असम्भव है, पांचालराज कुमार धृष्टद्युम्न को अपने घर ले आये और उन्होंने उसे अस्त्रविद्या देकर उनका बड़ा उपकार किया। द्रोणाचार्य ने अपनी कीर्ति की रक्षा के लिये वह उदारतापूर्ण कार्य किया।
आगन्तुक ब्राह्मण कहते है ;- लाक्षागृह में पाण्डवों के साथ जो घटना घटित हुई थी, उसे सुनकर ब्राह्मणों तथा पुरोहितों ने पांचालराज द्रुपद से इस प्रकार कहा,,
ब्राम्हण बोले ;- ‘राजन्! धृतराष्ट्र के पुत्रों ने अपने मन्त्रियों के साथ परस्पर सलाह करके पाण्डवों के विनाश का विचार कर लिया था।
ऐसा क्रूरतापूर्ण विचार दूसरों के लिए अत्यन्त कठिन है। दुर्योधन के भेजे हुए उसके पुरोचन नामक सेवक ने वारणावत नगर में जाकर एक विशाल लाक्षागृह निर्माण कराया था। उस भवन में पाण्डव अपनी माता कुन्ती के साथ पूर्ण विश्वस्त होकर रहते थे। महाराज! एक दिन आधी रात के समय पुरोचन ने लाक्षागृह में आग लगा दी। वह नीच और नृशंस पुरोचन स्वयं भी उसी आग में जलकर भस्म हो गया। यह समाचार सुनकर कि ‘पाण्डव जल गये।’ अम्बिका-नन्दन धृतराष्ट्र को अपने भाई-बन्धुओं के साथ बड़ा हर्ष हुआ। धृतराष्ट्र की आत्मा हर्ष से खिल उठी थी, तो भी ऊपर से कुछ शोक का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने विदुर जी से बड़ी करुण भाषा में यह वृत्तान्त बताया और आज्ञा दी कि ‘महामते! पाण्डवों का श्राद्ध और तर्पण करो। विदुर! पाण्डवों के मरने से मुझे ऐसा दु:ख हुआ है मानो मेरे भाई पाण्डु आज ही स्वर्गवासी हुए हों। अत: गंगाजी के तट पर चलकर उनके लिये श्राद्ध और तर्पण की व्यवस्था करो। अहो! भाग्यवश ही बेचारे पाण्डव यमलोक को चले गये।’
यों कहकर धृतराष्ट्र और शकुनि फूट-फूटकर रोने लगे। भीष्म जी ने यह समाचार सुनकर उनका विधिपूर्वक और्ध्वदैहिक संस्कार सम्पन्न किया है। इस प्रकार दुरात्मा दुर्योधन ने पाण्डवों के विनाश के लिये यह भयंकर षड्यन्त्र किया था। आज से पहले हमने किसी को ऐसा नहीं देखा या सुना था जो इस तरह का जघन्य कार्य कर सके। महाराज! पाण्डवों के सम्बन्ध में यह वृत्तान्त हमारे सुनने में आया है।’ ब्राह्मण और पुरोहित का यह वचन सुनकर परम बुद्धिमान् राजा द्रुपद शोक में डूब गये। जैसे अपने सगे पुत्र की मृत्यु होने पर उसके पिता को शोक होता है उसी प्रकार पाण्डवों के नष्ट होने का समाचार सुनकर पांचालराज को पीड़ा हुई। उन्होंने अपने भाई-बन्धुवों के साथ समस्त प्रजा को बुलवाया और बड़ी करुणा से यह बात कही।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्षष्टयधिकशततम अध्याय के भाग-5 का हिन्दी अनुवाद)
द्रुपद बोले ;- बन्धुओं! अर्जुन का रुप अद्भुत था। उनका धैर्य आश्चर्यजनक था। उनका पराक्रम और उनकी अस्त्र-दीक्षा भी अलौकिक थी। मैं दिन-रात अर्जुन की ही चिन्ता में डूबा रहता हूँ। हाय! वे अपने भाईयों और माता के साथ आग में जल गये। संसार में इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है? सच है, काल का उल्लंघन करना अत्यन्त कठिन है। मेरी तो प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। अब मैं लोगों से क्या कहूंगा। आन्तरिक दु:ख से दिन-रात दग्ध होता रहता हूँ। मैंने निष्पाप याज और उपयाज का सत्कार करके उनसे दो संतानों की याचना की थी। एक तो ऐसा पुत्र मांगा, जो द्रोणाचार्य का वध कर सके और दूसरी ऐसी कन्या के लिये प्रार्थना की, जो वीर अर्जुन की पटरानी बन सके। मेरे इस उद्देश्य को सब लोग जानते हैं और महर्षि याज ने भी यही घोषित किया था। उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ करके धृष्टद्युम्न और कृष्णा को उत्पन्न किया था। इन दोनों संतानों को पाकर मुझे बड़ा संतोष हुआ। अब क्या करुं? कुन्ती सहित पाण्डव तो नष्ट हो गये।
आगन्तुक ब्राह्मण कहता है ;- ऐसा कहकर पांचालराज द्रुपद अत्यन्त दुखी एवं शोकातुर हो गये। पांचालराज के गुरु बड़े सात्त्विक और विशिष्ट विद्वान थे। उन्होंने राजा को भारी शोक में डूबा देखकर कहा।
गुरु बोले ;- महाराज! पाण्डव लोग बड़े-बूढ़ों के आज्ञा पालन में तत्पर रहने वाले तथा धर्मात्मा हैं। ऐसे लोग न तो नष्ट होते हैं और न पराजित ही होते हैं। नरेश्वर! मैंने जिस सत्य का साक्षात्कार किया है, वह सुनिये। ब्राह्मणों ने तो इस सत्य का प्रतिपादन किया ही है, वेद के मन्त्रों में भी मैंने इसका श्रवण किया है। पूर्वकाल में इन्द्राणी ने बृहस्पति जी के मुख से उपश्रुति की महिमा सुनी थी। उत्तरायण की अधिष्ठात्री देवी उपश्रुति ने ही अद्दष्ट हुए इन्द्र का कमलनाल की ग्रन्थि में दर्शन कराया था। महाराज! इसी प्रकार मैंने भी पाण्डवों के विषय में उपश्रुति सुन रखी है। वे पाण्डव कहीं-न-कहीं अवश्य जीवित हैं, इसमें संशय नहीं है। मैंने ऐसे (शुभ) चिह्न देखे हैं, जिनसे सूचित होता है कि पाण्डव यहाँ अवश्य पधारेंगे।
नरेश्वर! वे जिस निमित्त से यहाँ आ सकते हैं, वह सुनिये- क्षत्रियों के लिये कन्यादान का श्रेष्ठ मार्ग स्वयंवर बताया गया है। नृपश्रेष्ठ! आप सम्पूर्ण नगर में स्वयंवर की घोषणा करा दें। फिर पाण्डव अपनी माता कुन्ती के साथ दूर हों, निकट हों अथवा स्वर्ग में ही क्यों न हों- जहाँ कहीं भी होंगे, स्वयंवर का समाचार सुनकर यहाँ अवश्य आयेंगे, इसमें संशय नहीं है। अत: राजन्! आप (सर्वत्र) स्वयंवर की सूचना करा दें, इसमें विलम्ब न करें।
आगन्तुक ब्राह्मण कहता है ;- पुरोहित की बात सुनकर पंचालराज को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने नगर में द्रौपदी का स्वयंवर घोषित करा दिया। पौषमास के शुक्लपक्ष में शुभ तिथि (एकादशी) को रोहिणी नक्षत्र में वह स्वयंवर होगा, जिसके लिये आज से पचहत्तर दिन शेष हैं।
ब्राह्मणी (कुन्ती)! देवता, गन्धर्व, यक्ष और तपस्वी ऋषि भी स्वयंवर देखने के लिये अवश्य जाते हैं। तुम्हारे सभी महात्मा पुत्र देखने में परमसुन्दर हैं। पंचालराज पुत्री कृष्णा इनमें से किसी को अपनी इच्छा से पति चुन सकती है अथवा तुम्हारे मंझले पुत्र को अपना पति बना सकती है। संसार में विधाता के उत्तम विधान को कौन जान सकता है? अत: यदि मेरी बात तुम्हें अच्छी लगे, तो तुम अपने पुत्रों के साथ पांचाल देश में अवश्य जाओ। तपोधने! पंचालदेश में सदा सुभिक्ष रहता है। राजा यज्ञसेन सत्यप्रतिज्ञ होने के साथ ही ब्राह्मणों के भक्त हैं। वहाँ के नागरिक भी ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखने वाले हैं। उस नगर के ब्राह्मण भी अतिथियों के बड़े प्रेमी हैं। वे प्रतिदिन बिना मांगे ही न्यौता देंगे। मैं भी अपने इन शिष्यों के साथ वहीं जाता हूँ। ब्राह्मणी! यदि ठीक जान पड़े तो चलो। हम सब लोग एक साथ ही वहाँ चले चलेंगे।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- इतना कहकर वे ब्राह्मण चुप हो गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत चैत्ररथ पर्व में द्रौपदीप्रादुर्भावविषयक एक सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ सरसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
"कुन्ती की अपने पुत्रों से पूछकर पंचालदेश में जाने की तैयारी"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कठोर व्रत वाले उस ब्राह्मण से यह सुनकर उन सब महाबली कुन्ती पुत्रों का मन विचलित हो गया। तब सत्यवादिनी कुन्ती ने अपने सभी पुत्रों का मन उस स्वयंवर की ओर आकृष्ट देख युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा।
कुन्ती बोली ;- बेटा! हम लोग यहाँ इन महात्मा ब्राह्मण के घर में बहुत दिनों से रह रहे हैं। इस रमणीय नगर में हम आनन्दपूर्वक घूमे-फिरे और यहाँ हमें (पर्याप्त) भिक्षा भी उपलब्ध हुई।
शत्रुदमन! यहाँ जो रमणीय वन और उपवन हैं, उन सबको हमने बार-बार देख लिया। वीर! यदि उन्हीं को हम फिर देखने के लिये जायं तो वे हमें उतनी प्रसन्नता नहीं दे सकते। कुरुनन्दन! अब भिक्षा भी यहाँ हमें पहले-जैसी नहीं मिल रही है। यदि तुम्हारी राय हो तो अब हम लोग सुखपूर्वक पंचाल देश में चलें। वीर! उस देश को हमने पहले कभी नहीं देखा है, इसलिये वह बड़ा रमणीय प्रतीत होगा। शत्रुनाशन! सुना जाता है, पंचालदेश में बड़ा सुकाल है (इसलिये भिक्षा बहुतायत मिलती है)। हमने यह भी सुना है कि राजा यज्ञसेन ब्राह्मणों के बड़े भक्त हैं। बेटा! एक स्थान पर बहुत दिनों तक रहना मुझे उचित नहीं जान पड़ता; यदि तुम ठीक समझो तो हम लोग सुखपूर्वक वहाँ चलें।
युधिष्ठिर ने कहा ;- मां! आप जिस कार्य को ठीक समझती हैं, वह हमारे लिये परम हितकर है; परंतु अपने छोटे भाइयों के सम्बन्ध में मैं नहीं जानता कि वे आने के लिये उद्यत हैं या नहीं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब कुन्ती ने भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव से भी चलने के विषय में पूछा। उन सबने भी ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकृति दे दी। राजन्! तब कुन्ती ने उन ब्राह्मण देवता से विदा लेकर अपने पुत्रों के साथ महात्मा द्रुपद की रमणीय नगरी की ओर जाने की तैयारी की।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत चैत्ररथ पर्व में पंचालदेश की यात्राविषयक एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ अड़सठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"व्यास जी का पाण्डवों को द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! महात्मा पाण्डव जब गुप्त रुप से वहाँ निवास कर रहे थे, उसी समय सत्यवतीनन्दन व्यास जी उनसे मिलने के लिये वहाँ आये। उन्हें आया देख शत्रुसंतापन पाण्डवों ने आगे बढ़कर उनकी अगवानी की और प्रणामपूर्वक उनका अभिवादन करके वे सब उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये। कुन्तीपुत्रों द्वारा गुप्तरुप से पूजित हो मुनिवर व्यास ने उन सबको आज्ञा देकर बिठाया और जब वे बैठ गये,
तब उनसे प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार पूछा ;- ‘शत्रुओं की संतप्त करने वाले वीरो! तुम लोग शास्त्र की आज्ञा और धर्म के अनुसार चलते हो न? पूजनीय ब्राह्मणों की पूजा करने में तो तुम्हारी ओर से कभी भुल नहीं होती? तदनन्तर महर्षि भगवान् व्यास ने उनसे धर्म और अर्थ-युक्त बातें कहीं। फिर विचित्र विचित्र कथाएं सुनाकर वे पुन: उनसे इस प्रकार बोले।
व्यास जी ने कहा ;- पहले की बात है, तपोवन में किसी महात्मा ऋषि की कोई कन्या रहती थी, जिसकी कटि कृश तथा नितम्ब और भौंहे सुन्दर थीं। वह कन्या समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थी। परंतु अपने ही किये हुए; कर्मों के कारण वह कन्या दुर्भाग्य के वश हो गयी, इसलिये वह रूपवती और सदाचारिणी होने पर भी कोई पति न पा सकी। तब पति के लिये दुखी होकर उसने तपस्या प्रारम्भ की और कहते हैं उग्र तपस्या के द्वारा उसने भगवान् शंकर को प्रसन्न कर लिया।
उस पर संतुष्ट हो भगवान् शंकर ने उस यशस्विनी कन्या से कहा ;- ‘शुभे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम कोई वर मांगो। मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूं’।
तब उसने भगवान् शंकर से अपने लिये हितकर वचन कहा ;- ‘प्रभो! मैं सर्वगुण सम्पन्न पति चाहती हूँ।' इस वाक्य को उसने बार-बार दुहराया।
तब वक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान् शिव ने उससे कहा ;- ‘भद्रे! तुम्हारे पांच भरतवंशी पति होगें’।
उनके ऐसा कहने पर वह कन्या उन वरदायक देवता भगवान शिव से इस प्रकार बोली ;- ‘देव! प्रभो! मैं आपकी कृपा से एक ही पति चाहती हूँ।
तब भगवान् ने पुन: उससे यह उत्तम बात कही ;- ‘भद्रे! तुमने मुझसे पांच बार कहा है कि मुझे पति दीजिये। अत: दूसरा शरीर धारण करने पर तुम्हें जैसा मैंने कहा है, वह वरदान प्राप्त होगा।’ वही देवरुपिणी कन्या राजा द्रुपद के कुल में उत्पन्न हुई है। वह महाराज पृषत की पौत्री सती-साध्वी कृष्णा तुम लोगों की पत्नी नियत की गयी है; अत: महाबली वीरो! अब तुम पंचालनगर में जाकर रहो। द्रौपदी को पाकर तुम सब लोग सुखी होओगे, इसमें संशय नहीं है। महान् सौभाग्यशाली और महातपस्वी पितामह व्यास जी पाण्डवों से ऐसा कहकर उन सबसे और कुन्ती से विदा ले वहाँ से चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत चैत्ररथ पर्व में द्रौपदीजन्मान्तर कथनविषयक एक सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनसप्तधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों की पंचाल-यात्रा और अर्जुन के द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं उन दोनों की मित्रता"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भगवान् व्यास के चले जाने पर पुरुष श्रेष्ठ पाण्डव प्रसन्नचित्त हो अपनी माता को आगे करके वहाँ से पंचालदेश की ओर चल दिये। परंतप! कुन्तीकुमारों ने पहले ही अपने आश्रयदाता ब्राह्मण से पूछकर जाने की आज्ञा ले ली थी और चलते समय बड़े आदर के साथ उन्हें प्रणाम किया। वे सब लोग उत्तर दिशा की ओर जाने वाले सीधे मार्गों द्वारा उत्तराभिमुख हो अपने अभीष्ट स्थान पंचालदेश की ओर बढ़ने लगे। एक दिन और एक रात चलकर वे नरश्रेष्ठ पाण्डव गंगाजी के तट पर सोमाश्रयायण नामक तीर्थ में जा पहुँचे। उस समय उनके आगे-आगे अर्जुन उजाला तथा रक्षा करने के लिये जलती हुई मशाल उठाये चल रहे थे। उस तीर्थ की गंगा के रमणीय तथा एकान्त जल में गन्धर्वराज अंगापर्ग (चित्ररथ) अपनी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। वह बड़ा ही ईर्ष्यालु था और जलक्रीड़ा करने के लिये ही वहाँ आया था। उसने गंगाजी की ओर बढ़ते हुए पाण्डवों के पैरों की धमक सुनी। उस शब्द को सुनते ही वह बलवान गन्धर्व क्रोध के आवेश में आकर बड़े जोर से कुपित हो उठा। परंतप पाण्डवों को अपनी माता के साथ वहाँ देख वह अपने भयानक धनुष को टंकारता हुआ इस प्रकार बोला,,
गन्धर्व बोला ;- ‘रात्रि प्रारम्भ होने के पहले जो पश्चिम दिशा में भंयकर संध्या की लाली छा जाती है, उस समय अस्सी लव को छोड़कर सारा मुहूर्त इच्छानुसार विचरने वाले यक्षों, गन्धर्वों तथा राक्षसों के लिये निश्चित बताया जाता है।
शेष दिन का सब समय मनुष्यों के कार्यवश विचरने के लिये माना गया है। जो मनुष्य लोभवश हम लोगों की वेला में इधर घूमते हुए आ जाते हैं, उन मूर्खों को हम गन्धर्व और राक्षस कैद कर लेते हैं। इसीलिये वेदवेत्ता पुरुष रात के समय जल में प्रवेश करने वाले सम्पूर्ण मनुष्यों और बलवान् राजाओं की भी निन्दा करते हैं। अरे, ओ मनुष्यों! दूर ही खड़े रहो। मेरे समीप न आना। तुम्हें ज्ञात कैसे नहीं हुआ कि मैं गन्धर्वराज अंगारपर्ण गंगाजी के जल में उतरा हुआ हूँ। तुम लोग मुझे (अच्छी तरह) जान लो, मैं अपने ही बल का भरोसा करने वाला स्वाभिमानी, ईर्ष्यालु तथा कुबेर का प्रिय मित्र हूँ। मेरा यह वन भी अंगारपर्ण नाम से ही विख्यात है। मैं गंगा जी के तट पर विचरता हुआ इस वन में इच्छानुसार विचित्र क्रीड़ाएं करता रहता हूँ। मेरी उपस्थिति में यहाँ राक्षस, यक्ष, देवता और मनुष्य कोई भी नहीं आने पाते; फिर तुम लोग कैसे आ रहे हो?’
अर्जुन बोले ;- दुर्भते! समुद्र, हिमालय की तराई और गंगा नदी के तट पर रात, दिन अथवा संध्या के समय किसका अधिकार सुरक्षित है? आकाशचारी गन्धर्व! सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा जी के तट पर आने के लिये यह नियम नहीं है कि यहाँ कोई खाकर आये या बिना खाये, रात में आये या दिन में। इसी प्रकार काल आदि का भी कोई नियम नहीं है। अरे ओ क्रूर! हम लोग तो शक्तिसम्पन्न हैं। असमय में भी आकर तुम्हें कुचल सकते हैं। जो युद्ध करने में असमर्थ हैं, वे दुर्बल मनुष्य ही तुम लोगों की पूजा करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनसप्तधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)
प्राचीन काल में हिमालय के स्वर्णशिखर से निकली हुई गंगा सात धाराओं में विभक्त हो समुन्द्र में जाकर मिल गयी हैं। जो पुरुष गंगा, यमुना, प्लक्ष की जड़ से प्रकट हुई सरस्वती, रथस्था, सरयू, गोमती और गण्डकी- इन सात नदियों का जल पीते हैं, उनके पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यह गंगा बड़ी पवित्र नदी हैं। एकमात्र आकाश ही इनका तट है। गन्धर्व! ये आकाशमार्ग से विचरती हुई गंगा देवलोक में अलकनन्दा नाम धारण करती हैं। ये ही वैतरणी होकर पितृलोक में बहती हैं। वहाँ पापियों के लिये इनके पार जाना अत्यन्त कठिन होता है। इस लोक में आकर इनका नाम गंगा होता है। यह श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास जी का कथन है। ये कल्याणमयी देवनदी सब प्रकार की विघ्न–बाधाओं से रहित एवं स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने वाली हैं। तुम उन्हीं गंगा जी पर किसलिये रोक लगाना चाहते हो? यह सनातन धर्म नहीं है। जिसे कोई रोक नहीं सकता, जहाँ पहुँचने में कोई बाधा नहीं है, भागीरथी के उस पावन जल का तुम्हारे कहने से हम अपने इच्छानुसार स्पर्श क्यों न करें?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन की यह बात सुनकर अंगारपर्ण क्रोधित हो गया और धनुष नवाकर विषैले साँपों की भाँति तीखे बाण छोड़ने लगा। यह देख पाण्डुनन्दन धनंजय ने तुरंत ही मशाल घुमाकर और उत्तम ढाल से रोककर उसके सभी बाण व्यर्थ कर दिये।
अर्जुन ने कहा ;- गन्धर्व! जो अस्त्रविद्या के विद्वान हैं, उन पर तुम्हारी यह घुड़की नहीं चल सकती। अस्त्रविद्या के मर्मज्ञों पर फैलायी हुई तुम्हारी यह माया फेन की तरह विलीन हो जायगी। गन्धर्व! मैं जानता हूँ कि सम्पूर्ण गन्धर्व मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली होते हैं, इसलिये मैं तुम्हारे साथ माया से नहीं, दिव्यास्त्र से युद्ध करुंगा। गन्धर्व! यह आग्नेय अस्त्र पूर्वकाल में इन्द्र के माननीय गुरु बृहस्पति जी ने भरद्वाज मुनि को दिया था। भरद्वाज से इसे अग्निवेश्य ने और अग्निवेश्य से मेरे गुरु द्रोणाचार्य ने प्राप्त किया है। फिर विप्रवर द्रोणाचार्य ने यह उत्तम अस्त्र मुझे प्रदान किया।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन अर्जुन ने कुपित हो गन्धर्व पर वह प्रज्वलित आग्नेय अस्त्र चला दिया। उस अस्त्र ने गन्धर्व के रथ को जलाकर भस्म कर दिया। वह रथहीन गन्धर्व व्याकुल हो गया और अस्त्र के तेज से मूढ़ होकर नीचे मुंह किये गिरने लगा। महाबली अर्जुन ने उसके फूल की मालाओं से सुशोभित केश पकड़ लिये और घसीटकर अपने भाइयों के पास ले आये। अस्त्र के आघात से वह गन्धर्व अचेत हो गया था। उस गन्धर्व की पत्नी का नाम कुम्भीनसी था। उसने अपने पति के जीवन की रक्षा के लिये महाराज युधिष्ठिर की शरण ली।
गन्धर्वी बोली ;- महाभाग! मेरी रक्षा कीजिये और मेरे इन पतिदेव को आप छोड़ दीजिये। प्रभो! मैं गन्धर्वपत्नी कुम्भीनसी आपकी शरण में आयी हूँ।
युधिष्ठिर ने कहा ;- तात! शत्रुसूदन अर्जुन! यह गन्धर्व युद्ध में हार गया और अपना यश खो चुका। अब स्त्री इसकी रक्षिका बनकर आयी है। यह स्वयं कोई पराक्रम नहीं कर सकता। ऐसे दीन-हीन शत्रु को कौन मारता है ? इसे जीवित छोड़ दो।
अर्जुन बोले ;- गन्धर्व! जीवन धारण करो। जाओ, अब शोक न करो। इस समय कुरुराज युधिष्ठिर तुम्हें अभयदान दे रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनसप्तधिकशततम अध्याय के श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद)
अर्जुन! मैं परास्त हो गया, अत: अपने पहले नाम अंगारपर्ण को छोड़ देता हूँ। अब मैं जनसमुदाय में अपने बल की श्लाघा नहीं करुंगा और न इस नाम से अपना परिचय ही दूंगा। (आज की पराजय से) मुझे सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि मैंने दिव्यास्त्रधारी अर्जुन को (मित्ररुप में) प्राप्त किया है और अब मैं इन्हें गन्धर्वों की माया से संयुक्त करना चाहता हूँ। इनके दिव्यास्त्र अग्नि से मेरा यह विचित्र एवं उत्तम रथ दग्ध हो गया है। पहले मैं विचित्र रथ के कारण ‘चित्ररथ’ कहलाता था; परंतु अब मेरा नाम ‘दग्धरथ’ हो गया। मैंने पूर्वकाल में यहाँ तपस्या द्वारा जो यह विद्या प्राप्त की है, उसे आज अपने प्राणदाता महात्मा मित्र को अर्पित करुंगा। जिन्होंने अपने वेग से शत्रु की शक्ति को कुण्ठित करके उस पर विजय पायी और फिर जब वह शत्रु शरण में आ गया, तब जो उसे प्राणदान दे रहे हैं, वे किस कल्याण की प्राप्ति के अधिकारी नहीं है? यह चाक्षुसी नामक विद्या है, जिसे मनु ने सोम को दिया। सोम ने विश्वासु को दिया और विश्वासु ने मुझे प्रदान किया है। यह गुरु की दी हुई विद्या यदि किसी कायर को मिल गयी तो नष्ट हो जाती है। (इस प्रकार) मैंने इसके उपदेश की परम्परा का वर्णन किया है।
अब इसका बल भी मुझसे सुन लीजिये। तीनों लोकों में जो कोई भी वस्तु हैं, उसमें से जिस वस्तु को आंख से देखने की इच्छा हो, उसे रथ इस विद्या के प्रभाव से कोई भी देख सकता है और जिस रुप में देखना चाहे, उसी रुप में देख सकता है। जो एक पैर से छ: महीने तक खड़ा रहकर तपस्या करे, वही इस विद्या को पा सकता है। परंतु आपको इस व्रत का पालन या तपस्या किये बिना ही मैं स्वयं उक्त विद्या की प्राप्ति कराऊंगा। राजन्! इस विद्या के बल से ही हम लोग मनुष्यों से श्रेष्ठ माने जाते हैं और देवताओं के तुल्य प्रभाव दिखा सकते हैं। पुरुषशिरोमणि! मैं आपको और आपके भाइयों को अलग-अलग गन्धर्वलोक के सौ-सौ घोड़े भेंट करता हूँ। वे घोड़े देवताओं और गन्धर्वों के वाहन हैं। उनके शरीर की कान्ति दिव्य है। वे मन के समान वेगशाली और आवश्यकता के अनुसार दुबले-मोटे होते हैं; किंतु उनका वेग कभी कम नहीं होता।
पूर्वकाल में वृत्रासुर का संहार करने के निमित्त इन्द्र के लिये जिस व्रज का निर्माण किया गया था, वृत्रासुर के मस्तक पर पड़ते ही उसके दस बड़े और सौ टुकड़े हो गये। तब से अनेक भागों में बंटे हुए उस व्रज के प्रत्येक भाग की देवतालोग उपासना करते हैं। लोक में उत्कृष्ट धन और यश आदि जो कुछ भी वस्तु है, उसे वज्र का स्वरुप माना गया है। (अग्नि में आहुति देने के कारण) ब्राह्मण का दाहिना हाथ वज्र है। अप्रिय का रथ वज्र है। वैश्य लोग जो दान करते हैं, वह भी वज्र है और शुद्र लोग जो सेवाकार्य करते हैं, उसे भी वज्र ही समझना चाहिये। क्षत्रिय के रथरुपी वज्र का एक विशिष्ट अंग होने से घोड़ों को अवध्य बताया गया है। गन्धर्वदेश की घोड़ी रथ को वहन करने वाले रथांग-स्वरुप (वज्रस्वरुप) घोड़े को जन्म देती है। वे घोड़े सब अश्वों में शूरवीर माने जाते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनसप्तधिकशततम अध्याय के श्लोक 54-68 का हिन्दी अनुवाद)
गन्धर्व-देश के घोड़ों की यह विशेषता है कि वे इच्छानुसार अपना रंग बदल लेते हैं। सवार की इच्छा के अनुसार अपने वेग को घटा-बढ़ा सकते हैं। जब आवश्यकता या इच्छा हो, तभी वे उपस्थित हो जाते हैं। इस प्रकार मेरे गन्धर्व-देशीय घोड़े आपकी इच्छा पूर्ण करते रहेंगे। अर्जुन ने कहा- गन्धर्व! यदि तुमने प्रसन्न होकर अथवा प्राण संकट से बचाने के कारण मुझे विद्या, धन अथवा शास्त्र प्रदान किया है तो मैं इस तरह का दान लेना पसंद नहीं करता।
गन्धर्व बोला ;- महापुरुषों के साथ जो समागम होता है, वह प्रीति को बढ़ाने वाला होता है- ऐसा देखने में आता है। आपने मुझे जीवनदान दिया है, इससे प्रसन्न होकर मैं आपको चाक्षुषी विद्या भेंट करता हूँ। साथ ही आपसे भी मैं उत्तम आग्नेयास्त्र ग्रहण करुंगा। भरतकुलभूषण अर्जुन! ऐसा करने से हम दोनों में दीर्घकाल तक समुचित सौहार्द बना रहेगा।
अर्जुन ने कहा ;- ठीक है, मैं यह अस्त्र विद्या देकर तुमसे घोड़े ले लूंगा। हम दोनों की मैत्री सदा बनी रहे। सखे गन्धर्वराज! बताओ तो सही, तुम लोगों से हम मनुष्यों को क्यों भय प्राप्त होता है? गन्धर्व! हम सब लोग वेदवेत्ता हैं और शत्रुओं का दमन करने की शक्ति रखते हैं; फिर भी रात में यात्रा करते समय जो तुमने हम लोगों पर आक्रमण किया है, इसका क्या कारण है? इस पर भी प्रकाश डालो?
गन्धर्व बोला ;- पाण्डुकुमारों! आप लोग (विवाहित न होने के कारण) त्रिविध अग्रियों की सेवा नहीं करते। (अध्ययन पूरा करके समावर्तन संस्कार से सम्पन्न हो गये हैं, अत:) प्रतिदिन अग्नि को आहुति भी नहीं देते। आपके आगे कोई ब्राह्मण पुरोहित भी नहीं है। इन्हीं कारणों से मैंने आप पर आक्रमण किया है। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अर्जुन! इसीलिये मैंने आप लोगों के तेज और कुलोचित्त प्रभाव को जानते हुए भी आप पर आक्रमण करने का विचार किया। भरतश्रेष्ठ! आप लोग महान् तेजस्वी हैं। आपने अपने गुणों से जिस शोभाशाली श्रेष्ठ यश का विस्तार किया है, उसे तीनों लोकों में कौन नहीं जानता। बुद्धिमान् यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, पिशाच, नाग और दानव कुरुकुल की यशोगाथा का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। वीर! नारद आदि देवर्षियों के मुख से भी मैंने आपके बुद्धिमान् पूर्वजों का गुणगान सुना है। तथा समुन्द्र से घिरी हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरते हुए मैंने स्वयं भी आप के उत्तम कुल का प्रभाव प्रत्यक्ष देखा है।
अर्जुन! तीनों लोकों में विख्यात यशस्वी भरद्वाजनन्दन द्रोण को भी, जो आपके वेद और धनुर्वेद के आचार्य रहे हैं, मैं अच्छी तरह जानता हूँ। कुरुश्रेष्ठ! धर्म, वायु, इन्द्र, दोनों अश्विनिकुमार तथा महाराज पाण्डु- ये छ: महापुरुष कुरुवंश की वृद्धि करने वाले हैं। पार्थ! ये देवताओं तथा मनुष्यों के सिरमौर छहो व्यक्ति आप लोगों के पिता हैं। मैं इन सबको जानता हूँ। आप सब भाई देवस्वरुप, महात्मा, समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ शूरवीर हैं तथा आप लोगों ने ब्रह्मचर्य का भली-भाँति पालन किया है। आप लोगों का अन्त:करण शुद्ध है, मन और बुद्धि भी उत्तम है। पार्थ! आपके विषय में यह सब कुछ जानते हुए भी मैंने यहाँ आक्रमण किया था। कुरुनन्दन! इसका कारण यह है कि अपने बाहुबल का भरोसा रखने वाला कोई भी पुरुष जब स्त्री के समीप अपना तिरस्कार होता देखता है, तब उसे सहन नहीं कर पाता।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनसप्तधिकशततम अध्याय के श्लोक 69-80 का हिन्दी अनुवाद)
कुन्तीनन्दन! इसके सिवा एक बात यह भी है कि रात के समय हम लोगों का बल बहुत बढ़ जाता है। इसी से स्त्री के साथ रहने के कारण मुझमें क्रोध का आवेश हो गया था। तपती के कुल की वृद्धि करने वाले अर्जुन! आपने जिस कारण युद्ध में मुझे पराजित किया है, उसे (भी) बतलाता हूं; सुनिये। ब्रह्मचर्य सबसे बड़ा धर्म है और वह तुममें निश्चितकाल रुप से विद्यमान है। कुन्तीनन्दन! इसीलिये युद्ध में मैं तुमसे हार गया हूँ। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! यदि दूसरा कोई कामासक्त क्षत्रिय रात में मुझसे युद्ध करने आता तो किसी प्रकार जीवित नहीं बच सकता था। किंतु कुन्तीकुमार! कामासक्त होने पर भी यदि कोई पुरुष किसी ब्राह्मण को आगे करके चले तो वह समस्त निशाचरों पर विजय पा सकता है; क्योंकि उस दशा में उसका सारा भार पुरोहित पर होता है।
अत: तपतीनन्दन! मनुष्यों को इस लोक में जो भी कल्याणकारी कार्य करना अभीष्ट हो, उसमें वह मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले पुरोहितों को नियुक्त करे। जो छहों अंगोंसहित वेद के स्वाध्याय में तत्पर, ईमानदार, सत्यवादी, धर्मात्मा ओर मन को वश में रखने वाले हों, ऐसे ही ब्राह्मण राजाओं के पुरोहित होने चाहिये। जिसके यहाँ धर्मज्ञ, वक्ता, शीलवान् और ईमानदार ब्राह्मण पुरोहित हो, उस राजा को इस लोक में निश्चय ही विजय प्राप्त होती है और मरने के बाद उसे स्वर्गलोक मिलता है। राजा को किसी अप्राप्त वस्तु या धन को प्राप्त करने अथवा उपलब्ध धन आदि की रक्षा करने के लिये गुणवान् ब्राह्मण को पुरोहित बनाना चाहिये। जो समुद्र से घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार चाहे या अपने लिये ऐश्वर्य पाना चाहे, उसे पुरोहित की आज्ञा के अधीन रहना चाहिये। तपतीनन्दन! कोई भी राजा कहीं भी पुरोहित की सहायता के बिना केवल अपने बल अथवा कुलीनता के भरोसे भूमि पर विजय नहीं पाता। अत: कौरवों के कुल की वृ्द्धि करने वाले अर्जुन! आप यह जान लें कि जहाँ विद्वान ब्राह्मणों की प्रधानता हो, उसी राज्य की दीर्घकाल तक रक्षा की जा सकती है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत चैत्ररथ पर्व में गन्धर्वपराभव विषयक एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
एक सौ सत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"सूर्यकन्या तपती को देखकर राजा संवरण का मोहित होना"
अर्जुन ने कहा ;- गन्धर्व! तुमने ‘तपतीनन्दन’ कहकर जो बात यहाँ मुझसे कही है, उसके सम्बन्ध में मैं यह जानना चाहता हूँ कि तापत्य का निश्चित अर्थ क्या है? साधुस्वभाव गन्धर्वराज! यह तपती कौन है, जिसके कारण हम लोग तापत्य कहलाते हैं? हम तो अपने को कुन्ती का पुत्र समझते हैं। अत: ‘तापत्य’ का यथार्थ रहस्य क्या है, यह जानने की मुझे बड़ी इच्छा हो रही है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उनके यों कहने पर गन्धर्व ने कुन्तीनन्दन धनंजय को वह कथा सुनानी प्रारम्भ की, जो तीनों लोकों में विख्यात है।
गन्धर्व बोला ;- समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कुन्तीकुमार! इस विषय में एक बहुत मनोरम कथा है, जिसे मैं यथार्थ एवं पूर्णरुप से आपको सुनाऊंगा। मैंने जिस कारण अपने वक्तव्य में तुम्हें ‘तापत्य’ कहा है, वह बता रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। ये जो आकाश में उदित हो अपने तेजोमण्डल के द्वारा यहाँ से स्वर्गलोक तक व्याप्त हो रहे हैं, इन्हीं भगवान् सूर्यदेव के तपती नाम की एक पुत्री हुई, जो पिता के अनुरुप ही थी। प्रभो! वह सावित्री देवी की छोटी बहिन थी। वह तपस्या में संलग्न रहने के कारण तीनों लोकों में तपती नाम से विख्यात हुई। उस समय देवता, असुर, यक्ष एवं राक्षस जाति की स्त्री, कोई अप्सरा तथा गन्धर्व पत्नी भी उसके समान रुपवती न थी।
उसके शरीर का एक-एक अवयव बहुत सुन्दर, सुविभक्त और निर्दोष था। उसकी आंखें बड़ी-बड़ी और कजरारी थीं। वह सुन्दरी सदाचार, साधु-स्वभाव और मनोहर वेश से सुशोभित थी। भारत! भगवान् सूर्य ने तीनों लोकों में किसी भी पुरुष को ऐसा नहीं पाया, जो रुप, शील, गुण और शास्त्रज्ञान की दृष्टि से उसका पति होने योग्य हो। वह युवास्था को प्राप्त हो गयी। अब उसका किसी के साथ विवाह कर देना आवश्यक था। उसे उस अवस्था में देखकर भगवान् सूर्य इस चिन्ता में पड़े कि इसका विवाह किसके साथ किया जाय। यही सोचकर उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। कुन्तीनन्दन! उन्हीं दिनों महाराज ॠक्ष के पुत्र राजा संवरण कुरुकुल के श्रेष्ठ एवं बलवान् पुरुष थे। उन्होंने भगवान् सूर्य की आराधना प्रारम्भ की। पौरवनन्दन! वे मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर पवित्र हो अर्ध्य, पुष्प, गन्ध एवं नैवेद्य आदि सामग्रियों से तथा भाँति-भाँति के नियम, व्रत एवं तपस्याओं द्वारा बड़े भक्तिभाव से उदय होते हुए सूर्य की पूजा करते थे। उनके हृदय में सेवा का भाव था। वे शुद्ध तथा अंहकारशून्य थे। रुप में इस पृथ्वी पर उनके समान दूसरा कोई नहीं था। वे कृतज्ञ और धर्मज्ञ थे।
अत: सूर्यदेव ने राजा संवरण को ही तपती के योग्य पति माना। कुरुनन्दन! उन्होंने नृपश्रेष्ठ संवरण को, जिनका उत्तम कुल सम्पूर्ण विश्व में विख्यात था, अपनी कन्या देने की इच्छा की। जैसे आकाश में उद्दीप्त किरणों वाले सूर्यदेव अपने तेज से प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार पृथ्वी पर राजा संवरण अपनी दिव्य कान्ति से प्रकाशित थे। पार्थ! जैसे ब्रह्मवादी महर्षि उगते हुए सूर्य की अराधना करते हैं, उसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रजाएं महाराज संवरण की उपासना करती थीं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)
वे अपनी कमनीय कान्ति से चन्द्रमा को और तेज से सूर्यदेव को भी तिरस्कृत करते थे। राजा संवरण मित्रों तथा शत्रुओं की मण्डली में भी अपनी दिव्य शोभा से प्रकाशित होते थे। कुरुनन्दन! ऐसे उत्तम गुणों से विभूषित तथा श्रेष्ठ आचार-व्यवहार से युक्त राजा संवरण को भगवान् सूर्य ने स्वयं ही अपनी पुत्री तपती को देने का निश्चय कर लिया। कुन्तीनन्दन! एक दिन अमितपराक्रमी श्रीमान् राजा संवरण पर्वत के समीपवर्ती उपवन में हिंसक पशुओं का शिकार कर रहे थे। कुन्तीपुत्र! शिकार खेलते समय ही राजा का अनुपम अश्व पर्वत पर भूख-प्यास से पीड़ित हो मर गया। पार्थ! घोड़े की मृत्यु हो जाने से राजा संवरण पैदल ही उस पर्वत-शिखर पर विचरने लगे। घूमते-घूमते उन्होंने एक विशाललोचना कन्या देखी, जिसकी समता करने वाली स्त्री कहीं नहीं थी। शत्रुओं की सेना का संहार करने वाले नृपश्रेष्ठ संवरण अकेले थे और वह कन्या भी अकेली ही थी। उसके पास पहुँचकर राजा एकटक नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए खड़े रह गये। पहले तो उसका रुप देखकर नरेश ने अनुमान किया कि होने न हो ये साक्षात् लक्ष्मी हैं; फिर ध्यान में यह बात आयी कि सम्भव है, भगवान् सूर्य की प्रभा ही सूर्यमण्डल से च्युत होकर इस कन्या के रुप में आकाश से पृथ्वी पर आ गयी हो। शरीर और तेज से वह आग की ज्वाला-सी जान पड़ती थी। उसकी प्रसन्नता और कमनीय कान्ति से ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह निर्मल चन्द्रकला हो। सुन्दर कजरारे नेत्रों वाली वह दिव्य कन्या जिस पर्वत-शिखर पर खड़ी थी, वहाँ वह सोने की दमकती हुई प्रतिमा-सी सुशोभित हो रही थी।
विशेषत: उसके रुप और वेश से विभूषित हो वृक्ष, गुल्म और लताओं सहित वह पर्वत सुवर्णमय सा जान पड़ता था। उसे देखकर संवरण की समस्त लोकों की सुन्दरी युवतियों में अनादर-बुद्धि हो गयी। राजा यह मानने लगे कि आज मुझे अपने नेत्रों का फल मिल गया। भूपाल संवरण ने जन्म से लेकर (उस दिन तक) जो कुछ देखा था, उसमें कोई भी रुप उन्हें इस (दिव्य किशोरी) के सद्दश नहीं प्रतीत हुआ। उस कन्या ने उस समय अपने उत्तम गुणमय पाशों से राजा के मन और नेत्रों को बांध लिया। वे अपने स्थान से हिल-डुल तक न सके। उन्हें किसी बात की सुध-बुध (भी) न रही। वे सोचने लगे, निश्चय ही ब्रह्मा ने देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण लोकों के सौन्दर्य-सिन्धु को मथकर इस विशाल नेत्रों वाली किशोरी के इस मनोहर रुप का आविष्कार किया होगा। इस प्रकार उस समय उसकी रुप-सम्पत्ति से राजा संवरण ने यही अनुमान किया कि संसार में इस दिव्य कन्या की समता करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है। कल्याणमय कुल में उत्पन्न हुए वे नरेश उस कल्याण स्वरुपा कामिनी को देखते ही काम-बाण से पीड़ित हो गये। उनके मन में चिन्ता की आग जल उठी। तदनन्तर तीव्र कामाग्नि से जलते हुए राजा संवरण ने लज्जारहित होकर उस लज्जाशीला एवं मनोहारिणी कन्या से इस प्रकार पूछा- ‘रम्भोरु! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? और किसलिये यहाँ खड़ी हो? पवित्र मुस्कान वाली! तुम इस निर्जन वन में अकेली कैसे विचर रही हो?
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-44 का हिन्दी अनुवाद)
तुम्हारे सभी अंग परमसुन्दर एवं निर्दोष हैं। तुम सब प्रकार के (दिव्य) आभूषणों से विभूषित हो। सुन्दरि! इन आभूषणों से तुम्हारी शोभा नहीं है, अपितु तुम स्वयं ही इन आभूषणों की शोभा बढ़ाने वाली अभीष्ट आभूषण के समान हो। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, तुम न तो देवागंना हो न असुरकन्या, न यक्षकुल की स्त्री हो न राक्षसवंश की, न नागकन्या हो न गन्धर्व कन्या। मैं तुम्हें मानवी भी नहीं मानता। यौवन के मद से सुशोभित होने वाली सुन्दरी! मैंने अब-तक जो कोई भी सुन्दरी स्त्रियाँ देखी अथवा सुनी हैं, उनमें से किसी को भी मैं तुम्हारे समान नहीं मानता। सुमुखि! जब से मैंने चन्द्रमा से भी बढ़कर कमनीय एवं कमल दल के समान विशाल नेत्रों से युक्त तुम्हारे मुख का दर्शन किया है, तभी से मन्मथ मुझे मथ-सा रहा है।'
इस प्रकार राजा संवरण उस सुन्दरी से बहुत कुछ कह गये; परंतु उसने उस समय उस निर्जन वन में उन कामपीड़ित नरेश को कुछ भी उत्तर नहीं दिया। राजा संवरण उन्मत्त की भाँति प्रलाप करते रह गये और वह विशाल नेत्रों वाली सुन्दरी वहीं उनके सामने ही बादलों में बिजली की भाँति अन्तर्धान हो गयी। तब वे नरेश कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाली उस (दिव्य) कन्या को ढूढने के लिये वन में सब ओर उन्मत्त की भाँति भ्रमण करने लगे। जब कहीं भी उसे देख न सके, जब वे नृपश्रेष्ठ वहाँ बहुत विलाप करते-करते मूर्च्छित हो दो घड़ी तक निश्चेष्ट पड़े रहे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत चैत्ररथ पर्व में तपती-उपाख्यानविषयक एक सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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