सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षड्-विंश अध्याय के श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)
"इंद्र द्वारा की हुई वर्षा से सर्पों की प्रसन्नता"
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- 'नागमाता कद्रू के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवान इन्द्र ने मेघों की काली घटाओं द्वारा सम्पूर्ण आकाश को आच्छादित कर दिया। साथ ही मेघों को आज्ञा दी- तुम सब शीतल जल की वर्षा करो।’ आज्ञा पाकर बिजलियों से प्रकाशित होने वाले उन मेघों ने प्रचुर जल की वृष्टि की। वे परस्पर अत्यन्त गर्जना करते हुए आकाश से निरन्तर पानी बरसाते रहे। जोर-जोर से गर्जने और लगातार असीम जल की वर्षा करने वाले अत्यन्त अद्भुत जलधरों ने सारे आकाश को घेर- सा लिया था। असंख्य धारारूप लहरों से युक्त वह मानो नृत्य सा कर रहा था।
भयंकर गर्जन-तर्जन करने वाले वे मेघ बिजली और वायु से प्रकम्पित हो उस समय निरन्तर मूसलाधार पानी गिरा रहे थे। उनके द्वारा आच्छादित आकाश में चन्द्रमा और सूर्य की किरणें भी अदृश्य हो गयी थीं। इन्द्र देव के इस प्रकार वर्षा करने पर नागों को बड़ा हर्ष हुआ। पृथ्वी पर सब ओर पानी ही पानी भर गया। वह शीतल और निर्मल जल रसातल तक पहुँच गया। उस समय सारा भूतल जल की असंख्य तरंगों से आच्छादित हो गया था। इस प्रकार वर्षा में संतुष्ट हुए सर्प अपनी माता के साथ रमणीय द्वीप में आ गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरितविषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"रामणीयक द्वीप के मनोरम वन का वर्णन तथा गरुड़ का दास्यभाव से छूटने के लिये सर्पों से उपाय पूछना"
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- गरुड़ पर सवार होकर यात्रा करने वाले वे नाग उस समय जलधारा से नहाकर अत्यन्त प्रसन्न हो शीघ्र ही रामणीयक द्वीप में जा पहुँचे। विश्वकर्मा जी के बनाये हुए उस द्वीप में, जहाँ अब मगर निवास करते थे, जब पहली बार नाग आये थे तो उन्हें वहाँ भयंकर लवणासुर का दर्शन हुआ था। सर्प गरुड़ के साथ उस द्वीप के मनोरम वन में आये, जो चारों ओर से समुद्र द्वारा घिरकर उसके जल से अभिषिक्त हो रहा था। वहाँ झुंड के झुंड पक्षी कलरव कर रहे थे। विचित्र फूलों और फलों से भरी हुई वन श्रेणियाँ उस दिव्य वन को घेरे हुए थीं। वह वन बहुत से रमणीय भवनों और कमलयुक्त सरोवरों से आवृत था। स्वच्छ जल वाले कितने ही दिव्य सरोवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य सुगन्ध का भार वहन करने वाली पावन वायु मानो वहाँ चँवर डुला रही थी। वहाँ ऊँचे-ऊँचे मलयज वृक्ष ऐसे प्रतीत होते थे, मानों आकाश में उड़े जा रहे हों। वे वायु के वेग से विकम्पित हो फूलों की वर्षा करते हुए उस प्रदेश की शोभा बढ़ा रहे थे। हवा के झोंके से दूसरे-दूसरे वृक्षों के भी फूल झड़ रहे थे, मानो वहाँ के वृक्ष समूह वहाँ उपस्थित हुए नागों पर फूलों की वर्षा करते हुए उनके लिये अर्ध्य दे रहे हों।
वह दिव्यवन हृदय के हर्ष को बढ़ाने वाला था। गन्धर्व और अप्सराएँ उसे अधिक पसंद करती थी। मतवाले भ्रमर वहाँ सब ओर गूँज रहे थे। अपनी मनोहर छटा के द्वारा वह अत्यन्त दर्शनीय जान पड़ता था। वह वन रमणीय, मंगलकारी और पवित्र होने के साथ ही लोगों के मन को मोहने वाले सभी उत्तम गुणों से युक्त था। भाँति-भाँति के पक्षियों के कलरवों से व्याप्त एवं परम सुन्दर होने के कारण वह कद्रू के पुत्रों का आनन्द बढ़ा रहा था। उस वन में पहुँच कर वे सर्प उस समय सब ओर विहार करने लगे और महापराक्रमी पक्षिराज गरुड़ से इस प्रकार बोले। ‘खेचर! तुम आकाश में उड़ते समय बहुत से रमणीय प्रदेश देखा करते हो; अतः हमें निर्मल जल वाले किसी दूसरे रमणीय द्वीप में ले चलो’।
गरुड़ ने कुछ सोचकर अपनी माता विनता से पूछा ;- ‘मां! क्या कारण है कि मुझे सर्पों की आज्ञा का पालन करना पड़ता है?’
विनता बोली ;- बेटा पक्षिराज! मैं दुर्भाग्यवश सौत की दासी हूँ, इन सर्पों ने छल करके मेरी जीती हुई बाजी को पलट दिया था। माता के यह कारण बताने पर आकाशकारी गरुड़ ने उस दुःख से दुखी होकर,,
सर्पों से कहा ;- ‘जीभ लपलपाने वाले सर्पों! तुम लोग सच-सच बताओ मैं तुम्हें क्या लाकर दे दूँ। किस विद्या का लाभ करा दूँ अथवा यहाँ कौन सा पुरुषार्थ करके दिखा दूँ; जिससे मुझे तथा मेरी माता को तुम्हारी दासता से छुटकारा मिल जाये।
उगश्रवा जी कहते हैं ;- गरुड़ की बात सुनकर,,
सर्पों ने कहा ;- ‘गरुड़! तुम पराक्रम करके हमारे लिये अमृत ला दो। इससे तुम्हें दास्यभाव से छुटकारा मिल जायेगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरितविषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
अठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टविंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"गरुड़ का अमृत के लिए जाना और अपनी माता की आज्ञा के अनुसार निषादों का भक्षण करना"
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- सर्पों की यह बात सुनकर,,
गरुड़ अपनी माता से बोले ;- ‘मां! मैं अमृत लाने के लिये जा रहा हूँ, किन्तु मेरे लिये भोजन-सामग्री क्या होगी? यह मैं जानना चाहता हूँ।
विनता ने कहा ;- समुद्र के बीच में एक टापू है, जिसके एकान्त प्रदेश में निषादों (जीवहिंसकों) का निवास है। वहाँ सहस्रों निषाद रहते हैं। उन्हीं को मारकर खा लो और अमृत ले आओ। किन्तु तुम्हें किसी प्रकार ब्राह्मण को मारने का विचार नहीं करना चाहिये; क्योंकि ब्राह्मण समस्त प्राणियों के लिये अवध्य है। वह अग्नि के समान दाहक होता है। कुपित किया हुआ ब्राह्मण अग्नि, सूर्य, विष एवं शस्त्र के समान भयंकर होता है। ब्राह्मण को समस्त प्राणियों का गुरु कहा गया है। इन्हीं रूपों में सत्पुरुषों के लिये ब्राह्मण आदरणीय माना गया है। तात! तुम्हें क्रोध आ जाये तो भी ब्राह्मण की हत्या से सर्वथा दूर रहना चाहिये। ब्राह्मणों के साथ किसी प्रकार का द्रोह नहीं करना चाहिये। अनघ! कठोर व्रत का पालन करने वाला ब्राह्मण क्रोध में आने पर अपराधी को जिस प्रकार जलाकर भस्म कर सकते। इस प्रकार विविध चिह्नों के द्वारा तुम्हें ब्राह्मण को पहचान लेना चाहिये। ब्राह्मण समस्त प्राणियों का अग्रज, सब वर्णों मे श्रेष्ठ, पिता और गुरु है।
गरुड़ ने पूछा ;- मां! ब्राह्मण का रूप कैसा होता है? उसका शील स्वभाव कैसा है? तथा उसमें कौन सा पराक्रम है। वह देखने में अग्नि जैसा जान पड़ता है। अथवा सौम्य दिखायी देता है? मां! जिस प्रकार शुभ लक्षणों द्वारा मैं ब्राह्मण को पहचान सकूँ, वह सब उपाय मुझे बताओ।
विनता बोली ;- बेटा! जो तुम्हारे कण्ठ में पड़ने अंगार की तरह जलने लगे और मानो बंसी का काँटा निगल लिया गया हो, इस प्रकार कष्ट देने लगे, उसे वर्णों में श्रेष्ठ ब्राह्मण समझाना। क्रोध में भरे होने पर भी तुम्हें ब्रह्म हत्या नहीं करनी चाहिये। विनता ने पुत्र के प्रति स्नहे होने के कारण पुनः इस प्रकार,, कहा - ‘बेटा! जो तुम्हारे पेट में पच न सके, उसे ब्राह्मण जानना।' पुत्र के प्रति स्नेह होने के कारण विनता ने पुनः इस प्रकार कहा। वह पुत्र के अनुपम बल को जानती थी तो भी नागों द्वारा ठगी जाने के कारण बड़े भारी दुःख से आतुर हो गयी थी। अतः अपने पुत्र को प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देने लगी।
विनता ने कहा ;- बेटा! वायु तुम्हारे दोनों पंखों की रक्षा करें, चन्द्रमा और सूर्य पृष्ठ भाग का संरक्षण करें। अग्निदेव तुम्हारे सिर की और वसुगण तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर की सब ओर से रक्षा करें। पुत्र! मैं भी तुम्हारे लिये शान्ति एवं कल्याण साधक कर्म में संलग्न हो यहाँ निरन्तर कुशल मानती रहूँगी।
वत्स! तुम्हारा मार्ग विघ्न रहित हो, तुम अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये यात्रा करो। बात सुनकर महाबली गरुड़ पंख पसारकर आकाश में उड़ गये तथा क्षुधातुर काल या दूसरे यमराज की भाँति उन निषादों के पास जा पहुँचे। उन निषादों का संहार करने के लिये उन्होंने उस समय इतनी अधिक धूल उड़ायी, जो पृथ्वी के आकाश तक छा गयी। वहाँ समुद्र की कुक्षि में जो जल था, उसका शोषण करके उन्होंने समीपवर्ती पर्वतीय वृक्षों को भी विकम्पित कर दिया। इसके बाद पक्षिराज ने अपना मुख बहुत बड़ा कर लिया और निषादों का मार्ग रोककर खड़े हो गये। तदनन्तर वे निषाद उतावली में पड़कर उसी ओर भागे, जिधर सर्पभोजी गरुड़ का मुख था। जैसे आँधी से कम्पित वृक्ष वाले वन में पवन और धूल से विमोहित एवं पीड़ित सहस्रों पक्षी उन्मुक्त आकाश में उड़ने लगते हैं, उसी प्रकार हवा और धूल की वर्षा से बेसुध हुए हजारों निषाद गरुड़ के खुले हुए अत्यन्त विशाल मुख में समा गये। तत्पश्चात शत्रुओं को संताप देने वाले, अत्यन्त चपल महाबली और क्षुधातुर पक्षिराज गरुड़ ने मछली मारकर जीविका चलाने वाले उन अनेकानेक निषादों का विनाश करने के लिये अपने मुख को संकुचित कर लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरितविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
उन्नतिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"कश्यप जी का गरुड़ को हाथी और कछुए के पूर्वजन्म की कथा सुनाना, गरुड़ का उन दोनों को पकड़कर एक दिव्य वट वृक्ष की शाखा पर ले जाना और उस शाखा का टूटना"
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- निषादों के साथ एक ब्राह्मण भी भार्या सहित गरुड़ के कण्ठ में चला गया था। वह दहकते हुए अंगार की भाँति जलन पैदा करने लगा।
तब आकाशचारी गरुड़ ने उस ब्राह्मण से कहा ;- 'द्बिजश्रेष्ठ! तुम मेरे खुले हुए मुख से जल्दी निकल जाओ। ब्राह्मण पापपरायण ही क्यों न हो मेरे लिये सदा अवध्य है।' ऐसी बात कहने वाले गरुड़ से वह ,,
ब्राह्मण बोला ;- ‘यह निषाद-जाति की कन्या मेरी भार्या है: अत: मेरे साथ यह भी निकले (तभी मैं निकल सकता हूँ)’।
गरुड़ ने कहा ;- ब्राह्मण! तुम इस निषादी को भी लेकर जल्दी निकल जाओ। तुम अभी तक मेरी जठराग्नि के तेज से पचे नहीं हो: अत: शीघ्र अपने जीवन की रक्षा करो।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- उनके ऐसा कहने पर वह ब्राह्मण निषादी सहित गरुड़ के मुख से निकल आया और उन्हें आशीर्वाद देकर अभीष्ट देश को चला गया। भार्या सहित उस ब्राह्मण के निकल जाने पर वह पक्षिराज गरुड़ पंख फैलाकर मन के समान तीव्र वेग से आकाश में उड़े। तदनंतर उन्हें अपने पिता कश्यप जी का दर्शन हुआ। उनके पूछ्ने पर अमेयात्मा गरुड़ ने पिता से यथोचित कुशल समाचार कहा। महर्षि कश्यप उनसे इस प्रकार बोले।
कश्यप जी ने पूछा ;- बेटा! तुम लोग कुशल से तो हो न? विशेषतः प्रतिदिन भोजन के सम्बन्ध में तुम्हें विशेष सुविधा है न? क्या मनुष्य लोक में तुम्हारे लिये पर्याप्त अन्न मिल जाता है?
गरुड़ ने कहा ;- मेरी माता सदा कुशल से रहती हैं। मेरे भाई तथा मैं दोनों सकुशल हैं। परन्तु पिता जी! पर्याप्त भोजन के विषय में तो सदा मेरे लिये कुशल का अभाव ही है। मुझे सर्पों ने उत्तम अमृत लाने के लिये भेजा है। माता को दासीपन से छुटकारा दिलाने के लिये आज मैं निश्चय ही उस अमृत को लाऊँगा।
भोजन के विषय में पूछने पर माता ने कहा ;- ‘निषादों का भक्षण करो, परन्तु हजारों निषादों को खा लेने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है।' अत: भगवान! आप मेरे लिये कोई दूसरा भोजन बताइये। प्रभो! वह भोजन ऐसा हो जिसे खाकर मैं अमृत लाने में समर्थ हो सकूँ। मेरी भूख-प्यास को मिटा देने के लिये आप पर्याप्त भोजन बताइये।'
कश्यप जी बोले ;- बेटा! यह महान पुण्यदायक सरोवर है, जो देवलोक में भी विख्यात है। उसमें एक हाथी नीचे को मुँह किये सदा सूँड से पकड़कर एक कछुए को खींचता रहता है। वह कछुआ पूर्व जन्म में उसका बड़ा भाई था। दोनों में पूर्व जन्म का वैर चला आ रहा है। उनमें यह वैर क्यों और कैसे हुआ तथा उन दोनों के शरीर की लम्बाई चौड़ाई और ऊँचाई कितनी है, ये सारी बातें मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो। पूर्वकाल में विभावसु नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि थे। वे स्वभाव के बड़े क्रोधी थे। उनके छोटे भाई का नाम था सुप्रतीक। वे भी बड़े तपस्वी थे। महामुनि सुप्रतीक। अपने धन को बड़े भाई के साथ एक जगह नहीं रखना चाहते थे। सुप्रतीक प्रतिदिन बँटबारे के लिये आग्रह करते ही रहते थे।
तब एक दिन बड़े भाई विभावसु ने सुप्रतीक से कहा ;- ‘भाई! बहुत से मनुष्य मोहवश सदा धन का बँटबारा कर लेने की इच्छा रखते हैं। तदनन्तर हो जाने पर धन के मोह में फँसकर वे एक दूसरे के विरोधी हो परस्पर क्रोध करने लगते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद)
वे स्वार्थपरायण मूढ़ मनुष्य अपने धन के साथ जब अलग-अलग हो जाते हैं, तब उनकी यह अवस्था जानकर शत्रु भी मित्ररूप में आकर मिलते और उनमें भेद डालते रहते हैं। दूसरे लोग, उनमें फूट हो गयी है, यह जानकर उनके छिद्र देखा करते हैं एवं छिद्र मिल जाने पर उनमें परस्पर वैर बढ़ाने के लिय स्वयं बीच में आ पड़ते हैं। इसलिये जो लोग अलग-अलग होकर आपस में फूट पैदा कर लेते हैं, उनका शीघ्र ही ऐसा विनाश हो जाता है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। अतः साधु पुरुष भाईयों के बीच अलगाव या बंटवारे की प्रशंसा नहीं करते; क्योंकि इस प्रकार बँट जाने वाले भाई गुरुस्वरूप शास्त्र की उलंघनीय आज्ञा के अधीन नहीं रह जाते और एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं। ‘सुप्रतीक! तुम्हें वश में करना असम्भव हो रहा है और तुम भेद-भाव के कारण ही बँटबारा करके धन लेना चाहते हो, इसलिये तुम्हें हाथी की योनि में जन्म लेना पड़ेगा।' इस प्रकार शाप मिलने पर सुप्रतीक और विभावसु से कहा- ‘तुम भी पानी के भीतर विचरने वाले कछुए होओगे।' इस प्रकार सुप्रतीक और विभावसु मुनि एक-दूसरे के शाप से हाथी और कछुए की योनि में पड़े हैं। धन के लिये उनके मन में मोह छा गया था।
रोष और लोभरूपी दोष के सम्बन्ध से उन दोनों को तिर्यक योनि में जाना पड़ा है। वे दोनों विशालकाय जन्तु पूर्व जन्म के वैर का अनुसरण करके अपनी विशालता और बल के घमण्ड में चूर हो एक दूसरे से द्वेष रखते हुए इस सरोवर में रहते हैं। इन दोनों में एक जो सुन्दर महान गजराज है, वह जब सरोवर के तट पर आता है, तब उसके चिग्घाड़ने की आवाज सुनकर जल के भीतर शयन करने वाला विशालकाय कछुआ भी पानी से ऊपर आता है। उस समय वह सारे सरोवर को मथ डालता है। उसे देखते ही यह पराक्रमी हाथी अपनी सूँड़ लपेटे हुए जल में टूट पड़ता है तथा दाँत, सूँड़, पूँछ और पैरों के वेग से असंख्य मछलियों से भरे हुए समूचे सरोवर में हलचल मचा देता है। उस समय पराक्रमी कच्छप भी सिर उठाकर युद्ध के लिये निकट आ जाता है। हाथी का शरीर छः योजन ऊँचा और बारह योजना लंबा है। कछुआ तीन योजन ऊँचा और दस योजना गोल है। वे दोनों एक दूसरे को मारने की इच्छा से युद्ध के लिये मतवाले बने रहते हैं। तुम शीघ्र जाकर उन दोनों को भोजन के उपयोग में लाओ और अपने इस अभीष्ट कार्य का साधन करो। कछुआ महान मेघ-खण्ड के समान है और हाथी भी महान पर्वत के समान भयंकर है। उन्हीं दोनों को खाकर अमृत ले आओ।'
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! कश्यप जी गरुड़ से ऐसा कहकर उस समय उनके लिये मंगल मनाते हुए बोले- ‘गरुड़! युद्ध में देवताओं के साथ लड़ते हुए तुम्हारा मंगल हो। पक्षिप्रवर! भरा हुआ कलश, ब्राह्मण, गौएँ तथा और जो कुछ भी मांगलिक वस्तुएँ हैं, वे तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगी।'
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 35-44 का हिन्दी अनुवाद)
'महाबली पक्षिराज! संग्राम में देवताओं के साथ युद्ध करते समय ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, पवित्र हविष्य, सम्पूर्ण रहस्य तथा सभी वेद तुम्हें बल प्रदान करें।' पिता के ऐसा कहने पर गरुड़ उस सरोवर के निकट गये। उन्होंने देखा, सरोवर का जल अत्यन्त निर्मल है और नाना प्रकार के पक्षी इसमें सब ओर चहचहा रहे हैं। तदनन्तर भयंकर वेगशाली अन्तरिक्षगामी गरुड़ ने पिता के वचन का स्मरण करके एक पंजे से हाथी को और दूसरे से कछुए को पकड़ लिया। फिर वे पक्षिराज आकाश में ऊँचे उड़ गये। उड़कर वे फिर अलम्बतीर्थ में जा पहुँचे। वहाँ (मेरू गिरिपर) बहुत से दिव्यवृ़क्ष अपनी सुवर्णमय शाखा प्रशाखाओं के साथ लहलहा रहे थे। जब गरुड़ उनके पास गये, तब उनके पंखों की वायु से आहत होकर वे सभी दिव्यवृ़क्ष इस भय से कम्पित हो उठे कि कहीं ये हमें तोड़ न डालें।
गरुड़ रुचि के अनुसार फल देने वाले उन कल्प वृक्षों को काँपते देख अनुपम रूप-रंग तथा अंगों वाले दूसरे-दूसरे महावृक्षों की ओर चल दिये। उनकी शाखाएँ वैदूर्य मणि की थीं और वे सुवर्ण तथा रजतमय फलों से सुशोभित हो रहे थे। वे सभी महावृक्ष समुद्र के जल से अभिषिक्त होते रहते थे। वहीं एक बहुत बड़ा विशाल वट वृक्ष था। उसने मन के समान तीव्र वेग से आते हुए पक्षियों के सरदार गरुड़ से कहा।
वटवृक्ष बोला ;- पक्षिराज! यह जो मेरी सौ योजन तक फैली हुई सबसे बड़ी शाखा है, इसी पर बैठकर तुम इस हाथी और कछुए को खा लो। तब पर्वत के समान विशाल, शरीर वाले, पक्षियों में श्रेष्ठ, वेगशाली गरुड़ सहस्रों विहंगमों से सेवित उस महान वृक्ष को कम्पित करते हुए तुरन्त उस पर जा बैठे। बैठते ही अपने असह्म वेग से उन्होंने सघन पल्लवों से सुशोभित उस विशाल शाखा को तोड़ डाला।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरितविषयक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"गरुड़ का कश्यप जी से मिलना, उनकी प्रार्थना से वालखिल्य ऋषियों का शाखा छोड़कर तप के लिये प्रस्थान और गरुड़ का निर्जन पर्वत पर उस शाखा को छोड़ना"
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनकादि महर्षियों! महाबली गरुड़ के पैरों का स्पर्श होते ही उस वृक्ष की वह महाशाखा टूट गयी; किन्तु उस टूटी हुई शाखा को उन्होंने फिर पकड़ लिया। उस महाशाखा को तोड़कर गरुड़ मुसकराते हुए उनकी ओर देखने लगे। इतने में ही उनकी दृष्टि वालखिल्य नाम वाले महर्षियों पर पड़ी, जो नीचे मुँह किये उसी शाखा में लटक रहे थे। तपस्या में तत्पर हुए उन ब्रह्मर्षियों को वट की शाखा में लटकते देख गरुड़ ने सोचा ‘इसमें ऋषि लटक रहे हैं। मेरे द्वारा इनका वध न हो जाये। यह गिरती हुई शाखा इन ऋषियों का अवश्य वध कर डालेगी।' यह विचार कर वीरवर पक्षिराज गरुड़ ने हाथी और कछुए को तो अपने पंजों से दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और उन महर्षियों के विनाश के भय से झपटकर वह शाखा अपनी चोंच में ले ली। उन मुनियों की रक्षा के लिये ही गरुड़ ने ऐसा अदभुत पराक्रम किया था। जिसे देवता भी नहीं कर सकते थे, गरुड़ का ऐसा अलौकिक कर्म देखकर वे महर्षि आश्चर्य से चकित हो उठे। उनके हृदय में कम्प छा गया और उन्होंने उस महान पक्षी का नाम इस प्रकार रखा (उन्होंने गरुड़ नाम की व्युत्पत्ति इस प्रकार की)- ये आकाश में विचरने वाले सर्पभोजी पक्षिराज भारी भार लेकर उड़े हैं; इसलिये (गुरुम् आदाय उड्डी इति ‘गरुड़ः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार) ये गरुड़ कहलायेंगे। तदनन्तर गरुड़ अपने पंखों की हवा से बड़े-बड़े पर्वतों को कम्पित करते हुए धीरे-धीरे उड़ने लगे। इस प्रकार वे हाथी और कछुए को साथ लिये हुए ही अनेक देशों में उड़ते फिरे।
वालखिल्य ऋषियों के ऊपर दयाभाव होने के कारण ही वे कहीं बैठ न सके और उड़ते-उड़ते अनायास ही पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादन पर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने तपस्या में लगे हुए अपने पिता कश्यप जी को देखा। पिता ने भी अपने पुत्र को देखा। पक्षिराज का स्वरूप दिव्य था। वे तेज, पराक्रम और बल से सम्पन्न तथा मन और वायु के समान वेगशाली थे। उन्हें देखकर पर्वत के शिखर का मान होता था। वे उठे हुए ब्रह्मदण्ड के समान जान पड़ते थे। उनका स्वरूप ऐसा था, जो चिन्तन और ध्यान में नहीं आ सकता था। वे समस्त प्राणियों के लिये भय उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अपने भीतर महान पराक्रम धारण कर रखा था। वे बहुत भयंकर प्रतीत होते थे। जान पड़ता था, उनके रूप में स्वयं अग्निदेव प्रकट हो गये हैं। देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी न तो उन्हें दबा सकता था और न जीत ही सकता था। वे पर्वत-शिखरों को विदीर्ण करने और समुद्र के जल को सोख लेने की शक्ति रखते थे। वे समस्त संसार को भय से कम्पित किये देते थे। उनकी मूर्ति बड़ी भयंकर थी। वे साक्षात यमराज के समान दिखायी देते थे। उन्हें आया देख उस समय भगवान कश्यप ने उनका संकल्प जानकर इस प्रकार कहा।
कश्यप जी बोले ;- बेटा! कहीं दुःसाहस का काम न कर बैठना, नहीं तो तत्काल भारी दुःख में पड़ जाओगे। सूर्य की किरणों का पान करने वाले वालखिल्य महर्षि कुपित होकर तुम्हें भस्म न कर डालें। उग्रश्रवा जी कहते हैं- तदनन्तर पुत्र के लिये महर्षि कश्यप ने तपस्या से निष्पाप हुए महाभाग, वालखिल्य मुनियों को इस प्रकार प्रसन्न किया।
सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 17-37 का हिन्दी अनुवाद)
कश्यप जी बोले ;- तपोधनों! गरुड़ का यह उद्योग प्रजा के हित के लिये हो रहा है। ये महान पराक्रम करना चाहते हैं। आप लोग इन्हें आज्ञा दें।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- भगवान कश्यप के इस प्रकार अनुरोध करने पर वे वालशिल्प मुनि उस शाखा को छोड़कर तपस्या करने के लिये परम पुण्यमय हिमालय पर चले गये। उनके चले जाने पर विनतानन्दन गरुड़ ने, जो मुँह में शाखा लिये रहने के कारण कठिनाई से बोल पाते थे,,
अपने पिता कश्यप जी से पूछा ;- ‘भगवन! इस वृक्ष की शाखा को मैं कहाँ छोड़ दूँ? आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूर तक मनुष्य न रहते हों। तब कश्यप जी ने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। जिसकी कन्दराएँ बर्फ से ढँकी हुई थीं और जहाँ दूसरा कोई मन से भी नहीं पहुँच सकता था। उस बड़े पेट वाले पर्वत का पता पाकर महान पक्षी गरुड़ उसको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुए सहित बड़े वेग से उड़े। गरुड़ वटवृक्ष की जिस विशाल शाखाओं को चोंच में लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओं के चमड़ों से बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी। पक्षिराज गरुड़ उसे लेकर थोड़ी ही देर में वहाँ से एक लाख योजन दूर चले आये। पिता के आदेश से क्षण भर में उस पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी। गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ। वह पर्वतराज उनके पंखों की वायु से आहत होकर काँप उठा। उस पर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलों की वर्षा- सी करने लगा। उस पर्वत के मणिकांचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान शैल की शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओर से चूर-चूर होकर गिर पड़े। उस विशाल शाखा से टकराकर बहुत से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलों के कारण बिजली सहित मेघों की भाँति शोभा पाते थे।
सुवर्णमय पुष्प वाले वे वृक्ष धरती पर गिरकर पर्वत के गेरू आदि धातुओं से संयुक्त हो सूर्य की किरणों द्वारा रँगे हुए से सुशोभित होते थे। तदनन्तर पक्षिराज गरुड़ ने उसी पर्वत की एक चोटी पर बैठकर उन दोनों-हाथी और कछुए को खाया। इस प्रकार कछुए और हाथी दोनों को खाकर महान वेगशाली गरुड़ पर्वत की उस चोटी से ही ऊपर की ओर उड़े। उस समय देवताओं के यहाँ बहुत से भयसूचक उत्पात होने लगे। देवराज इन्द्र का प्रिय आयुध वज्र भय से जल उठा। आकाश से दिन में ही धुएँ और लपटों के साथ उल्का गिरने लगी। वसु, रुद्र, आदित्य, साध्य, मरुद्रण तथा और जो-जो देवता हैं, उन सबके आयुध परस्पर इस प्रकार उपद्रव करने लगे, जैसा पहले कभी देखने में नहीं आया था। देवासुर संग्राम के समय भी ऐसी अनहोनी बात नहीं हुई थी। उस समय वज्र की गड़गड़ाहट के साथ बड़े जोर की आँधी उठने लगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं। आकाश में बादल नहीं थे तो भी बड़ी भारी आवाज में विकट गर्जना होने लगी। देवताओं के भी देवता पर्जन्य रक्त की वर्षा करने लगे। देवताओं के दिव्य पुष्पहार मुरझा गये, उनके तेज नष्ट होने लगे। उत्पातकालिक बहुत से भयंकर मेघ प्रकट हो अधिक मात्रा में रुधिर की वर्षा करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 38-52 का हिन्दी अनुवाद)
बहुत-सी धूलें उड़कर देवताओं के मुकुटों को मलिन करने लगी! ये भयंकर उत्पात देखकर देवताओं सहित इन्द्र भय से व्याकुल हो गये और बृहस्पति जी से इस प्रकार बोले।
इन्द्र ने बोला ;- भगवन! सहसा ये भयंकर उत्पात क्यों होने लगे हैं? मैं ऐसा कोई शत्रु नहीं देखता, जो युद्ध में हम देवताओं का तिरस्कार कर सके।
बृहस्पति जी ने कहा ;- देवराज इन्द्र! तुम्हारे ही अपराध और प्रमाद से तथा महात्मा वालखिल्य महर्षियों के तप के प्रभाव से कश्यप मुनि और विनता के पुत्र पक्षिराज गरुड़ अमृत का अपहरण करने के लिये आ रहे हैं। वे बड़े बलवान और इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ हैं। बलवानों में श्रेष्ठ आकाशचारी गरुड़ अमृत हर ले जाने में समर्थ हैं। मैं उनमें सब प्रकार की शक्तियों के होने की सम्भावना करता हूँ। वे असाध्य कार्य भी सिद्ध कर सकते हैं।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- बृहस्पति जी की यह बात सुनकर,,
देवराज इन्द्र अमृत की रक्षा करने वाले देवताओं से बोले ;- ‘रक्षकों! महान पराक्रमी और बलवान पक्षी गरुड़ यहाँ से अमृत हर ले जाने को उद्यत हैं। मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ, जिससे वे बलपूर्वक इस अमृत को न ले जा सकें। बृहस्पति जी ने कहा है कि उनके बल की कहीं तुलना नहीं है।' इन्द्र की यह बात सुनकर देवता बड़े आश्चर्य में पड़ गये और यत्नपूर्वक अमृत को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। प्रतापी इन्द्र भी हाथ में वज्र लेकर वहाँ डट गये। मनस्वी देवता विचित्र सुवर्णमय तथा बहुमूल्य वैदूर्य मणिमय कवच धारण करने लगे। उन्होंने अपने अंगों में यथास्थान मजबूत और चमकीले चमड़े के बने हुए हाथ के मोजे आदि धारण किये। नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। उन सब आयुधों की धार बहुत तीखी थी। वे देवता सब प्रकार के आयुध युद्ध के लिये उद्यत हो गये। उनके पास ऐसे-ऐसे चक्र थे, जिसमें सब ओर आग की चिंगारियां और धूमसहित लपटें प्रकट होती थीं।
उनके सिवा परिव, त्रिशूल, फरसे, भाँति-भाँति की तीखी शक्तियाँ, चमकीले खड्ग और भयंकर दिखायी देने वाली गदाएँ भी थीं। अपने शरीर के अनुरूप इन अस्त्र-शस्त्रों को लेकर देवता डट गये। दिव्य अभिषणों से विभूषित निष्पाप देवगण तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रों के साथ अधिक प्रकाशमान हो रहे थे। उनके बल, पराक्रम और तेज अनुपम थे, जो असुरों के नगरों का विनाश करने में समर्थ एवं अग्नि के समान देदीप्यामान शरीर से प्रकाशित होने वाले थे; उन्होंने अमृत की रक्षा के लिये अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था। इस प्रकार वे तेजस्वी देवता उस श्रेष्ठ समर के लिये तैयार खड़े थे। वह रणांगण लाखों परिव आदि आयुधों से व्याप्त होकर सूर्य की किरणों द्वारा प्रकाशित एवं टूटकर गिरे हुए दूसरे आकाश के समान सुशोभित हो रहा था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरित्रविषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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