सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
इकत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"इंद्र के द्वारा वालखिल्यों का अपमान और उनकी तपस्या के प्रभाव से अरुण एवं गरुड़ की उत्पत्ति"
शौनक जी ने पूछा ;- सूतनन्दन! इन्द्र का क्या अपराध और कौन सा प्रमाद था? वालखिल्य मुनियों की तपस्या के प्रभाव से गरुड़ की उत्पत्ति कैसे हुई थी? कश्यप जी तो ब्राह्मण हैं, उनका पुत्र पक्षिराज कैसे हुआ? साथ ही वह समस्त प्राणियों के लिये दुर्धर्ष एवं अवध्य कैसे हो गया? उस पक्षी में इच्छानुसार चलने तथा रुचि के अनुसार पराक्रम करने की शक्ति कैसे आ गयी? मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। यदि पुराण में कहीं इसका वर्णन हो तो सुनाइये। उग्रश्रवा जी ने कहा- ब्रह्मन! आप मुझसे जो पूछ रहे हैं, वह पुराण का ही विषय है। मैं संक्षेप में ये सब बातें बता रहा हूँ, सुनिये। कहते हैं, प्रजापति कश्यप जी पुत्र की कामना से यश कर रहे थे, उसमें ऋषियों, देवताओं तथा गंधर्वों ने भी उन्हें बड़ी सहायता दी। उस यज्ञ मे कश्यप जी ने इन्द्र को समिधा लाने के काम पर नियुक्त किया था। वालखिल्य मुनियों तथा अन्य देवगणों को भी यही कार्य सौंपा गया था।
इन्द्र शक्तिशाली थे। उन्होंने अपने बल के अनुसार लकड़ी का एक पहाड़ जैसा बोझ उठा लिया और उसे बिना कष्ट के ही वे ले आये। उन्होंने मार्ग में बहुत से ऐसे ऋषियों को देखा, जो कद में बहुत ही छोटे थे। उनका सारा शरीर अंगूठे के मध्य भाग के बराबर था। वे सब मिलकर पलाश की एक बाती (छोटी- सी टहनी) लिये आ रहे थे। उन्होंने आहार छोड़ रखा था। तपस्या ही उनका धन था। वे अपने अंगों में ही समाये हुए से जान पड़ते थे। पानी से भरे हुए गोखुर के लाँघने में भी उन्हें बड़ा कलेश होता था। उनमें शारीरिक बल बहुत कम था। अपने बल के घमंड में मतवाले इन्द्र ने आश्चर्यचकित होकर उन सबको देखा और उनकी हँसी उड़ाते हुए वे अपमानपूर्वक उन्हें लाँघकर शीघ्रता के साथ आगे बढ़ गये। इन्द्र के इस व्यवहार से वालखिल्य मुनियों को बड़ा रोष हुआ। उनके हृदय में भारी क्रोध का उदय हो गया। अतः उन्होंने उस समय एक ऐसे महान कर्म का आरम्भ किया, जिसका परिणाम इन्द्र के लिये भयंकर था।
ब्राह्मणों! वे उत्तम तपस्वी वालखिल्य मन में जो कामना रखकर छोटे-बड़े मन्त्रों द्वारा विधिपूर्वक अग्नि में आहुति देते थे, वह बताता हूँ, सुनिये। संयमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले वे महर्षि यह संकल्प करते थे कि– ‘सम्पूर्ण देवताओं के लिये कोई दूसरा ही इन्द्र उत्पन्न हो, जो वर्तमान देवराज के लिये भयदायक, इच्छानुसार पराक्रम करने वाला और अपनी रुचि के अनुसार चलने की शक्ति रखने वाला हो। शौर्य और वीर्य में इन्द्र से वह सौगुना बढ़कर हो। उसका वेग मन के समान तीव्र हो। हमारी तपस्या के फल से अब ऐसा ही वीर प्रकट हो जो इन्द्र के लिये भयंकर हो’। उनका यह संकल्प सुनकर सौ यज्ञों का अनुष्ठानपूर्ण करने वाले देवराज इन्द्र को बड़ा संताप हुआ और वे कठोर व्रत का पालन करने वाले कश्यप जी की शरण में गये। देवराज इन्द्र के मुख से उनका संकल्प सुनकर प्रजापति कश्यप वालखिल्यों के पास गये और उनसे उस कर्म की सिद्धि के सम्बन्ध में प्रश्न किया। सत्यवादी महर्षि वालखिल्यों ने ‘हाँ ऐसी ही बात है’ कहकर अपने कर्म की सिद्धि का प्रतिपादन किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)
तब प्रजापति कश्यप ने उन्हें सान्त्वनापूर्वक समझाते हुए कहा ;- ‘तपोधनो! ब्रह्मा जी की आज्ञा से ये पुरन्दर तीनों लोकों के इन्द्र बनाये गये हैं और आप लोग भी दूसरे इन्द्र की उत्पत्ति के लिये प्रयत्नशील हैं। संत-महात्माओं! आप ब्रह्मा जी का वचन मिथ्या न करें। साथ ही मैं यह भी चाहता हूँ कि आपके द्वारा किया हुआ यह अभीष्ट संकल्प भी मिथ्या न हो। अतः अत्यन्त बल और सत्त्वगुण से सम्पन्न जो यह भावी पुत्र है, यह पक्षियों का इन्द्र हो। देवराज इन्द्र आपके पास याचक बनकर आये हैं, आप इन पर अनुग्रह करें।' महर्षि कश्यप के ऐसा कहने पर तपस्या के धनी वालखिल्य मुनि उन मुनिश्रेष्ठ प्रजापति का सत्कार करके बोले।
वालखिल्यों ने कहा ;- प्रजापते! हम सब लोगों का यह अनुष्ठान इन्द्र के लिये हुआ था और आपका यह यज्ञ समारोह संतान के लिये अभीष्ट था। अतः इस फल सहित कर्म को आप ही स्वीकार करें और जिसमें सबकी भलाई दिखायी दे, वैसा ही करें।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- इसी समय शुभलक्षणा दक्षकन्या कल्याणमयी विनता देवी, जो उत्तम यश से सुशोभित थी, पुत्र की कामना से तपस्यापूर्वक ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करने लगी। ऋतुकाल आने पर जब वह स्नान करके शुद्ध हुई, तब अपने स्वामी की सेवा में गयी।
उस समय कश्यप जी ने उससे कहा ;- ‘देवि! तुम्हारा यह अभीष्ट समारम्भ अवश्य सफल होगा। तुम ऐसे दो पुत्रों को जन्म दोगी, जो बड़े वीर और तीनों लोकों पर शासन करने की शक्ति रखने वाले होंगे। वाखिल्यों की तपस्या तथा मेरे संकल्प से तुम्हें दो परम सौभाग्यशाली पुत्र प्राप्त होंगे, जिनकी तीनों लोकों में पूजा होगी।' इतना कहकर,,
भगवान कश्यप ने पुनः विनता से कहा ;- 'देवि! यह गर्भ महान अभ्युदयकारी होगा, अतः इसे सावधानी से धारण करो। तुम्हारे ये दोनों पुत्र सम्पूर्ण पक्षियों के इन्द्र पद का उपभोग करेंगे। स्वरूप से पक्षी होते हुए भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ और लोक-सम्भावित वीर होंगे।' विनता से ऐसा कहकर ,,
प्रसन्न हुए प्रजापति ने शतक्रतु इन्द्र से कहा ;- ‘पुरन्दर! ये दोनों महापराक्रमी भ्राता तुम्हारे सहायक होंगे। तुम्हें इनसे कोई हानि नहीं होगी। इन्द्र! तुम्हारा संताप दूर हो जाना चाहिये। देवताओं के इन्द्र तुम्ही बने रहोगे। एक बात ध्यान रखना- आज से फिर कभी तुम घमंड में आपके ब्रह्मवादी महात्माओं का उपहास और अपमान न करना; क्योंकि उनके पास वाणीरूप अमोघ वज्र है तथा वे तीक्ष्ण कोप वाले होते हैं’। कश्यप जी के ऐसा कहने पर देवराज इन्द्र निःशंक होकर स्वर्गलोक में चले गये। अपना मनोरथ सिद्ध होने से विनता भी बहुत प्रसन्न हुई। उसने दो पुत्र उत्पन्न किये- अरुण और गरुड़। जिसके अंग कुछ अधूरे रह गये थे, वे अरुण कहलाते हैं, वे ही सूर्यदेव के सारथि बनकर उनके आगे-आगे चलते हैं। भृगुनन्दन! दूसरे पुत्र गरुड़ का पक्षियों के इन्द्र-पद पर अभिषेक किया गया। अब तुम गरुड़ का यह महान पराक्रम सुनो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरित्रविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
बत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वात्रिंश (32) अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"गरुड़ का देवताओं के साथ युद्ध और देवताओं की पराजय"
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- 'द्विजश्रेष्ठ! देवताओं का समुदाय जब इस प्रकार भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न हो युद्ध के लिये उद्यत हो गया, उसी समय पक्षिराज गरुड़ तुरन्त ही देवताओं के पास जा पहुँचे। उन अत्यन्त बलवान गरुड़ को देखकर सम्पूर्ण देवता काँप उठे। उनके सभी आयुध आपस में ही आघात-प्रत्याघात करने लगे। वहाँ विद्युत एवं अग्नि के समान तेजस्वी और महापराक्रमी अमेयात्मा भौमन (विश्वकर्मा) अमृत की रक्षा कर रहे थे। वे पक्षिराज के साथ दो घड़ी तक अनुपम युद्ध करके उनके पंख, चोंच नखों से घायल हो उस रणांगण में मृतक तुल्य हो गये।
तदनन्तर पक्षिराज ने अपने पंखों की प्रचण्ड वायु से बहुत धूल उड़ाकर समस्त लोकों में अन्धकार फैला दिया और उसी धूल से देवताओं को ढक दिया। उस धूल से आच्छादित होकर देवता मोहित हो गये। अमृत की रक्षा करने वाले देवता भी इसी प्रकार धूल से ढक जाने के कारण कुछ देख नहीं पाते थे। इस तरह गरुड़ ने स्वर्गलोक को व्याकुल कर दिया और पंखों तथा चोंचों की मार से देवताओं का अंग-अंग विदीर्ण कर डाला। तब सहस्र नेत्रों वाले इन्द्र देव ने तुरन्त ही वायु को आज्ञा दी- ‘मारुत! तुम इस धूल की वृष्टि को दूर हटा दो; क्योंकि यह काम तुम्हारे ही वश का है।'
तब बलवान वायुदेव ने बड़े वेग से उस धूल को दूर उड़ा दिया। इससे वहाँ फैला हुआ अन्धकार दूर हो गया। अब देवता अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा पक्षी गरुड़ को पीड़ित करने लगे। देवताओं के प्रहार को सहते हुए महाबली गरुड़ आकाश में छाये हुए महामेघ की भाँति समस्त प्राणियों को डराते हुए जोर-जोर से गर्जन करने लगे। शत्रुवीरों का संहार करने वाले पक्षिराज बड़े पराक्रमी थे। वे आकाश में बहुत ऊँचे उड़ गये। उड़कर अन्तरिक्ष में देवताओं के ऊपर (ठीक सिर की सीध में) खड़े हो गये। उस समय कवच धारण किये इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उन पर पट्टिश, परिघ, शूल और गदा आदि नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा प्रहार करने लगे। अग्नि के समान प्रज्वलित क्षुरप्र, सूर्य के समान उद्भासित होने वाले चक्र तथा नाना प्रकार के दूसरे-दूसरे शस्त्रों के प्रहार द्वारा उन पर सब ओर से मार पड़ रही थी। तो भी पक्षिराज गरुड़ देवताओं के साथ तुमुल युद्ध करते हुए तनिक भी विचलित न हुए।
परमप्रतापी विनतानन्दन गरुड़ ने मानो देवताओं को दग्ध कर डालेंगे, इस प्रकार रोष में भरकर आकाश में खड़े-खड़े ही पंखों और छाती के धक्के से उन सबको चारों ओर मार गिराया। गरुड़ से पीड़ित और दूर फेंके गये देवता इधर-उधर भागने लगे। उनके नखों और चोंच से क्षत-विक्षत हो वे अपने अंगों से बहुत सा रक्त बहाने लगे। पक्षिराज से पराजित हो साव्य और गन्धर्व पूर्व दिशा की ओर भाग चले। वसुओं तथा रुद्रों ने दक्षिण दिशा की शरण ली। आदित्यगण पश्चिम दिशा की ओर भागे तथा अश्विनी कुमारों ने उत्तर दिशा का आश्रय लिया। ये महापराक्रमी योद्धा बार-बार पीछे की ओर देखते हुए भाग रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वात्रिंश (32) अध्याय के श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद)
इसके बाद आकाशचारी पक्षिराज गरुड़ ने वीर अश्वक्रन्द, रेणुक, शूरवीर, क्रथन, तपन, उलूक, श्वसन, निमेष, प्ररूज तथा पुलिन- इन नौ यक्षों के साथ युद्ध किया। शत्रुओं का दमन करने वाले विनताकुमार ने प्रलयकाल में कुपित हुए पिनाकधारी रुद्र की भाँति क्रोध में भरकर उन सबको पंखों, नखों और चोंच के अग्रभाग से विदीर्ण कर डाला। वे सभी यक्ष बड़े बलवान और अत्यन्त उत्साही थे; उस युद्ध में गरुड़ द्वारा बार-बार क्षत-विक्षत होकर वे खून की धारा बहाते हुए बादलों की भाँति शोभा पा रहे थे। पक्षिराज उन सबके प्राण लेकर जब अमृत उठाने के लिये आगे बढ़े, तब उसके चारों ओर उन्होंने आग जलती देखी।
वह आग अपनी लपटों से वहाँ के समस्त आकाश को आवृत किये हुए थी। उससे बड़ी ऊँची ज्वालाएँ उठ रही थी। वह सूर्य मण्डल की भाँति दाह उत्पन्न करती और प्रचण्ड वायु में प्रेरित हो अधिकाधिक प्रज्वलित होती रहती थी। तब वेगशाली महात्मा गरुड़ ने अपने शरीर में आठ हजार एक सौ मुख प्रकट करके उनके द्वारा नदियों का जल पी लिया और पुनः बड़े वेग से शीघ्रतापूर्वक वहाँ आकर उस जलती हुई आग पर सब जल उड़ेल दिया। इस प्रकार शत्रुओं को ताप देने वाले पक्षवाहन गरुड़ ने नदियों के जल से उस आग को बुझाकर अमृत के पास पहुँचने की इच्छा से एक दूसरा बहुत छोटा रूप धारण कर लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरित्रविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
तैंतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"गरुड़ का अमृत लेकर लौटना, मार्ग में भगवान विष्णु से वर पाना एवं उन पर इंद्र के द्वारा वज्र-प्रहार"
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तदनन्तर जैसे जल का वेग समुद्र में प्रवेश करता है, उसी प्रकार पक्षिराज गरुड़ सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान सुवर्णमय स्वरूप धारण करके बलपूर्वक, जहाँ अमृत था, उस स्थान में घुस गये। उन्होंने देखा, अमृत के निकट एक लोहे का चक्र घूम रहा है। उसके चारों ओर छुरे लगे हुए हैं। वह निरन्तर चलता रहता है और उसकी धार बड़ी तीखी है। वह घोर चक्र अग्नि और सूर्य के समान जाज्वल्यमान था। देवताओं ने उस अत्यन्त भयंकर यन्त्र का निर्माण इसलिये किया था कि वह अमृत चुराने के लिये आये हुए चोरों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। पक्षी गरुड़ उसके भीतर का छिद्र- उसमें घुसने का मार्ग देखते हुए खड़े रहे। फिर एक क्षण में ही वे अपने शरीर को संकुचित करके उस चक्र के अरों के बीच से होकर भीतर घुस गये। वहाँ चक्र के नीचे अमृत की रक्षा के लिये ही दो श्रेष्ठ सर्प नियुक्त किये गये थे। उनकी कान्ति प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ती थी। बिजली के समान उनकी लपलपाती हुई जीभें, देदीप्यमान मुख और चमकती हुई आँखें थीं। वे दोनों सर्प बड़े पराक्रमी थे। उनके नेत्रों में ही विषभरा था। वे बड़े भयंकर, नित्य क्रोधी और अत्यन्त वेगशाली थे। गरुड़ ने उन दोनों को देखा। उनके नेत्रों में सदा क्रोध भरा रहता था। वे निरन्तर एकटक दृष्टि से देखा करते थे (उनकी आँखें कभी बन्द नहीं होती थीं)। उनमें से एक भी जिसे देख ले, वह तत्काल भस्म हो सकता था। सुन्दर पंख वाले गरुड़ जी ने सहसा धूल झोंक कर उनकी आँखें बन्द कर दी और उनसे अदृश्य रहकर ही वे सब ओर से उन्हें मारने और कुचलने लगे।
आकाश में विचरने वाले महापराक्रमी विनताकुमार ने वेगपूर्वक आक्रमण करके उन दोनों सर्पों के शरीर को बीच से काट डाला; फिर वे अमृत की ओर झपटे और चक्र को तोड़ फोड़कर अमृत के पात्र को उठाकर बड़ी तेजी के साथ वहाँ से उड़ चले। उन्होंने स्वयं अमृत को नहीं पीया, केवल उसे लेकर शीघ्रतापूर्वक वहाँ से निकल गये और सूर्य की प्रभा का तिरस्कार करते हुए बिना थकावट के चले आये। उस समय आकाश में विनतानन्दन गरुड़ की भगवान विष्णु से भेंट हो गयी। भगवान नारायण गरुड़ के लोलुपतारहित पराक्रम से बहुत संतुष्ट हुए थे।
अतः उन अविनाशी भगवान विष्णु ने आकाशचारी गरुड़ से कहा ;- ‘मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ।’
अन्तरिक्ष में विचरने वाले गरुड़ ने यह वर माँगा ;- ‘प्रभो! मैं आपके ऊपर (ध्वज में) स्थित होऊँ।'
इतना कहकर वे भगवान नारायण से फिर यों बोले ;- ‘भगवन! मैं अमृत पीये बिना ही अजर-अमर हो जाऊँ’।
तब भगवान विष्णु ने विनतानन्दन गरुड़ से कहा ;- ‘एवमस्तु-ऐसा ही हो।’
वे दोनों वर ग्रहण करके गरुड़ ने,,
भगवान विष्णु से कहा ;- ‘देव! मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ। भगवान भी कोई वर माँगें।’ तब श्रीहरि ने महाबली गरुत्मान से अपना वाहन होने का वर माँगा। भगवान विष्णु ने गरुड़ को अपना ध्वज बना लिया- उन्हें ध्वज के ऊपर स्थान दिया,,
और कहा;- ‘इस प्रकार तुम मेरे ऊपर रहोगे।’
तदनन्तर उन भगवान नारायण से ‘एवमस्तु’ कहकर पक्षी गरुड़ वहाँ से वेगपूर्वक चले गये। महान वेगशाली गरुड़ उस समय वायु से होड़ लगाते चल रहे थे। पक्षियों के सरदार उन खगश्रेष्ठ गरुड़ को अमृत का अपहरण करके लिये जाते देख इन्द्र ने रोष में भरकर उनके ऊपर वज्र से आघात किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 19-24 का हिन्दी अनुवाद)
विहंगप्रवर गरुड़ ने उस युद्ध में वज्राहत होकर भी हँसते हुए मधुर वाणी में,,
इन्द्र से कहा ;- 'देवराज! जिनकी हड्डी से यह वज्र बना है, उन महर्षि का सम्मान मैं अवश्य करूँगा। शतक्रतो! ऋषि के साथ-साथ तुम्हारा और तुम्हारे वज्र का भी आदर करूँगा; इसीलिये मैं अपनी एक पाँख जिसका तुम कहीं अन्त नहीं पा सकोगे त्याग देता हूँ।
तुम्हारे वज्र के प्रहार से मेरे शरीर में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई है।’ ऐसा कहकर पक्षिराज ने अपना एक पंख गिरा दिया। उस गिरे हुए परम उत्तम पंख को देखकर सब प्राणियों को बड़ा हर्ष हुआ और उसी के आधार पर उन्होंने गरुड़ का नामकरण किया।
वह सुन्दर पाँख देखकर लोगों ने कहा, जिसका यह सुन्दर पर्ण (पंख) है, वह पक्षी सुपर्ण नाम से विख्यात हो। (गरुड़ पर वज्र भी निष्फल हो गया) यह महान् आश्चर्य की बात देखकर सहस्र नेत्रों वाले इन्द्र ने मन-ही-मन विचार किया, अहो! यह पक्षीरूप में कोई महान् प्राणी है, ऐसा सोचकर उन्होंने कहा।
इंद्र ने कहा ;- विहंगप्रवर! मैं तुम्हारे सर्वोत्तम उत्कृष्ट बल को जानना चाहता हूँ और तुम्हारे साथ ऐसी मैत्री स्थापित करना चाहता हूँ, जिसका कभी अन्त न हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरित्रविषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
चौंतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"इंद्र और गरुड़ के मित्रता, गरुड़ का अमृत लेकर नागों के पास आना और विनता को दासीभाव से छुड़ाना तथा इंद्र द्वारा अमृत का अपहरण"
गरुड़ ने कहा ;- देवपुरन्दर! जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार तुम्हारे साथ (मेरी) मित्रता स्थापित हो। मेरा बल भी जान लो, वह महान और असह्म है। शतक्रतो! साधु पुरुष स्वेच्छा से अपने बल की स्तुति और अपने ही मुख से अपने गुणों का बखान अच्छा नहीं मानते। किंतु सखे! तुमने मित्र मानकर पूछा है, इसलिये मैं बता रहा हूँ; क्योंकि अकारण ही अपनी प्रशंसा से भरी हुई बात नहीं कहनी चाहिये (किन्तु किसी मित्र के पूछने पर सच्ची बात कहने में कोई हर्ज नहीं है।)। इन्द्र! पर्वत, वन और समुद्र के जल सहित सारी पृथ्वी को तथा इसके ऊपर रहने वाले आपको भी अपने एक पंख पर उठाकर मैं बिना परिश्रम के उड़ सकता हूँ। अथवा सम्पूर्ण चराचर लोकों को एकत्र करके यदि मेरे ऊपर रख दिया जाये तो मैं सबको बिना परिश्रम के ढो सकता हूँ। इससे तुम मेरे महान बल को समझ लो।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! वीरवर गरुड़ के इस प्रकार कहने पर श्रीमानों में श्रेष्ठ किरीटधारी सर्वलोकहितकारी,,
भगवान देवेन्द्र ने कहा ;- ‘मित्र! तुम जैसा कहते हो, वैसी ही बात है। तुममें सब कुछ सम्भव है। इस समय मेरी अत्यन्त उत्तम मित्रता स्वीकार करो। यदि तुम्हें स्वयं अमृत की आवश्यकता नहीं है तो वह मुझे वापस दे दो। तुम जिनको यह अमृत देना चाहते हो, वे इसे पीकर हमें कष्ट पहुँचावेंगे।'
गरुड़ ने कहा ;- स्वर्ग के सम्राट सहस्राक्ष! किसी कारणवश मैं यह अमृत ले जाता हूँ। इसे किसी को भी पीने के लिये नहीं दूँगा। मैं स्वयं जहाँ इसे रख दूँ, वहाँ से तुरन्त तुम उठा ले जा सकते हो।
इन्द्र बोले ;- पक्षिराज! तुमने यहाँ जो बात कही है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। खगश्रेष्ठ! तुम मुझसे जो चाहो, वर माँग लो।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- इन्द्र के ऐसा कहने पर गरुड़ को कद्रूपुत्रों की दुष्टता का स्मरण हो आया। साथ ही उनके उस कपटपूर्ण बर्ताव की भी याद आ गयी, जो माता को दासी बनाने में कारण था।
अतः उन्होंने इन्द्र से कहा ;- ‘इन्द्र! यद्यपि मैं सब कुछ करने में समर्थ हूँ, तो भी तुम्हारी इस याचना को पूर्ण करूँगा कि अमृत दूसरों को न दिया जाये। साथ ही तुम्हारे कथनानुसार यह वर भी माँगता हूँ कि महाबली सर्प मेरे भोजन की सामग्री हो जायँ।
तब दानवशत्रु इन्द्र ‘तथास्तु’ कहकर योगीश्वर देवाधिदेव परमात्मा श्रीहरि के पास गये। श्रीहरि ने भी गरुड़ की कही हुई बात का अनुमोदन किया।
तदनन्तर स्वर्गलोक के स्वामी भगवान इन्द्र पुनः गरुड़ को सम्बोधित करके,,
इस प्रकार बोले ;- ‘तुम जिस समय इस अमृत को कहीं रख दोगे उसी समय मैं इसे हर ले आउँगा’ (ऐसा कहकर इन्द्र चले गये)। फिर सुन्दर पंख वाले गरुड़ तुरंत ही अपनी माता के समीप आ पहुँचे।
तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न से होकर वे समस्त सर्पों से,,
इस प्रकार बोले ;- ‘पन्नगो! मैंने तुम्हारे लिये यह अमृत ला दिया है। इसे कुशों पर रख देता हूँ। तुम सब लोग स्नान और मंगल कर्म (स्वस्तिवाचन आदि) करके इस अमृत का पान करो। अमृत के लिये भेजते समय तुमने यहाँ बैठकर मुझसे जो बातें कही थीं, उनके अनुसार आज से मेरी ये माता दासीपन से मुक्त हो जायें; क्योंकि तुमने मेरे लिये जो काम बताया था, उसे मैंने पूर्ण कर दिया है’।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 20-26 का हिन्दी अनुवाद)
तब सर्पगण ‘तथास्तु’ कहकर स्नान के लिये गये। इसी बीच में इन्द्र वह अमृत लेकर पुनः स्वर्ग लोक को चले गये। इसके अनन्तर अमृत पीने की इच्छा वाले सर्प स्नान, जप और मंगल कार्य करके प्रसन्नतापूर्वक उस स्थान पर आये, जहाँ कुश के आसन पर अमृत रखा गया था। आने पर उन्हें मालूम हुआ कि कोई उसे हर ले गया। तब सर्पों ने यह सोचकर संतोष किया कि यह हमारे कपटपूर्ण बर्ताव का बदला है। फिर यह समझ कर कि यहाँ अमृत रखा गया था, इसलिये सम्भव है इसमें उसका कुछ अंश लगा हो, सर्पों ने उस समय कुशों को चाटना शुरू किया। ऐसा करने से सर्पों की जीभ के दो भाग हो गये। तभी से पवित्र अमृत का स्पर्श होने के कारण कुशों की ‘पवित्री’ संज्ञा हो गयी।
इस प्रकार महात्मा गरुड़ ने देवलोक से अमृत का अपहरण किया और सर्पों के समीप तक उसे पहुँचाया; साथ ही सर्पों को द्विजिह्व (दो जिह्वाओं से युक्त) बना दिया। उस दिन से सुन्दर पंख वाले गरुड़ अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी माता के साथ रहकर वहाँ वन में इच्छानुसार घूमने फिरने लगे। वे सर्पों को खाते और पक्षियों से सादर सम्मानित होकर अपनी उज्ज्वल कीर्ति चारों ओर फैलाते हुए माता विनता को आनन्द देने लगे। जो मनुष्य इस कथा को श्रेष्ठ द्विजों की उत्तम गोष्ठी मे सदा पढ़ता अथवा सुनता है, वह पक्षिराज महात्मा गरुड़ के गुणों का गान करने से पुण्य का भागी होकर निश्चय ही स्वर्गलोक में जाता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरित्रविषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
पैंतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"मुख्य-मुख्य नागों के नाम"
शौनकजी ने कहा ;- सूतनन्दन! सर्पों को उनकी माता से और विनता देवी को उनके पुत्र से जो शाप प्राप्त हुआ था, उसका कारण आपने बता दिया। कद्रू और विनता को उनके पति कश्यप जी से जो वर मिले थे, वह कथा भी कह सुनायी तथा विनता के जो दोनों पुत्र पक्षीरूप में प्रकट हुए थे, उनके नाम भी आपने बताये हैं। किंतु सूतपुत्र! आप सर्पों के नाम नहीं बता रहे हैं। यदि सबका नाम बताना सम्भव न हो, तो उनमें जो मुख्य-मुख्य सर्प हैं, उन्हीं के नाम हम सुनना चाहते हैं।
उग्रश्रवा जी ने कहा ;- तपोधन! सर्पों की संख्या बहुत है; अतः उन सबके नाम तो नहीं कहूँगा, किंतु उनमें जो मुख्य-मुख्य सर्प हैं, उनके नाम मुझसे सुनिये। नागों में सबसे पहले शेष जी प्रकट हुए हैं। तदनन्तर वासुकि, ऐरावत, तक्षक, कर्कोटक, धनंजय, कालिय, मणिनाग, आपूरण, पिंजरक, एलापत्र, वामन, नील, अनील, कल्माष, शबल, आर्यक, उग्रक, कलशपोतक, सुमनाख्य, दधिमुख, विमल पिण्डक, आप्त, कर्कोटक (द्वितीय), शंख, वालिशिख, निष्टानक, हेमगुह, नहुष, पिंगल, बाह्मकर्ण, हस्तिपद, मुद्नरपिण्डक, कम्बल, अश्वतर, कालीयक, वृत्त, संवतर्क, पह्म (प्रथम), पह्म (द्वितीय), शंखमुख, कूष्माण्डक, क्षेमक, पिण्डारक, करवीर, पुष्पदंष्ट्र, बिल्वक, बिल्वपाण्डुर, मूषकाद, शंखशिरा, पूर्णभद्र, हरिद्रक, अपराजित, ज्योतिक, श्रीवह, कौरव्य, धृतराष्ट्र, पराक्रमी शंखपिण्ड, विरजा, सुबाहु, वीर्यवान् शालिपिण्ड, हस्तिपिण्ड, पिठरक , सुमुख, कोणपाशन, कुठर, कुंजर, प्रभाकर, कुमुद, कुमुदाक्ष, तित्तिरि, हलिक, महानाग, कर्दम, बहुमूलक, कर्कर, अकर्कर, कुण्डोदर और महोदर- ये नाग उत्पन्न हुए। द्विजश्रेष्ठ! ये मुख्य-मुख्य नाग यहाँ बताये गये हैं। सर्पों की संख्या अधिक होने से उनके नाम भी बहुत हैं। अतः अन्य अप्रधान नागों के नाम यहाँ कहेे गये हैं। तपोधन! इन नागों की संतान तथा उन संतानों की भी संतति असंख्य है। ऐसा समझकर उनके नाम मैं नहीं कहता हूँ। तपस्वी शौकन जी! नागों की संख्या यहाँ कई हजारों से लेकर लाखों-अरबों तक पहुँच जाती है। अतः उनकी गणना नहीं की जा सकती है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में सर्पनामकथन-विषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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