सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षटत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"भीमसेन के द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा उसका सम्मान"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर लाठी ही जिसका सहारा था, वह अधिरथ कर्ण को पुकारता हुआ-सा कांपता-कांपता रंगभूमि में आया। उसकी चादर खिसक कर गिर पड़ी थी और वह पसीने से लथपथ हो रहा था। पिता के गौरव से बंधा हुआ कर्ण अधिरथ को देखते ही धनुष त्यागकर सिंहासन से नीचे उतर आया। उसका मस्तक अभिषेक जल से भीगा हुआ था। उसी दशा में उसने अधिरथ के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया। अधिरथ ने अपने दोनों पैरों को कपड़े के छोर से छिपा लिया और ‘बेटा! बेटा! ’ पुकारते हुए अपने को कृतार्थ समझा। उसने स्नेह से विह्बल होकर कर्ण को हृदय से लगा लिया और अंगदेश के राज्य पर अभिषेक होने से भीगे हुए उसके मस्तक को आंसुओं से पुन: अभिषिक्त कर दिया।
अधिरथ को देखकर पाण्डुकुमार भीमसेन यह समझ गये कि कर्ण सूतपुत्र है; फिर तो वे हंसते हुए बोले ,,
भीम बोले ;- ‘अरे ओ सूतपुत्र! तू तो अर्जुन के हाथ से मरने योग्य भी नहीं है। तुझे तो शीघ्र ही चाबुक हाथ में लेना चाहिये; क्योंकि यही तेरे कुल के अनुरूप है। नराधम! जैसे यज्ञ में अग्नि के समीप रखे हुए पुरोडाश को कु्त्ता नहीं पा सकता, उसी प्रकार तू भी अंगदेश का राज्य भोगने योग्य नहीं है’। भीमसेन के यों कहने पर क्रोध के मारे कर्ण का होठ कुछ कांपने लगा और उसने लंबी सांस लेकर आकाश मण्डल में स्थित भगवान् सूर्य की ओर देखा। इसी समय महाबली दुर्योधन कुपित हो मदोन्मत्त गजराज की भाँति भ्रात-समूह रूपी कमल वन से उछल कर बाहर निकल आया। उसने वहाँ खड़े हुए भयंकर कर्म करने वाले भीमसेन से कहा-
दुर्योधन बोले ;- ‘वृकोदर! तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। क्षत्रियों में बल की ही प्रधानता है। बलवान् होने पर क्षत्रबन्धु (हीन क्षत्रिय) से भी युद्ध करना चाहिये (अथवा मुझ क्षत्रिय का मित्र होने के कारण कर्ण के साथ तुम्हें युद्ध करना चाहिये। शूरवीरों और नदियों की उत्पत्ति के वास्तविक कारण को जान लेना बहुत कठिन है। जिसने सम्पूर्ण चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है, वह तेजस्वी अग्नि जल से प्रकट हुआ है। दानवों का संहार करने वाला वज्र महर्षि दधीचि की हड्डियों से निर्मित हुआ है। सुना जाता है, सर्वगुह्यस्वरूप भगवान् स्कन्ददेव अग्नि, कृत्तिका, रुद्र तथा गंगा- इन सबके पुत्र हैं। कितने ही ब्राह्मण क्षत्रियों से उत्पन्न हुए हैं, उनका नाम तुमने भी सुना होगा तथा विश्वामित्र आदि क्षत्रिय भी अक्षय ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो चुके हैं। समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हमारे आचार्य द्रोण का जन्म कलश से हुआ है। महर्षि गौतम के कुल में कृपाचार्य की उत्पत्ति भी सरकंडों के समूह से हुई है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षटत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)
तुम सब भाइयों का जन्म जिस प्रकार हुआ है, वह भी मुझे अच्छी तरह मालूम है। समस्त शुभ लक्षणों से सुशोभित तथा कुण्डल और कवच के साथ उत्पन्न हुआ सूर्य के समान तेजस्वी कर्ण किसी सूत जाति की स्त्री का पुत्र कैसे हो सकता है। क्या कोई हरिणी अपेन पेट से बाघ पैदा कर सकती है? इस सूर्य-सदृश तेजस्वी वीर को, जो इस प्रकार क्ष्ात्रियोचित गुणों से सम्पन्न तथा समरांगण को सुशोभित करने वाला है, कोई सूत जाति का मनुष्य कैसे उत्पन्न कर सकता है? राजा कर्ण अपने इस बाहुबल से तथा मुझ-जैसे आज्ञा पालक मित्र की सहायता से अंगदेश का ही नहीं, समूची पृथ्वी का राज्य पाने का अधिकारी है। जिस मनुष्य से मेरा यह बर्ताव नहीं सहा जाता हो, वह रथ पर चढ़कर पैरों से अपने धनुष को नवावे-हमारे साथ युद्ध के लिये तैयार हो जाय’।
यह सुनकर समूचे रंगमण्डप में दुर्योधन को मिलने वाले साधुवाद के साथ ही (युद्ध की सम्भावना से) महान् हाहाकार मच गया। इतने में ही सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये। तब दुर्योधन कर्ण के हाथ की अंगुलियां पकड़कर मशाल की रोशनी करा उस रंगभूमि से बाहर निकल गया। राजन्! समस्त पाण्डव भी द्रोण, कृपाचार्य और भीष्म जी के साथ अपने-अपने निवास स्थान को चल दिये। भारत! उस समय दर्शकों में से कोई अर्जुन की, कोई कर्ण की और कोई दुर्योधन की प्रशंसा करते हुए चले गये। दिव्य लक्षणों से लक्षित अपने पुत्र अंगराज कर्ण को पहचान कर कुन्ती के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई; किंतु वह दूसरों पर प्रकट न हुई। जनमेजय! उस समय कर्ण को मित्र के रूप में पाकर दुर्योधन का भी अर्जुन से होने वाला भय शीघ्र दूर हो गया। वीरवर कर्ण ने शस्त्रों के अभ्यास से बड़ा परिश्रम किया था, वह भी दुर्योधन के साथ परम स्नेह और सान्त्वनापूर्ण बातें करने लगा। उस समय युधिष्ठिर को भी यह विश्वास हो गया कि इस पृथ्वी पर कर्ण के समान धनुर्धर कोई नहीं है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में अस्त्रकौशलदर्शन विषयक एक सौ छ्त्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण करवाना, अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना और द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त कर देना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! पाण्डवों तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों को अस्त्र-विद्या में निपुण देख द्रोणाचार्य ने गुरु-दक्षिणा लेने का समय आया जान मन-ही-मन कुछ निश्चय किया। जनमेजय! तदनन्तर आचार्य ने अपने शिष्यों को बुलाकर उन सबसे गुरुदक्षिणा के लिये इस प्रकार कहा,,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘शिष्यों! पाञ्चालराज द्रुपद को युद्ध में कैद करके मेरे पास ले आओ। तुम्हारा कल्याण हो। यही मेरे लिये सर्वोत्तम गुरुदक्षिणा होगी’। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर शीघ्रतापूर्वक प्रहार करने वाले वे सब राजकुमार (युद्ध के लिये उद्यत हो) रथों में बैठकर गुरुदक्षिणा चुकाने के लिये आचार्य द्रोण के साथ ही वहाँ से प्रस्थित हुए।
तदनन्तर दुर्योधन, कर्ण, महाबली युयुत्सु, दु:शासन, विकर्ण, जलसंघ तथा सुलोचन- ये और दूसरे भी बहुत से महापराक्रमी नरश्रेष्ठ क्षत्रिय शिरोमणि राजकुमार ‘पहले मैं युद्ध करूंगा, पहले मैं युद्ध करूंगा’ इस प्रकार कहते हुए पंचाल देश में जा पहुँचे और वहाँ के निवासियों को मारते-पीटते हुए महाबली राजा द्रुपद की राजधानी को भी रौंदने लगे। उत्तम रथों पर बैठे हुए वे सभी राजकुमार घुड़सवारों के साथ नगर में घुसकर वहाँ के राजपथ पर चलने लगे।
जनमेजय! उस समय पंचालराज द्रुपद कौरवों का आक्रमण सुनकर और उनकी विशाल सेना को अपनी आंखों देखकर बड़ी उतावली के साथ भाइयों सहित राजभवन से बाहर निकले। महाराज यज्ञसेन (द्रुपद) और उनके सब भाइयों ने कवच धारण किये। फिर वे सभी लोग बाणों की बौछार करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। राजा द्रुपद को युद्ध में जीतना बहुत कठिन था। वे चमकीले रथ पर सवार हो कौरवों के सामने जा पहुँचे और भयानक बाणों की वर्षा करने लगे।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कौरवों तथा अन्य राजकुमारों को अपने बल और पराक्रम का घमंड था; इसलिये अर्जुन ने पहले ही अच्छी तरह सलाह करके विप्रवर द्राणाचार्य से कहा,,
अर्जुन ने कहा ;- ‘गुरुदेव! इनके पराक्रम दिखाने के पश्चात् हम लोग युद्ध करेंगे। हमारा विश्वास है, ये लोग युद्ध में पंचालराज को बंदी नहीं बना सकते’। यों कहकर पापरहित कुन्तीनन्दन अर्जुन अपने भाइयों से साथ नगर से बाहर ही आधे कोस की दूरी पर ठहर गये थे। राजा द्रुपद ने कौरवों को देखकर उन पर सब ओर से धावा बोल दिया और बाणों का बड़ा भारी जाल-सा बिछाकर कौरव सेना को मूर्च्छित कर दिया। युद्ध में फुर्ती दिखाने वाले राजा द्रुपद रथ पर बैठकर यद्यपि अकेले ही बाण वर्षा कर रहे थे, तो भी अत्यन्त भय के कारण कौरव उन्हें अनेक-सा मानने लगे। द्रुपद के भयंकर बाण सब दिशाओं में विचरने लगे। महाराज! उनकी विजय होती देख पाञ्चालों के घर में शंख, भेरी और मृदंग आदि सहस्रों बाजे एक साथ बज उठे। महान् आत्मबल से सम्पन्न पाञ्चाल सैनिकों का सिंहनाद बड़े जोरों से होने लगा। साथ ही उनके धनुषों की प्रत्यञ्चाओं का महान टंकार आकाश में फैलकर गूंजने लगा
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय दुर्योधन, विकर्ण, सुबाहु, दीर्घलोचन और दु:शासन बड़े क्रोध में भरकर बाणों की वर्षा करने लगे। भारत! युद्ध में परास्त न होने वाले महान् धनुर्धर द्रुपद ने अत्यन्त घायल होकर तत्काल ही उन सबकी सेनाओं को अत्यन्त पीड़ित कर दिया। वे अलातचक्र की भाँति सब ओर घूमकर दुर्योधन, विकर्ण, महाबली कर्ण, अनेक वीर राजकुमार तथा उनकी विविध सेनाओं को बाणों से तृप्त करने लगे। उन्होंने दु:शासन को दस, विकर्ण को बीस तथा शकुनि को अत्यन्त तीखे तीस मर्मभेदी बाण मारकर घायल कर दिया। तत्पश्चात् शत्रुदमन द्रुपद ने कर्ण और दुर्योधन के सम्पूर्ण अंगों की संधियों में पृथक-पृथक अट्ठाईस बाण मारे। सुबाहु को पांच बाणों से घायल करके अन्य योद्धाओं को भी अनेक प्रकार के सायकों द्वारा सहसा बींध डाला और तब बड़े जोर से सिंहनाद किया। इस प्रकार क्रोधपूर्वक गर्जना करके सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ पाञ्चालराज द्रुपद ने शत्रुओं के धनुष, रथ, घोड़े तथा रंग-विरंगी ध्वजाओं को भी काट दिया। तत्पश्चात् सारे पाञ्चाल सैनिक सिंह समूह के समान गर्जना करने लगे। फिर तो उस नगर के सभी निवासी कौरवों पर टूट पड़े और बरसने वाले बादलों की भाँति उन पर मूसल एवं डंडों की वर्षा करने लगे। उस समय बालक से लेकर बुढ़े तक सभी पुरवासी कौरवों का सामना कर रहे थे।
जनमेजय! गुप्तचरों के मुख से यह समाचार सुनकर कि वहाँ तुमुल युद्ध हो रहा है, कौरव वहाँ नहीं के बराबर हो गये हैं, पाञ्चालराज द्रुपद के बाणों से कर्ण के सम्पूर्ण अंग क्षत-विक्षत हो गये, वह भयभीत हो रथ से कूद कर भाग चला है तथा कौरव-सैनिक चीखने-चिल्लाते और कराहते हुए हम पाण्डवों की ओर भागते आ रहे हैं; पाण्डव लोग पीड़ित सैनिकों का रोमाञ्चकारी आर्तनाद कान में पड़ते ही आचार्य द्रोण को प्रणाम करके रथों पर जा बैठे और वहाँ से चल दिये। अर्जुन ने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को यह कहकर रोक दिया कि ‘आप युद्ध न कीजिये’। उस समय अर्जुन ने माद्रीकुमार नकुल और सहदेव को अपने रथ के पहियों का रक्षक बनाया, भीमसेन सदा गदा हाथ में लेकर सेना के आगे-आगे चलते थे। तब शत्रुओं का सिंहनाद सुनकर भाइयों सहित निष्पाप अर्जुन रथ की घरघराहट से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए बड़े वेग से आगे बढ़े।
पाञ्चालों की सेना उत्ताल तरंगों वाले विक्षुब्ध महासागर की भाँति गर्जना कर रही थी। महाबाहु भीमसेन दण्डपाणि यमराज की भाँति उस विशाल सेना में घुस गये, ठीक उसी तरह जैसे समुद्र में मगर प्रवेश करता है। गदाधारी भीम स्वयं हाथियों की सेना पर टूट पड़े। कुन्तीकुमार भीम युद्ध में कुशल तो ये ही, बाहुबल में भी उनकी समानता करने वाला कोई नहीं था। उन्होंने कालरूप धारण कर गदा की मार से उस गज सेना का संहार आरम्भ किया। भीमसेन की गदा से मस्तक फट जाने के कारण वे पर्वतों के समान विशालकाय गजराज लहू के झरने बहाते हुए वज्र के आघात से (पंख कटे हुए) पहाड़ों की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ते थे। अर्जुन के बड़े भाई पाण्डुनन्दन भीम ने हाथियों, घोड़ों एवं रथों को धराशायी कर दिया। पैदलों तथा रथियों का संहार कर डाला। जैसे ग्वाला वन में डंडे से पशुओं को हांकता है, उसी प्रकार भीमसेन रथियों और हाथियों को खदेड़ते हुए उनका पीछा करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 35-54 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! उस समय द्रोणाचार्य का प्रिय करने के लिये उद्यत हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन द्रुपद पर बाण समूहों की वर्षा करते हुए उन पर चढ़ आये। वे रणभूमि में घोड़ों, रथों और हाथियों के झुंडों का सब ओर से संहार करते हुए प्रलयकालीन अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। उनके बाणों से घायल हुए पाञ्चाल और सृंजय वीरों ने तुरंत ही नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करके अर्जुन को सब ओर से ढक दिया और मुख से सिंहनाद करते हुए उनसे लोहा लेना आरम्भ किया। वह युद्ध अत्यन्त भयानक और देखने में बड़ा ही अद्भुत था। शत्रुओं का सिंहनाद सुनकर इन्द्रकुमार अर्जुन उसे सहन न कर सके। उस युद्ध में किरीटधारी पार्थ ने बाणों का बड़ा भारी जाल-सा बिछाकर पाञ्चालों को आच्छादित और मोहित-सा करते हुए उन पर सहसा आक्रमण किया। यशस्वी अर्जुन बड़ी फुर्ती से बाण छोड़ते और निरन्तर नये-नये बाणों का संधान करते थे। उनके धनुष पर बाण रखने और छोड़ने में थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं दिखाई पड़ता था।
महाराज! उस युद्ध में न तो दिशाओं का पता चलता था न आकाश और न पृथ्वी अथवा और कुछ भी ही दिखायी देता था। बलवान् वीर गाण्डीवधारी अर्जुन अपने बाणों द्वारा घोर अन्धकार फैला दिया था। उस समय पाण्डव-दल में साधुवाद के साथ-साथ सिंहनाद हो रहा था। उधर पाञ्चालराज द्रुपद ने अपने भाई सत्यजित को साथ लेकर तीव्र गति से अर्जुन पर धावा किया, ठीक उसी तरह जैसे शम्बरासुर ने देवराज इन्द्र पर आक्रमण किया था। परंतु कुन्तीनन्दन अर्जुन ने बाणों की भारी बौछार करके पंचालनरेश को ढक दिया। और जैसे महासिंह हाथियों की यूथपति को पकड़ने की चेष्टा करता है, उसी प्रकार अर्जुन द्रुपद को पकड़ना चाहते थे कि पाञ्चालों की सेना में हाहाकार मच गया। सत्यपराक्रमी सत्यजित ने देखा कि कुन्तीपुत्र धनञ्जय पंचालनरेश को पकड़ने के लिये निकट बढ़े आ रहे हैं, तो वे उनकी रक्षा के लिये अर्जुन पर चढ़ आये; फिर तो इन्द्र और बलि की भाँति अर्जुन और पाञ्चाल सत्यजित ने युद्ध के लिये आमने-सामने आकर सारी सेनाओं को क्षोभ में डाल दिया।
तब अर्जुन ने दस मर्मभेदी बाणों द्वारा सत्यजित पर बलपूर्वक गहरा आघात करके उन्हें घायल कर दिया। यह अद्भुत–सी बात हुई। फिर पाञ्चाल वीर सत्यजित ने भी शीघ्र ही सौ बाण मारकर अर्जुन को पीड़ित कर दिया। उनके बाणों की वर्षा से आच्छादित होकर महान् वेगशाली महारथी अर्जुन ने धनुष की प्रत्यञ्चा को झाड़-पोंछकर बड़े वेग से बाण छोड़ना आरम्भ दिया और सत्यजित के धनुष को काटकर वे राजा द्रुपद पर चढ़ आये। तब सत्यजित ने दूसरा अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर तुरंत ही घोड़े, सारथि एवं रथ सहित अर्जुन को बींध डाला। युद्ध में पाञ्चाल और सत्यजित से पीड़ित हो अर्जुन उनके पराक्रम को न सह सके और उनके विनाश के लिये उन्होंने शीघ्र ही बाणों की झड़ी लगा दी। सत्यजित के घोड़े, ध्वजा, धनुष, मुट्ठी तथा पार्श्वरक्षक एवं सारथि दोनों को अर्जुन ने क्षत-विक्षत कर दिया। इस प्रकार बार-बार धनुष के छिन्न-भिन्न होने और घोड़ों के मारे जाने पर सत्यजित समरभूमि से भाग गये। राजन्! उन्हें इस तरह युद्ध से विमुख हुआ देख पंचाल नरेश द्रुपद ने पाण्डुनन्दन अर्जुन पर बड़े वेग से बाणों की वर्षा प्रारम्भ की। तब विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन ने उनसे बड़ा भारी युद्ध प्रारम्भ किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 55-77 का हिन्दी अनुवाद)
उन्होंने पंचालराज का धनुष काटकर उनकी ध्वजा को भी धरती पर काट गिराया। फिर पांच बाणों से उनके घोड़ों और सारथि को घायल कर दिया। तत्पश्चात् उस कटे हुए धनुष को त्यागकर जब वे दूसरा धनुष और तूणीर लेने लगे, उस समय अर्जुन ने म्यान से तलवार निकालकर सिंह के समान गर्जना की। और सहसा पंचाल नरेश के रथ के डंडे पर कूद पड़े। इस प्रकार द्रुपद के रथ पर चढ़कर निर्भीक अर्जुन जैसे गुरुड़ समुद्र को क्षुब्ध करके सर को पकड़ लेता है, उसी प्रकार उन्हें अपने काबू में कर लिया। तब समस्त पाञ्चाल सैनिक (भयभीत हो) दसों दिशाओं में भागने लगे। समस्त सैनिकों को अपना बाहुबल दिखाते हुए अर्जुन सिंहनाद करके वहाँ से लौटे। अर्जुन को आते देख समस्त राजकुमार एकत्र हो महात्मा द्रुपद के नगर का विध्वंस करने लगे।
तब अर्जुन ने कहा ;- भैया भीमसेन! राजाओं में श्रेष्ठ द्रुपद कौरव वीरों के सम्बन्धी हैं, अत: इनकी सेना का संहार न करो; केवल गुरुदक्षिणा के रूप में द्रोण के प्रति महाराज द्रुपद को ही दे दो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय अर्जुन के मना करने पर महाबली भीमसेन युद्धधर्म से तृप्त न होने पर भी उससे निवृत्त हो गये। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! उन पाण्डव ने यज्ञसेन द्रुपद को मन्त्रियों सहित संग्राम भूमि में बंदी बनाकर द्रोणाचार्य को उपहार के रूप में दे दिया। उनका अभिमान चूर्ण हो गया था, धन छीन लिया गया था और वे पूर्णरूप से वश में आ चुके थे; उस समय द्रोणाचार्य ने मन-ही-मन पिछले वैर का स्मरण करके राजा द्रुपद से कहा- ‘राजन्! मैंने बलपूर्वक तुम्हारे राष्ट्र को रौंद डाला। तुम्हारी राजधानी मिट्टी में मिला दी। अब तुम शत्रु के वश में पड़े हुए जीवन को लेकर यहाँ आये हो। बोलो, अब पुरानी मित्रता चाहते हो क्या?
यों कहकर द्रोणाचार्य कुछ हंसे। उसके बाद फिर उनके इस प्रकार बोले,,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘वीर! प्राणों पर संकट आया जानकर भयभीत न हो ओ। हम क्षमाशील ब्राह्मण हैं। क्षत्रिय शिरोमणे! तुम बचपन में मेरे साथ आश्रम में जो खेले-कूदे हो, उससे तुम्हारे ऊपर मेरा स्नेह एवं प्रेम बहुत बढ़ गया है। नरेश्वर! मैं पुन: तुमसे मैत्री के लिये प्रार्थना करता हूँ। राजन्! मैं तुम्हें वर देता हूं, तुम इस राज्य का आधा भाग मुझसे ले लो। यज्ञसेन! तुमने कहा था- जो राजा नहीं, वह राजा का मित्र नहीं हो सकता; इसलिये मैंने तुम्हारा राज्य लेने का प्रयत्न किया है। गंगा के दक्षिण प्रदेश के तुम राजा हो और उत्तर के भू-भाग का राजा मैं हूँ। पाञ्चाल! अब यदि उचित समझो तो मुझे अपना मित्र मानो’।
द्रुपद ने कहा ;- ब्रह्मन्! आप जैसे पराक्रमी महात्माओं में ऐसी उदारता का होना आश्चर्य की बात नहीं है। मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूँ और आपके साथ सदा रहने वाली मैत्री एवं प्रेम चाहता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! द्रुपद के यों कहने पर द्रोणाचार्य ने उन्हें छोड़ दिया और प्रसन्नचित्त हो उनका आदर-सत्कार करके उन्हें आधा राज्य दे दिया। तदनन्तर राजा द्रुपद दीनतापूर्वक हृदय से गंगा तटवर्ती अनेक जनपदों से युक्त माकन्दीपुरी में तथा नगरों में श्रेष्ठ काम्पिल्य नगर में निवास एवं चर्मण्वती नदी के दक्षिण तटवर्ती पाञ्चाल देश का शासन करने लगे। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने द्रुपद को परास्त करके पुन: उनकी रक्षा की। द्रुपद को अपने क्षात्रबल के द्वारा द्रोणाचार्य की पराजय होती नहीं दिखाई दी। वे अपने को ब्राह्मण बल से हीन जानकर (द्रोणाचार्य को पराजित करने लिये) शक्तिशाली पुत्र प्राप्त करने की इच्छा से पृथ्वी पर विचरने लगे। इधर द्रोणाचार्य ने (उत्तर-पंचालवर्ती) अहिच्छत्र नामक राज्य को अपने अधिकार में कर लिया। राजन्! इस प्रकार अनेक जनपदों से सम्पन्न अहिच्छत्रा नाम वाली नगरी को युद्ध में जीतकर अर्जुन ने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा में दे दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में द्रुपद पर द्रोण के शासन का वर्णन करने वाला एक सौ सैंतीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक, पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर एक वर्ष बीतने पर धृतराष्ट्र ने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को धृति, स्थिरता, सहिष्णुता, दयालुता, सरलता तथा अविचल सौहार्द आदि सद्गुणों के कारण पालन करने योग्य प्रजा पर अनुग्रह करने के लिये युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया। इसके बाद थोड़े ही दिनों में कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने अपने शील (उत्तम स्वभाव), वृत समाधि (मनोयोगपूर्वक प्रजापालन की प्रवृति) के द्वारा अपने पिता महाराज पाण्डु की कीर्ति को भी ढक दिया। पाण्डुनन्दन भीमसेन बलराम जी से नित्यप्रति खड्ग युद्ध, गदायुद्ध तथा रथयुद्ध की शिक्षा लेने लगे। शिक्षा समाप्त होने पर भीमसेन बल में राजा द्युमत्सेन के समान हो गये और पराक्रम से सम्पन्न हो अपने भाइयों के अनुकूल रहने लगे। अर्जुन अत्यन्त दृढ़तापूर्वक मुट्ठी से धनुष को पकड़ने में, हाथों की फुर्ती में और लक्ष्य को बींधने में बड़े चतुर निकले। वे क्षुर, नाराच, भल्ल और विपाठ नामक ऋजु, वक्र और विशाल अस्त्रों के संचालन का गूढ़ तत्त्व अच्छी तरह जानते और उनका सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते थे। इसलिये द्रोणाचार्य को यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि फुर्ती और सफाई में अर्जुन के समान दूसरा कोई योद्धा इस जगत् में नहीं है।
एक दिन द्रोण ने कौरवों की भरी सभा में निद्रा को जीतने वाले अर्जुन से कहा,,,
द्रोण बोले ;- ‘भारत! मेरे गुरु अग्निवेश नाम से विख्यात हैं। उन्होंने पूर्व काल में महर्षि अगत्स्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी। मैं उन्हीं महात्मा अग्निवेश का शिष्य हूँ। एक पात्र (गुरु) से दूसरे (सुयोग्य शिष्य) को इसकी प्राप्ति कराने के उद्देश्य से सर्वथा उद्यत होकर मैंने तुम्हें यह ब्रह्मशिर नामक अस्त्र प्रदान किया, जो मुझे तपस्या के मिला था। वह अमोघ अस्त्र वज्र के सामन प्रकाशमान है। उसमें समूची पृथ्वी को भस्म कर डालने की शक्ति है। मुझे वह अस्त्र देते समय गुरु अग्निवेश जी ने कहा था, ‘शक्तिशाली भारद्वाज! तुम यह अस्त्र मनुष्यों पर न चलाना। मनुष्येतर प्राणियों में भी जो अल्पवीर्य हों, उन पर भी इस अस्त्र को न छोड़ना।
वीर अर्जुन! इस दिव्य अस्त्र को तुमने मुझसे पा लिया है। दूसरा कोई इसे नहीं प्राप्त कर सकता। राजकुमार! इस अस्त्र के सम्बन्ध में मुनि के बताये हुए इस नियम का तुम्हें भी पालन करना चाहिये। अब तुम अपने भाई-बन्धुओं के सामने ही मुझे एक गुरु-दक्षिणा दो’।
तब अर्जुन ने प्रतिज्ञा की ;- ‘अवश्य दूंगा।’ उनके यों कहने पर,,
गुरु द्रोण बोले ;- ‘निष्पाप अर्जुन! यदि युद्ध-भूमि में मैं भी तुम्हारे विरुद्ध लड़ने को जाऊं तो तुम (अवश्य) मेरा सामना करना’। यह सुनकर कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने ‘बहुत अच्छा’ कहते हुए उनकी इस आज्ञा का पालन करने की प्रतिज्ञा की और गुरु के दोनों चरण पकड़कर उन्होंने सर्वोत्तम उपदेश प्राप्त कर लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर सब ओर अपने आप ही यह बात फैल गयी कि संसार में अर्जुन के समान दूसरा कोई धनुर्धर नहीं है। पाण्डुनन्दन धनंजय गदा, खड्ग, रथ तथा धनुष द्वारा युद्ध करने की कला में पारंगत हुए। सहदेव भी उस समय द्रोण के रूप में अवतीर्ण देवताओं के आचार्य बृहस्पति से सम्पूर्ण नीतिशास्त्र की शिक्षा पाकर नीतिमान् हो अपने भाइयों के अधीन (अनुकूल) होकर रहते थे। नकुल ने भी द्रोणचार्य से ही अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा पायी थी। वे अपने भाइयों को बहुत ही प्रिय थे और विचित्र प्रकार से युद्ध करने में उनकी बड़ी ख्याति थी। वह अतिरथी वीर कहे जाते थे। सौवीर देश का राजा, जो गन्धर्वों के उपद्रव करने पर भी लगातार तीन वर्षों तक बिना किसी विध्न-बाधा के यज्ञों का अनुष्ठान करता रहा, युद्ध में अर्जुन आदि पाण्डवों के हाथों मारा गया। पराक्रमी राजा पाण्डु भी जिसे वश में न ला सके थे, उस यवनदेश (यूनान) के राजा को भी जीतकर अर्जुन ने अपने अधीन कर लिया।
जो अत्यन्त बली तथा कौरवों के प्रति सदा अभिमान एवं उद्दण्डतापूर्ण बर्ताव करने वाला था, वह सौवीर भूमि में मारा गया। जो सदा युद्ध के लिये दृढ़ संकल्प किये रहता था, जिसे लोग दत्तामित्र के नाम से जानते थे, उस सौवीर निवासी सुमित्र का भी अर्जुन ने अपने बाणों से दमन कर दिया। इसके सिवा अर्जुन ने केवल भीमसेन की सहायता से एकमात्र रथ पर आरूढ़ हो युद्ध में पूर्व दिशा के सम्पूर्ण योद्धाओं तथा दस हजार रथियों को जीत लिया। इसी प्रकार एक मात्र रथ से यात्रा करके धनंजय ने दक्षिण दिशा पर विजय पायी और अपने ‘धनंजय’ नाम को सार्थक करते हुए कुरुदेश की राजधानी में धन की राशि पहुँचायी। जनमेजय! इस तरह नरश्रेष्ठ महामना पाण्डवों ने प्राचीन काल में दूसरे राष्ट्रों को जीतकर अपने राष्ट्र की अभिवृद्धि की। तब दृढ़तापूर्वक धनुष धारण करने वाले पाण्डवों के अत्यन्त विख्यात बल-पराक्रम की बात जानकर उनके प्रति राजा धृतराष्ट्र का भाव दूषित हो गया। अत्यन्त चिन्ता में निमग्न हो जाने के कारण उन्हें रात में नींद नहीं आती थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में धृतराष्ट्र की चिंता-विषयक एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पाण्डु के वीर पुत्रों के महान् तेजस्वी और बल में बढ़े-चढ़े सुनकर महाराज धृतराष्ट्र व्याकुल हो बड़ी चिन्ता में पड़ गये। तब उन्होंने राजनीति और अर्थ-शास्त्र के पण्डित तथा उत्तम मन्त्र के ज्ञाता मन्त्रिप्रवर कणिक को बुलाकर इस प्रकार कहा।
धृतराष्ट्र बोले ;- द्विजश्रेष्ठ! पाण्डवों की दिनों दिन उन्नति और सर्वत्र ख्याति हो रही है। इस कारण मैं उनसे डाह रखने लगा हूँ। कणिक! तुम भली-भाँति निश्चय करके बतलाओ, मुझे उनके साथ संधि करनी चाहिये या विग्रह? मैं तुम्हारी बात मानूंगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! राजा धृतराष्ट्र के इस प्रकार पूछने पर विप्रवर कणिक मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए तथा राजनीति के सिद्वान्त का परिचय देने वाली तीखी बात कहने लगे। ‘निष्पापनरेश! इस विषय में मेरी कही हुई ये बातें सुनिये। कुरुवंशशिरोमणे! इसे सुनकर आप मेरे प्रति दोष दृष्टि न कीजियेगा। राजा को सर्वदा दण्ड के लिये उद्यत रहना चाहिये और सदा ही पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये। राजा अपना छिद्र-अपनी दुर्बलता प्रकट न होने दे; परंतु दूसरों के छिद्र या दुर्बलता पर सदा ही दृष्टि रखे और यदि शत्रुओं की निर्बलता का पता चल जाय तो उन पर आक्रमण कर दे। जो सदा दण्ड देने के लिये उद्यत रहता है, उससे प्रजाजन बहुत डरते हैं; इसलिये सब कार्य दण्ड के द्वारा ही सिद्ध करे। राजा को इतनी सावधानी रखनी चाहिये, जिससे शत्रु उसकी कमज़ोरी न देख सके और यदि शत्रु की कमज़ोरी प्रकट हो जाय तो उस पर अवश्य चढ़ाई करे। जैसे कछुआ अपने अंगों की रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा अपने सब अंगों (राजा, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, बल और सुहृत) की रक्षा करे और अपनी कमज़ोरी को छिपाये रखे।
यदि कोई कार्य शुरू कर दे तो उसे पूरा किये बिना कभी न छोड़े; क्योंकि शरीर में गड़ा हुआ कांटा यदि आधा टूटकर भीतर रह जाय तो वह बहुत दिनों तक मवाद देता रहता है। अपना अनिष्ट करने वाले शत्रुओं का वध कर दिया जाय, इसी की नीतिज्ञ पुरुष प्रशंसा करते हैं। अत्यन्त पराक्रमी शत्रु को भी आपत्ति में पड़ा देख उसे सुगमतापूर्वक नष्ट कर दे। इसी प्रकार जो अच्छी तरह युद्ध करने वाला शत्रु है, उसे भी आपत्तिकाल में अनायास ही मार भगाये। आपत्ति के समय शत्रु का संहार अवश्य करे। उस समय उसके सम्बन्ध या सौहार्द आदि का विचार कदापि ने करे। तात! शत्रु दुर्बल हो, तो किसी प्रकार उसकी उपेक्षा न करे। क्योंकि जैसे थोड़ी-सी भी आग ईंधन का सहारा मिल जाने पर समूचे वन को जला देती है, उसी प्रकार छोटा शत्रु भी दुर्ग आदि प्रबल आश्रय का सहारा लेकर विनाशकारी बन जाता है। अंधा बनने का अवसर आने पर अंधा बन जाय- अर्थात अपनी असर्मथता के समय शत्रु के दोषों को न देखे। उस समय सब ओर से धिक्कार और निन्दा मिलने पर भी उसे अनसुनी कर दे, अर्थात् उसकी ओर से कान बंद करके बहरा बन जाय।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद)
ऐसे समय में अपने धनुष को तिनके के समान बना दे अर्थात शत्रु की दृष्टि में सर्वथा दीन-हीन एवं असमर्थ बन जाय; परंतु व्याध की भाँति सोये- अर्थात जैसे व्याध झूठे ही नींद का बहाना करके सो जाता है और जब मृग विश्वस्त होकर आसपास चरने लगते हैं, तब उठकर उन्हें बाणों से घायल कर देता है, उसी प्रकार शत्रु को मारने का अवसर देखते हुए ही अपने स्वरूप और मनोभाव को छिपाकर असमर्थ पुरुषों का-सा व्यवहार करे। इस प्रकार कपटपूर्ण बर्ताव से वश में आये हुए शत्रु को साम आदि उपायों से विश्वास उत्पन्न करके मार डाले। यह मेरी शरण में आया है, यह सोचकर उसके प्रति दया नहीं दिखानी चाहिये। शत्रु को मार देने से ही राजा निर्भय हो सकता है। यदि शत्रु मारा नहीं गया तो उससे सदा ही भय बना रहता है। जो सहज शत्रु है, उसे मुंह मांगी वस्तु देकर-दान के द्वारा विश्वास उत्पन्न करके मार डाले। इसी प्रकार जो पहले का अपकारी शत्रु हो और पीछे सेवक बन गया हो, उसे भी जीवित न छोड़े। शत्रुपक्ष के त्रिवर्ग, पंचवर्ग और सप्तवर्ग का सर्वथा नाश कर डाले। पहले तो सदा शत्रु पक्ष के मूल का ही उच्छेद कर डाले। तत्पश्चात् उसके सहायकों और शत्रु पक्ष से सम्बन्ध रखने वाले सभी लोगों का संहार कर दे। यदि मूल आधार नष्ट हो जाय तो उसके आश्रय से जीवन धारण करने वाले सभी शत्रु स्वत: नष्ट हो जाते हैं। यदि वृक्ष की जड़ काट दी जाय तो उसकी शाखाऐं कैसे रह सकती हैं?
राजा सदा शत्रु की गति विधि को जानने के लिये एकाग्र रहे। अपने राज्य के सभी अंगों को गुप्त रखे। राजन्! सदा अपने शत्रुओं की कमज़ोरी पर दृष्टि रखे और उनसे सदा सतर्क (सावधान) रहे। अग्निहोत्र और यज्ञ करके, गेरुए वस्त्र, जटा और मृगचर्म धारण करके पहले लोगों में विश्वास उत्पन्न करे; फिर अवसर देखकर भेड़िये की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़े और उन्हें नष्ट कर दे। कार्यसिद्धि के लिये शौच-सदाचार आदि का पालन एक प्रकार का अंकुश (लोगों को आकृष्ट करने का साधन) बताया गया है। फलों से लदी हुई वृक्ष की शाखा को अपनी ओर कुछ झुकाकर ही मनुष्य उसके पके-पके फल को तोड़े। लोक में विद्वान् पुरुषों का यह सारा आयोजन ही अभीष्ट फल की सिद्धि के लिये होता है। जब तक समय बदलकर अपने अनुकूल न हो जाय, तब तक शत्रु को कंधे पर बिठाकर ढोना पड़े, तो ढोये भी। परंतु जब अपने अनुकूल समय आ जाय, तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे, जैसे घड़े को पत्थर पर पटककर फोड़ डालते हैं। शत्रु बहुत दीनतापूर्ण वचन बोले, तो भी उसे जीवित नहीं छोड़ना चाहिये। उस पर दया नहीं करनी चाहिये। अपकारी शत्रु को मार ही डालना चाहिये। साम अथवा दान तथा भेद एवं दण्ड सभी उपायों द्वारा शत्रु को मार डाले-उसे मिटा दे’।
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- कणिक! साम, दान, भेद अथवा दण्ड द्वारा शत्रु का नाश कैसे किया जा सकता है, यह मुझे यथार्थ रुप से बताइये।
कणिक ने कहा ;- महाराज! इस विषय में नीतिशास्त्र के तत्त्व को जानने वाले एक वनवासी गीदड़ का प्राचीन वृत्तान्त सुनाता हूं, सुनिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 26-41 का हिन्दी अनुवाद)
एक वन में कोई बड़ा बुद्धिमान् और स्वार्थ साधने में कुशल गीदड़ अपने चार मित्रों– बाघ, चूहा, भेड़िया, और नेवले के साथ निवास करता था। एक दिन उन सबने हरिणों के एक सरदार को देखा, जो बड़ा बलवान् था। वे सब उसे पकड़ने में सफल न हो सके, अत: सबने मिलकर यह सलाह की।
गीदड़ ने कहा ;- भाई बाघ! तुमने वन में इस हरिण को मारने के लिये कई बार यत्न किया, परंतु यह बड़े वेग से दौड़ने वाला, जबान और बुद्धिमान है, इसलिये पकड़ में नहीं आता। मेरी राय है कि जब यह हरिण सो रहा हो, उस समय यह चूहा इसके दोनों पैरों को काट खाये। (फिर कटे हुए पैरों से यह उतना तेज नहीं दौड़ सकता।) उस अवस्था में बाघ उसे पकड़ ले; फिर तो हम सब लोग प्रसन्नचित्त होकर उसे खायेंगे। गीदड़ की यह बात सुनकर सबने सावधान होकर वैसा ही किया। चूहे द्वारा काटे हुए पैरों से लड़खड़ाते हुए मृग को बाघ ने तत्काल ही मार डाला। पृथ्वी पर हरिण के शरीर को निश्चेष्ट पड़ा देख
गीदड़ ने कहा ;- ‘आप लोगों का भला हो। स्नान करके आइये। तब तक मैं इसकी रख वाली करता हूं।’
गीदड़ के कहने से वे (बाघ आदि) सब साथी नदी में (नहाने के लिये) चले गये। इधर वह गीदड़ किसी चिन्ता में निमग्न होकर वहीं खड़ा रहा। इतने में ही महाबली बाघ स्नान करके सबसे पहले वहाँ लौट आया। आने पर उसने देखा, गीदड़ का चित्त चिन्ता से व्याकुल हो रहा है।
तब बाघ ने पूछा ;- महामते! क्यों सोच में पड़े हो? हम लोगों में तुम्ही सबसे बड़े बुद्धिमान् हो। आज इस हरिण का मांस खाकर हम लोग मौज से घूमें-फिरेंगे।
गीदड़ बोला ;- महाबाहो! चूहे ने (तुम्हारे विषय में) जो बात कही है, उसे तुम मुझसे सुनो। वह कहता था, ‘मृगों के राजा बाघ के बल को धिक्कार है! आज इस मृग को तो मैंने मारा है। मेरे बाहुबल का आश्रय लेकर आज यह अपनी भूख बुझायेगा।’ उसने इस प्रकार गरज-गरज कर (घमंड भरी) बातें कही हैं, अत: उसकी सहायता से प्राप्त हुए इस भोजन को ग्रहण करना मुझे अच्छा नहीं लगता।
बाघ ने कहा ;- यदि वह ऐसी बात कहता है, तब तो उसने इस समय मेरी आंखें खोल दीं- मुझे सचेत कर दिया। आज से मैं अपने ही बाहुबल के भरोसे वन जन्तुओं का वध किया करूंगा और उन्हीं का मांस खाऊंगा। यों कहकर बाघ वन में चला गया। इसी समय चूहा भी (नहा-धोकर ) वहाँ आ पहुँचा। उसे आया देख गीदड़ ने कहा।
गीदड़ बोला ;- चूहा भाई! तुम्हारा भला हो। नेवले ने यहाँ जो बात कही है, उसे सुन लो। वह कह रहा था कि ‘बाघ के काटने से इस हरिण का मांस जहरीला हो गया है, मैं तो इसे खाऊंगा नहीं; क्योंकि यह मुझे पसंद नहीं है। यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं चूहे को ही खा लूं’।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद)
यह बात सुनकर चूहा अत्यन्त भयभीत होकर बिल में घुस गया। राजन्! तत्पश्चात् भेड़िया भी स्नान करके वहाँ आ पहुँचा। उसके आने पर ,,
गीदड़ ने इस प्रकार कहा ;- ‘भेड़िया भाई! आज बाघ तुम पर बहुत नाराज हो गया है, अत: तुम्हारी खैर नहीं; वह अभी बाघिन को साथ लेकर यहाँ आ रहा है। इसलिये अब तुम्हे जो उचित जान पड़े, वह करो।’ गीदड़ के इस प्रकार कहने पर कच्चा मांस खाने वाला वह भेड़िया दुम दबाकर भाग गया। इतने में ही नेवला भी आ पहुँचा।
महाराज!
उस नेवले से गीदड़ ने वन में इस प्रकार कहा ;- ‘ओ नेवले! मैंने अपने बाहुबल का आश्रय ले उन सबको परास्त कर दिया है वे हार मानकर अन्यत्र चले गये। यदि तुझमें हिम्मत हो तो पहले मुझसे लड़ ले; फिर इच्छानुसार मांस खाना’।
नेवले ने कहा ;- जब बाघ, भेड़िया और बुद्धिमान् चूहा- ये सभी वीर तुमसे परास्त हो गये, तब तो तुम वीर शिरोमणि हो। मैं भी तुम्हारे साथ युद्ध नहीं कर सकता। यों कहकर नेवला भी चला गया।
कणिक कहते है ;- इस प्रकार उन सबके चले जाने पर अपनी युक्ति में सफल हो जाने के कारण गीदड़ का हृदय हर्ष से खिल उठा। तब उसने अकेले ही वह मांस खाया। राजन्! ऐसा ही अचारण करने वाला राजा सदा सुख से रहता और उन्नति को प्राप्त होता है। डरपोक को भय दिखाकर फोड़ ले तथा जो अपने से शूरवीर हो, उसे हाथ जोड़कर वश में करे। लोभी धन देकर तथा बराबर और कमज़ोर को पराक्रम से वश में करे। राजन्! इस प्रकार आपसे नीतियुक्त बर्ताव का वर्णन किया गया। अब दूसरी बातें सुनिये। पुत्र, मित्र, भाई, पिता अथवा गुरु- कोई भी क्यों न हो, जो शत्रु के स्थान पर आ जायं- शत्रुवत् बर्ताव करने लगें, तो उन्हें वैभव चाहने वाला राजा अवश्य मार डाले। सौगंध खाकर, धन अथवा जहर देकर या धोखे से भी शत्रु को मार डाले। किसी तरह भी उसकी उपेक्षा न करे। यदि दोनों राजा समान रूप से विजय के लिये यत्नशील हों और उनकी जीत संदेहास्पद जान पड़ती हो तो उनमें भी जो मेरे इस नीतिपूर्ण कथन पर श्रद्धा-विश्वास रखता है, वही उन्नति को प्राप्त होता है।
यदि गुरु भी घमंड में भरकर कर्तव्य और अकर्तव्य को न जानता हो तथा बुरे मार्ग पर चलता हो तो उसे भी दण्ड देना उचित माना जाता है। मन में क्रोध भरा हो, तो भी ऊपर से क्रोधशून्य बना रहे और मुस्कराकर बातचीत करे। कभी क्रोध में आकर किसी दूसरे का तिरस्कार न करे। भारत! शत्रु पर प्रहार करने से पहले और प्रहार करते समय भी उससे मीठे वचन ही बोले। शत्रु को मारकर भी उसके प्रति दया दिखाये, उसके लिये शोक करे तथा रोये और आंसू बहाये। शत्रु को समझा-बुझाकर, धर्म बताकर, धन देकर और सद्व्यहार करके आश्वासन दे- अपने प्रति उसके मन में विश्वास उत्पन्न करे; फिर समय आने पर ज्यों ही वह मार्ग से विचलित हो, त्यों ही उस पर प्रहार करे। धर्म के आचरण को ढोंग करने से घोर अपराध करने वाले का दोष भी उसी प्रकार ढक जाता है, जैसे पर्वत काले मेघों की घटा से ढक जाता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 59-70 का हिन्दी अनुवाद)
जिसे शीघ्र ही मार डालने की इच्छा हो, उसके घर में आग लगा दे। धनहीनों, नास्तिकों और चोरों को अपने राज्य में न रहने दे। (शत्रु के) आने पर उठकर अगवानी करे, आसन और भोजन दे और कोई प्रिय वस्तु भेंट करे। ऐसे बर्तावों से अपने प्रति जिसका पूर्ण विश्वास हो गया हो, उसे भी (अपने लाभ के लिये) मारने में संकोच न करे। सर्प की भाँति तीखे दाँतों से काटे, जिससे शत्रु फिर उठकर बैठ न सके। जिनसे भय प्राप्त होने का संदेह न हो, उनसे भी सशंक (चौकन्ना) ही रहे और जिनके भय की आशंका हो, उनकी ओर से सब प्रकार से सावधान रहे ही। जिनसे भय की शंका नहीं है, ऐसे लोगों से यदि भय उत्पन्न होता है तो वह मूलोच्छेद कर डालता है। जो विश्वासपात्र नहीं है उस पर कभी विश्वास न करे; परंतु जो विश्वासपात्र है उस पर भी अति विश्वास न करे; क्योंकि अति विश्वास से उत्पन्न होने वाला भय राजा की जड़मूल का भी नाश कर डालता है। भलीभाँति जांच-परख कर अपने तथा शत्रु राज्य में गुप्तचर रखे। शत्रु के राज्य में ऐसे गुप्तचरों को नियुक्त करे जो पाखण्ड-वेषधारी अथवा तपस्वी आदि हों। उद्यान, घूमने फिरने के स्थान, देवालय, मद्यपान के अड्डे, गली या सड़क, सम्पूर्ण तीर्थ स्थान, चौराहे, कुऐं, पर्वत, वन, नदी तथा जहाँ मनुष्यों की भीड़ इकट्ठी होती हो, उन सभी स्थानों में अपने गुप्तचरों को घुमाता रहे। राजा बातचीत में अत्यन्त विनयशील हो परंतु हृदय छूरे के समान तीखा बनाये रखे। अत्यन्त भयानक कर्म करने के लिये उद्यत हो तो भी मुस्कराकर ही वार्तालाप करे।
अवसर देखकर हाथ जोड़ना, शपथ खाना, आश्वासन देना, पैरों पर मस्तक रखकर प्रणाम करना और आशा बांधना- ये सब ऐश्वर्य प्राप्ति की इच्छा वाले राजा के कर्तव्य हैं। नितिज्ञ राजा ऐसे वृक्ष के समान रहे जिसमें फूल तो खूब लगे हों परंतु फल न हो (वह बातों से लोगों को फल की आशा दिखाये, उसकी पूर्ति न करे)। फल लगने पर भी उस पर चढ़ना अत्यन्त कठिन हो (लोगों की स्वार्थ सिद्ध में वह विध्न डाले या विलंब करे)। वह रहे तो कच्चा, पर दीखे पके के समान (अर्थात स्वार्थ साधकों की दुराशा को पूर्ण न होने दे)। कभी स्वयं जीर्ण न हो (तात्पर्य यह है कि अपना धन खर्च करके शत्रुओं का पोषण करते हुए अपने आप को निर्धन न बना दे)। धर्म अर्थ और काम- इन त्रिविध पुरुषार्थ के सेवन में तीन प्रकार की बाधा-अड़चन उपस्थित होती है। उसी प्रकार उनके तीन ही प्रकार के फल होते हैं। (धर्म का फल है अर्थ एवं काम अर्थात भोग की प्राप्ति, अर्थ का फल है धर्म का सेवन एवं भोग की प्राप्ति और काम अर्थात भोग का फल है- इन्द्रिय तृप्ति।) इन (तीन प्रकार के) फलों को शुभ (वरणीय) जानना चाहिये; परंतु (उक्त तीनों प्रकार की) बाधाओं से यत्नपूर्वक बचना चाहिये। (त्रिविध पुरुषार्थों को सेवन इस प्रकार करना चाहिये कि तीनों एक दूसरे के बाधक न हों। अर्थात जीवन में तीनों का सामञ्जस्य ही सुखदायक है।)। धर्म का अनुष्ठान करने वाले धर्मात्मा पुरुष के धर्म में काम और अर्थ- इन दोनों के द्वारा प्राप्त होने वाली पीड़ा बाधा पहुँचाती है। इसी प्रकार अर्थ लोभी के अर्थ में और अत्यन्त भोगासक्त काम में भी शेष दो वर्गों द्वारा प्राप्त होने वाली पीड़ा बाधा उपस्थित करती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 71-84 का हिन्दी अनुवाद)
राजा अपने हृदय से अहंकार को निकाल दे। चित्त को एकाग्र रखे। सब से मधुर बोले। दूसरों के दोष प्रकाशित न करे। सब विषयों पर दृष्टि रखे और शुद्ध चित्त हो द्विजों के साथ बैठकर मंत्रणा करे। राजा यदि संकट में हो तो कोमल या भयंकर –जिस किसी भी कर्म के द्वारा उस दुरवस्था से अपना उद्धार करे; फिर समर्थ होने पर धर्म का अचारण करे। कष्ट सहे बिना मनुष्य कल्याण का दर्शन नहीं करता। प्राण-संकट में पड़कर यदि वह पुन: जीवित रह जाता है तो अपना भला देखता है। जिसकी बुद्धि संकट में पड़कर शोकाविभूत हो जाय, उसे भूतकाल की बातें (राजा नल तथा श्रीरामचन्द्रजी आदि के जीवन का वृत्तान्त) सुनाकर सांत्वना दे। जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे भविष्य में लाभ की आशा दिलाकर तथा विद्वान् पुरुष को तत्काल ही धन आदि देकर शांत करे। जैसे वृक्ष के ऊपर की शाखा पर सोया हुआ पुरुष जब गिरता है, तब होश में आता है उसी प्रकार जो अपने शत्रु के साथ संधि करके कृतकृत्य की भाँति सोता (निश्चिंत हो जाता) है, वह शत्रु से धोखा खाने पर सचेत होता है। राजा को चाहिये कि वह दूसरों के दोष प्रकाशित न करके अपनी गुप्त मंत्रणा को सदा छिपाये रखने की चेष्टा करे। दूसरों के गुप्तचरों से तो अपने आकार तक को (क्रोध और हर्ष आदि को सूचित करने वाली चेष्टा तक को) गुप्त रखे; परंतु अपने गुप्तचर से सदा अपनी गुप्त मंत्रणा की रक्षा करे।
राजा मछलीमारों की भाँति दूसरों के मर्म विदीर्ण किये बिना, अत्यन्त क्रूरकर्म किये बिना तथा बहुतों के प्राण लिये बिना बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं पाता। जब शत्रु की सेना दुर्बल, रोग ग्रस्त, जल या कीचड़ में फंसी, भूख-प्यास से पीड़ित और सब ओर से विश्वस्त होकर निष्चेष्ट पड़ी हो, उस समय उस पर प्रहार करना चाहिये। धनवान् मनुष्य किसी धनी के पास नहीं जाता। जिसके सब काम पूरे हो चुके हैं, वह किसी के साथ मैत्री निभाने की चेष्टा नहीं करता; अत: अपने द्वारा सिद्ध होने वाले दूसरों के कार्य ही अधूरे रख दें (जिससे अपने कार्य के लिये उनका आना-जाना बना रहे)। ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले राजा को दूसरों के दोष न बताकर सदा आवश्यक सामग्री के संग्रह और शत्रुओं के साथ विग्रह (युद्ध) करने का प्रयत्न करते रहना चाहिये; साथ ही यत्नपूर्वक अपने उत्साह को बनाये रखना चाहिये। मित्र और शत्रु किसी को भी यह पता न चले कि राजा कब क्या करना चाहता है। कार्य के आरम्भ अथवा समाप्त हो जाने पर ही (सब) लोग उसे देखें। जब तक अपने ऊपर भय आया न हो तब तक डरे हुए की भाँति उसको टालने का प्रयत्न करना चाहिये; पंरतु जब भय को सामने आया देखें, तब निडर होकर शत्रु पर प्रहार करना चाहिये। जो मनुष्य दण्ड के द्वारा वश में किये हुए शत्रु पर दया करता है, वह मौत को ही अपनाता है- ठीक उसी तरह जैसे खच्चरी गर्भ के रुप में अपनी मृत्यु को ही उदर में धारण करती है। जो कार्य भविष्य में करना हो, उस पर बुद्धि से विचार करें और विचारने के पश्चात तदनुकूल व्यवस्था करें। इसी प्रकार जो कार्य सामने उपस्थित हो, उसे भी बुद्धि से विचार कर करे। बुद्धि से निश्चय किये बिना किसी भी कार्य या उद्देश्य का परित्याग न करे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 85-91 का हिन्दी अनुवाद)
ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले राजा को देश और काल का विभाग करके ही यत्नपूर्वक उत्साह एवं उद्यम करना चाहिये। इसी प्रकार देश-काल के विभागपूर्वक ही प्रारब्ध कर्म तथा धर्म, अर्थ और काम का सेवन करना चाहिये। देश और काल को ही मंगल के प्रधान हेतु समझना चाहिये। यही नीतिशास्त्र का सिद्वान्त है। छोटे शत्रु की भी उपेक्षा कर दी जाये, तो वह ताड़ वृक्ष की भाँति जड़ जमा लेता है और घने वन में छोड़े हुए आग की भाँति शीघ्र ही महान् विनाशकारी बन जाता है। जो मनुष्य थोड़ी-सी अग्नि के भाँति अपने आपको (सहायक सामग्रियों द्वारा धीरे-धीरे) प्रज्ज्वलित या समृद्ध करता रहता है, वह एक दिन बहुत बड़ा होकर शत्रु रूपी ईधन की बहुत बड़ी राशि को भी अपना ग्रास बना लेता है। यदि किसी को किसी बात की आशा दे तो उसे शीघ्र पूरी न करके दीघ्रकाल तक लटकाये रखे। जब उसे पूर्ण करने का समय आये, तब उसमें कोई विघ्न डाल दें और इस प्रकार समय की अवधि को बढ़ा दे। उस विघ्न के पड़ने में कोई उपयुक्त कारण बता दे और उस कारण को भी युक्तियों से सिद्ध कर दे।
लोहे का बना हुआ छूरा शान पर चढ़ाकर तेज किया जाता और चमड़े संपुट में छिपाकर रखा जाता है तो वह समय आने पर (सिर आदि अंगों के समस्त) बालों को काट देता है। उसी प्रकार राजा अनुकूल अवसर की अपेक्षा रखकर अपने मनोभाव को छिपाये हुए अनुकूल साधनों का संग्रह करता रहे और छुरे की तरह तीक्ष्ण या निर्दय होकर शत्रुओं के प्राण ले ले- उनका मूलोच्छेद कर डाले। कुरुश्रेष्ठ! आप भी इस नीति का अनुसरण करके पाण्डवों तथा दूसरे लोगों के साथ यथोचित बर्ताव करते रहें। परंतु ऐसा कार्य करें जिससे स्वयं संकट के समुद्र में डूब न जायें। आप समस्त कल्याणकारी साधनों से सम्पन्न और सबसे श्रेष्ठ हैं, यही सबका निश्चय है; अत: नरेश्वर! आप पाण्डु के पुत्रों से अपनी रक्षा कीजिये। राजन्! आपके भतीजे बलवान् हैं; अत: ऐसी नीति काम में लाइये, जिससे आगे चलकर आपको पछताना न पड़े।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! यों कहकर कणिक अपने घर को चले गये। इधर कुरुवंशी धृतराष्ट्र शोक से व्याकुल हो गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में कनिक वाक्यविषयक एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ चलीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन की चिन्ता"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर सुबलपुत्र शकुनि, राजा दुर्योधन, दु:शासन और कर्ण ने (आपस में) एक दुष्टतापूर्ण गुप्त सलाह की। उन्होंने कुरुनन्दन महाराज धृतराष्ट्र से आज्ञा लेकर पुत्रों सहित कुन्ती को आग में जला डालने का विचार किया। तत्त्वज्ञानी विदुर उनकी चेष्टाओं से उनके मन का भाव समझ गये और उनकी आकृति ही उन दुष्टों की गुप्त मन्त्रणा का भी उन्होंने पता लगा लिया। विदुर जी ने मन-ही-मन जानने योग्य सभी बातें जान लीं। वे सदा पाण्डवों के हित में संलग्न रहते थे, अत: निष्पाप विदुर ने यही निश्चय किया कि कुन्ती अपने पुत्रों के साथ यहाँ से भाग जाय। उन्होंने एक सुदृढ़ नाव बनवायी, जिसे चलाने के लिये उसमें यन्त्र लगाया था। वह वायु के वेग और लहरों के थपेड़ों का सामना करने में समर्थ थी। उसमें झंडियां और पताकाऐं फहरा रही थीं।
उस नाव को तैयार कराके विदुर जी ने कुन्ती से कहा,,
विदुर जी बोले ;- ‘देवि! राजा धृतराष्ट्र इस कुरुकुल की कीर्ति एवं वंशपरम्परा का नाश करने वाले पैदा हुए हैं। इनका चित्त पुत्रों के प्रति ममता से व्याप्त हुआ है, इसलिये ये सनातन धर्म का त्याग कर रहे हैं। शुभे! जल के मार्ग में यह नाव तैयार है, जो हवा और लहरों के वेग को भली-भाँति सह सकती है। इसी के द्वारा (कहीं अन्यत्र जाकर) तुम पुत्रों सहित मौत की फांसी से छूट सकोगी’।
भरतश्रेष्ठ! यह बात सुनकर यशस्विनी कुन्ती को बड़ी व्यथा हुई। वे पुत्रों सहित (वारणावत के लाक्षागृह से बचकर) नाव पर जा चढ़ीं और गंगा जी की धारा पर यात्रा करने लगीं। तदनन्तर विदुर जी के कहने से पाण्डवों ने नाव को वहीं डुबा दिया और उन कौरवों के लिये हुए धन को लेकर विघ्न-बाधाओं से रहित वन में प्रवेश किया। वारणावत के उस लाक्षागृह में निषाद जाति की एक स्त्री किसी कारण वश अपने पांच पुत्रों के साथ आकर ठहर गयी थी। वह बेचारी निरपराध होने पर भी उसमें पुत्रों सहित जलकर भस्म हो गयी। म्लेच्छों में (भी) नीच पापी पुरोचन भी उसी घर में जल मरा और धृतराष्ट्र के दुरात्मा पुत्र अपने सेवकों सहित धोखा खा गये। विदुर की सलाह के अनुसार काम करने वाले महात्मा कुन्ती पुत्र अपनी माता के साथ मृत्यु से बच गये। उन्हें किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँची। साधारण लोगों को उनके जीवित रहने की बात ज्ञात न हो सकी।
तदनन्तर वारणावत नगर में वहाँ के लोगों ने लाक्षागृह को दग्ध हुआ देख (अत्यन्त) दुखी हो पाण्डवों के लिये (बड़ा) शोक किया। तथा राजा धृतराष्ट्र के पास यथावत् समाचार कहने के लिये किसी को भेजकर कहलाया- ‘कुरुनन्दन! तुम्हारा महान् मनोरथ पूरा हो गया। पाण्डवों को तुमने जला दिया। सब तुम कृतार्थ हो जाओ और पुत्रों के साथ राज्य भोगो’ यह सुनकर पुत्र सहित धृतराष्ट्र शोकमग्न हो गये। उन्होंने, विदुर जी ने तथा कुरुकुल शिरोमणि भीष्म जी ने भी भाई-बन्धुओं के साथ (पुतल-विधि से) पाण्डवों के प्रेतकार्य (दाह और श्राद्ध आदि) सम्पन्न किये।
जनमेजय बोले ;- विप्रवर! मैं लाक्षागृह जलने और पाण्डवों के उससे बच जाने का वृत्तान्त पुन: विस्तार से सुनना चाहता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)
क्रूर कणिक के उपदेश किया हुआ कौरवों का यह कर्म अत्यन्त निर्दयता पूर्ण था। आप उसका ठीक-ठीक वर्णन कीजिये। मुझे यह सब सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही है।
वैशम्पायन जी ने कहा ;- शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! मैं लाक्षागृह के जलने और पाण्डवों का उससे बच जाने का वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहता हूं, सुनो। भीमसेन को सबसे अधिक बलवान् और अर्जुन का अस्त्र-विद्या में सबसे श्रेष्ठ देखकर दुर्योधन सदा संतप्त होता रहता था। उसके मन में बड़ा दु:ख था। तब सूर्य पुत्र कर्ण और सुबलकुमार शकुनि आदि अनेक उपायों से पाण्डवों को मारने की इच्छा करने लगे। पाण्डवों ने भी जब जैसा संकट आया, सबका निवारण किया और विदुर की सलाह मानकर वे कौरवों के षडयन्त्र का कभी भंडाफोड़ नहीं करते थे। भारत! उन दिनों पाण्डवों को सर्वगुण सम्पन्न देख नगर के निवासी भरी सभाओं में उनके सद्गुणों की प्रशंसा करते थे। वे जहाँ कहीं चौराहों पर और सभाओं में इकट्ठे होते वहीं पाण्डु के ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर को राज्य प्राप्ति के योग्य बताते थे। वे कहते, ‘प्रज्ञाचक्षु महाराज धृतराष्ट्र नेत्रहीन होने के कारण जब पहले ही राज्य न पा सके, तब (अब) वे कैसे राजा हो सकते हैं। महान व्रत का पालन करने वाले शंतनुनन्दन भीष्म तो सत्यप्रतिज्ञ हैं। वे पहले ही राज्य ठुकरा चुके हैं, अत: अब उसे कदापि ग्रहण न करेंगे। पाण्डवों के बड़े भाई युधिष्ठिर यद्यपि अभी तरुण है, तो भी उनका शील-स्वभाव वृद्धों के समान है। वे सत्यवादी, दयालु और वेदवेत्ता हैं; अत: अब हम लोग उन्हीं का विधिपूर्वक राज्यभिषेक करें। महाराज युधिष्ठिर बड़े धर्मज्ञ हैं। वे शन्तनुनन्दन भीष्म तथा पुत्रों सहित धृतराष्ट्र का आदर करते हुए उन्हें नाना प्रकार के भोगों से सम्पन्न रखेंगे’।
युधिष्ठिर में अनुरक्त हो उपर्युक्त उद्गगार प्रकट करने वाले लोगों की बातें सुनकर खोटी बुद्धि वाला दुर्योधन भीतर-ही-भीतर जलने लगा। इस प्रकार संतप्त हुआ वह दुष्टात्मा लोगों की बातों को सहन न कर सका। वह ईर्ष्या की आग से जलता हुआ धृतराष्ट्र के पास आया। वहाँ अपने पिता को अकेला पाकर पुरवासियों के युधिष्ठिर विषयक अनुराग से दुखी हुए दुर्योधन ने पहले पिता के प्रति आदर प्रदर्शित किया तत्पश्चात इस प्रकार कहा।
दुर्योधन बोला ;- पिता जी! मैंने परस्पर वार्तालाप करते हुए पुरवासियों के मुख से (बड़ी) अशुभ बातें सुनी हैं। वे आपका और भीष्म जी का अनादर करके पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को राजा बनाना चाहते हैं। भीष्म जी तो इस बात को मान लेंगे; क्योंकि वे स्वयं राज्य भोगना नहीं चाहते। परंतु नगर के लोग हमारे लिये बहुत बड़ कष्ट का आयोजन करना चाहते हैं। पाण्डु ने अपने सद्गुणों के कारण पिता से राज्य प्राप्त कर लिया और आप अंधे होने के कारण अधिकार प्राप्त राज्य को भी न पा सके। यदि ये पाण्डुकुमार युधिष्ठिर पाण्डु के राज्य को, जिसका उत्तराधिकारी पुत्र ही होता है, प्राप्त कर लेते हैं तो निश्चय ही उनके बाद उनका पुत्र ही इस राज्य का अधिकारी होगा और उसके बाद पुन: उसी की पुत्र परम्परा में दूसरे-दूसरे लोग इसके अधिकारी होते जायेंगे। महाराज! ऐसी दशा में हम लोग अपने पुत्रों सहित राज्य परम्परा से वंचित होने के कारण सब लोगों की अवहेलना के पात्र बन जायेंगे। राजन्! आप कोई ऐसी नीति काम में लाइये जिससे हमें दूसरों के दिये हुए अन्न से गुजारा करके सदा नरक तुल्य कष्ट न भोगना पड़े। राजन्! यदि पहले ही आपने यह राज्य पा लिया होता तो आज हम अवश्य ही इसे प्राप्त कर लेते; फिर तो लोगों का कोई वश नहीं चलता।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत जतुगृह पर्व में दुर्योधन की ईर्ष्याविषयक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
ये भी पड़े...👇
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें