सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के छत्तीसवें अध्याय से चालिसवें अध्याय तक (from the thirty-sixth chapter to the forty chapter to the twentieth chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

छत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्-त्रिंश अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"शेषनाग की तपस्या, ब्रह्मा जी से वर-प्राप्ति तथा पृथ्वी को सिर पर धारण करना"

शौनक जी ने पूछा ;- तात सूतनन्दन! आपने महापराक्रमी और दुर्धर्ष नागों का वर्णन किया। अब यह बताइये कि माता कद्रू के उस शाप की बात मालूम हो जाने पर उन्होंने उसके निवारण के लिये आगे चलकर कौन सा कार्य किया? उग्रश्रवा जी ने कहा- शौनक! उन नागों से महायशस्व भगवान शेषनाग ने कद्रू का साथ छोड़कर कठोर तपस्या प्रारंभ की। वे केवल वायु पीकर रहते और संयमपूर्वक व्रत का पालन करते थे। अपनी इन्द्रियों को वश में करके सदा नियमपूर्वक रहते हुए शेष जी गन्धमादन पर्वत पर जाकर वदरिकाश्रम तीर्थ में तप करने लगे। तत्पश्चात गोकर्ण, पुष्कर, हिमालय तटवर्ती प्रदेश तथा भिन्न-भिन्न पुण्य तीर्थों और देवालयों में जाकर संयम- नियम के साथ एकान्तवास करने लगे। ब्रह्मा जी ने देखा, शेषनाग घोर तप कर रहे हैं। उसके शरीर का मांस, त्वचा और नाड़ियां सूख गयी हैं। वे सिर पर जटा और शरीर पर वलकल वस्त्र धारण किये मुनिवृत्ति से रहते हैं। उनमें सच्चा धैर्य है और वे निरन्तर तप में संलग्न हैं। यह सब देखकर,,

 ब्रह्मा जी उनके पास आये और बोले ;- ‘शेष! तुम यह क्या कर रहे हो? समस्त प्रजा का कल्याण करो। अनघ! इस तीव्र तपस्या के द्वारा तुम सम्पूर्ण प्रजा वर्ग को संतप्त कर रहे हो। शेषनाग! तुम्हारे हृदय में जो कामना हो वह मुझसे कहो।'

   शेषनाग बोले ;- 'भगवन! मेरे सब सहोदर भाई बड़े मन्दबुद्धि हैं, अतः मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता। आप मेरी इस इच्छा का अनुमोदन करें। वे सदा परस्पर शत्रु की भाँति एक-दूसरे के दोष निकाला करते हैं। इससे ऊबकर मैं तपस्या में लग गया हूँ; जिससे मैं उन्हें देख न सकूँ। वे विनता और उसके पुत्रों से डाह रखते हैं, इसलिये उनकी सुख सुविधा सहन नहीं कर पाते। आकाश में विचरने वाले विनतापुत्र गरुड़ भी हमारे दूसरे भाई ही हैं। किंतु वे नाग उनसे भी सदा द्वेष रखते हैं। मेरे पिता महात्मा कश्यप जी के वरदान से गरुड़ भी बड़े ही बलवान हैं। इन सब कारणों से मैंने यही निश्चय किया है कि तपस्या करके मैं इस शरीर को त्याग दूँगा, जिससे मरने के बाद भी किसी तरह उन दुष्टों के साथ मेरा समागम न हो।' 

ऐसी बाते करने वाले शेषनाग से,,

 पितामह ब्रह्माजी ने कहा ;- ‘शेष! मैं तुम्हारे सब भाईयों की कुचेष्टा जानता हूँ। माता का अपराध करने के कारण निश्चय ही तुम्हारे उन सभी भाईयों के लिये महान भय उपस्थित हो गया है; परंतु भुजंगम! इस विषय में जो परिहार अपेक्षित है, उसकी व्यवस्था मैंने पहले से ही कर रखी है। अतः अपने सम्पूर्ण भाइयों के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। शेष! तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर मुझसे माँग लो। तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम है; अतः आज मैं तुम्हें अवश्य वर दूँगा। पन्नगोत्तम! यह सौभाग्य की बात है कि तुम्हारी बुद्धि धर्म में दृढ़तापूर्वक लगी हुई है। मैं भी आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि उत्तरोत्तर धर्म में स्थित रहे।' शेष जी ने कहा- 'देव! पितामह! परमेश्वर! मेरे लिये यही अभीष्ट वर है कि मेरी बुद्धि सदा धर्म, मनोनिग्रह तथा तपस्या में लगी रहे।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्-त्रिंश अध्‍याय के श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद)

  ब्रह्मा जी बोले ;- शेष! तुम्हारे इस इन्द्रिय संयम और मनोनिग्रह से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अब मेरी आज्ञा से प्रजा के हित के लिये यह कार्य, जिसे मैं बता रहा हूँ, तुम्हें करना चाहिये। शेषनाग! पर्वत, वन, सागर, ग्राम, विहार और नगरों सहित यह समूची पृथ्वी प्रायः हिलती-डुलती रहती है। तुम इसे भली-भाँति धारण करके इस प्रकार स्थित रहो, जिससे यह पूर्णतः अचल हो जाये।

  शेषनाग ने कहा ;- प्रजापते! आप वरदायक देवता, समस्त प्रजा के पालक, पृथ्वी के रक्षक, भूमिप्राणियों के स्वामी और सम्पूर्ण जगत के अधिपति हैं। आप जैसी आज्ञा देते हैं, उसके अनुसार मैं इस पृथ्वी को इस तरह धारण करूँगा, जिससे यह हिले-डुले नहीं। आप इसे मेरे सिर पर रख दें।

  ब्रह्मा जी ने कहा ;- नागराज शेष! तुम पृथ्वी के नीचे चले जाओ। यह स्वयं तुम्हें वहाँ जाने के लिये मार्ग दे देगी। इस पृथ्वी को धारण कर लेने पर तुम्हारे द्वारा मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायेगा।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- नागराज वासुकि के बड़े भाई सर्वसमर्थ भगवान शेष ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर ब्रह्मा जी की आज्ञा शिरोधार्य की और पृथ्वी के विवर में प्रवेश करके समुद्र से घिरी हुई इस वसुधा देवी को उन्होंने सब ओर से पकड़कर सिर पर धारण कर लिया (तभी से यह पृथ्वी स्थिर हो गयी)।

   तदनन्तर ब्रह्मा जी बोले ;- नागोत्तम! तुम शेष हो, धर्म ही तुम्हारा आराध्य देव है, तुम अकेले अपने अनन्त फणों से इस सारी पृथ्वी को पकड़कर उसी प्रकार धारण करते हो, जैसे मैं अथवा इन्द्र।

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! इस प्रकार प्रतापी नागर भगवान अनन्त अकेले ही ब्रह्मा जी के आदेश से इस सारी पृथ्वी को धारण करते हुए भूमि के नीचे पाताल लोक में निवास करते हैं। तत्पश्चात देवताओं में श्रेष्ठ भगवान पितामह ने शेषनाग के लिये विनतानन्दन गरुड़ को सहायक बना दिया। अनन्त नाग के जाने पर नागों ने महाबली वासुकि का नागराज के पद पर उसी प्रकार अभिषेक किया, जैसे देवताओं ने इन्द्र का देवराज के पद पर अभिषेक किया था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में शेषनागवृत्तान्तविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

सैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तत्रिंश अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"माता के शाप से बचने के लिए वासुकि आदि नागों का परस्पर परामर्श"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! माता कद्रू से नागों के लिये वह शाप प्राप्त हुआ सुनकर नागराज वासुकि को बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे, ‘किस प्रकार यह शाप हो सकता है’। तदनन्तर उन्होंने ऐरावत आदि सर्वधर्म परायण बन्धुओं के साथ उस शाप के विषय में विचार किया। 

वासुकि बोले ;- निष्पाप नागगण! माता ने हमें जिस प्रकार यह शाप दिया है, वह सब आप लोगों को विदित ही है। उस शाप से छूटने के लिये क्या उपाय हो सकता है? इसके विषय में सलाह करके हम सब लोगों को उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। सब शापों का प्रतीकार सम्भव है, परंतु जो माता के शाप से ग्रस्त हैं, उनके छूटने का कोई उपाय नहीं है। अविनाशी, अप्रमेय तथा सत्यस्वरूप ब्रह्मा जी के आगे माता ने हमें शाप दिया है- यह सुनकर ही हमारे हृदय में कम्प छा जाता है। निश्चय ही यह हमारे सर्वनाश का समय आ गया है, क्योंकि अविनाशी देव भगवान ब्रह्मा ने भी शाप देते समय माता को मना नहीं किया। इसलिये आज हमें अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये कि किस उपाय ने हम सभी नाग कुशलपूर्वक रह सकते हैं। अब हमें व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिये। हम लोगों में प्रायः सब नाग बुद्धिमान और चतुर हैं। यदि हम मिल-जुलकर सलाह करें तो इस संकट से छूटने का कोई उपाय ढूँढ़ निकालेंगे; जैसे पूर्वकाल में देवताओं ने गुफा में छिपे हुए अग्नि को खोज निकाला था। सर्पों के विनाश के लिये आरम्भ होने वाला जनमेजय का यज्ञ जिस प्रकार टल जाय अथवा जिस तरह उसमें विघ्न पड़ जाय, वह उपाय हमें सोचना चाहिये।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! वहाँ एकत्र हुए सभी कद्रूपुत्र ‘बहुत अच्छा’ कहकर एक निश्चय पर पहुँच गये, क्योंकि वे नीति का निश्चय करने में निपुण थे। 

  उस समय वहाँ कुछ नागों ने कहा ;- ‘हम लोग श्रेष्ठ ब्राह्मण बनकर जनमेजय से यह भिक्षा माँगें कि तुम्हारा यज्ञ न हो’। 

अपने को बड़ा भारी पण्डित मानने वाले दूसरे नागों ने कहा ;- ‘हम सब लोग जनमेजय के विश्वास पात्र मन्त्री बन जायँगे। ‘फिर वे सभी कार्यों में अभीष्ट प्रयोजन का निश्चय करने के लिये हमसे सलाह पूछेंगे। उस समय हम उन्हें ऐसी बुद्धि देंगे, जिससे यज्ञ होगा ही नहीं। हम वहाँ बहुत विश्वस्त एवं सम्मानित होकर रहेंगे। अतः बुद्धिमानों मे श्रेष्ठ राजा जनमेजय यज्ञ के विषय में हमारी सम्मति जानने के लिये अवश्य पूछेंगे। उस समय हम स्पष्ट कह देंगे- यज्ञ न करो। हम युक्तियों और कारणों द्वारा यह दिखायेंगे कि उस यज्ञ से इहलोक और परलोक में अनेक भयंकर दोष प्राप्त होंगे; इससे वह यज्ञ होगा ही नहीं। अथवा जो उस यज्ञ के आचार्य होंगे, जिन्हें सर्प यज्ञ की विधि का ज्ञान हो और जो राजा के कार्य एवं हित में लगे रहते हों उन्हें कोई सर्प जाकर डँस ले। फिर वे मर जायेंगे। यज्ञ कराने वाले आचार्य के मर जाने पर वह यज्ञ अपने आप बंद हो जायगा। आचार्य के सिवा दूसरे जो-जो ब्राह्मण सर्प यज्ञ की विधि को जानते होंगे और जनमेजय के यज्ञ में ऋत्विज बनने वाले होंगे, उन सबको हम डँस लेंगे। इस प्रकार सारा काम बन जायगा'।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तत्रिंश अध्‍याय के श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद)

यह सुनकर दूसरे धर्मात्मा और दयालु नागों ने कहा ;- ‘ऐसा सोचना तुम्हारी मूर्खता है। ब्रह्म हत्या कभी शुभकारक नहीं हो सकती। आपत्तिकाल में शान्ति के लिये वही उपाय उत्तम माना गया है, जो भली-भाँति श्रेष्ठ धर्म के अनुकूल किया गया हो। संकट से बचने के लिये उत्तरोत्तर अधर्म करने की प्रवृत्ति तो सम्पूर्ण जगत् का नाश कर डालेगी’। 

इस पर दूसरे नाग बोल उठे ;- ‘जिस समय सर्पयज्ञ के लिये अग्नि प्रज्वलित होगी, उस समय हम बिजलियों सहित मेघ बनकर पानी की वर्षा द्वारा उसे बुझा देंगे। दूसरे श्रेष्ठ नाग रात में वहाँ जाकर असावधानी से सोये हुए ऋत्विजों के स्रुक्, स्रुवा और यज्ञपात्र आदि शीघ्र चुरा लावें। इस प्रकार उसमे विघ्न पड़ जायगा। अथवा उस यज्ञ में सभी सर्प जाकर सैकड़ों और हजारों मनुष्यों को डँस ले; ऐसा करने से हमारे लिये भय नहीं रहेगा। अथवा सर्पगण उस यज्ञ के संस्कार युक्त भोज्य पदार्थ को अपने मल-मूत्रों द्वारा, जो सब प्रकार की भोजन-सामग्री का विनाश करने वाले हैं, दूषित कर दें’।

 इसके बाद अन्य सर्पों ने कहा ;- ‘हम उस यज्ञ में ऋत्विज हो जायँगे और यह कहकर कि ‘हमें मुँहमाँगी दक्षिणा दो, यज्ञ में विघ्न खड़ा कर देंगे। उस समय राजा हमारे वश में पड़कर जैसी हमारी इच्छा होगी, वैसा करेंगे’।

फिर अन्य नाग बोले ;- ‘जब राजा जनमेजय जल क्रीड़ा करते हों, उस समय उन्हें वहाँ से खींचकर हम अपने घर ले आवें और बाँधकर रख लें। ऐसा करने से वह यज्ञ होगा ही नही’- इस पर अपने को पण्डित मानने वाले,,

 दूसरे नाग बोल उठे ,,- ‘हम जनमेजय को पकड़कर डँस लेंगे।’ ऐसा करने से तुरंत ही सब काम बन जायगा। उस राजा के मरने पर हमारे लिये अनर्थों की जड़ ही कट जायगी। नेत्रों से सुनने वाले नागराज! हम सब लोगों की बुद्धि तो इसी निश्चय पर पहुँची है। अब आप जैसा ठीक समझते हों वैसा शीघ्र करें।’ यह कहकर वे सर्प नागराज वासुकि की ओर देखने लगे। तब वासुकि ने भी खूब सोच-विचार कर ,,

उन सर्पों से कहा ;-- ‘नागगण! तुम्हारी बुद्धि ने जो निश्चय किया है, वह व्यवहार में लाने योग्य नहीं है। इसी प्रकार मेरा विचार भी सब सर्पों को जँच जाय, यह सम्भव नहीं है। ऐसी दशा में क्या करना चाहिये, जो तुम्हारे लिये हितकर हो। मुझे तो महात्मा कश्यप जी को प्रसन्न करने में ही अपनी कल्याण जान पड़ता है। भुजंगमों! अपने जाति-भाइयों के और अपने हित को दृष्टि में रखकर तुम्हारे कथनानुसार कोई भी कार्य करना मेरी समझ में नहीं आया। मुझे वही काम करना है, जिसमें तुम लोगों का वास्तविक हित हो। इसीलिये मैं अधिक चिन्तित हूँ; क्योंकि तुम सबमें बड़ा होने के कारण गुण और दोष का सारा उत्तरदायित्व मुझ पर ही है’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में वासुकि आदि नागों की मंत्रणा नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

अड़तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्‍टत्रिंश अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"वासुकि की बहिन जरत्कारु मुनि के साथ विवाह करने का निश्चय"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनकजी! समस्त सर्पों की भिन्न-भिन्न राय सुनकर और अन्त में वासुकि के वचनों का श्रवण कर,,,

  एलापत्र नामक नाग ने इस प्रकार कहा ;- ‘भाइयों! यह सम्भव नहीं है कि यह यज्ञ न हो तथा पाण्डववंशी राजा जनमेजय भी, जिससे हमें महान भय प्राप्त हुआ है, ऐसा नहीं है कि हम उसका कुछ बिगाड़ सकें। राजन! इस लोक में जो पुरुष दैव का मारा हुआ है, उसे दैव की ही शरण लेनी चाहिये। वहाँ दूसरा कोई आश्रय नहीं काम देता। श्रेष्ठ नागगण! हमारे ऊपर आया हुआ यह भय भी दैवजनित ही है, अतः हमें दैव का ही आश्रय लेना चाहिये। उत्तम सर्पगण! इस विषय में आप लोग मेरी बात सुनें! जब माता ने सर्पों को यह शाप दिया था, उस समय भय के मारे मैं माता की गोद में चढ़ गया था। पन्नगप्रवर महातेजस्वी नागराजगण! तभी दुःख से आतुर होकर ब्रह्मा जी के समीप आये हुए देवताओं की यह वाणी मेरे कानों में पड़ी’- ‘अहो! स्त्रियाँ बड़ी कठोर होती हैं, बड़ी कठोर होती हैं।' 

 देवता बोले ;- पितामह! देव! तीखे स्वभाव वाली इस क्रूर कद्रू को छोड़कर दूसरी कौन स्त्री होगी, जो प्रिय पुत्रों को पाकर उन्हें इस प्रकार शाप दे सके और वह भी आपके सामने। पितामह! आपने भी ‘तथास्तु’ कहकर कद्रू की बात का अनुमोदन ही किया है; उसे शाप देने से रोका नहीं है। इसका क्या कारण है, हम यह जानना चाहते हैं।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- इन दिनों भयानक रूप और प्रचण्ड विष वाले क्रूर सर्प बहुत हो गये हैं (जो प्रजा को कष्ट दे रहे हैं)। मैंने प्रजाजनों के हित की इच्छा से ही उस समय कद्रू को मना नहीं किया। जनमेजय के सर्प यज्ञ में उन्हीं सर्पों का विनाश होगा जो प्रायः लोगों को डँसते रहते हैं, क्षुद्र स्वभाव के हैं और पापाचारी तथा प्रचण्ड विष वाले हैं। किंतु जो धर्मात्मा हैं, उनका नाश नहीं होगा। वह समय आने पर सर्पों का उस महान भय से जिस निमित्त से छुटकारा होगा, उसे बतलाता हूँ, तुम सब लोग सुनो। 

  यायावर कुल में जरत्कारु नाम से विख्यात एक बुद्धिमान महर्षि होंगे। वे तपस्या में तत्पर रहकर अपने मन और इन्द्रियों को संयम में रखेंगे। उन्हीं के आस्तीक नाम का एक महातपस्वी पुत्र उत्पन्न होगा जो उस यज्ञ को बंद करा देगा। अतः जो सर्प धार्मिक होंगे, वे उसमें जलने से बच जायेंगे। 

देवताओं ने पूछा ;- ब्रह्मन! वे मुनिशिरोमणि महातपस्वी शक्तिशाली जरत्कारु किसके गर्भ से अपने उस महात्मा पुत्र को उत्पन्न करेंगे?

 ब्रह्माजी ने कहा ;- वे शक्तिशाली द्विजश्रेष्ठ जिस ‘जरत्कारु’ नाम से प्रसिद्ध होंगे, उसी नाम वाली कन्या को पत्नी रूप में प्राप्त करके उसके गर्भ से एक शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करेंगे। सर्पराज वासुकि की बहिन का नाम जरत्कारु है। उसी के गर्भ से वह पुत्र उत्पन्न होगा, जो नागों को शाप से छुड़ायेगा। एलापत्र कहते हैं- यह सुनकर देवता ब्रह्मा जी से कहने लगे 'एवमस्तु (ऐसा ही हो)।’ देवताओं से ये सब बातें बताकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोक में चले गये। अतः नागराज वासुके! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप नागों का भय दूर करने के लिये कन्या की भिक्षा माँगने वाले, उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि जरत्कारु को अपनी जरत्कारु नाम वाली यह बहिन ही भिक्षा रूप में अर्पित कर दें। उस शाप से छूटने का यही उपाय मैंने सुना है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में एलापत्र-वाक्य-सम्बंधी अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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उनचालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्रह्मा जी की आज्ञा से वासुकि का जरत्कारु मुनि के साथ अपनी बहिन को ब्याहने के लिये प्रयत्नशील होना"

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- द्विजश्रेष्ठ! एलापत्र की बात सुनकर नागों का चित्त प्रसन्न हो गया। वे सब के सब एक साथ बोल उठे- ‘ठीक है, ठीक है।’ वासुकि को भी इस बात से बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उसी दिन से अपनी बहिन जरत्कारु का बड़े चाव से पालन-पोषण करने लगे। तदनन्तर थोड़ा ही समय व्यतीत होने पर सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों ने समुद्र का मन्थन किया। उसमें बलवानों में श्रेष्ठ वासुकि नाग मन्दराचल रूप मथनी में लपेटने के लिये रस्सी बने हुए थे। समुद्र मन्थन का कार्य पूरा करके देवता वासुकि नाग के साथ पितामह ब्रह्माजी के पास गये और,,

 उनसे बोले ;- ‘भगवन! ये वासुकि माता के शाप से भयभीत हो बहुत संतप्त होते रहते हैं। देव! अपने भाई-बन्धुओं का हित चाहने वाले इन नागराज के हृदय में माता का शाप काँटा बनकर चुभा हुआ है और कसक पैदा करता है। आप इनके उस काँटे को निकाल दीजिये। ‘देवेश्वर! नागराज वासुकि हमारे हितैषी हैं और सदा हम लोगों के प्रिय कार्य मे लगे रहते हैं; अतः आप इन पर कृपा करें और इनके मन में जो चिन्ता की आग जल रही है, उसे बुझा दें।'

  ब्रह्माजी ने कहा ;- देवताओं! एलापत्र नाग ने वासुकि के समक्ष पहले जो बात कही थी, वह मैंने ही मानसिक संकल्प द्वारा उसे दी थी (मेरी ही प्रेरणा से एलापत्र ने वे बातें वासुकि आदि नागों के सम्मुख कही थीं)। ये नागराज समय आने पर स्वयं तदनुसार ही कार्य करें। जनमेजय के यज्ञ में पापी सर्प ही नष्ट होंगे, किंतु जो धर्मात्मा हैं वे नहीं। अब जरत्कारु ब्रह्मण उत्पन्न होकर उस तपस्या में लगे हैं। अवसर देखकर ये वासुकि अपनी बहिन जरत्कारु को उन महर्षि की सेवा में समर्पित कर दें। देवताओं! एलापत्र नाग ने जो बात कही है, वही सर्पों के लिये हितकर है। वही बात होने वाली है। उससे विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता। 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- ब्रह्माजी की बात सुनकर शाप से मोहित हुए नागराज वासुकि ने सब सर्पों को यह संदेश दे दिया कि मुझे अपनी बहिन का विवाह जरत्कारु मुनि के साथ करना है। फिर उन्होंने जरत्कारु मुनि की खोज के लिये नित्य आशा में रहने वाले बहुत से सर्पों को नियुक्त कर दिया। 

और यह कहा ;- ‘सामर्थ्‍यशाली जरत्कारु मुनि जब पत्नी का वरण करना चाहें, उस समय शीघ्र आकर यह बात मुझे सूचित करनी चाहिये। उसी से हम लोगों का कल्याण होगा।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में जरत्कारु मुनि का अन्वेषणविषयक उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

चलीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"जरत्कारु की तपस्या, राजा परीक्षित का उपाख्यान तथा राजा द्वारा मुनि के कंधे पर मृतक साँप रखने के करण दुखी हुए कृश का शृंगी को उत्तेजित करना"

शौनक जी ने पूछा ;- सूतनन्दन! आपने जिस जरत्कारु ऋषि का नाम लिया है, उन महात्मा मुनि के सम्बन्ध में मैं यह सुनना चाहता हूँ, कि पृथ्वी पर उनका जरत्कारु नाम क्यों प्रसिद्ध हुआ? जरत्कारु शब्द की व्युत्पत्ति क्या है? यह आप ठीक-ठीक बताने की कृपा करें। 

उग्रश्रवा जी ने कहा ;- शौनक जी! जरा कहते हैं क्षय को और कारु शब्द दारुण का वाचक है। पहले उनका शरीर कारु अर्थात खूब हट्ठा-कट्टा था। उसे परम बुद्धिमान महर्षि ने धीरे-धीरे तीव्र पतस्या द्वारा क्षीण बना दिया। ब्रह्मन इसलिये उनका नाम जरत्कारु पड़ा। वासुकि की बहिन के भी जरत्कारु नाम पड़ने का यही कारण था। उग्रश्रवा जी के ऐसा कहने पर धर्मात्मा शौनक उस समय खिलखिलाकर हँस पड़े और फिर,,

 उग्रश्रवा जी को सम्बोधित करके बोले ;- ‘तुम्हारी बात उचित है।'

 शौनक जी बोले ;- सूतपुत्र! आपने पहले जो जरत्कारु नाम की व्युत्पत्ति बतायी है, वह सब मैंने सुन ली। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि आस्तीक मुनि का जन्म किस प्रकार हुआ? शौनक जी का यह वचन सुनकर उग्रश्रवा ने पुराणशास्त्र के अनुसार आस्तीक के जन्म का वृत्तान्त बताया। 

उग्रश्रवा जी बोले ;- नागराज वासुकि ने एकाग्रचित्त हो खूब सोच समझकर सब सर्पों को यह संदेश दे दिया- ‘मुझे अपनी बहिन का विवाह जरत्कारु मुनि के साथ करना है।' तदनन्तर दीर्घकाल बीत जाने पर भी कठोर व्रत का पालन करने वाले परम बुद्धिमान जरत्कारु मुनि केवल तप में ही लगे रहे। उन्होंने स्त्रीसंग्रह की इच्छा नहीं की। ऊर्ध्‍वरेता ब्रह्मचारी थे। तपस्या में संलग्न रहते थे। नित्य नियमपूर्वक वेदों का स्वध्याय करते थे। उन्‍हें कहीं से कोई भय नहीं था। वे मन और इन्द्रियों को सदा काबू में रखते थे। महात्मा जरत्कारु सारी पृथ्वी पर घूम आये; किंतु उन्होंने मन से कभी स्त्री की अभिलाषा नहीं की।

   ब्रह्मन! तदनन्तर किसी दूसरे समय में इस पृथ्वी पर कौरववंशी राजा परीक्षित राज करने लगे। युद्ध में समस्त धर्नुधारियों में श्रेष्ठ उनके पितामह महाबाहु पाण्डु जिस प्रकार पूर्वकाल में शिकार खेलने के शौकीन हुए थे, उसी प्रकार राजा परीक्षित भी थे। महाराज परीक्षित वराह, तरक्षु (व्याघ्रविशेष), महर्षि तथा दूसरे-दूसरे नाना प्रकार के वन के हिंसक पशुओं का शिकार खेलते हुए वन में घूमते रहते थे। एक दिन उन्होंने गहन वन में धनुष लेकर झुकी हुई गाँठ वाले बाण से एक हिंसक पशु को बींध डाला और भागने पर बहुत दूर तक उसका पीछा किया। जैसे भगवान रुद्र आकाश में मृगशिरा नक्षत्र को बींधकर उसे खोजने के लिये धनुष हाथ में लिये इधर-उधर घूमते फिरे, उसी प्रकार परीक्षित भी घूम रहे थे। उनके द्वारा घायल किया हुआ मृग कभी वन में जीवित बचकर नहीं जाता था; परंतु आज जो महाराज परीक्षित का घायल किया हुआ मृग तत्काल अदृश्य हो गया था, वह वास्तव में उनके स्वर्गवास का मूर्तिमान कारण था। उस मृग के साथ राजा परीक्षित बहुत दूर तक खिंचे चले गये। उन्हें बड़ी थकावट आ गयी। वे प्यास से व्याकुल हो उठे और इसी दशा में वन में शमीक मुनि के पास आये। वे मुनि गौओं के रहने के स्थान मे आसन पर बैंठे थे और गौओं का दूध पीते समय बछड़ों के मुख से जो बहुत सा फेन निकलता, उसी को खा- पीकर तपस्या करते थे। राजा परीक्षित ने कठोर व्रत का पालन करने वाले उन महर्षि के पास बड़े वेग से आकर पूछा। पूछते समय वे भूख और थकावट से बहुत आतुर हो रहे थे और धनुष को उन्होंने ऊपर उठा रखा था। 

वे बोले ;- ‘ब्रह्मन! मैं अभिमन्यु का पुत्र राजा परीक्षित हूँ। मेरे बाणों से विद्ध होकर एक मृग कहीं भाग निकला है। क्या आपने उसे देखा है?’ मुनि मौन-व्रत का पालन कर रहे थे, अतः उन्होंने राजा को कुछ भी उत्तर नहीं दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 21-33 का हिन्दी अनुवाद)

  तब राजा ने कुपित हो धनुष की नोक से एक मरे हुए साँप को उठाकर उनके कंधे पर रख दिया, तो भी मुनि ने उनकी उपेक्षा कर दी। उन्होंने राजा से भला या बुरा कुछ भी नहीं कहा। उन्हें इस अवस्था में देख राजा परीक्षित ने क्रोध त्याग दिया और मन-ही-मन व्यथित हो पश्चात्ताप करते हुए वे अपनी राजधानी को चले गये। वे महर्षि ज्यों-के-त्यों बैठे रहे। राजाओं में श्रेष्ठ भूपाल परीक्षित अपने धर्म के पालन में तत्पर रहते थे, अतः उस समय उनके द्वारा तिरस्कृत होने पर भी क्षमाशील महामुनि ने उन्हें अपमानित नहीं किया। भरतवंश शिरोमणि नृपश्रेष्ठ परीक्षित उन धर्मपरायण मुनि को यथार्थ रूप में नहीं जानते थे; इसीलिये उन्होंने महर्षि का अपमान किया। मुनि के श्रृंगी नामक एक पुत्र था, जिसकी अभी तरुणावस्था थी। वह महान तपस्वी, दुःसह तेज से सम्पन्न और महान व्रतधारी था। उसमें क्रोध की मात्रा बहुत अधिक थी; अतः उसे प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन था। वह समय-समय पर मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर सम्पूर्ण प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले, उत्तम आसन पर विराजमान आचार्य देव की सेवा में उपस्थित हुआ करता था।

   श्रृंगी उस दिन आचार्य की आज्ञा लेकर घर को लौट रहा था। रास्ते में उसका मित्र ऋषिकुमार कृश, जो धर्म के लिये कष्ट उठाने के कारण सदा ही कृश (दुर्बल) रहा करता था, खेलता मिला। उसने हँसते-हँसते श्रृंगी ऋषि को उसके पिता के सम्बन्ध में ऐसी बात बतायी, जिसे सुनते ही वह रोष में भर गया। द्विजश्रेष्ठ! मुनिकुमार श्रृंगी क्रोध के आवेश में विनाशकारी हो जाता था। 

कृश ने कहा ;- श्रृं‍गिन! तुम बड़े तपस्वी और तेजस्वी बनते हो, किंतु तुम्हारे पिता अपने कंधे पर मुर्दा सर्प ढो रहे हैं। अब कभी अपनी तपस्या पर गर्व न करना। हम जैसे सिद्ध, ब्रह्मवेत्ता तथा तपस्वी ऋषिपुत्र जब कभी बातें करते हों, उस समय तुम वहाँ कुछ न बोलना। कहाँ है तुम्हारा पौरुष का अभिमान, कहाँ गयीं तुम्हारी वे दर्पभरी बातें? जब तुम अपने पिता को मुर्दा ढोते चुपचाप देख रहे हो। मुनिजन शिरोमणे! तुम्हारे पिता के द्वारा कोई अनुचित कर्म नहीं बना था; इसलिये जैसे मेरे ही पिता का अपमान हुआ हो उस प्रकार तुम्हारे पिता के तिरस्कार से मैं अत्यन्त दुखी हो रहा हूँ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में परीक्षित-उपाख्यानविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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