सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के एक सौ इक्यावनवें अध्याय से एक सौ पचपनवें अध्याय तक (from the 151 chapter to the 155 chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (हिडिम्बवध पर्व)

एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकपंचाशदधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"हिडिम्‍ब के भेजने से हिडिम्‍बा राक्षसी का पाण्‍डवों के पास आना और भीमसेन से उसका वार्तालाप"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जहाँ पाण्‍डव कुन्‍तीसहित सो रहे थे, उस वन से थोड़ी दूर पर एक शाल-वृक्ष का आश्रय ले हिडिम्ब नामक राक्षस रहता था। वह बड़ा क्रुर और मनुष्‍यमांस खाने वाला था। उसका बल और पराक्रम महान था। वह वर्षाकाल के मेघ की भाँति काला था। उसकी आंखे भूरे रंग की थीं और आकृति से क्रूरता टपक रही थी। उसका मुख बड़ी-बड़ी दाढ़ों के कारण विकराल दिखायी देता था। वह भूख से पीड़ित था और मांस मिलने की आशा में बैठा था। उसके नितम्‍ब और पेट लम्‍बे थे। दाढ़ी, मूंछ और सिर के बाल लाल रंग के थे। उसका गला और कंधे महान् वृक्ष के समान जान पड़ते थे। दोनों कान भाले के समान लम्‍बे और नुकीले थे। वह देखने में बड़ा भयानक था। दैवेच्‍छा से उसकी दृष्टि उन महारथी पाण्‍डवों पर पड़ी। बेडौल रुप तथा भूरी आंखों वाला वह विकराल राक्षस देखने में बड़ा डरावना था। भूख से व्‍याकुल होकर वह कच्चा मांस खाना चाहता था। उसने अकस्‍मात् पाण्‍डवों को देख लिया। तब अगुलियों को उपर उठाकर सिर के रुप से बालों को खुजलाता और फटकारता हुआ वह विशाल मुख वाला राक्षस पाण्‍डवों की ओर बार-बार देखकर जंभाई लेने लगा। मनुष्‍य का मांस मिलने की सम्‍भावना से उसे बड़ा हर्ष हुआ। उस महाबली विशालकाय राक्षस ने मनुष्‍य की गन्‍ध पाकर अपनी बहिन से इस प्रकार कहा,,,

हिडिम्ब राक्षस बोला ;- ‘आज बहुत दिनों के बाद ऐसा भोजन मिला हैं, जो मुझे बहुत प्रिय है। इस समय मेरी जीभ लार ठपका रही है और बड़े सुख से लप-लप कर रही है।

 आज मैं अपनी आठों दाढ़ों को, जिनके अग्रभाग बड़े तीखे हैं और जिनकी चोट प्रारम्‍भ से ही अत्‍यन्‍त दु:सह होती हैं, दीर्घकाल के पश्‍चात मनुष्‍यों के शरीरों और चिकने मांस में दुबाउंगा। मैं मनुष्‍य की गर्दन पर चढ़कर उसकी नाड़ियों को काट दूंगा और उसका गरम-गरम, फेनयुक्‍त तथा ताजा खून खून छककर पीऊँगा। बहिन! जाओ, पता तो लगाओ, ये कौन इस वन में आकर सो रहे हैं? मनुष्‍य की तीव्र गन्‍ध आज मेरी नासिका को मानो तृप्‍त किये देती हैं। तुम इन सब मनुष्‍यों को मारकर मेरे पास ले आओ। वे हमारी हद में सो रहे हैं, (इसीलिये) इनसे तुम्‍हें तनिक भी खटका नहीं है। फिर हम दोनों एक साथ बैठकर इन मनुष्‍यों के मांस नोच-नोचकर जी-भर खायेंगे। तुम मेरी इस आज्ञा का तुरंत पालन करो। इच्‍छानुसार मनुष्‍य मांस लाकर हम दोनों ताल देते हुए साथ-साथ अनेक प्रकार के नृत्‍य करें। भरतश्रेष्‍ठ! उस समय वन में हिडिम्‍ब के यों कहने पर हिडिम्‍बा अपने भाई की बात मानकर मानो बड़ी उतावली के साथ उस स्‍थान पर गयी, जहाँ पाण्‍डव को सोते और किसी से परास्‍त न होने वाले भीमसेन को जागते देखा। धरती पर उगे हुए साखू के पौधे की भाँति मनोहर भीमसेन को देखते ही वह राक्षसी (मुग्‍ध हों) उन्‍हें चाहने लगी। इस पृथ्‍वी पर वे अनुपम रुपवान् थे। (उसने मन-ही-मन सोचा) इन श्‍यामसुन्‍दर तरुण वीर की भुजाएं बड़ी-बड़ी हैं, कंधे सिंह-के-से हैं, ये महान् तेजस्‍वी हैं, इनकी ग्रीवा शंख के समान सुन्‍दर और नेत्र कमल दल के सद्दश विशाल हैं। ये मेरे लिये उपयुक्‍त पति हो सकते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकपंचाशदधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)

मेरे भाई की बात क्रुरता से भरी हैं, अत: मै कदापि उसका पालन नहीं करुंगी। (नारी के हृदय में) पति प्रेम ही अत्‍यन्‍त प्रबल होता है। भाई का सौहार्द उसके समान नहीं होता। इन सबको मार देने पर इनके मांस से मुझे और मेरे भाई को केवल दो घड़ी के लिये तृप्ति मिल सकती है और यदि न मारुं तो बहुत वर्षों तक इनके साथ आनन्‍द भोगूंगी’। हिडिम्बा इच्‍छानुसार रुप धारण करने वाली थी। वह मानव जाति की स्‍त्री के समान सुन्‍दर रुप बनाकर लजीली ललना की भाँति धीरे-धीरे महाबाहु भीमसेन के पास गयी। दिव्‍य आभूषण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। 

तब उसने मुस्कराकर भीमसेन से इस प्रकार पूछा ;- ‘पुरुषरत्‍न आप कौन हैं और कहाँ से आये हैं? वे देवताओं के समान सुन्‍दर रुप वाले पुरुष कौन हैं, जो यहाँ सो रहे हैं? और अनव ये सबसे बड़ी उग्रवाली श्‍यामा सकुमारी देवी आपकी कौन लगती हैं, जो इस वन में आकर भी ऐसी नि:शंख सो रही हैं, मानो अपने घर में ही हों। इन्‍हें यह पता नहीं है कि यह गहन वन राक्षसों का निवास स्‍थान हैं। यहाँ हिडिम्‍ब नामक पापात्‍मा राक्षस रहता हैं। वह मेरा भाई है। उस राक्षस ने दुष्‍टभाव से मुझे यहाँ भेजा हैं। देवोपम वीर वह आप लोगों का मांस खाना चाहता हैं। आपका तेज देवकुमारों का सा हैं, मैं आपको देखकर अब दूसरे को अपना पति बनाना नहीं चाहती। मैं यह सच्ची बात आपसे कह रही हूँ। धर्मज्ञ इस बात को समझकर आप मेरे प्रति उचित बर्ताव कीजिये। मेरे तन-मन को कामदेव ने मथ डाला है। मैं आपकी सेविका हूं, आप मुझे स्‍वीकार कीजिये। महाबाहो मैं इस नरभक्षी राक्षस से आपकी रक्षा करुंगी। हम दोनों पर्वतों की दुर्गम कन्‍दराओं में निवास करेंगे। अनघ आप मेरे पति हो जाइये। वीर आपका भला चाहती हूँ। कही ऐसा न हो कि आपके ठुकराने से मेरे प्राण ही मुझे छोड़कर चले जायं।

शत्रुदमन यदि आपने मुझे त्‍याग दिया तो मैं कदापि जीवित नहीं रह सकती। मैं आकाश में विरचने वाली हूँ। जहाँ इच्‍छा हो, वहाँ विचरण कर सकती हूँ। आप मेरे साथ भिन्‍न-भिन्‍न लोकों और प्रदेशों में विहार करके अनुपम प्रसन्‍नता प्राप्‍त कीजिये।' 

भीमसेन बोले ;- राक्षसी ये मेरे ज्‍येष्‍ठ भ्राता हैं, जो मेरे लिये परम सम्‍मानीय गुरु हैं, इन्‍होंने अभी तक विवाह नहीं किया हैं, ऐसी दशा मे तुझसे विवाह करके किसी प्रकार परिवेत्ता नहीं बनना चाहता। कौन ऐसा मनुष्‍य होगा, जो इस जगत में सामर्थ्‍यशाली होते हुए भी, सूखपूर्वक सोये हुए इन बन्‍धुओं को, माता को तथा बड़े भ्राता को भी किसी प्रकार अरक्षित छोड़कर जा सके? मुझ-जैसा कौन पुरुष काम पीड़ित की भाँति इन सोये हुए भाइयों और माता को राक्षस का भोजन बनाकर (अन्‍यत्र) जा सकता है? 

राक्षसी ने कहा ;- आपको जो प्रिय लगे, मैं वही करुंगी। आप इन सब लोगों को जगा दिजिये। मैं इच्‍छानुसार उस मनुष्‍य भक्षी राक्षस से इन सबको छुड़ा लुंगी। 

भीमसेन ने कहा ;- राक्षसी मेरे भाई और माता इस वन-में सुखपूर्वक सो रहे हैं, तुम्‍हारे दुरात्‍मा भाई के भय से मैं इन्‍हें जगाऊँगा नहीं। भीरु सुलोचने मेरे पराक्रम को राक्षस, मनुष्‍य, गन्‍धर्व तथा यक्ष भी नहीं सह सकते हैं। अत:भद्रे तुम जाओ या रहो; अथवा तुम्‍हारी जैसी इच्‍छा हो, वही करो। तन्‍वंगि अथवा यदि तुम चाहो तो अपने नरमांसभक्षी भाई को भेज दो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तगर्त हिडिम्‍बपर्व में भीम-हिडिम्‍बा-संवादविषयक एक सौ इक्‍यानवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (हिडिम्बवध पर्व)

एक सौ बावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विपंचाशदधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"हिडिम्‍ब का आना, हिडिम्‍बा का उससे भयभीत होना और भीम तथा हिडिम्‍बा का युद्ध"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब यह सोचकर कि मेरी बहिन को गये बहुत देर हो गयी, राक्षसराज हिडिम्ब उस वृक्ष से उतरा और शीघ्र ही पाण्‍डवों के पास आ गया। उसकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं, भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं, केश ऊपर को उठे हुए थे और विशाल मुख था। उसके शरीर का रंग काला था, मानों मेघों की काली घटा छा रही हो। तीखे दाढ़ों वाला वह राक्षस बड़ा भयंकर जान पड़ता था। देखने में विकराल उस राक्षस हिडिम्‍ब को आते देखकर ही हिडिम्‍बा भय से थर्रा उठी और भीमसेन से इस प्रकार बोली,,

हिडिम्‍बा बोली ;- जो निर्दोष बड़े भाई के अविवाहित रहते हुए ही अपना विवाह कर लेता है, वह ‘परिवो’ कहलाता है, शास्‍त्रों में वह निन्‍दनीय माना गया है। (देखिये) यह दुष्‍टात्‍मा नरभक्षी राक्षस क्रोध में भरा हुआ इधर ही आ रहा है, अत: मैं भाइयों सहित आपसे जो कहती हूं, वैसा कीजिये। वीर! मैं इच्‍छानुसार चल सकती हूं, मुझमें राक्षसों का सम्‍पूर्ण बल हैं। आप मेरे इस कटि प्रदेश या पीठ पर बैठ जाइये। मैं आपको आकाश-मार्ग से ले चलूंगी। परतंप! आप इन सोये हुए भाइयों और माता जी को भी जगा दिजिये। मैं आप सब लोगों को लेकर आकाश-मार्ग से उड़ चलूंगी। 

भीमसेन बोले ;- सुन्‍दरी! तुम डरों मत, मेरे सामने यह राक्षस कुछ भी नहीं है। सुमध्‍यमे! मैं तुम्‍हारे देखते-देखते इसे मार डालूंगा। भीरु! यह नीच राक्षस युद्ध में मेरे आक्रमण का वेग सह सके, ऐसा बलवान् नहीं है। ये अथवा सम्‍पूर्ण राक्षस भी मेरा सामना नहीं कर सकते।

हाथी की सूंड-जैसी मोटी और सुन्‍दर गोलाकार मेरी इन दोनों भुजाओं की ओर देखो। मेरी ये जांघे परिघ के समान हैं और मेरा विशाल वक्ष:स्‍थल भी सुद्दढ़ एवं सुगठित है। शोभने! मेरा पराक्रम (भी) इन्‍द्र के समान है, जिसे तुम अभी देखोगी। विशाल नितम्‍बों वाली राक्षसी! तुम मुझे मनुष्‍य समझकर वहाँ मेरा तिरस्‍कार न करो। 

हिडिम्‍बा ने कहा ;- नरश्रेष्‍ठ! आपका स्‍वरुप तो देवताओं के समान है ही। मैं आपका तिरस्‍कार नहीं करती। मैं तो इसलिये कहती थी कि मनुष्‍यों पर ही इस राक्षस का प्रभाव मैं (कई बार) देख चुकी हूँ। 

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस नरभक्षी राक्षस हिडिम्‍ब ने क्रोध में भरकर भीमसेन की कही हुई उपर्युक्‍त बातें सुनी। (तत्‍पश्‍चात्) उसे अपनी बहिन के मनुष्‍योचित रुप की ओर द्दष्टिपात किया। उसने अपनी चोटी में फूलों के गजरे लगा रखे थे। उसका मुख पूर्ण चन्‍द्रमा के समान मनोहर जान पड़ता था। उसकी भौहें, नासिका, नेत्र और केशान्‍तभाग सभी सुन्‍दर थे। नख और त्‍वचा बहुत ही सुकुमार थी। उसने अपने अंगों को समस्‍त आभूषणों से विभूषित कर रखा था तथा शरीर पर अत्‍यन्‍त सुन्‍दर महीन साड़ी शोभा पा रही थी। उसे इस प्रकार सुन्‍दर एवं मनोहर मानव-रुप धारण किये देख राक्षस के मन मे यह संदेह हुआ कि हो-न-हो यह पतिरुप में किसी पुरुष का वरण करना चाहती हैं। यह विचार मन मे ही आते ही वह कुपित हो उठा। कुरुश्रेष्ठ! अपनी बहिन पर उस राक्षस का क्रोध बहुत बढ़ गया था। फिर तो उसने बड़ी-बड़ी आंखें फाड़-फाड़कर उसकी ओर देखते हुए कहा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विपंचाशदधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)

'हिडिम्‍बे! मैं (भूखा हूँ और) भोजन चाहता हूँ। कौन दुर्बुद्धि मानव मेरे इस अभीष्ट की सिद्धि में विघ्‍न डाल रहा हैं। तू अत्‍यन्‍त मोह के वशीभूत होकर क्‍या मेरे क्रोध से नहीं डरती है? मनुष्‍य को पति बनाने की इच्‍छा रखकर मेरा अप्रिय काम करने वाली दुराचारिणी! तुझे धिक्कार है। तू पूर्ववर्ती सम्‍पूर्ण राक्षसराजों के कुल में कलंक लगाने वाली हैं। जिन लोगों का आश्रय लेकर तून मेरा महान् अप्रिय कार्य किया हैं, यह देख, मैं उन सबको आज तेरे साथ ही मारे डालता हूँ। हिडिम्‍बा से यों कहकर लाल-लाल आंखे किये हिडिम्‍ब दांतों से दांत पीसता हुआ हिडिम्बा और पाण्‍डवों का वध करने की इच्‍छा से उनकी ओर झपटा। योद्धाओं में श्रेष्ठ तेजस्‍वी भीम उसे इस प्रकार हिडिम्‍बा पर टूटते देख उसकी भर्त्‍सना करते हुए बोले,,

भीम बोले ;- ‘अरे खड़ा रह, खड़ा रह।'

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अपनी बहिन-पर अत्‍यन्‍त कुद्ध हुए उस राक्षस की ओर देखकर भीमसेन हंसते हुए से इस प्रकार बोले,,,

भीम बोले ;- ‘हिडिम्‍ब! सुखपूर्वक सोये हुए मेरे इन भाइयों को जगाने से तेरा क्‍या सिद्ध होगा। खोटी बुद्धि वाले नरभक्षी राक्षस! तू मेरा वेग से आकर मुझसे भिड़। आ, मुझ पर ही प्रहार कर। हिडिम्‍बा स्‍त्री है, इसे मारना उचित नहीं है- विशेषत: इस दशा में, जबकि इसने कोई अपराध नहीं किया है। तेरा अपराध तो दूसरे के द्वारा हुआ है। यह भोली-भाली स्‍त्री अपने वश में नहीं हैं। शरीर के भीतर विचरने वाले कामदेव से प्रेरित होकर आज यह मुझे अपना पति बनाना चाहती हैं। राक्षसों की कीर्ति को नष्‍ट करने वाले दुराचारी हिडिम्‍ब! तेरी यह बहिन तेरी आज्ञा से ही यहाँ आयी है; परंतु मेरा रुप देखकर यह बेचारी अब मुझे चाहने लगी हैं, अत: तेरा कोई अपराध नही कर रही हैं। कामदेव के द्वारा किये हुए अपराध के कारण तुझे इसकी निन्‍दा नहीं करनी चाहिये। दुष्‍टात्‍मन्! तू मेरे रहते इस स्‍त्री को नहीं मार सकता। नरभक्षी राक्षस! तू मुझ अकेले के साथ अकेला ही भिड़ जा।

आज मैं अकेला ही तुझे यमलोक भेज दूंगा। निशाचर! जैसे अत्‍यन्‍त बलवान् हाथी के पैर से दबकर किसी का भी मस्‍तक पिस जाता हैं, उसी प्रकार मेरे बलपूर्वक आघात से कुचला जाकर तेरा सिर फट जायेगा। आज मेरे द्वारा युद्ध में मेरा वध हो जाने पर हर्ष में भरे हुए गीध, बाज और गीदड़ धरती पर पड़े हुए तेरे अंगों को इधर-उधर घसीटेगें। आज से पहले सदा मनुष्‍यों को खा-खाकर तूने जिसे अपवित्र कर दिया है, उसी वन को आज मैं क्षणभर में राक्षसों-से सूना कर दूंगा। राक्षस! जैसे सिंह पर्वताकार महान् गजराज को घसीट ले जाता है, उसी प्रकार आज मेरे द्वारा बार-बार घसीटे जाने वाले तुझको तेरी बहिन अपनी आँखों देखेगी। राक्षसकुलागार! मेरे द्वारा तेरे मारे जाने पर वनवासी मनुष्‍य बिना किसी विघ्‍न-बाधा के इस वन में विचरण करेगे’। 

हिडिम्‍ब बोला ;- अरे ओ मनुष्‍य! व्‍यर्थ गर्जन तथा बढ़-बढ़कर बातें बनाने से क्‍या लाभ? यह सब कुछ पहले करके दिखा, फिर डींग हांकना; अब देर न कर।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विपंचाशदधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 35-44 का हिन्दी अनुवाद)

तू अपने-आपको जो बड़ा बलवान् और पराक्रमी समझ रहा हैं, उसकी सचाई का पता तो तब लगेगा, जब आज मेरे साथ भिड़ेगा। तभी तू जान सकेगा कि मुझसे तुझमें कितना अधिक बल है। दुबुद्धे! मैं पहले इन सबकी हिंसा नहीं करुंगा। ये थोड़ी देर तक सुखपूर्वक सो लें। तू मुझे बड़ी कड़वी बातें सुना रहा हैं, अत: सबसे पहले तुझे ही अभी मारे देता हूँ। पहले तेरे अंगों का ताजा खून पीकर उसके बाद तेरे इन भाइयों का वध करुंगा। तदनन्‍तर अपना अप्रिय करने वाली इस हिडिम्बा को भी मार डालूंगा। 

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! यों कहकर क्रोध में भरा हुआ वह नरभक्षी राक्षस अपनी एक बांह उपर उठाये शत्रुदमन भीमसेन पर टूट पड़ा। झटपते ही बड़े वेग से उसने भीमसेन पर हाथ चलाया। तब तो भयंकर पराक्रमी भीमसेन ने तुरंत ही उसके हाथ को हंसते हुए से पकड़ लिया। वह राक्षस उसके हाथ से छूटने के लिये छटपटाने और उछल-कूद मचाने लगा, परंतु भीमसेन उसे पकड़े हुए ही बलपूर्वक उस स्‍थान से आठ धनुष (बत्तीस हाथ) दूर घसीट ले गये- उसी प्रकार जैसे सिंह किसी छोटे मनुष्‍य को घसीटकर ले जाय। पाण्‍डुनन्‍दन भीम के द्वारा बलपूर्वक पीड़ित होने पर वह राक्षस क्रोध में भर गया और भीमसेन को भुजाओं से कसकर भयंकर गर्जना करने लगा। तब महाबली भीमसेन यह सोचकर पुन: उसे बलपूर्वक कुछ दूर खींच ले गये कि सुखपूर्वक सोये हुए भाइयों के कानों में शब्‍द न पहुँचे।

फिर तो दोनों एक-दूसरे से गुथ गये और बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे। हिडिम्ब और भीमसेन दोनों ने बड़ा भारी पराक्रम प्रकट किया। जैसे साठ वर्ष की अवस्‍था वाले दो मतवाले गजराज कुपित हो परस्‍पर युद्ध करते हों, उसी प्रकार वे दोनों एक-दूसरे से भिड़कर वृक्षों का तोड़ने और लताओं को खींच-खींचकर उजाड़ने लगे। वे दोनों वृक्ष उठाये बड़े वेग से एक दूसरे की ओर दौड़ते थे, अपनी जांघों को टक्कर से चारों ओर की लताओं को छिन्‍न-भिन्‍न किये देते थे तथा गर्जन-तर्जन के द्वारा सब ओर पशु-पक्षियों को आतंकित कर देते थे। बल से उन्‍मत हुए वे दोनों महाबली योद्धा एक-दूसरे को मार डालना चाहते थे। उस समय भीमसेन और हिडिम्‍बासुर में बड़ा भयंकर युद्ध चल रहा था। वे दोनों एक-दूसरे की भुजाओं को मरोड़ते और जांघों को घुटनों से दबाते हुए दोनों एक-दूसरे को अपनी ओर खींचते थे। तदनन्‍तर वे बड़े जोर से गर्जते हुए परस्‍पर इस प्रकार प्रहार करने लगे, मानो दो चट्टानें आपस में टकरा रही हों। तत्‍पश्‍चात् वे एक दूसरे से गुथ गये और दोनों दोनों को भुजाओं में कसकर इधर-उधर खींच ले जाने की चेष्‍टा करने लगे। उन दोनों की भारी गर्जना से वे नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डव माता सहित जाग उठे और उन्‍होंने अपने सामने बड़ी हुई हिडिम्‍बा को देखा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत हिडिम्‍बवध पर्व में हिडिम्‍ब-युद्ध विषयक एक सौ बावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (हिडिम्बवध पर्व)

एक सौ तिरपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिपंचाशदधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"हिडिम्‍बा का कुन्‍ती आदि से अपना मनोभाव प्रकट करना तथा भीमसेन के द्वारा हिडिम्‍बासुर का वध"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जागने पर हिडिम्बा का अलौकिक रुप देख वे पुरुषसिंह पाण्‍डव माता कुन्ती के साथ बड़े विस्‍मय में पड़े। तदनन्‍तर कुन्‍ती ने उसकी रुप-सम्‍पत्ति से चकित हो उसकी ओर देखकर उसे सान्त्‍वना देते हुए मधुर वाणी में इस प्रकार धीरे-धीरे पूछा,,

कुन्ती बोली ;- ‘देव कन्‍याओं की सी कान्ति वाली सुन्‍दरी! तुम कौन हो और किसकी कन्‍या हो? तुम किस काम से यहाँ आती हो और कहाँ से तुम्‍हारा शुभागमन हुआ है? यदि तुम इस वन की देवी अथवा अप्‍सरा हो तो वह सब मुझे ठीक-ठीक बता दो; साथ ही यह भी कहो कि किस काम के लिये यहाँ खड़ी हो?

हिडिम्‍बा बोली ;- देवि! यह जो नील मेघ के समान विशाल वन आप देख रही हैं, यह राक्षस हिडिम्‍बा का और मेरा निवास स्‍थान है। महाभागे! आप मुझे उस राक्षसराज हिडिम्ब की बहिन समझें। आर्ये। मेरे भाई ने मुझे आपकी और आपके पुत्रों की हत्‍या करने की इच्‍छा से भेजा था। उसकी बुद्धि बड़ी क्रुरतापूर्ण है। उसके कहने से मैं यहाँ आयी और नूतन सुवर्ण की सी आभा वाले आपके महाबली पुत्र पर मेरी दृष्टि पड़ी। शुभे! उन्‍हें देखते ही समस्‍त प्राणियों के अन्‍त:करण में विचरने वाले कामदेव से प्रेरित होकर मैं आपके पुत्र की वशवर्तिनी हो गयी। तदनन्‍तर मैंने आपके महाबली पुत्र को पति रुप में वरण कर लिया और इस बात के लिये प्रयत्‍न किया कि उन्‍हें (तथा आप सब लोगों को) लेकर यहाँ से अन्‍यत्र भाग चलूं, परंतु आपके पुत्र की स्‍वीकृति न मिलने से मैं कार्य में सफल न हो सकी। मेरे लौटने में देर होती जान वह मनुष्‍यभक्षी राक्षस स्‍वयं ही आपके इन सब पुत्रों को मार डालने के लिये आया। परंतु मेरे प्राणवल्‍लभ तथा आपके बुद्धिमान् पुत्र महात्‍मा भीम उसे बलपूर्वक यहाँ से रगड़ते हुए दूर हटा ले गये हैं।

देखिये, युद्ध में पराक्रम दिखाने वाले वे दोनों मनुष्‍य और राक्षस जोर-जोर से गर्ज रहे हैं और बड़े वेग से गुत्‍थम-गुत्‍थ होकर एक-दूसरे को अपनी ओर खींच रहे हैं। 

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! हिडिम्‍बा की यह बात सुनते ही युधिष्ठिर उछलकर खड़े हो गये। अर्जुन, नकुल और पराक्रमी सहदेव ने भी ऐसा किया। तदनन्‍तर उन्‍होंने देखा कि वे दोनों प्रचण्‍ड बलशाली सिंहों की भाँति आपस में गुथ गये हैं और अपनी-अपनी विजय चाहते हुए एक-दूसरे को घसीट रहे हैं। एक दूसरे को भुजाओं में भरकर बार-बार खींचते हुए उन दोनों योद्धाओं ने धरती की धूल को दावानल के धूएं के समान बना दिया। दोनों का शरीर पृथ्‍वी की धूल में सना हुआ था। दोनों ही पर्वतों के समान विशालकाय थे। उस समय वे दोनों कुहरे से ढके हुए दो पहाड़ों के समान सुशोभित हो रहे थे। भीमसेन को राक्षस द्वारा पीड़ित देख अर्जुन धीरे-धीरे हंसते हुए से बोले,,

अर्जुन बोले ;- ‘महाबाहु-भैया भीमसेन! डरना मत! अब तक हम लोग नहीं जानते थे कि तुम भयंकर राक्षस से भिड़कर अत्‍यन्‍त परिश्रम के कारण कष्‍ट पा रहे हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिपंचाशदधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)

कुन्‍तीनन्‍दन! अब मैं तुम्‍हारी सहायता के लिये उपस्थित हूँ। इस राक्षस को अवश्‍य मार गिराऊंगा। नकुल और सहदेव माता जी की रक्षा करेंगे’। 

भीमसेन ने कहा ;- अर्जुन! तटस्‍थ होकर चुपचाप देखते रहो। तुम्‍हें घबराने की आवश्‍यकता नहीं। मेरी दोनों भुजाओं के बीच में आकर अब यह राक्षस कदापि जीवित नहीं रह सकता। 

अर्जुन ने कहा ;- शत्रुओं का दमन करने वाले भीम! इस पापी राक्षस को देर तक जीवित रखने से क्‍या लाभ? हम लोगों को आगे चलना है, अत: यहाँ अधिक समय तक ठहरना सम्‍भव नहीं है।। उधर सामने पूर्व दिशा में अरुणोदय लालिमा फैल रही है। प्रात:संध्‍या का समय होने वाला है। इस रौद्र मुहुर्त में राक्षस प्रबल हो जाते हैं। अत: भीमसेन! जल्‍दी करो। इसके साथ खिलवाड़ न करो। इस भयानक राक्षस को मार डालो। यह अपनी माया फैलाये, इसके पहले ही इस पर अपनी भुजाओं की शक्ति-का प्रयोग करो।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- अर्जुन के यों कहने पर भीम रोष से जल उठे और प्रलयकाल में वायु का जो बल प्रकट होता है, उसे उन्‍होंने अपने भीतर धारण कर लिया। तत्‍पश्‍चात् काले मेघ के समान उस राक्षस के शरीर को भीम ने क्रोधपूर्वक तुरंत ऊपर उठा लिया और उसे सौ बार घुमाया। 

इसके बाद भीम उस राक्षस से बोले ;- अरे निशाचर! तू व्‍यर्थ मांस से पुष्‍ट होकर व्‍यर्थ ही बड़ा हुआ है। तेरी बुद्धि भी व्‍यर्थ है। इसी से तू व्‍यर्थ मृत्‍यु के योग्‍य है। इसलिये आज तू व्‍यर्थ ही अपनी इहलीला समाप्‍त करेगा (बाहुयुद्ध में मृत्‍यु होने के कारण तू स्‍वर्ग और कीर्ति से वंचित हो जायगा)। राक्षस! आज तुझे मारकर मैं इस वन को निष्‍कण्‍टक एवं मंगलमय बना दूंगा, जिससे फिर तू मनुष्‍यों को मारकर नहीं खा पायेगा।

अर्जुन बोले ;- भैया! यदि तुम युद्ध में इस राक्षस को अपने लिये भार समझ रहे हो तो मैं तुम्‍हारी सहायता करता हूँ। तुम इसे शीघ्र मार गिराओ। वृकोदर! अथवा मैं ही इसे मार डालूंगा। तुम अधिक युद्ध करके थक गये हो। अत: कुछ देर अच्‍छी तरह विश्राम कर लो। 

वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन की यह बात सुनकर भीमसेन अत्‍यन्‍त क्रोध में भर गये। उन्‍होंने बल-पूर्वक राक्षस को पृथ्‍वी पर दे मारा और उसे रगड़ते हुए पशु की तरह मारना आरम्‍भ किया। इस प्रकार भीमसेन की मार पड़ने पर वह राक्षस जल से भीगे हुए नगारे की-सी ध्‍वनि से सम्‍पूर्ण वन को गुंजाता हुआ जोर-जोर से चीखने लगा। तब महाबाहु बलवान् पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन ने उसे दोनों भुजाओं से बांधकर उलटा मोड़ दिया और उसकी कमर तोड़-कर पाण्‍डवों का हर्ष बढ़ाया।

हिडिम्ब को मारा गया देख वे महान् वेगशाली पाण्‍डव अत्‍यन्‍त हर्ष से उल्‍लसित हो उठे और उन्‍होंने शत्रुओं का दमन करने वाले नरश्रेष्ठ की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस प्रकार भयंकर पराक्रमी महात्‍मा भीम की प्रशंसा करके अर्जुन ने पुन: उनसे यह बात कही,,

अर्जुन बोले ;- ‘प्रभो! मैं समझता हूं, इस वन से नगर अब दूर नहीं है। तुम्‍हारा कल्‍याण हो। अब हम लोग शीघ्र चलें, जिससे दुर्योधन को हमारा पता न लग सके’। तब सभी पुरुषसिंह महारथी पाण्‍डव ‘(ठीक है,) ऐसा ही करें’ यों कहकर माता के साथ वहाँ से चल दिये। हिडिम्‍बा राक्षसी भी उनके साथ हो ली।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत हिडिम्‍बवध पर्व में हिडिम्‍बासुर के वध से सम्‍बन्‍ध रखने वाला एक सौ तिरपनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (हिडिम्बवध पर्व)

एक सौ चौवनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुष्‍पंचादशधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर का भीमसेन को हिडिम्बा के वध से रोकना, हिडिम्‍बा की भीमसेन के लिये प्रार्थना, भीमसेन और हिडिम्‍बा का मिलन तथा घटोत्‍कच की उत्‍पत्ति"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! हिडिम्बासुर की बहिन राक्षसी हिडिम्बा बिना कुछ कहे-सुने तुरंत पाण्‍डवों के ही पास आयी और फिर माता कुन्‍ती तथा पाण्‍डुनन्‍दन धर्मराज युधिष्ठिर को प्रणाम करके उन सबके प्रति समादर का भाव प्रकट करती हुई भीमसेन से बोली।

 हिडिम्‍बा ने कहा ;- (आर्यपुत्र!) आपके दर्शनमात्र से मैं कामदेव के अधीन हो गयी और अपने भाई के क्रूरतापूर्ण वचनों की अवहेलना करके आपका ही अनुसरण करने लगी। उस भंयकर आकृति वाले राक्षस पर आपने जो पराक्रम प्रकट किया है, उसे मैंने अपनी आंखों से देखा है, अत: मैं सेविका आपके शरीर की सेवा करना चाहती हूँ।

भीमसेन बोले ;- हिडिम्‍बे! राक्षस मोहिनी माया का आश्रय लेकर बहुत दिनों तक वैर का स्‍मरण रखते हैं, अत: तू भी अपने भाई के मार्ग पर चली जा। 

यह सुनकर युधिष्ठिर ने कहा ;- पुरुषसिंह भीम! यद्यपि तुम क्रोध से भरे हुए हो, तो भी स्‍त्री का वध न करो। पाण्‍डुनन्‍दन! शरीर की रक्षा की अपेक्षा भी अधिक तत्‍परता से धर्म की रक्षा करो। महाबली हिडिम्‍ब हम लोगों को मारने के अभिप्राय से आ रहा था। अत: तुमने जो उसका वध किया, वह उचित ही है। उस राक्षस की बहिन हिडिम्‍बा यदि क्रोध भी करे तो हमारा क्‍या कर लेगी?

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर हिडिम्‍बा ने हाथ जोड़कर कुन्‍तीदेवी तथा उनके पुत्र युधिष्ठिर को प्रणाम करके इस प्रकार कहा,,

हिडिम्‍बा बोली ;- ‘आर्यें! स्त्रियों को इस जगत् में जो कामजनित पीड़ा होती है, उसे आप जानती ही हैं। शुभे! आपके पुत्र भीमसेन की ओर से मुझे वही कामदेवजनित कष्‍ट प्राप्‍त हुआ है। मैंने समय की प्रतिक्षा में उस महान् दु:ख को सहन किया है। अब वह समय आ गया है। आशा है, मुझे अ‍भीष्‍ट सुख की प्राप्ति होगी। शुभे! मैंने अपने हितैषी सुहृदों, स्‍वजनों तथा स्‍वधर्म का परित्‍याग करके आपके पुत्र पुरुषसिंह भीमसेन को अपना पति चुना है। यशस्विनि! यदि ये वीरवर भीमसेन या आप मेरी इस प्रार्थना को ठुकरा देंगी तो मैं जीवित नहीं रह सकूंगी। यह मैं आपसे सत्‍य कहती हूँ। अत: वरवर्णिनी! आपको मुझे एक मूढ़ स्‍वभाव की स्‍त्री मानकर या अपनी भक्‍ता जानकर अथवा अनुचरी (सेविका) समझकर मुझ पर कृपा करनी चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुष्‍पंचादशधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 10-16 का हिन्दी अनुवाद)

महाभागे! मुझे अपने इस पुत्र से, जो मेरे मनोनीत पति हैं, मिलने का अवसर दीजिये। मैं इन देवस्‍वरुप स्‍वामी को लेकर अपने अभीष्‍ट स्‍थान पर जाऊंगी और पुन: निश्चित समय पर इन्‍हें आपके समीप ले आऊंगी। शुभे! आप मेरा विश्‍वास कीजिये। आप अपने मन से जब-जब मेरा स्‍मरण करेंगे, तब-तब सदा ही (सेवा में उपस्थित हो) मैं आप लोगों को अभीष्ट स्‍थानों में पहुँचा दिया करुंगी। आर्ये! मैं न तो यातुधानी हूँ और न निशाचरी ही हूँ। महारानी! मैं राक्षस जाति की सुशीला कन्‍या हूँ और युवावस्‍था से सम्‍पन्‍न हूँ। मेरे हदय का संयोग आपके पुत्र भीमसेन के साथ हुआ है। मैं वृकोदर को सामने रखकर आप सब लोगों की सेवा में उपस्थित रहूंगी। आप लोग असावधान हों, तो भी मैं पूरी सावधानी रखकर निरन्‍तर आपकी सेवा में संलग्‍न रहूंगी। आपको संकटों से बचाऊंगी। दुर्गम एवं विषम स्‍थानों में यदि आप शीघ्रतापूर्वक अ‍भीष्‍ट लक्ष्‍य तक जाना चाहते हों तो मैं आप सब लोगों को अपनी पीठ पर वहाँ पहुँचाऊंगी। आप लोग मुझ पर कृपा करें, जिससे भीमसेन मुझे स्‍वीकार कर लें। जिस उपाय से भी आपत्ति से छुटकारा मिले और प्राणों की रक्षा हो सकें, धर्म का अनुसरण करने वाले पुरुष को वह सब स्‍वीकार करके उस उपाय को काम में लाना चाहिये।

जो आपत्तिकाल में धर्म को धारण करता है, वही धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ है। धर्मपालन में संकट उ‍पस्थित होना ही धर्मात्‍मा पुरुषों के लिये आपत्ति कही जाती है। पुण्‍य ही प्राणों को धारण करता हैं, इसलिये पुण्‍य प्राणदाता कहलाता है; अत: जिस-जिस उपाय से धर्म का आवरण हो सके; उसके करने में कोई निन्‍दा की बात नही है। मैं महती कामवेदना से पीड़ित एक नारी हूं, अत: आप मेरी रक्षा कीजिये। साधु पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की‍ सिद्धि के सभी पुरुषों के लिये शरणागतों पर दया करते हैं। धर्मानुरागी महर्षि दया को ही श्रेष्ठ धर्म मानते हैं। मैं दिव्‍य ज्ञान से भूत और भविष्‍य की घटनाओं को देखती हूँ। अत: आप लोगों के कल्‍याण की बात बता रही हूँ। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक उत्तम सरोवर है। आप लोग आज वहाँ जाकर उस सरोवर में स्‍नान करके वृक्ष के नीचे विश्राम करें। कुछ दिन बाद कमलनयन व्यास जी का दर्शन पाकर आप लोग शोकमुक्‍त हो जायंगे। दुर्योधन के द्वारा आप लोगों का हस्तिनापुर से निकाला जाना, वारणावत नगर में जलाया जाना और विदुर जी के प्रयत्‍न से आप सब लोगों की रक्षा होनी, आदि बातें उन्‍हें ज्ञान-दृष्टि से ज्ञात हो गयी हैं।

वे महात्‍मा व्‍यास शालिहोत्र मुनि के आश्रम में निवास करेंगे। उनके आश्रम का वह पवित्र वृक्ष सर्दी, गर्मी और वर्षा को अच्‍छी तरह सहने वाला हैं। वहाँ केवल जल पी लेने से भूख-प्‍यास दूर हो जाती है। शालिहोत्र मुनि‍ ने अपनी तपस्‍या द्वारा पूर्वोक्‍त सरोवर और वृक्ष का निर्माण किया है। वहाँ कादम्‍ब, सारस, हंस, कुररी और कुरर आदि पक्षी संगीत की ध्‍वनि से मिश्रित मधुर गीत गाते रहते हैं। 

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! हिडिम्बा का यह वचन सुनकर कुन्‍ती देवी ने सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों में पारंगत परम बुद्धिमान युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा। 

कुन्‍ती बोली ;- धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ भारत! मैं जो कहती हूं, उसे तुम सुनो। यदि इसकी हार्दिक भावना भीमसेन के प्रति दूषित हो, तो भी यह उनका क्‍या बिगाड़ लेगी? अत: यदि तुम्‍हारी सम्‍मति हो तो यह संतान के लिये काल तक मेरे वीर पुत्र पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन की सेवा में रहे। 

युधि‍ष्ठिर बोले ;- हिडिम्‍बे! तुम जैसा कह रही हो, वह सब ठीक है; इसमें संशय नहीं है। परंतु सुमध्‍यमे! मैं जैसे कहूं, उसी प्रकार तुम्‍हें सत्‍य पर स्थिर रहना चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुष्‍पंचादशधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 17-19 का हिन्दी अनुवाद)

भद्रे! जब भीमसेन स्‍नान, नित्‍यकर्म और मांगलिक वेशभूषा आदि धारण कर लें, तब तुम प्रतिदिन उनके साथ रहकर सूर्यास्‍त होने से पहले तक ही उनकी सेवा कर सकती हो। तुम मन के समान वेग से चलने-फिरने वाली हों, अत: दिन-भर तो तुम इनके साथ अपनी इच्‍छा के अनुसार विहार करो, परंतु रात को सदा ही तुम्‍हें भीमसेन को (हमारे पास) पहुँचा देना होगा। संध्‍याकाल आने से पहले ही इन्‍हें छोड़ देना होगा और नित्‍य-निरन्‍तर इनकी रक्षा करनी होगी। इस शर्त पर तुम भीमसेन के साथ सुखपूर्वक तब तक रहो, जब तक कि तुम्‍हें यह पता न चल जाय कि तुम्‍हारे गर्भ में बालक आ गया है। भद्रे! यही तुम्‍हारे लिये पालन करने योग्‍य नियम है। तुम्‍हें सावधान होकर भीमसेन की सेवा करनी चाहिये और नित्‍य उनके अनुकूल होकर सदा उनकी भलाई में संलग्‍न रहना चाहिये। युधिष्ठिर के यों कहने पर कुन्ती ने हिडिम्बा को अपने हृदय से लगा लिया। तदनन्‍तर युधि‍ष्ठिर से कुछ दूरी पर रहकर भीम के साथ चल पड़ी। वह चलते समय भीम और अर्जुन के बीच में रहती थी। नकुल और सहदेव सदा उसे आगे करके चलते थे।

(इस प्रकार) वे (सब) लोग जल पीने की इच्‍छा से शालिहोत्र मुनि के रमणीय सरोवर के तट पर जा पहुँचे। वहाँ कुन्‍ती तथा युधिष्ठिर ने पहले जो शर्त रखी थीं, उसे स्‍वीकार करके हिडिम्‍बा राक्षसी ने वैसा ही कार्य करने की प्रतिज्ञा की। तत्‍पश्‍चात उसने वृक्ष के नीचे झाड़ू लगायी और पाण्‍डवों के लिये निवास स्‍थान का निर्माण किया। उन सबके लिये पर्णशाला तैयार करने के बाद उसने अपने और कुन्‍ती के लिये एक दूसरी जगह कुटी बनायी। तदनन्‍तर पाण्‍डवों ने स्‍नान करके शुद्ध हो संध्‍योपासना किया और भूख-प्‍यास से पीड़ित होने पर भी केवल जल का आहार किया। उस समय शालिहोत्र मुनि ने उन्‍हें भूख से व्‍याकुल जान मन-ही-मन उनके लिये प्रचुर अन्‍न-पान की सामग्री का चिन्‍तन किया (और उससे पाण्‍डवों को भोजन कराया)। तदनन्‍तर कुन्‍ती देवी सहित सब पाण्‍डव विश्राम करने लगे। विश्राम के समय उनमें नाना प्रकार की बातें होने लगी-किस प्रकार लाक्षागृह में उन्‍हें जलाने का प्रयत्‍न किया गया तथा फिर राक्षस हिडिम्‍ब ने उन लोगों पर किस प्रकार आक्रमण किया इत्‍यादि प्रसंग उनकी चर्चा के विषय थे। बातचीत समाप्‍त होने पर कुन्तिराजकुमारी कुन्‍ती ने पाण्‍डुनन्‍दन भीम से इस प्रकार कहा।

कुन्‍ती बोली ;- युवराज! तुम्‍हारे लिये जैसे महाराज पाण्‍डु माननीय थे, वैसे ही बड़े भाई युधिष्ठिर भी हैं, धर्मशास्‍त्र की दृष्टि से मैं उनकी अपेक्षा भी अधिक गौरव की पात्र और सम्‍मानीय हूँ। अत: तुम महाराज पाण्‍डु के हित के लिये एक हितकर आज्ञा का पालन करो। वृकोदर! अपवित्र बुद्धि वाले पापात्‍मा दुर्योधन ने हमारे साथ जो दुष्‍टता की है, उसके प्रतिशोध का उपाय मुझे कोई नहीं दिखायी देता। अत: कुछ दिनों के बाद भले ही हमारा योगक्षेम सिद्ध हो। यह निवास स्‍थान अत्‍यन्‍त दुर्गम होने के कारण हमारे लिये कल्‍याणकारी सिद्ध होगा। हम यहाँ सुखपूर्वक रहेंगे। महाप्राज्ञ भीमसेन! आज यह हमारे सामने अत्‍यन्‍त दु:खद धर्म संकट उपस्थित हुआ हैं कि हिडिम्‍बा तुम्‍हें देखते ही काम से प्रेरित हो मेरे और युधिष्ठिर के पास आकर धर्मत: तुम्‍हें पति के रुप मे वरण कर चुकी है। मेरी आज्ञा है कि तुम उसे धर्म के लिये एक पुत्र प्रदान करो। वह हमारे लिये कल्‍याणकारी होगा। मैं इस विषय में तुम्‍हारा कोई प्रतिवाद नहीं सुनना चाहती। तुम हम दोनों के सामने प्रतिज्ञा करो। 

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर भीमसेन ने वैसा ही करने की प्रतिज्ञा की (और हिडिम्‍बा के साथ गान्‍धर्व विवाह कर लिया)। तत्‍पश्‍चात भीमसेन हिडिम्‍बा से इस प्रकार बोले- ‘राक्षसी! सुनो, मैं सत्‍य की शपथ खाकर तुम्‍हारे सामने एक शर्त रखता हूँ। शुभे! सुमध्‍यमे! जब तक तुम्‍हें पुत्र की उत्‍पत्ति न हो जाय तभी तक मैं तुम्‍हारे साथ विहार के लिये चलूंगा।'

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुष्‍पंचादशधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब ‘ऐसा ही होगा’ यह प्रतिज्ञा करके हिडिम्बा राक्षसी भीमसेन को साथ ले वहाँ से ऊपर आकाश में उड़ गयी। उसने रमणीय पर्वतशिखरों पर, देवताओं के निवास स्‍थानों में तथा जहाँ बहुत से पशु-पक्षी मधुर शब्‍द करते रहते हैं, ऐसे सुरम्‍य प्रदेशों में सदा परमसुन्‍दर रुप धारण करके, सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हो मीठी-मीठी बातें करके पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन का सुख पहुँचाया। इसीं प्रकार पुष्पित वृक्षों और लताओं से सुशोभित दुर्गम वनों में, कमल और उत्‍पल आदि से अलंकृत रमणीय सरोवरों में, नदियों के द्वीपों में तथा जहाँ की वालुका वैदूर्यमणि के समान है, जिनके घाट, तटवर्ती वन तथा जल सभी सुन्‍दर एवं पवित्र हैं, उन पर्वतीय नदियों में, विकसित वृक्षों और लता-वल्‍लरियों से विभूषित विचित्र काननों में, हिमवान् पर्वत के कुञ्जों और भाँति-भाँति की गुफाओं में, खिले हुए कमलसमूह से युक्‍त निर्मल जल वाले सरोवरों में, मणियों और सुवर्ण से सम्‍पन्‍न समुद्र-तटवर्ती प्रदेशों में, छोटे-छोटे सुन्‍दर तालाबों में, बड़े-बड़े शाल वृक्षों के जंगलों में, सभी ॠतुओं के फलों से सम्‍पन्‍न तपस्‍वी मुनियों के सुरम्‍य आश्रमों में तथा मानसरोवर एवं अन्‍य जलाशयों में घूम-फिरकर हिडिम्‍बा ने परमसुन्‍दर रुप धारण करके पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन के साथ रमण किया। वह मन के समान वेग से चलने वाली थी,

अत: उन-उन स्‍थानों में भीमसेन को आनन्‍द प्रदान करती हुई विचरती रहती थी। कुछ काल के पश्‍चात् उस राक्षसी ने भीमसेन से एक महान् बलवान् पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ, जिसकी आंखें विकराल, मुख विशाल और कान शंख के समान थे। वे देखने में बड़ा भयंकर जान पड़ता था। उसकी आवाज बड़ी भयानक थी। सुन्‍दर लाल-लाल ओठ, तीखी दाढ़ें, महान् बल, बहुत बड़ा धनुष, महान् पराक्रम, अत्‍यन्‍त धैर्य और साहस, बड़ी-बड़ी भुजाएं, महान् वेग और विशाल शरीर-ये उसकी विशेषताएं थीं। वह महामायावी राक्षस अपने शत्रुओं का दमन करने वाला था। उसकी नाक बहुत बड़ी, छाती चौड़ी तथा पैरों की दोनों पिंडलियां टेढ़ी और ऊँची थी। यद्यपि उसका जन्‍म मनुष्‍य से हुआ था तथापि उसकी आकृति और शक्ति अमानुषिक थी। उसका वेग भंयकर और बल महान् था। वह दूसरे पिशाचों तथा राक्षसों से बहुत अधिक शक्तिशाली था।

राजन्! अवस्‍था में बालक होने पर भी वह मनुष्‍यों में युवक-सा प्रतीत होता था। उस बलवान् वीर ने सम्‍पूर्ण अस्‍त्र-शस्‍त्रों में बड़ी निपुणता प्राप्‍त की थी। राक्षसियां जब गर्भ धारण करती हैं, तब तत्‍काल ही उसको जन्‍म दे देती हैं। वे इच्‍छानुसार रुप धारण करने वाली और नाना प्रकार के रुप बदलने वाली होती हैं। उस महान् धनुर्धर बालक ने पैदा होते ही पिता और माता के चरणों में प्रणाम किया। उसके सिर में बाल नहीं उगे थे। उस समय पिता और माता ने उसका इस प्रकार नामकरण किया। 

बालक की माता ने भीमसेन से कहा ;- ‘इसका घट (सिर) उत्‍कच अर्थात् केशरहित है।’ उसके इस कथन से ही उसका नाम घटोत्कच हो गया। घटोत्‍कच का पाण्‍डवों के प्रति बड़ा अनुराग था और पाण्‍डवों को भी वह बहुत प्रिय था। वह सदा उनकी आज्ञा के अधीन रहता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुष्‍पंचादशधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 40-46 का हिन्दी अनुवाद)

तदनन्‍तर हिडिम्बा पाण्‍डवों से यह कहकर कि भीमसेन के साथ रहने का मेरा समय समाप्‍त हो रहा, आवश्‍यकता के समय पुन: मिलने की प्रतिज्ञा करके अपने अभीष्‍ट स्‍थान को चली गयी। तत्‍पश्‍चात् विशालकाय घटोत्‍कच ने कुन्ती सहित पाण्‍डवों को यथायोग्‍य प्रणाम करके उन्‍हें सम्‍बोधित करके कहा- ‘निष्‍पाप गुरुजन! आप नि:शंख होकर बतायें, मैं आपकी क्‍या सेवा करुं?’ इस प्रकार पूछने वाले भीमसेन कुमार से,,

 कुन्‍ती ने कहा ;- ‘बेटा! तुम्‍हारा जन्‍म कुरुकुल में हुआ है। तुम मेरे लिये साक्षात् भीमसेन के समान हो। पांचों पाण्‍डवों के ज्‍येष्‍ठ पुत्र हो, अत: हमारी सहायता करो’।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुन्‍ती के यों कहने पर घटोत्‍कच ने प्रणाम करके ही उनसे कहा,,

घटोत्‍कच ने कहा ;- ‘दादी जी! लोक में जैसे रावण और मेघनाद बहुत बड़े बलवान् थे, उसी प्रकार इस मानव-जगत् में मैं भी उन्‍हीं के समान विशालकाय और महापराक्रमी हूँ; बल्कि उनसे भी बढ़कर हूँ। जब मेरी आवश्‍यकता होगी, उसी समय मैं स्‍वंय अपने पितृवर्ग की सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा।’ यों कहकर राक्षस श्रेष्‍ठ घटोत्‍कच पाण्‍डवों से आज्ञा लेकर उत्‍तर दिशा की ओर चला गया। महामना इन्‍द्र ने अनुपम पराक्रमी कर्ण की शक्ति का आघात सहन करने के लिये घटोत्‍कच की सृष्टि की थी। वह कर्ण के सम्‍मुख युद्ध करने में समर्थ महारथी वीर था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत हिडिम्‍बवध पर्व में घटोत्‍कच की उत्‍पत्ति विषयक एक सौ चौवनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (हिडिम्बवध पर्व)

एक सौ पचपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचपंचाशदधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"पाण्‍डवों को व्‍यास जी का दर्शन और उनका एकचक्रा नगरी में प्रवेश"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! वे महारथी पाण्‍डव उस स्‍थान से हटकर एक वन से दूसरे वन में जाकर बहुत-से हिंसक पशुओं को मारते हुए बड़ी उतावली के साथ आगे बढ़े। मत्‍स्‍य, त्रिगर्त, पंचाल और कीचक- इन जनपदों के भीतर होकर रमणीय वनस्‍थलियों और सरोवरों को देखते हुए वे लोग यात्रा करने लगे। उन सबने अपने सिर पर जटाएं रख ली थी। वल्‍कल और मृगचर्म से अपने शरीर को ढंक लिया था और तपस्‍वी का वेष धारण कर रखा था। इस प्रकार वे महारथी महात्‍मा पाण्‍डव माता कुन्‍ती देवी के साथ कहीं तो उन्‍हें पीठ पर ढोते हुए तीव्र गति से चलते थे, कहीं इच्‍छानुसार धीरे-धीरे पांव बढ़ाते थे और कहीं पुन: अपनी चाल का तेज कर देते थे। पाण्‍डव लोग सब शास्‍त्रों के ज्ञाता थे और प्रतिदिन उपनिषद, वेद-वेदांग तथा नीतिशास्‍त्र का स्‍वाध्‍याय किया करते थे। एक दिन जब वे स्‍वाध्‍याय में लगे थे, उन्‍हें पितामह व्‍यास जी का दर्शन हुआ। शत्रुओं को संताप देने वाले पाण्‍डवों ने उस समय महात्‍मा श्रीकृष्‍णद्वैपायन को प्रणाम किया और अपनी माता के साथ वे सब लोग उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये।

 तब व्‍यास जी ने कहा ;- भरतश्रेष्‍ठ पाण्‍डुकुमारों! मैंने पहले ही तुम लोगों पर आये हुए इस संकट को जान लिया था। धृतराष्‍ट्र के पुत्रों ने तुम्‍हें जिस प्रकार अधर्मपूर्वक राज्‍य से बहिष्‍कृत किया है, वह सब जानकर तुम्‍हारा परमहित करने के लिये मैं यहाँ आया हूँ। इसके लिये तुम्‍हें विषाद नहीं करना चाहिये; यह सब तुम्‍हारे भावी सुख के लिये हो रहा है। इसमें संदेह नहीं कि मेरे लिये तुम लोग और धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि सब समान ही हैं। फिर भी जहाँ दीनता और बचपन है, वहीं मनुष्‍य अधिक स्‍नेह करते हैं; इसी कारण इस समय तुम लोगों पर मेरा अधिक स्‍नेह है। मैं स्नेहपूर्वक तुम लोगों का हित करना चाहता हूँ। इसलिये मेरी बात सुनो। यहाँ पास ही जो यह रमणीय नगर हैं, इसमें रोग-व्‍याधि का भय नहीं है। अत: तुम सब लोग यहीं छिपकर रहो और मेरे पुन: आने की प्रतीक्षा करो। 

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार पाण्‍डवों को भली-भाँति आश्‍वासन देकर सत्‍यवतीनन्‍दन भगवान् व्‍यास उन सबके साथ एकचक्रा नगरी के निकट गये। वहाँ उन्‍होंने कुन्‍ती को इस प्रकार सात्‍वना दी। 

व्‍यास जी बोले ;- जीवित पुत्रों वाली बहु! तुम्‍हारे ये पुत्र नरश्रेष्‍ठ महात्‍मा धर्मराज युधिष्ठिर सदा धर्मपरायण हैं; अत: ये धर्म से ही सारी पृथ्‍वी को जीतकर भूमण्‍डल के सम्‍पूर्ण राजाओं पर शासन करेंगे। भीमसेन और अर्जुन के बल से समुन्‍द्रपर्यन्‍त सारी वसुधा अपने अधिकार में करके ये उसका उपभोग करेंगे; इसमें संशय नहीं है। तुम्‍हारे और माद्री के सभी महारथी पुत्र सदा अपने राज्‍य में प्रसन्‍नचित्त हो सुखपूर्वक विचरेंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचपंचाशदधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 15-19 का हिन्दी अनुवाद)

पुरुषों में सिंह के समान बलवान् पाण्‍डव इस पृथ्‍वी को जीतकर प्रचुर दक्षिणा से सम्‍पन्‍न राजसूय तथा अश्‍वमेघ आदि यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करेंगे। 

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यों कहकर महर्षि द्वैपायन ने इन सबको एक ब्राह्मण के घर में ठहरा दिया और पाण्‍डव श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर से कहा,,

महर्षि द्वैपायन बोले ;- ‘तुम लोग यहाँ एक मास तक मेरी प्रतीक्षा करो। मैं पुन: आउंगा। देश और काल का विचार करके ही कोई कार्य करना चाहिये; इससे तुम्‍हें बड़ा सुख मिलेगा।' राजन्! उस समय सबने हाथ जोड़कर उनकी आशा स्‍वीकार की। तदनन्‍तर शक्तिशाली महर्षि भगवान् व्‍यास जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत हिडिम्‍ब पर्व में पाण्‍डवों का एकचक्रानगरी में प्रवेश और व्‍यास जी का दर्शनीय विषयक एक सौ पचपनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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