सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ इकत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा, एकलव्य की गुरुभक्ति तथा आचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर मनुष्यों में श्रेष्ठ महातेजस्वी द्रोणाचार्य ने भीष्म जी के द्वारा पूजित हो कौरवों के घर में विश्राम किया। वहाँ उनका बड़ा सम्मान किया गया। गुरु द्रोणाचार्य जब विश्राम कर चुके, तब सामर्थ्यशाली भीष्म जी ने अपने कुरुवंशी पौत्रों को लेकर उन्हें शिष्य रूप में समर्पित किया। साथ ही अत्यन्त प्रसन्न होकर भरद्वाजनन्दन द्रोण को नाना प्रकार के धन-रत्न और सुन्दर सामग्रियों से सुसज्जित तथा धन-धान्य से सम्पन्न भवन प्रदान किया। महाधर्नुधर आचार्य द्रोण ने प्रसन्नचित्त होकर उन धृतराष्ट्रपुत्रों तथा पाण्डवों को शिष्यरूप में ग्रहण किया। उन सबको ग्रहण कर लेने पर एक दिन एकान्त में जब द्रोणाचार्य पूर्ण विश्वासयुक्त मन से अकेले बैठे थे, तब उन्होंने अपने पास बैठे हुए सब शिष्यों से यह बात कही।
द्रोण बोले ;- निष्पाप राजकुमारों! मेरे मन में एक कार्य करने की इच्छा है। अस्त्र शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात् तुम लोगों को मेरी यह इच्छा पूर्ण करनी होगी। इस विषय में तुम्हारे क्या विचार हैं, बतलाओ
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- शत्रुओं को संताप देने वाले राजा जनमेजय! आचार्य की यह बात सुनकर सब कौरव चुप रह गये; परंतु अर्जुन ने वह सब कार्य पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। तब आचार्य ने बारम्बार अर्जुन का मस्तक सूंघा और उन्हें प्रेमपूर्वक हृदय से लगाकर वे हर्ष के आवेश में रो पड़े। तब पराक्रमी द्रोणाचार्य पाण्डवों (तथा अन्य शिष्यों) को नाना प्रकार के दिव्य एवं मानव अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने लगे। भरतश्रेष्ठ! उस समय दूसरे-दूसरे राजकुमार भी अस्त्र विद्या की शिक्षा लेने के लिये द्विजश्रेष्ठ द्रोण के पास आने लगे। वष्णिवंशी तथा अन्धकवंशी क्षत्रिय, नाना देशों के राजकुमार तथा राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण- ये सभी आचार्य द्रोण के पास (अस्त्र-शिक्षा लेने के लिये) आये। सूतपुत्र कर्ण सदा अर्जुन से लाग-डांट रखता और अत्यन्त अमर्ष में भरकर दुर्योधन का सहारा ले पाण्डवों का अपमान किया करता था।
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पाण्डुनन्दन अर्जुन (सदा अभ्यास में लगे रहने से) धनुर्वेद की जिज्ञासा, शिक्षा, बाहुबल और उद्योग की दृष्टि से उन सभी शिष्यों में श्रेष्ठ एवं आचार्य द्रोण की समानता करने योग्य हो गये। उनका अस्त्रविद्या में बड़ा अनुराग था, इसलिये वे तुल्य अस्त्रों के प्रयोग, फुर्ती और सफाई में भी सबसे बढ़-चढ़कर निकले। आचार्य द्रोण उपदेश ग्रहण करने में अर्जुन को अनुपम प्रतिभाशाली मानते थे। इस प्रकार आचार्य सब कुमारों को अस्त्रविद्या की शिक्षा देते रहे। वे अन्य सभी शिष्यों को तो पानी लाने के लिये कमण्डल देते, जिससे उन्हें लौटने में कुछ विलम्ब हो जाय; परंतु अपने पुत्र अश्वत्थामा को बड़े मुंह का घड़ा देते, जिससे उसके लौटने में विलम्ब न हो (अत: अश्वत्थामा सबसे पहले पानी भरकर उनके पास लौटा आता था)। जब तक दूसरे शिष्य लौट नहीं आते, तब तक वे अपने पुत्र अश्वत्थामा को अस्त्र संचालन की कोई उत्तम विधि बतलाते थे। अर्जुन ने उनके इस कार्य को जान लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)
अत: वे वारुणास्त्र से तुरंत ही अपना कमण्डल भरकर आचार्य पुत्र के साथ ही गुरु के समीप आ जाते थे, इसलिये आचार्य पुत्र से किसी भी गुण की वृद्धि में वे अलग या पीछे न रहे। यही कारण था कि मेघावी अर्जुन अश्वत्थामा से किसी बात में कम न रहे। वे अस्त्र वेत्ताओं में सबसे श्रेष्ठ थे। अर्जुन गुरुदेव की सेवा-पूजा के लिये उत्तम यत्न करते थे। अस्त्रों के अभ्यास में भी उनकी अच्छी लगन थी। इसीलिये वे द्रोणाचार्य के बड़े प्रिय हो गये। अर्जुन को धनुष-बाण के अभ्यास में निरन्तर लगा हुआ देख द्रोणाचार्य ने रसोईये को एकान्त में बुलाकर कहा,,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘तुम अर्जुन को कभी अंधेरे में भोजन न परोसना और मेरी यह बात भी अर्जुन से कभी न कहना’। तदनन्तर एक दिन जब अर्जुन भोजन कर रहे थे, बड़े जोर से हवा चलने लगी; उससे वहाँ का जलता हुआ दीपक बुझ गया। उस समय भी कुन्तीनन्दन अर्जुन भोजन करते ही रहे। उन तेजस्वी अर्जुन का हाथ अभ्यास वश अंधेरे में भी मुख से अन्यत्र नहीं जाता था। उसे अभ्यास का ही चमत्कार मानकर महाबाहु पाण्डुनन्दन अर्जुन रात में भी धनुर्विधा का अभ्यास करने लगे। भारत! उनके धनुष की प्रत्यञ्चा का टंकार द्रोण ने सोते समय सुना। तब वे उठकर उनके पास गये और उन्हें हृदय से लगाकर बोले।
द्रोण ने कहा ;- अर्जुन! मैं ऐसा करने का प्रयत्न करूंगा, जिससे इस संसार में दूसरा कोई धर्नुधर तुम्हारे समान न हो। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हू।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर द्रोणाचार्य अर्जुन को पुन: घोड़ों, हाथियों, रथों तथा भूमि पर रहकर युद्ध करने की शिक्षा देने लगे। उन्होंने कौरवों को गदायुद्ध, खड्ग चलाने तथा तोमर, प्रास और शक्तियों के प्रयोग की कला एवं एक ही साथ अनेक शस्त्रों के प्रयोग अथवा अकेले ही अनेक शत्रुओं से युद्ध करने की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का यह अस्त्र कौशल सुनकर सहस्रों राजा और राजकुमार धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिये वहाँ एकत्रित हो गये। महाराज! तदनन्तर निषादराज हिरण्यधनुका का पुत्र एकलव्य द्रोण के पास आया। परंतु उसे निषादपुत्र समझकर धर्मज्ञ आचार्य ने धनुर्विद्या विषयक शिष्य नहीं बनाया।
कौरवों की ओर दृष्टि रखकर ही उन्होंने ऐसा किया। शत्रुओं को संताप देने वाले एकलव्य ने द्रोणाचार्य के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और वन में लौटकर उनकी मिट्टी की मूर्ति बनायी तथा उसी में आचार्य की परमोच्च भावना रखकर उसने धनुर्विधा का अभ्यास प्रारम्भ किया। वह बड़े नियम के साथ रहता था। आचार्य में उत्तम श्रद्धा रखकर और भारी अभ्यास बल से उसने बाणों के छोड़ने, लौटाने और संधान करने में बड़ी अच्छी फुर्ती प्राप्त कर ली। शत्रुओं का दमन करने वाले जनमेजय! तदनन्तर एक दिन समस्त कौरव और पाण्डव आचार्य द्रोण की अनुमति से रथों पर बैठकर (हिंसक पशुओं का) शिकार खेलने के लिये निकले। इस कार्य के लिये आवश्यक सामग्री लेकर कोई मनुष्य स्वेच्छानुसार अकेला ही उन पाण्डवों के पीछे-पीछे चला। उसने साथ में एक कुत्ता भी ले रखा था। वे सब अपना-अपना काम पूरा करने की इच्छा से वन में इधर-उधर विचर रहे थे। उनका वह मूढ़ कुत्ता वन में घूमता-घामता निषाद पुत्र एकलव्य के पास जा पहुँचा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 39-55 का हिन्दी अनुवाद)
एकलव्य के शरीर का रंग काला था। उसके अंगों में मैल जम गया था और उसने काला मृगचर्म एवं जटा धारण कर रखी थी। निषादपुत्र को इस रूप में देखकर वह कुत्ता भौं-भौं करके भूंकता हुआ उसके पास खड़ा हो गया। यह देख भील ने अस्त्रलाघव का परिचय देते हुए उस भूंकने वाले कुत्ते के मुख में मानो एक ही साथ सात बाण मारे। उसका मुंह बाणों से भर गया और वह उसी अवस्था में पाण्डवों के पास आया। उसे देखकर पाण्डव वीर बड़े विस्मय में पड़े। वह हाथ की फुर्ती और शब्द के अनुसार लक्ष्य वेधने की उत्तम शक्ति देखकर उस समय सब राजकुमार उस कु्त्ते की ओर दृष्टि डालकर लज्जित हो गये और सब प्रकार से बाण मारने वाले की प्रशंसा करने लगे। राजन्! तत्पश्चात् पाण्डवों ने उस वनवासी वीर की वन में खोज करते हुए उसे निरन्तर बाण चलाते हुए देखा। उस समय उसका रुप बदल गया था। पाण्डव उसे पहचान न सके;
अत: पूछने लगे ;- ‘तुम कौन हो, किसके पुत्र हो?’
एकलव्य ने कहा ;- वीरो! आप लोग मुझे निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र तथा द्रोणाचार्य का शिष्य जानें। मैंने धनुर्वेद में विशेष परिश्रम किया है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! वे पाण्डव लोग उस निषाद का यथार्थ परिचय पाकर लौट आये और वन में जो अद्भुत घटना घटी थी, वह सब उन्होंने द्रोणाचार्य से कह सुनायी। जनमेजय! कुन्तीनन्दन अर्जुन बार-बार एकलव्य का स्मरण करते हुए एकान्त में द्रोण से मिलकर प्रेमपूर्वक यों बोले।
अर्जुन ने कहा ;- आचार्य! उस दिन तो आपने मुझ अकेले को हृदय से लगाकर बड़ी प्रसन्नता के साथ यह बात कही थी कि मेरा कोई भी शिष्य तुमसे बढ़कर नहीं होगा। फिर आप का यह अन्य शिष्य निषादराज का पुत्र अस्त्रविद्या में मुझसे बढ़कर कुशल और सम्पूर्ण लोक से भी अधिक पराक्रमी कैसे हुआ?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! आचार्य द्रोण उस निषाद पुत्र के विषय में दो घड़ी तक कुछ सोचते-विचारते रहे; फिर कुछ निश्चय करके वे सव्यसाची अर्जुन को साथ ले उसके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने एकलव्य को देखा, जो हाथ में धनुष ले निरन्तर बाणों की वर्षा कर रहा था। उसके शरीर पर मैल जम गया था। उसने सिर पर जटा धारणकर रखी थी और वस्त्र के स्थान पर चिथड़े लपेट रखे थे। इधर एकलव्य ने आचार्य द्रोण को समीप आते देख आगे बढ़कर उनकी अगवानी की और उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर माथा टेक दिया। फिर उस निषादकुमार ने अपने को शिष्य रूप से उनके चरणों में समर्पित करके गुरु द्रोण की विधिपूर्वक पूजा की और हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो गया। राजन्!
तब द्रोणाचार्य ने एकलव्य से यह बात कही ;- ‘वीर! यदि तुम मेरे शिष्य हो तो मुझे गुरुदक्षिणा दो’। यह सुनकर एकलव्य बहुत प्रसन्न हुआ और इस प्रकार बोला।
एकलव्य ने कहा ;- भगवन्! मैं आपको क्या दूं? स्वयं गुरुदेव ही मुझे इसके लिये आज्ञा दें। ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ आचार्य! मेरे पास कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो गुरु के लिये अदेय हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 56-70 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब द्रोणाचार्य ने उससे कहा- ‘तुम मुझे दाहिने हाथ का अंगूठा दे दो’। द्रोणाचार्य का यह दारुण वचन सुनकर सदा सत्य पर अटल रहने वाले एकलव्य ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए पहले की ही भाँति प्रसन्नमुख और उदारचित्त रहकर बिना कुछ सोच-विचार किये अपना दाहिना अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया। द्रोणाचार्य निषादनन्दन एकलव्य को सत्यप्रतिज्ञ देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने संकेत से उसे यह बता दिया कि तर्जनी और मध्यमा के संयोग से बाण पकड़कर किस प्रकार धनुष की डोरी खींचनी चाहिये। तब से वह निषादकुमार अपनी अंगुलियों द्वारा ही बाणों का संधान करने लगा। राजन्! उस अवस्था में वह उतनी शीघ्रता से बाण नहीं चला पाता था, जैसे पहले चलाया करता था। इस घटना से अर्जुन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी भारी चिन्ता दूर हो गयी। द्रोणाचार्य का भी यह कथन सत्य हो गया कि अर्जुन को दूसरा कोई पराजित नहीं कर सकता।
उस समय द्रोण के दो शिष्य गदा युद्ध में सुयोग्य निकले- दुर्योधन और भीमसेन। ये दोनों सदा एक दूसरे के प्रति मन में क्रोध (स्पर्द्धा) से भरे रहते थे। अश्वत्थामा धनुर्वेद के रहस्यों की जानकारी में सबसे बढ़-चढ़कर हुआ। नकुल और सहदेव दोनों भाई तलवार की मूठ पकड़कर युद्ध करने में अत्यन्त कुशल हुए। वे इस कला में अन्य सब पुरुषों से बढ़-चढ़कर थे। युधिष्ठिर रथ पर बैठकर युद्ध करने में श्रेष्ठ थे। परंतु अर्जुन सब प्रकार की युद्ध-कला में सबसे बढ़कर थे। वे समुद्र पर्यन्त सारी पृथ्वी में रथ यूथपतियों के भी यूथपति के रूप में प्रसिद्ध थे। बुद्धि, मन की एकग्रता, बल और उत्साह के कारण वे सम्पूर्ण अस्त्रविद्याओं में प्रवीण हुए। अस्त्रों के अभ्यास तथा गुरु के प्रति अनुराग में भी अर्जुन का स्थान सबसे ऊंचा था। यद्यपि सबको समान रूप से अस्त्रविद्या का उपदेश प्राप्त होता था तो भी पराक्रमी अर्जुन अपनी विशिष्ट प्रतिभा के कारण अकेले ही समस्त कुमारों में अतिरथी हुए।
धृतराष्ट्र के पुत्र बड़े दुरात्मा थे। वे भीमसेन को बल में अधिक और अर्जुन को अस्त्रविद्या में प्रवीण देखकर परस्पर सहन नहीं कर पाते थे। जब सम्पूर्ण धनुर्विद्या तथा अस्त्र-संचालन की कला में वे सभी कुमार सुशिक्षित हो गये, तब नरश्रेष्ठ द्रोण ने उन सबको एकत्र करके उनके अस्त्र ज्ञान की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्होंने कारीगरों से एक नकली गीध बनवाकर वृक्ष के अग्रभाग पर रखवा दिया। राजकुमारों को इसका पता नहीं था। आचार्य ने उसी गीध को बींधने योग्य लक्ष्य बताया।
द्रोण बोले ;- तुम सब लोग इस गीध को बींधने के लिये शीघ्र ही धनुष लेकर उस पर बाण चढ़ाकर खड़े हो जाओ। फिर मेरी आज्ञा मिलने के साथ ही इसका सिर काट गिराओ। पुत्रो! मैं एक-एक को बारी-बारी से इस कार्य में नियुक्त करूंगा; तुम लोग बताये अनुसार कार्य करो।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 71-79 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर अंगिरा गोत्र वाले ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ आचार्य द्रोण ने सबसे पहले युधिष्ठिर से कहा- “दुर्धर्षवीर! तुम धनुष पर बाण-चढ़ाओ और मेरी आज्ञा मिलते ही उसे छोड़ दो’। तब शत्रुओं को संताप देने वाले युधिष्ठिर गुरु की आज्ञा से प्रेरित हो सबसे पहले धनुष लेकर गीध को बींधने के लिये लक्ष्य बनाकर खड़े हो गये। भरतश्रेष्ठ! तब धनुष तानकर खड़े हुए कुरुनन्दन युधिष्ठिर से दो घड़ी बाद आचार्य द्रोण ने इस प्रकार कहा,,,
आचार्य द्रोण बोले ;- ‘राजकुमार! वृक्ष की शिखा पर बैठे हुए इस गीध को देखो।’
तब युधिष्ठिर ने आचार्य को उत्तर दिया ;- ‘भगवन्! मैं देख रहा हूं’। मानो दो घड़ी और बिताकर द्रोणाचार्य फिर उनसे बोले।
द्रोण ने कहा ;- क्या तुम इस वृक्ष को, मुझ को अथवा अपने भाइयों का भी देखते हो?
यह सुनकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर उनसे इस प्रकार बोले ;- ‘हां, मैं इस वृक्ष को, आपको, अपने भाइयों तथा गीध को भी बारंबार देख रहा हूं’। उनका उत्तर सुनकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन अप्रसन्न- से हो गये और उन्हें झिड़कते हुए बोले,,
आचार्य द्रोण बोले ;- ‘हट जाओ यहाँ से, तुम इस लक्ष्य को नहीं बींध सकते’।
तदनन्तर महायशस्वी आचार्य ने उसी क्रम से दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र पुत्रों को भी उनकी परीक्षा लेने के लिये बुलाया और उन सबने उपर्युक्त बातें पूछीं। उन्होंने भीम आदि अन्य शिष्यों तथा दूसरे देश के राजाओं से भी, जो वहाँ शिक्षा पा रहे थे, वैसा ही प्रश्न किया।
प्रश्न के उत्तर में सभी (युधिष्ठिर की भाँति ही) कहा ;- ‘हम सब कुछ देख हैं।’ यह सुनकर आचार्य ने उन सबको झिड़ककर हटा दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में आचार्य द्रोण के द्वारा शिष्यों की परीक्षा से सम्बंध रखने वाला एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वात्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"अर्जुन के द्वारा लक्ष्यवेध, द्रोण का ग्राह से छुटकारा और अर्जुन को ब्रह्मशिर नामक अस्त्र की प्राप्ति"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर द्रोणाचार्य ने अर्जुन से मुस्कराते हुए कहा,,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘अब तुम्हें इस लक्ष्य का वेध करना है। इसे अच्छी तरह देख लो। मेरी आज्ञा मिलने के साथ ही तुम्हें इस पर बाण छोड़ना होगा। बेटा! धनुष तानकर खड़े हो जाओ और दो घड़ी मेरे आदेश की प्रतीक्षा करो’। उनके ऐसा कहने पर अर्जुन ने धनुष को इस प्रकार खींचा कि वह मण्डलाकार (गोल) प्रतीत होने लगा। फिर वे गुरु की आज्ञा से प्रेरित हो गीध की ओर लक्ष्य करके खड़े हो गये। मानो दो घड़ी बाद द्रोणाचार्य ने उनसे भी उसी प्रकार प्रश्न किया- ‘अर्जुन! क्या तुम उस वृक्ष पर बैठे हुए गीध को, वृक्ष को और मुझे भी देखते हो?’ जनमेजय! यह प्रश्न सुनकर ,,
अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा ;- ‘मैं केवल गीध को देखता हूँ। वृक्ष को अथवा आपको नहीं देखता’। इस उत्तर से द्रोण का मन प्रसन्न हो गया। मानो दो घड़ी बाद दुर्धर्ष द्रोणाचार्य ने पाण्डव- महारथी अर्जुन से फिर पूछा,,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘वत्स! यदि तुम इस गीध को देखते हो तो फिर बताओ, उसके अंग कैसे हैं?’
अर्जुन बोले ;- ‘मैं गीध का मस्तक भर देख रहा हूं, उसके सम्पूर्ण शरीर को नहीं।’ अर्जुन के यों कहने पर द्रोणाचार्य के शरीर में (हर्षातिरेक से) रोमाञ्च हो गया और वे अर्जुन से बोले, ‘चलाओ बाण’! अर्जुन ने बिना सोचे-विचारे बाण छोड़ दिया। फिर तो पाण्डुनन्दन अर्जुन ने अपने चलाये हुए तीखे क्षुर नामक बाण से वृक्ष पर बैठे हुए उस गीध का मस्तक वेगपूर्वक काट गिराया। इस कार्य में सफलता प्राप्त होने पर आचार्य ने अर्जुन को हृदय से लगा लिया और उन्हें यह विश्वास हो गया कि राजा द्रुपद युद्ध में अर्जुन द्वारा अपने भाई-बन्धुओं सहित अवश्य पराजित हो जायंगे।
भरतश्रेष्ठ तदनन्तर किसी समय अंगिरा वंशियों में उत्तम आचार्य द्रोण अपने शिष्यों के साथ गंगा जी में स्नान करने के लिये गये। वहाँ जल में गोता लगाते समय काल से प्रेरित हो एक बलवान् जलजन्तु ग्राह ने द्रोणाचार्य की पिंडली पकड़ ली। वे अपने को छुड़ाने के समर्थ होते हुए भी मानो हड़बड़ाये हुए अपने सभी शिष्यों से बोले,,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘इस ग्राह को मारकर मुझे बचाओ’। उनके इस आदेश के साथ ही बीभत्सु (अर्जुन) ने पांच अमोघ एवं तीखे बाणों द्वारा पानी में डूबे हुए उस ग्राह पर प्रहार किया। परंतु दूसरे राजकुमार हक्के-बक्के से होकर अपने-अपने स्थान पर खड़े रह गये। अर्जुन को तत्काल कार्य में तत्पर देख द्रोणाचार्य ने उन्हें अपने सब शिष्यों से बढ़कर माना और उस समय वे उन पर बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन के बाणों से ग्राह के टुकड़े-टुकड़े हो गये और वह महात्मा द्रोण की पिंडली छोड़कर मर गया।
तब द्रोणाचार्य ने महारथी महात्मा अर्जुन से कहा ;- ‘महाबाहो! यह ब्रह्मशिर नामक अस्त्र मैं तुम्हे प्रयोग और उपसंहार के साथ बता रहा हूँ। यह सब अस्त्रों से बढ़कर है तथा इसे धारण करना भी अत्यन्त कठिन है। तुम इसे ग्रहण करो।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वात्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-22 का हिन्दी अनुवाद)
मनुष्यों पर तुम्हें इस अस्त्र का प्रयोग किसी भी दशा में नहीं करना चाहिये। यदि किसी अल्प तेज वाले पुरुष पर इसे चलाया गया तो यह उसके साथ ही समस्त संसार को भस्म कर सकता है। तात! यह अस्त्र तीनों लोकों में असाधारण बताया गया है। तुम मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर इस अस्त्र को धारण करो और मेरी यह बात सुनो। वीर! यह कोई अमानव शत्रु तुम्हें युद्ध में पीड़ा देने लगे तो तुम उसका वध करने के लिये इस अस्त्र का प्रयोग कर सकते हो’।
तब अर्जुन ने ‘तथास्तु’ कहकर वैसा ही करने की प्रतिज्ञा की और हाथ जोड़कर उस उत्तम अस्त्र को ग्रहण किया। उस समय गुरु द्रोण ने अर्जुन से पुन: यह बात कही,,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘संसार में दूसरा कोई पुरुष तुम्हारे समान धनुर्धर न होगा’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में द्रोणाचार्य का ग्राह से छुटकारा नामक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ तेंतीसवाँ अध्याय
(महाभारत (आदि पर्व) त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! जब द्रोण ने देखा कि धृतराष्ट्र के पुत्र तथा पाण्डव अस्त्र-विद्या की शिक्षा समाप्त कर चुके, तब उन्होंने कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान् बाह्लीक, गंगानन्दन भीष्म, महर्षि व्यास तथा विदुर जी के निकट राजा धृतराष्ट्र से कहा,,
द्रोण बोले ;- ‘राजन्! आपके कुमार अस्त्र-विद्या की शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। कुरुश्रेष्ठ! यदि आपकी अनुमति हो तो वे अपनी सीखी हुई अस्त्र संचालन की कला का प्रदर्शन करें।’ यह सुनकर महाराज धृतराष्ट्र अत्यन्त प्रसन्न चित्त से बोले।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- द्विजश्रेष्ठ भरद्वाजनन्दन! आपने (राजकुमारों को अस्त्र की शिक्षा देकर) बहुत बड़ा कार्य किया है। आप कुमारों की अस्त्र-शिक्षा के प्रदर्शन के लिये जब जो समय ठीक समझें, जिस स्थान पर जिस-जिस प्रकार का प्रबन्ध आवश्यक मानें, उस-उस तरह की तैयारी करने के लिये स्वयं ही मुझे आज्ञा दें। आज मैं नेत्रहीन होने के कारण दुखी होकर, जिनके पास आंखें हैं, उन मनुष्यों के सुख और सौभाग्य को पाने के लिये तरस रहा हूं; क्योंकि वे अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन करने के लिये भाँति-भाँति के पराक्रम करने वाले मेरे पुत्रों को देखेंगे।
आचार्य से इतना कहकर राजा धृतराष्ट्र विदुर से बोले ;- ‘धर्मवत्सल! विदुर! गुरु द्रोणाचार्य जो काम जैसे कहते हैं, उसी प्रकार उसे करो। मेरी राय में इसके समान प्रिय कार्य दूसरा नहीं होगा’। तदनन्तर राजा की आज्ञा लेकर विदुर जी (आचार्य द्रोण के साथ) बाहर निकले। महाबुद्धिमान् भरद्वाजनन्दन द्रोण ने रंगमण्डप के लिये एक भूमि पसंद की और उसका माप करवाया। वह भूमि समतल थी। उसमें वृक्ष या झाड़-झंखाड़ नहीं थे। वह उत्तर दिशा की ओर नीची थी। वक्ताओं में श्रेष्ठ द्रोण ने वास्तु पूजन देखने के लिये डिण्डिम- घोष कराके वीर समुदाय को आमन्त्रित किया और उत्तम नक्षत्र से युक्त तिथि में उस भूमि पर वास्तु पूजन किया। तत्पश्चात् उनके शिल्पियों ने उस रंगभूमि में वास्तु–शास्त्र के अनुसार विविधपूर्वक एक अति विशाल प्रेक्षागृह की नींव डाली तथा राजा और राजघराने की स्त्रियों के बैठने के लिये वहाँ सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न बहुत सुन्दर भवन बनाया। जनपद् के लोगों ने अपने बैठने के लिये वहाँ ऊंचे और विशाल मञ्च बनवाये तथा (स्त्रियों को लाने के लिये) बहुमूल्य शिबिकाऐं तैयार करायीं।
तत्पश्चात् जब निश्चित दिन आया, तब मन्त्रियों सहित राजा धृतराष्ट्र भीष्म जी तथा आचार्यप्रबर कृप को आगे करके बाह्लीक, सोमदत्त, भूरिश्रवा तथा अन्यान्य कौरवों और मन्त्रियों को साथ ले नगर से बाहर उस दिव्य प्रेक्षागृह में आये। उसमें मोतियों की झालरें लगी थीं, वैदूर्य मणियों से उस भवन को सजाया गया था तथा दीवारों में स्वर्ण खण्ड मढ़े गये थे। विजयीवीरों में श्रेष्ठ जनमेजय! परम सौभाग्यशालिनी गान्धारी, कुन्ती तथा राजभवन की सभी स्त्रियां वस्त्राभूषणों से सज-धजकर दास-दासियों और आवश्यक सामग्रियों के साथ उस भवन में आयीं तथा जैसे देवांगनाऐं मेरु पर्वत पर चढ़ती हैं, उसी प्रकार वे हर्षपूर्वक मञ्चों पर चढ़ गयीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्णों के लोग कुमारों का अस्त्र-कौशल देखने की इच्छा से तुरंत नगर से निकलकर आ गये। क्षणभर में वहाँ विशाल जनसमुदाय एकत्र हो गया। अनेक प्रकार के बाजों के बजने से तथा मनुष्यों के बढ़ते हुए कौतुहल से वह जनसमूह उस समय क्षुब्ध महासागर के समान जान पड़ता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर श्वेत वस्त्र और श्वेत यज्ञोपवीत धारण किये आचार्य द्रोण ने अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ रंगभूमि में प्रवेश किया; मानो मेघरहित आकाश में चन्द्रमा ने मंगल के साथ पदार्पण किया हो। अचार्य के सिर और दाढ़ी-मूंछ के बाल सफेद हो गये थे। वे श्वेत पुष्पों की माला और चन्दन से सुशोभित हो रहे थे। बलवानों में श्रेष्ठ द्रोण ने यथा समय देव-पूजा की और श्रेष्ठ मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों से मंगल पाठ कराया। उस समय राजा धृतराष्ट्र ने सुवर्ण, मणि, रत्न तथा नाना प्रकार के वस्त्र आचार्य द्रोण और कृप को दक्षिणा के रूप में दिये। फिर सुखमय पुण्यवाचन तथा दान-होम आदि पुण्यकर्मों के अनन्तर नाना प्रकार की शस्त्र-सामग्री लेकर बहुत-से मनुष्यों ने उस रंगमण्डप में प्रवेश किया।
उसके बाद भरतवंशियों में श्रेष्ठ वीर राजकुमार बड़े-बड़े रथों के साथ दस्ताने पहने, कमर कसे, पीठ पर तूणीर बांधे और धनुष लिये उस रंगमण्डप के भीतर आये। नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदि उन राजकुमारों ने जेठे-छोटे के क्रम से स्थित हो उस रंगभूमि के मध्य भाग में बैठे हुए आचार्य द्रोण को प्रणाम करके द्रोण और कृप दोनों आचार्यों की यथोचित पूजा की। फिर उनसे आर्शीवाद पाकर उन सबका मन प्रसन्न हो गया। तत्पश्चात् पूजा के पुष्पों से आच्छादित अस्त्र-शस्त्रों को प्रणाम करके कौरवों ने रक्त चन्दन और फलों द्वारा पुन: स्वयं उनका पूजन किया वे सब-के-सब लाल चन्दन से चर्चित तथा लाल रंग की मालाओं से विभूषित थे। सब के रथों पर लाल रंग की पताकाऐं थीं। सभी के नेत्रों के कोने लाल रंग के थे।
तदनन्तर तपाये हुए स्वर्ण के आभूषणों से विभूषित एवं शत्रुओं को संताप देने वाले कौरव-राजकुमारों ने आचार्य द्रोण की आज्ञा पाकर पहले अपने अस्त्र एवं धनुष लेकर डोरी चढ़ायी और उस पर भाँति-भाँति की आकृति के बाणों का संधान करके प्रत्यञ्चा का टंकार करते और ताल ठोकते हुए समस्त प्राणियों का आदर किया। तत्पश्चात् वे महापराक्रमी राजकुमार वहाँ परम अद्भुत अस्त्र-कौशल प्रकट करने लगे। कितने ही मनुष्य बाण लग जाने के डर से अपना मस्तक झुका देते थे। दूसरे लोग अत्यन्त विस्मित होकर बिना किसी भय के सब कुछ देखते थे। वे राजकुमार घोड़ों पर सवार हो अपने नाम के अक्षरों से सुशोभित और बड़ी फुर्ती के साथ छोड़े हुए नाना प्रकार के बाणों द्वारा शीघ्रतापूर्वक लक्ष्य भेद करने लगे। धनुष-बाण लिये राजकुमारों के उस समुदाय को गन्धर्व नगर के समान अद्भुत देख वहाँ समस्त दर्शक आश्चर्यकित हो गये।
जनमेजय! सैकड़ों और हजारों की संख्या में एक-एक जगह बैठे हुए लोग आश्चर्यचकित नेत्रों से देखते हुए सहसा ‘साधु-साधु (वाह-वाह)’ कहकर कोलाहल मचा देते थे। उन महाबली राजकुमारों ने पहले धनुष-बाण के पैतरे दिखाये। तदनन्तर रथ-संचालन के विविध मार्गों (शीघ्र ले जाना, लौटा लाना, दायें, बाऐं और मण्डलाकार चलाना आदि) का अवलोकन कराया। फिर कुस्ती लड़ने तथा हाथी और घोड़े की पीठ पर बैठकर युद्ध करने की चातुरी का परिचय दिया। इसके बाद वे ढाल और तलवार लेकर एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए खड्ग चलाने के शास्त्रोक्त मार्ग (ऊपर-नीचे) और अगल-बगल में घुमाने की कला का प्रदर्शन करने लगे। उन्होंने रथ, हाथी, घोड़े और भूमि- इन सभी भूमियों पर यह युद्ध-कौशल दिखाया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 31-35 का हिन्दी अनुवाद)
दर्शकों ने उन सब-के ढाल-तलवार के प्रयोगों को देखा। उस कला में उनकी फुर्ती, चतुरता, शोभा, स्थिरता और मुट्ठी की दृढ़ता का अवलोकन किया। तदनन्तर सदा एक-दूसरे को जीतने का उत्साह रखने वाले दुर्योधन और भीमसेन हाथ में गदा लिये रंगभूमि में उतरे। उस समय वे एक-एक शिखर वाले दो पर्वतों की भाँति शोभा पा रहे थे।
वे दोनों महाबाहु कमर कसकर पुरुषार्थ दिखाने के लिये आमने-सामने डटकर खड़े थे और गर्जना कर रहे थे, मानो दो मतवाले गजराज किसी हथिनी के लिये एक-दूसरे से भिड़ना चाहते और चिग्घाड़ते हों। वे दोनों महाबली योद्धा अपनी-अपनी गदा को दायें-बायें मण्डलाकार घुमाते हुए मदोन्नमत्त हाथियों की भाँति मण्डल के भीतर विचरने लगे। विदुर धृतराष्ट्र को और पाण्डवजननी कुन्ती गान्धारी को उन राजकुमारों की सारी चेष्टाऐं बताती जाती थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में अस्त्रकौशल दर्शनविषयक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ चौतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"भीमसेन, दुर्योधन तथा अर्जुन के द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब कुरुराज दुर्योधन और बलवानों श्रेष्ठ भीमसेन रंगभूमि में उतरकर गदा युद्ध कर रहे थे, उस समय दर्शक जनता उनके प्रति पक्षपातपूर्ण स्नेह करने के कारण मानो दो दलों में बंट गयी थी। कुछ कहते, ‘अहो! वीर कुरुराज कैसा अद्भुत पराक्रम दिखा रहे हैं।’ दूसरे बोल उठते, ‘वाह! भीमसेन तो गजब का हाथ मारते हैं।’ इस तरह की बातें करने वाले लोगों की भारी आवाजें वहाँ सहसा सब ओर गूंजने लगीं। फिर तो सारी रंगभूमि में क्षुब्ध महासागर के समान हल-चल मच गयी। यह देख बुद्धिमान् द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय पुत्र अश्वत्थामा से कहा।
द्रोण बोले ;- वत्स! ये दोनों महापराक्रमी वीर अस्त्र-विद्या में अत्यन्त अभ्यस्त हैं। तुम इन दोनों को युद्ध से रोको, जिससे भीमसेन और दुर्योधन को लेकर रंगभूमि में सब ओर क्रोध न फैल जाय।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर अश्वत्थामा ने बड़े वेग से उठकर भीमसेन और दुर्योधन को रोकते हुए कहा,,
अश्वत्थामा ने कहा ;- ‘भीम! तुम्हारे गुरु की आज्ञा है, गान्धारीनन्दन! तुम्हारे आचार्य का आदेश है, तुम दोनों का युद्ध बंद होना चाहिये। तुम दानों ही योग्य हो, तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति वेगपूर्वक आक्रमण अवांछनीय है। तुम दोनों का यह दु:साहस अनुचित है। अत: इसे बंद करो।’
इस प्रकार कहकर प्रलयकालीन वायु से विक्षुप्त उत्ताल तरंगों वाले दो समुद्रों की भाँति गदा उठाये हुए दुर्योधन और भीमसेन को गुरु पुत्र अश्वत्थामा ने युद्ध से रोक दिया। तत्पश्चात् द्रोणाचार्य ने महान् मेघों के समान कोलाहल करने वाले बाजों को बंद करवाकर रंगभूमि में उपस्थित हो यह बात कही,,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘दर्शकगण! जो मुझे पुत्र से भी अधिक प्रिय है, जिसने सम्पूर्ण शस्त्रों में निपुणता प्राप्त की है तथा जो भगवान् नारायण के समान पराक्रमी है, उस इन्द्रकुमार कुन्तीपुत्र अर्जुन का कौशल आप लोग देखें’। तदनन्तर आचार्य के कहने से स्वस्तिवाचन कराकर तरुणवीर अर्जुन गोह के चमड़े के बने हुए हाथ के दस्ताने पहने, बाणों से भरा तरकस लिये धनुष सहित रंगभूमि में दिखायी दिये। वे श्याम शरीर पर सोने का कवच धारण किये ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो सूर्य, इन्द्रधनुष, विद्युत और संध्याकाल से युक्त मेघ शोभा पाता हो।
फिर तो समूचे रंगमण्डप में हर्षोल्लास छा गया। सब ओर भाँति-भाँति के बाजे और शंख बजने लगे। 'ये कुन्ती के तेजस्वी पुत्र हैं। ये ही पाण्डु के मझले बेटे हैं। ये देवराज इन्द्र की संतान हैं। ये ही कुरुवंश के रक्षक हैं। अस्त्र-विद्या के विद्वानों में ये सबसे उत्तम हैं। ये धर्मात्मओं और शीलवानों में श्रेष्ठ हैं। शील और ज्ञान की तो ये सर्वोत्तम निधि हैं।' उस समय दर्शकों से मुख से तुमुल ध्वनि के साथ निकली हुई ये बातें सुनकर कुन्ती के स्तनों से दूध और नेत्रों से स्नेह के आंसू बहने लगे। उन दुग्ध मिश्रित आंसुओं से कुन्तीदेवी का वक्ष:स्थल भीग गया। वह महान् कोलाहल धृतराष्ट्र के कानों में भी गूंज उठा तब नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र प्रसन्नचित्त होकर विदुर से पूछने लगे,,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘विदुर! विक्षुब्ध महासागर के समान यह कैसा महान् कोलाहल हो रहा है? यह शब्द मानो आकाश को विदीर्ण करता हुआ रंगभूमि में सहसा व्यक्त हो उठा है’।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद)
विदुर ने कहा ;- महाराज! ये पाण्डुनन्दन अर्जुन कवच बांध कर रंगभूमि में उतरे हैं। इसी कारण यह सारी आवाज हो रही है।
धृतराष्ट्र बोले ;- महामते! कुन्ती रूपी अरणि से प्रकट हुए इन तीनों पाण्डव रूपी अग्नियों से मैं धन्य हो गया। इन तीनों के द्वारा मैं सवर्था अनुगृहीत और सुरक्षित हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार आनन्दातिरेक से मुखरित हुआ वह रंगमण्डप जब किसी तरह कुछ शान्त हुआ तब अर्जुन ने आचार्य को अपनी अस्त्र-संचालन की फुर्ती दिखानी आरम्भ की। उन्होंने पहले आग्नेयास्त्र से आग पैदा की, फिर वारुणास्त्र से जल उत्पन्न करके उसे बुझा दिया। वायव्यास्त्र से आंधी चला दी और पर्जन्यास्त्र से बादल पैदा कर दिये। उन्होंने भौमास्त्र से पृथ्वी से पार्वतास्त्र से पर्वतों को उत्पन्न कर दिया; फिर अन्तर्धानास्त्र के द्वारा वे स्वयं अदृश्य हो गये। वे क्षणभर में बहुत लंबे हो जाते औ रक्षणभर में ही बहुत छोटे बन जाते थे। एक क्षण में रथ के धुरे पर खड़े होते तो दूसरे क्षण रथ की बीच में दिखाई देते। फिर पलक मारते-मारते पृथ्वी पर उतरकर अस्त्र-कौशल दिखाने लगते। अपने गुरु प्रिय शिष्य अर्जुन ने बड़ी फुर्ती और खूबसूरती के साथ सुकमार, सूक्ष्य और भारी निशाने को भी बिना हिलाये-डुलाऐ नाना प्रकार के बाणों द्वारा बींध दिया। रंगभूमि में लोहे का बना हुआ सूअर इस प्रकार रखा था कि वह सब ओर चक्कर लगा रहा था। उस घूमते हुए सूअर के मुख में अर्जुन ने एक ही साथ एक बाण की भाँति पांच बाण मारे। वे पांचों बाण एक-दूसरे से सटे हुए नहीं थे। एक जगह गाय का सींग एक रस्सी में लटकाया गया था, जो हिल रहा था। महापराक्रमी अर्जुन ने उस सींग के छेद में लगातार इक्कीस बाण गड़ा दिये।
निष्पाप जनमेजय! इस प्रकार उन्होंने बड़ा भारी अस्त्र-कौशल दिखाया। खड्ग, धनुष और गदा आदि के भी शस्त्र कुशल अर्जुन ने अनेक पैंतरे और हाथ दिखलाये। भारत! इस प्रकार अस्त्र-कौशल दिखाने का अधिकांश कार्य जब समाप्त हो चला, मनुष्यों का कोलाहल बाजे-गाजे का शब्द जब शांत होने लगा, उसी समय दरवाजे की ओर से किसी का अपनी भुजाओं पर ताल ठोकने का भारी शब्द सुनायी पड़ा; मानों वज्र आपस में टकरा रहे हों। वह शब्द किसी वीर के महात्म्य तथा बल का सूचक था। उसे सुनकर लोग कहने लगे ‘कहीं पहाड़ तो नहीं फट गये! पृथ्वी तो नहीं विदीर्ण हो गयी! अथवा जल की धारा से परिपूर्ण घनीभूत बादलों की गंभीर गर्जना से आकाश मण्डल तो नहीं गूंज रहा है?’ राजन्! उस रंगमण्डप में बैठे हुए लोगों के मन में क्षणभर में उपर्युक्त विचार आने लगे। उस समय सभी दर्शक दरवाजे की ओर मुंह घुमाकर देखने लगे। इधर कुन्तीकुमार पांचों भाइयों से घिरे हुए आचार्य द्रोण पांच तारों वाले हस्त नक्षत्र से संयुक्त चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे। शत्रुहन्ता बलवान दुर्योधन भी उठकर खड़ा हो गया। अश्वत्थामा सहित उसके सौ भाइयों ने आकर उसे चारों ओर से घेर लिया। हाथों में आयुध उठाये खड़े हुए अपने भाइयों से घिरा हुआ गदाधारी दुर्योधन पूर्वकाल में दानव संहार के समय देवताओं से घिरे देवराज इन्द्र के समान शोभा पाने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में अस्त्रदर्शनविषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! आश्चर्य से आंखें फाड़-फाड़कर देखते हुए द्वारपालों ने जब भीतर जाने का मार्ग दे दिया, तब शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले कर्ण ने उस विशाल रंगभूमि में प्रवेश किया। उसने शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए दिव्य कवच को धारण कर रखा था। दोनों कानों के कुण्डल उसके मुख को उद्भासित कर रहे थे। हाथ में धनुष लिये और कमर में तलवार बांधे वह वीर पैरों से चलने वाले पर्वत की भाँति सुशोभित हो रहा था। कुन्ती ने कन्यावस्था में ही उसे अपने गर्भ में धारण किया था। उसका यश सर्वत्र फैला हुआ था। उसके दोनों नेत्र बड़े-बड़े थे। शत्रु समुदाय का संहार करने वाला कर्ण प्रचण्ड किरणों वाले भगवान् भास्कर का अंश था। उसमें सिंह के समान बल, सांड के समान वीर्य तथा गजराज के समान पराक्रम था, वह दीप्ति से सूर्य, कान्ति से चन्द्रमा तथा तेजस्वी गुण से अग्नि के समान जान पड़ता था। उसका शरीर बहुत ऊंचा था, अत: वह सुवर्णमय ताड़ के वृक्ष-सा प्रतीत होता था। उसके अंगों की गठन सिंह जैसी जान पड़ती थी। उसमें असंख्य गुण थे। उसकी तरुण अवस्था थी। वह साक्षात् भगवान् सूर्य से उत्पन्न हुआ था, अत: (उन्हीं के समान) दिव्य शोभा से सम्पन्न था। उस समय महाबाहु कर्ण ने रंगमण्डप में सब ओर दृष्टि डालकर द्रोणाचार्य और कृपाचार्य को इस प्रकार प्रणाम किया, मानो उनके प्रति उसके मन में अधिक आदर का भाव न हो।
रंगभूमि में जितने लोग थे, वे सब निश्चल होकर एकटक दृष्टि से देखने लगे। यह कौन है, यह जानने के लिये उनका चित्त चञ्चल हो उठा। वे सब-के-सब उत्कण्ठित हो गये। इतने में ही वक्ताओं में श्रेष्ठ सूर्यपुत्र कर्ण, जो पाण्डवों का भाई लगता था, अपने अज्ञात भ्राता इन्द्रकुमार अर्जुन से मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोला।
सूर्यपुत्र कर्ण बोला ;- ‘कुन्तीनन्दन! तुमने इन दर्शकों के समक्ष जो कार्य किया है, मैं उससे भी अधिक अद्भुत कर्म कर दिखाऊंगा। अत: तुम अपने पराक्रम पर गर्व न करो’। वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय! कर्ण की बात अभी पूरी ही न हो पायी थी कि सब ओर से मनुष्य तुरंत उठकर खड़े हो गये, मानो उन्हें किसी यन्त्र से एक साथ उठा दिया गया हो। नरश्रेष्ठ! उस समय दुर्योधन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और अर्जुन के चित्त में क्षणभर में लज्जा और क्रोध का संचार हो आया। तब सदा युद्ध से ही प्रेम करने वाले महाबली कर्ण ने द्रोणाचार्य की आज्ञा लेकर, अर्जुन ने वहाँ जो-जो अस्त्र-कौशल प्रकट किया था, वह सब कर दिखाया। भारत! तदनन्तर भाईयों सहित दुर्योधन ने वहाँ बड़ी प्रसन्नता के साथ कर्ण को हृदय से लगाकर कहा।
दुर्योधन बोला ;- महाबाहो! तुम्हारा स्वागत है। मानद! तुम यहाँ पधारे, यह हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात है। मैं तथा कौरवों का यह राज्य सब तुम्हारे हैं। तुम इनका यथेष्ट उपभोग करो।
कर्ण ने कहा ;- प्रभो! आपने जो कुछ कहा है, वह सब पूरा कर दिया, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं आपके साथ मित्रता चाहता हूँ और अर्जुन के साथ मेरी द्वन्द्व-युद्ध करने की इच्छा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद)
दुर्योधन बोला ;- शत्रुदमन! तुम मेरे साथ उत्तम भोग भोगो। अपने भाई-बन्धुओं का प्रिय करो और समस्त शत्रुओं के मस्तक पर पैर रखो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय अर्जुन ने अपने-आपको कर्ण द्वारा तिरस्कृत-सा मानकर दुर्योधन आदि सौ भाइयों के बीच में अविचल-से खड़े हुए कर्ण को सम्बोधित करके कहा।
अर्जुन बोले ;- कर्ण! बिना बुलाये आने वालों और बिना बुलाये बोलने वालों को जो (निन्दनीय) लोक प्राप्त होते हैं, मेरे द्वारा मारे जाने पर तुम उन्हीं लोकों में जाओगे।
कर्ण ने कहा ;- अर्जुन! यह रंगमण्डप तो सबके लिये साधारण है, इसमें तुम्हारा क्या लगा है? जो बल और पराक्रम में श्रेष्ठ होते हैं, वे ही राजा कहलाने योग्य हैं। धर्म भी बल का ही अनुसरण करता है। भारत! आक्षेप करना तो दुर्बलों का प्रयास है। इससे क्या लाभ है? साहस हो तो बाणों से बाचचीत करो। मैं आज तुम्हारे गुरु के सामने ही बाणों द्वारा तुम्हारा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर शत्रुओं के नगर को जीतने वाले कुन्तीनन्दन अर्जुन आचार्य द्रोण की आज्ञा ले तुरंत अपने भाइयों से गले मिलकर युद्ध के लिये कर्ण की ओर बढ़े। तब भाइयों सहित दुर्योधन ने भी धनुष-बाण ले युद्ध के लिये तैयार खड़े हुए कर्ण का आलिंगन किया। उस समय बकपंक्तियों के व्याज से हास्य की छटा बिखेरने वाले बादलों ने बिजली की चमक, गड़गड़ाहट और इन्द्रधनुष के साथ समूचे आकाश को ढक लिया। तत्पश्चात् अर्जुन के प्रति स्नेह होने के कारण इन्द्र को रंगभूमि का अवलोकन करते देख भगवान् सूर्य ने भी अपने समीप बादलों को छिन्न-भिन्न कर दिया। तब अर्जुन मेघ की छाया में छिपे हुए दिखायी देने लगे और कर्ण भी सूर्य की प्रभा से प्रकाशित दीखने लगा। धृतराष्ट्र के पुत्र जिस ओर कर्ण था, उसी ओर खड़े हुए तथा द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और भीष्म जिधर अर्जुन थे, उस ओर खड़े थे। रंगभूमि के पुरुषों और स्त्रियों में भी कर्ण और अर्जुन को लेकर दो दल हो गये।
कुन्तिभोजकुमारी कुन्ती देवी वास्तविक रहस्य को जानती थीं (कि ये दोनों मेरे ही पुत्र हैं), अत: चिन्ता के कारण उन्हें मूर्च्छा आ गयी। उन्हें इस प्रकार मूर्च्छा में पड़ी हुई देख सब धर्मों के ज्ञाता विदुर जी ने दासियों द्वारा चन्दन मिश्रित जल छिड़कवाकर होश में लाने की चेष्टा की। इससे कुन्ती को होश तो आ गया; किंतु अपने दोनों पुत्रों को युद्ध के लिये कवच धारण किये देख वे बहुत घबरा गयीं। उन्हें रोकने का कोई उपाय उनके ध्यान में नहीं आया। उन दोनों को विशाल धनुष उठाये देख द्वन्द्व-युद्ध की नीति-रीति में कुशल और समस्त धर्मों के ज्ञाप शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य ने इस प्रकार कहा,,
कृपाचार्य बोले ;- ‘कर्ण! ये कुन्तीदेवी के सबसे छोटे पुत्र पाण्डुनन्दन अर्जुन कुरुवंश के रत्न हैं, जो तुम्हारे साथ द्वन्द्व-युद्ध करेंगे। महाबाहो! इसी प्रकार तुम भी अपने माता-पिता तथा कुल का परिचय दो और उन नरेश के नाम बताओ, जिनका वंश तुमसे विभूषित हुआ है। इसे जान लेने के बाद यह निश्चय होगा कि अर्जुन तुम्हारे साथ युद्ध करेंगे या नहीं; क्योंकि राजकुमार नीच कुल और हीन आचार-विचार वाले लोगों के साथ युद्ध नहीं करते।’
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 34-41 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कृपाचार्य के यों कहने पर कर्ण का मुख लज्जा से नीचे झुक गया। जैसे वर्षा के पानी से भीगकर कमल मुरझा जाता है, उसी प्रकार कर्ण का मुंह म्लान हो गया।
तब दुर्योधन ने कहा ;- आचार्य! शास्त्रीय सिद्वान्त के अनुसार राजाओं की तीन योनियां हैं- उत्तम कुल में उत्पन्न पुरुष, शूरवीर तथा सेनापति (अत: शूरवीर होने के कारण कर्ण भी राजा ही हैं)। यदि ये अर्जुन राजा से भिन्न पुरुष के साथ रणभूमि में लड़ना नहीं चाहते तो मैं कर्ण को इसी समय अंगदेश के राज्य पर अभिषिक्त करता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर दुर्योधन ने राजा धृतराष्ट्र और गंगानन्दन भीष्म की आज्ञा ले ब्राह्मणों द्वारा अभिषेक का सामान मंगवाया। फिर उसी समय महाबली एवं महारथी कर्ण को सोने के सिंहासन पर बिठाकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों ने लावा और फूलों से युक्त सुवर्णमय कलशों के जल से अंगदेश के राज्य पर अभिषिक्त किया। तब मुकुट, हार, केयूर, कंगन, अंगद,राजेचित चिह्न तथा अन्य शुभ आभूषणों से विभूषित हो वह छत्र, चंवर तथा जय-जयकार के साथ राज्य श्री से सुशोभित होने लगा।
फिर ब्राह्मणों से समादृत हो राजा कर्ण ने उन्हें असीम धन प्रदान किया। राजन्!
उस समय उसने कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन से कहा ;- ‘नृपतिशिरोमणे! आपने मुझे जो यह राज्य प्रदान किया है, इसके अनुरूप मैं आपको क्या भेंट दूं? बताइये, आप जैसा कहेंगे वैसा ही करूंगा।’
यह सुनकर दुर्योधन ने कहा ;- ‘अंगराज! मैं तुम्हारे साथ ऐसी मित्रता चाहता हूं, जिसका कभी अन्त न हो’। उसके यों कहने पर कर्ण ने ‘तथास्तु’ कहकर उसके साथ मैत्री कर ली। फिर वे दोनों बड़े हर्ष से एक दूसरे को हृदय से लगाकर आनन्दमग्न हो गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में कर्ण के राज्याभिषेकविषयक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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