सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (बकवध पर्व)
एक सौ छप्पनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने के लिये कुन्ती को भीमसेन से बातचीत तथा ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार"
जनमेजय पूछा ;- द्विजश्रेष्ठ! कुन्ती के महारथी पुत्र पाण्डव जब एकचक्रा नगरी में पहुँच गये, उसके बाद उन्होंने क्या किया?
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! एकचक्रा नगरी में जाकर महारथी कुन्तीपुत्र थोड़े दिनों तक एक ब्राह्मण के घर में रहे। जनमेजय! उस समय वे सभी पाण्डव भाँति-भाँति के रमणीय वनों, सुन्दर भूभागों, सरिताओं और सरावरों का दर्शन करते हुए भिक्षा के द्वारा जीवन निर्वाह करते थे। अपने उत्तम गुणों के कारण वे सभी नागरिकों के प्रीति-पात्र हो गये थे।
उन्हें देखकर नगरवासी आपस में तर्क-विर्तक करते हुए इस प्रकार की बातें करते थे- ये ब्राह्मणलोग तो देखने ही योग्य हैं।इनके आचार-विचार शुद्ध एवं सुन्दर हैं। इनकी आकृति देवकुमारों के समान जान पड़ती है। वे भीख मांगने योग्य नहीं, राज्य करने के योग्य हैं। सुकुमार होते हुए भी तपस्या में लगे हैं। इनमें सब प्रकार के शुभ लक्षण शोभा पाते हैं। ये कदापि भिक्षा ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। शायद किसी कार्यवश भिक्षुकों के वेश में विचर रहे हैं। वे नागरिक पाण्डवों के आगमन को अपने बन्धुजनों का ही आगमन मानकर उनके लिये भक्ष्य–भोज्य पालन करने वाले पाण्डव उनसें वह भिक्षा ग्रहण करते थे। हमें आये बहुत देर हो गयी, इसलिये माता जी चिन्ता में पड़ी होंगी-यह सोचकर माता के गौरव-पाश में बंधे हुए पाण्डव बड़ी उतावली के साथ उनके पास लौट आते थे। प्रतिदिन रात्री के आरम्भ में भिक्षा लाकर वे माता कुन्ती को सौंप देते और वे बांटकर जिसके लिये जितना हिस्सा देतीं, उतना ही पृथक्-पृथक् लेकर पाण्डव लोग भोजन करते थे।
वे चारों वीर परंतप पाण्डव अपनी माता के पास साथ आधी भिक्षा का उपभोग करते थे और सम्पूर्ण भिक्षा का आधा भाग अकेले महाबली भीमसेन खाते थे। भरतवंशशिरोमणे! इस प्रकार उस राष्ट्र में निवास भिक्षा के लिये गये; किंतु भीमसेन किसी कार्य विशेष के सम्बन्ध से कुन्ती के साथ वहाँ घर पर ही रह गये थे। भारत! उस दिन ब्राह्मण के घर में सहसा बड़े जोर का भयानक आर्तनाद होने लगा, जिसे कुन्ती ने सुना। राजन्! उन ब्राह्मण-परिवार के लोगों को बहुत रोते ओर विलाप करते देख कुन्ती देवी अत्यन्त दयालुता तथा साधु-स्वभाव के कारण सहन न कर सकीं। उस समय उनका दु:ख मानो कुन्ती देवी के हृदय को मथे डालता था। अत: कल्याणमयी कुन्ती भीमसेन से इस प्रकार करुणायुक्त वचन बोलीं,,
कुंती बोली ;- ‘बेटा! हम लोग इस ब्राह्मण के घर में दुर्योधन से अज्ञात रहकर बड़े सुख से निवास करते हैं। यहाँ हमारा इतना सत्कार हुआ है कि हम अपने दु:ख और दैन्य को भूल गये हैं। इसलिये पुत्र! मैं सदा सोचती रहती हूँ कि इस ब्राह्मण का मैं कौन-सा प्रिय कार्य करुं, जिसे किसी के घर में सुखपूर्वक रहने वाले लोग किया करते थे। तात! जिसके प्रति किया हुआ उपकार उसका बदला चुकाये बिना नष्ट नहीं होता, वही पुरुष है (और इतना ही उसका पौरुष (मानवता है कि) दूसरा मनुष्य उसके प्रति जितना उपकार करे, वह उससे भी अधिक उस मनुष्य का प्रत्युपकार कर दे। इस समय निश्चय ही ब्राह्मण पर कोई भारी दु:ख आ पड़ा है। यदि उसमें मैं इसकी सहायता करुं तो वास्तविक उपकार हो सकता है’।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)
भीमसेन बोले ;- मां! पहले यह मालूम करो कि इस ब्राह्मण को क्या दु:ख है और वह किस कारण से प्राप्त हुआ है। जान लेने पर अत्यन्त दुष्कर होगा, तो भी मैं इसका कष्ट दूर करने के लिये उद्योग करुंगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! वे मां-बेटे इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि पुन: पत्नी सहित ब्राह्मण का आर्तनाद उनके कानों में पड़ा। तब कुन्ती देवी तुरंत ही उस महात्मा ब्राह्मण के अन्त:पुर में घुस गयीं-ठीक उसी तरह जैसे घर में भीतर बंधे हुए बछड़े वाली गाय स्वयं ही उसके पास पहुँच जाती है। भीतर जाकर कुन्ती ने ब्राह्मण को वहाँ पत्नी, पुत्र और कन्या के साथ नीचे मुंह किये बैठे देखा।
ब्राह्मण देवता कह रहे थे ;- जगत् के इस जीवन को धिक्कार है; क्योंकि यह सारहीन, निरर्थक, दु:ख की जड़, पराधीन और अत्यन्त अप्रिय भागी है। जीने में महान् दु:ख है। जीवनकाल में बड़ी भारी चिन्ता का सामना करना पड़ता है। जिसने जीवन धारण कर रखा है, उसे दु:खों की प्राप्ति अवश्य होती है। जीवात्मा अकेला ही धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है। इनका वियोग होना भी उसके लिये महान् और अनन्त दु:ख का कारण होता है।
कुछ लोग चारों पुरुषार्थों में मोक्ष को ही सर्वोत्तम बतलाते हैं, किंतु वह भी मेरे लिये किसी प्रकार सुलभ नहीं है। अर्थ की प्राप्ति होने पर तो नरक का सम्पूर्ण दु:ख भोगना ही पड़ता है। धन की इच्छा सबसे बड़ा दु:ख है किंतु धन प्राप्त करने में तो और भी अधिक दु:ख है और जिसकी धन में आसक्ति हो गयी है, उसे उस धन का वियोग होने पर इतना महान् दु:ख होता है, जिसकी कोई सीमा नहीं है। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे इस विपत्ति से छुटकारा पा सकूं अथवा पुत्र और स्त्री के साथ किसी निरापद स्थान में भाग चलूं। ब्राह्मणी! तुम इस बात को ठीक-ठीक जानती हो कि पहले तुम्हारे साथ किसी ऐसे स्थान में चलने के लिये जहाँ सब प्रकार से अपना भला हो, मैंने प्रयत्न किया था; परंतु उस समय तुम ने मेरी बात नहीं सुनी। मूढ़मते! मैं बार-बार तुमसे अन्यत्र चलने के लिये अनुरोध करता।
उस समय तुम कहने लगती थीं ;- ‘यहीं मेरा जन्म हुआ, यहाँ बड़ी हुई तथा मेरे पिता भी यहीं रहते थे’।
अरी! तुम्हारे बूढ़े पिता-माता और पहले के भाई बन्धु जिसे छोड़कर बहुत दिन हुए स्वर्गलोक को चले गये, वहीं निवास करने के लिये यह आसक्ति कैसी? तुमने बन्धु-बान्धवों के साथ रहने की इच्छा रखकर जो मेरी बात नहीं सुनी, उसी का यह फल है कि आज समस्त भाई-बन्धुओं के विनाश की घड़ी आ पहुँची है, जो मेरे लिये अत्यन्त दु:ख का कारण है अथवा यह मेरे ही विनाश का समय है; क्योंकि मैं स्वयं जीवित रहकर क्रूर मनुष्य की भाँति दूसरे किसी भाई-बन्धु का त्याग नहीं कर सकूंगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद)
प्रिये! तुम मेरी सहवर्मिणी और इन्द्रियों को संयम में रखने वाली हो। सदा सावधान रहकर माता के समान मेरा पालन-पोषण करती हो। देवताओं ने तुम्हें मेरी सखी (सहायिका) बनाया है। तुम सदा मेरी परमगति (सबसे बड़ा सहारा) हो। तुम्हारे पिता-माता ने तुम्हें सदा के लिये मेरे गृहस्थाश्रम की अधिकारिणी बनाया है। मैंने विधिपूर्वक तुम्हारा वरण करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक तुम्हारे साथ विवाह किया है। तुम कुलीन, सुशीला और संतानवती हो, सती-साध्वी हो। तुमने कभी मेरा अपकार नहीं किया है। तुम नित्य जीवन की रक्षा के लिये तुम्हें नहीं त्याग सकूंगा। फिर स्वयं ही अपने उस पुत्र का त्याग कैसे कर सकूंगा, जो अभी निरा बच्चा है, जिसने युवावस्था में प्रवेश नहीं किया है तथा जिसके शरीर में अभी जवानी के लक्षण तक नहीं प्रकट हुए हैं। साथ ही अपनी इस कन्या को कैसे त्याग दूं, जिसे महात्मा ब्रह्मा जी ने उसके भावी पति के लिये धरोहर के रुप में मेरे यहाँ रख छोड़ा है? जिसके होने से मैं पितरों के साथ दौहित्रजनित पुण्यलोकों को पाने की आशा रखता हूं, उसी अपनी बालिका को स्वंय ही जन्म देकर मैं मौत के मुख में कैसे छोड़ सकता हूँ?
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पिता का अधिक स्नेह पुत्र पर होता है तथा कुछ दूसरे लोग पुत्री पर ही अधिक स्नेह बताते हैं, किंतु मेरे तो दोनों ही समान है। जिस पर पुण्यलोक, वंशपरम्परा और नित्य सुख-सब कुछ सदा निर्भर रहते हैं, उस निष्पाप बालिका का परित्याग मैं कैसे कर सकता हूँ। अपने को भी त्यागकर परलोक में जाने पर मैं सदा इस बात के लिये संतप्त होता रहूंगा कि मेरे द्वारा त्यागे हुए ये बच्चे अवश्य ही यहाँ जीवित नहीं रह सकेंगे। इनमें से किसी का त्याग विद्वानों ने निर्दयतापूर्वक तथा निन्दनीय बताया है और मेरे मर जाने पर ये सभी मेरे बिना मर जायंगे। अहो! मैं बड़ी कठिन विपत्ति में फंस गया हूँ। इससे पार होने की मुझमें शक्ति नहीं है। धिक्कार है इस जीवन को! हाय! मैं बन्धु-बान्धवों के साथ आज किस गति को प्राप्त होऊंगा। सबके साथ मर जाना ही अच्छा है। मेरा जीवित रहना कदापि उचित नहीं है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत बकवध पर्व में ब्राह्मण की चिन्ता विषयक एक सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (बकवध पर्व)
एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तञ्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"ब्राह्मणी का स्वयं मरने के लिये उद्यत होकर पति से जीवित रहने के लिये अनुरोध करना"
ब्राह्मणी बोली ;- प्राणनाथ! आपको साधारण मनुष्यों की भाँति कभी संताप नहीं करना चाहिये। आप विद्वान हैं, आपके लिये यह संताप का अवसर नहीं है। एक-न-एक दिन संसार में सभी मनुष्यों को अवश्य मरना पड़ेगा। अत: जो बात अवश्य होने वाली है, उसके लिये यहाँ शोक करने की आवश्यकता नहीं है। पत्नी,पुत्र और पुत्री- ये सब अपने लिये अभीष्ट होते हैं। आप उत्तम बुद्धि विवेक का आश्रय लेकर शोक-संताप छोड़िये। मैं स्वयं वहाँ (राक्षस के समीप) चली जाऊंगी। पत्नी के लिये लोक में सबसे बढ़कर यही सनातन कर्तव्य है कि वह अपने प्राणों को भी निछावर करके पति की भलाई करे। पति के हित के लिये किया हुआ मेरा वह प्राणोत्सर्गरुप कर्म आपके लिये तो सुखकारक होगा ही, मेरे लिये भी परलोक में अक्षय सुख का साधक और इस लोक में यश की प्राप्ति कराने वाला होगा। यह सबसे बड़ा धर्म है, जो मैं आपसे बता रही हूँ। इसमें आपके लिये अधिक से अधिक स्वार्थ और धर्म का लाभ दिखायी देता है। जिस उद्देश्य से पत्नी की अभिलाषा की जाती हैं, आपने वह उद्देश्य मुझसे सिद्ध कर लिया है। एक पुत्री और एक पुत्र आपके द्वारा मेरे गर्भ से उत्पन्न हो चुके हैं। इस प्रकार आपने मुझे भी उऋण कर दिया है। इन दोनों संतानों का पालन-पोषण और संरक्षण करने में आप समर्थ हैं। आपकी तरह मैं इन दोनों के पालन-पोषण तथा रक्षा की व्यवस्था नहीं कर सकूंगी। मेरे सर्वस्व स्वामी प्राणेश्वर! आपके न रहने पर मेरे इन दोनों बच्चों की क्या दशा होगी?
मैं किस तरह इन बालकों का भरण-पोषण करुंगी? मेरा पुत्र अभी बालक है, आपके बिना मैं अनाथ विधवा सन्मार्ग पर स्थित रहकर इन दोनों बच्चों को कैसे जिलाऊंगी। जो आपके यहाँ सम्बन्ध करने के सर्वथा अयोग्य हैं, ऐसे अहंकारी और घमंडी लोग जब मुझसे इस कन्या को मांगेंगे, तब मैं उनसे इसकी रक्षा कैसे कर सकूंगी। जैसे पृथ्वी पर डाले हुए मांस के टुकड़े को लेने के लिये झपटते हैं, उसी प्रकार सब लोग विधवा स्त्री को वश में करना चाहते हैं। द्विजश्रेष्ठ! दुराचारी मनुष्य जब बार-बार मुझसे याचना करते हुए मुझे मर्यादा से विचलित करने की चेष्टा करेंगे, उस समय मैं श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा अभिलषित मार्ग पर स्थिर नहीं रह सकूंगी। आपके कुल की इस एकमात्र निपराध बालिका को मैं बाप-दादों के द्वारा पालित धर्म मार्ग पर लगाये रखने में कैसे समर्थ होऊंगी। आप धर्म के ज्ञाता हैं, आप जैसे अपने बालक को सद्गुणी बना सकते हैं, उस प्रकार मैं आपके न रहने पर सब ओर से आश्रयहीन हुए इस अनाथ बालक में वाञ्छनीय उत्तम गुणों का आधान कैसे कर सकूंगी। जैसे अनधिकारी शुद्र वेद की श्रुति को प्राप्त करना चाहता हो, उसी प्रकार अयोग्य पुरुष मेरी अवहेलना करके आपकी इस अनाथ बालिका को भी ग्रहण करना चाहेंगे। आपके ही उत्तम गुणों से सम्पन्न अपनी इस पुत्री को यदि मैं उन अयोग्य पुरुषों के हाथ में न देना चाहूंगी तो वे बलपूर्वक इसे उसी प्रकार ले जायंगें, जैसे कौए यज्ञ से हविष्य का भाग लेकर उड़ जायं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तञ्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)
ब्रह्मन्! आपके इस पुत्र को आपके अनुरुप न देखकर और आपकी इस पुत्री को भी अयोग्य पुरुष के वश में पड़ी देखकर तथा लोक में घमंडी मनुष्यों द्वारा अपमानित हो अपने को पूर्ववत् सम्मानित अवस्था में न पाकर मैं प्राण त्याग दूंगी, इसमें संशय नहीं है। जैसे पानी सूख जाने पर वहाँ की मछलियां नष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार मुझसे और आप से रहित होकर अपने ये दोनों बच्चे निस्संदेह नष्ट हो जायंगे। नाथ! इस प्रकार आपके बिना मैं और वे दोनों बच्चे-तीनों ही सर्वथा विनष्ट हो जायंगे-इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसलिये आप केवल मुझे त्याग दीजिये। ब्रह्मन्! पुत्रवती स्त्रियां यदि अपने पति से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जायं तो यह उनके लिये परमसौभाग्य की बात है। धर्मज्ञ विद्वान ऐसा ही मानते हैं। पिता, माता और पुत्र ये सब परिमित मात्रा में ही सुख देते हैं, अपरिमित सुख को देने वाला तो केवल पति है। ऐसे पति का कौन स्त्री आदर नहीं करेगी? आर्यपुत्र! आपके लिये मैंने यह पुत्र और पुत्री भी छोड़ दी, समस्त बन्धु-बान्धवों को भी छोड़ दिया और अब अपना यह जीवन को भी त्याग देने को उद्यत हूँ। स्त्री यदि सदा अपने स्वामी के प्रिय और हित में लगी रहे तो यह उसके लिये बड़े-बड़े यज्ञों, तपस्याओं, नियमों और नाना प्रकार के दानों से भी बढ़कर है।
अत: मैं जो यह कार्य करना चाहती हूं, यह श्रेष्ठ पुरुषों से सम्मत धर्म हैं और आपके तथा इस कुल के लिये सर्वथा अनुकूल एवं हितकारक है। अनुकूल संतान, धन, प्रिय सुहृदय तथा पत्नी- ये सभी आपद्धर्म से छूटने के लिये ही वाञ्छनीय हैं; ऐसा साधु पुरुषों का मत है। आपत्ति के लिये धन की रक्षा करे, धन के द्वारा स्त्री की रक्षा करे और स्त्री तथा धन दोनों के द्वारा सदा अपनी रक्षा करे। पत्नी, पुत्र, धन और घर- ये सब वस्तुएं दृष्ट और अदृष्ट फल (लौकिक और पारलौकिक) के लिये संग्रहणीय हैं। विद्वानों का यह निश्चय है। एक और सम्पूर्ण कुल हो और दूसरी ओर उस कुल की वृद्धि करने वाला शरीर हो तो उन दोनों की तुलना करने पर वह सारा कुल उस शरीर के बराबर नहीं हो सकता; यह विद्वानों का निश्चय है। आर्य! अत: आप मेरे द्वारा अभीष्ट कार्य की सिद्धि कीजिये और स्वयं प्रयत्न करके अपने को इस संकट से बचाइये। मुझे राक्षस के पास जाने की आज्ञा दीजिये और मेरे दोनों बच्चों का पालन कीजिये। धर्मज्ञ विद्वानों ने धर्म-निर्णय के प्रसंग में नारी को अवध्य बताया है। राक्षसों को भी लोग धर्मज्ञ कहते हैं। इसीलिये सम्भव है, वह राक्षस भी मुझे स्त्री, समझकर न मारे। पुरुष वहाँ जायं, तो वह राक्षस उनका वध कर ही डालेगा इसमें संशय नहीं हैं; परंतु स्त्रियों के वध में संदेह है। (यदि राक्षस ने धर्म का विचार किया तो मेरे बच जाने की आशा है) अत: धर्मज्ञ आर्यपुत्र! आप मुझे ही वहाँ भेजें।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तञ्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 33-38 का हिन्दी अनुवाद)
मैंने सब प्रकार के भोग भोग लिये, मन का प्रिय लगने वाली वस्तुएं प्राप्त कर लीं, महान् धर्म का अनुष्ठान भी पूरा कर लिया और आपसे प्यारी संतान भी प्राप्त कर ली। अब यदि मेरी मृत्यु भी हो जाय तो उससे मुझे दु:ख न होगा। मुझसे पुत्र उत्पन्न हो गया, मैं बूढ़ी भी हो चली और सदा आपका प्रिय करने की इच्छा रखती आयी हूँ। इन सब बातों पर विचार करके ही अब मैं मरने का निश्चय कर रही हूँ। आर्य! मुझे त्याग करके आप दूसरी स्त्री भी प्राप्त कर सकते हैं। उससे आपका गृहस्थ-धर्म पुन: प्रतिष्ठित हो जायगा।
कल्याणस्वरुप हृदयेश्वर! बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करने वाले पुरुषों को भी पाप नहीं लगता। परंतु स्त्रियों को अपने पूर्वपति का उल्लंघन करने पर बड़ा भारी पाप लगता है। इन सब बातों को विचार करके और अपने देह के त्याग को निन्दित कर्म मानकर आप अब शीघ्र ही अपने को, अपने कुल को और इन दोनों बच्चों को भी संकट से बचा लीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! ब्राह्मणी के यों कहने पर उसके पति ब्राह्मणदेवता अत्यन्त दुखी हो उसे हृदय से लगाकर उसके साथ ही धीरे-धीरे आंसू बहाने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत बकवध पर्व में ब्राह्मणी वाक्यविषयक एक सौ सतावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (बकवध पर्व)
एक सौ अठ्ठावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"ब्राह्मण-कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन तथा कुन्ती का उन सबके पास जाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! दु:ख में डूबे हुए माता-पिता का यह (अत्यन्त शोकपूर्ण) वचन सुनकर कन्या के सम्पूर्ण अंगों में दु:ख व्याप्त हो गया;
उसने माता और पिता दोनों से कहा ;- ‘आप दोनों इस प्रकार अत्यन्त दु:ख से आतुर हो अनाथ की भाँति क्यों बार-बार रो रहे हैं? मेरी भी बात सुनिये और उसे सुनकर जो उचित जान पड़े, वह कीजिये। इसमें संदेह नहीं कि एक-न-एक दिन आप दोनों को धर्मत: मेरा परित्याग करना पड़ेगा। जब मैं त्याज्य ही हूं, तब आज ही मुझे त्यागकर मुझ अकेली के द्वारा इस समूचे कुल की रक्षा कर लीजिये। संतान की इच्छा इसीलिये की जाती है कि यह मुझे संकट से उबारेगी। अत: इस समय जो संकट उपस्थित हुआ है, उसमें नौका की भाँति मेरा उपयोग करके आप लोग शोक-सागर से पार हो जाइये। जो पुत्र इस लोक में दुर्गम संकट से पार लगाये अथवा मृत्यु के पश्चात् परलोक में उद्धार करे- सब प्रकार पिता को तार दे, उसे ही विद्वानों ने वास्तव में पुत्र कहा है। पितर लोग मुझसे उत्पन्न होने वाले दौहित्र से अपने उद्धार की सदा अभिलाषा रखते हैं, इसलिये मैं स्वयं ही पिता के जीवन की रक्षा करती हुई उन सबका उद्धार करुंगी।
यदि आप परलोकवासी हो गये तो यह मेरा नन्हा-सा भाई थोड़े ही समय में नष्ट हो जायगा, इसमें संशय नहीं है। पिता स्वर्गवासी हो जायं और मेरा भैया भी नष्ट हो जाय, तो पितरों का पिण्ड ही लुप्त हो जायगा, जो उनके लिये बहुत ही अप्रिय होगा। पिता, माता और भाई-तीनों से परित्यक्त होकर मैं एक दु:ख से दूसरे महान् दु:ख में पड़कर निश्चय ही मर जाऊंगी। यद्यपि मैं ऐसा दु:ख भोगने के योग्य नहीं हूं, तथापि आप लोगों के बिना मुझे सब भोगना ही पड़ेगा। यदि आप मृत्यु के संकट से मुक्त एवं निरोग रहे तो मेरी माता, मेरा नन्हा-सा भाई, संतान परम्परा और पिण्ड (श्राद्ध-कर्म) ये सब स्थिर रहेंगे; इसमें संशय नहीं है। कहते हैं पुत्र अपना आत्मा है, पत्नी मित्र है, किंतु पुत्री निश्चय ही संकट है, अत: आप इस संकट से अपने को बचा लीजिये और मुझे भी धर्म में लगाइये। पिताजी! आपके बिना मैं सदा के लिये दीन और असहाय हो जाऊंगी, अनाथ और दयनीय समझी जाऊंगी। अरक्षित बालिका होने के कारण मुझे जहाँ कहीं भी जाने के लिये विवश होना पड़ेगा। अथवा मैं अपने को मृत्यु के मुख में डालकर इस कुल को संकट से छुड़ाऊँगी। यह अत्यन्त दुष्कर कर्म कर लेने से मेरी मृत्यु सफल हो जायगी। द्विजश्रेष्ठ पिताजी! यदि आप मुझे त्यागकर स्वयं राक्षस के पास चले जायंगे तो मैं बड़े दु:ख में पड़ जाऊंगी। अत: मेरी ओर भी देखिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 15-24 का हिन्दी अनुवाद)
अत: हे साधुशिरोमणे! आप मेरे लिये, धर्म के लिये तथा संतान की रक्षा के लिये भी अपनी रक्षा कीजिये और मुझे, जिसको एक दिन छोड़ना ही है, आज ही त्याग दीजिये। पिताजी! जो काम अवश्य करना है, उसका निश्चय करने में आपको अपना समय व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये। (शीघ्र ही मेरा त्याग करके इस कुल की रक्षा करनी चाहिये।) आप लोगों के लिये इससे बढ़कर महान् दु:ख और क्या होगा कि आपके स्वर्गवासी हो जाने पर हम दूसरों से अन्न की भीख मांगते हुए कुत्तों की तरह इधर-उधर दौड़ते फिरें। यदि मुझे त्यागकर आप अपने भाई-बन्धुओं सहित इस क्लेश से मुक्त हो नीरोग बने रहें तो मैं अमरलोक में निवास करती हुई बहुत सुखी होऊंगी। यद्यपि ऐसे दान से देवता और पितर प्रसन्न नहीं होते, ऐसा मैनें सुन रखा है, तथापि आपके द्वारा दी हुई जलाञ्जलि से वे प्रसन्न होकर अवश्य हमारा हित-साधन करने-वाले होंगे’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस तरह उस कन्या के मुख से नाना प्रकार का विलाप सुनकर पिता-माता और वह कन्या तीनों फूट-फूटकर रोने लगे। तब उनको सबको रोते देख ब्राह्मण का नन्हा–सा बालक उस सबकी ओर प्रफुल्ल नेत्रों से देखता हुआ तोतली भाषा में अस्पष्ट एवं मधुर वचन बोला,,
बालक बोला ;- ‘पिता जी! न रोओ, मां! न रोओ, बहिन! न रोओ, वह हंसता हुआ-सा प्रत्येक के पास जाता और सबको यही बात कहता था। तदनन्तर उसने एक तिनका उठा लिया और अत्यन्त हर्ष में भरकर कहा,,
बालक फिर बोला ;- ‘मैं इसी से उस नरभक्षी राक्षस को मार डालूंगा।' यद्यपि वे सब लोग दु:ख में डूबे हुए थे, तथापि उस बालक की अस्पष्ट तोतली बोली सुनकर उनके हृदय में सहसा अत्यन्त प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। 'अब यही अपने को प्रकट करने का अवसर है’ यह जानकर कुन्ती देवी उन सब के निकट गयीं और अपनी अमृतमयी वाणी से उन मृतक (तुल्य) मानवों को जीवन प्रदान करती हुई-सी बोलीं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत बकवर्ध पर्व में ब्राह्मण की कन्या और पुत्र के वचन-सम्बन्धी एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (बकवध पर्व)
एक सौ उनसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनषष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)
"कुन्ती के पूछने पर ब्राह्मण का उनसे अपने दु:ख का कारण बताना"
कुन्ती ने पूछा ;- ब्रह्मन्! आप लोगों के इस दु:ख का कारण क्या है? मैं यह ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ। उसे जानकर यदि मिटाया जा सकेगा तो मिटाने की चेष्टा करुंगी।
ब्राह्मण ने कहा ;- तपोधने! आप जो कुछ कह रही हैं, यह आप-जैसे सज्जनों के अनुरुप ही है; परंतु हमारे इस दु:ख को मनुष्य नहीं मिटा सकता। इस नगर के पास ही यहाँ से दो कोस की दूरी पर यमुना के किनारे घने जंगलों में एक गुफा है, उसी में एक भयंकर हिंसा प्रिय नरभक्षी राक्षस रहता है। उसका नाम है बक। वह राक्षस अत्यन्त बलवान् है। वही इस जनपद और नगर का स्वामी है। वह खोटी बुद्धि वाला मनुष्यभक्षी राक्षस मनुष्य के ही मांस से पुष्ट हुआ है। उस दुरात्मा नरभक्षी निशाचर द्वारा प्रतिदिन खायी जाती हुई यह नगरी अनाथ हो रही है। इसे कोई रक्षक या स्वामी नहीं मिल रहा है। राक्षसोचित्त बल से सम्पन्न वह शक्तिशाली असुरराज सदा इस जनपद, नगर और देश की रक्षा करता है। उसके कारण हमें शत्रुराज्यों तथा हिंसक प्राणियों से कभी भय नहीं होता। उसके लिये कर नियत किया गया है- बीस खारी अगहनी के चावल का भात, दो भैंसे और एक मनुष्य, जो वह सब सामान लेकर उस के पास जाता है। प्रत्येक गृहस्थ अपनी बारी आने पर उसे भोजन देता है। यद्यपि यह बारी बहुत वर्षों के बाद आती है, तथापि लोगों के लिये उसकी पूर्ति बहुत कठिन होती है। जो कोई पुरुष कभी उससे छूटने का प्रयत्न करते हैं, वह राक्षस उन्हें पुत्र और स्त्री सहित मारकर खा जाता है।
वास्तव में जो यहाँ का राजा हैं, वह वेत्रकीयगृह नामक स्थान में रहता है। परंतु वह न्याय के मार्ग पर नहीं चलता। वह मन्दबुद्धि राजा यत्न करके भी ऐसा कोई उपाय नहीं करता, जिससे सदा के लिये प्रजा का संकट दूर हो जाय। निश्चय ही हम लोग ऐसा ही दु:ख भोगने के योग्य है; क्योंकि हम दुर्बल राजा के राज्य में निवास करते हैं, यहाँ के नित्य स्वामी हो गये हैं और इस दुष्ट आश्रय में रहते हैं। ब्राह्मणों को कौन आदेश दे सकता है अथवा वे किसके अधीन रह सकते हैं। ये तो इच्छानुसार विचरने वाले पक्षियों की भाँति देश या राजा के गुण देखकर ही कहीं भी निवास करते हैं। नीती कहती है, पहले अच्छे राजा को प्राप्त करे। उसके बाद पत्नी की और फिर धन की उपलब्धि करे। इन तीनों के संग्रह द्वारा अपने जाति-भाइयों तथा पुत्रों को संकट से बचाये। मैंने इन तीनों का विपरीत ढंग से उपार्जन किया है (अर्थात् दुष्ट राजा के राज्य में निवास किया, कुराज्य में विवाह किया और विवाह के पश्चात् धन नहीं कमाया); इसलिये इस विपत्ति में पड़कर हम लोग भारी कष्ट पा रहे हैं। वही आज हमारी बारी आयी है, जो समूचे कुल का विनाश करने वाली है। मुझे उस राक्षस को कर के रुप में नियत भोजन और एक पुरुष की बलि देनी पड़ेगी। मेरे पास धन नहीं है, जिससे कहीं से किसी पुरुष को खरीद लाऊं। अपने सुहृदों एवं सगे-सम्बन्धियों को तो मैं कदापि उस राक्षस के हाथ में नहीं दे सकूंगा। उस निशाचर से छूटने का कोई उपाय मुझे नहीं दिखायी देता; अत: मैं अत्यन्त दुस्तर दु:ख के महासागर में डूबा हुआ हूँ। अब इन बान्धवजनों के साथ ही मैं राक्षस के पास जाऊंगा फिर वह नीच निशाचर एक ही साथ हम सबको खा जायेगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत बकवध पर्व में कुन्ती प्रश्नविषयक एक सौ उनसठवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (बकवध पर्व)
एक सौ साठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षष्टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत"
कुन्ती बोली ;- ब्रह्मन्! आपको अपने ऊपर आये हुए इस भय से किसी प्रकार विषाद नहीं करना चाहिये। इस परिस्थिति में उस राक्षस से छूटने का उपाय मेरी समझ में आ गया। आपको तो एक ही नन्हा–सा पुत्र और एक ही तपस्विनी कन्या है, अत: इन दोनों का तथा आपकी पत्नी का भी वहाँ जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। विप्रवर! मेरे पांच पुत्र हैं, उनमें से एक आपके लिये उस पापी राक्षस की बलि-सामग्री लेकर चला जायगा।
ब्राह्मण ने कहा ;- मैं अपने जीवन की रक्षा के लिये किसी तरह ऐसा नहीं करुंगा। एक तो ब्राह्मण, दूसरे अतिथि-के प्राणों का नाश मैं अपने तुच्छ स्वार्थ के लिये कराऊं! यह कदापि सम्भव नहीं है। ऐसा निन्दनीय कार्य नीच और अधर्मी जनता में भी नहीं देखा जाता। उचित तो यह है कि ब्राह्मण के लिये स्वयं अपने को और अपने पुत्र को भी निछावर कर दे। इसी में मुझे अपना कल्याण समझना चाहिये तथा यही मुझे अच्छा लगता है। ब्रह्महत्या और आत्महत्या में मुझे आत्महत्या ही श्रेष्ठ जान पड़ती है। ब्रह्महत्या बहुत बड़ा पाप है। इस जगत् में उससे छूटने का कोई उपाय नहीं है। अनजान में भी ब्रह्महत्या करने की अपेक्षा मेरी द्दष्टि में आत्महत्या कर लेना अच्छा है। कल्याणि! मैं स्वयं तो आत्महत्या की इच्छा करता नहीं; परंतु यदि दूसरों ने मेरा वध कर दिया तो उसके लिये मुझे कोई पाप नहीं लगेगा। यदि मैंने जान-बूझकर ब्राह्मण का वध करा दिया तो वह बड़ा ही नीच और क्रूरतापूर्ण कर्म होगा। उससे छुटकारा पाने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता। घर पर आये हुए तथा शरणार्थी का त्याग और अपनी रक्षा के लिये याचना करने वाले का वध-यह विद्वानों की राय में अत्यन्त क्रूर एवं निन्दित कर्म हैं। आपद्धर्म के ज्ञाता प्राचीन महात्माओं ने कहा है कि किसी प्रकार भी क्रूर एवं निन्दित कर्म नहीं करना चाहिये। अत: आज अपनी पत्नी के साथ स्वयं मेरा विनाश हो जाय, यह श्रेष्ठ है; किंतु ब्राह्मण वध की अनुमती मैं कदापि नहीं दे सकता।
कुन्ती बोली ;- ब्रह्मन्! मेरा भी यह स्थिर विचार है आपको ब्राह्मणों की रक्षा करनी चाहिये। यों तो मुझे भी अपना कोई पुत्र अप्रिय नहीं है, चाहे मेरे सौ पुत्र ही क्यों न हों। किंतु वह राक्षस मेरे पुत्र का विनाश करने में समर्थ नहीं है; क्योंकि मेरा पुत्र पराक्रमी, मन्त्रसिद्ध और तेजस्वी है। मेरा यह निश्चित विश्वास है कि यह सारा भोजन राक्षस के पास पहुँचा देगा और उससे अपने आपको भी छुड़ा लेगा। मैंने पहले भी बहुत-से बलवान् और विशालकाय राक्षस देखे हैं, जो मेरे वीर पुत्र से भिड़कर अपने प्राणों से हाथ धो बैठे हैं। परंतु ब्रह्मन! आपको किसी से किसी तरह यह बात कहनी नहीं चाहिये। नहीं तो लोग मन्त्र सीखने के लोभ से कौतूहल वश मेरे पुत्रों को तंग करेंगे। और यदि मेरा पुत्र गुरु की आज्ञा लिये बिना अपना मन्त्र किसी को सिखा देगा तो वह सीखने वाला मनुष्य उस मन्त्र से वैसा कार्य नहीं कर सकेगा, जैसा मेरा पुत्र कर लेता है। इस विषय में साधु पुरुषों का ऐसा ही मत है। कुन्ती देवी के यों कहने पर पत्नी सहित वह ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कुन्ती के अमृत-तुल्य जीवनदायक मधुर वचनों की बड़ी प्रशंसा की।
तदनन्तर कुन्ती और ब्राह्मण ने मिलकर वायुनन्दन उक्त भीमसेन से कहा ;- ‘तुम यह काम कर दो।’ भीमसेन ने उन दोनों से ‘तथास्तु’ कहा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत बकवध पर्व में भीम के द्वारा बकवध की स्वीकृति विषयक एक सौ साठवां अध्याय पूरा हुआ)
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