सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! अपने पुत्र की यह बात सुनकर तथा कणिक के उन वचनों का स्मरण करके प्रज्ञाचक्षु महाराज धृतराष्ट्र का चित्त सब प्रकार से दुविधा में पड़ गया। वे शोक से आतुर हो गये। दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा चौथे दु:शासन इन सबने एक जगह बैठकर सलाह की; फिर राजा दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से कहा,,
दुर्योधन बोला ;- ‘पिता जी! हमें पाण्डवों से भय न हो, इसलिये आप किसी उत्तम उपाय से उन्हें यहाँ से हटाकर वारणावत नगर में भेज दीजिये’। अपने पुत्र की कही हुई यह बात सुनकर धृतराष्ट्र दो घड़ी तक भारी चिन्ता में पड़े रहे; फिर दुर्योधन से बोले।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- बेटा! पाण्डु अपने जीवन भर धर्म को ही नित्य मानकर सम्पूर्ण ज्ञानीजनों के धर्मानुकूल व्यवहार ही करते थे; मेरे प्रति तो विशेष रूप से। वे इतने भोले-भाले थे कि अपने स्नान-भोजन आदि अभीष्ट कर्तव्यों के सम्बन्ध में भी कुछ नहीं जानते थे। वे उत्तम व्रत का पालन करते हुए प्रतिदिन मुझसे यही कहते थे कि ‘यह राज्य तो आपका ही है’। उनके पुत्र युधिष्ठिर भी वैसे ही धर्मपारायण हैं, जैसे स्वयं पाण्डु थे। वे उत्तम गुणों से सम्पन्न, सम्पूर्ण जगत् में विख्यात तथा पुरुवंशियों के अत्यन्त प्रिय हैं। फिर उन्हें उनके बाप-दादों के राज्य से बलपूर्वक कैसे हटाया जा सकता है? विशेषत: ऐसे समय में, जबकि उनके सहायक अधिक हैं। पाण्डु ने सभी मन्त्रियों तथा सैनिकों का सदा पालन-पोषण किया था। उनका ही नहीं उनके पुत्र-पौत्रों के भी भरण-पोषण का विशेष ध्यान रखा था।
तात! पाण्डु ने पहले नागरिकों के साथ बड़ा ही सद्भाव पूर्ण व्यवहार किया है। अब वे विद्रोही होकर युधिष्ठिर के हित के लिये भाई-बन्धुओं के साथ हम सब लोगों की हत्या क्यों न कर डालेंगे?
दुर्योधन बोला ;- पिताजी! मैंने भी अपने हृदय में इस दोष (प्रजा के विरोधी होने) की सम्भावना की थी और इसी पर दृष्टि रखकर पहले ही अर्थ और सम्मान के द्वारा समस्त प्रजा का आदर-सत्कार किया है। अब निश्चय ही वे लोग मुख्यता से हमारे सहायक होंगे। राजन्! इस समय खजाना और मन्त्रिमण्डल हमारे ही अधीन है। अत: आप किसी मृदुल उपाय से ही जितना शीघ्र संभव हो, पाण्डवों को वारणावत नगर में भेज दें। भरतवंश के महाराज! जब यह राज्य पूरी तरह से मेरे अधिकार में आ जायेगा, उस समय कुन्तीदेवी अपने पुत्रों के साथ पुन: यहाँ आकर रह सकती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-24 का हिन्दी अनुवाद)
धृतराष्ट्र बोले ;- दुर्योधन मेरे हृदय में भी यही बात घूम रही है; किंतु हम लोगों का यह अभिप्राय पापपूर्ण है, इसलिये मैं इसे खोलकर कह नहीं पाता। मुझे यह भी विश्वास है कि भीष्म, द्रोण, विदुर और कृपाचार्य – इनमें से कोई भी कुन्तीपुत्रों को यहाँ से अन्यत्र भेजे जाने की कदापि अनुमति नहीं देंगे। बेटा! इन सभी कुरुवंशियों के लिये हम लोग और पाण्डव समान हैं। ये धर्मपरायण मनस्वी महापुरुष उनके प्रति विषम व्यवहार करना नहीं चाहेंगे। दुर्योधन! यदि हम पाण्डवों के साथ विषम व्यवहार करेंगे तो सम्पूर्ण कुरुवंशी और ये (भीष्म, द्रोण आदि) महात्मा एवं सम्पूर्ण जगत् के लोग हमें वध करने योग्य क्यों न समझेंगे।
दुर्योधन बोला ;- पिताजी! भीष्म तो सदा ही मध्यस्त हैं, द्रोण पुत्र अश्वत्थामा मेरे पक्ष में हैं, द्रोणाचार्य भी उधर ही रहेंगे, जिधर उनका पुत्र होगा- इसमें तनिक भी संशय नहीं है। जिस पक्ष में ये दोनों होंगे, उसी ओर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य भी रहेंगे। वे बहनोई द्रोण और भान्जे अश्वत्थामा को कभी छोड़ न सकेंगे। विदुर भी हमारे आर्थिक बन्धन में हैं यद्यपि वे छिपे-छिपे हमारे शत्रुओं के स्नेह पाश में बंधे हैं। परंतु वे अकेले पाण्डवों के हित के लिये हमें बाधा पहुँचाने में समर्थ न हो सकेंगे। इसलिये आप पूर्ण निश्चिंत होकर पाण्डवों को उनकी माता के साथ वारणावत भेज दीजिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये, जिससे वे आज ही चले जायें। मेरे हृदय में भयंकर कांटा-सा चुभ रहा है, जो मुझे नींद नहीं लेने देता। शोक की आग प्रज्जलित हो उठी है, आप (मेरे द्वारा प्रस्तावित) इस कार्य को पूरा करके मेरे हृदय की शोकाग्नि को बुझा दीजिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत जतुगृह पर्व में दुर्योधनपरामर्शविषयक एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ बयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"धृतराष्ट्र के आदेश से पांडवों की वारणावत-यात्रा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर राजा दुर्योधन और उनके छोटे भाइयों ने धन देकर तथा आदर-सत्कार करके सम्पूर्ण अमात्य आदि प्रकृतियों को धीरे-धीरे अपने वश में कर लिया। कुछ चतुर मन्त्री धृतराष्ट्र की आज्ञा से (चारों ओर) इस बात की चर्चा करने लगे कि ‘वारणावत नगर बहुत सुन्दर है। उस नगर में इस समय भगवान् शिव की पूजा के लिये जो बहुत बड़ा मेला लग रहा है, वह तो इस पृथ्वी पर सबसे अधिक मनोहर है। वह पवित्र नगर समस्त रत्नों से भरा-पूरा तथा मनुष्यों के मन को मोह लेने वाला स्थान है।’ धृतराष्ट्र के कहने से वे इस प्रकार की बातें करने लगे। राजन्! वारणावत नगर की रमणीयता का जब इस प्रकार (यत्र-तत्र) वर्णन होने लगा, तब पांडवों के मन में वहाँ जाने का विचार उत्पन्न हुआ। जब अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र को यह विश्वास हो गया कि पांडव वहाँ जाने के लिये उत्सुक हैं, तब वे उनके पास जाकर इस प्रकार बोले,,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘बेटो! तुम लोगों ने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिये। आचार्य द्रोण और कृप से अस्त्र-शस्त्रों का विशेष रूप से शिक्षा प्राप्त कर ली। प्रिय पांडवों! ऐसी दशा में मैं एक बात सोच रहा हूँ। सब ओर से राज्य की रक्षा, राजकीय व्यवहारों की रक्षा तथा राज्य के निरन्तर हित-साधन में लगे रहने वाले मेरे ये मन्त्री लोग प्रतिदिन बार बार कहते हैं कि वारणावत नगर संसार में सबसे अधिक सुन्दर है। पुत्रों! यदि तुम लोग वारणावत नगर में उत्सव देखने जाना चाहो तो अपने कुटुम्बियों और सेवक वर्ग के साथ वहाँ जाकर देवताओं की भाँति विहार करो।
ब्राह्मणों और गाय को विशेष रूप से रत्न एवं धन दो तथ अत्यन्त तेजस्वी देवताओं के समान कुछ काल तक वहाँ इच्छानुसार विहार करते हुए परम सुख प्राप्त करो। तत्पश्चात् पुन: सुखपूर्वक इस हस्तिनापुर नगर में ही चले आना’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिर धृतराष्ट्र की उस इच्छा का रहस्य समझ गये, परंतु अपने को असहाय जानकर उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी बात मान ली। तदनन्तर युधिष्ठिर ने शंतनुनन्दन भीष्म, परमबुद्धिमान् विदुर, द्रोण, बाह्लिक, कुरुवंशी सोमदत्त, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, अन्यान्य माननीय मन्त्रियों, तपस्वी ब्राह्मणों, पुरोहितों, पुरवासियों तथा यशस्विनी गान्धारी देवी से मिलकर धीरे-धीरे दीन भाव से इस प्रकार कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘हम महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से रमणीय वारणावत नगर में, जहाँ बड़ा भारी मेला लग रहा है, परिवार सहित जाने वाले हैं। आप सब लोग प्रसन्नचित्त होकर हमें अपने पुण्यमय आशीर्वाद दीजिये। आपके आशीर्वाद से हमारी वृद्धि होगी और पापों का हम पर वश नहीं चल सकेगा’। पांडुनन्दन युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर समस्त कुरुवंशी प्रसन्नवदन होकर पांडवों के अनुकूल हो कहने लगे,,
कुरुवंशी बोले ;- ‘पांडुकुमारो! मार्ग में सर्वदा सब प्राणियों से तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें कहीं से किसी प्रकार का अशुभ न प्राप्त हो’। तब राज्य-लाभ के लिये स्वस्तिवाचन करा समस्त आवश्यक कार्य पूर्ण करके राजकुमार पांडव वारणावत नगर को गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत जतुगृह पर्व में वारणावतयात्राविषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ तिरयालिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब राज धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को इस प्रकार वारणावत जाने की आज्ञा दे दी, तब दुरात्मा दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। भरतश्रेष्ठ! उसने अपने मन्त्री पुरोचन को एकान्त में बुलाया और उसका दाहिना हाथ पकड़कर कहा, ‘पुरोचन! यह धन-धान्य से सम्पन्न पृथ्वी जैसे मेरी है, वैसे ही तुम्हारी भी है; अत: तुम्हें इसकी रक्षा करनी चाहिये। मेरा तुमसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा विश्वासपात्र सहायक नहीं है, जिससे मिलकर इतनी गुप्त सलाह कर सकूं, जैसे तुम्हारे साथ करता हूँ। तात! तुम मेरी इस गुप्त मन्त्रणा की रक्षा करो- इसे दूसरों पर प्रकट न होने दो और अच्छे उपायों द्वारा मेरे शत्रुओं को उखाड़ फेंको। मै तुमसे जो कहता हूं, वही करो। पिताजी ने पाण्डवों को वारणावत जाने की आज्ञा दी है। वे उनके आदेश से (कुछ दिनों तक) वहाँ रहकर उत्सव में भाग लेंगे- मेले में घूमे-फिरेंगे। अत: तुम खच्चर जुते हुए शीघ्रगामी रथ पर बैठकर आज ही वहाँ पहुँच जाओ, ऐसी चेष्टा करो। वहाँ जाकर नगर के निकट ही एक ऐसा भवन तैयार कराओ जिसमें चारों ओर कमरे हों तथा जो सब ओर से सुरक्षित हो। वह भवन बहुत धन खर्च करके सुन्दन-से-सुन्दर बनवाना चाहिये। सन तथा साराल आदि, जो कोई भी आग भड़काने वाले द्रव्य संसार में हैं, उन सबको उस मकान की दीवार में लगवाना। घी, तेल, चर्बी तथा बहुत-सी लाह मिट्टी में मिलाकर उसी से दीवारों को लिपवाना। उस घर के चारों ओर सन, तेज, घी, लाह और लकड़ी आदि सब वस्तुऐं संग्रह करके रखना।
अच्छी तरह देख-भाल करने पर भी पाण्डवों तथा दूसरे लोगों को भी इस बात की शंका न हो कि यह घर आग भड़काने वाले पदार्थों से बना है, इस तरह पूरी सावधानी के साथ राजभवन का निमार्ण कराना चाहिये। इस प्रकार महल बन जाने पर जब पाण्डव वहाँ जायें, तब उन्हें तथा सुहृदों सहित कुन्ती देवी को भी बड़े आदर-सत्कार के साथ उसी में रखना। वहाँ पाण्डवों के लिये दिव्य आसन, सवारी और शय्या आदि की ऐसी (सुन्दर) व्यवस्था कर देना, जिसे सुनकर मेरे पिताजी संतुष्ट हों। जब तक समय बदलने के साथ ही अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि न हो जाय, तब तक सब काम इस तरह करना चाहिये कि वारणावत नगर के लोगों को इसके विषय में कुछ भी ज्ञात न हो सके। जब तुम्हें यह भली-भाँति ज्ञात हो जाय कि पाण्डव लोग यहाँ विश्वस्त होकर रहने लगे हैं, इनके मन में कहीं से कोई खटका नहीं रह गया है, तब उनके सो जाने पर घर के दरवाजे की ओर से आग लगा देना। उस समय लोग यही समझेंगे कि अपने ही घर में आग लगी थी, उसी में पाण्डव जल गये। अत: वे पाण्डवों की मृत्यु के लिये कभी हमारी निन्दा नहीं करेंगे’। पुरोचन ने दुर्योधन के सामने वैसा ही करने की प्रतिज्ञा की एवं खच्चर जुते हुए शीघ्रगामी रथ पर आरूढ़ हो वहाँ से वारणावत नगर के लिये प्रस्थान किया। राजन्! पुरोचन दुर्योधन की राय के अनुसार चलता था। वारणावत में शीघ्र ही पहुँचकर उसने राजकुमार दुर्योधन के कथनानुसार सब काम पूरा कर लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत जतुगृह पर्व में पुरोचन के प्रति दुर्योधनकृत उपदेशविषयक एक सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ चवालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों की वारणावत-यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों से जुते हुए रथों पर चढ़ने के लिये उद्यत हो उत्तम व्रत को धारण करने वाले पाण्डवों ने अत्यन्त दुखी-से होकर पितामह भीष्म के दोनों चरणों का स्पर्श किया। तत्पश्चात् राजा धृतराष्ट्र, महात्मा द्रोण, कृपाचार्य, विदुर तथा दूसरे बड़े-बूढ़ों को प्रणाम किया। इस प्रकार क्रमश: सभी वृद्ध कौरवों को प्रणाम करके समान अवस्था वाले लागों को हृदय से लगाया। फिर बालकों ने आकर पाण्डवों को प्रणाम किया। इसके बाद सब माताओं से आज्ञा ले उनकी परिक्रमा करके तथा समस्त प्रजाओं से भी विदा लेकर वे वारणावत नगर की ओर प्रस्थित हुए। उस समय महाज्ञानी विदुर तथा कुरुकुल के अन्य श्रेष्ठ पुरुष एवं पुरवासी मनुष्य शोक से कातर हो नरश्रेष्ठ पाण्डवों के पीछे-पीछे चलने लगे। तब कुछ निर्भय ब्राह्मण पाण्डवों को अत्यन्त दीन-दशा में देखकर बहुत दुखी हो इस प्रकार कहने लगे।
‘अत्यन्त मन्दबुद्धि कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र पाण्डवों को सर्वथा विषम दृष्टि से देखते हैं। धर्म की ओर उनकी दृष्टि नहीं है। निष्पाप अन्त:करण वाले पाण्डुकुमार युधिष्ठिर, बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन अथवा कुन्तीनन्दन अर्जुन कभी पाप से प्रीति नहीं करेंगे। फिर महात्मा दोनों माद्रीकुमार कैसे पाप कर सकेंगे। पाण्डवों को अपने पिता से जो राज्य प्राप्त हुआ था, धृतराष्ट्र उसे सहन नहीं कर रहे हैं। इस अत्यन्त अधर्मयुक्त कार्य के लिये भीष्म जी कैसे अनुमति दे रहे हैं? पाण्डवों को अनुचित रूप से यहाँ से निकाल कर जो रहने योग्य स्थान नहीं, उस वारणावत नगर में भेजा जा रहा है। फिर भी भीष्म जी चुपचाप क्यों इसे मान लेते हैं? पहले शांतनुकुमार राजर्षि विचित्रवीर्य तथा कुरुकुल को आनन्द देने वाले महाराज पाण्डु हमारे राजा थे। केवल राजा ही नहीं, वे पिता के समान हमारा पालन-पोषण करते थे। नरश्रेष्ठ पाण्डु जब देवभाव (स्वर्ग) को प्राप्त हो गये हैं, तब उनके इन छोटे-छोटे राजकुमारों का भार धृतराष्ट्र नहीं सहन कर पा रहे हैं।
हम लोग यह नहीं चाहते, इसलिये हम सब घर-द्वार छोड़कर इस उत्तम नगरी से वहीं चलेंगे, जहाँ युधिष्ठिर जा रहे हैं।' शोक से दुर्बल धर्मराज युधिष्ठिर अपने लिये दुखी उन पुरवासियों को ऐसी बातें करती देख मन-ही-मन कुछ सोचकर उनसे बोले,,
धर्मराज युधिष्ठिर बोले ;- ‘बन्धुओं! राजा धृतराष्ट्र मेरे माननीय पिता, गुरु एवं श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे जो आज्ञा दें, उसका हमें निशंक होकर पालन करना चाहिये; यही हमारा व्रत है। आप लोग हमारे हित चिन्तक हैं, अत: हमें अपने आशीर्वाद से संतुष्ट करें और हमें दाहिने करते हुए जैसे आये थे, वैसे ही अपने घर को लौट जायं। जब आप लोगों के द्वारा हमारा कोई कार्य सिद्ध होने वाला होगा, उस समय आप हमारे प्रिय और हितकारी कार्य कीजियेगा’। उनके यों कहने पर पुरवासी उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न करते हुए दाहिने करके नगर को ही लौट गये। पुरवासियों के लौट जाने पर सत्यधर्म के ज्ञाता विदुर जी पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर को दुर्योधन के कपट का बोध कराते हुए इस प्रकार बोले।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद)
विदुर जी बुद्धिमान तथा मूढ़ म्लेच्छों की निर्थक-सी प्रतीत होने वाली भाषा के भी ज्ञाता थे। इसी प्रकार युधिष्ठिर उस म्लेच्छ भाषा को समझ लेने वाले तथा बुद्धिमान थे। अत: उन्होंने युधिष्ठिर से ऐसी कहने योग्य बात कही, जो म्लेच्छ भाषा के जानकार एवं बुद्धिमान पुरुष को उस भाषा में कहे हुए रहस्य का ज्ञान करा देने वाली थी, किंतु जो उस भाषा के अनभिज्ञ पुरुष को वास्तविक अर्थ का बोध नहीं करती थी। 'जो शत्रु की नीति-शास्त्र का अनुसरण करने वाली बुद्धि को समझ लेता है, वह उसे समझ लेने पर कोई ऐसा उपाय करे, जिससे वह यहाँ शत्रुजनिक संकट से बच सके। एक ऐसा तीखा शस्त्र है, लोहे का बना तो नहीं है, परंतु शरीर को नष्ट कर देता है। जो उसे जानता है, ऐसे उस शस्त्र के आघात से बचने का उपाय जानने वाले पुरुष को शत्रु नहीं मार सकते। घास-फूस तथा सूखे वृक्षों वाले जंगल को जलाने और सर्दी-को नष्ट कर देने वाली आग विशाल वन में फैल जाने पर भी बिल में रहने वाले चूहे आदि जंतुओं को नहीं जला सकती- यों समझकर जो अपनी रक्षा का उपाय करता है, वही जीवित रहता है।
जिसके आंखें नहीं है, वह मार्ग नहीं जान पाता; अन्धे को दिशाओं का ज्ञान नहीं होता और जो धैर्य खो देता है, उसे सद्बुद्धि नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार मेरे समझाने पर तुम मेरी बातों को भलीभाँति समझ लो। शत्रुओं के दिये हुए बिना लोहे के बने शस्त्र को जो मनुष्य धारण कर लेता है, वह साही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है। मनुष्य घूम-फिर कर रास्ते का पता लगा लेता है, नक्षत्रों से दिशाओं को समझ लेता है तथा जो अपनी पांचों इन्द्रियों का स्वयं ही दमन करता है, वह शत्रुओं से पीड़ित नहीं होता।' इस प्रकार कहे जाने पर पाण्डुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर ने विद्वानों में विदुर जी से कहा,,
धर्मराज युधिष्ठिर बोले ;- मैंने आपकी बात अच्छी तरह समझ ली। इस तरह पाण्डवों को बार-बार कर्तव्य की शिक्षा देते हुए कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे जाकर विदुर जी उनको जाने की आज्ञा दे उन्हें अपने दाहिने करके पुन: अपने घर को लौट गये। विदुर, भीष्म जी तथा नगरवासियों के लौट आने पर कुन्ती अजातशत्रु युधिष्ठिर के पास जाकर बोली।
कुन्ती बोली ;- ‘बेटा! विदुर जी ने सब लोगों के बीच में जो अस्पष्ट-सी बात कही थी, उसे सुनकर तुमने ‘बहुत अच्छा’ कहकर स्वीकर किया था; परंतु हम लोग बह बात अब तक नहीं समझ पा रहे हैं। यदि उसे हम भी समझ सकें और हमारे जानने से कोई दोष न आता हो तो तुम्हारी और उनकी सारी बातचीत का रहस्य मैं सुनना चाहती हूँ।'
युधिष्ठिर ने कहा ;- माँ जिनकी बुद्धि सदा धर्म में ही लगी रहती है, उन विदुर जी ने (सांकेतिक भाषा में) मुझसे कहा था ‘तुम जिस घर में ठहरोगे, वहाँ से आग का भय है, यह बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिये। साथ ही वहाँ का कोई भी मार्ग ऐसा न हो, जो तुमसे अपरिचित रहे। यदि तुम अपनी इन्द्रियों को वश में रखोगे तो सारी पृथ्वी का राज्य प्राप्त कर लोगे', यह बात भी उन्होंने मुझसे बतायी थी। और इन्हीं बातों के लिये मैंने विदुर जी को उत्तर दिया था कि ‘मैं सब समझ गया।’
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- पाण्डवों ने फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में यात्रा की थी। वे यथा समय वारणावत पहुँचकर वहाँ के नागरिकों से मिले।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत जतुगृह पर्व में पांडवों की वारणावतयात्रा-विषयक एक सौ चौंवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"वारणावत में पाण्डवों का स्वागत, पुरोचन का सत्कार पूर्वक उन्हें ठहराना, लाक्षागृह में निवास की व्यवस्था और युधिष्ठिर एवं भीमसेन की बातचीत"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! नरश्रेष्ठ पाण्डवों के शुभागमन का समाचार सुनकर वारणावत नगर से वहाँ के समस्त प्रजाजन अत्यन्त प्रसन्न हो आलस्य छोड़कर शास्त्र विधि के अनुसार सब तरह की मांगलिक वस्तुओं की भेंट लेकर हजारों की संख्या में नाना प्रकार की सवारियों के द्वारा उनकी अगवानी के लिये आये। कुन्तीकुमारों के निकट पहुँच कर वारणावत के सब लोग उनकी जय-जयकार करते और आशीर्वाद देते हुए उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। उनसे घिरे हुए पुरुषसिंह धर्मराज युधिष्ठिर, जो देवताओं के समान तेजस्वी थे इस प्रकार शोभा पा रहे थे मानो देवमण्डली के बीच साक्षात् वज्रपाणि इन्द्र हों। निष्पाप जनमेजय! पुरवासियों ने पाण्डवों का बड़ा स्वागत सत्कार किया। फिर पाण्डवों ने भी नागरिकों को आदरपूर्वक अपनाकर जन-समुदाय से भरे हुए सजे-सजाये वारणावत नगर में प्रवेश किया। राजन्! नगर में प्रवेश करके वीर पाण्डव सबसे पहले शीघ्रतापूर्वक स्वधर्म पारायण ब्राह्मणों के घरों में गये। तत्पश्चात् वे नरश्रेष्ठ कुन्तीकुमार नगर के अधिकारी क्षत्रियों के यहाँ गये। इसी प्रकार वे क्रमश: वैश्य और शूद्रों के घरों पर भी उपस्थित हुए।
भरतश्रेष्ठ! नगर निवासी मनुष्यों द्वारा पूजित एवं सम्मानित हो पाण्डव लोग पुरोचन को आगे करके डेरे पर गये। वहाँ पुरोचन ने उनके खाने-पीने की उत्तम वस्तुऐं, सुन्दर शय्याएं और श्रेष्ठ आसन प्रस्तुत किये। उस भवन में पुरोचन द्वारा उनका बड़ा सत्कार हुआ। वे अत्यन्त बहुमूल्य सामग्रियों का उपभोग करते थे और बहुत से नगर निवासी श्रेष्ठ पुरुष उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे। इस प्रकार वे (बड़े आनन्द से) वहाँ रहने लगे। दस दिनों तक वहाँ रह लेने के पश्चात् पुरोचन ने पाण्डवों से उस नूतन गृह के सम्बन्ध में चर्चा की, जो कहने को तो ‘शिव भवन’ था, परंतु वास्तव में अशिव (अमंगलकारी) था। पुरोचन के कहने से वे पुरुष सिंह पाण्डव अपनी सब सामग्रियों और सेवकों के साथ उस नये भवन में गये; मानों गुह्यकगण कैलाश पर्वत पर जा रहे हों। उस घर को अच्छी तरह देखकर समस्त धर्मात्माओं श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘भाई! यह भवन तो आग भड़काने वाली वस्तुओं से जान पड़ता है। शत्रुओं को संताप देने वाले भीमसेन! मुझे इस घर की दीवारों से घी और लाह मिली हुई चर्बी की गंध आ रही है। अत: स्पष्ट जान पड़ता है कि इस घर का निर्माण अग्नि दीपक पदार्थों से ही हुआ है।
गृह निर्माण के कर्म में सुशिक्षित एवं विश्वसनीय कारीगरों ने अवश्य ही घर बनाते समय सन, राल, मूंज, बल्वज (मोटे तिनकों वाली घास) और बांस आदि सब द्रव्यों को घी से सींचकर बड़ी खूबी के साथ इन सबके द्वारा इस सुन्दर भवन की रचना की है। यह मन्द बुद्धि पापी पुरोचन दुर्योधन की आज्ञा के अधीन हो सदा इस घात में लगा रहता है कि जब हम लोग विश्वस्त होकर सोये हों, तब वह आग लगाकर (घर के साथ ही) हमें जला दे। यही उसकी इच्छा है। भीमसेन! परम बुद्धिमान् विदुर जी ने हमारे ऊपर आने वाली इस विपत्ति को यथार्थ रूप में समझ लिया था; इसीलिये उन्होंने पहले ही मुझे सचेत कर दिया। विदुर जी हमारे छोटे पिता और सदा हम लोगों का हित चाहने वाले हैं। अत: उन्होंने स्नेहवश हम बुद्धिमानों का इस अशिव (अमंगलकारी) गृह के सम्बन्ध में, जिसे दुर्योधन के वशवर्ती दुष्ट कारीगरों ने छिपकर कौशल से बनाया है, पहले ही सब कुछ समझा दिया’।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-31 का हिन्दी अनुवाद)
भीमसेन बोले ;- भैया! यदि आप यह मानते हो कि इस घर का निर्माण अग्नि को उद्दीप्त करने वाली वस्तुओं से हुआ है तो हम लोग जहाँ पहले रहते थे, कुशलपूर्वक पुन: उसी घर में क्यों न लौट चलें?
युधिष्ठिर बोले ;- भाई! हम लोगों को यहाँ अपनी बाह्य चेष्टाओं से मन की बात प्रकट न करते हुए यहाँ से भाग छूटने के लिये मनोऽनुकूल निश्चित मार्ग का पता लगाते हुए पूरी सावधानी के साथ यहीं रहना चाहिये। मुझे ऐसा करना ही अच्छा लगता है। यदि पुरोचन हमारी किसी भी चेष्टा से हमारे भीतर ही मनोभाव को ताड़ लेगा तो वह शीघ्रतापूर्वक अपना काम बनाने के लिये उद्यत हो हमें किसी न किसी हेतु से भी जला सकता है। यह मूढ़ पुरोचन निन्दा अथवा अधर्म से नहीं डरता एवं दुर्योधन के वश में होकर उसकी आज्ञा के अनुसार आचरण करता है। यदि यहाँ हमारे जल जाने पर पितामह भीष्म कौरवों पर क्रोध भी करें तो वह अनावश्यक है; क्योंकि फिर किस प्रयोजन की सिद्धि के लिये वे कौरवों को कुपित करेंगे। अथवा संभव है कि यहाँ हम लोगों के जल जाने पर हमारे पितामह भीष्म तथा कुरुकुल के दूसरे श्रेष्ठ पुरुष धर्म समझकर ही उन आततायियों पर क्रोध करें। (परंतु वह क्रोध हमारे किस काम का होगा?)
यदि हम जलने के भय से डरकर भाग चलें तो भी राज्य लोभी दुर्योधन हम सब को अपने गुप्तचरों द्वारा मरवा सकता है। इस समय वह अधिकारपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित है और हम उससे वंचित हैं। वह सहायकों के साथ है और हम असहाय हैं। उसके पास बहुत बड़ा खजाना है और हमारे पास उसका सर्वथा अभाव है। अत: निश्चय ही वह अनेक प्रकार के उपायों द्वारा हमारी हत्या करा सकता है। इसलिये इस पापात्मा पुरोचन तथा पापी दुर्योधन को भी धोखे में रखते हुए हमें यहीं कहीं किसी गुप्त स्थान में निवास करना चाहिये। हम सब मृगया में रत रहकर यहाँ की भूमि पर सब ओर विचरें, इससे भाग निकलने के लिये हमें बहुत से मार्ग ज्ञात हो जायेंगे। इसके सिवा आज से ही हम जमीन में एक सुरंग तैयार करें, जो ऊपर से अच्छी तरह ढकी हो। वहाँ हमारी सांस तक छिपी रहेगी (फिर हमारे कार्यों की को बात ही क्या है)। उस सुरंग में घुस जाने पर आग हमें नहीं जला सकेगी। हमें आलस्य छोड़कर इस प्रकार कार्य करना चाहिये, जिससे यहाँ रहते हुए भी हमारे सम्बन्ध में पुरोचन को कुछ भी ज्ञात न हो सके और किसी पुरवासी को भी हमारी कानों-कान खबर न हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत जतुगृह पर्व में भीमसेन-युधिष्ठिर-संवादविषयक एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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