सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार तथा भाई-बन्धुओं द्वारा उनके लिये जलाञ्जलिदान"
धृतराष्ट्र बोले ;- विदुर! राजाओं में श्रेष्ठ पाण्डु के तथा विशेषत: माद्री के भी समस्त प्रेतकार्य राजोचित्त ढंग से कराओ। पाण्डु और माद्री के लिये नाना प्रकार के पशु, वस्त्र, रत्न और धन दान करो। इस अवसर पर जिनको जितना चाहिये, उतना धन दो। कुन्ती देवी माद्री का जिस प्रकार सत्कार करना चाहे, वैसी व्यवस्था करो। माद्री की अस्थियों को वस्त्रों से अच्छी प्रकार ढंक दो, जिससे उसे वायु तथा सूर्य भी न देख सकें। निष्पाप राजा पाण्डु शोचनीय नहीं, प्रशंसनीय हैं, जिन्हें देव कुमारों के समान पांच वीर पुत्र प्राप्त हुए हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! विदुर ने धृतराष्ट्र से तथास्तु कहकर भीष्म जी के साथ परम पवित्र स्थान में पाण्डु का अन्तिम संस्कार कराया। राजन्! तदनन्तर शीघ्र ही पाण्डु का दाह-संस्कार करने के लिये पुरोहितगण घृत और सुगन्ध आदि के साथ प्रज्वलित अग्नि लिये नगर से बाहर निकले। इसके बाद वसन्त-ॠतु में सुलभ नाना प्रकार के सुन्दर पुष्पों तथा श्रेष्ठ गन्धों से एक शिबिका (वैकुण्ठी) को सजाकर उसे सब ओर से वस्त्र द्वारा ढंक दिया। उसमें माद्री के साथ पाण्डु की अस्थियां भली-भाँति बांध कर रखी गयी थीं। मनुष्यों द्वारा ढोई जाने वाली और अच्छी तरह सजायी हुइ उस शिबिका के द्वारा सभी बन्धु-बान्धव माद्री सहित नरश्रेष्ठ पाण्डु की अस्थियों को ढोने लगे।
शिबिका के ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था। चंवर डुलाये जा रहे थे। सब प्रकार के बाजो-गाजों से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। सैंकड़ों मनुष्यों ने उन महाराज पाण्डु के दाह-संस्कार के दिन बहुत-से रत्न लेकर याचकों को दिये। इसके बाद कुरुराज पाण्डु के लिये अनेक श्वेत छत्र, बहुतेरे बड़े-बड़े चंवर तथा कितने ही सुन्दर-सुन्दर वस्त्र लोग वहाँ ले आये। पुरोहित लोग सफेद वस्त्र धारण करके अग्निहोत्र की अग्नि में आहुति डालते जाते थे। वे अग्नियां माला आदि से अलंकृत एवं प्रज्वलित हो पाण्डु की पालकी के आगे चल रही थीं। सहस्रों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र शोक से संतप्त हो रोते हुए महाराज पाण्डु की शिबिका के पीछे जा रहे थे। वे कहते जाते थे- हाय! ये महाराज हम लोगों को छोड़कर, हमें सदा के लिये भारी दु:ख में डालकर और हम सबको अनाथ करके कहाँ जा रहे हैं। समस्त पाण्डव, भीष्म तथा विदुर जी क्रन्दन करते हुए जा रहे थे। वन के रमणीय प्रदेश में गंगा जी के शुभ एवं समतल तट पर उन लोगों ने, अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले सत्यवादी नरश्रेष्ठ पाण्डु और उनकी पत्नी माद्री की शिबिका को रखा। तदनन्तर राजा पाण्डु की अस्थियों को सब प्रकार की सुगन्धों से सुवासित करके उन पर पवित्र काले अगर का लेप किया गया। फिर उन्हें दिव्य चन्दन से चर्चित करके सोने के कलशों द्वारा लाये हुए गंगा जल से भाई-बन्धुओं ने उसका अभिषेक किया। तत्पश्चात उन पर सब ओर से काले अगर से मिश्रित तुगंरस नामक गन्ध–द्रव्य का एवं श्वेत चन्दन का लेप किया गया। इसके बाद उन्हें सफेद स्वदेशी वस्त्रों से ढक दिया गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-32 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार बहुमूल्य शय्या पर शयन करने योग्य नरश्रेष्ठ राजा पाण्डु की अस्थियां वस्त्रों से आच्छादित हो जीवित मनुष्य की भाँति शोभा पाने लगीं। समस्त याजकों और पुरोहितों ने अश्वमेध की अग्नि से वेदोक्त विधि के अनुसार मन्त्रोच्चारणपूर्वक सारी क्रियाएं सम्पन्न कीं। याजकों की आज्ञा लेकर प्रेत कर्म आरम्भ करते समय माद्री सहित अलंकार युक्त राजा का घृत से अभिषेक किया गया। फिर तु्ंग और पद्मकमिश्रित सुगन्धित चन्दन तथा अन्य विविध प्रकार के गन्ध-द्रव्यों से भाई-बन्धुओं ने युधिष्ठिर द्वारा विधिपूर्वक उन दोनों का दाह-संस्कार कराया। उस समय उन दोनों की अस्थियों को देखकर माता कौसल्या (अम्बालिका) हा पुत्र! हा पुत्र! कहती हुई सहसा मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसे इस प्रकार शोकातुर हो भूमि पर पड़ी देख नगर और जनपद के लोग राजभक्ति तथा दया से द्रवित एवं दु:ख से संतप्त हो फूट- फूट कर रोने लगे।
कुन्ती के आर्तनाद से मनुष्यों सहित समस्त पशु आदि भी करुण क्रन्दन करने लगे। शन्तनुनन्दन भीष्म, परम बुद्धिमान् विदुर तथा सम्पूर्ण कौरव भी अत्यन्त दु:ख में निमग्न हो रोने लगे। तदनन्तर भीष्म, विदुर, राजा धृतराष्ट्र तथा पाण्डवों के सहित कुरु-कुल की सभी स्त्रियों ने राजा पाण्डु के लिये जलाञ्जलि दी। उस समय सभी पाण्डव पिता के लिये रो रहे थे। शन्तनुनन्दन भीष्म, विदुर तथा अन्य भाई-बन्धुओं की भी यही दशा थी। सबने जलाञ्जलि देने की क्रिया पूरी की। जलाञ्जलि दान करके शोक से दुर्बल हुए पाण्डवों को साथ ले मन्त्री आदि सब लोग स्वयं भी दु:खी हो उन सबको समझा-बुझाकर शोक करने से रोकने लगे। राजन्! बारह रात्रियों तक जिस प्रकार बन्धु-बान्धवों सहित पाण्डव भूमि पर सोये, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि नागरिक भी धरती पर सोते रहे। उतने दिनों तक हस्तिनापुर नगर पाण्डवों के साथ आनन्द और हर्षोल्लास से शून्य रहा। बूढ़ों से लेकर बच्चे तक सभी वहाँ दु:ख में डूबे रहे। सारा नगर ही अस्वस्थचित्त हो गया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में पाण्डु के दाह संस्कार से सम्बंध रखने वाला एक सौ छब्बीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
(महाभारत (आदि पर्व) सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों तथा धृतराष्ट्रपुत्रों की बालक्रीड़ा, दुर्योधन का भीमसेन को विष खिलाना तथा गंगा में ढकेलना और भीम का नागलोक में पहुँचकर आठ कुण्डों के दिव्य रस का पान करना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर कुन्ती, राजा धृतराष्ट्र तथा बन्धुओं सहित भीष्म जी ने पाण्डु के लिये उस समय अमृतस्वरूप स्वधामय श्राद्ध-दान किया। उन्होंने समस्त कौरवों तथा सहस्रों मुख्य-मुख्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें रत्नों के ढेर तथा उत्तम-उत्तम गांव दिये। मरणाशौच से निवृत्त होकर भरतवंश शिरोमणि पाण्डवों ने जब शुद्धि स्नान कर लिया, तब उन्हें साथ लेकर सबने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। नगर और जनपद के सभी लोग मानो कोई अपना ही भाई-बन्धु मर गया हो, इस प्रकार उन भरतकुलतिलक पाण्डु के लिये निरन्तर शोकमग्न हो गये। श्राद्ध की समाप्ति पर सब लोगों को दुखी देखकर व्यासजी ने दु:ख-शोक से आतुर एवं मोह में पड़ी हुई माता सत्यवती से कहा,,
व्यासजी बोले ;- माँ! अब सुख के दिन बीत गये। बड़ा भयंकर समय उपस्थित होने वाला है। उत्तरोत्तर बुरे दिन आ रहे हैं। पृथ्वी की जवानी चली गयी। अब ऐसा भयंकर समय आयेगा, जिसमें सब ओर छल-कपट और माया का बोलबाला होगा। संसार में अनेक प्रकार के दोष प्रकट होंगे और धर्म-कर्म तथा सदाचार का लोप हेा जायगा।
दुर्योधन आदि कौरवों के अन्याय से सारी पृथ्वी वीरों से शून्य हो जायगी; अत: तुम योग का आश्रय लेकर यहाँ से चली जाओ और योग परायण हो तपोवन में निवास करो। तुम अपनी आंखों से इस कुल का भयंकर संहार न देखो। तब व्यासजी से तथास्तु कहकर सत्यवती अंदर गयी और अपनी पुत्रवधु से बोली,,
सत्यवती बोली ;- अम्बिके! तुम्हारे पौत्र के अन्याय से भरतवंशी वीर तथा इस नगर के सगे-सम्बन्धियों सहित नष्ट हो जायंगे- ऐसी बात मैंने सुनी है। अत: तुम्हारी राय हो, तो पुत्र शोक से पीड़ित इस दु:खिनी अम्बालिका को साथ ले मैं वन में चली जाऊं। तुम्हारा कल्याण हो। अम्बिका भी तथास्तु कहकर साथ जाने को तैयार हो गयी। जनमेजय! फिर उत्तम व्रत का पालन करने वाली सत्यवती भीष्म जी से पूछकर अपनी दोनों पतोहुओं को साथ ले वन को चली गयी। भरतवंश शिरोमणि महाराज जनमेजय! तब वे देवियां वन में अत्यन्त घोर तपस्या करके शरीर त्यागकर अभीष्ट गति को प्राप्त हो गयीं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! उस समय पाण्डवों के वेदोक्त (समावर्तन आदि) संस्कार हुए। वे पिता के घर में नाना प्रकार के भोग भोगते हुए पलने और पुष्ट होने लगे। धृतराष्ट्र के सब पुत्रों के साथ सुखपूर्वक खेलते हुए वे सदा प्रसन्न रहते थे। सब प्रकार की बालक्रीड़ाओं में अपने तेज से वे बढ़-चढ़कर सिद्ध होते थे। दौड़ने में, दूर रखी हुई किसी प्रत्यक्ष वस्तु को सबसे पहले पहुँचकर उठा लेने में, खान-पान में तथा धूल उछालने के खेल में भीमसेन धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों का मानमर्दन कर डालते थे। राजन्! हर्ष से खेल-कूद में हुए उन कौरवों को पकड़ कर भीमसेन कहीं छिप जाते थे। कभी उनके सिर पकड़कर पाण्डवों से लड़ा देते थे। धृतराष्ट्र के एक सौ एक कुमार बड़े बलवान् थे; किंतु भीमसेन बिना अधिक कष्ट उठाये अकेले ही उन सबको अपने वश में कर लेते थे। बलवान् भीम उनके बाल पकड़कर बलपूर्वक उन्हें एक दूसरे से टकरा देते और उनके चीखने-चिल्लाने पर भी उन्हें धरती पर घसीटते रहते थे। उस समय उनके घुटने, मस्तक और कंधे छिल जाया करते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)
ये जल में क्रीड़ा करते समय अपनी दोनों भुजाओं से धृतराष्ट्र के दस बालकों को पकड़ लेते और देर तक पानी में गोते लगाते रहते थे। जब वे अधमरे-से हो जाते, तब उन्हें छोड़ते थे। जब कौरव वृक्ष पर चढ़कर फल तोड़ने लगते, तब भीमसेन पैर से ठोकर मारकर उन पेड़ों को हिला देते थे। उनके वेगपूर्वक प्रहार से आहत हो वे वृक्ष हिलने लगते और उन पर चढ़े हुए धृतराष्ट्रकुमार भयभीत हो फलों सहित नीचे गिर पड़ते थे। कुश्ती में, दौड़ लगाने में तथा शिक्षा के अभ्यास में धृतराष्ट्रकुमार सदा लाग-डांट रखते हुए भी कभी भीमसेन की बराबरी नहीं कर सकते थे। इसी प्रकार भीमसेन भी धृतराष्ट्र पुत्रों से स्पर्धा रखते हुए उनके अत्यन्त अप्रिय कार्यों में ही लगे रहते थे। परंतु उनके मन में कौरवों के प्रति द्वेष नहीं था, वे बाल स्वाभाव के कारण ही वैसा करते थे। तब धृतराष्ट्र का प्रतापी पुत्र दुर्योधन यह जानकर कि भीमसेन में अत्यन्त विख्यात बल है, उनके प्रति दुष्टभाव प्रदर्शित करने लगा। वह सदा धर्म से दूर रहता और पाप कर्मों पर ही दृष्टि रखता था।
मोह और ऐश्वर्य के लोभ से उसके मन में पापपूर्ण विचार भर गये थे। वह अपने भाइयों के साथ विचार करने लगा कि ‘यह मध्यम पाण्डुपुत्र कुन्तीनन्दन भीम बलवानों में सबसे बढ़कर है। इसे धोखा देकर कैद कर लेना चाहिये। यह बलवान् और पराक्रमी तो है ही, महान् शौर्य से भी सम्पन्न है। भीमसेन अकेला ही हम सब लोगों से होड़ बद लेता है। इसलिये नगरोद्यान में जब वह सो जाय, तब उसे उठाकर हम लोग गंगा जी में भी फेंक दें। इसके बाद उसके छोटे भाई अर्जुन और बड़े भाई युधिष्ठिर को बलपूर्वक कैद में डालकर मैं अकेला ही सारी पृथ्वी का शासन करूंगा।’ ऐसा निश्चय करके पापी दुर्योधन ने गंगातट पर जल-विहार के लिये ऊनी और सूती कपड़ों के विचित्र एवं विशाल गृह तैयार कराये। वे गृह सब प्रकार की अभीष्ट सामग्रियों से भरे-पूरे थे। उनके ऊपर ऊंची-ऊंची पताकाऐं फहरा रही थीं। उनमें उसने अलग-अलग अनेक प्रकार के बहुत-से कमरे बनवाये थे।
भारत! गंगा तटवर्ती प्रमाण कोटि तीर्थ में किसी स्थान पर जाकर दुर्योधन ने यह सारा आयोजन करवाया था। उसने उस स्थान का नाम रखा था उदकक्रीडन। वहाँ रसोई के काम में कुशल कितने ही मनुष्यों ने जुटकर खाने-पीने के बहुत-से भक्ष्य[1], भोज्य[2], पेय[3], चोष्य[4] और लेह्य[5] पदार्थ तैयार किये। तदनन्तर राजपुरुषों ने दुर्योधन को सूचना दी कि ‘सब तैयारी पूरी हो गयी है।’ तब खोटी बुद्धि वाले दुर्योधन ने पाण्डवों से कहा- ‘आज हम लोग भाँति-भाँति के उद्यान और वनों से सुशोभित गंगा जी के तट पर चलें। वहाँ हम सब भाई एक साथ जल विहार करेंगे’। यह सुनकर युधिष्ठिर ने ‘एवमस्तु’ कहकर दुर्योधन की बात मान ली। फिर वे सभी शूरवीर कौरव पाण्डवों के साथ नगराकार रथों तथा स्वदेश में उत्पन्न श्रेष्ठ हाथियों पर सवार हो नगर से निकले और उद्यान-वन के समीप पहुँचकर साथ आये हुए प्रजावर्ग के बड़े-बड़े लोगों को विदा करके जैसे सिंह पर्वत की गुफा में प्रवेश करे, उसी प्रकार वे सब वीर भ्राता उद्यान की शोभा देखते हुए, उसमें प्रविष्ट हुए।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 40-58 का हिन्दी अनुवाद)
वह उद्यान राजाओं की गोष्ठी और बैठक के स्थानों से, श्वेत वर्ण के छज्जों से, जालियों और झरोखों से तथा इधर-उधर ले जाने योग्य जलवर्षक यन्त्रों से सुशोभित हो रहा था। महल बनाने वाले शिल्पियों ने उस उद्यान एवं क्रीड़ाभवन को झाड़-पोंछकर साफ कर दिया था। चित्रकारों ने वहाँ चित्रकारी की थी। जल से भरी बाबलियों तथा तालाबों द्वारा उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। खिले हुए कमलों से आच्छादित वहाँ का जल बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। ॠतु के अनुकूल खिलकर झड़े हुए फूलों से वहाँ की सारी पृथ्वी ढंक गयी थी। वहाँ पहुँचकर समस्त कौरव और पाण्डव यथायोग्य स्थानों पर बैठ गये और स्वत: प्राप्त हुए नाना प्रकार के भोगों का उपभोग करने लगे। तदनन्तर उस सुन्दर उद्यान में क्रीड़ा के लिये आये हुए कौरव और पाण्डव एक-दूसरे के मुंह से खाने की वस्तुऐं डालने लगे। उस समय पापी दुर्योधन ने भीमसेन को मार डालने की इच्छा से उनके भोजन में कालकूट नामक विष डलवा दिया। उस पापात्मा का हृदय छूरे के समान तीखा था; परंतु बातें वह ऐसी करता था, मानो उनसे अमृत झरता रहा हो। वह सगे भाई और हितैषी सुहृद् की भाँति स्वयं भीमसेन के लिये भाँति-भाँति के भक्ष्य पदार्थ परोसने लगा। भीमसेन भोजन के दोष से अपरिचित थे; अत: दुर्योधन ने जितना परोसा, वह सब-का-सब खा गये। यह देख नीच दुर्योधन मन-ही-मन हंसता हुआ-सा अपने-आप को कृतार्थ मानने लगा।
तब भोजन के पश्चात् पाण्डव तथा धृतराष्ट्र के पुत्र सभी प्रसन्नचित्त हो एक साथ जल-क्रीड़ा करने लगे। जल-क्रीड़ा का समाप्त होने पर दिन के अन्त में विहार से थके हुए वे समस्त कुरुश्रेष्ठ वीर शुद्ध वस्त्र धारण कर सुन्दर आभूषणों से विभूषित हो उन क्रीड़ा भवनों में ही रात बिताने का विचार करेन लगे। बलवान् भीमसेन उस समय अधिक परिश्रम करने के कारण बहुत थक गये थे। वे जलक्रीड़ा के लिये आये हुए उन कुमारों को साथ लेकर विश्राम करने की इच्छा से प्रमाण कोटि के उस गृह में आये और वहीं एक स्थान में सो गये। पाण्डुनन्दन भीम थके तो थे ही, विष के मद से भी अचेत हो रहे थे। उनके अंग-अंग में विष का प्रभाव फैल गया था। अत: वहाँ ठंडी हवा पाकर ऐसे सोये कि जड़ के समान निश्चेष्ट प्रतीत होने लगे। तब दुर्योधन ने स्वयं लताओं के पाश में वीरवर भीम को कसकर बांधा। वे मुर्दे के समान हो रहे थे। फिर उसने गंगा जी के ऊंचे तट से उन्हें जल में ढकेल दिया। भीमसेन बेहोशी की दशा में जल के भीतर डूबकर नागलोक में जा पहुँचे। उस समय कितने ही नागकुमार उनके शरीर से दब गये। तब बहुत-से महाविषधर नागों ने मिलकर अपनी भयंकर विष वाली बड़ी-बड़ी दाढ़ों से भीमसेन को खूब डंसा। उनके द्वारा डंसे जाने से कालकूट विष का प्रभाव नष्ट हो गया। सर्पों के जंगम विष ने खाये हुए स्थावर विष को हर लिया। चौड़ी छाती वाले भीमसेन की त्वचा लोहे के समान कठोर थी; अत: यद्यपि उनके मर्म स्थानों में सर्पों ने दांत गड़ाये थे, तो भी वे उनकी त्वचा को भेद न सके।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 59-72 का हिन्दी अनुवाद)
तत्पश्चात् कुन्तीनन्दन भीम जाग उठे। उन्होंने अपने सारे बन्धनों को तोड़कर उन सभी सर्पों को पकड़-पकड़ कर धरती पर दे मारा। कितने ही सर्प भय के मारे भाग खड़े हुए। भीम के हाथों मरने से बचे हुए सभी सर्प इन्द्र के समान तेजस्वी नागराज वासुकि के समीप गये और,,
इस प्रकार बोले ;- ‘नागेन्द्र! एक मनुष्य है, जिसे बांधकर जल में डाल दिया गया है। वीरवर! जैसा कि हमारा विश्वास है, उसने विष पी लिया होगा। वह हम लोगों के पास बेहोशी की हालत में आया था, किंतु हमारे डंसने पर जाग उठा और होश में आ गया। होश में आने पर तो वह महाबाहु अपने सारे बन्धनों को शीघ्र तोड़कर हमें पछाड़ने लगा है। आप चलकर उसे पहचानें’।
तब वासुकि ने उन नागों के साथ आकर भयंकर पराक्रमी महाबाहु भीमसेन को देखा। उसी समय नागराज, आर्यक ने भी उन्हें देखा, जो पृथा के पिता शूरसेन के नाना थे। उन्होंने अपने दौहित्र के दौहित्र को कसकर छाती से लगा लिया। महायशस्वी नागराज वासुकि भी भीमसेन पर बहुत प्रसन्न हुए और बोले,,
नागराज वासुकि बोले ;- ‘इनका कौन-सा प्रिय कार्य किया जाय? इन्हें धन, सोना और रत्नों की राशि भेंट की जाय’। उनके यों कहने पर,,
आर्यक नाग ने वासुकि से कहा ;- ‘नागराज! यदि आप प्रसन्न हैं तो यह धनराशि लेकर क्या करेगा। आपके संतुष्ट होने पर महाबली राजकुमार को आपकी आज्ञा से उस कुण्ड का रस पीना चाहिये, जिससे एक हजार हाथियों को बल प्राप्त होता है। यह बालक जितना रस पी सके, उतना इसे दिया जाय।'
यह सुनकर वासुकि ने आर्यक नाग से कहा ‘ऐसा ही हो’। तब नागों ने भीमसेन के लिये स्वस्तिवाचन किया। फिर वे पाण्डुकुमार पवित्र हो पूर्वाभिमुख बैठकर कुण्ड का रस पीने लगे। वे एक ही सांस में एक कुण्ड का रस पी जाते थे। इस प्रकार उन महाबली पाण्डुनन्दन ने आठ कुण्डों का रस पी लिया। इसके बाद शत्रुओं का दमन करने वाले महाबाहु भीमसेन नागों की दी हुई दिव्य शय्या पर सुखपूर्वक सो गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में भीमसेन के रसपान से सम्बंध रखने वाला एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ अठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टाविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"भीमसेन के न आने से कुन्ती आदि की चिन्ता, नागलोक से भीमसेन का आगमन तथा उनके प्रति दुर्योधन की कुचेष्टा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर समस्त कौरव और पाण्डव क्रीड़ा और विहार समाप्त करके भीमसेन के बिना ही हस्तिनापुर की ओर प्रस्थित हुए। रथ, हाथी, घोड़े तथा अन्य अनेक प्रकार की सवारियों द्वारा वहाँ से चलकर वे आपस में यह कह रहे थे कि भीमसेन तो हम लोगों से आगे ही चल गये हैं। पापी दुर्योधन ने भीमसेन को वहाँ न देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो भाइयों के साथ नगर में प्रवेश किया। राजा युधिष्ठिर धर्मात्मा थे, उनके पवित्र हृदय में दुर्योधन के पापपूर्ण विचार का भान तक न हुआ। वे अपने ही अनुमान से दूसरे को भी साधु ही देखते और समझते थे। भाई पर स्नेह रखने वाले कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर उस समय माता के पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके बोले,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘मां! भीमसेन यहाँ आया है क्या?। मात:! वह कहाँ गया होगा? शुभे! यहाँ भी तो मैं उसे नहीं देख रहा हूँ। वहाँ हम लोगों ने भीमसेन के लिये उद्यान और वन का कोना-कोना खोज डाला। फिर भी जब वीरवर भीम को हम देख न सके, तब सबने यही समझ लिया कि वह हम लोगों से पहले ही चला गया होगा। महाभागे! हम उसके लिये अत्यन्त व्याकुल हृदय से यहाँ आये हैं। यहाँ आकर वह कहीं चला गया? अथवा तुमने उसे कहीं भेजा है? यशस्विनि! महाबाहु भीमसेन का पता बताओ। शोभने! वीर भीमसेन के विषय में मेरा हृदय शंकित हो गया है। जहाँ मैं भीमसेन को सोया हुआ समझता था, वहीं किसी ने उसे मार तो नहीं डाला?’
बुद्धिमान् धर्मराज के इस प्रकार पूछने पर कुन्ती ‘हाय-हाय’ करके घबरा उठी और युधिष्ठिर से बोली,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘बेटा! मैंने भीम को नहीं देखा है। वह मेरे पास आया ही नहीं। तुम अपने छोटे भाइयों के साथ शीघ्र उसे ढूंढ़ने का प्रयत्न करो।’ कुन्ती का हृदय पुत्र की चिन्ता से व्यथित हो रहा था, उसने ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर से उपर्युक्त बात कहकर विदुरजी को बुलवाया और इस प्रकार कहा,,
कुन्ती बोली ;- ‘भगवन्! भीमसेन नहीं दिखायी देता, वह कहाँ चला गया? उद्यान से सब लोग अपने भाइयों के साथ चलकर यहाँ आ गये। किंतु अकेला महाबाहु भीम अब तक मेरे पास लौटकर नहीं आया!। वह सदा दुर्योधन की आंखों में खटकता रहता है। दुर्योधन क्रूर, दुर्बुद्धि, क्षुद्र, राज्य का लोभी तथा निर्लज्ज है। अत: सम्भव है, वह क्रोध में वीर भीमसेन को धोखा देकर मार भी डाले। इसी चिन्ता से मेरा चित्त व्याकुल हो उठा है, हृदय दग्ध-सा हो रहा है’।
विदुरजी ने कहा ;- कल्याणी! ऐसी बात मुंह से न निकालो, शेष पुत्रों की रक्षा करो। यदि दुर्योधन को उलाहना देकर इस विषय में पूछ-ताछ की जायगी तो वह दुष्टात्मा तुम्हारे शेष पुत्रों पर भी प्रहार कर सकता है। महामुनि व्यास ने पहले जैसा कहा है, उसके अनुसार तुम्हारे ये सभी पुत्र दीर्घजीवी हैं, अत: तुम्हारा पुत्र भीमसेन कहीं भी क्यों न गया हो, अवश्य लौटेगा और तुम्हें आनन्द प्रदान करेगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टाविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! विद्वान् विदुर यों कहकर अपने घर में चले गये। इधर कुन्ती चिन्तामग्न होकर अपने चारों पुत्रों के साथ चुपचाप घर में ही बैठ रही। उधर, नागलोक में सोये हुए बलवान् भीमसेन आठवें दिन, जब वह रस पच गया, जगे। उस समय उनके बल की कोई सीमा नहीं रही। पाण्डुनन्दन भीम को जगा हुआ देख सब नागों ने शान्तचित्त उन्हें आश्वासन दिया और यह बात कही- ‘महाबाहो! तुमने जो यह शक्तिपूर्ण रस पीया है, इसके कारण तुम्हारा बल दस हजार हाथियों के समान होगा और तुम युद्ध में अजेय हो जाओगे। आज तुम इस दिव्य जल से स्नान करो और अपने घर लौट जाओ। कुरुश्रेष्ठ! तुम्हारे बिना तुम्हारे सब भाई निरन्तर दु:ख और चिन्ता में डूबे रहते हैं’। तब महाबाहु भीमसेन ने स्नान करके शुद्ध हो गये। उन्होंने श्वेत वस्त्र पुष्पों की माला धारण की। तत्पश्चात नाग राज के भवन में उनके लिये कौतुक एवं मंगलाचार सम्पन्न किये गये। फिर उन महाबली भीम ने विष-नाशक सुगन्धित औषधियों के साथ नागों की दी हुई खीर खायी। इसके बाद नागों ने वीर भीमसेन का आदर-सत्कार करके उन्हें शुभाशीर्वादों से प्रसन्न किया। दिव्य आभूषणों से विभूषित शत्रुदमन भीमसेन नागों की आज्ञा ले प्रसन्नचित्त हो नागलोक से जाने को उद्यत हुए। तब किसी नाग ने कमलनयन कुरुनन्दन भीम को जल से ऊपर उठाकर उसी वन में (गंगा तटवर्ती प्रमाण कोटि में) रख दिया।
फिर वे नाग पाण्डुपुत्र भीम के देखते-देखते अन्तर्धान हो गये। तब महाबली कुन्तीकुमार महाबाहु भीमसेन वहाँ से उठकर शीघ्र ही अपनी माता के समीप आ गये। तदनन्तर शत्रुदमन भीम ने माता और बड़े भाई को प्रणाम करके स्नेहपूर्वक छोटे भाइयों का सिर सूंघा। माता तथा उन नरश्रेष्ठ भाइयों ने भी उन्हें हृदय से लगाया और एक दूसरे के प्रति स्नेहाधिक्य के कारण सबने भीम के आगमन से अपने सौभाग्य की सराहना की- ‘अहोभाग्य! अहोभाग्य!’ कहा। तदनन्तर महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न भीमसेन ने दुर्योधन की वे सारी कुचेष्टाऐं अपने भाइयों को बतायीं। और नाग लोक में जो गुण-दोषपूर्ण घटनाऐं घटी थीं, उन सबको भी पाण्डुनन्दन भीम ने पूर्णरूप से कह सुनाया। तब राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन से मतलब की बात कही,,
युधिष्ठिर ने कहा ;- ‘भैया भीम! तुम सर्वथा चुप हो जाओ। तुम्हारे साथ जो बर्ताव किया गया है, वह कहीं किसी प्रकार भी न कहना’। यों कहकर महाबाहु धर्मराज युधिष्ठिर अपने सब भाइयों के साथ उस समय से खूब सावधान रहने लगे। दुर्योधन ने भीमसेन के प्रिय सारथि को हाथ से गला घोंट कर मार डाला। उस समय भी धर्मात्मा विदुर ने उन कुन्तीपुत्रों को यही सलाह दी कि वे चुपचाप सब कुछ सहन कर लें। धृतराष्ट्रकुमार ने भीमसेन के भोजन में पुन: नया, तीखा और सत्त्व के रूप में परिणत रोंगटे खड़े कर देने वाला कालकूट नामक विष डलवा दिया। वैश्यापुत्र युयुत्सु ने कुन्ती पुत्रों के हित की कामना से यह बात उन्हें बता दी। परंतु भीम से उस विष को भी खाकर बिना किसी विकार के पचा लिया।
यद्यपि वह विष बड़ा तेज था, तो भी उनके लिये कोई बिगाड़ न कर सका। भयंकर शरीर वाले भीमसेन के उदर में वृक नाम की अग्नि थी; अत: वहाँ जाकर यह विष पच गया। इस प्रकार दुर्योधन, कर्ण तथा सुबलपुत्र शकुनि अनेक उपायों द्वारा पाण्डवों को मार डालना चाहते थे। पाण्डव भी यह सब जान लेते और क्रोध में भर जाते थे, तो भी विदुर की राय के अनुसार चलने के कारण अपने अमर्ष को प्रकट नहीं करते थे।
राजा धृतराष्ट्र ने उन कुमारों को खेल-कूद में लगे रहने से अत्यन्त उद्दण्ड होते देख उन्हें शिक्षा देने के लिये गौतम गोत्रिय कृपाचार्य की खोज करायी, जो सरकंडे के समूह से उत्पन्न हुए और विविध शास्त्रों के पारंगत विद्वान् थे। उन्हीं को गुरु बनाकर कुरुकुल के उन सभी कुमारों को उन्हें सौंप दिया गया; फिर वे कुरुवंशी बालक कृपाचार्य से धनुर्वेद का अध्ययन करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में भीम के लौटने से सम्बंध रखने वाला एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ उन्नतिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति तथा द्रोण को परशुरामजी से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति की कथा"
जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! कृपाचार्य का जन्म किस प्रकार हुआ? यह मुझे बताने की कृपा करें। वे सरकंडे के समूह से किस तरह उत्पन्न हुए एवं उन्होंने किस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा प्राप्त की?
वैशम्पायन जी ने कहा ;- महाराज! महर्षि गौतम के शरद्वान् गौतम नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र थे। प्रभो! कहते हैं, वे सरकंडों के साथ उत्पन्न हुए थे। परंतप! उनकी बुद्धि धनुर्वेद में जितनी लगती थी, उतनी वेदों के अध्ययन में नहीं। जैसे अन्य ब्रह्मचारी तपस्यापूर्वक वेदों का ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार उन्होंने तपस्या युक्त होकर सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये। वे धनुर्वेद में पारंगत तो थे ही, उनकी तपस्या भी बड़ी भारी थी, इससे गौतम ने देवराज इन्द्र को अत्यन्त चिन्ता में डाल दिया था। कौरव! तब देवराज ने जानपदी नाम की एक देवकन्या को उनके पास भेजा और यह आदेश किया कि ‘तुम शरद्वान् की तपस्या में विघ्न डालो’। वह जानपदी शरद्वान् के रमणीय आश्रम पर जाकर धनुष धारण करने वाले गौतम को लुभाने लगी। गौतम ने एक वस्त्र धारण करने वाली उस अप्सरा को वन में देखा। संसार में उसके सुन्दर शरीर की कहीं तुलना नहीं थी। उसे देखकर शरद्वान् के नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। उनके हाथों से धनुष और बाण छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़े तथा उसकी ओर देखने से उनके शरीर में कम्प हो आया।
शरद्वान् ज्ञान में बहुत बढ़े-चढ़े थे और उनमें तपस्या की भी प्रबल शक्ति थी। अत: वे महाप्राज्ञ मुनि अत्यन्त धीरता-पूर्वक अपनी मर्यादा में स्थित रहे। राजन्! किंतु उनके मन में सहसा जो विकार देखा गया, इससे उनका वीर्य स्खलित हो गया; परंतु इस बात का उन्हें भान नहीं हुआ। वे मुनि बाण सहित धनुष, काला मृगचर्म, वह आश्रम और वह अप्सरा- सबको वहीं छोड़कर वहाँ से चल दिये उनका वह वीर्य सरकंडे के समुदाय पर गिर पड़ा। राजन्! वहाँ गिरने पर उनका वीर्य दो भागों में बंट गया। तदनन्तर गौतमनन्दन शरद्वान् के उसी वीर्य से एक पुत्र और एक कन्या की उत्पत्ति हुई। उस दिन दैवच्छा से राजा शान्तनु वन में शिकार खेलने आये थे। उनके किसी सैनिक ने वन में उन युगल संतानों को देखा। वहाँ बाणसहित धनुष और काला मृगचर्म देखकर उसने यह जान लिया कि ‘ये दोनों किसी धनुर्वेद के पारंगत विद्वान् ब्राह्मण की संतानें हैं’ ऐसा निश्चय होने पर उसने राजा को ये दोनों बालक और बाण सहित धनुष दिखाया। राजा उन्हें देखते ही कृपा के वशीभूत हो गये और उन दोनों को साथ ले अपने घर आ गये। वे किसी के पूछने पर यही परिचय देते थे कि ‘ये दोनों मेरी ही संतानें हैं’। तदनन्तर नरश्रेष्ठ प्रतीपनन्दन शान्तनु ने शरद्वान् के उन दोनों बालकों का पालन-पोषण किया और यथा सम्भव उन्हें सब संस्कारों से सम्पन्न किया। गौतम (शरद्वान्) भी उस आश्रम से अन्यत्र जाकर धनुर्वेद के अभ्यास में तत्पर रहने लगे। राजा शन्तनु ने यह सोचकर कि मैंने इन बालकों को कृपापूर्वक पाला पोसा है, उन दोनों के वे ही नाम रख दिये- कृप और कृपी। राजा के द्वारा पालित हुई अपनी दोनों संतानों का हाल गौतम ने तपोबल से जान लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)
और वहाँ गुप्त रूप से आकर अपने पुत्र को गोत्र आदि सब बातों का पूरा परिचय दे दिया। चार प्रकार के धनुर्वेद, नाना प्रकार के उपदेश तथा उन सबके गूढ़ रहस्य का भी पूर्ण रुप से उसको उपदेश दिया। इससे कृप थोड़े ही समय में धनुर्वेद के उत्कृष्ट आचार्य हो गये धृतराष्ट्र के महारथी पुत्र, पाण्डव देशों से आये हुए अन्य नरेश भी उनसे धनुर्वेद की शिक्षा लेते थे।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! कृपाचार्य के द्वारा पूर्णत: शिक्षा मिल जाने पर पितामह भीष्म ने अपने पौत्रों में विशिष्ट योग्यता लाने के लिये उन्हें और अधिक शिक्षा देने की इच्छा से ऐसे आचार्यों की खोज प्रारम्भ की, जो बाण-संचालन की कला में निपुण और अपने पराक्रम के लिये सम्मानित हों। उन्होंने सोचा- ‘जिसकी बुद्धि थोड़ी है, जो महान् भाग्यशाली नहीं है, जिसने नाना प्रकार की अस्त्र-विद्या में निपुणता नहीं प्राप्त की है तथा जो देवताओं के समान शक्तिशाली नहीं है, वह इन महाबली कौरवों को अस्त्रविद्या की शिक्षा नहीं दे सकता।’ नरश्रेष्ठ! यों विचार कर भरतश्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म ने भरद्वाजवंशी, वेदवेत्ता तथा बुद्धिमान् द्रोण को आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित करके उनको शिष्य रूप में पाण्डवों तथा कौरवों को समर्पित कर दिया। अस्त्रविद्या के विद्वानों में श्रेष्ठ महाभाग द्रोण महात्मा भीष्म के द्वारा शास्त्रविधि से भली-भाँति पूजित होने पर बहुत संतुष्ट हुए। फिर उन महायशस्वी आचार्य द्रोण ने उन सबको शिष्य रुप में स्वीकार किया और सम्पूर्ण धनुर्वेद की शिक्षा दी। राजन्! अमित तेजस्वी पाण्डव तथा कौरव-सभी थोड़े ही समय में सम्पूर्ण शस्त्रविद्या में परमप्रवीण हो गये।
जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! द्रोणाचार्य की उत्पत्ति कैसे हुई? उन्होंने किस प्रकार अस्त्र-विद्या प्राप्त की? वे कुरुदेश में कैसे आये? तथा वे महापराक्रमी द्रोण किसके पुत्र थे? साथ ही अस्त्र-शस्त्र के विद्वानों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा, जो द्रोण का पुत्र था, कैसे उत्पन्न हुआ? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ। आप विस्तारपूर्वक कहिये।
वैशम्पायनजी ने कहा ;- जनमेजय! गंगाद्वार में भगवान् भरद्वाज नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि रहते थे। वे सदा अत्यन्त कठोर व्रतों का पालन करते थे। एक दिन उन्हें एक विशेष प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान करना था। इसलिये वे भरद्वाज मुनि महर्षियों को साथ लेकर गंगा जी में स्नान करने के लिये गये। वहाँ पहुँचकर महर्षि ने प्रत्यक्ष देखा, घृताची अप्सरा पहले से ही स्नान करके नदी के तट पर खड़ी हो वस्त्र बदल रही है। वह रूप और यौवन से सम्पन्न थी। जवानी के नशे में मद से उन्मत्त हुई जान पड़ती थी। उसका वस्त्र खिसक गया और उसे उस अवस्था में देखकर ऋषि के मन में कामवासना जाग उठी। परमबुद्धिमान् भरद्वाज जी का मन अप्सरा में आसक्त हुआ; इससे उनका वीर्य स्खलित हो गया। ऋषि ने उस वीर्य को द्रोण (यज्ञ कलश) में रख दिया। तब उन बुद्धिमान् महर्षि को उस कलश से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वह द्रोण से जन्म लेने के कारण द्रोण नाम से विख्यात हुआ। उसने सम्पूर्ण वेदों और वेदांगों का अध्ययन किया। प्रतापी महर्षि भरद्वाज अस्त्र वेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। उन्होंने महाभाग अग्निवेश को अस्त्र की शिक्षा दी थी। जनमेजय! अग्निवेश मुनि साक्षात् अग्नि के पुत्र थे। उन्होंने अपने गुरु पुत्र भरद्वाजनन्दन द्रोण को उस आग्नेय नामक महान् अस्त्र की शिक्षा दी।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 41-57 का हिन्दी अनुवाद)
उन दिनों पृषत नाम से प्रसद्धि एक भूपाल महर्षि भरद्वाज के मित्र थे। उन्हें उसी समय एक पुत्र हुआ, जिसका नाम द्रुपद था वह राजकुमार क्षत्रियों में श्रेष्ठ था। वह प्रतिदिन भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाकर द्रोण के साथ खेलता और अध्ययन करता था। नरेश्वर जनमेजय! पृषत की मृत्यु हो जाने पर महाबाहु द्रुपद उत्तर-पंचाल देश के राजा हुए। कुछ दिनों बाद भगवान् भराद्वाज भी स्वर्गवासी हो गये और महातपस्वी द्रोण उसी आश्रम में रहकर तपस्या करने लगे। वे वेदों और वेदांगों के विद्वान् तो थे ही, तपस्या द्वारा अपनी सम्पूर्ण पापराशि को दग्ध कर चुके थे। उनका महान् यश सब ओर फैल चुका था। एक समय पितरों ने उनके मन में पुत्र के लोभ से शरद्वान् की पुत्री कृपी को धर्मपत्नी के रुप में ग्रहण किेया। कृपी सदा अग्निहोत्र, धर्मानुष्ठान तथा इन्द्रिय संयम में उनका साथ देती थी। गौतमी कृपी ने द्रोण से अश्वत्थामा नामक पुत्र प्राप्त किया। उस बालक ने जन्म लेते ही उच्चै:श्रवा घोड़े के समान शब्द किया। उसे सुनकर ,,,
अन्तरिक्ष में स्थित किसी अदृश्य चेतन ने कहा ;- ‘इस बालक के चिल्लाते समय अश्व के समान शब्द सम्पूर्ण दिशाओं में गूंज उठा है; अत: यह अश्वत्थामा नाम से ही प्रसिद्ध होगा।’ उस पुत्र से भरद्वाजनन्दन द्रोण को बड़ी प्रसन्नता हुई। बुद्धिमान् द्रोण उसी आश्रम में रहकर धनुर्वेद का अभ्यास करने लगे।
राजन्! किसी समय उन्होंने सुना कि ‘महात्मा जमदग्निनन्दन परशुराम जी इस समय सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं तथा शत्रुओं को संताप देने वाले वे विप्रवर ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान करना चाहते हैं। द्रोण ने यह सुनकर कि परशुराम के पास सम्पूर्ण धनुर्वेद तथा दिव्यास्त्रों का ज्ञान है, उन्हें प्राप्त करने की इच्छा की। इसी प्रकार उन्होंने उनसे नीति-शास्त्र की शिक्षा लेने का भी विचार किया। फिर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले तपस्वी शिष्यों से घिरे हुए महातपस्वी महाबाहु द्रोण परम उत्तम महेन्द्र पर्वत पर गये। महेन्द्र पर्वत पर पहुँचकर महान् तपस्वी द्रोण ने क्षमा एवं शम-दम आदि गुणों से युक्त शत्रुनाशक भृगुननदन परशुरामजी का दर्शन किया। तत्पश्चात् शिष्यों सहित द्रोण ने भृगुश्रेष्ठ परशुराम जी के समीप जाकर अपना नाम बताया और यह भी कहा कि ‘मेरा जन्म आंगिरस कुल में हुआ है’। इस प्रकार नाम और गोत्र बताकर उन्होंने पृथ्वी पर मस्तक टेक दिया और परशुरामजी के चरणों में प्रणाम किया। तदनन्तर सर्वस्व त्याग कर वन में जाने की इच्छा रखने वाले महात्मा जमदग्निकुमार से द्रोण ने इस प्रकार कहा,,
द्रोण बोले ;- ‘द्विजश्रेष्ठ! मैं महर्षि भरद्वाज से उत्पन्न उनका अयोनिज पुत्र हूँ। आपको यह ज्ञात हो कि मैं धन की इच्छा से आया हूँ। मेरा नाम द्रोण है’।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 58-67का हिन्दी अनुवाद)
यह सुनकर समस्त क्षत्रियों का संहार करने वाले महात्मा परशुराम उनसे यों बोले
परशुराम जी बोले ;- ‘द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारा स्वागत है। तुम जो कुछ भी चाहते हो, मुझसे कहो।’ उनके इस प्रकार पूछने पर भरद्वाजकुमार द्रोण ने नाना प्रकार के धन-रत्नों का दान करने की इच्छा वाले, योद्धाओं में श्रेष्ठ परशुराम से कहा,,
द्रोण बोले ;- ‘महान् व्रत का पालन करने वाले महर्षे! मैं आपसे ऐसे धन की याचना करता हूं, जिसका कभी अन्त न हो’।
परशुराम जी बोले ;- तपोधन! मेरे पास यहाँ जो कुछ सुवर्ण तथा अन्य प्रकार का धन था, वह सब मैंने ब्राह्मणों को दे दिया। इसी प्रकार ग्राम और नगरों की पंक्तियों से सुशोभित होने वाली समुद्र पर्यन्त यह सारी पृथ्वी महर्षि कश्यप को दे दी है। अब मेरा यह शरीर मात्र बचा है। साथ ही नाना प्रकार के बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान अवशिष्ट है। अत: तुम अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान अथवा यह शरीर मांग लो। इसे देने के लिये मैं सदा प्रस्तुत हूँ। द्रोण! बोलो, मैं तुम्हे क्या दूं? शीघ्र उसे कहो।
द्रोण ने कहा ;- भृगुनन्दन! आप मुझे प्रयोग, रहस्य तथा संहार विधि सहित सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्रदान करें। तब ‘तथास्तु’ कहकर भृगुवंशी परशुराम जी ने द्रोण को सम्पूर्ण अस्त्र प्रदान किये तथा रहस्य और व्रत सहित सम्पूर्ण धनुर्वेद का भी उपदेश किया। वह सब ग्रहण करके द्विजश्रेष्ठ द्रोण अस्त्र विद्या के पूरे पण्डित हो गये और अत्यन्त प्रसन्न हो अपने प्रिय सखा द्रुपद के पास गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में द्रोण को परशुराम जी से अस्त्रविद्या की प्राप्तिविषयक एक सौ उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ तिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना, राजकुमारों से उनकी भेंट, उनकी बीटा और अंगूठी को कुऐं में से निकालना एवं भीष्म का उन्हें अपने यहाँ सम्मानपूर्वक रखना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! प्रतापी द्रोण राजा द्रुपद के यहाँ आकर उनसे इस प्रकार बोले,,
द्रोण बोले ;- ‘राजन्! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैं तुम्हारा मित्र द्रोण यहाँ तुमसे मिलने के लिये आया हूं’। मित्र द्रोण के द्वारा इस प्रकार प्रेमपूर्वक कहे जाने पर पाञ्चालदेश के नरेश उनकी इस बात को सह न सके। क्रोध और अमर्ष से उनकी भौहें टेढ़ी हो गयीं, आंखों में लाली छा गयी; धन और एश्वर्य के मद से उन्मत्त होकर वे राजा द्रोण से यों बोले।
द्रुपद ने कहा ;- ब्रह्मन्! तुम्हारी बुद्धि सवर्था संस्कार शून्य-अपरिपक्क है। तुम्हारी यह बुद्धि यथार्थ नहीं है। तभी तो तुम धृष्टतापूर्वक मुझसे कह रहे हो कि ‘राजन्! मैं तुम्हारा सखा हूं’। ओ मूढ़! बड़े-बड़े राजाओं की तुम्हारे-जैसे श्रीहीन और निर्धन मनुष्यों के साथ कभी मित्रता नहीं होती। समय के अनुसार मनुष्य ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता है, त्यों-ही-त्यों उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली जाती है। पहले तुम्हारे साथ जो मेरी मित्रता थी, वह सामर्थ्य को लेकर थी- उस समय मैं और तुम दोनों समान शक्तिशाली थे। लोक में किसी भी मनुष्य के हृदय में मैत्री अमिट होकर नहीं रहती समय एक मित्र को दूसरे से विलग कर देता है अथवा क्रोध मनुष्य को मित्रता से हटा देता है। इस प्रकार क्षीण होने वाली मैत्री का भरोसा न करो। हम दोनों एक दूसरे के मित्र थे- इस भाव को हृदय से निकाल दो। द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह साथ-साथ खेलने और अध्ययन आदि स्वार्थ को लेकर हुई थी। सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवान् का, मूर्ख विद्वान् का और कायर शूरवीर का सखा नहीं हो सकता; अत: पहले की मित्रता का क्या भरोसा करते हो। जिनका धन समान है, जिनकी विद्या एक-सी है, उन्हीं में विवाह और मैत्री का सम्बन्ध हो सकता है। हुष्ट-पुष्ट और दुर्बल में (धनवान् और निर्धन में) कभी मित्रता नहीं हो सकती। जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) का मित्र नहीं हो सकता। जो रथी नहीं है वह रथी का सखा नहीं हो सकता। इस प्रकार जो राजा नहीं है, वह किसी राजा का मित्र कदापि नहीं हो सकता। फिर तुम पुरानी मित्रता का क्यों स्मरण करते हो?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा द्रुपद के यों कहने पर प्रतापी द्रोण क्रोध से जल उठे और दो घड़ी तक गहरी चिन्ता में डूबे रहे। वे बुद्धिमान् तो थे ही, पाञ्चाल नरेश से बदला लेने के विषय में मन-ही-मन कुछ निश्चय करके कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर नगर में चले गये। हस्तिनापुर में पहुँचकर द्विजश्रेष्ठ द्रोण गौतम गोत्रीय कृपाचार्य के घर में गुप्त रूप से निवास करने लगे। वहाँ उनके पुत्र शक्तिशाली अश्वत्थामा कृपाचार्य के बाद पाण्डवों को स्वयं ही अस्त्रविद्या की शिक्षा देने लगे; किन्तु लोग उन्हें पहचान न सके। इस प्रकार द्रोण ने वहाँ अपने आपको छिपाये रखकर कुछ काल तक निवास किया। तदनन्तर एक दिन कौरव-पाण्डव सभी वीर कुमार हस्तिनापुर से बाहर निकलकर बड़ी प्रसन्नता के साथ वहां गुल्ली-डंडा खेलने लगे। उस समय खेल में लगे हुए उन कुमारों की वह बीटा कुऐं में गिर पड़ी।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
तब वे उस बीटा को निकालने के लिये बड़ी तत्परता के साथ प्रयत्न में लग गये: परंतु उसे प्राप्त करने का कोई भी उपाय उनके ध्यान में नहीं आया। इस कारण लज्जा से नतमस्तक होकर वे एक दूसरे की ओर देखने लगे। गुल्ली निकालने का कोई उपाय न मिलने के कारण वे अत्यन्त उत्कण्ठित हो गये। इसी समय उन्होंने एक श्याम वर्ण के ब्राह्मण को थोड़ी ही दूर पर बैठे देखा, जो अग्निहोत्र करके किसी प्रयोजन से वहाँ रुके हुए थे। वे पत्तिग्रस्त जान पड़ते थे। उनके सिर के बाल सफेद हो गये थे और शरीर अत्यन्त दुर्बल था। उन महात्मा ब्राह्मण को देखकर वे सभी कुमार उनके पास गये और उन्हें घेरकर खड़े हो गये। उनका उत्साह भंग हो गया था। कोई काम करने की इच्छा नहीं होती थी। मन में भारी निराशा भर गयी थी। तदनन्तर पराक्रमी द्रोण यह देखकर कि इन कुमारों का अभीष्ट कार्य पूर्ण नहीं हुआ है- ये उसी प्रयोजन से मेरे पास आये हैं, उस समय मंद मुस्कराहट के साथ बड़े कौशल से बोले
द्रोण बोले ;- ‘अहो! तुम लोगों के क्षत्रिय बल को धिक्कार है और तुम लोगों की इस अस्त्र विद्या-विषयक निपुणता को भी धिक्कार है; क्योंकि तुम लागे भरतवंश में जन्म लेकर भी कुऐं में गिरी हुई गुल्ली को भी नहीं निकाल पाते। देखो, मैं तुम्हारी गुल्ली और अपनी इस अंगूठी दोनों को इस सींक से निकाल सकता हूँ। तुम लोग मेरी जीविका की व्यवस्था करो।’ उन कुमारों से यों कहकर शत्रुओं का दमन करने वाले द्रोण ने उस निर्जल कुऐं में अपनी अंगूठी डाल दी। उस समय कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने द्रोण से कहा।
युधिष्ठिर बोले ;- ब्रह्मन्! आप कृपाचार्य की अनुमति ले सदा यहीं रहकर भिक्षा प्राप्त करें। उनके यों कहने पर द्रोण ने हंसकर उन भरतवंशी राजकुमारों से कहा।
द्रोण बोले ;- ये मुट्ठी भर सींकें हैं जिन्हें मैंने अस्त्र मन्त्र के द्वारा अभिमन्त्रित किया है। तुम लोग इसका बल देखा, जो दूसरे में नहीं है। मैं पहले एक सींक से उस गुल्ली को बींध दूंगा फिर दूसरी सींक से उस पहली सींक को बींध दूंगा। इसी प्रकार दूसरी को तीसरी से बींधते हुए अनेक सीकों को संयोग होने पर मुझे गुल्ली मिल जायेगी।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर द्रोण ने जैसा कहा था, वह सब कुछ अनायास ही कर दिखाया। यह अद्भुत कार्य देखकर उन कुमारों के नेत्र आश्चर्य से खिल उठे। इसे अत्यन्त आश्चर्य मानकर वे इस प्रकार बोले।
कुमारों ने कहा ;- ब्रह्मर्षे! अब आप शीघ्र ही इस अंगूठी को भी निकाल दीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तब महायशस्वी द्रोण ने धनुष-बाण लेकर बाण से उस अंगूठी को बींध दिया और उसे ऊपर निकाल लिया। शक्तिशाली द्रोण ने इस प्रकार कुऐं से बाण सहित अंगूठी निकाल कर उन आश्चर्यचकित कुमारों के हाथ में दे दी; किंतु वे स्वयं तनिक भी विस्मित नहीं हुए। उस अंगूठी को कुएं से निकाली हुई देखकर उन कुमारों ने द्रोण से कहा।
कुमार बोले ;- ब्रह्मन्! हम आपको प्रणाम करते हैं। यह अद्भुत अस्त्र-कौशल दूसरे किसी में नहीं है। आप कौन हैं, किसके पुत्र हैं- यह हम जानना चाहते हैं। बताइये, हम लोग आपकी क्या सेवा करें?
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 35-51 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुमारों के इस प्रकार पूछने पर द्रोण ने उनसे कहा।
द्रोण बोले ;- तुम सब लोग भीष्म जी के पास जाकर मेरे रूप और गुणों का परिचय दो। वे महातेजस्वी भीष्म जी ही मुझे इस समय पहचान सकते हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे कुमार भीष्म जी के पास गये और ब्राह्मण की सच्ची बातों तथा उनके उस अद्भुत पराक्रम को भी उन्होंने भीष्म जी से कह सुनाया। कुमारों की बातें सुनकर भीष्म जी समझ गये कि वे आचार्य द्रोण हैं। फिर यह सोचकर कि द्रोणाचार्य ही इन कुमारों के उपयुक्त गुरु हो सकते हैं, भीष्म जी स्वयं ही आकर उन्हें सत्कारपूर्वक घर ले गये। वहाँ शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीष्म जी ने बड़ी बुद्धिमता के याथ द्रोणाचार्य से उनके आगमन का कारण पूछा और द्रोण ने वह सब कारण इस प्रकार निवेदन किया।
द्रोणाचार्य ने कहा ;- अपनी प्रतिज्ञा से कभी च्युत न होने वाले भीष्म जी! पहले की बात है, मैं अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा तथा धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करने के लिये महर्षि अग्निवेश के समीप गया था। वहाँ मैं विनीत हृदय से ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सिर पर जटा धारण किये बहुत वर्षों तक रहा। गुरु की सेवा में निरन्तर संलग्न रहकर मैंने दीर्घ काल तक उनके आश्रम में निवास किया। उन दिनों पाञ्चाल राजकुमार महाबली यज्ञसेन द्रुपद भी, जो बड़े शक्तिशाली थे, धनुर्वेद की शिक्षा पाने के लिये उन्हीं गुरुदेव अग्निवेश के समीप रहते थे। वे उस गुरुकुल में मेरे बड़े ही उपकारी और प्रिय मित्र थे। प्रभो! उनके साथ मिल-जुल कर मैं बहुत दिनों तक आश्रम में रहा। बचपन से ही हम दोनों का अध्ययन साथ-साथ चलता था। द्रुपद वहाँ मेरे घनिष्ठ मित्र थे वे सदां मुझसे प्रिय वचन बोलते और मेरा प्रिय कार्य करते थे। भीष्म जी! वे एक दिन मुझसे मेरी प्रसन्नता को बढ़ाने वाली यह बात बोले,,
द्रुपद बोले ;- ‘द्रोण! मैं अपने महात्मा पिता का अत्यन्त प्रिय पुत्र हूँ। तात! जब पाञ्चाल नरेश मुझे राज्य पर अभिषिक्त करेंगे, उस समय मेरा राज्य तुम्हारे उपभोग में आयेगा। सखे! मैं सत्य की सौगन्ध खाकर कहता हूं- मेरे भोग, वैभव और सुख सब तुम्हारे अधीन होंगे।’ यों कहकर वे अस्त्र विद्या में निपुण हो मुझसे सम्मानित होकर अपने देश को लौट गये।
उनकी उस समय कही हुई इस बात को मैं अपने मन में सदा याद रखता था। कुछ दिनों के बाद पितरों की प्रेरणा से मैंने पुत्र प्राप्ति के लोभ से परम बुद्धिमति, महान् व्रत का पालन करने वाली, अग्निहोत्र, सत्र तथा सम-दम के पालन में मेरे साथ सदा संलग्न रहने वाली शरद्वान् की पुत्री यशस्विनी कृपी से, जिसके केश बहुत बड़े नहीं थे, विवाह किया। उस गौतमी कृपी ने मुझसे मेरे औरस पुत्र अश्वत्थामा को प्राप्त किया जो सूर्य के समान तेजस्वी तथा भयंकर पराक्रम एवं पुरुषार्थ करने वाला है। उस पुत्र से मुझे उतनी ही प्रसन्नता हुई, जितनी मुझसे मेरे पिता भरद्वाज को हुई थी। एक दिन की बात है, गोधन के धनी ऋषि कुमार गाय का दूध पी रहे थे। उन्हें देखकर मेरा छोटा बच्चा अश्वत्थामा भी बाल-स्वभाव के कारण दूध पीने के लिये मचल उठा और रोने लगा। इसमें मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया- मुझे दिशाओं के पहचानने में भी संशय होने लगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 52-66 का हिन्दी अनुवाद)
मैंने मन-ही-मन सोचा, यदि मैं किसी कम गाय वाले ब्राह्मण से गाय मांगता हूँ, तो कहीं ऐसा न हो कि वह अपने अग्निहोत्र आदि कर्मों में लगा हुआ स्नातक गौदुग्ध के बिना कष्ट में पड़ जाये; अत: जिसके पास बहुत-सी गौऐं हों, उसी से धर्मानुकूल विशुद्ध दान लेने की इच्छा रखकर मैंने उस देश में कई बार भ्रमण किया। गंगानन्दन! एक देश से दूसरे देश में घूमने पर भी मुझे दूध देने वाली गाय न मिल सकी। मैं लौटकर आया तो देखता हूँ कि छोटे-छोटे बालक आटे के पानी से अश्वत्थामा को ललचा रहे हैं और वह अज्ञान मोहित बालक उस आटे के जल को ही पीकर मारे हर्ष के फूला नहीं समाता तथा यह कहता हुआ उठकर नाच रहा है कि ‘मैंने दूध पी लिया’। कुरुनन्दन! बालकों से घिरे हुए अपने पुत्र को इस प्रकार नाचते और उसकी हंसी उड़ायी जाती देख मेरे मन में बड़ा क्षोभ हुआ। उस समय कुछ लोग इस प्रकार कह रहे थे, ‘इस धनहीन द्रोण को धिक्कार है, जो धन का उपार्जन नहीं करता। जिसका बेटा दूध की लालसा से आटा मिला हुआ जल पीकर आनन्दमग्न हो यह कहता हुआ नाच रहा है कि मैंने भी दूध पी लिया।’ इस प्रकार की बातें करने वाले लोगों की आवाज मेरे कानों में पड़ी तो मेरी बुद्धि स्थिर न रह सकी। मैं स्वयं ही अपने आप की निन्दा करता हुआ मन-ही-मन इस प्रकार सोचने लगा- ‘मुझे दरिद्र जानकर पहले से ही ब्राह्मणों ने मेरा साथ छोड़ दिया। मैं धनाभाव के कारण निन्दित होकर उपवास भले ही कर लूंगा, परंतु धन के लोभ से दूसरों की सेवा, जो अत्यन्त पाप पूर्ण कर्म है, कदापि नहीं कर सकता’।
भीष्म जी! ऐसा निश्चय करके मैं अपने प्रिय पुत्र और पत्नी को साथ लेकर पहले के स्नेह और अनुराग के कारण राजा द्रुपद के यहाँ गया। मैंने सुन रखा था कि द्रुपद का राज्यभिषेक हो चुका है, अत: मैं मन-ही-मन अपने को कृतार्थ मानने लगा और बड़ी प्रसन्नता के साथ राज सिंहासन पर बैठे हुए अपने प्रिय सखा के समीप गया। उस समय मुझे द्रुपद की मैत्री और उनकी कही हुई पूर्वोक्त बातों का बारंबार स्मरण हो आता था। तदनन्तर अपने पहले के सखा द्रुपद के पास पहुँचकर मैंने कहा,,
द्रोण बोले ;- ‘नरश्रेष्ठ! मुझ अपने मित्र को पहचानो तो सही।’ प्रभो! मैं द्रुपद के पास पहुँचने पर उनसे मित्र की ही भाँति मिला। परंतु द्रुपद ने मुझे नीच मनुष्य के समान समझकर उपहास करते हुए इस प्रकार कहा,,
द्रुपद बोले ;- ‘ब्राह्मण! तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त असंगत एवं अशुद्ध है। तभी तो तुम मुझसे यह कहने की धृष्टता कर रहे हो कि राजन्! मैं तुम्हारा सखा हूं?’ समय के अनुसार मनुष्य ज्यों–ज्यों बूढा़ होता है, त्यों-त्यों उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली जाती है। पहले तुम्हारे साथ मेरी जो मित्रता थी, वह सामर्थ्य को लेकर थी- उस समय हम दोनों की शक्ति समान थी (किंतु अब वैसी बात नहीं है)। जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) का, जो रथी नहीं है, वह रथी का सखा नहीं हो सकता।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 67-79 का हिन्दी अनुवाद)
सब बातों में समानता होने से ही मित्रता होती है। विषमता होने पर मैत्री का होना असम्भव है। फिर लोक में कभी किसी की मैत्री अजर-अमर नहीं होती। समय एक मित्र को दूसरे से विलग कर देता है अथवा क्रोध मनुष्य को हटा देता है। इस प्रकार क्षीण हाने वाली मैत्री की उपासना (भरोसा) न करो। हम दोनों एक दूसरे के मित्र थे, इस भाव को हृदय से निकाल दो। द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह (साथ-साथ खेलने और अध्ययन करने आदि) स्वार्थ को लेकर हुई थी। सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवान् का, मूर्ख विद्वान् का और कायर शूरवीर का सखा नहीं हो सकता; अत: पहले की मित्रता का क्या भरोसा करते हो? मन्दमते! बड़े-बड़े राजाओं की तुम्हारे जैसे श्रीहीन और निर्धन मनुष्यों के साथ कभी मित्रता हो सकती है? जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय का, जो रथी नहीं है, वह रथी का तथा जो राजा नहीं है, वह राजा का मित्र नहीं हो सकता। फिर तुम मुझे जीर्ण-शीर्ण मित्रता का स्मरण क्यों दिलाते हो? मैंने अपने राज्य के लिये तुमसे कोई प्रतिज्ञा की थी, इसका मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है। ब्रह्मन्! तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हें एक रात के लिये अच्छी तरह भोजन दे सकता हूँ।’
राजा द्रुपद के यों कहने पर मैं पत्नी और पुत्र के साथ वहाँ से चल दिया। चलते समय मैंने एक प्रतिज्ञा की थी, जिसे शीघ्र पूर्ण करूंगा। द्रुपद के द्वारा जो इस प्रकार तिरस्कारपूर्ण वचन मेरे प्रति कहा गया है, उसके कारण मैं क्षोभ से अत्यन्त व्याकुल हो रहा हूँ। भीष्म जी! मैं गुणवान् शिष्यों के द्वारा अभीष्ट की सिद्धि चाहता हुआ आपके मनोरथ को पूर्ण करने के लिये पंचाल देश के कुरुराज्य के भीतर इस रमणीय हस्तिनापुर नगर में आया हूँ। बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूं?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- द्रोणाचार्य के यों कहने पर भीष्म ने उनसे कहा,,
भीष्म जी बोले ;- विप्रवर! अब आप अपने धनुष की डोरी उतार दीजिये और यहाँ रहकर राजकुमारों को धनुर्वेद एवं अस्त्र-शस्त्रों की अच्छी शिक्षा दीजिये। कौरवों के घर में सदा सम्मानित रहकर अत्यन्त प्रसन्नता के साथ मनोवाञ्छित भोगों का उपभोग कीजिये। कौरवों के पास जो धन, राज्य-वैभव तथा राष्ट्र है, उसके आप ही सबसे बड़े राजा हैं। समस्त कौरव आपके अधीन हैं।
ब्रह्मन्! आपने जो मांग की है, उसे पूर्ण हुई समझिये। ब्रह्मर्षे! आप आये, यह हमारे लिये सौभाग्य की बात है। आपने यहाँ पधारकर मुझ पर महान् अनुग्रह किया है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में भीष्म-द्रोण समागमविषयक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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