सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) का सोलहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (from the sixteenth chapter to the twentieth chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))


सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

सोलहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षोडश अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"कद्रू और विनता को कश्यप जी के वरदान से अभीष्ट पुत्रों की प्राप्ति"

शौनक जी बोले ;- सूतनन्दन! आप ज्ञानी महात्मा आस्तीक की इस कथा को पुनः विस्तार के साथ कहिये। हमें उसे सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा है। सौम्य! आप बड़ी मधुर कथा कहते हैं। उसका एक-एक अक्षर और एक-एक पद कोमल हैं। तात! इसे सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आप अपने पिता लोमहर्षण की भाँति ही प्रवचन कर रहे हैं। आपके पिता सदा हम लोगों की सेवा में लगे रहते थे। उन्होंने इस उपाख्यान को जिस प्रकार कहा है, उसी रूप में आप भी कहिये।

उग्रश्रवा जी ने कहा ;- आयुष्मन! मैंने अपने कथावाचक पिता जी के मुख से यह आस्तीक की कथा, जिस रूप में सुनी है, उसी प्रकार आपसे कहता हूँ। ब्रह्मन! पहले सत्ययुग में दक्ष प्रजापति की दो शुभलक्षणा कन्याएँ थीं- कद्रू और विनता। वे दोनों बहिनें रूप-सौन्दर्य से सम्पन्न तथा अद्भुत थीं। अनघ! उन दोनों का विवाह महर्षि कश्यप जी के साथ हुआ था। एक दिन प्रजापति ब्रह्मा जी के समान शक्तिशाली पति महर्षि कश्यप ने अत्यन्त हर्ष में भरकर अपनी उन दोनों धर्मपत्नियों को प्रसन्नतापूर्वक वर देते हुए,,

 महर्षि कश्यप ने कहा ;- ‘तुममें से जिसकी जो इच्छा हो वर माँग लो।’ इस प्रकार कश्यप जी से उत्तम वरदान मिलने की बात सुनकर प्रसन्नता के कारण उन दोनों सुन्दरी स्त्रियों को अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। कद्रू ने समान तेजस्वी एक हजार नागों को पुत्र रूप में पाने का वर माँगा। विनता ने बल, तेज, शरीर तथा पराक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र माँगे। विनता को पति देव ने अत्यन्त अभीष्ट दो पुत्रों के होने का वरदान दे दिया। उस समय विनता ने कश्यप जी के ‘एवमस्तु’ कहकर उनके दिये हुए वर को शिरोधार्य किया।

  अपनी प्रार्थना के अनुसार ठीक वर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। कद्रू के पुत्रों से अधिक बलवान और पराक्रमी दो पुत्रों के होने का वर प्राप्त करके विनता अपने को कृतकृत्य मानने लगी। समाज तेजस्वी एक हजार पुत्र होने का वर पाकर कद्रू भी अपना मनोरथ सिद्ध हुआ समझने लगी। वरदान पाकर सन्तुष्ट हुई। अपनी उन धर्मपत्नियों से यह कहकर कि ‘तुम दोनों यत्नपूर्वक अपने अपने गर्भ की रक्षा करना।’ महातपस्वी कश्यप जी वन में चले गये। ब्रह्मन! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात कद्रू ने एक हजार और विनता ने दो अण्डे दिेये। दासियों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनों के अण्डों को गरम वर्तनों में रख दिया। वे अण्डे पाँच सौ वर्षों तक उन्हीं वर्तनों में पड़े रहे। तत्पश्चात पाँच सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रू के एक हजार पुत्र अण्डों को फोड़कर बाहर निकल आये, परन्तु विनता के अण्डों से उसके दो बच्चे निकलते नहीं दिखायी दिये। इससे पुत्रार्थिनी और तपस्विनी देवी विनता सौत के सामने लज्जित हो गयी। फिर उसने अपने हाथों से एक अण्डा फोड़ डाला। फूटने पर उस अण्डे में विनता ने अपने पुत्र को देखा, उसके शरीर का ऊपरी भाग पूर्णरूप से विकसित एवं पुष्ट था, किन्तु नीचे का आधा अंग अभी अधूरा रह गया था। सुना जाता है, उस पुत्र ने क्रोध के आवेश में आकर विनता को शाप दे दिया। ‘मा! तूने लोभ के वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीर का बना दिया- मेरे समस्त अंगों को पूर्णतः विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया; इसलिये जिस सौत के साथ तू लाग-डाँट रखती है, उसी की पाँच सौ वर्षों तक दासी बनी रहेगी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षोडश अध्‍याय के श्लोक 20-25 का हिन्दी अनुवाद)

  और मा! यह जो दूसरे अण्डे में तेरा पुत्र है, यही तुझे दासी-भाव से छुटकारा दिलायेगा; किन्तु माता! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्र को मेरी ही तरह अण्डा फोड़कर अंगहीन या अधूरे अंगों से युक्त न बना देगी। इसलिये यदि तू इस बालक को विशेष बलवान बनाना चाहती है तो पाँच सौ वर्ष के बाद तक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्म की प्रतीक्षा करनी चाहिये।'

   इस प्रकार विनता को शाप देकर यह बालक अरुण अन्तरिक्ष में उड़ गया। ब्रह्मन! तभी से प्रातःकाल (प्राची दिशा में) सदा जो लाली दिखायी देती है, उसके रूप में विनता के पुत्र अरुण का ही दर्शन होता है। वह सूर्यदेव के रथ पर जा बैठा और उनके सारथि का काम सँभालने लगा। तदनन्तर समय पूरा होने पर सर्प संहारक गरुड़ का जन्म हुआ। भृगु श्रेष्ठ! पक्षीराज गरुड़ जन्म लेते ही क्षुधा से व्याकुल हो गये और विधाता ने उनके लिये जो आहार नियत किया था, अपने उस भोज्य पदार्थ को प्राप्त करने के लिये माता विनता को छोड़कर आकाश में उड़ गये।

"इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में सर्प आदि की उत्पत्ति से सम्बंध रखने वाला सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ"

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

सत्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तदश अध्‍याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"मेरु पर्वत पर अमृत के लिये विचार करने वाले देवताओं को भगवान नारायण का समुद्रमंथन के लिये आदेश"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तपोधन! इसी समय कद्रू और विनता दोनों बहिनें एक साथ ही घूमने के लिये निकलीं। उस समय उन्होंने उच्चैःश्रवा नामक घोड़े को निकट से जाते देखा। वह परमउत्तम अश्वरत्न अमृत के लिये समुद्र का मन्थन करते समय प्रकट हुआ था। उसमें अमोघ बल था। वह संसार के समस्त अश्वों में श्रेष्ठ, उत्तम गुणों से युक्त, सुन्दर, अजर, दिव्य एवं सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से संयुक्त था। उसके अंग बड़े हृष्ट-पुष्ट थे। सम्पूर्ण देवताओं ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। 

शौनक जी ने पूछा ;- सूतनन्दन! अब मुझे यह बताइये कि देवताओं ने अमृत मन्थन किस प्रकार और किस स्थान पर किया था, जिसमें वह महान बल-पराक्रम से सम्पन्न और अत्यन्त तेजस्वी अश्वराज उच्चैःश्रवा प्रकट हुआ।

  उग्रश्रवा जी ने कहा ;- शौनक जी! मेरु नाम से प्रसिद्ध एक पर्वत है, जो अपनी प्रभा से प्रज्वलित होता रहता है। वह तेज का महान पुंज और परम उत्तम है। अपने अत्यन्त प्रकाशमान सुवर्णमय शिखरों से वह सूर्यदेव की प्रभा को भी तिरस्कृत किये देता है। उस स्वर्णभूषित विचित्र शैल पर देवता और गन्धर्व निवास करते हैं। उसका कोई माप नहीं है। जिसमें पाप की मात्रा अधिक है, ऐसे मनुष्य वहाँ पैर नहीं रख सकते। वहाँ सब ओर भयंकर सर्प भरे पड़े हैं। दिव्य औषधियाँ उस तेजोमय पर्वत को और भी उद्भासित करती रहती हैं। वह महान गिरिराज अपनी ऊँचाई से स्वर्ग लोक को घेरकर खड़ा है। प्राकृत मनुष्यों के लिये वहाँ मन से भी पहुँचना असम्भव है।

   वह गिरिप्रदेश बहुत सी नदियों और असंख्य वृक्षों से सुशोभित है। भिन्न-भिन्न प्रकार के अत्यन्त मनोहर पक्षियों के समुदाय अपने कलरव से उस पर्वत को कोलाहलपूर्ण किये रहते हैं। उसके शुभ एवं उच्चतम श्रृंग असंख्य चमकीले रत्नों से व्याप्त हैं। वे अपनी विशालता के कारण आकाश के समान अनन्त जान पड़ते हैं। समस्त महातेजस्वी देवता मेरुगिरि के उस महान शिखर पर चढ़कर एक स्थान में बैठ गये और सब मिलकर अमृत प्राप्ति के लिये क्या उपाय किया जाये, इसका विचार करने लगे। वे सभी तपस्वी तथा शौच-संतोष आदि नियमों से संयुक्त थे। इस प्रकार परस्पर विचार एवं सबके साथ मंत्रणा में लगे हुए देवताओं के समुदाय में उपस्थित हो भगवान नारायण ने ब्रह्मा जी से यों कहा- ‘समस्त देवता और असुर मिलकर महासागर का मन्थन करें। उस महासागर का मन्थन आरम्भ होने पर उसमें से अमृत प्रकट होगा। देवताओं! पहले समस्त औषधियों, फिर सम्पूर्ण रत्नों को पाकर भी समुद्र का मन्थन जारी रखो। इससे अन्त में तुम लोगों को निश्चय ही अमृत की प्राप्ति होगी।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में सर्प आदि की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाला सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

अठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टादश अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"देवताओं और दैत्यों द्वारा अमृत के लिये समुद्र का मंथन, अनेक रत्नों के साथ अमृत की उत्पत्ति और भगवान का मोहिनीरूप धारण करके दैत्यों के हाथ से अमृत ले लेना"

   उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! तदनन्तर सम्पूर्ण देवता मिलकर पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल को उखाड़ने के लिये उसके समीप गये। वह पर्वत श्वेत मेघ खण्डों के समान प्रतीत होने वाले गगनचुम्बी शिखरों से सुशोभित था। सब ओर फैली हुई लताओं के समुदाय ने उसे आच्छादित कर रखा था। उस पर चारों ओर भाँति-भाँति के विहंगम कलरव कर रहे थे। बड़ी-बड़ी दाढ़ों वाले व्याघ्र सिंह आदि अनेक हिंसक जीव वहाँ सर्वत्र भरे हुए थे। उस पर्वत के विभिन्न प्रदेशों में किन्नरगण, अप्सराएँ तथा देवता लोग निवास करते थे। उसकी ऊँचाई ग्यारह हजार योजन थी और भूमि के नीचे भी वह उतने ही सहस्र योजनों में प्रतिष्ठित था। जब देवता उसे उखाड़ न सके, तब वहाँ बैठे हुए भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी से इस प्रकार बोले ‘आप दोनों इस विषय में कल्याणमयी उत्तम बुद्धि प्रदान करें और हमारे हित के लिये मन्दराचल पर्वत को उखाड़ने का यत्न करें।'

   उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- भृगुनन्दन! देवताओं के ऐसा कहने पर ब्रह्मा जी सहित भगवान विष्णु ने कहा- ‘तथास्तु (ऐसा ही हो)।' तदनन्तर जिनका स्वरूप मन, बुद्धि एवं प्रमाणों की पहुँच से परे है, उन कमलनयन भगवान विष्णु ने नागराज अनन्त को मन्दराचल उखाड़ने के लिये आज्ञा दी। जब ब्रह्मा जी ने प्रेरणा दी और भगवान नारायण ने भी आदेश दे दिया, तब अतुल पराक्रमी अनन्त (शेषनाग) उठकर उस कार्य में लगे। ब्रह्मन! फिर तो महाबली अननन्त ने जोर लगाकर गिरिराज मन्दराचल को वन और वनवासी जन्तुओं सहित उखाड़ लिया। तत्पश्चात देवता लोग उस पर्वत के साथ समुद्रतट पर उपस्थित हुए और,,

 समुद्र से बोले ;- ‘हम अमृत के लिये तुम्हारा मन्थन करेंगे।’ 

यह सुनकर जल के स्वामी समुद्र ने कहा ;- ‘यदि अमृत में मेरा भी हिस्सा रहे तो मैं मन्दराचल को घुमाने में जो भारी पीड़ा होगी, उसे सह लूँगा।

  तब देवताओं और असुरों ने (समुद्र की बात स्वीकार करके) समुद्रतल में स्थित कच्छपराज से कहा ;- ‘भगवन! आप इस मन्दराचल के आधार बनिये।' तब कच्छपराज ने ‘तथास्तु’ कहकर मन्दराचल के नीचे अपनी पीठ लगा दी। देवराज इन्द्र ने उस पर्वत को वज्र द्वारा दबाये रखा। ब्रह्मन! इस प्रकार पूर्वकाल में देवताओं, दैत्यों और दानवों ने मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को डोरी बनाकर अमृत के लिये जल-निधि समुद्र को मथना आरम्भ किया। उन महान असुरों ने नागराज वासुकि के मुखभाग को दृढ़तापूर्वक पकड़ रखा था और जिस ओर उसकी पूँछ थी उधर सम्पूर्ण देवता उसे पकड़कर खड़े थे। भगवान अनन्त देव उधर ही खड़े थे, जिधर भगवान नारायण थे। वे वासुकि नाग के सिर को बार-बार ऊपर उठाकर झटकते थे।

  तब देवताओं द्वारा बार-बार खींचे जाते हुए वासुकि नाग के मुख से निरन्तर धूँए तथा आग की लपटों के साथ गर्म-गर्म साँसे निकलने लगी। वे धूम-समुदाय बिजलियों सहित मेघों की घटा बनकर परिश्रम एवं संताप से कष्ट पाने वाले देवताओं पर जल की धारा बरसाते रहते थे। उस पर्वत शिखर के अग्रभाग से सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों पर सब ओर से फूलों की वर्षा होने लगी। देवताओं और असुरों द्वारा मन्दराचल को समुद्र का मन्थन होते समय वहाँ महान मेघों की गम्भीर गर्जना के समान जोर-जोर से शब्द होने लगा। उस समय उस महान पर्वत के द्वारा सैकड़ों जलचर जन्तु पिस गये और खारे पानी के उस महासागर में विलीन हो गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टादश अध्‍याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

  मन्दराचल ने वरुणालय (समुद्र) तथा पातालतल में निवास करने वाले नाना प्रकार के प्राणियों संहार कर डाला। जब वह पर्वत घुमाया जाने लगा, उस समय उसके शिखर से बड़े-बड़े वृक्ष आपस में टकराकर उन पर निवास करने वाले पक्षियों सहित नीचे गिर पड़े। उनकी आपस की रगड़ से बार-बार आग प्रकट होकर ज्वालाओं के साथ प्रज्वलित हो उठी और जैसे बिजली नीले मेघ को ढक ले, उसी प्रकार उसने मन्दराचल को आच्छादित कर लिया। उस दावानल ने पर्वतीय गजराजों, गुफाओं से निकले हुए सिंहों तथा अन्यान्य सहस्रों जन्तुओं को जलाकर भस्म कर दिया। उस पर्वत पर जो नाना प्रकार के जीव रहते थे, वे सब अपने प्राणों से हाथ धो बैठे। तब देवराज इन्द्र ने इधर-उधर सबको जलाती हुई उस आग को मेघों के द्वारा जल बरसाकर सब ओर से बुझा दिया। तदनन्तर समुद्र के जल में बड़े-बड़े वृक्षों से भाँति-भाँति के गोंद तथा औषधियों के प्रचुर रस चू-चू कर गिरने लगे। वृक्षों और औषधियों के अमृततुल्य प्रभावशाली रसों के जल से तथा सुवर्णमय मन्दराचल की अनेक दिव्य प्रभावशाली मणियों से चूने वाले रस से ही देवता लोग अमरत्व को प्राप्त होने लगे। उस उत्तम रसों के सम्मिश्रण से समुद्र का सारा जल दूध बन गया और दूध से घी बनने लगा। तब देवता लोग वहाँ बैठे हुए वरदायक ब्रह्मा जी से बोले- ‘ब्रह्मन्! भगवान नारायण के अतिरिक्त हम सभी देवता और दानव बहुत थक गये हैं; किन्तु अभी तक वह अमृत प्रकट नहीं हो रहा है। इधर समुद्र का मन्थन आरम्भ हुए बहुत समय बीत चुका है।'

 यह सुनकर ब्रह्मा जी ने भगवान नारायण से यह बात कही ;- ‘सर्वव्यापी परमात्मन! इन्हें बल प्रदान कीजिये, यहाँ एकमात्र आप ही सबके आश्रय हैं।' 

श्री विष्णु बोले ;- जो लोग इस कार्य में लगे हुए हैं, उन सबको मैं बल दे रहा हूँ। सब लोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचल को घुमावें और इस सागर को क्षुब्ध कर दें। 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! भगवान नारायण का वचन सुनकर देवताओं और दानवों का बल बढ़ गया। उन सबने मिलकर पुनः वेगपूर्वक महासागर का वह जल मथना आरम्भ किया और उस समस्त जलराशि को अत्यन्त क्षुब्ध कर डाला। फिर तो उस महासागर से अनन्त किरणों बाले सूर्य के समान तेजस्वी, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेत वर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ। तदनन्तर उस घृतस्वरूप जल से श्वेत वस्त्र धारिणी लक्ष्मी देवी का आविर्भाव हुआ। इसके बाद सुरा देवी और श्वेत अश्व प्रकट हुए। फिर अनन्त किरणों से समुज्ज्वल दिव्य कौस्तुभमणि का उस जल से प्रादुर्भाव हुआ, जो भगवान नारायण के वक्षस्थल पर सुशोभित हुई। ब्रह्मन! महामुने! वहाँ सम्पूर्ण कामनाओं का फल देने वाले पारिजात वृक्ष एवं सुरभि गौ की उत्पत्ति हुई। फिर लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा तथा मन के समान वेगशाली उच्चैःश्रवा घोड़ा- ये सब सूर्य के मार्ग आकाश का आश्रय ले, जहाँ देवता रहते हैं, उस लोक में चले गये। इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए। वे अपने हाथ में श्वेत कलश लिये हुए थे, जिसमें अमृत भरा था। यह अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखकर दानवों में अमृत के लिये कोलाहल मच गया। वे सब कहने लगे ‘यह मेरा है, यह मेरा है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टादश अध्‍याय के श्लोक 40-46 का हिन्दी अनुवाद)

तत्पश्चात श्वेत रंग के चार दाँतों से सुशोभित विशालकाय महानाग ऐरावत प्रकट हुआ, जिसे वज्रधारी इन्द्र ने अपने अधिकार में कर लिया। तदनन्तर अत्यन्त वेग से मथने पर कालकूट महाविष उत्पन्न हुआ, वह धूमयुक्त अग्नि की भाँति एकाएक सम्पूर्ण जगत को घेर कर जलाने लगा। उस विष की गन्ध सूँघते ही त्रिलोकी के प्राणी मूर्च्छित हो गये। तब ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर भगवान श्रीशंकर ने त्रिलोकों की रक्षा के लिये उस महान विष को पी लिया। मन्त्र मूर्ति भगवान महेश्वर ने विषपान करके उसे अपने कण्ठ में धारण कर लिया। तभी से महादेव जी नीलकण्ठ के नाम से विख्यात हुए, ऐसी जनश्रुति है।

ये सब अदभुत बातें देखकर दानव निराश हो गये और अमृत तथा लक्ष्मी के लिये उन्होंने देवताओं के साथ महान वैर बाँध लिया। उसी समय भगवान विष्णु ने मोहिनी माया का आश्रय ले मनोहारिणी स्त्री का अदभुत रूप बनाकर, दानवों के पास पदार्पण किया। समस्त दैत्यों और दानवों ने उस मोहिनी पर अपना हृदय निछावर कर दिया। उनके चित्त में मूढ़ता छा गयी। अतः उन सब ने स्त्री रूपधारी भगवान को वह अमृत सौंप दिया। (भगवान नारायण की वह मूर्तिमती माया हाथ में कलश लिये अमृत परोसने लगी। उस समय दानवों सहित दैत्य पंगत लगाकर बैठै ही रह गये, परन्तु उस देवी ने देवताओं को ही अमृत पिलाया; दैत्यों को नहीं दिया, इससे उन्होंने बड़ा कोलाहल मचाया)।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में अमृतविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनविंश अध्‍याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"देवताओं का अमृतपान, देवासुर संग्राम तथा देवताओं की विजय"

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- अमृत हाथ से निकल जाने पर दैत्य और दानव संगठित हो गये और उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओं पर टूट पड़े। उधर अनन्त शक्तिशाली नर सहित भगवान नारायण ने जब मोहिनी रूप धारण करके दानवेन्द्रों के हाथ से अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान विष्णु से अमृत ले लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्ध की सम्भावना हो गयी थी। जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृत का पान कर रहे थे, ठीक उसी समय, राहु नामक दानव ने देवता रूप में आकर अमृत पीना आरम्भ किया। वह अमृत अभी उस दानव के कण्ठ तक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने देवताओं के हित की इच्छा से उसका भेद बतला दिया। तब चक्रधारी भगवान श्रीहरि ने अमृत पीने वाले उस दानव का मुकुटमण्डित मस्तक चक्र द्वारा बलपूर्वक काट दिया। चक्र से कटा हुआ दानव का महान मस्तक पर्वत के शिखर सा जान पड़ता था। वह आकाश में उछल-उछल कर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा।

    पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित समूची पृथ्वी को कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा। तभी से राहु के मुख ने चन्द्रमा और सूर्य के साथ भारी एवं स्थायी बैर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनों पर ग्रहण लगाता है। (देवताओं को अमृत पिलाने के बाद) भगवान श्रीहरि ने भी अपना अनुपम मोहिनीरूप त्यागकर नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा दानवों को अत्यन्त कम्पित कर दिया। फिर तो क्षार सागर के समीप देवताओं और असुरों का सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया। दोनों दलों पर सहस्रों, तीखी धार वाले बड़े-बड़े भालों की मार पड़ने लगी। तेज नोक वाले तोमर तथा भाँति-भाँति शस्त्र बरसने लगे। भगवान के चक्र से छिन्न-भिन्न तथा देवताओं के खड्ग शक्ति और गदा से घायल हुए असुर मुख से अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वी पर लोटने लगे। उस समय तपाये हुए सुवर्ण की मालाओं से विभूषित दानवों के सिर भयंकर पट्टिशों से कटकर निरन्तर युद्ध भूमि में गिर रहे थे। वहाँ खून से लथपथ अंग वाले मरे हुए महान असुर, जो समर भूमि मे सो रहे थे, गेरू आदि धातुओं से रँगे हुए पर्वत शिखरों के समान जान पड़ते थे।

  संध्या के समय जल-सूर्यमण्डल लाल हो रहा था, एक दूसरे के शस्त्रों से कटने वाले सहस्रों योद्धाओं का हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूँज उठा। समरांगण में दूरवर्ती देवता और दानव लोहे के तीखें परिघों से एक दूसरे पर चोट करते थे और निकट आ जाने पर आपस में मुक्का-मुक्की करने लगते थे। इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात-प्रत्याघात का शब्द मानो सारे आकाश में गूँज उठा। उस रणभूमि में चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि ‘टुकड़े-टुकडे़ कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो।' इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान विष्णु के दो रूप नर और नारायण देव भी युद्ध भूमि में आ गये। भगवान नारायण ने वहाँ नर के हाथ में दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानव संहारक दिव्यचक्र का चिन्तन किया। चिन्तन करते ही शत्रुओं को संताप देने वाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाश मार्ग से उनके हाथ में आ गया। वह सूर्य एवं अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकार चक्र की गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किन्तु वह युद्ध में शत्रुओं के लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था।

सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनविंश अध्‍याय के श्लोक 22-31 का हिन्दी अनुवाद)

   वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओं के बड़े-बडे़ नगरों को विध्वंस कर डालने की शक्ति थी। हाथी की सूँड के समान विशाल भुजदण्ड वाले उग्रवेशशाली भगवान नारायण ने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली चक्र को दानवों के दल पर चलाया। उस महासमर में पुरुषोत्तम श्रीहरि के हाथों से संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्रों दैत्यों तथा दानवों को विदीर्ण करता हुआ बड़े वेग से बारम्बार उनकी सेना पर पड़ने लगा। श्रीहरि के हाथों से चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्नि की भाँति अपनी लपलपाती लपटों से असुरों को चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े-टुकडे़ कर डालता था। इस प्रकार रणभूमि के भीतर पृथ्वी और आकाश में घमू-घूमकर वह पिशाच की भाँति बार-बार रक्‍त पीने लगा। इसी प्रकार उदार एवं उत्साह-भरे हृदय वाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखायी देते थे, उस समय सहस्रों की संख्या में आकाश में उड़-उड़कर शिलाखण्डों की वर्षा से बार-बार देवताओं को पीड़ित करने लगे।

   तत्पश्चात आकाश से नाना प्रकार के लाल, पीले, नीले आदि रंग वाले बादलों- जैसे बड़े-बड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षों सहित पृथ्वी पर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखर गलते जा रहे थे और वे एक-दूसरे से टकराकर बड़े जोर का शब्द करते थे। उस समय एक दूसरे का लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोर से गरजने वाले देवताओं और असुरों के उस समरांगण में सब ओर भयंकर मार-काट मच रही थी; बडे़-बड़े पर्वतों के गिरने से आहत हुई वन सहित सारी भूमि काँपने लगी। तब उस महाभयंकर देवासुर-संग्राम में भगवान नर ने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभाग वाले पंखयुक्त बड़े-बड़े बाणों द्वार पर्वत शिखरों को विदीर्ण करते हुए समस्त आकाशमार्ग को आच्छादित कर दिया। इस प्रकार देवताओं के द्वारा पीड़ित हुए महादैत्य आकाश में जलती हुई आग के समान उद्भासित होने वाले सुदर्शन चक्र को अपने पर कुपित देख पृथ्वी के भीतर और खारे पानी के समुद्र में घुस गये। तदनन्तर देवताओं ने विजय पाकर मन्दराचल को सम्मानपूर्वक उसके पूर्वस्थान पर ही पहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करने वाले देवता अपने सिंहनाद से अन्तरिक्ष और स्वर्गलोक को भी सब ओर से गुँजाते हुए अपने-अपने स्थान को चले गये। देवताओं को इस विजय से बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृत को बड़ी सुव्यवस्था से रखा। अमरों सहित इन्द्र ने अमृत की वह निधि किरीटधारी भगवान नर को रक्षा के लिये सौंप दी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में अमृतमंथन-समाप्ति नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) विंश अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"कद्रू और विनता की होड़, कद्रू द्वारा अपने पुत्रों को शाप एवं ब्रह्मा जी द्वारा उसका अनुमोदन"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनकादि महर्षियों! जिस प्रकार अमृत मथकर निकाला गया, वह सब प्रसंग मैंने आप लोगों से कह सुनाया। उस अमृत मन्थन के समय ही वह अनुपम वेगशाली सुन्दर अश्व उत्पन्न हुआ था, जिसे देखकर,,

 कद्रू ने विनता से कहा ;- ‘भद्रे! शीघ्र बताओ तो, यह उच्चैःश्रवा घोड़ा किस रंग का है?’ 

  विनता बोली ;- शुभे! यह अश्वराज श्वेत वर्ण का ही है। तुम इसे कैसा समझती हो, तुम भी इसका रंग बताओ, तब हम दोनों इसके लिये बाजी लगायेंगी। 

  कद्रू ने कहा ;- पवित्र मुस्कान वाली बहिन! इस घोड़े का ( रंग तो अवश्य सफेद है) किंतु इसकी पूँछ को मैं काले रंग की ही मानती हूँ। भामिनि! आओ, दासी होने की शर्त रखकर मेरे साथ बाजी लगाओ (यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी; अन्यथा तुम्हें मेरी दासी बनना होगा)।

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- इस प्रकार वे दोनों बहिनें आपस में एक दूसरे की दासी होने की शर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयीं और उन्होंने यह निश्चय किया कि कल आकर घोड़े को देखेंगी। कद्रू कुटिलता एवं छल से काम लेना चाहती थी। उसने अपने सहस्र पुत्रों को इस समय आज्ञा दी कि तुम काले रंग के बाल बनकर शीघ्र उस घोड़े की पूँछ में लग जाओ, जिससे मुझे दासी न होना पड़े। उस समय जिन सर्पों ने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें उसने शाप दिया कि ‘जाओ, पाण्डववंशी बुद्धिमान राजर्षि जनमेजय के सर्पयज्ञ का आरम्भ होने पर उसमें प्रज्वलित अग्नि तुम्हें जलाकर भस्म कर देगी।' इस शाप को स्वयं ब्रह्मा जी ने सुना। यह दैव संयोग की बात है कि सर्पों को उनकी माता कद्रू की ओर से ही अत्यन्त कठोर शाप प्राप्त हो गया। सम्पूर्ण देवताओं सहित ब्रह्मा जी ने सर्पों की संख्या बढ़ती देख प्रजा के हित की इच्छा से कद्रू की उस बात का अनुमोदन ही किया। ‘ये महाबली दुःसह पराक्रम तथा प्रचण्ड विष से युक्त हैं। अपने तीखे विष के कारण ये सदा दूसरों को पीड़ा देने के लिये दौड़ते-फिरते हैं।

  अतः समस्त प्राणियों के हित की दृष्टि से इन्हें शाप देकर माता कद्रू ने उचित ही किया है। जो सदा दूसरे प्राणियों को हानि पहुँचाते रहते हैं, उनके ऊपर दैव के द्वारा ही प्राणनाशक दण्ड आ पड़ता है। ऐसी बात कहकर ब्रह्मा जी ने कद्रू की प्रशंसा की और कश्यप जी को बुलाकर,,

 यह बात कही ;- ‘अनघ! तुम्हारे द्वारा जो ये लोगों को डँसने वाले सर्प उत्पन्न हो गये हैं, इनके शरीर बहुत विशाल और विष बड़े भयंकर हैं।' परंतप! इन्हें इनकी माता ने शाप दे दिया है, इसके कारण तुम किसी तरह भी उस पर क्रोध न करना। तात! यज्ञ में सर्पों का नाश होने वाला है, यह पुराणवृत्तान्त तुम्हारी दृष्टि में भी है ही।’ ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने प्रजापति कश्यप को प्रसन्न करके उन महात्माओं सर्पों को विष उतारने वाली विद्या प्रदान की। द्विज श्रेष्ठ! इस प्रकार माता कद्रू ने जब नागों को शाप दिया, तब उस शाप से उद्विग्न हो भुजंग प्रवर कर्कोटक ने परमप्रसन्नता व्यक्त करते हुए,,

 अपनी माता से कहा ;- ‘मा! तुम धैर्य रखो। मैं काले रंग का बाल बनकर उस श्रेष्ठ अश्व के शरीर में प्रविष्ट हो अपने-आपको ही इसकी काली पूँछ के रूप में दिखाऊँगा।’ 

यह सुनकर यशस्विनी कद्रू ने पुत्र को उत्तर दिया ;- ‘बेटा! ऐसा ही होना चाहिये'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरित-विषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)



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