सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के इकतालीसवें अध्याय से पैतालीसवें अध्याय तक (from the forty-first chapter to the forty-fifth chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

इकतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकचत्‍वारिंश (41) अध्‍याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"शृंगी ऋषि का राजा परीक्षित को शाप देना और शमीक का अपने पुत्र को शांत करते हुए शाप को अनुचित बताना"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! कृश के ऐसा कहने पर तेजस्वी श्रृंगी ऋषि को बड़ा क्रोध हुआ। अपने पिता के कंधे पर मृतक (सर्प) रखे जाने की बात सुनकर वह रोष और शोक से संतप्त हो उठा। उसने कृश की ओर देखकर,,

 मधुर वाणी में पूछा ;- ‘भैया! बताओ तो, आज मेरे पिता अपने कंधे पर मृतक कैसे धारण कर रहे हैं?’ 

कृश ने कहा ;- तात! आज राजा परीक्षित अपने शिकार के पीछे दौड़ते हुए आये थे। उन्होंने तुम्हारे पिता के कंधे पर मृतक साँप रख दिया है। 

श्रृंगी बोला ;- कृश! ठीक-ठीक बताओ, मेरे पिता ने उस दुरात्मा राजा का क्या अपराध किया था? फिर मेरी तपस्या का बल देखना।

 कृश ने कहा ;- अभिमन्युपुत्र राजा परीक्षित अकेले शिकार खेलने आये थे। उन्होंने एक शीघ्रगामी हिंसक मृग (पशु) को बाण से बींध डाला; किंतु उस विशाल वन में विचरते हुए राजा को वह मृग कहीं दिखायी न दिया। फिर उन्होंने तुम्हारे मौनी पिता को देखकर उसके विषय में पूछा। राजा भूख-प्यास और थकावट से व्याकुल थे। इधर तुम्हारे पिता काठ की भाँति अविचल भाव से बैठे थे। राजा ने बार-बार तुम्हारे पिता से उस भागे हुए मृग के विषय में प्रश्न किया, परंतु मौन-व्रतावलम्बी होने के कारण उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। तब राजा ने धनुष की नोक से एक मरा हुआ साँप उठाकर उनके कंधे पर डाल दिया। श्रृंगिन! संयमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले तुम्हारे पिता अभी उस अवस्था में बैठे हैं और वे राजा परीक्षित अपनी राजधानी हस्तिनापुर को चले गये हैं।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! इस प्रकार अपने पिता के कंधे पर मृतक सर्प के रखे जाने का समाचार सुनकर ऋषिकुमार श्रृंगी क्रोध से जल उठा। कोप से उसकी आँखें लाल हो गयीं। वह तेजस्वी बालक रोष के आवेश में आकर प्रचण्ड क्रोध के वेग से युक्त हो गया था। उसने जल से आचमन करके हाथ में जल लेकर उस समय राजा परीक्षित को इस प्रकार शाप दिया। 

  श्रृंगी बोल ;- जिस पापात्मा नरेश ने वैसे धर्म-संकट में पड़े हुए मेरे बूढ़े पिता के कंधे पर मरा साँप रख दिया है, ब्राह्मणों का अपमान करने वाले उस कुरुकुल कलंक पापी परीक्षित को आज से सात रात के बाद प्रचण्ड तेजस्वी पन्नगोत्तम तक्षक नामक विषैला नाग अत्यन्त कोप में भरकर मेरे वाक्यबल से प्रेरित हो यमलोक पहुँचा देगा। 

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- इस प्रकार अत्यन्त क्रोधपूर्वक शाप देकर श्रृंगी अपने पिता के पास आया, जो उस समय गोष्ठ में कंधे पर मृतक सर्प धारण किये बैठे थे। कंधे पर रखे हुए मुर्दे साँप से युक्त पिता को देखकर श्रृंगी पुनः क्रोध से व्याकुल हो उठा। वह दुःख से आँसू बहाने लगा। 

  उसने पिता से कहा ;- ‘तात! उस दुरात्मा राजा परीक्षित द्वारा अपने इस अपमान की बात सुनकर मैंने उसे क्रोधपूर्वक जैसा शाप दिया है, वह कुरुकुलाधम वैसे ही भयंकर शाप के योग्य हैं। आज से सातवें दिन नागराज तक्षक उस पापी को अत्यन्त भयंकर यमलोक में पहुँचा देगा।’

ब्रह्मन! इस प्रकार क्रोध में भरे हुए पुत्र से उसके पिता शमीक ने कहा। 

  शमीक बोले ;- वत्स! तुमने शाप देकर मेरा प्रिय कार्य नहीं किया है। यह तपस्वियों का धर्म नहीं है। हम लोग उन महाराज परीक्षित के राज्य में निवास करते हैं और उनके द्वारा न्यायपूर्वक हमारी रक्षा होती है। अतः उनको शाप देना मुझे पसंद नहीं है। हमारे जैसे साधु पुरुषों को तो वर्तमान राजा परीक्षित के अपराध को सब प्रकार से क्षमा ही करना चाहिये। बेटा! यदि धर्म को नष्ट किया जाये तो वह मनुष्य का नाश कर देता है, इसमें संशय नहीं है। यदि राजा रक्षा न करे तो हमें भारी कष्ट पहुँच सकता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 23-33 का हिन्दी अनुवाद)

   पुत्र! हम राजा के बिना सुखपूर्वक धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकते। तात! धर्म पर दृष्टि रखने वाले राजाओं के द्वारा सुरक्षित होकर हम अधिक-से-अधिक धर्म का आचरण कर पाते हैं। अतः हमारे पुण्यकर्मों में धर्मतः उनका भी भाग है। इसलिये वर्तमान राजा परीक्षित के अपराध को तो क्षमा ही कर देना चाहिये। परीक्षित तो विशेष रूप से अपने पितामह युधिष्ठिर आदि की भाँति हमारी रक्षा करते हैं। शक्तिशाली पुत्र! प्रत्येक राजा को इस प्रकार प्रजा की रक्षा करनी चाहिये। वे आज भूखे और थके-मांदे यहाँ आये थे। तपस्वी नरेश मेरे इस मौनव्रत को नहीं जानते थे; मैं समझता हूँ, इसीलिये उन्होंने मेरे साथ ऐसा बर्ताव कर दिया। जिस देश में राजा न हो वहाँ अनेक प्रकार के दोष (चोर आदि के भय) पैदा होते हैं। धर्म की मर्यादा त्यागकर उच्छृंखल बने हुए लोगों को राजा अपने दण्ड के द्वारा शिक्षा देता है। दण्ड से भय होता है, फिर भय से तत्काल शान्ति स्थापित होती है। जो चोर आदि के भय से उद्विग्न है, वह धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकता है।

  वह उद्विग्न पुरुष यज्ञ, श्राद्ध आदि शास्त्रीय कर्म का आचरण भी नहीं कर सकता। राजा से धर्म की स्थापना होती है और धर्म से स्वर्गलोक की प्रतिष्ठा (प्राप्ति) होती है। राजा से सम्पूर्ण यज्ञ कर्म प्रतिष्ठित होते हैं और यज्ञ से देवताओं की प्रतिष्ठा होती है। देवता के प्रसन्न होने से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से निरन्तर मनुष्यों के हित का पोषण करते हुए राज्य का पालन करने वाला राजा मनुष्यों के लिये विधाता (भरण-पोषण करने वाला) है। राजा दस श्रोत्रिय के समान है, ऐसा मनु जी ने कहा है। वे तपस्वी राजा यहाँ भूखे-प्यासे ओर थके-मांदे आये थे। उन्हें मेरे इस मौनव्रत का पता नहीं था, इसलिये मेरे न बोलने से रुष्ट होकर उन्होंने ऐसा किया है। तुमने मूर्खतावश बिना विचारे क्यों यह दुष्कर्म कर डाला? बेटा! राजा हम लोगों से शाप पाने योग्य नहीं हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में परीक्षित-शापविषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

बयालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विचत्‍वारिंश अध्‍यायके श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"शमीक का अपने पुत्र को समझाना और गौरमुख को राजा परीक्षित के पास भेजना, राजा द्वारा आत्मरक्षा की व्यवस्था तथा तक्षक नाग और कश्यप की बातचीत"

  श्रृंगी बोला ;- तात! यदि यह साहस है अथवा यदि मेरे द्वारा दुष्कर्म हो गया है तो हो जाये। आपको यह प्रिय लगे या अप्रिय, किंतु मैंने जो बात कह दी है, वह झूठी नहीं हो सकती। पिता जी! मैं आपसे सच कहता हूँ, अब यह शाप टल नहीं सकता। मैं हँसी-मजाक में भी झूठ नहीं बोलता, फिर शाप देते समय कैसे झूठी बात कह सकता हूँ। 

  शमीक ने कहा ;- बेटा! मैं जानता हूँ तुम्हारा स्वभाव उग्र है, तुम बड़े सत्यवादी हो, तुमने पहले भी कभी झूठी बात नहीं कही है; अतः यह शाप मिथ्या नहीं होगा। तथापि पिता को उचित है कि वह अपने पुत्र को बड़ी अवस्था का हो जाने पर भी सदा सत्कर्मों का उपदेश देता रहे; जिससे वह गुणवान हो और महान यश प्राप्त करे। फिर तुम्हें उपदेश देने की तो बात ही क्या है, तुम अभी बालक ही हो। जो योगजनित ऐश्वर्य से सम्पन्न हैं, ऐसे प्रभावशाली तेजस्वी पुरुषों का भी क्रोध बढ़ जाता है; फिर तुम जैसे बालक को क्रोध हो, इसमें कहना ही क्या है। (किंतु यह क्रोध धर्म का नाशक होता है) इसलिये धर्मात्माओं में श्रेष्ठ पुत्र! तुम्हारे बचपन और दुःसाहसपूर्ण कार्य को देखकर मैं तुम्हें कुछ काल तक उपदेश देने की आवश्यकता समझता हूँ। तुम मन और इन्द्रियों के निग्रह में तत्पर होकर जंगली कन्द, मूल, फल का आहार करते हुए इस क्रोध को मिटाकर उत्तम आचरण करो; ऐसा करने से तुम्हारे धर्म की हानि नहीं होगी। क्रोध प्रयत्नशील साधकों के अत्यन्त दुःख से उपार्जित धर्म का नाश कर देता है। फिर धर्महीन मनुष्यों को अभीष्ट गति नहीं मिलती है।

  शम (मनोनिग्रह) ही क्षमाशील साधकों को सिद्धि की प्राप्ति कराने वाला है। जिसमें क्षमा है, उन्हीं के लिये यह लोक और परलोक दोनों कल्याणकारक हैं। इसलिये तुम सदा इन्द्रियों को वश में रखते हुए क्षमाशील बनो। क्षमा से ही ब्रह्मा जी के निकटवर्ती लोकों में जा सकोगे। तात! मैं तो शान्ति धारण करके अब जो कुछ किया जा सकता है, वह करूँगा। राजा के पास यह संदेश भेज दूँगा कि ‘राजन! तुम्हारे द्वारा मुझे जो तिरस्कार प्राप्त हुआ है उसे देखकर अमर्ष में भरे हुए मेरे अल्पबुद्धि एवं मूढ़ पुत्र ने तुम्हें शाप दे दिया है।' 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- उत्तम व्रत का पालन करने वाले दयालु एवं महातपस्वी शमीक मुनि ने अपने गौरमुख नाम वाले एकाग्रचित्त एवं शीलवान शिष्य को इस प्रकार आदेश दे कुशल-प्रश्न, कार्य एवं वृत्तान्त का संदेश देकर राजा परीक्षित के पास भेजा। गौरमुख वहाँ से शीघ्र कुरुकुल की वृद्धि करने वाले महाराज परीक्षित के पास चला गया। राजधानी में पहुँचने पर द्वारपाल ने पहले महाराज को उसके आने की सूचना दी और उनकी आज्ञा मिलने पर गौरमुख ने राजभवन में प्रवेश किया। महाराज परीक्षित ने उस समय गौरमुख ब्राह्मण का बड़ा सत्कार किया। जब उसने विश्राम कर लिया, तब शमीक के कहे हुए घोर वचन को मन्त्रियों के समीप राजा के सामने पूर्णरूप से कह सुनाया। 

गौरमुख बोला ;- महाराज! आपके राज्य में शमीक नाम वाले एक परम धर्मात्मा महर्षि रहते हैं। वे जितेन्द्रिय, मन को वश में रखने वाले और महान तपस्वी हैं। नरव्याघ्र! आपने मौनव्रत धारण करने वाले उन महात्मा के कंधे पर धनुष की नोक से उठाकर एक मरा हुआ साँप रख दिया था। महर्षि ने तो उसके लिये आपको क्षमा कर दिया था, किंतु उनके पुत्र को यह सहन नहीं हुआ।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद)

  राजेन्द्र! उस ऋषिकुमार ने आज अपने पिता के अनजान में ही आपके लिये यह शाप दिया है कि ‘आज से सात रात के बाद ही तक्षक नाग आपकी मृत्यु का कारण हो जायेगा।' इस दशा में आप अपनी रक्षा की व्यवस्था करें। यह मुनि ने बार-बार कहा है। उस शाप को कोई भी टाल नहीं सकता। स्वयं महर्षि भी क्रोध में भरे हुए अपने पुत्र को शान्त नहीं कर पा रहे हैं। अतः राजन! आपके हित की इच्छा से उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है। 

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- यह घोर वचन सुनकर कुरुनन्दन राजा परीक्षित मुनि का अपराध करने के कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे। वे श्रेष्ठ महर्षि उस समय वन में मौनव्रत का पालन कर रहे थे, यह सुनकर राजा परीक्षित का मन और भी शोक एवं संताप में डूब गया। शमीक मुनि की दयालुता और अपने द्वारा उनके प्रति किये हुए उस उपराध का विचार करके वे अधिकाधिक संतप्त होने लगे। देवतुल्य राजा परीक्षित को अपनी मृत्यु का शाप सुनकर वैसा संताप नहीं हुआ जैसा कि मुनि के प्रति किये हुए अपने उस बर्ताव को याद करके वे शोकमग्न हो रहे थे। तदनन्तर राजा ने यह संदेश देकर उस समय गौरमुख को विदा किया कि ‘भगवान शमीक मुनि यहाँ पधारकर पुनः मुझ पर कृपा करें। गौरमुख के चले जाने पर राजा ने उद्विग्नचित्त हो मन्त्रियों के साथ गुप्तमंत्रणा की। मन्त्र-तत्त्व के ज्ञाता महाराज ने मन्त्रियों से सलाह करके एक ऊँचा महल बनवाया; जिसमें एक ही खंभा लगा था। यह भवन सब ओर से सुरक्षित था। राजा ने वहाँ रक्षा के लिये आवश्यक प्रबन्ध किया, उन्होंने सब प्रकार की औषधियाँ जुटा लीं और वैद्यों तथा मन्त्रसिद्ध ब्राह्मणों के सब ओर नियुक्त कर दिया। वहीं रहकर वे धर्मज्ञ नरेश सब ओर से सुरक्षित हो मन्त्रियों के साथ सम्पूर्ण राज-कार्य की व्यवस्था करने लगे।

   उस समय महल में बैंठे हुए महाराज से कोई भी मिलने नहीं जाता था। वायु को भी वहाँ से निकल जाने पर पुनः प्रवेश के समय रोका जाता था। सातवाँ दिन आने पर मन्त्रशास्त्र के ज्ञाता द्विजश्रेष्ठ कश्यप राजा की चिकित्सा करने के लिये आ रहे थे। उन्होंने सुन रखा था कि ‘भूपशिरोमणि परीक्षित को आज नागों में श्रेष्ठ तक्षक यमलोक पहुँचा देगा। अतः उन्होंने सोचा कि नागराज के डँसे हुए महाराज का विष उतारकर मैं उन्हें जीवित कर दूँगा। ऐसा करने से वहाँ मुझे धन तो मिलेगा ही, लोकोपकारी राजा की जिलाने से धर्म भी होगा। मार्ग में नागराज तक्षक ने कश्यप को देखा। वे एकचित्त होकर हस्तिनापुर की ओर बढ़े जा रहे थे। तब नागराज ने बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर,,

 मुनिवर कश्यप से पूछा ;- ‘आप कहाँ बड़ी उतावली के साथ जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं। कश्यप ने कहा- कुरुकुल में उत्पन्न शत्रुदमन महाराज परीक्षित को आज नागराज तक्षक अपनी विपाग्नि से दग्ध कर देगा। वे राजा पाण्डवों की वंश परम्परा को सुरक्षित रखने वाले तथा अत्यन्त पराक्रमी हैं। अतः सौम्य! अग्नि के समान तेजस्वी नागराज के डँस लेने पर उन्हें तत्काल विष रहित करके जीवित कर देने के लिये मैं जल्दी-जल्दी जा रहा हूँ। 

तक्षक बोला ;- ब्रह्मन! मैं ही वह तक्षक हूँ। आज राजा को भस्म कर डालूँगा। आप लौट जाइये। मैं जिसे डँस लूँ, उसकी चिकित्सा आप नहीं कर सकते। 

कश्यप ने कहा ;- मैं तुम्हारे डँसे हुए राजा को वहाँ जाकर विष से रहित कर दूँगा। यह विद्याबल से सम्पन्न मेरी बुद्धि का निश्चय है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में कश्यपागमन-विषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

तैंतालिसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"तक्षक का धन देकर काश्यप को लौटा देना और छल से राजा परीक्षित के समीप पहुँचकर उन्हें डँसना"

तक्षक बोला ;- काश्यप! यदि इस जगत में मेरे डँसे हुए रोगी की कुछ भी चिकित्सा करने में तुम समर्थ हो तो मेरे डँसे हुए इस वृक्ष को जीवित कर दो। द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे पास जो उत्तम मन्त्र का बल है, उसे दिखाओ और यत्न करो। लो, तुम्हारे देखते-देखते इस वटवृ़क्ष को मैं भस्म कर देता हूँ। 

  काश्यप ने कहा ;- नागराज! यदि तुम्हें इतना अभिमान है तो इस वृक्ष को डँसोे। भुजंगम! तुम्हारे डँसे हुए इस वृक्ष को मैं अभी जीवित कर दूँगा। 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- महात्‍मा काश्यप के ऐसा कहने पर सर्पों में श्रेष्ठ नागराज तक्षक ने निकट जाकर बरगद के वृक्ष को डँस लिया। उस महाकाय विषधर सर्प के डँसते ही उसके विष से व्याप्त हो वह वृक्ष सब ओर से जल उठा। इस प्रकार उस वृक्ष को जलाकर नागराज पुनः 

काश्यप से बोला ;- ‘द्विजश्रेष्ठ! अब तुम यत्न करो और इस वृ़क्ष को जिला दो।' 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! नागराज के तेज से भस्म हुए उस वृ़क्ष की सारी भस्म राशि को एकत्र करके,,

 काश्यप ने कहा ;- ‘नागराज! इस वनस्पति पर आज मेरी विद्या का बल देखो। भुजंगमे! मैं तुम्हारे देखते-देखते इस वृ़क्ष को जीवित कर देता हूँ।' तदनन्तर सौभाग्यशाली विद्वान द्विजश्रेष्ठ काश्यप ने भस्म राशि के रूप में विद्यमान उस वृ़क्ष को विद्या के बल से जीवित कर दिया। पहले उन्होंने उसमें से अंकुर निकाला, फिर उसे दो पत्ते का कर दिया। इसी प्रकार क्रमशः पल्लव शाखाओं, प्रशाखाओं से युक्त उस महान वृक्ष को पुनः पूर्ववत खड़ा कर दिया।

महात्मा काश्यप द्वारा जलाये हुए उस वृक्ष को देखकर,,

 तक्षक ने कहा ;- ‘ब्राम्हन! तुम जैसे मन्त्रवेत्ता में ऐसे चमत्कार का होना कोई अद्भुत बात नहीं हैं। तपस्या के धनी द्विजेन्द्र! जब तुम मेरे या मेरे जैसे दूसरे सर्प के विष को अपनी विद्या के बल से नष्ट कर सकते हो तो बताओ, तुम कौन- सा प्रयोजन सिद्ध करने की इच्छा से वहाँ जा रहे हो। उस श्रेष्ठ राजा से जो फल प्राप्त करना तुम्हें अभीष्ट है, यह अत्यन्त दुर्लभ हो तो भी मैं ही तुम्हें दे दूँगा। विप्रवर! महाराज परीक्षित ब्राह्मण के शाप से तिरस्कृत हैं और उनकी आयु भी समाप्त हो चली है। ऐसी दशा में उन्हें जिलाने के लिये चेष्टा करने पर तुम्‍हें सिद्धि प्राप्त होगी, इसमें संदेह है। यदि तुम सफल न हुए तो तीनों लोकों में विख्यात एवं प्रकाशित तुम्हारा यश किरणरहित सूर्य के समान इस लोक से अदृश्य हो जायेगा।' 

 काश्यप ने कहा ;- नागराज तक्षक! मैं तो वहाँ धन के लिये ही जाता हूँ, वह तुम्हीं मुझे दे दो तो उस धन को लेकर मैं घर लौट जाऊंगा। 

  तक्षक बोला ;- द्विजश्रेष्ठ! तुम राजा परीक्षित से जितना धन पाना चाहते हो, उससे अधिक मैं ही दे दूँगा, अतः लौट जाओ। 

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तक्षक की बात सुनकर परम बुद्धिमान महातेजस्वी विप्रवर काश्यप ने परीक्षित के विषय में कुछ देर ध्यान लगाकर सोचा। तेजस्वी काश्यप दिव्यज्ञान से सम्पन्न थे। उस समय उन्होंने जान लिया कि पाण्डववंशी राजा परीक्षित की आयु अब समाप्त हो गयी है, अतः वे मुनिश्रेष्ठ तक्षक से अपनी रुचि के अनुसार धन लेकर वहाँ से लौट गये। महात्मा काश्यप के समय रहते लौट जाने पर तक्षक तुरंत हस्तिनापुर नगर में जा पहुँचा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद)

वहाँ जाने पर उसने सुना, राजा परीक्षित की मन्त्रों तथा विष उतारने वाली औषधियों द्वारा प्रयत्नपूर्वक रक्षा की जा रही है। 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! तब तक्षक ने विचार किया, मुझे माया का आश्रय लेकर राजा को ठग लेना चाहिये; किंतु इसके लिये क्या उपाय हो? तदनन्तर तक्षक नाग ने फल, दर्भ (कुशा) और जल लेकर कुछ नागों को तपस्वी रूप में राजा के पास जाने की आज्ञा दी। 

  तक्षक ने कहा ;- तुम लोग कार्य की सफलता के लिये राजा के पास जाओ, किंतु तनिक भी व्यग्र न होना। तुम्हारे जाने का उददेश्य है- महाराज को फल, फूल और जल भेंट करना। 

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तक्षक के आदेश देने पर उन नागों ने वैसा ही किया। वे राजा के पास कुश, जल और फल लेकर गये। परमपराक्रमी महाराज परीक्षित ने उनकी दी हुई वे सब वस्तुएँ ग्रहण कर लीं। तदनन्तर उन्हें पारितोषिक देने आदि का कार्य करके,,

 महाराज परीक्षित ने कहा ;- ‘अब आप लोग जायें।’ तपस्वियों के वेष में छिपे हुए उन नागों के चले जाने पर राजा ने अपने मन्त्रियों और सुहृदों से कहा- ‘ये सब तपस्वियों द्वारा लाये हुए बड़े स्वादिष्ठ फल हैं। इन्हें मेरे साथ आप लोग भी खायें।’

  ऐसा कहकर मन्त्रियों सहित राजा ने उन फलों को लेने की इच्छा की। विधाता के विधान एवं महर्षि के वचन से प्रेरित होकर राजा ने वही फल स्वयं खाया, जिस पर तक्षक नाग बैठा था। शौनक जी! खाते समय राजा के हाथ में जो फल था, उससे एक छोटा-सा कीट प्रकट हुआ। देखने में वह अत्यन्त लघु था, उसकी आँखें काली और शरीर का रंग ताँबे के समान था। 

नृपश्रेष्ठ परीक्षित ने उस कीडे़ को हाथ में लेकर,,

 मन्त्रियों से इस प्रकार कहा ;- ‘अब सूर्यदेव अस्ताचल को जा रहे हैं; इसलिये इस समय मुझे सर्प के विष से कोई भय नहीं है। वे मुनि सत्यवादी हों, इसके लिये यह कीट ही तक्षक नाम धारण करके मुझे डँस ले। ऐसा करने से मेरे दोष का परिहार हो जायेगा। काल से प्रेरित होकर मन्त्रियों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी। मन्त्रियों से पूर्वोक्त बात कहकर राजाधिराज परीक्षित उस लघु कीट को कंधे पर रखकर जोर-जोर से हँसने लगे। वे तत्काल ही मरने वाले थे; अतः उनकी बुद्धि मारी गयी थी। राजा अभी हँस ही रहे थे कि उन्हें जो निवेदित किया गया था उस फल से निकलकर तक्षक नाग ने अपने शरीर से उनको जकड़ लिया। इस प्रकार वेगपूर्वक उनके शरीर में लिपटकर नागराज तक्षक ने बड़े जोर से गर्जना की और भूपाल परीक्षित को डँस लिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में तक्षक-दंशन-विषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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चौवालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुश्‍वत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"जनमेजय का राज्याभिषेक और विवाह"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! मन्त्रीगण राजा परीक्षित को तक्षक नाग से जकड़ा हुआ देख अत्यन्त दुखी हो गये। उनके मुख पर विषाद छा गया और वे सब-के-सब रोने लगे। तक्षक की फुंकार भरी गर्जना सुनकर मन्त्री लोग भाग चले। उन्होंने देखा लाल कमल की- सी का‍न्ति वाला वह अद्भुत भाग आकाश में सिन्दूर की रेखा सी खींचता हुआ चला जा रहा हैं। नागों में श्रेष्ठ तक्षक को इस प्रकार जाते देख वे राजमन्त्री अत्यन्त शोक में डूब गये। वह राजमहल सर्प के विषजनित अग्नि से आवृत हो धू-धू करके जलने लगा। यह देख उन सब मन्त्रियों ने भय से उस स्थान को छोड़कर भिन्न-भिन्न दिशाओं की शरण ली तथा राजा परीक्षित वज्र के मारे हुए की भाँति धरती पर गिर पड़े। तक्षक की विषाग्नि द्वारा राजा परीक्षित के दग्ध हो जाने पर उनकी समस्त पारलौकिक क्रियाएँ करके पवित्र ब्राह्मण राजपुरोहित, उन महाराज के मन्त्री तथा समस्त पुरवासी मनुष्यों ने मिलकर उन्हीं के पुत्र को, जिसकी अवस्था अभी बहुत छोटी थी, राजा बना दिया।

  कुरुकुल का वह श्रेष्ठ वीर अपने शत्रुओं का विनाश करने वाला था। लोग उसे राजा जनमेजय कहते थे। बचपन में ही नृपश्रेष्ठ जनमेजय की बुद्धि श्रेष्ठ पुरुषों के समान थी। अपने वीर पितामह महाराज युधिष्ठिर की भाँति कुरुश्रेष्ठ वीरों के अग्रगण्य जनमेजय भी उस समय मंत्री और पुरोहितों के साथ धर्मपूर्वक राज्य का पालन करने लगे। राजमन्त्रियों ने देखा, राजा जनमेजय शत्रुओं को दबाने में समर्थ हो गये हैं, तब उन्होंने काशिराज सुवर्णवर्मा के पास जाकर उनकी पुत्री वपुष्टमा के लिये याचना की। काशिराज ने धर्म की दृष्टि से भली-भाँति जाँच पड़ताल करके अपनी कन्या वपुष्टमा का विवाह कुरुकुल के श्रेष्ठ वीर जनमेजय के साथ कर दिया। जनमेजय ने भी वपुष्टमा को पाकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव किया और दूसरी स्त्रियों की ओर कभी अपने मन को नहीं जाने दिया। राजाओं में श्रेष्ठ महापराक्रमी जनमेजय ने प्रसन्नचित होकर सरोवरों तथा पुष्पशोभित उपवनों में रानी वपुष्टमा के साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे पूर्वकाल में उर्वशी को पाकर महाराज पुरूरवा ने किया था। वपुष्टमा पतिव्रता थी। उसका रूपसौन्दर्य सर्वत्र विख्यात था। वह राजा के अन्तःपुर में सबसे सुन्दर रमणी थी। राजा जनमेजय को पतिरूप में प्राप्त करके वह विहारकाल में बड़े अनुराग के साथ उन्हें आनन्द प्रदान करती थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में जनमेजय-राज्याभिषेक-विषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

पैंतालिसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"जरत्कारु को अपने पितरों का दर्शन और उनसे वार्तालाप"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- इन्हीं दिनों की बात है, महातपस्वी जरत्कारु मुनि सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। जहाँ सायंकाल हो जाता, वहीं वे ठहर जाते थे। उन महातेजस्वी महर्षि ने ऐसे कठोर नियमों की दीक्षा ले रखी थी, जिनका पालन करना दूसरे अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये सर्वथा कठिन था। वे पवित्र तीर्थों में स्नान करते हुए विचर रहे थे। वे मुनि वायु पीते और निराहार रहते थे; इसलिये दिन पर दिन सूखते चले जाते थे। एक दिन उन्होंने पितरों को देखा, जो नीचे मुँह किये एक गड्ढे में लटक रहे थे। उन्होंने खश नामक तिनकों के समूह को पकड़ रखा था, जिसकी जड़ में केवल एक तन्तु बच गया था। उस बचे हुए तन्तु को भी वहीं बिल में रहने वाला एक चूहा धीरे-धीरे खा रहा था। वे पितर निराहार, दीन और दुर्बल हो गये थे और चाहते थे कि कोई हमें इस गड्ढे में गिरने से बचा ले। जरत्कारु उनकी दयनीय दशा देखकर दया से द्रवित हो स्वयं भी दीन हो गये और उन दीन-दुखी पितरों के समीप जाकर,,

जरत्कारु मुनि बोले ;- ‘आप लोग कौन हैं जो खश के गुच्छे के सहारे लटक रहे हैं? इस खश की जड़ें यहाँ बिल में रहने वाले चूहे ने खा डाली हैं, इसलिये यह बहुत कमज़ोर हैं। खश के इस गुच्छे में जो मूल का एक तन्तु यहाँ बचा है, उसे भी यह चूहा अपने तीखे दाँतो से धीरे-धीरे कुतर रहा है। उसका स्वल्प भाग शेष है, वह भी बात-की-बात में कट जायेगा। फिर तो आप लोग नीचे मुँह किये निश्चय ही इस गड्ढे़ में गिर जायेंगे।

  आपको इस प्रकार नीचे मुँह किये लटकते देख मेरे मन में बड़ा दुःख हो रहा हैं। आप लोग बड़ी कठिन विपत्ति में पड़े हैं। मैं आप लोगों का कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? आप लोग मेरी इस तपस्या के चौथे, तीसरे अथवा आधे भाग के द्वारा भी इस विपत्ति से बचाये जा सकें तो शीघ्र बतलावें। अथवा मेरी सारी तपस्या के द्वारा भी यदि आप सभी लोग यहाँ इस संकट से पार हो सकें तो भले ही ऐसा कर लें।' 

पितरों ने कहा ;- विप्रवर! आप बूढ़े ब्रह्मचारी हैं, जो यहाँ हमारी रक्षा करना चाहते हैं; किंतु हमारा संकट तपस्या से नहीं टाला जा सकता। तात! तपस्या का बल तो हमारे पास भी है। वक्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण! हम तो वंशपम्परा का विच्छेद होने के कारण अपवित्र नरक में गिर रहे हैं। ब्रह्मा जी का वचन है कि संतान ही सबसे उत्कृष्ट धर्म है। तात! यहाँ लटकते हुए हम लोगों की सुध-बुध प्रायः खो गयी है, हमें कुछ ज्ञात नहीं होता। इसीलिये लोक में विख्यात पौरुष वाले आप जैसे महापुरुष को हम पहचान नहीं पा रहे हैं। आप कोई महान सौभाग्यशाली महापुरुष हैं, जो अत्यन्त दुःख में पड़े हुए हम जैसे शोचनीय प्राणियों के लिये करुणावश शोक कर रहे हैं। ब्रह्मन! हम लोग कौन हैं इसका परिचय देते हैं, सुनिये। हम अत्यन्त कठोर व्रत का पालन करने वाले यायावर नामक महर्षि हैं। मुने! वंशपरम्परा का क्षय होने के कारण हमें पुण्यलोक से भ्रष्ट होना पड़ा है। हमारी तीव्र तपस्या नष्ट हो गयी; क्योंकि हमारे कुल में अब कोई संतति नहीं रह गयी है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)

   आजकल हमारी परम्परा में एक ही तन्तु या संतति शेष है, किंतु वह भी नहीं के बराबर है। हम अल्पभाग्य हैं, इसी से वह मन्दभाग्य संतति एकमात्र तप में लगी हुई है। उसका नाम है जरत्कारु। वह वेद-वेदागों का पारंगत विद्वान होने के साथ ही मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, महात्मा, उत्तम व्रत का पालन और महान तपस्वी है। उसने तपस्या के लोभ से हमें संकट में डाल दिया है। उसके न पत्नी है, न पुत्र और न कोई भाई-बन्धु ही है। इसी से हम लोग अपनी सुध-बुध खोकर अनाथ की तरह इस गड्ढे में लटक रहे हैं। यदि वह आपके देखने में आवे तो हम अनाथों को सनाथ करने के लिये उससे इस प्रकार कहियेगा। ‘जरत्कारो! तुम्हारे पितर अत्यन्त दीन हो नीचे मुँह करके गड्ढे में लटक रहे हैं। तुम उत्तम रीति से पत्नी के साथ विवाह कर लो और उसके द्वारा संतान उत्पन्न करो। तपोधन! तुम्हीं अपने पूर्वजों के कुल में एकमात्र तन्तु बच रहे हो। ब्रह्मन! आप जो हमें खश के गुच्छे का सहारा लेकर लटकते देख रहे हैं, यह खश का गुच्छा नहीं है, हमारे कुल का आश्रय है, जो अपने कुल को बढ़ाने वाला है। विप्रवर! इस खश की जो कटी हुई जड़ें यहाँ आपकी दृष्टि में आ रही हैं, ये ही हमारे वंश के वे तन्तु (संतान) हैं, जिन्हें कालरूपी चूहे ने खा लिया है। ब्राह्मण! आप जो इस खश की यह अधकटी जड़ देखते हैं, जिसके सहारे हम गड्डे में लटक रहे हैं, यह वही एकमात्र संतान जरत्कारु है, जो तपस्या में लगा है और ब्राह्मण देवता! जिसे आप चूहे के रूप में देख रहे हैं, यह महाबली काल है।

   वह उस तपस्वी एवं मूढ़ जरत्कारु को जो तप को ही लाभ मानने वाला, मन्दात्मा (अदूरदर्शी) और अचेत (जड़) हो रहा है, धीरे-धीरे पीड़ा देते हुए दाँतों से काट रहा है। साधुशिरोमणे! उस जरत्कारु की तपस्या हमें इस संकट से नहीं उबारेगी। देखिये, हमारी जड़ें कट गयी हैं, काल ने हमारी चेतनाशक्ति नष्ट कर दी है और हम अपने स्थान से भ्रष्ट होकर नीचे इस गड्ढे में गिर रहे हैं। जैसे पापियों की दुर्गति होती है, वैसे ही हमारी होती है। हम समस्त बन्धु-बन्धुवों के साथ जब इस गड्ढे में गिर जायेंगे तब जरत्कारु भी काल का ग्रास बनकर अवश्य ही इसी नरक में आ गिरेगा। तात! तपस्या, यज्ञ अथवा अन्य जो महान एवं पवित्र साधन हैं, वे सब संतान के समान नहीं हैं। तात! आप तपस्या के धनी जान पड़ते हैं। आपको तपस्वी जरत्कारु मिल जाये तो उससे हमारा संदेश कहियेगा और आपने यहाँ जो कुछ देखा है, वह सब उसे बता दीजियेगा। ब्रह्मन! हमें सनाथ बनाने की दृष्टि से आप जरत्कारु के साथ इस प्रकार वार्तालाप कीजियेगा, जिससे वह पत्नी संग्रह करे और उसके द्वारा पुत्रों को जन्म दे। तात! जरत्कारु के बान्धव जो हम लोग हैं, हमारे लिये अपने कुल की भाँति अपने भाई-बन्धु के समान आप सोच कर रहे हैं। अतः साधुशिरोमणे! बताइयेे, आप कौन हैं? हम सब लोगों में से आप किसके क्या लगते हैं, जो यहाँ खडे़ हुए हैं? हम आपका परिचय सुनना चाहते हैं।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में जरत्कारु के पितर-दर्शनविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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