सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ छयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! एक सुरंग खोदने वाला मनुष्य विदुर जी का हितैषी एवं विश्वासपात्र था। वह अपने काम में बड़ा चतुर था एक दिन वह एकान्त में पाण्डवों से मिला और इस प्रकार कहने लगा। ‘मुझे विदुर जी ने भेजा है। मैं सुरंग खोदने के काम में बड़ा निपुण हूँ। मुझे आप पाण्डवों का प्रिय कार्य करना है, अत: आप लोग बतायें, मैं आपकी क्या सेवा करूं? विदुर ने गुप्तरूप से मुझसे यह कहा है कि तुम वारणावत में जाकर विश्वासपूर्वक पाण्डवों का हित सम्पादन करो। अत: आप आज्ञा दीजिये कि मैं क्या करूं? इसी कृष्ण पक्ष की चर्तुदशी की रात को पुरोचन आपके घर के दरवाजे पर आग लगा देगा। दुर्बुद्धि दुर्योधन की यह चेष्टा है कि नरश्रेष्ठ पाण्डव अपनी माता के साथ जला दिये जायें। पाण्डुनन्दन! विदुर जी ने मलेच्छ भाषा में आपको कुछ संकेत किया था और आपने ‘तथास्तु’ कहकर उसे स्वीकर किया था। यह बात मैं विश्वास दिलाने के लिये कहता हूं’।
तब सत्यवादी कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने उससे कहा ;- ‘सौम्य! मैं तुम्हें पहचानता हूँ। तुम विदुर जी के हितैषी, ईमानदार और विश्वसनीय, प्रिय तथा उनके प्रति सदा अविचल भक्ति रखने वाले हो। हमारा कोई ऐसा प्रयोजन नहीं है, जो परमज्ञानी विदुर जी को ज्ञात न हो। तुम विदुर जी के लिये जैसे आदरणीय और विश्वसनीय हो, वैसे ही हमारे लिये भी हो। तुमसे हमारा कोई अन्तर नहीं है। हम लोग जिस प्रकार विदुर जी के पालनीय हैं, वैसे ही तुम्हारे भी हैं। जैसे वे हमारी रक्षा करते हैं, वैसे तुम भी करो। यह घर आग भड़काने वाले पदार्थों से बना है। हमारा विश्वास है कि दुर्योधन के आदेश से पुरोचन ने हमारे लिये ही इसे बनवाया है। पापी दुर्योधन के पास खजाना है और उसके बहुत-से सहायक भी हैं; इसलिये वह दुर्बुद्धि पापात्मा सदा हमें सताया करता है। तुम यत्न करके हम लोगों को इस आग से बचा लो; अन्यथा हम लोगों के यहाँ दग्ध हो जाने पर दुर्योधन का मनोरथ सफल हो जायगा। यह उस दुरात्मा का अस्त्र-शस्त्रों से भरा हुआ आयुधागार है। इसी के सहारे इस महान् गृह का निर्माण किया गया है। इसमें चहारदिवारी के निकटतम कहीं कोई बाहर निकलने का मार्ग नहीं है। अवश्य ही दुर्योधन का यह अशुभ कर्म, जिसे वह पूर्ण करना चाहता है, पहले ही विदुर जी को मालूम हो गया था। इसीलिये उन्होंने हमें इसकी जानकारी करा दी। विदुर जी की दृष्टि में जो बहुत पहले आ चुकी थी, वही यह विपत्ति आज हम लोगों पर आयी-की-आयी है। तुम हमें इस संकट से इस तरह मुक्त करो, जिससे पुरोचन को हमारे विषय में कुछ भी पता न चले’।
तब उस सुरंग खोदने वाले ने ‘बहुत अच्छा’ ऐसा ही होगा, यह प्रतिज्ञा की और कार्य सिद्धि के प्रयत्न में लग गया। खाई की सफाई करने के व्याज से उसने एक बहुत बड़ी सुरंग तैयार कर दी। भारत! उसने उस भवन के ठीक बीच से वह महान् सुरंग निकाली। उसके मुहाने पर किवाड़ लगे थे वह भूमि के समान सतह में ही बनी थी; अत: किसी को ज्ञात नहीं हो पाती थी। पुरोचन के भय से उस सुरंग खोदने वाले ने उसके मुख को बंद कर दिया था। दुष्ट बुद्धि पुरोचन सर्वदा मकान के द्वार पर ही निवास करता था और पाण्डवगण भी रात्रि के समय शस्त्र संभाले सावधानी के साथ उस द्वार पर ही रहा करते थे। (इसलिये पुरोचन को आग लगाने का अवसर नहीं मिलता था।) वे दिन में हिंस्र पशुओं के मारने के बहाने एक-वन से दूसरे वन में विचरते रहते थे। पाण्डव भीतर से तो विश्वास न करने के कारण सदा चौकन्ने रहते थे परंतु ऊपर से पुरोचन को ठगने के लिये विश्वस्त की भाँति व्यवहार करते थे। राजन्! वे संतुष्ट न होते हुए भी संतुष्ट की भाँति निवास करते और अत्यन्त विस्मय युक्त रहते थे। विदुर के मन्त्री और खोदाई के काम में श्रेष्ठ उस खनक को छोड़कर नगर के निवासी भी पाण्डवों के विषय में कुछ नहीं जान पाते थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत जतुगृह पर्व में जतुगृहवासविषयक एक सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ सैंतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
"लाक्षागृह का दाह और पाण्डवों का सुरंग के रास्ते निकल जाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पाण्डवों को एक वर्ष से वहाँ प्रसन्नचित्त हो विश्वस्त की तरह रहते हुए देख पुरोचन को बड़ा हर्ष हुआ। उसके इस प्रकार सम्पन्न होने पर धर्म के ज्ञाता कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव से इस प्रकार कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘पापी पुरोचन हम लोगों को पूर्ण विश्वस्त समझ रहा है। इस क्रूर को अब तक हम लोगों ने धोखा दिया है। अब मेरी राय में हमारे भाग निकलने का यह उपयुक्त अवसर आ गया है। इस आयुधागार में आग लगाकर पुरोचन को जलाकर के इसके भीतर छ: प्राणियों को रखकर हम इस तरह भाग निकलें कि कोई हमें देख न सके’। महाराज! तदनन्तर एक दिन रात्रि के समय कुन्ती ने दान देने के निमित्त ब्राह्मण-भोजन कराया। उसमें बहुत-सी स्त्रियां भी आयी थी।
भारत! वे सब स्त्रियां इच्छानुसार घूम फिरकर खा-पी लेने के बाद कुन्ती देवी से आज्ञा ले रात में फिर अपने-अपने घरों को ही लौट गयीं। परंतु दैवेच्छा से उस भोज के समय एक भीलनी अपने पांच बेटों के साथ वहाँ भोजन की इच्छा से आयी। मानो काल ने ही उसे प्रेरित करके वहाँ भेजा था। वह भीलनी मदिरा पाकर मतवाली हो चुकी थी। उसके पुत्र भी शराब पीकर मस्त थे। राजन्! शराब के नशे में बेहोश होने के कारण अपने सब पुत्रों के साथ वह उसी घर में सो गयी। उस समय वह अपनी सुध-बुध खोकर मृतक-सी हो रही थी। रात में जब सब लोग सो गये, उस समय सहसा बड़े जोर की आंधी चली। तब भीमसेन ने उस जगह आग लगा दी। जहाँ पुरोचन सो रहा था। फिर उन्होंने लाक्षागृह के प्रमुख द्वार पर आग लगायी। इसके पश्चात् उन्होंने उस घर के चारों ओर आग लगा दी। जब वह सारा घर अग्नि की लपेट में आ गया, तब यह जानकर शत्रुओं का दमन करने वाले पाण्डव अपनी माता के साथ सुरंग में घुस गये; फिर तो वहाँ अग्नि की भयंकर लपटें उठने लगी, भीषण ताप फैल गया।
घर को जलाने वाली उस आग का महान् चट-चट शब्द सुनाई देने लगा। इससे उस नगर का जन-समूह जाग उठा। उस घर को जलता देख पुरवासियों के मुख पर दीनता छा गयी। वे व्याकुल हो कर कहने लगे।
पुरवासी बोले ;- अहो! पुरोचन का अन्त:करण अपने वश में नहीं था। उस पापी ने दुर्योधन की आज्ञा से अपने ही विनाश के लिये इस घर को बनवाया और जला भी दिया! अहो! धिक्कार है, धृतराष्ट्र की बुद्धि बहुत बिगड़ गयी है, जिसने शुद्ध हृदय वाले पाण्डुपुत्रों को शत्रु की भाँति आग में जला दिया। सौभाग्य की बात है कि यह अत्यन्त खोटी बुद्धि वाला पापात्मा पुरोचन भी इस समय दग्ध हो गया है, जिसने बिना किसी अपराध के अपने ऊपर पूर्ण विश्वास करने वाले नरश्रेष्ठ पाण्डवों को जला दिया है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार वारणावत के लोग विलाप करने लगे। वे रात भर उस घर को चारों ओर से घेर कर खड़े रहे। उधर समस्त पाण्डव भी अत्यन्त दुखी हो अपनी माता के साथ सुरंग के मार्ग से निकल कर तुरंत ही दूर चले गये। उन्हें कोई भी देख न सका। नींद न ले सकने के कारण आलस्य और भय से युक्त परंतप पाण्डव अपनी माता के साथ जल्दी-जल्दी चल नहीं पाते थे। राजेन्द्र! भयंकर वेग और पराक्रम वाले भीमसेन अपने सब भाइयों तथा माता को भी साथ लिये चल रहे थे। वे महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। उन्होंने माता को तो कन्धे पर चढ़ा लिया और नकुल-सहदेव को गोद में उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयों को दोनों हाथों से पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे। तेजस्वी भीम वायु के समान वेगशाली थे। वे अपनी छाती के धक्के से वृक्षों को तोड़ते और पैरों की ठोकर से पृथ्वी को विदीर्ण करते हुए तीव्र गति से आगे बढ़ जा रहे थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तगर्त अनुगृहपर्व में जतुगृहदाविषयक एक सौ सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"विदूर जी के भेजे हुए नाविका का पाण्डवों को गंगा जी के पार उतारना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इसी समय परमज्ञानी पुरुष विदुर जी ने अपने विश्वास के अनुसार एक शुद्ध विचार वाले पुरुष को उस वन में भेजा। कुरुनन्दन! उसने विदुर जी के बताये अनुसार ठीक स्थान पर पहुँचकर वन में माता सहित पाण्डवों को देखा, जो नदी में कितना जल हैं, इसका अनुमान लगा रहे थे। परम बुद्धिमान महात्मा विदुर को गुप्तचर द्वारा उस पापासक्त पुरोचन की चेष्टाओं का भी पता चल गया था। इसीलिये उन्होंने उस समय उस बुद्धिमान मनुष्य को वहाँ भेजा था। उसने मन और वायु के समान वेग से चलने वाली एक नाव पाण्डवों को दिखायी, जो सब प्रकार से हवा का वेग सहने में समर्थ और ध्वजापताकाओं से सुशोभित थी। उस नौका को चलाने के लिये यन्त्र लगाया गया था। वह नाव गंगा जी के पावन तट पर विद्यमान थी और उस विश्वासी मनुष्यों ने बनाकर तैयार किया था।
तदनन्तर उस मनुष्य ने कहा ;- ‘युधिष्ठिर! ज्ञानी! विदुर जी के द्वारा पहले कही हुई बात, जो मेरी विश्वसनीयता को सूचित करने वाली हैं, पुन: सुनिये। मैं आपको संकेत के तौर पर दिलाने के लिये इसे कहता हूँ। (तुमसे विदुर जी ने कहा था-) 'घास-फूस तथा सुखे वृक्षों के जंगल को जलाने वाली और सर्दी को नष्ट कर देने वाली आग विशाल वन में फैल जाने पर भी बिल में रहने वाले चुहे आदि जन्तुओं को नहीं जला सकती। यों समझकर जो अपनी रक्षा का उपाय करता है, वही जीवित रहता है’। इस संकेत से आप यह जान लें कि मैं विश्वासपात्र हूँ और विदूर जी ने ही मुझे भेजा हैं।
इसके सिवा, सर्वतोभावेन अर्थसिद्धि का ज्ञान रखने वाले विदुर जी ने पुन: मुझसे आपके लिये यह संदेश दिया कि ‘कुन्तीनन्दन! तुम युद्ध में भाइयों सहित दुर्योधन, कर्ण और शकुनि को अवश्य परास्त करोगे, इसमें संशय नहीं है। यह नौका जलमार्ग के लिये उपयुक्त है। जल में यह बड़ी सुगतमता से चलने वाली है। यह नाव तुम सब लोगों को इस देश से दूर छोड़ देगी, इसमें संदेह नहीं है’। इसके बाद माता सहित नरश्रेष्ठ पाण्डवों को अत्यन्त दुखी देख नाविक ने सब को नाव पर चढ़ाया और जब वे गंगा के मार्ग से प्रस्थान करने लगे,
तब फिर इस प्रकार कहा ;- ‘विदुर जी ने आप सभी पाण्डुपुत्रों को भावना द्वारा हृदय से लगाकर और मस्तक सूंघकर यह आशीवार्द फिर कहलाया है कि ‘तुम शान्तचित्त हो कुशलपूर्वक मार्ग पर बढ़ते जाओ। राजेन्द्र! विदुर जी के भेजने से आये उस नाविक ने उन शूरवीर नरश्रेष्ठ पाण्डवों से ऐसी बात कहकर उसी नाव से उन्हे गंगा जी के पार उतार दिया। पार उतरने के पश्चात् वे गंगा जी के दूसरे तट पर जा पहुँचे, तब उन सब के लिये ‘जय हो, जय हो’ यह आशीवार्द सुनाकर वह नाविक जैसे आया था, उसी प्रकार लौट गया। महात्मा पाण्डव ने विदुर जी को उनके संदेश का उत्तर देकर गंगा पार हो अपने को छिपाते हुए वेगपूर्वक वहाँ से चल दिये। कोई भी उन्हें देख या पहचान न सका।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तगर्त जतुगृह पर्व में पाण्डवों के गंगा पार होने से सम्बन्ध रखने वाला एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ उनचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनपञ्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"धृतराष्ट्र आदि के द्वारा पाण्डव के लिये शोक प्रकाश एवं जलाञ्जलिदान तथा पाण्डवों का वन में प्रवेश"
वैशम्पायन जी कहतें हैं ;- जनमेजय! उधर रात व्यतीत होने पर वारणावत नगर के सारे नागरिक बड़ी उतावली-के साथ पाण्डुकुमारों की दशा देखने के लिये उस लाक्षा समूह के समीप आयें। आते ही वे (सब) लोग आग बुझाने में लग गये। उस समय उन्होंने देखा कि सारा घर लाख का बना था, जो जलकर खाक हो गया था। उसी में मन्त्री पुरोचन भी जल गया था। (यह देख) वे (सभी) नागरिक चिल्ला चिल्लाकर कहने लगे कि ‘अवश्य ही पापाचारी दुर्योधन ने पाण्डवों का विनाश करने के लिये इस भवन का निर्माण करवाया था। इसमें संदेह नहीं कि धृतराष्ट्र दुर्योधन ने धृतसमूह की जानकारी में पाण्डुपुत्रों को जलाया है और धृतराष्ट्र ने इसे मना नहीं किया। निश्चय ही इस विषय में शतनुनन्दन भीष्म भी धर्म का अनुसरणनहीं कर रहे हैं। द्रोण, विदुर, कृपाचार्य तथा अन्य कौरवों को भी यही दशा है। अब हम लोग दुरात्मा धृतराष्ट्र के पास यह संदेश भेज दें कि तुम्हारी सब से बड़ी कामना पूरी हो गयी। तुम पाण्डवों को जलाने में सफल हो गये’।
तदनन्तर उन्होंने पाण्डवों को ढूंढ़ने के लिये जब आग को इधर-उधर हटाया, तब पांच पुत्रों के साथ निरपराध भीलनी की जली लाश देखी। उसी सुरंग खोदने वाले पुरुष ने घर को साफ करते समय सुरंग के छेद को धूल से ढक दिया था। इससे दूसरे लोगों की दृष्टि उस पर नहीं पड़ी। तदनन्तर वारणावत के नागरिकों ने धृतराष्ट्र को यह सूचित कर दिया कि पाण्डव तथा मन्त्री पुरोचन आग में जल गये। महाराज धृतराष्ट्र पाण्डुपुत्रों के विनाश का यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर बहुत दुखी हो विलाप करने लगे ओर बोले,,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘अहो! माता सहित इन शूरवीर पाण्डवों के दग्ध हो जाने पर विशेष रुप से ऐसा लगता हैं, मानो मेरे भाई महायशस्वी राजा पाण्डु की मृत्यु आज हुई हैं। मेरे कुछ लोग शीघ्र ही वारणावत नगर में जायें और कुन्ति भोज कुमारी कुन्ती तथा वीरवर पाण्डवों का आदर-पूर्वक दाहसंस्कार करायें। उन सब के कुलोचित शुभ और महान् सत्कार की व्यवस्था करें तथा जो-जो उस घर में जलकर मरे है, उनके सुहद् एवं सगे-सम्बन्धी भी उन मृतको का दाह संस्कार करने के लिये वहाँ जाये। इस दशा में मुझे पाण्डवों तथा कुन्ती का हित करने के लिये जो-जो कार्य करना चाहिये या जो-जो कार्य मुझसे हो सकता हैं, वह सब धन खर्च करके सम्पन्न किया जाय।’
यों कहकर अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने जाति-भाईयों से घिरे यों कहकर पाण्डवों के लिये जलाञ्जलि देने का कार्य किया। उस समय भीष्म, सत्र कौरव तथा पुत्रों सहित धृतराष्ट्र एकत्र हो महात्मा पाण्डवों को जलाञ्जलि देने की इच्छा से गंगा जी के निकट गये। उन सबके शरीर पर एक-एक ही वस्त्र था। वे सभी आभूषण और पगड़ी आदि उतारकर आनन्दशून्य हो रहे थे। उस समय सब लोग अत्यन्त शोकमग्न हो एक साथ रोने और विलाप करने लगे।
कोई कहता,,- ‘हा कुरुवंश विभूषण युधिष्ठिर!
दूसरे कहते,,- हा भीमसेन!
अन्य कोई बोलते,,- ‘हा अर्जुन!’ इसी प्रकार दूसरे लोग ‘हा नकुल-सहदेव!’ कहकर पुकार उठते थे। तब लोगों ने कुन्ती देव के लिये शोकार्त होकर जलाञ्जलि दी।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-19 का हिन्दी अनुवाद)
इसी प्रकार दूसरे-दूसरे पुरवासीजन भी पाण्डवों के लिये बहुत शोक करने लगे। विदुर जी ने बहुत थोड़ा शोक मनाया। क्योंकि वे वास्तविक वृतान्त से परिचित थे। तदनन्तर भीष्म जी यह सुनकर कि राजा पाण्डु के पुत्र अपनी माता के साथ जल मरे हैं, अत्यन्त व्यथित हो उठे और विलाप करने लगे।
भीष्म जी बोले ;- वे दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन उत्साह-शून्य हो गये हों, ऐसा तो नहीं प्रतीत होता। यदि वे वेग से अपने शरीर का धक्का देते तो सुद्दढ़ मकान को भी तोड़ फोड़ सकते थे। अत: पाण्डवों के साथ कुन्ती की मृत्यु हो गयी हैं, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता। यदि सचमुच उन सबकी मृत्यु हो चुकी है, तब तो यह सभी प्रकार से बहुत बुरी बात हुई है। ब्राह्मणों ने तो धर्मराज युधिष्ठिर के विषय में यह कहा था कि वे धर्म के दिये हुए राजकुमार सत्यव्रती, सत्यवादी एवं शुभ लक्षणों से सम्पन्न होंगे। ऐसे वे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर काल के अर्थ में कैसे हो गये? जो अपने आपको आदर्श बनाकर तदनुरूप दूसरों के साथ बर्ताव करते थे, वे ही कुरुकुल शिरोमणी युधिष्ठिर अपनी माता के साथ काल के अधीन कैसे हो गये? जिन्होंने युवराज पद पर अभिषिक्त होते ही पिता के समान ही अपने सत्य एवं धर्मपूर्ण बर्ताव के द्वारा अपना ही नहीं, राजा पाण्डु के भी यश का विस्तार किया था, वे युधिष्ठिर भी काल के अधीन हो गये। ऐसे निकम्मे काल को धिक्कार है।
उत्तम कुल में उत्पन्न कुन्ती, जो पुत्रों के अभिलाषा रखने के कारण ही वनवास का कष्ट भोगती और दु:ख पर दु:ख उठाती रही तथा पति के मरने पर भी उनका अनुगमन न कर सकी, जिस बहुत थोड़े समय तक ही पति का प्रेम प्राप्त हुआ था, वही कुन्तीभोजकुमारी अभी अपने मनोरथ पूरे भी न कर पायी थी कि पुत्रों के साथ दग्ध हो गयी। जिनके भरे हुए कंधे और मनोहर भुजाएं थी, जो मेरु-शिखर के समान सुन्दर एवं तरुण थे, वे भीमसेन मर गये, यह सुनकर भी मन को विश्वास नहीं होता। जो सदा उत्तम मार्गों पर चलते थे, जिनके हाथों में बड़ी फुर्ती थी, जिनका निशाना कभी चूकता नहीं था, जो रथ हांकने में कुशल, दूर तक का लक्ष्य बेधने वाले, कभी व्याकुल न होने वाले, महापराक्रमी और महान् अस्त्रों के ज्ञाता थे, जिन्होंने प्राच्य, सौवीर और दाक्षिणात्य नरेशों को परास्त किया था, जिस शूरवीर ने तीनों लोकों में अपने पुरुषार्थ को प्रसिद्ध किया था और जिनके जन्म लेने पर कुन्ती और महापराक्रमी पाण्डु भी शोकरहित हो गये थे, वे इन्द्र के समान विजयी वीर अर्जुन भी काल के अधीन कैसे हो गये? जो बैल के से हष्ट-पुष्ट कंधों से सुशोभित थे तथा सिंह की सी मस्तानी चाल से चलते थे, वे शत्रुओं का संहार करने वाले नकुल-सहदेव सहसा मृत्यु को कैसे प्राप्त हो गये?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जलाञ्जलि दान देते समय भीष्म जी ने यह विलाप सुनकर विदुर जी ने देश और काल का भाँति-भाँति विचार करके कहा,,
विदुर जी बोले ;- ‘नरश्रेष्ठ! आप दुखी न हों। महाव्रती वीर! आप शोक त्याग दें, पाण्डवों की मृत्यु न हुई है। मैंने उस अवसर पर जो उचित था, वह कार्य कर दिया है। भारत! आप उन पाण्डवों के लिये अलाञ्जलि न दें।’ तब भीष्म जी विदुर का हाथ पकड़कर उन्हें कुछ दूर हटा ले गये, जहाँ से कौरवों लोग उनकी बात न सुन सके। फिर वे आंसू बहाते हुए गद्गद् वाणी में बोले।
भीष्म जी ने कहा ;- तात! पाण्डु के महारथी पुत्र कैसे जीवित बच गये? पाण्डु का पक्ष किस तरह हमारे लिये नष्ट होने से बच गया? जैसे गरुड़ ने अपनी माता की रक्षा की थी, उसी प्रकार तुमने किस तरह पाण्डुकुमारों को बचाकर हम सब लोगों से महान् भय से रक्षा की है?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार पूछे जाने पर धर्मात्मा विदुर ने कौरवों के न सुनते हुए अद्भुत कर्म करने वाले भीष्म जी से इस प्रकार कहा,,
विदुर बोले ;- धृतराष्ट्र, शकुनि तथा राजा दुर्योधन का यह पक्का विचार हो गया था कि पाण्डवों को नष्ट कर दिया जाय। तदनन्तर लाक्षागृह में जाने पर जब दुर्योधन की आज्ञा से पुत्रों सहित कुन्ती को जला देने की योजना बन गयी, तब मैंने एक भूमि खोदने वाले को बुलाकर भूगर्भ में गुफासहित सुरंग खुदवायी और कुन्ती सहित पाण्डवों को, घर में आग लगाने से पहले ही निकाल लिया, अत: अपने मन में शोक को स्थान न दीजिये। राजन्! शत्रुओं को संताप देने वाले पाण्डव अपनी माता के साथ उस महाभंयकर अग्निदाह से दूर निकल गये हैं। मेरे पूर्वोक्त उपाय से ही यह कार्य सम्भव हो सका है। पाण्डव निश्चय ही जीवित हैं, अत: आप उनके लिये शोक न दीजिये। जब तक यह समय बदलकर अनुकुल नहीं हो जाता, तब तक वे पाण्डव छिपे रहकर इस भूतल पर विरेंगे। अनुकूल समय आने पर सब राजा इस पृथ्वी पर युधिष्ठिर को देंखेंगे। (इधर) महाबली पाण्डव भी वारणावत नगर से निकलकर माता के साथ गंगा नदी के तट पर पहुँचे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-26 का हिन्दी अनुवाद)
वे नाविकों की भुजाओं तथा नदी के प्रवाह के वेग से अनुकूल वायु की सहायता पाकर जल्दी ही पार उतर गये। तदनन्तर नाव छोड़ रात में नक्षत्रों द्वारा सुचित मार्ग को पहचानकर वे दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। राजन्! इस प्रकार आगे बढ़ने की चेष्टा करते हुए वे सब के सब एक घने जंगल में जा पहुँचे। उस समय पाण्डव लोग थके-मांदे, प्यास से पीड़ित और (अधिक जगने से) नींद में अंधे से हो रहे थे।
वे महापराक्रमी भीमसेन से पुन: इस प्रकार बोले ;- ‘भारत! इससे बढ़कर महान् कष्ट क्या होगा कि हम लोग इस घने जंगल में फंसकर दिशाओं को भी नहीं जान पाते तथा चलने-फिरने में भी असमर्थ हो रहे हैं। हमें यह भी पता नहीं है कि पापी पूरोचन जल गया या नहीं। हम दूसरों से छिपे रहकर किस प्रकार इस महान् कष्ट से छुटकारा पा सकेंगे? भैया! तुम पुन: पूर्ववत् हम सबको लेकर चलो। हम लोगों ने एक तुम्हीं अधिक बलवान् और उसी प्रकार निरन्तर चलने-फिरने मे भी समर्थ हो’। धर्मराज के यों कहने पर महाबली भीमसेन माता कुन्ती तथा भाइयों को अपने ऊपर चढ़ाकर बड़ी शीघ्रता के साथ चलने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तगर्त अनुगृह पर्व में पाण्डवों का वन में प्रवेशविषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ पचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"माता कुन्ती के लिये भीमसेन का जल ले आना, माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम का विषाद एवं दुर्योधन के प्रति क्रोध"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भीमसेन के चलते समय उनके महान् वेग से आन्दोलित हो वृक्ष और शाखाओं सहित वह सम्पूर्ण वन घूमता-सा प्रतीत होने लगा। जैसे ज्येष्ठ और आषाढ़ मास के संधिकाल में जोर-जोर से हवा चलने लगती हैं, उसी प्रकार उनकी पिंडलियों के वेगपूर्वक संचालन से आंधी-सी उठ रही थी। महाबली भीम जिस मार्ग से चलते, वहाँ कि लताओं और वृक्षों को पैरों से रौंदकर जमीन के बराबर कर देते थे। उनके मार्ग के निकट जो फल और फूलों से लदे हुए वनस्पति एवं गुल्म आदि होते, उन्हें तोड़कर वे पैरों से रौंदते जाते थे। जैसे तीन अंगों से मद बहाने वाला साठ वर्ष का तेजस्वी गजराज (किसी कारण से) कुपित हो वन के बड़े-बड़े वृक्षों को तोड़ने लगता हैं, उसी प्रकार महातेजस्वी भीमसेन उस वन के विशाल वृक्षों को धराशयी करते हुए आगे बढ़ रहे थे। गरुड़ और वायु के समान तीव्र गति वाले भीमसेन के चलते समय उनके (महान्) वेग से अन्य पाण्डुपुत्रों को मूर्च्छा सी आ जाती थी। मार्ग में आये हुए जल-प्रवाह को, जिसका पाट दूर तक फैला होता था, दोनों भुजाओं के बेड़े द्वारा ही बारबार पार करके वे सब पाण्डव दुर्योधन के भय से किसी गुप्त स्थान में जाकर रहते थे। भीमसेन अपनी सुकुमारी एवं यशस्विनी माता कुन्ती को पीठ पर बैठाकर नदी के ऊँचे-नीचे कगारों पर बड़ी कठिनाई से ले जाते थे। भरतश्रेष्ठ! वे संख्या होते-होते वन के ऐसे भयंकर प्रदेश में जा पहुँचे, जहाँ फल-फूल और जल की बहुत कमी थी। वहाँ क्रूर स्वभाव वाले पक्षी और हिंसक पशु रहते थे। वह संध्या बड़ी भयानक प्रतीत होती थी।
क्रूर स्वभाव वाले पशु और पक्षी वहाँ बात करते थे। बिना ॠतु की प्रचण्ड हवाओं के चलने से सम्पूर्ण दिशाएं (धूल से आच्छादित हो) अन्धकारपूर्ण हो रही थी। राजन्! (हवा के झोकों से) वन के बहुसंख्यक छोटे-बड़े वृक्ष और फल इधर-उधर बिखर गये थे और उन पर पक्षी शब्द कर रहे थे। इन सबके कारण सम्पूर्ण दिशाओं में अंधेरा छा रहा था। वे कुरुकुल पाण्डव उस समय अधिक परिश्रम और प्यास के कारण बहुत कष्ट पा रहे थे। थकावट से उनकी नींद भी बहुत बढ़ गयी थी, जिससे पीड़ित होकर वे आगे जाने में असमर्थ हो गये। तब उन सबने उस सबसे उस नीरस विशाल जंगल में डेरा डाल दिया। तत्पश्चात् प्यास से पीड़ित कुन्ती देवी अपने पुत्रों से बोली,,
कुन्ती बोली ;- ‘मैं पांच पाण्डुपुत्रों की माता हूँ और उन्हीं के बीच में स्थित हूं, तो भी प्यास से व्याकुल हैं’ इस प्रकार कुन्ती देवी ने अपने बेटों के समक्ष यह बात बार-बार दुहरायी। माता का वात्सल्य से कहा हुआ वह वचन सुनकर भीमसेन का हदय करुणा से भर आया। वे मन-ही-मन संतप्त हो उठे और स्वयं ही (पानी लाने के लिये) जाने की तैयारी करने लगे। उस समय भीम ने उस विशाल, निर्जन एवं भयंकर वन में प्रवेश करके एक बहुत सुन्दर और विस्तृत छायावाला पीपल का पेड़ देखा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! भरतवंशियों में श्रेष्ठ भीमसेन उन सबको वहीं बुलाकर कहा,,
भीमसेन बोले ;- 'आप लोग यहाँ विश्राम करें, तब तक मैं पानी का लगाता हूँ। ये जलचर सारस पक्षी बड़ी मीठी बोली बोल रहे हैं (अत:) यहाँ (पास में) अवश्य कोई महान जलाशय होगा- ऐसा मेरा विश्वास है।' भारत! तब बड़े भाई युधिष्ठिर ने ‘आओ!’ कहकर उन्हें अनुमती दे दी। आज्ञा पाकर भीमसेन वहीं गये, जहाँ ये जलचर सारस पक्षी कलरव कर रहे थे। भरतश्रेष्ठ! यहाँ पानी पीकर स्नान कर लेने के पश्चात् भाइयों पर रखने वाले भीम उनके लिये भी चादर में पानी ले आये। दो कोस दूर से जल्दी-जल्दी चलकर भीमसेन अपनी माता के पास आये। उनका मन शोक और दु:ख से व्याप्त था और वे सर्प की भाँति लंबी सांस खींच रहा था। माता और भाइयों को धरती पर सोया देख भीमसेन मन-ही-मन अत्यन्त शोक से संतप्त हो गये और इस प्रकार विलाप करने लगे- ‘हाय! मैं कितना भाग्यहीन हूँ कि आज अपने भाइयों का पृथ्वी पर सोया देख रहा हूँ। इससे महान् कष्ट की बात देखने में क्या आयेगी। आज से पहले जब हम लोग वारणावत नगर में थे, उस समय जिन्हें बहुमूल्य शय्याओं पर भी नींद नहीं आती थीं, वे ही आज धरती पर सो रहे हैं?
जो शत्रुसमूह का संहार करने वाले वसुदेव जी की बहिन तथा महाराज कुन्तिभोज की कन्या दें, समस्त शुभ लक्षणों के कारण जिनका सदा समादर होता आया हैं, जो राजा विचित्रवीर्य की पुत्रवधू तथा महात्मा पाण्डु की धर्मपत्नी हैं, जिन्होंने हम-जैसे पुत्रों को जन्म दिया हैं, जिनकी अंगकान्ति कमल के भीतरी भाग के समान हैं, जो अत्यन्त सुकुमार और बहुमुल्य शय्या पर शयन करने के योग्य हैं, देखों, आज वे ही कुन्ती देवी यहाँ भूमि पर सोयी हैं। ये कदापि इस तरह शयन करने के योग्य नहीं है। जिन्होंने धर्म, इन्द्र, और वायु के द्वारा हम-जैसे पुत्रों को उत्पन्न किया है, वे राजमहल में सोने वाली महारानी कुन्ती आज परिश्रम से थककर यहाँ पृथ्वी पर पड़ी है। इससे बढ़कर दु:ख में और क्या देख सकता हूँ जबकि अपने नरश्रेष्ठ भाइयों को आज मुझे धरती पर सोते देखना पड़ रहा है। जो नित्य धर्मपरायण नरेश तीनों लोकों का राज्य पाने के अविकारी हैं, वे ही आज साधारण मनुष्यों की भाँति थके-मांदे पृथ्वी पर कैसे पड़े है।
मनुष्यों में जिनका कहीं समता नहीं हैं, वे नील मेघ के समान श्याम कान्ति वाले अर्जुन आज प्राकृतजनों की भाँति पृथ्वी-पर सो रहे हैं; इससे महान् दु:ख और क्या हो सकता है। जो अपनी रुप-सम्पति देवताओं में अश्रिवनी कुमारों के समान जान पड़ते हैं, वे ही ये दोनों नकुल-सहदेव आज यहाँ साधारण मनुष्यों के समान जमीन पर सोये पड़े हैं। जिसके कुटुम्बी पक्षपातयुक्त और कुल को कलक लगाने वाले नहीं होते, वह पुरुष गांव के अकेले वृक्ष की भाँति संसार में सुखपूर्वक जीवन धारण करता हैं। गांव में यदि एक ही वृक्ष पत्र और फल-फूलों से सम्पन्न हो तो वह दूसरे सजातीय वृक्षों से रहित होने पर भी चैत्य (देववृक्ष) माना जाता है तथा उसे पूज्य मानकर उसकी खूब पूजा की जाती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 34-45 का हिन्दी अनुवाद)
जिनके बहुत से शूरवीर भाई-बन्धु धर्मपरायण होते हैं, वे भी संसार में नीरोग रहते और सुख से जीते हैं। जो बलवान, धनसम्पन्न तथा मित्रों और भाई-बन्धुओं को आनन्दित करने वाले हैं, वे जंगल के वृक्ष की भाँति एक-दूसरे के सहारे जीवन धारण करते हैं। दुरात्मा धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों ने तो हमें घर से निकाल दिया और जलाने की सी चेष्टा की, परंतु किसी तरह भाग्य भरोसे हम बच गये हैं। आज उस अग्निदाह से मुक्त हो हम इस वृक्ष के नीचे आश्रय ले रहे हैं। हमें किन दिशा में जाना है, इसका भी पता नहीं है। हम भारी-से-भारी कष्ट उठा रहे हैं। जो दुबुद्धि अल्पदर्शी धृतराष्ट्र दुर्योधन! आज तेरी कामना पूरी हूई। निश्चय ही देवता मुझ पर प्रसन्न हैं। तभी तो राजा युधिष्ठिर मुझे तेरा वध करने की आज्ञा नहीं दे रहे हैं।
दुर्भते! यही कारण है कि तू अब तक जी रहा है। रे पापाचारी! मैं आज ही जाकर कुपित हो मन्त्रियों, कर्ण, छोटे भाई और शकुनि सहित तुझे यमलोक भेज सकता हूँ। किंतु क्या करुं? पाण्डव श्रेष्ठ धर्मात्मा युधिष्ठिर तुझ पर क्रोध नहीं कर रहे हैं।’ यो कहकर महाबाहु भीम मन ही मन क्रोध से जलते और हाथ से हाथ मलते हुए दीनभाव से लंबी सांसें खीचनें लगे। बुझी हुई लपटों वाली अग्नि के भाँति दीन हृदय होकर वह पुन: धरती पर सोये हुए भाइयों की ओर देखने लगे। उनके वे सभी भाई साधारण लोगों की भाँति भूमि पर ही निश्चिन्ततापूर्वक सो रहे थे। उस समय भीम इस प्रकार विचार करने लगे- ‘अहो! इस वन में थोड़ी ही दूरी पर कोई नगर दिखायी देता है। जबकि जागना चाहिये, ऐसे समय भी ये मेरे भाई सो रहे है। अच्छा, मैं स्वयं ही जागरण करुं। थकावट दूर होने पर जब वे नींद से उठेगे, तभी पानी पीयेंगे। ऐसा निश्चय करके भीमसेन स्वयं ही उस समय जागरण करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तगर्त जतुगृह पर्व में भीमसेन के जल ले आने से सम्बन्ध रखने वाला एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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