सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (from the twenty-first chapter to the twenty-fifth chapter to the twentieth chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकविंश अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"समुद्र का विस्तार से वर्णन"

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तपोधन! तदनन्तर जब रात बीती, प्रातःकाल हुआ और भगवान सूर्य का उदय हो गया, उस समय कद्रू और विनता दोनों बहिनें बड़े जोश और रोष के साथ दासी होने की बाजी लगाकर उच्चैःश्रवा नामक अश्व को निकट से देखने के लिये गयीं। कुछ दूर जाने पर उन्होंने मार्ग में जलनिधि समुद्र को देखा, जो महान होने के साथ ही अगाध जल से भरा था। मगर आदि जल-जन्तु उसे विक्षुब्ध कर रहे थे और उससे बड़े जोर की गर्जना हो रही थी। वह तिमि नामक बड़े-ब़डे़ मत्स्यों को भी निगल जाने वाले तिमिगिंलों, मत्स्यों तथा मगर आदि से व्याप्त था। नाना प्रकार की आकृति वाले सहस्रों जल-जन्तु उसमें भरे हुए थे। विकट आकार वाले दूसरे-दूसरे घोर डरावने जलचरों तथा उग्र जल-जन्तुओं के कारण वह महासागर सदा सबके लिये दुर्घर्ष बना हुआ था। उसके भीतर बहुत से कछुए और ग्राह निवास करते थे। सरिताओं का स्वामी वह महासागर सम्पूर्ण रत्नों की खान, वरुण देव का निवास स्थान और नागों का रमणीय उत्तम गृह है। पाताल की अग्नि-बड़वानल का निवास भी उसी में है। असुरों को तो वह जलनिधि समुद्र भाई-बन्धुओं की भाँति शरण देने वाला है तथा दूसरे थलचर जीवों के लिये अत्यन्त भयदायक है।

   अमरों के अमृत की खान होने से वह अत्यन्त शुभ एवं दिव्य माना जाता है। उसका कोई माप नहीं है। वह अचिन्त्य, पवित्र जल से परिपूर्ण तथा अद्भुत है। वह घोर समुद्र जल-जन्तुओं के शब्दों से और भी भयंकर प्रतीत होता था, उससे भयंकर गर्जना हो रही थी, उसमें गहरी भँवरें उठ रही थीं तथा वह समस्त प्राणियों के लिये भय-सा उत्पन्न करता था। तट पर तीव्र वेग से बहने वाली वायु मानो झूला बनकर उस महासागर को चंचल किये देती थी। वह क्षोम और उद्वेग से बहुत ऊँचे तक लहरें उठाता था और सब ओर चंचल तरंगरूपी हाथों को हिला-हिलाकर नृत्य- सा कर रहा था। चन्द्रमा की वृद्धि और क्षय के कारण उसकी लहरें बहुत ऊँचे उठतीं और उतरती थीं (उसमें ज्वार-भाटे आया करते थे), अतः वह उत्ताल तरंगों से व्याप्त जान पड़ता था। उसी ने पांचजन्य शंख को जन्म दिया था। वह रत्नों का आकार और परम उत्तम था। अमित तेजस्वी भगवान गोविन्द ने बाराह रूप से पृथ्वी को उपलब्ध करते समय उस समुद्र को भीतर से मथ डाला था और उस मथित जल से वह समस्त महासागर मलिन-सा जान पड़ता था।

  व्रतधारी ब्रह्मर्षि अत्रि ने समुद्र के भीतरी तल का अन्वेषण करते हुए सौ वर्षों तक चेष्टा करके भी उसका पता नहीं पाया। वह पाताल के नीचे तक व्याप्त है और पाताल के नष्ट होने पर भी बना रहता है, इसलिये अविनाशी है। आध्यात्मिक योगनिंद्रा का सेवन करने वाले अमित तेजस्वी कमलनाभ भगवान विष्णु के लिये वह युगान्तकाल से लेकर युगादिकाल तक शयनागार बना रहा है। उसी ने वज्रपात से डरे हुए मैनाक पर्वत को अभयदान दिया है तथा जहाँ भय के मारे हाहाकार करना पड़ता है, ऐसे युद्ध से पीड़ित हुए असुरों का वह सबसे बड़ा आश्रय है। बड़वानल के प्रज्वलित मुख में वह सदा अपने जलरूपी हविष्य की आहुति देता रहता है और जगत के लिये कल्याणकारी है। इस प्रकार वह सरिताओं का स्वामी समुद्र अगाध, अपार, विस्तृत और अप्रमेय है। सहस्रों बड़ी-बड़ी नदियाँ आपस में होड़-सी लगाकर उस विस्तृत महासागर में निरन्तर मिलती रहती हैं और अपने जल से उसे सदा परिपूर्ण किया करती हैं। वह ऊँची-ऊँची लहरों की भुजाएँ ऊपर उठाये निरन्तर नृत्य करता-सा जान पड़ता है। इस प्रकार गम्भीर, तिमि ओैर मकर आदि भयंकर जल-जन्तुओं से व्याप्त, जलचर जीवों के शब्द रूप भयंकर नाद से निरन्तर गर्जना करने वाले, अत्यन्त विस्तृत आकाश के समान स्वच्छ, अगाध, अनन्त एवं महान जलनिधि समुद्र के कद्रू और विनता ने देखा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरित के प्रसंग में इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंश अध्‍याय के श्लोक 1- 22 का हिन्दी अनुवाद)

"नागों द्वारा उच्चै:श्रवा की पूँछ को काली बनाना, कद्रू और विनता का समुद्र को देखते हुए आगे बढ़ना"

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- महर्षियों! इधर नागों ने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया कि ‘हमें माता की आज्ञा का पालन करना चाहिये। यदि इनका मनोरथ पूरा न होगा तो वह स्नेहभाव छोड़कर रोषपूर्वक हमें जला देंगी। यदि इच्छापूर्ण हो जाने से प्रसन्न हो गयीं तो वह भामिनी हमें अपने शाप से मुक्त कर सकती हैं; इसलिये हम निश्चय ही उस घोड़े की पूँछ को काली कर देंगे।' ऐसा विचार करके वे वहाँ गये और काले रंग के बाल बनकर उसकी पूँछ में लिपट गये। द्विजश्रेष्ठ! इसी बीच में बाजी लगाकर आयी हुई दोनों सौतें और सगी बहिनें पुनः अपनी शर्त को दुहराकर बड़ी प्रसन्नता के साथ समुद्र के दूसरे पार जा पहुँची। दक्षकुमारी कद्रू और विनता आकाश मार्ग से अक्षौभ्य जलनिधि समुद्र को देखती हुई आगे बढ़ीं। वह महासागर अत्यन्त प्रबल वायु के थपेड़े खाकर साहस विक्षुब्ध हो रहा था। उससे बड़े जोर की गर्जना होती थी। तिमिंगिल औैर मगरमच्छ आदि जल-जन्‍तु उसमें सब ओर व्याप्त थे।

   नाना प्रकार के भयंकर जन्तु सहस्रों की संख्या में उसके भीतर निवास करते थे। इन सबके कारण वह अत्यन्त घोर और दुर्धर्ष जान पड़ता था तथा गहरा होने के साथ ही अत्यन्त भयंकर था। नदियों का वह स्वामी सब प्रकार के रत्नों की खान, वरुण का निवास स्थान तथा नागों का सुरम्य गृह था। वह पातालव्यापी बड़वानल का आश्रय, असुरों के छिपने के स्थान, भयंकर जन्तुओं का घर, अनन्त जल का भण्डार और अविनाशी था। वह शुभ्र, दिव्य, अमरों के अमृत का उत्तम उत्पत्ति स्थान, अप्रमेय, अचिन्त्य तथा परमपवित्र जल के परिपूर्ण था। बहुत सी बड़ी-बड़ी नदियाँ सहस्रों की संख्‍या में आकर, उसमें यत्र-तत्र मिलतीं और उसे अधिकाधिक भरती रहती थीं। वह भुजाओं के समान ऊँची लहरों को ऊपर उठाये नृत्य-सा कर रहा था। इस प्रकार अत्यन्त तरल तरंगों से व्याप्त, आकाश के समान स्वच्छ, बड़वानल की शिखाओं से उद्भासित, गम्भीर, विकसित और निरन्तर गर्जन करने वाले महासागर को देखती हुई वे दोनों बहिनें तुरन्त आगे बढ़ गयीं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरित के प्रसंग में समुद्रदर्शननामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

तैंसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोविंश अध्यााय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"पराजित विनता का कद्रू की दासी होना, गरुड़ की उत्पत्ति तथा देवताओं द्वारा उनकी स्तुति"

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! तदनन्तर शीघ्रगामिनी कद्रू विनता के साथ उस समुद्र को लाँघ कर तुरन्त ही उच्चैःश्रवा घोड़े के पास पहुँच गयी। उस समय चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत वर्ण वाले उस महान वेगशाली श्रेष्ठ अश्व को उन दोनों ने काली पूँछ वाला देखा। पूँछ के घनीभूत बालों को काले रंग का देखकर विनता विषाद की मूर्ति बन गयी और कद्रू ने उसे अपनी दासी के काम में लगा दिया। पहले की लगायी हुई बाजी हार कर विनता उस स्थान पर दुःख से संतप्त हो उठी और उसने दासी भाव स्वीकार कर लिया। इसी बीच में समय पूरा होने पर महातेजस्वी गरुड़ माता की सहायता के बिना ही अण्डे फोड़कर बाहर निकल आये। वे महान सहास और पराक्रम सम्पन्न थे। अपने तेज से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति थी। वे जहाँ जितनी जल्दी जाना चाहें जा सकते थे और अपनी रुचि के अनुसार पराक्रम दिखला सकते थे। उनका प्राकट्य आकाशचारी पक्षी के रूप में हुआ था। वे प्रज्वलित अग्नि-पुंज के समान उद्भासित होकर अत्यन्त भयंकर जान पड़ते थे। उनकी आँखें बिजली के समान चमकने वाली और पिंगल वर्ण की थी। वे प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित एवं प्रकाशित हो रहे थे। उनका शरीर थोड़ी ही देर में बढ़कर विशाल हो गया। पक्षी गरुड़ आकाश में उड़ चले। वे स्वयं तो भयंकर थे ही, उनकी आवाज भी बड़ी भयानक थी। वे दूसरे बड़वानल की भाँति बड़े भीषण जान पड़ते थे।

  उन्हें देखकर सब देवता विश्वरूपधारी अग्नि देव की शरण में गये और उन्हें प्रणाम करके, बैंठे हुए उन अग्नि देव से इस प्रकार बोले- ‘अग्ने! आप इस प्रकार न बढ़ें। आप हम लोगों को जलाकर भस्म तो नहीं कर डालना चाहते हैं? देखिये, वह आपका महान प्रज्वलित तेजपुंज इधर ही फैलता आ रहा है।' 

अग्निदेव ने कहा ;- असुर विनाशक देवताओं! तुम जैसे समझ रहे हो, वैसी बात नहीं है। ये महाबली गरुड़ हैं जो तेज में मेरे ही तुल्य निवता का आनन्द! बढ़ाने वाले यह परमतेजस्वी गरुड़ इसी रूप में उत्पन्न हुए हैं। तेज के पुंज रूप इन गरुड़ को देखकर ही तुमलोगों पर मोह छाया। कश्यपनन्दन महाबली गरुड़ नागों के विनाशक, देवताओं के हितैषी और दैत्यों तथा राक्षसों के शत्रु हैं। इनसे किसी प्रकार का भय नहीं करना चाहिये। तुम मेरे साथ चलकर इनका दर्शन करो। अग्निदेव के ऐसा कहने पर उस समय देवताओं तथा ऋषियों ने गरुड़ के पास जाकर अपनी वाणी द्वारा उनका इस प्रकार स्तवन किया (यहाँ परमात्मा के रूप में गरुड़ की स्तुति की गयी हैं)। 

देवता बोले ;- प्रभो! आप मन्त्र दृष्टा ऋषि हैं; आप ही महाभाग देवता तथा आप ही पतगेश्वर (पक्षियों तथा जीवों के स्वामी हैं)। आप ही प्रभु, तपन, सूर्य, परमेष्ठी तथा प्रजापति हैं। आप ही इन्द्र हैं, आप ही हयग्रव हैं, आप ही शिव हैं तथा आप ही जगत के स्वामी हैं। आप ही भगवान के मुख स्वरूप ब्राह्मण, पद्ययोगि ब्रह्मा और विज्ञानवान विप्र हैं, आप ही अग्नि तथा वायु हैं, आप ही धाता हैं, विधाता और देवश्रेष्ठ विष्णु हैं। आप ही महत्तत्त्व और अहंकार हैं। आप ही सनातन, अमृत और महान यश हैं। आप ही प्रभा और आप ही अभीष्ट पदार्थ हैं। आप ही हम लोगों के सर्वोत्तम रक्षक हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोविंश अध्यााय के श्लोक 19-27 का हिन्दी अनुवाद)

  आप बल के सागर और साधु पुरुष हैं। आप में उदार सत्त्वगुण विराजमान हैं। आप महान ऐश्वर्यशाली हैं। युद्ध में आपके वेग को सह लेना सभी के लिये सर्वथा कठिन है। पुण्यश्लोक! यह सम्पूर्ण जगत आपसे ही प्रकट हुआ है। भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ आप ही हैं। आप उत्तम हैं। जैसे सूर्य अपनी किरणों से सबको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आप इस सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करते हैं। आप ही सबका अन्त करने वाले काल हैं और बारम्बार सूर्य की प्रभा का उपसंहार करते हुए इस समस्त क्षर और अक्षर रूप जगत का संहार करते हैं। अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले देव! जैसे सूर्य क्रुद्ध होने पर सबको जला सकते हैं, उसी प्रकार आप भी कुपित होने पर सम्पूर्ण प्रजा को दग्ध कर डालते हैं। आप युगान्तकारी काल के भी काल हैं और प्रलयकाल में सबका विनाश करने के लिये भयंकर संवर्तकाग्रि के रूप में प्रकट होते हैं। आप सम्पूर्ण पक्षियों एवं जीवों अधीश्वर हैं। आपका ओज महान है। आप अग्नि के समान तेजस्वी हैं। आप बिजली के समान प्रकाशित होते हैं। आपके द्वारा अज्ञान पुंज का निवारण होता है। आप आकाश में मेघों की भाँति बिचरने वाले महापराक्रमी गरुड़ हैं।

  हम यहाँ आकर आपके शरणागत हो रहे हैं। आप ही कार्य और कारण रूप हैं। आपसे ही सबको वर मिलता है। आपका पराक्रम अजेय है। आपके तेज से यह सम्पूर्ण जगत संतप्त हो उठा है। जगदीश्वर! आप तपाये हुए सुवर्ण के समान अपने दिव्य तेज से सम्पूर्ण देवताओं और महात्मा पुरुषों की रक्षा करें। पक्षिराज! प्रभो! विमान पर चलने वाले देवता आपके तेज से तिरस्कृत एवं भयभीत हो आकाश में पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। आप दयालु महात्मा महर्षि कश्यप के पुत्र हैं। प्रभो! आप कुपित न हों। सम्पूर्ण जगत पर उत्तम दया का विस्तार करें। आप ईश्वर हैं, अतः शान्ति धारण करें और हम सबकी रक्षा करें। महान वज्र की गड़गड़ाहट के समान आपकी गर्जना से दिशाएँ, आकाश, स्वर्ग तथा यह पृथ्वी सब के सब विचलित हो उठे हैं और हमारा हृदय भी निरन्तर काँपता रहता है। अतः खगश्रेष्ठ! आप अग्नि के समान तेजस्वी अपने इस भयंकर रूप को शान्त कीजिये। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान आपकी उग्र कान्ति देखकर हमारा मन अस्थिर एवं चंचल है। आप हम याचकों पर प्रसन्न होइये। भगवन! आप हमारे लिये कल्याण स्वरूप और सुखदायक हो जाइये। ऋषियों सहित देवताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर उत्तम पंखों वाले गरुड़ ने उस समय अपने तेज को समेट लिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरितविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्विंश अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"गरुड़ के द्वारा अपने तेज और शरीर का संकोच तथा सूर्य के क्रोधजनित तीव्र तेज की शांति के लिये अरुण का उनके रथ पर स्थित होना"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनकादि महर्षियों! देवताओं द्वारा की हुई स्तुति सुनकर गरुड़ जी ने स्वयं भी अपने शरीर की ओर दृष्टिपात किया और उसे संकुचित कर लेने की तैयारी करने लगे। गरुड़ ने कहा- देवताओं! मेरे इस शरीर को देखने से संसार के समस्त प्राणी उस भयानक स्वरूप से उद्विग्न होकर डर न जायँ इसलिये मैं अपने तेज को समेट लेता हूँ। 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तदनन्तर इच्छानुसार चलने तथा रुचि के अनुसार पराक्रम प्रकट करने वाले पक्षी गरुड़ अपने भाई अरुण को पीठ पर चढ़ाकर पिता के घर से माता के समीप महासागर के दूसरे तट पर आये। जब सूर्य ने अपने भयंकर तेज के द्वारा सम्पूर्ण लोकों को दग्ध करने का विचार किया, उस समय गरुड़ जी महान तेजस्वी अरुण को पुनः पूर्ण दिशा में लाकर सूर्य के समीप रख आये।

रुरु ने पूछा ;- पिता जी! भगवान सूर्य ने उस समय सम्पूर्ण लोकों को दग्ध कर डालने का विचार क्यों किया? देवताओं ने उनका क्या हड़प लिया था, जिससे उनके मन में क्रोध का संचार हो गया?

  प्रमति ने कहा ;- अनघ! जब राहु अमृत पी रहा था, उस समय चन्द्रमा और सूर्य ने उसका भेद बता दिया; इसीलिये उसने चन्द्रमा और सूर्य से भारी बैर बाँध लिया और उन्हें सताने लगा। राहु से पीड़ित होने पर सूर्य के मन में क्रोध का आवेश हुआ। वे सोचने लगे, ‘देवताओं के हित के लिये ही मैंने राहु का भेद खोला था जिससे मेरे प्रति राहु का रोष बढ़ गया। अब उसका अत्यन्त अनर्थकारी परिणाम दुःख के रूप में अकेले मुझे प्राप्त होता है। संकट के अवसरों पर मुझे अपना कोई सहायक ही नहीं दिखायी देता। देवता लोग मुझे राहु से ग्रस्त होते देखते हैं तो भी चुपचाप सह लेते हैं। अतः सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने के लिये निःसंदेह मैं अस्ताचल पर जाकर वहीं ठहर जाऊँगा।’ ऐसा निश्चय करके सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये। और वहीं से सूर्यदेव ने सम्पूर्ण जगत का विनाश करने के लिये सबको संताप देना आरम्भ किया।

तब महर्षिगण देवताओं के पास जाकर,,

 इस प्रकार बोले ;- ‘देवगण! आज आधी रात के समय सब लोकों को भयभीत करने वाला महान दाह उत्पन्न होगा, जो तीनों लोकों का विनाश करने वाला हो सकता है।' तदनन्तर देवता ऋषियों को साथ ले ब्रह्मा जी के पास जाकर,,

 देवता बोले ;- 'भगवन! आज यह कैसा महान दाहजनित भय उपस्थित होना चाहता है? अभी सूर्य नहीं दिखायी देते तो भी ऐसी गरमी प्रतीत होती है मानो जगत का विनाश हो जायेगा। फिर सूर्योदय होने पर गरमी कैसी तीव्र होगी, यह कौन कह सकता है?’ ब्रह्मा जी ने कहा- ये सूर्यदेव आज सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने के लिये ही उद्यत होना चाहते हैं। जान पड़ता है, ये दृष्टि में आते ही सम्पूर्ण लोकों को भस्म कर देंगे। किन्तु उनके भीषण संताप से बचने का उपाय मैंने पहले से ही कर रखा है। महर्षि कश्यप के एक बुद्धिमान पुत्र हैं, जो अरुण नाम से विख्यात हैं। उनका शरीर विशाल है। वे महान तेजस्वी हैं। वे ही सूर्य के आगे रथ पर बैठेंगे। उनके सारथि का कार्य करेंगे और उनके तेज का भी हरण करेंगे। ऐसा करने से सम्पूर्ण लोकों, ऋषि-महर्षियों तथा देवताओं का भी कल्याण होगा। प्रमति कहते हैं- तत्पश्चात पितामह ब्रह्मा जी की आज्ञा से अरुण ने उस समय सब कार्य उसी प्रकार किया। सूर्य अरुण से आवृत होकर उदित हुए। वत्स! सूर्य के मन में क्यों क्रोध का अवेश हुआ था, इस प्रश्न के उत्तर में मैंने ये सब बातें कही हैं। शक्तिशाली अरुण ने सूर्य के सारथि का कार्य क्यों किया, यह बात भी इस प्रसंग में स्पष्ट हो गयी है। अब अपने पूर्व कथित दूसरे प्रश्न का पुनः उत्तर सुनो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरितविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचविंश अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"सूर्य के ताप से मूर्च्छित हुए सर्पों की रक्षा के लिये कद्रू द्वारा इंद्रदेव"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनकादि महर्षियों! तदनन्तर इच्छानुसार गमन करने वाले महान पराक्रमी तथा महाबली गरुड़ समुद्र के दूसरे पार अपनी माता के समीप आये। जहाँ उनकी माता विनता बाजी हार जाने से दासी भाव को प्राप्त हो अत्यन्त दुःख से संतप्त रहती थीं। एक दिन अपने पुत्र के समीप बैठी हुई विनयशील विनता को किसी समय बुलाकर,,

 कद्रू ने यह बात कही ;- ‘कल्याणी विनते! समुद्र के भीतर निर्जन प्रदेश में एक बहुत रमणीय तथा देखने में अत्यन्त मनोहर नागों का निवास स्थान है। तू वहाँ मुझे ले चल।' तब गरुड़ की माता विनता सर्पों की माता कद्रू को अपनी पीठ पर ढोने लगी। इधर माता की आज्ञा से गरुड़ भी सर्पों को अपनी पीठ पर चढ़ाकर ले चले।

   पक्षिराज गरुड़ आकाश में सूर्य के निकट होकर चलने लगे। अतः सर्प सूर्य की किरणों से संतप्त हो मूर्च्छित हो गये। अपने पुत्रों को इस दशा में देखकर कद्रू इन्द्र की स्तुति करने लगी- ‘सम्पूर्ण देवताओं के ईश्वर! तुम्हें नमस्कार है। बलसूदन! तुम्हें नमस्कार है। ‘सहस्र नेत्रों वाले नमुचिनाशन! शचीपते! तुम्हें नमस्कार है। तुम सूर्य के ताप से संतप्त हुए सर्पों को जल से नहलाकर नौका की भाँति उनके रक्षक हो जाओ। अमरोत्तम! तुम्हीं हमारे सबसे बड़े रक्षक हो। पुरन्दर! तुम अधिक से अधिक जल बरसाने की शक्ति रखते हो। तुम्हीं मेघ हो, तुम्हीं वायु हो और तुम्हीं आकाश में बिजली बनकर प्रकाशित होते हो। तुम्हीं बादलों को छिन्न-भिन्न करने वाले हो और विद्वान पुरुष तुम्हें ही महामेघ कहते हैं। संसार में जिसकी कहीं तुलना नहीं है, वह भयानक वज्र तुम्हीं हो, तुम्हीं भयंकर गर्जना करने वाले बलाहक (प्रलयकालीन मेघ) हो। तुम्हीं सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि और संहार करने वाले हो। तुम कभी परास्त नहीं होते। तुम्हीं समस्त प्राणियों की ज्योति हो। सूर्य और अग्नि भी तुम्हीं हो। तुम आश्चर्यमय महान भूत हो, तुम राजा हो और तुम देवताओं में सबसे श्रेष्ठ हो।

  तुम्हीं सर्वव्यापी विष्णु, सहस्रलोचन इन्द्र, द्युतिमान देवता और सबके परम आश्रय हो। देव! तुम्हीं सब कुछ हो। तुम्हीं अमृत हो और परमपूजित सोम हो। तुम मुहूर्त हो, तुम्हीं तिथि हो, तुम्हीं लव तथा तुम्हीं क्षण हो। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष भी तुमसे भिन्न नहीं हैं। कला, काष्ठा और त्रुटि सब तुम्हारे ही स्परूप हैं। संवत्सर, ऋतु, मास, रात्रि तथा दिन भी तुम्हीं हो। तुम्हीं पर्वत और वनों सहित उत्तम वसुन्धरा हो और तुम्हीं अन्धकार रहित एवं सूर्य सहित आकाश हो। तिमि और तिमिंगिलों से भरपूर, बहुतेरे मगरों और मत्स्यों से व्याप्त तथा उत्ताल तरंगों से सुशोभित महासागर भी तुम्हीं हो। तुम महान यशस्वी हो।' ऐसा समझकर मनीषी पुरुष सदा तुम्हारी पूजा करते हैं। महर्षिगण निरन्तर तुम्हारा स्तवन करते हैं। तुम यजमान की अभीष्ट सिद्धि करने के लिये यज्ञ में मुदित मन से सोमरस पीते हो और वषट्कारपूर्वक समर्पित किये हुए हविष्य भी ग्रहण करते हो। इस जगत में अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिये विप्रगण तुम्हारी पूजा करते हैं। अतुलित बल के भण्डार इन्द्र! वेदांगों में भी तुम्हारी ही महिमा का गान किया गया है। यज्ञपरायण श्रेष्ठ द्विज तुम्हारी प्राप्ति के लिये ही सर्वथा प्रयत्न करके वेदांगों का ज्ञान प्राप्त करते है (यहाँ कद्रू के द्वारा ईश्वर रूप से इन्द्र की स्तुति की गयी है)।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरितविषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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